23 आज बाजार बन्द है

गंगा सहाय मीणा and महेन्द्र मीणा

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  1. पाठकाउद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप-

  • वेश्यावृत्ति की समस्या समझ सकेंगे।
  • वेश्यावृत्ति के मूल कारणों के साथ धार्मिक-सामाजिक परम्पराओं के विश्‍लेषण में सक्षम हो पाएँगे।
  • वेश्या जीवन के सन्दर्भ में लेखक के विचारों से रूबरू हो सकेंगे।
  • वेश्याओं के प्रति भारतीय समाज के बर्ताव एवं वेश्याओं के मनोभावों को समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   हिन्दी साहित्य में वेश्या जीवन को लेकर विस्तृत साहित्य लिखा गया है। उपन्यास विधा के अन्तर्गत पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने शराबी, निराला ने अलका, धनीराम प्रेम ने वेश्या का हृदय, ऋषभचरण जैन ने वेश्यापुत्र, दिल्ली के व्यभिचार, प्रेमचन्द ने सेवासदन, मिर्जा हादी रुस्वा ने उमराव जान अदा, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित ने मुर्दाघर  जैसी प्रसिद्ध कृतियों में वेश्या-जीवन का चित्रण किया। शुरुआती उपन्यासों में वेश्याओं को समाज का कलंक बताते हुए किसी न किसी आदर्श को स्थापित करने का प्रयास किया गया है। इन उपन्यासों में ‘प्रेमविवाह’ और ‘आश्रमों’ की स्थापना के माध्यम से वेश्यावृत्ति की समस्या का हल खोजा गया है। समकालीन उपन्यासों में आदर्श की जगह यथार्थ का चित्रण करते हुए समस्या का हल पाठक की समझ पर छोड़ दिया जाता है। मोहनदास नैमिशराय कृत आज बाज़ार बन्द है  वेश्या जीवन को लेकर लिखा गया महत्त्वपूर्ण उपन्यास है।

 

इस उपन्यास की प्रस्तावना में लेखक  लिखते हैं कि “कुछ लेखक/कथाकारों ने तो बहुत करीब से उनके दुख-दर्दों को देखा और समझा हुआ है। बावजूद इसके उनके जीवन की विभिन्‍न परिस्थितियों पर नये सिरे से लिखने की आवश्यकता थी।… किताबों में वेश्याओं को ग्लैमराइज्ड करके प्रस्तुत करने की परम्परा रही है।… अधिकांश के पास ऐसे अनुभव भी नहीं हैं। रचनाधर्मिता में शार्टकट अपनाने का भी एक कारण है।” (पृ. 5) अर्थात लेखक मानते हैं कि अब तक के लेखन में वेश्याओं पर वैसा उपन्यास नहीं आया, जो उनका सही चित्रण कर सके, जिसका प्रयास वे उपन्यास में करते हैं।

 

मोहनदास नैमिशराय का मानना है कि देश के महापुरुषों (गाँधी) ने भी ऐसा प्रयास नहीं किया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने ही उनकी व्यथा को सही रूप में समझा। वे लिखते हैं कि “राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी कभी ऐसा प्रयास नहीं किया। उनके अनुयायी भजन-कीर्तन करते हुए उन्हें भोगते रहे।” मोहनदास नैमिशराय ने यहाँ गाँधीजी और उनके अनुयायियों परबड़ा कड़ा आक्षेप लगाया है। इसका कारण लेखक का दलित जीवन और डॉ. अम्बेडकर के प्रति झुकाव हो सकता है। जिसका संकेत उपन्यास में वेश्या के घर की दीवार पर लगे ‘अम्बेडकर के चित्र’ के माध्यम से भी देते हैं। वे प्रस्तावना में 16 जून 1936 में वेश्याओं के बीच बाबा साहेब के उस भाषण का जिक्र करते हैं, जिसमें वे वेश्याओं को अपने साथ धर्म परिवर्तन करने और शादी कर सामान्य जीवन जीने की सलाह देते हैं। शायद इसी के अनुरूप लेखक अपने उपन्यास की प्रमुख वेश्या पात्र पार्वती की शादी पत्रकार सुमित के साथ करवाते हैं। पर वेश्याओं के साथ इस तरह प्रेम-विवाह के चित्रण तो ‘उग्र’ के शराबी, निराला के अलका और धनीराम प्रेम के वेश्या का हृदय  जैसे उपन्यासों में भी है। मोहनदास नैमिशराय ‘देवदासी प्रथा’, जो एक तरह से वेश्यावृत्ति से सम्बन्धित हिन्दू धर्म की परम्परा के रूप में थी, पर सवाल उठाते हैं कि क्यों देवदासी सिर्फ दलित समाज से ही आती है? दलित चेतना के साथ धार्मिक कुप्रथाओं को रेखांकित करने और वेश्या जीवन की समस्त विडम्बनाओं को प्रस्तुत करने का प्रयास मोहनदास नैमिशराय अपने इस उपन्यास के माध्यम से करते हैं।

  1. आजबाज़ारबन्द है

   आज बाज़ार बन्द है  उपन्यास की कथावस्तु मूलतः वेश्याओं के आचार-विचार और दैनिक चर्या को रेखांकित करती हुई, उन कारकों को चिह्नित करती है, जो वेश्यावृत्ति के केन्द्र में है। उपन्यास की शुरुआत होती है ‘रण्डियों’ द्वारा थाने पर किए गए पथराव के बाद होने वाली प्रेस कान्फ्रेंस से; जहाँ पत्रकारों और पुलिस की अपने-अपने ‘धन्धे’ की नोंक-झोंक है और लेखक की अपनी आवश्यक व्याख्या। उन्होंने जिस साहित्यिक लहजे में वेश्या बाज़ार का चित्रण किया है, वह काबिले तारीफ है – “शहर के भीतर एक अलग शहर, जहाँ बारूद पिघलाने का कार्य बखूबी किया जाता था, जितना, जितना बारूद पिघलती, उतना ही वह शहर तड़कता-भड़कता था। इस बाज़ार में नीचे पानी बिकता था और ऊपर आग। आग घोसलों में सुरक्षित थी। घोसले जलते न थे। वहाँ कुछ और ही जलता-पिघलता था और पिघलते हुए आस-पास बहता था। लोग आते और इस तूफानी नदी में डुबकी लगा कर चले जाते। यहाँ गंगा भी थी और यमुना भी। उनमें ऐसी मदमस्त हिलोरें थीं जो किनारे पर बैठे किसी को भी बेचैन करने के लिए काफी होती है।” (पृ. 18-19) यहाँ बारूद का पिघलना प्रतीत होता है, क्योंकि बारूद सब कुछ जला देती है, पर यहाँ बारूद उस वासना की प्रतीक है, जो वेश्याओं के पास आने वाले ग्राहकों में होती है, जिनके पैसे के दम से ये वेश्यालय चलते है। वासना की इस नदी में डुबकी लगाकर वे अपनी वासना को शान्त करने का प्रयास करते हैं।

 

हमारी संस्कृति में गंगा-जमुना नदियों का प्राचीन काल से महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है और यह धार्मिक अन्धविश्‍वास है कि इनमें ‘डुबकी’ लगाने पर आपके सारे पाप कट जाते है। इसलिए शायद लोगों को पाप का इतना डर भी नहीं; जब उसका समाधान है, तो डर कैसा? और पाप-पुण्य के इसी आडम्बर को रेखांकित करते हुए लेखक आगे लिखते हैं-“इधर वेश्याओं के बाज़ार, उधर नदियों के पवित्र घाट। इधर पाप करो, उधर जाकर पुण्य कमाओं।” (पृ. 19) पाप-पुण्य की यह अवधारणा जिस बलबूते पर फूलती है, उसकी जड़ में वह ब्राह्मणवाद होता है, जिसके द्वारा तथाकथित परजीवी सवर्ण लोग अपने आर्थिक हितों की पूर्ति करते हैं।

 

हर वस्तु बाजारू है, उसका मूल्य उसके ‘अर्थ’ पर निर्भर है,यहाँ देह भी एक वस्तु है, उसकी आर्थिक उपयोगिता है। वह बेची जा सकती है। उस देह में उपस्थित मनोभावों, विचारों और मन का कोई मोल नहीं। अर्थ किस तरह धर्म पर हावी हो जाता है, इसका उदाहरण आपके सामने है। उपन्यास में जब पत्रकार लाला से वेश्याओं को मकान किराये पर देने को लेकर सवाल करते हैं, तो जबाव मिलता है –“हाँ मकान तो म्हारा ही है, पर अब वहाँ दाग ही दाग है।” कितना भी गंगाजल से धोया जाए, कोई फायदा नहीं। पहली पंक्ति पढ़ते ही अनायास कबीर याद आ जाते है-‘लागा चुनरी में दाग मिटाऊँ कैसे।’ लेकिन इस दाग का इलाज भी गंगाजल सामने है, पर दाग फिर भी नहीं छूटता? क्यों? जब गंगाजल सारे पापों को काट सकता है, तो इसे क्यों नहीं? जवाब आगे की पंक्तियों में मिलता है- “भईया, घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या?”

 

पत्रकारों की टोली जब वेश्यालयों में साक्षात्कार हेतु जाती है, तो उन्हें जिस तरह की भाषा व्यंग्य और विद्रूप कटाक्षों का सामना करना पड़ता है, वह यहाँ फूहड़ लग सकती है, परन्तु उसमें दर्द भी है, सामाजिक परम्पराओं के प्रति आक्रोश भी, अपनी असहाय स्थिति का रोना भी और साथ छिपी होती है पुरानी यादों की कड़वाहट। परन्तु एक बात साफ है; जिस बेबाकीपन के साथ वे उत्तर देती है उनमें सचाई का आईना है। जब पत्रकार पूछते हैं, कैसा लगता है नया शहर? तो जवाब मिलता है – “नई ससुराल की तरह। हर रंगत में मरद आते हैं, तपाते हैं, सताते हैं और तड़पते हुए छोड़ जाते हैं स्साले।” (पृ. 28)

 

जब पत्रकार उनसे ये पेशा छोड़ने को कहते हैं, तो जवाब आता है, जो सोचने को मजबूर कर देता है – “कौन नहीं बेच रहा अपने आपको? हम तो केवल अपना जिस्म ही बेचते हैं। लोग तो अपने जमीर को, अपने देश को बेच रहे हैं।”

 

जब इस ‘बिकाऊ संस्कृति’ ने हर चीज को बाज़ार में तब्दील कर दिया तब शरीर बेचना भी देश बेचने से बड़ा जुर्म नहीं है। और पेट की भूख मिटाने के लिए अपने आपको बेचना, अपनी देह को बेचना उतना बड़ा अपराध नहीं, जितना लोग तिजोरी भरने के लिए अपने जमीर या देश को बेच देते हैं। हर रोज भ्रष्टाचार, लूट आदि की घटनाओं से अखबार पटे रहते हैं। मोहनदास नैमिशराय ने इन छोटे-छोटे वाक्यों के माध्यम से इस बाज़ारू संस्कृति की नब्ज को भी इस उपन्यास में पकड़ा है।आगे चलकर मोहनदास नैमिशराय वेश्यावृत्ति के जिन कारणों की पड़ताल इस उपन्यास में करते हैं, उसमें देवदासी प्रथा का जिक्र मुख्य रूप में है। देवदासीशब्द का पहला प्रयोग कौटिल्य के अर्थशास्‍त्र के साथ मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण एवं अम्या धार्मिक ग्रन्थों में मिलता है।

 

धर्म की आड़ में अधर्म – अफजल खान (http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com)इस लेख में उल्लेख है कि भारत में सबसे पहले देवदासी प्रथा के अन्तर्गत धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण को संस्थागत रूप दिया गया। कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लया देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पूर्णिमा जिसे ‘रण्डी पूर्णिमा’ कहते हैं, के दिन किशोरियों को देवदासियाँ बनाया जाता है। कालिदास के मेघदूत में भी मन्दिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुँआरी कन्याओं का वर्णन मिलता है, राजतरंगिनी, कथासरित सागर जैसी साहित्यिक रचनाओं में ‘देवदासी’ शब्द का प्रयोग हुआ है। बौद्ध धर्म साधना और कैथोलिक चर्चों मेंनन के रूप में चिरकुमारियों के नाम से देवदासी प्रथा का प्रचलन किसी न किसी रूप में रहा ही है।

 

पर सबसे बड़ी बात यह है कि ये सारी देवदासियाँ दलित वर्ग से ही सम्बर्द्धित होती है। According to National Commission of women – “More then 2.5 lakh girls who are dedicated to temples in Maharashtra-Karnataka borders are all from Dalit Communites. President of Ex-National Alliance of women Dr.Ruth Manorama called Devdasi system an organized crimeagainstDalitWomen.(http://www.newindianexpress.com/cities/bengaluru/article1422382.ece) and another fact is that about 95.2 percent of the Devdasi have children. However more than 95 percent of the Devdasi with children could not register the names of the patrons in school admission records. (http://infochangeindi.org/women/news/thousand of dalit women are victims of devdasi system.)” According the human rights activists as many as 15,000 girls in rural areas are still dedicated to God each year. (Becoming a servant of God, Devdasis are Dalit women sold in to sexual slavery. Is this the end of a cruel Tradition? http://www.hastfordwp.com/archives/s2a/013.html)

 

‘देवदासी’ बनाए जाने के पीछे की साजिशों और छिपे उद्देश्यों को मोहनदास नैमिशराय जी ने अच्छी तरह व्यक्त किया है। पार्वती नामक वेश्या का परिचय देती हुई शबनम बाई बताती हैं – “यह पार्वती है, बिना शिव की पार्वती, शिव ने पहले इसे मन्दिर में बैठा कर देवदासी बनाया, फिर मन्दिर से चकले में भेज दिया। अब रात में काले चोर के रूप में देवता आते हैं और इस देवी को भोगते है।” (पृ. 330) व्यंग्य की तिरछी कटार पाठक के मस्तिष्क को झकझोर देती है। आगे देवदासी बनाए जाने के कारणों की चर्चा नैमिशराय जी करते है – “वह क्यों देवदासी बनी? वह अपनी मर्जी से कहाँ बनी देवदासी? उसे तो बस बना दिया था देवदासी, नहीं भोगदासी। उस समय उसके भीतर उतनी समझ भी कहाँ थी? नरक की क्रूरता और स्वर्ग की सतरंगी कल्पना से सराबोर रहती थी। जिस मन्दिर में उनकी जाति के लोगों का प्रवेश नहीं, उसी में पूजा-पाठ, कीर्तन, भजन, नृत्य अच्छा लगता था। रूप, रस, गन्ध इन सबसे प्रभावित भी था। शिव-पार्वती के प्रणय को उन्मुक्त।” “देवदासी कोई भी रखे, देवता कुपित नहीं होते थे। पर दलित समाज की कोई लड़की देवदासी न बने तो वे नाराज हो जाते थे।” (पृ. 90-91) देवदासी अनुष्ठान धार्मिक उत्सव की तरह मनाए जाते हैं। गरीबी, धार्मिक अन्धविश्‍वास, उच्‍चवर्गों द्वारा दलितों को दबाए रखने की प्रवृत्ति इस प्रथा के मूल में भी है, जिसे नैमिशराय ने व्यक्त किया।

 

वेश्यावृत्ति के अन्य कारणों में युवावस्था में आने वाले भटकाव, अनाथालयों में होने वाले शारीरिक और मानसिक शोषण, दलालों के चंगुल में फँसी लड़कियाँ, सामाजिक अवमानना की शिकार महिलाओं के अलावा जबरन इस धन्धे में धकेल दी गई महिलाएँ होती हैं। इन सभी का जिक्र मोहनदास नैमिशराय  ने किया है।

 

शबनमबाई एक हिन्दू वेश्या है जो पूर्व में किसी मुस्लिम नवाबजादे के प्रेम जाल में फंस गई। उसके छोड़ देने पर एम.ए. पास शबनमबाई पी.एच.डी. के ख्वाब को पूरा करने की जगह वेश्या बनने को मजबूर हो गई। अनाथालय में पली-बढ़ी हसीना और मुमताज अनाथालय में और चकले में कोई फर्क महसूस नहीं कर पाती। उनके लिए फर्क इतना है कि वहाँ सरकारी ग्राहक होते हैं और यहाँ प्राइवेट। मुमताज, फूल आदि जितनी भी वेश्या हैं, सबकी कहानी में यही राग मिलता है।

 

पुलिस और सरकारी अधिकारियों के अलावा नेताओं की कारगुजारी भी वेश्यावृत्ति के कारणों में प्रमुख है। पुलिस की ‘माहवारी/हफ्ता’, अफसरों का कान्ट्रेक्ट और पक्ष-विपक्ष के नेताओं का वेश्याओं के बिना काम हो ही नहीं पाता। मोहनदास नैमिशराय हमारे इस सामाजिक पतन को भी उजागर करते हैं।

 

मोहनदास नैमिशराय ने देह व्यापार का जो चित्रण किया है वह निराला है – “परिचय में ढलता सूरज कहता। सज-सँवर कर तैयार हो जाओ। ग्राहक भटकने, फिसलने आने लगे हैं। हर मौसम में उनका एक जैसा मिजाज रहता था। वे सीलती नहीं थी, हमेशा दहकने में उनकी बेहतरी थी। वे तड़कती-भड़कती औरतें थीं; माँ, बहन और बेटियाँ नहीं थीं, सिर्फ रण्डिया थीं। अपनी-अपनी खाइयों और खन्दकों से ग्राहक हमलावर बनकर आते और उन्हें रौंदते चले जाते।” (पृ. 42-43)

 

अगर यहाँ वाक्य रचना या शब्दों के मिजाज को देखा जाए तो एक कुशल शिल्पकार की तरह उन्होंने अपनी रचना में कोई कसर नहीं छोड़ी। वेश्याओं का ‘शील’ जाना वेश्याओं के लिए सही नहीं, उनका ‘दहकना’ ही उनके धन्धे का मूल मन्त्र है। ग्राहक हमेशा तड़कते-भड़कते जिस्म की ही कीमत देता है। खाइयों और खन्दकों से ग्राहकों का आना, उनके अमानवीय स्वरूप को उजागर करता है। मनुष्य अपने घरों में रहता है खाई और खन्दक में नहीं। वहाँ खूँखार जानवर ही रहते हैं। ऐसे में संकेत देकर लेखक ने उनकी तुलना जानवरों से की है।

 

वेश्यालयों के चित्रण के समय वहाँ के माहौल का रेखांकन लेखक ने किया है।वहाँ आने वाले ग्राहकों का मिजाज, वेश्याओं की मजबूरी, उनकी ईमानदारी पारिवारिक जिम्मेदारी सभी को अच्छी तरह पिरोया है। वेश्याएँ जानती हैं कि “पल भर में रानी कहकर सिर पर बैठा लेता है पुरुष और पल भर में रण्डी कहकर औकात दिखा देता है।” “कोठों पर बन्द दरवाजा खटखटाने का अर्थ था वहाँ रह रही… के जिस्मों पर दस्तक।” कोठा औरत के सिमटने के लिए नहीं होता। खुलने के लिए होता है।

 

कहानी में बदलाव आता है, जब शहर में दंगा भड़क उठता है। अचानक माहौल में सन्नाटा पसर जाता है। और उसी सन्नाटे को चीरकर कहानी का नायक सुमित प्रकट होता है। दंगे की हालत में बदहवास अपनी जान बचाने के लिए अनजाने में कोठा तक का रास्ता तय कर लेता है। सुमित पेशे से पत्रकार और इस शहर में अजनबी है। वह नजदीक से वेश्याओं के जीवन का अवलोकन करता है और महसूस करता है कि “भारतीय समाज में जैसा आम परिवारों में होता है, वैसा ही पुरुषहीन इस परिवार में।” एक अपनापन का भाव उसे महसूस होता है, उसका मन वेश्याओं की नियति पर स्वयं को कचोटता रहता है। वह उन्हें मुक्ति दिलाना चाहता है, जिसके लिए जरूरी है वेश्याओं के अन्तर्गत चेतना का विकास। अपनी नियति का जूडा उतार-फेंकने की लालसा। और यह इच्छा-शक्ति वह पार्वती नामक वेश्या में जगाता है, और धीरे-धीरे सभी वेश्याएँ उनका अनुसरण करने लगती है।

 

यहाँ कहानी का ढाँचा आदर्शवादी होने लगता है। लक्ष्मी नामक वेश्या से सुमित द्वारा प्रेम-विवाह कर घर बसाने का प्रस्ताव, एक आम जिन्दगी जीने का सपना, आदर्शवादी विचार की ही अभिव्यक्ति है। इस विचार की भावनात्मक जमीन तो है, पर यह पुख्ता वैचारिक आधार नहीं है। क्योंकि सभी वेश्याओं द्वारा ऐसा किया जाना सम्भव नहीं है। हाँ एक लक्ष्मी तो वेश्यावृत्ति से छुटकारा पा सकती है पर वेश्यावृत्ति की समस्या का पूर्ण हल नहीं, जिसे दूसरी वेश्याएँ भी अपना सके।

 

सुमित वेश्याओं के अन्दर आत्म-सम्मान की लौ जगाता है। पर उसका आधार लेखक भावनात्मक ही बताता है। क्या यह भारतीय समाज, जो धार्मिक व्यभिचारों से लिप्त, सामाजिक रूप से सड़ा हुआ और पितृसत्तात्मक सोच से सराबोर समाज है, में ऐसा कर पाना सम्भव है? एक सुमित एक वेश्या से शादी कर उसका जीवन सुधार सकता है, पर क्या यहाँ वैसे सुमित और हैं?

 

वेश्याओं की दशा से सुधार और मुक्ति के लिए चाहिए समाज की सोच में व्यापक बदलाव, आज जब पूँजीवादी व्यवस्था की हर चीज औरत की देह के साथ परोसी जा रही है, तब क्या सहज रूप में यह बदलाव संभव हो पाएगा। उदाहरण के लिए आज की विज्ञापन की  दुनिया को  देखा जा सकता है। औरत के उपयोग में न आने वाली वस्तु भी उसके बगैर नहीं बिकती। जरूरत है एक व्यापक सांस्कृतिक-सामाजिक बदलाव की और जिसका रास्ता समाजवादी हो सकता है। मार्क्स और अम्बेडकर का दर्शन मुक्ति का रास्ता निकाल सकता है।वेश्या मुक्ति के लिए जरूरी है कि उपभोक्तावादी संस्कृति को खत्म कर मानवीय-संस्कृति को विकसित किया जाये। जो हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को ऊँचाइयों पर ले जाए।

 

उपन्यास में कुछ वेश्याएँ अपना पेशा बदलने को तैयार हो जाती है। फलस्वरूप उन्हें इस बदलाव की कीमत भी चुकानी पड़ती है। पहले रण्डी होने की कीमत चुकाई थीऔर अब रण्डी न होने की कीमत चुकानी भी लाजमी थी। एक नई राह गढ़ने का प्रयास वे करती है। कहानी का नायक उसमें साथ देता है। परन्तु समाज और व्यवस्था के ठेकेदार उन्हें सबक सिखाने का प्रयास करते हैं। फलस्वरूप परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि व्यवस्था के साथ रण्डियों का टकराव होता है। व्यवस्था की आँखों का काँटा बनने के कारण पार्वती के साथ सुमित भी सलाखों के पीछे होता है और शबनमबाई श्मशान में जाकर मुक्त हो जाती है। पर यहीं कहानी बदल जाती है। व्यवस्था के सर्वेसर्वा हस्तक्षेप करते हैं और सुमित और पार्वती को मुक्त कर देते हैं।

  1. निष्कर्ष

   लेखक ने राष्ट्रपति के माध्मम से आशा की किरण खोजी है। क्या वही एकमात्र सहारा है, बाकी व्यवस्था खत्म हो गई। उम्मीद पहले राष्ट्रपिता से थी और अब राष्ट्रपति से। यह खयाल देखने में अच्छा तो लगता है, पर इसकी वास्तविकता की जमीन कहाँ है? जवाब यह है कि व्यवस्था की विकृति को खत्म कर नवीन व्यवस्था की स्थापना करनी है। जिसका आधार भी ‘जन’ होगा और लक्ष्य भी। जनता के लिए, जनता का, जनता द्वारा निर्मित व्यवस्था ही ऐसा बदलाव ला सकती हैं। जिसका संकेत मार्क्स और अम्बेडकर करते हैं। पर नैमिशराय यहाँ भावनात्मक हल खोजते हैं जो आकर्षित करता है पर पुख्ता जमीन तैयार नहीं करता।

 

मोहनदास नैमिशराय ने जिस तथ्य को सामने रखा और जिस तरह प्रस्तुत किया, वह इस उपन्यास को एक नई ऊँचाई देता है। भाषा और शैली का कुशल प्रयोग, शब्दों की युक्तिपूर्णता और फ्लेशबैक पद्धति का लेखन इस उपन्यास को रोचक बनाने के साथ-साथ इस विषय पर सोचने को मजबूर करता है।

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अतिरिक्त जानें-

 

पुस्तकें-

  1. अम्बेडकरवादी स्त्री-चिंतन (सामाजिक शोषण के खिलाफ आत्मवृत्तात्मक संघर्ष), तेज सिंह (संपा.), स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
  3. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. विमर्श के विविध आयाम, डॉ.अर्जुन चव्हाण, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  5. दलित चेतना साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार?, रमणिका गुप्ता, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली
  6. परम्परागत वर्ण व्यवस्था और दलित साहित्य, साक्षान्त मस्के, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ. एन॰सिंह , वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद
  9. साहित्य का नया सौन्दर्यशास्त्र, देवेन्द्र चौबे(संपा.), किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली

    वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  2. http://www.debateonline.in/310113/
  3. http://www.dalitmat.com/index.php/kala-sahitya/1351-2014-07-08-14-29-53
  4. http://www.sahityasetu.co.in/issue17/Amrut.php
  5. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8_%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF
  6. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%A8%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8_%E0%A4%A8%E0%A5%88%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF