15 सरहपा 1

रामबक्ष जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • सरहपा के जीवन के बारे में जो जानकारियाँ उपलब्ध हैं उनकी जानकारी पा सकेंगे।
  • बौद्ध दर्शन और सरहपा के सम्बन्ध को समझ सकेंगे।
  • जीवन जगत के सन्दर्भ में उनकी मूल मान्यताओं से परिचित हो सकेंगे।

    2. प्रस्तावना

 

सरहपा हिन्दी साहित्य के आरम्भिक कवि हैं। उनकी कोई भी रचना अपने मूल रूप में अब उपलब्ध नहीं है। उनकी रचनाएँ अनुवाद के रूप में उपलब्ध हैं। दोहाकोश  का पुनरुनुवाद राहुल सांकृत्यायन ने अपभ्रंश में किया। उसी को मूलपाठ के रूप में हम पहचानते हैं। इस अनुवाद को वर्तमान पाठकों द्वारा पढ़ा जाना मुश्किल है। उन्हें खड़ी बोली के अनुवाद के साथ पढ़ा जा सकता है।

 

सरहपा का समय 8वीं शताब्दी माना जाता है। इस काल के रचनाकारों पर अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया है, जिनके प्रयासों से हम सरहपा और अन्य कवियों के बारे में जानकारी प्राप्‍त कर पाए हैं। इन्हीं के प्रयासों से इस प्राचीन साहित्य का थोड़ा-बहुत अंश आज उपलब्ध है। इनमें पिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, म. म. पण्डित विधुशेखर शास्‍त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्‍त्री, डॉ. प्रबोध कुमार बागची, मुनि जिनविजय, डॉ. शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मुख्य हैं। इनके प्रयासों से ही आज इस काल का साहित्य थोड़ा-बहुत उपलब्ध है।

  1. जीवन

    हिन्दी के अन्य प्राचीन कवियों की तरह सरहपा के जीवन के बारे में प्रमाणिक जानकारी बहुत कम है। जो जानकारियाँ उपलब्ध हैं, उनकी प्रमाणिकता भी निर्विवाद नहीं है। अधिकतर बातें अनुमान पर आधारित हैं। उनका जन्म कब हुआ? मृत्यु कब हुई? इसकी कोई जानकारी नहीं। राहुल सांकृत्यायन ने इनका समय 8वीं शताब्दी माना है। इनका बचपन का नाम राहुल भद्र था तथा इनका जन्म राज्ञी नामक गाँव में हुआ। इस नाम का गाँव अब नहीं है। विद्वानों का विचार है कि यह बिहार के भागलपुर के आसपास कहीं रहा होगा। वे ब्राह्मण थे तथा शास्‍त्र निपुण थे। राहुल जी का अनुमान है कि “बाल्यकाल में उनकी शिक्षा-दीक्षा अपने नगर में ही हुई। यदि उनका कुल बौद्ध नहीं था, तो उनका अध्ययन ब्राह्मणों की तरह घर पर या किसी ब्राह्मण गुरु के पास हुआ। उन्होंने अपने वेद के साथ व्याकरण, कोश, काव्य का अध्ययन किया होगा। फिर उनकी न तृप्‍त होने वाली जिज्ञासा उन्हें किसी बौद्ध विद्वान के पास ले गई होगी। ” (दोहा कोश  पृ. 11)

 

सिद्ध-साहित्य के जानकार विद्वानों का मत है कि वे वैदिक साहित्य के जानकार थे। वैदिक साहित्य से प्रभावित भी थे। आगे चलकर वे बौद्ध साहित्य और दर्शन के सम्पर्क में आए तथा बौद्ध-दर्शन का गम्भीर अध्ययन एवं मनन किया। वे सामान्य मनुष्य नहीं थे, थोड़े से असमान्य थे। वे बहुपठित और बहुश्रुत थे। उन्होंने अपने युग के बौद्धिक विचार-विमर्श में हिस्सा लिया था। इसी क्रम में उन्होंने हीनयान, महायान, तन्त्र, मन्त्र और योग का गम्भीर अध्ययन किया। शैव, शाक्त, कापालिक, पाशुपत, वैष्णव सभी तरह के विचारकों से उनका बौद्धिक सम्पर्क हुआ था। ऐसा विश्‍वास किया जा सकता है। उनका यह विशद अध्ययन उनके लेखन में अभिव्यक्त होता है।

 

बौद्ध साहित्य और दर्शन के अध्ययन हेतु उन्होंने नालन्दा विश्‍वविद्यालय में प्रवेश लिया। आजकल के प्रतिष्ठित विश्‍वविद्यालयों की तरह नालन्दा की भी प्रवेश परीक्षा होती थी। राहुल जी का मत है कि “अत्यन्त कम अपवादों के साथ नालन्दा में उन्हीं छात्रों को प्रवेश मिलता था, जो वहाँ की ‘द्वार परीक्षा’ में उत्तीर्ण होते थे। यह परीक्षा काफी कठिन होती थी। “

 

सरहपा ‘राहुलभद्र’ के रूप में कई वर्षों तक नालन्दा में रहे। यहाँ उन्होंने अध्ययन किया तथा अध्ययन के उपरान्त यहीं अध्यापक हो गए। अनुमान है कि वे यहाँ ‘बौद्ध शास्त्रों को पढ़ाते’ होंगे। इस तरह सम्पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करने के उपरान्त उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया और ‘शर-कार’ बनाने वाली एक लड़की अपने साथ रख ली “और स्वयं भी सरकण्डों का शर बनाने लगे, जिससे उनका नाम सरह पड़ा। फिर भक्त लोगों ने अपनी श्रद्धा के प्रतीक शब्द ‘पाद’ को जोड़कर उन्हें ‘सरहपाद’ कहना शुरू किया।”

 

इस तरह सरहपा ने किसी ब्राह्मण कन्या से विवाह नहीं किया। किसी अन्य स्‍त्री से भी विवाह नहीं किया। वह किसी अन्य जाति की स्‍त्री के साथ रहने लगे। यह सह-जीवन का अत्यन्त प्राचीन उदहारण है, जिसका वर्णन अज्ञेय ने नदी के द्वीप  में किया है और आधुनिक महानगरों में यह काफी होने लगा है। सरहपा के इस जीवन व्यवहार को तत्कालीन ब्राह्मण समाज ने पसन्द नहीं किया, लेकिन सरहपा ने किसी की परवाह नहीं की और अपने निर्णय पर अडिग रहे। कहते हैं कि तत्कालीन राजा ने उन्हें कष्ट दिया, परन्तु उन पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। फिर वे उस कन्या के साथ वहाँ से चले गए। कहाँ गए? आगे क्या हुआ? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। दोनों के बीच बहुत आत्मीय रिश्ते थे। सिद्ध साहित्य के जानकार विद्वानों का कहना है कि एक बार सरहपा ने मूली खाने की इच्छा प्रकट की। पत्नी ने मूली की सब्जी बनाई और खिलाने के लिए उनके पास ले गई। तब तक सरहपा समाधिस्थ हो चुके। 12 वर्ष बाद जब उनकी समाधि भंग हुई तो उन्होंने मूली का शाक माँगा। कहते हैं कि उस समय मूली का शाक उपलब्ध नहीं था। पत्नी ने इस पर हँसते-हँसते टिप्पणी की कि क्यों अपने शरीर को कष्ट देते हो। 12 वर्षों की तपस्या के बावजूद आप साधारण मूली का स्वाद नहीं भूल पाए। उसी को समाधि में भी याद रखा? तब इस तपस्या का क्या फायदा। सरहपा को सहज जीवन की प्रेरणा सम्भवतः इसी से मिली।

 

प्राप्‍त जानकारी के अनुसार सरहपा ने संस्कृत और अपभ्रंश में कई रचनाएँ की। राहुल सांकृत्यायन ने उनकी सात संस्कृत रचनाओं की सूची दोहाकोश   की भूमिका में दी है। इनके अलावा सरहपा की ‘अनुवादित 16 अपभ्रंश’ की रचनाओं का उल्लेख भी राहुल जी ने किया है। तभी सरहपाद की मूल रचना उपलब्ध नहीं हुई है। “उसके तिब्बती अनुवाद से ही” राहुल जी ने उन पर विचार किया है। (छात्रों को अधिक जानकारी प्राप्‍त करने के लिए राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित दोहाकोश  की भूमिका का अध्ययन करना चाहिए। )

 

राहुल जी का मत है कि सरह “आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे। मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया। यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो दोहाकोश  के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दुकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।”

 

भारत में 84 सिद्ध प्रसिद्ध हैं। सरहपा उन्हीं में से एक थे। कुछ विद्वानों का विचार है कि सरहपा आदि सिद्ध थे। सिद्धों का समय 800 से 1100 ईस्वी के बीच माना जाता है। धर्मवीर भारती के अनुसार साधना में निष्णात, अलौकिक शक्तियों से सम्पन्‍न, चमत्कारपूर्ण अति प्राकृतिक शक्तियों से युक्त व्यक्ति सिद्ध कहलाता था। ये अजर-अमर माने जाते थे। जरा और मरण का इन्हें भय नहीं था। ये देवों, यक्षों, डंकिनियों के स्वामी होते थे। अधिकांश सिद्ध पूर्वी भारत में हुए। विद्वानों ने इस पर भी विचार किया है कि सिद्ध 84 ही क्यों थे? 85 या 83 क्यों नहीं थे? या बाद में सिद्ध क्यों नहीं हुए? इस पर कोई तर्क संगत उत्तर नहीं मिलता। कुछ विद्वानों ने अनुमान लगाया कि 12 राशियों और 7 नक्षत्रों का गुणनफल 84 होता है। सिद्ध बौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में हुए थे। हालाँकि नाथपन्थ में भी 84 सिद्धों का उल्लेख मिलता है, परन्तु सामान्य मान्यता है कि बौद्धधर्म की सहजयानी शाखा के अनुयायी सिद्ध और शैव सम्प्रदाय अनुयायी के नाथ कहलाते हैं। अतः 9 नाथ और 84 सिद्ध प्रसिद्ध हुए। कौन कब पैदा हुआ? इनका काल क्रम क्या था? इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

 

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 84 सहजयानी की सूची दी है; जो इस प्रकार है-

1.     लूहिपा 22.   तिलोपा 43.   मेकोपो 64.   चवरि(जवरि)
2.     लीलापा 23.   क्षत्रपा 44.   कुड़ालिपा (कुद्दलिपा) 65.   मलिभद्र (योगिनी)
3.     विरूपा 24.   भद्रपा 45.   कमरिपा (कम्मरिपा) 66.   मेखलपा (योगिनी)
4.     डोम्भीपा 25.   दोखंधिपा (द्विखंडिपा) 46.   जालंधरपा (जालन्धारक) 67.   कनखलापा (योगिनी)
5.     शबरीपा 26.   अजोअिपा 47.   राहुलपा 68.   कलकलपा
6.     सरहपा 27.   कालपा 48.   धर्मरिपा (धर्मरि) 69.   कन्ताली (कन्थाली) पा
7.     कंकालीपा 28.   धोम्भिपा 49.   धोकरिपा 70.   धहुलिररिपा (दबड़ीपा ?)
8.     मीनपा 29.   कंकड़पा 50.   मेदनीपा (हालीपा) 71.   उधनि(उधालि)पा
9.     गोरक्षपा 30.   कमरिपा (कम्बलपा) 51.   पंकजपा 72.   कपाल(कमल)पा
10.   चोरंगीपा 31.   डेंगिपा 52.   घण्टा (वज्रघण्टा)पा 73.   किलपा
11.   वीणापा 32.   भदेपा 53.   जोगिपा (अजोगिपा) 74.   सागरपा
12.   शान्तिपा 33.   तन्धेपा(तंतिपा) 54.   चेलुकपा 75.   सर्वभक्षपा
13.   संतिपा 34.   कुकुरिपा 55.   गुण्डरिपा (गोरुरपा) 76.   नागबोधिपा
14.   चमरिपा 35.   कुचिपा (कुसूलिपा) 56.   लुचिकपा 77.   दारिकपा
15.   खङग्पा 36.   धर्मपा 57.   निर्गुणपा 78.   पुतुलिपा
16.   नागार्जुन 37.   महीपा (महिलपा) 58.   जयानन्त 79.   पहनपा
17.   कण्हपा 38.   अचिन्तिपा 59.   चर्पटीपा (पचरीपा) 80.   कोकालिपा
18.   कर्णरिपा (आर्यदेव) 39.   भलहपा (भवपा) 60.   चम्पकपा 81.   अनंगपा
19.   थगनपा 40.   नलिनपा 61.   भिखनपा 82.   लक्ष्मीकरा
20.   नारोपा 41.   भूसुकपा 62.   भलिपा 83.   समुदपा
21.   शलिपा (शीलपा) शृंगालीपाद 42.   इंद्रभूति 63.   कुमरिपा 84.   भलि(व्यालि)पा

    (हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, खण्ड-3, पृ. 273-276)

 

सरहपा के बारे में और अधिक चर्चा करने से पूर्व बौद्धधर्म और सिद्धों के बारे में कुछ प्रारम्भिक तथ्य जान लेने चाहिए। बुद्ध के निर्वाण के पश्‍चात् बौद्धधर्म दो भागों में बँट गया­– हीनयान और महायान। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इनको समझाते कहा है- महायान अर्थात बड़ी गाड़ी के आरोहियों का दावा है कि वे ऊँचे-नीचे, छोटे-बड़े, सबको अपनी विशाल गाड़ी में बैठाकर निर्वाण तक पहुँचा सकते हैं, जहाँ हीनयान (या सँकरी गाड़ी) वाले केवल सन्यासियों और विरक्तों को को आश्रय दे सकते हैं। बाद में फिर महायान के भी कई टुकड़े हो गए। इनमें सबसे अन्तिम टुकड़े हैं वज्रयान और सहजयान।

 

इसी तरह महायान की भी दो शाखाएँ हैं। द्विवेदी जी के अनुसार “एक मानती है कि संसार में सब कुछ शून्य है, किसी की भी सत्ता नहीं और दूसरी शाखा वाले मानते हैं कि जगत् के सभी पदार्थ बाह्यतः असत् है, पर चित् के निकट सभी सत् है। एक को शून्यवाद कहते हैं और दूसरी को विज्ञानवाद।” इतने सारे मतभेदों के बीच यह हम कह सकते हैं कि सरहपा का सम्बन्ध इसी सहजयान से है और सिद्ध इसी परम्परा में आते हैं।

 

नागरी प्रचारिणी सभा के शब्द-कोश  के अनुसार सिद्ध वह होता है जिसने योग या तप द्वारा अलौकिक लाभ या सिद्धि प्राप्‍त की हो। सिद्धों का निवास स्थान भुवलोक कहा गया है। वायु पुराण  के अनुसार उनकी संख्या अठासी हजार हैं और वे सूर्य के उत्तर और सप्‍तर्षि के दक्षिण अन्तरिक्ष में वास करते हैं। वे अमर कहे गए हैं पर केवल एक कल्प भर तक के लिए। कहीं-कहीं सिद्धों का निवास गंधर्व, किन्‍नर आदि के समान हिमालय पर्वत भी कहा गया है।

 

अलौकिक शक्तियों से युक्त व्यक्ति को सिद्ध माना जाता था। इन सिद्धों को सिद्धियाँ प्राप्‍त थी। विचारकों ने इस पर भी विचार किया है कि सिद्धियाँ क्या होती हैं? तथा कितनी होती हैं। भारतीय चिन्तकों ने अनेक सिद्धियों का वर्णन किया है। ब्रह्मवैवर्त  में 34 सिद्धियाँ बताई गईं हैं। कुछ विचारकों ने 18 और कुछ ने 24 सिद्धियों का जिक्र किया है; किन्तु हठयोग साधना में 8 प्रमुख सिद्धियाँ मानी जाती थी– अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्‍त‍ि, प्रकाम्या, ईशित्व, वशित्व तथा काम-वशायित्व। शैव परम्परा में 8 दूसरी सिद्धियाँ गिनाई गई हैं। कालान्तर में 8 सिद्धयाँ प्रसिद्ध हो गई। जो सिद्ध पुरुष इन सिद्धियों को प्राप्‍त कर ले, वह अजर-अमर तथा अपराजेय हो जाता है। चौरासी सिद्ध इन्हीं सिद्धियों के चमत्कार के लिए प्रसिद्ध थे।

 

इन सिद्धियों के प्रभाव का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जैसे वर्षा की नदी की सभी दिशाएँ अवरुद्ध कर उसकी एक ही दिशा उद्घाटित कर दी जाए तो उसमें अपिरिचित बल आ जाता है, उसी प्रकार सभी ओर से चितवृत्तियों का निरोध करने से साधक में अदम्य शक्ति आ जाती है। इन लौकिक सिद्धियों के अलावा कुछ लोकोत्तर सिद्धियाँ भी होती है, जिन्हें अनुत्तर सिद्धि, महामुद्रा सिद्धियाँ, महासुख सिद्धि कहा जाता है।

  1. सरहपा की मान्यताएँ

   यहाँ यह प्रश्‍न उठ सकता है कि जब सरहपा ब्राह्मण थे और वेद-शास्‍त्र के ज्ञाता थे, वेदों को कुछ-कुछ मानते भी थे, तब इनका जिक्र दलित रचनाकारों के साथ कैसे किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में यह यह ध्यान रखना चाहिए कि सरहपा ने ब्राह्मणों की तत्कालीन व्यवस्था को अंगीकार नहीं किया था। वे एक गैर ब्राह्मण कन्या के साथ रहने लगे थे, जिसे ब्राह्मणों ने कभी स्वीकार नहीं किया। वैचारिक रूप से भी सरहपा ने जात-पाँत की व्यवस्था का कभी समर्थन नहीं किया तथा ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की धारणा का खंडन ही किया है। वैदिक परम्परा के अनुसार ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई है। इसलिए जो कुछ भी इनके मुख में जाता है वह देवता ग्रहण करते हैं। इसलिए तुलसीदास ने ब्राह्मणों को पृथ्वी का देवता कहा है। ये पवित्र हैं तथा श्रेष्ठ हैं। सरहपा ने इस धारणा का खंडन किया तथा कहा–

 

ब्रह्मणेहि म जानन्तहि भेउ। एवी पढ़िअउ ए च्चउवेउ। ।

मट्टि त्पाणि कुस लई पढन्त। धरहिं बहसी अगगि हुणन्तं। ।

कज्जे विरहिअ हुअवह हेम्में। अक्खि ड़हा विअ कुडुअें घूमें। ।

एक दण्डि त्रिदण्डि भअवै वेसें। विणुआ होइअई हँस उएसे। ।

मिच्छेहि जग वाहिअ भुल्लें। धम्माधम्म ण जाणिअ तुल्ले। ।

 

अर्थात वे ब्राह्मण बिना ज्ञान के चारों वेद पढ़ते हैं। ये लोग वेद के भेद को तो जानते ही नहीं। मिट्टी,पानी, हरी दूब सामने रखकर तथा अग्नि प्रज्ज्वलित कर पूजा करने बैठ जाते हैं।

 

ये लोग बिना मतलब के अग्‍न‍ि में हवन-सामग्री जलाते हैं तथा उससे उत्पन्‍न धुँए से आखों से आँसू बहाए जाते हैं। कभी ये एक दण्ड पर खड़े होते हैं तो कभी तीन दण्ड पर खड़े होते हैं। भगवा वेश इनका आभूषण है। अपने को विद्वान समझकर हँस को उपदेश देते हैं। (दोहाकोश; भाषा वैज्ञानिक अध्ययन– पृ. 29 और 41) सरहपा के इन विचारों की गूँजे हमें कबीर और अन्य निर्गुण भक्त कवियों की रचनाओं में भी मिलती हैं। सरह ने चूँकि इनकी कार्य प्रणाली को स्वयं बारीकी से देखा था। अतः उनकी रचनाओं में उपस्थित वर्णन यथार्थ प्रतीत होता है।

 

सरहपा ने सिर्फ ब्राह्मणवाद का ही खण्डन नहीं किया, अन्य सम्प्रदायों की भी आलोचना की है। इन आलोचनाओं की अनुगूँजे आगे चलकर कबीर, दादू आदि निर्गुण सन्तों की वाणियों में सुनाई पड़ती हैं। पाशुपत मत के खण्डन में इन्होनें लिखा कि ये सर पर लम्बी-लम्बी जटाएँ धारण किए रहते हैं। (ऐसा लगता है मानो इसका भी कोई अर्थ हो, जो कि नहीं है)

 

घर ही बइसी दीवा जाली। कोणहिं बइसी घण्टा चाली। ।

अख्खि णिवेसी आसण बन्धी। कण्णेहिं खुसखुसाइ जण धन्धी। ।

 

अर्थात ये लोग घर में बैठकर दीपक जलाते हैं और एक कोने में बैठकर घण्टी बजाते हैं। फिर आँखे बन्द करके आसन लगा देते हैं। यहाँ भी पता नहीं यह ढोंग क्यों करते हैं? फिर सरहपा आगे कहते हैं कि ये इस अन्धी (मूर्ख) जनता को ठगने के लिए कानों में फुसफुसाते हैं। सरहपा कहना चाहते हैं कि इन उपायों से ये ठग लोग ‘जनता को भुलावे में रखते हैं। इन लोगों के ऐसे बाह्याचार इन्हें विशिष्ट बनाते हैं, ताकि इनके स्वार्थ की सिद्धि हो सके। जैनियों के बारे में सरहपा का मत है कि ये बड़े-बड़े नाखून वाले नंगे घूमते रहते हैं तथा सारे शरीर के बाल उखड़वाते हैं। सरहपा टिप्पणी करते हैं कि–

 

जइ णग् गाविअ होइ मुत्ति, ता सुणह सिआलह

 

यदि नंगे रहने से मुक्ति मिलती है तो कुत्ते और सियार को भी मुक्ति मिल ही जाती होगी। वे तो नंगे ही रहते है हैं। अपना शरीर नहीं ढकते। सरहपा का मानना है कि इनसे मोक्ष प्राप्‍त नहीं होता।

 

सरहपा ने पारम्परिक बौद्धों की भी आलोचना की है जो तपस्या करने के लिए जंगलों में जाते हैं। वे आगाह करते हैं, चेतावनी देते हैं:

 

किन्तहि न्तित्थ तपोवण जाइ। मोक्ख कि लब्भइ (पाणीन्हाइ। ।

च्छड्डहु रे आलीका बंधा)। सो मुञ्चहु जो (अच्छहु धन्धा)। ।

 

मोक्ष जंगल में तपस्या करने से नहीं मिलता और न जल में नहाने से मिलता है। सरहपा इन सबको पाखंडी मानते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि इन मिथ्या प्रपंचों को छोड़ दो और तुम्हारे भीतर मूढ़ता व्याप्‍त है, उसे छोड़ दो।

 

इस तरह सरहपा ने अपने समय में व्याप्‍त पाखण्ड और बाह्याचार का खण्डन किया। इस खण्डन से पूर्व सरहपा ने इन पर गहन विचार किया होगा, तब निष्कर्ष रूप में अपनी बात कही होगी। यहाँ बहस की कोई संभावना नहीं है। सरहपा ने उनसे प्रश्‍न नहीं पूछा, बल्कि उनको बताया है। यह दृढ़ता उनके आत्मचिन्तन से आई है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

 

सरहपा के युग में दर्शन की अनेक उलझी हुई गुत्थियाँ देखने को मिलती हैं। उनकी बारीकियों को जानना बहुत मुश्किल है। जीवन, जगत, माया, शरीर, तन्त्र-मन्त्र, आचार-विचार, मुक्ति, गुरु सबके बारे में अनेक आचार्यों के भिन्‍न-भिन्‍न मत मिलते हैं। उन सबका अति संक्षिप्‍त परिचय देना भी यहाँ सम्भव नहीं है। इसलिए उन सबको स्थगित करते हुए दोहाकोश  में कही गई सरहपा की उक्तियों का सार-संक्षेप करने का प्रयास करते हैं।

  1. सरहपा का दर्शन

   सरहपा परमात्मा में विश्‍वास नहीं करते, इसलिए वे आत्मा में भी विश्‍वास नहीं करते। वे कहते हैं कि परम् तत्त्व न एक है और न दो है। न अद्वैत है न द्वैत है न विशिष्टाद्वैत है। वह अनेक भी नहीं है। आगे उन्होंने कहा कि इस परमपद का न आदि है और न अन्त है। न इसका कोई मध्य है। न यह उत्पन्‍न होता है और न ही निर्वाण होता है। यह किसी दूसरे का नहीं है, तो अपना भी नहीं है। वह तो बस है। इस तरह सरहपा इसको समझने का प्रयास करते हैं। ऐसा लगता है कि जो समझाना चाह रहे हैं, उसे व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। वह अभिव्यक्ति से परे है। सिद्धों के रहस्यवाद के मूल में उनकी परमतत्त्व सम्बन्धी अवधारणा है।

 

सरहपा कहते हैं कि आत्मा शून्य है और संसार भी शून्य है। शून्य और निरंजन ही परम पद है। इसमें पाप और पुण्य कुछ नहीं होता। परमपद का ज्ञान प्राप्‍त होने पर ही आपको सिद्धि मिल सकती है। परमपद महासुख की एक अवस्था का नाम है। यह महासुख देता कौन है? इस पर सरहपा ने कहा कि महामुद्रा ही महासुख दिलाती है। इसको प्राप्‍त करने के लिए पवित्र या अपवित्र का विचार नहीं करना चाहिए। महासुख की प्राप्‍त‍ि के पश्‍चात चित्त का भटकना बन्द हो जाता है। महामुद्रा का कोई विकल्प नहीं है।

 

यहाँ सरहपा एक और दार्शनिक स्थापना करते हैं। वे कहते हैं कि चित्त एक मूल बीज है। इसलिए चित्त देवता है, मन और चित्त अलग-अलग होता है। मन चंचल होता है, परन्तु चित्त स्थिर होता है। इसलिए सरहपा कहते हैं कि चित्त से चिन्ता को निकाल देना चाहिए। इस चित्त को ‘जबर्दस्ती बाँधना’ गलत है और बिलकुल स्वतन्त्र छोड़ना भी गलत है। चित्त की इस सहज अवस्था को न तो गुरु बता सकता है और न शिष्य समझ सकता है। यह सहज अमृत के समान है। जहाँ इन्द्रियाँ समाहित हो जाती हैं, विषय की इच्छा भी नष्ट हो जाती है, चित्त का अन्तर भी मिट जाता है : वहाँ जो आनन्द प्राप्‍त होता है, वही महासुख है। इसलिए सरहपा कहते हैं कि घर में रहिए, पत्नी के साथ रहिए, साधुवेश और ध्यान सब छोड़ दीजिए। बालक की तरह रहिए। बच्‍चा जैसा चाहता है, वैसा ही करता है। यदि चित्त के विपरीत कार्य किया तो दुःख अवश्य मिलेगा। इसलिए नाचो, गाओ और अच्छी तरह विलास करो। उसी में योग की उपलब्धि होगी।

 

इस प्रकरण में सरहपा उपदेश देते हैं कि मनुष्य को सहज जीवन जीना चाहिए। कठोर नियमों में मन और शरीर को बाँधकर जीवन को कष्टमय नहीं बनाना चाहिए। जो चित्त को अच्छा लगे, वह कीजिए। चित्त तो राजा है। उसका स्वभाव स्वछन्द है। यही मनुष्य का मुक्तिदाता है। सरहपा भोग का विरोध नहीं करते। वह कहते हैं कि निष्काम भाव से भोग करना चाहिए। इस प्रकरण में वे कहते हैं– यदि आपने मन के विपरीत कार्य किया तो आप व्यवस्थित नहीं रह पाएँगे। अतः भोग करें परन्तु उससे मुक्त हो जाएँ। यह सहज साधना है।

 

इस तरह सरहपा अन्त में जीवन की स्वाभाविक प्रकृति का उपदेश देते हैं। वे विवाह का विरोध नहीं करते। आप विवाहित रहकर सहज मार्ग अपना सकते हैं। सहज मार्ग गुरु के ज्ञान से दिखाई देता है, चित्त की अपनी प्रकृति से सहज ही प्राप्‍त हो जाता है। और यह सब काया के भीतर विद्यमान है।

  1. निष्कर्ष

    सरहपा भारत के 84 सिद्धों में से एक हैं। वे ब्राह्मण होते हुए भी ब्राह्मणों की तत्कालीन व्यवस्था को अंगीकार नहीं करते थे। वे ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का खण्डन करते हैं। साथ ही जातिभेद का भी समर्थन नहीं करते। दार्शनिक रूप में वे मनुष्य को सहज जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं और कर्मकाण्ड, बाह्याचार आदि का खण्डन करते हैं।

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अतिरिक्त जानें-

  1. सिद्ध सरहपा, डॉ.विश्वम्भरनाथ उपाध्याय , वाणी प्रकाशन,नई  दिल्ली
  2. सरहपा, भारतीय  साहित्य के निर्माता, डॉ.विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, साहित्य अकादमी  
  3. हिन्दी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास (सिध्द साहित्य से संत साहित्य तक), राजेन्द्र प्रसाद सिंह, गौतम बुक सेन्टर, दिल्ली
  4. हिन्दी साहित्य का आदिकाल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी साहित्य का अतीत भाग-1, विश्वनाथप्रसाद सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, राजमणि शर्मा, लोकोदय ग्रन्थमाला, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  7. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
  8. दोहा कोश/ सिद्ध सरहपाद, अनुवादक और संपादकराहुल सांकृत्यायनबिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना
  9. चौरासी सिद्ध औरदोहाकोश,रमाइन्द्र कुमार, नौद्ध श्रमण बिहार प्रकाशन, दिल्ली
  10. युग प्रवर्तक सरह औरदोहाकोश,डॉ. रमाइन्द्र कुमार,मॉ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन,दिल्ली
  11. सिद्ध साहित्य,डॉ. धर्मवीर भारती किताब महल, इलाहाबाद
  12. दोहाकोश: भाषा वैज्ञानिक अध्ययन,  डॉ. रमाइन्द्र कुमार,मॉ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन, दिल्ली

    वेब लिंक्स-

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7_%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AA%E0%A4%BE
  2. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AA%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF
  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%AA%E0%A4%BE
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