14 दलित आलोचना
रामबक्ष जाट
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ का अध्ययन करने के उपरान्त आप–
- दलित आलोचना के प्रारम्भ और विकास को जान पाएँगे।
- दलित आलोचना की मूल-मान्यताओं से परिचित हो सकेंगे।
- प्रमुख दलित आलोचकों के कार्यों से अवगत हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
हिन्दी में दलित आलोचना का प्रारम्भ सन् 1990 से माना जा सकता है। जब जूठन, छप्पर जैसी रचनाएँ प्रकाशित हुई तथा दर्जन भर से अधिक लेखक हिन्दी में रचनात्मक रूप से सक्रिय हुए, इनकी कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित होने लगी। 1975 में कमलेश्वर के सम्पादक में प्रकाशित पत्रिका सारिका ने दलित साहित्य के दो विशेषांक प्रकाशित किये। फिर महीपसिंह ने संचेतना पत्रिका का विशेषांक प्रकाशित किया। दलित लेखकों की अपनी पत्रिकाएँ प्रकाशित हाने लगी। इस क्रम में सन् 1993 में नागपुर में ‘हिन्दी दलित साहित्यकार सम्मेलन’ आयोजित किया गया, जिसकी अध्यक्षता ओमप्रकाश वाल्मीकि ने की। इसी के साथ-साथ राजेन्द्र यादव ने हंस में अनेक दलित रचनाकारों को प्रकाशित किया। इससे दलित साहित्य की पहचान बनने लगी तथा इसी से हिन्दी में दलित आलोचना अस्तित्व में आई।
- दलित साहित्य की अवधारणा
दलित आलोचना ने सबसे पहले इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक समझा कि दलित साहित्य होता क्या है? हम किसे दलित साहित्य कहेंगे और किसको दलित साहित्य नहीं कहेंगे, भले ही वह दलितों के बारे में लिखा हुआ हो। इस प्रश्न पर विचार करते हुए दलित आलोचना ने सबसे पहले इस प्रश्न पर विचार किया कि दलित किसे कहा जाएगा? क्या दलित और तथाकथित शूद्र एक ही हैं या दलित उनसे अलग हैं। क्या पिछड़ा वर्ग के लोग दलितों की श्रेणी में आ सकते हैं? इन प्रश्नों पर दलित आलोचकों ने खूब बहस की है। इस बहस के पश्चात वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि भारतीय संविधान में उल्लिखित ‘अनुसूचित जाति’ का व्यक्ति दलित है, जिससे सवर्ण हिन्दू समाज छुआछूत का बर्ताव करता है। श्यौराजसिंह बेचैन के साथ ही कंवल भारती का भी मत है कि “दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया है। जिसे कठोर और गन्दे कार्य करने के लिए बाध्य किया गया है। (दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 13)
तब भी क्या दलित हिन्दू समाज के अंग हैं? इस प्रश्न पर डॉ. धर्मवीर का मत है कि “दलित हिन्दू वर्ण-व्यवस्था का कुछ भी नहीं लगता। वर्ण-व्यवस्था दलित की न माँ है, न ताई, न चाची, न मौसी और न मामी, न फूफी. . . ..हिन्दू वर्ण-व्यवस्था दलित के लिए एक जेल है।” (नए विमर्श और हिन्दी साहित्य, पृ. 65)
इन व्यक्तियों पर सदियों से अत्याचार होते आए हैं। इन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया है। संपत्ति इनके पास होती ही नहीं हैं इन्हें गाँव से बाहर गंदगी में जीवन बसर करने के लिए बाध्य किया जाता है।
ऐसा व्यक्ति जब साहित्य लिखता है, अपने बारे में लिखता है, अपने लोगों के लिए लिखता है, वह साहित्य दलित साहित्य है।
दलित आलोचना यह स्थापित करती है कि दलित साहित्य दलितों के द्वारा, दलितों के लिये, दलितों के बारे में लिखा गया साहित्य होता है।
कँवल भारती का मत है कि दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उन्हीं के द्वारा उसी की अभिव्यक्ति का साहित्य है। (दलित साहित्य की अवधारणा, पृ. 15, बोधिसत्व प्रकाशन, रायपुर, 2006)
इसका अर्थ ये है कि गैर दलित लेखकों की रचनाओं को दलित साहित्य के अन्तर्गत नहीं माना जा सकता। इसके साथ ही दलित आलोचकों ने गैर दलित साहित्य से अपनी असहमति को रेखांकित किया है। जयप्रकाश कर्दम ने लिखा है “सही मायने में देखें तो भारतीय साहित्य विशेषतः हिन्दी साहित्य हिन्दू (सवर्ण) समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला, इनके हित-चिन्तन का संवाहक या सीधे-सीधे कहें तो हिन्दू साहित्य ही रहा । कम से कम दलितों का प्रतिनिधित्व वह नहीं हो सका। दलित के अंदर की कुलबुलाहट, आक्रोश, स्वाभिमान से जीने की उसकी छटपटाहट को कभी साहित्य में अभिव्यक्ति नहीं मिली ।” (कथाक्रम, दलित विशेषांक, पृ. 85)
दलित सहित्य सिर्फ दलित ही लिख सकते हैं, इस धारणा का कुछ दलित लेखकों ने विरोध किया है। डॉ. किशोरीलाल ने गोदान के सिलिया-मातादीन प्रकरण की चर्चा करते हुए लिखा है कि गोदान में दलित सब इकट्ठा होकर मातादीन के मुँह में गाय की हड्डी का टुकड़ा डाल देते हैं। गोदान की यह घटना प्रेमचन्द का अति साहसिक कार्य है। उन्होंने इस प्रसंग से चातुर्वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मणवाद को सिरे से खारिज कर दिया है। स्वयं दलित रचनाओं में भी संभवतः आज तक इस तरह का साहस नहीं हुआ है। भले ही कुछ दलित लेखक प्रेमचन्द की रंगभूमि जैसी रचनाओं की होली जलाएँ पर प्रेमचन्द द्वारा दलितों के सामाजिक पुनर्वास के लिए किए गए साहसिक संघर्ष को नहीं भुलाया जा सकता।’ (नए विमर्श और हिन्दी साहित्य, पृ. 53)
रत्न कुमार सांभरिया भी डॉ. किशोरी लाल की इस मान्यता से सहमत हैं कि कोई गैर दलित भी दलित साहित्य लिख सकता है। इस छिटपुट मतभेद के बावजूद दलित आलोचना यह स्थापित करने में सफल रही है कि सिर्फ दलित ही दलित साहित्य लिख सकते हैं। सवर्ण यदि दलित जीवन पर लिखता है और दलितों के समर्थन में लिखता है तब भी वह ‘त्याज्य’ है क्योंकि ऐसा साहित्य दलितों के प्रति सहानुभूति का साहित्य ही कहलाएगा। इन लेखकों में प्रेमचन्द, नागार्जुन आदि आते हैं। यहाँ दलित आलोचना फिर एक सैद्धान्तिक स्थापना करती है कि कोई लेखक कितना ही बड़ा हो, कितना ही अच्छा हो, यदि वह वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन करता है या वर्णाश्रम व्यवस्था के बारे में चुप रहता है तो वह त्याज्य है भले ही वह रामविलास शर्मा हो या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।
सूरज बड़त्या ने इस बहस का समाहार करते हुए लिखा है, कि रचनाकार के पास एक मानवीय दृष्टि होती है। उसी दृष्टि के सहारे वह समाज में उपेक्षित, दबे-कुचले लोगों को अपने लेखन का विषय बनाता है। लेकिन जब जाति-आधारित शोषण के खात्में और उसके खिलाफ मुहिम चलाने की बात आती है तो लेखकों की सारी मानवीयता जाति संस्कारों में बदल जाती है… इसलिए दलित साहित्य के प्रारंभ होने के पश्चात दलित साहित्य लिखने के दावे करना उचित नहीं है। हाँ, इतनी रियायत दी जा सकती है कि उनके लेखन को ‘सहानुभूति’ का लेखन मान लिया जाए; क्योंकि आज भी दलित उत्पीड़न, दलित जीवन और दारूण सामाजिक स्थितियों के अनुभव गैर-दलित रचनाकार कहाँ से लाएँगे। ओमप्रकाश वाल्मीकी की आत्मकथा जूठन में जूठन खाने के अनुभव और अपमानित जीवन की त्रासदी को क्या वे कभी महसूस कर सकते हैं? शादी के समय सवर्ण के घरों में जा-जाकर सलाम करने जैसी अपमानित प्रथा पर क्या वे लिख सकते हैं। सूअरबाड़े के अनुभव, मरे जानवर की खाल उतारने के अनुभव एवं शिक्षण-संस्थानों में जाति-भेदभाव के दंश उस आक्रोश और विद्रोही तेवर के साथ क्या कभी गैर दलित के लेखन में आ सकते हैं? प्रेमचन्द ने मानवीय दृष्टि से, प्रगतिशील दृष्टि से दलित जीवन को आधार मानकर साहित्य लिखा, उन्हें अपने साहित्य में स्थान दिया, इस अर्थ में प्रेमचन्द दलित साहित्य में सम्माननीय हो सकते हैं लेकिन वे दलित साहित्यकार नहीं बन सकते। उनके लेखन को सहानुभूति का ही लेखन कहा जाएगा।” (सत्ता संस्कृति और दलित सौन्दर्यशास्त्र, पृ. 169-170 भारतीय दलित अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली 2012)
इसके साथ ही दलित आलोचना ने इसे भी स्थापित किया कि जन्म से दलित रचनाकार यदि दलित विरोधी रचना करता है तो वह भी दलित साहित्य के अन्तर्गत नहीं आता। इसलिए दलित लेखन का वह हिस्सा जो ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर के विचारों की संगति में लिखा गया हो, वही दलित साहित्य है, दूसरा नहीं। इस तरह दलित साहित्य की विशेषताओं को इस तरह से सूत्र बद्ध किया जा सकता है-दलित साहित्य वह है–
जो दलितों द्वारा, दलितों के बारे में लिखा गया हो।
जो अम्बेडकर के विचारों से सहमत हो।
जो ब्राह्मण श्रेष्ठता की धारणा और वर्णाश्रम का विरोधी हो।
जो दलितों का पक्ष समर्थन करता हो।
जिस साहित्य में ये चारों बातें होती हैं, वह दलित साहित्य है, अन्यथा वह दलित साहित्य नहीं है। दलित आलोचना इन मान्यताओं से चलती है। इसलिए मानती है कि हिन्दी में सवर्ण साहित्य और दलित साहित्य अलग-अलग हैं। अतः इन्हें एक साथ नहीं रखा जा सकता। इसलिए सवर्ण साहित्य की मान्यताएँ दलित साहित्य पर लागू ही नहीं होती। इसलिए वह साधारणीकरण के सिद्धान्त को नहीं मानते, सवर्ण सौन्दर्यशास्त्र को नहीं मानते। सवर्ण साहित्य की चर्चाओं में वे हिस्सा भी नहीं लेना चाहते। इसलिए वे उन पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते। दलित आलोचना में शेष सवर्ण हिन्दी साहित्य की कोई तस्वीर नहीं मिलती। दलित आलोचना सिर्फ उन मुद्दों और मान्यताओं की चर्चा करते हैं, जिनका सम्बन्ध दलित साहित्य से है या कोई सवर्ण लेखक जब दलित साहित्य पर लिखता है तब उसकी चर्चा करते हैं। इसलिए वे प्रेमचन्द पर लिखते हैं। चूंकि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर पर लिखा। इसलिए डॉ. धर्मवीर ने उनकी कबीर विषयक मान्यताओं की आलोचना की। कालिदास की लालित्य योजना के बारे में वे कुछ भी कहना आवश्यक नहीं समझते। भले ही आगे चलकर दलित आलोचना संपूर्ण हिन्दी साहित्य की आलोचना करे। परंतु फिलहाल यही स्थिति है। हालाँकि दलित आलोचना में इस पर भी बहस है कि कबीर पिछड़े वर्ग से हैं या दलित। यदि कबीर पिछड़े हैं तो दलित आलोचना रविदास का पक्ष समर्थन करना पसन्द करेगी।
- दलित साहित्य की परम्परा
फिर दलित आलोचना दलित पाठकों को सम्बोधित करती है, इसलिए उसमें दलित समस्याओं और दलित रचनाओं की ही प्रायः चर्चा होती है। इस क्रम में दलित आलोचना हिन्दी में दलित साहित्य की परम्परा की खोज करती है। दलित आलोचना के अनुसार बौद्धों से प्रभावित सिद्ध साहित्य से दलित साहित्य का प्रारंभ होता है। कँवल भारती का मत है कि “सिद्ध साहित्य में संस्कृति के मूल्य बुद्ध की परम्परा से आते हैं, जिन्होंने मूल निवासियों या शूद्रों को प्रभावित किया था। दूसरी यह कि सिद्धों में तीन दर्जन से ज्यादा सिद्ध शूद्र और निम्न जातियों से आए हैं। सिद्धों के साहित्य में हम ‘श्रम’ को संस्कृति के मूल तत्व के रूप में देखते हैं। अधिकांश सिद्ध किसी न किसी श्रम से जुड़े हैं। श्रम की स्वीकृति का मुख्य कारण भी यह सांस्कृतिक समानता ही प्रतीत होती है। सिद्धों में गुरू का अपार महत्त्व है। हम देखते हैं कि आधुनिक काव्य धारा भी गुरू की महिमा को स्वीकार करती है। यह दलित संस्कृति का नैतिक मूल्य है, जिसने साहित्य का भी मार्ग प्रशस्त किया है।” (दलित साहित्य, 2001 पृ. 15)
इनके पश्चात कबीर और रविदास से भी दलित आलोचना अपनी असहमति व्यक्त करते है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लिखा है, “हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में रैदास और कबीर जहाँ एक ओर वर्ण-व्यवस्था के विरूद्ध खड़े दिखाई पड़ते हैं और सामाजिक बदलाव के लिए संघर्ष करते हैं, वहीं वे आध्यात्मिक दलदल में फँसकर उसी सामंती व्यवस्था में विलीन हो जाते हैं, जिसने वर्ण-व्यवस्था को पुख्ता किया हो।” (दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, पृ. 73)
दलित आलोचना आधुनिक काल में हीरा डोम और अछूतानन्द ‘हरिहर’ को अपनी परम्परा में शामिल करते हैं तथा संपूर्ण छायावादी कविता को निरस्त करते हुए प्रगतिवाद के दौर में निरंकार देव सेवक को महत्त्वपूर्ण रचनाकार घोषित करती है। शेष साहित्य सवर्ण हिन्दुओं का साहित्य है। दलित आलोचक अब यह शोध करने का प्रयास कर रहे हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में कौन-कौन दलित रचनाकार हो चुके हैं।
कँवल भारती ने एक लेख में ‘हिन्दी दलित साहित्य का संक्षिप्त इतिहास‘ लिखा है। अछूतानन्द के काल में ‘पं. बख्शीदास, बंसीराम मुसाफिर, स्वामी शंकरानन्द केवलानन्द, अयोध्यानाथ दण्डी, मोजीलाल मौर्य और जनकवि बिहारी लाल हरित के नामों को कँवल भारती ने उल्लेखनीय माना है। इसके बाद के काल को भारती अम्बेडरवादी धारा का नाम देते हैं| इसे वे दो भागों में बाँटते हैं; “पहली 1950 से 1975 तक के काल की धारा है, और दूसरी उसके बाद विकसित हुई धारा है।” हिन्दी में डॉ. अम्बेडकर के साहित्य के प्रकाशन के बाद यह धारा सामने आई और इसका श्रेय पं. चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु को देते हैं। ये प्रकाश लखनवी के नाम से कविताएँ लिखते थे। “इस युग के दलित साहित्यकारों का रचना कार्य दो प्रवृत्तियों पर आधारित था। एक वे डॉ. अम्बेडकर की प्रशंसा में काव्य और महाकाव्य लिख रहे थे, ईश्वर और मसीहा के रूप में उनका चित्रण कर रहे थे। दूसरे वे दलित जीवन की कटु सच्चाइयों का वर्णन कर रहे थे और सामाजिक परिवर्तन की परिकल्पनाएँ प्रस्तुत कर रहे थे ।” (दलित साहित्य की अवधारणा, पृ. 54)
इसके पश्चात का युग समकालीन दलित साहित्य का युग है जिसमें ‘अम्बेडकर दर्शन में दलित मुक्ति’ की सम्भावना को स्वीकार किया। समकालीन दलित साहित्य अनिवार्यतः अम्बेडकर के विचारों की अनुपालना में लिखा गया है। वे उनको समर्थन में उद्धृत करते हैं। हालाँकि डॉ. धर्मवीर ने अम्बेडकर की दो धारणाओं से अपनी असहमति व्यक्त की है। एक तो वे अम्बेडकर के बौद्ध धर्म को अपनाने का समर्थन नहीं करते और दूसरे डॉ. धर्मवीर प्रश्न उठाते हैं कि अम्बेडकर ने ब्राह्मण स्त्री से विवाह क्यों किया? यह गलत है।
- दलित आलोचना का प्रारम्भ
हिन्दी में पहले दलित साहित्य की कृतियाँ सामने आई, उसके बाद दलित आलोचना का प्रारम्भ हुआ, विशेष रूप से जूठन (ओमप्रकाश वाल्मीकि), छप्पर (जय प्रकाश कर्दम ) जैसी रचनाओं के पश्चात दलित आलोचना लिखी जाने लगी। इसलिये दलित लेखकों का मानना है कि दलित आलोचना का प्रारम्भ 1980 -1990 के आसपास होता है। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि अधिकांश दलित आलोचना दलित रचनाकारों द्वारा लिखी गई है। इनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि, कँवल भारती, जयप्रकाश कर्दम, डॉ. धर्मवीर आदि मुख्य हैं। रचनाकार जब आलोचना लिखता है, तब वह अपनी रचनाओं के लिए जमीन बनाता है। कई बार उसके समर्थन का वातावरण बनाता है। जो लोग उसकी रचना का पक्ष लेते हैं उसके समर्थन में उद्धृत करता है और जो उसकी रचना का अवमूल्यन करता है उसका विरोध करता है। हिन्दी में अभी तक कोई सर्वस्वीकृत दलित आलोचक नहीं है, जिनको भी दलित रचनाकार स्वीकृति देते हैं, वे मूलतः रचनाकार है तथा आलोचना भी लिखते हैं।
दूसरी बात यह है कि दलित आलोचना का घनिष्ठ सम्बंध दलित राजनीति से है। इसलिए दलित आलोचक अपने विवेचनों में “बाबा साहब अम्बेडकर की मान्यताओं का समर्थन करते हैं”, उनके समर्थन में तर्क जुटाते हैं और महात्मा गाँधी आदि राजनेताओं की आलोचना करते हैं, इसके साथ ही वे वर्तमान समाज व्यवस्था, उसमें दलितों की स्थिति, उनकी परम्परा उनकी पीड़ा के कारक तत्वों की खोज करते हैं। वे इस संदर्भ में वे चतुर्वर्ण की धारणा का खंडन करते हैं। आर्य, असुर, सुर, दानव आदि धारणाओं की पुनः परीक्षा करते हैं। इस शोध में उनकी रूचि दिखाई देती है।
दलित आलोचना आम तौर से सिर्फ दलित रचनाओं पर चर्चा करना पसन्द करती है । उसी चर्चा में उनका मन रमता है। डॉ. एन. सिंह, जय प्रकाश कर्दम, कंवल भारती, श्यौराज सिंह बेचैन आदि के लेखन को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। दलित आलोचना में संपूर्ण हिन्दी साहित्य की कोई समग्र तस्वीर नहीं बनती, जिसका एक भाग दलित साहित्य है। वे स्थापित करते हैं कि हमारा सम्बन्ध सिर्फ दलित साहित्य से है। इसलिए जो सवर्ण लेखक दलितों के जीवन पर लिखते हैं और दलितों के हमदर्द के रूप में अपने आपको प्रस्तुत करते हैं या सवर्ण आलोचक उन्हें इस रूप में प्रस्तुत करते हैं, उन लेखकों की विस्तार से असंगतियाँ उजागर करते हैं। इस दृष्टि से प्रेमचन्द और हजारीप्रसाद द्विवेदी आलोचक डॉ. धर्मवीर के निशाने पर रहे हैं।
इसके अलावा दलित साहित्य पर जो आरोप लगाए जाते हैं, दलित आलोचना उन आरोपों का खंडन करती है। इस संदर्भ में उनकी बहस प्रगतिशील आलोचना से हो रही है। विशेष रूप से वर्ण और वर्ग के प्रश्न पर दलित आलोचना प्रगतिशील आलोचना को कठघरे में खड़ा करती है।
दलित साहित्य पर आरोप लगाया जाता है कि दलित साहित्य केवल उपेक्षा, अपमान और पीड़ा की अभिव्यक्ति मात्र है। इसका कोई अन्य समाजोपयोगी निहितार्थ नहीं है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए जयप्रकाश कर्दम कहते हैं कि “दलित साहित्य यथार्थ में दलित चेतना का साहित्य है। दलितों द्वारा भोगी गयी उपेक्षा, अपमान और पीड़ा की अभिव्यक्ति भी इस रूप में है कि उससे व्यक्ति में हीनता बोध की बजाय जातीय स्वाभिमान और आत्म-गौरव की भावना का विकास हो। इसके अभाव में अन्याय और उत्पीड़न को लेकर लिखा गया सारा का सारा साहित्य दलित चेतना का साहित्य न होकर दलित जीवन का साहित्य होकर रह जाएगा।” (दलित विमर्श : साहित्य के आइने में, पृ. 134 साहित्य संस्थान, गाजियाबाद, 2009)
इसी तरह दलित साहित्य कला हीन है, उसमें गालियों की भरमार है, मात्र आक्रोश है, नए समाज की परिकल्पना नहीं है, जैसे आरोपों को दलित आलोचना खारिज करती है तथा दलित साहित्य का पक्ष रखती है।
हालाँकि कुछ लोग दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त जीवन को भी अच्छा नहीं मानते । इन लोगों में दलित परिवारों के लोग भी शामिल हैं। उनका कहना है कि अपनी बदहाली का वर्णन सामाजिक अपमान को आमंत्रित करता है। इसलिए जो अच्छा-बुरा हमारे साथ हुआ, उसे प्रकट करने का क्या फायदा? दलित रचनाकारों ने इस चुनौती को स्वीकार किया और दलित आलोचना ने इन आत्मकथाओं का भरपूर स्वागत किया।
- प्रमुख दलित आलोचक
दलित आलोचना मूलतः दलित लेखकों का आलोचनात्मक कर्म है। वे रचना के साथ-साथ आलोचना भी लिख रहे हैं। चूँकि दलित साहित्य वृहत्तर दलित आंदोलन का हिस्सा है, अतः दलित आलोचक साहित्य, समाज, संस्कृति, राजनीति, इतिहास सभी विषयों पर अपने विचार व्यक्त करते हैं ओमप्रकाश वाल्मीकि, जय प्रकाश कर्दम, नैमिशराय, कँवल भारती, तेजसिंह, डॉ. धर्मवीर, डॉ. एन. सिंह आदि प्रमुख दलित आलोचक हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा के अलावा कविता, कहानी एवं आलोचनात्मक लेखन भी किया है। मूलतः ये रचनाकार हैं अतः अपने रचना कर्म के लिए, उसे समर्थन देने के लिए आलोचना लिखते हैं। वैसे तो दलित आलोचना सवर्ण लेखन पर कोई टिप्पणी नहीं करती, लेकिन वाल्मीकि जी उन सवर्ण रचनाकारों को समर्थन में उद्धृत करते हैं, जिन्होंने उनकी रचनाओं को स्वीकृति दिलाने में सहयोग दिया है। समकालीन अन्य दलित रचनाकारों को वे समर्थन में उद्धृत करते हैं तथा दलित साहित्य का शास्त्र निर्मित करने का प्रयास करते हैं। हालाँकि उनकी आलोचना का आधार शास्त्रीय नहीं है।
जय प्रकाश कर्दम अपेक्षाकृत सतर्क आलोचक हैं। वे दलित साहित्य का पक्ष समर्थन करते हुए दलित साहित्य की कमियों की ओर भी इशारा करते हैं तथा दलित साहित्य को नई दिशा देने का प्रयास करते है। वे सुपठित और सुविचारित आलोचक हैं। कंवल भारती ने दलित साहित्य के समर्थन में गहन अध्ययन किया है। उन्होंने उन आरोपों को खंडन किया है, जो दलित साहित्य पर लगते रहे हैं। इसी तरह डॉ. एन. सिंह, डॉ. तेज सिंह आदि ने दलित साहित्य की अवधारणा और परम्परा को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त लेखन किया है।
डॉ. धर्मवीर दलित आलोचना की मूल धारा से थोड़े अलग हैं। उन्होंने सिर्फ दलित साहित्य पर ही नहीं लिखा अन्य साहित्य पर भी लिखा है। इस दृष्टि से उन्होंने विस्तार से हिन्दू विवाह और उससे जुड़े कानूनी प्रावधानों पर विस्तार से लिखा है तथा उससे संबंधित साहित्य पर विस्तृत विचार किया है। उनका मत है कि परकीया प्रेम जार सत्ता का पोषक है, इसलिए हिन्दू सवर्ण नारीवाद गलत है। इसलिए जो लेखक परकीया प्रेम को गौरान्वित करते हैं या स्वयं उसमें लिप्त रहते हैं, वह साहित्य राष्ट्र विरोधी है। यह चाहे रीतिकाल का काव्य हों या कृष्ण भक्ति काव्य, अज्ञेय, हजारीप्रसादी द्विवेदी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचन्द सबकी उन्होंने भर्त्सना की है। इसके अलावा उन्होंने समकालीन स्त्री मुक्ति आन्दोलन का भी विरोध किया है तथा कुछ दलित लेखिकाओं की आत्मकथाओं की भी कठोर आलोचना की है। इसलिए डॉ. धर्मवीर पर दलित स्त्री विरोधी का आरोप भी लगता रहा है। इस अर्थ में उनकी आलोचना अन्य दलित आलोचना से अलग है कि उन्होंने आलोचना के क्षेत्र का विस्तार किया है।
- निष्कर्ष
इस तरह दलित आलोचना अभी निर्मिति की प्रक्रिया में है। अभी उनके सामने दलित परम्परा के खोज की समस्या है। दलित साहित्य को स्थापित करने का मुद्दा है, तथा दलित साहित्य को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने की चिंता है। इसलिए एक तरफ वे दलित लेखकों, परम्पराओं, शास्त्रों, मान्यताओं का सजग विरोध करते हैं दूसरी तरफ दलित साहित्य में आत्म गौरव का भाव जगाने का प्रयास करते हैं।
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अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- दलित विमर्श: साहित्य के आइने में, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- इक्कीसवीं सदी में दलित आन्दोलन (साहित्य एवं समाज-चिंतन), डॉ.जयप्रकाश कर्दम, पंकज पुस्तक मंदिर,दिल्ली
- दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ.एन.सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- जातिभेद का बीजनाश, बाबासाहेब डॉ.बी.आर.आंबेडकर, अनुवादक- आचार्य जुगलकिशोर बौद्ध, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली
- गुलामगिरी , ज्योतिराव फुले, अनुवादक- डॉ.एल.जी. मेश्राम ‘विमलकीर्ति’, सम्यक प्रकाशन, नयी दिल्ली
- सत्ता संस्कृति और दलित सौन्दर्यशास्त्र, सूरज बड्त्या, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
- दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचन्द, सदानन्द शाही(संपा.), प्रेमचन्द साहित्य संस्थान, गोरखपुर
वेब लिंक्स-
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
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- https://www.youtube.com/watch?v=ZJQiiormJUk
- https://www.youtube.com/watch?v=cWNzpokMDgc
- https://www.youtube.com/watch?v=kVMuMQ2gwhc