2 दलित साहित्य की अवधारणा
किशोरी लाल रैगर
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- दलित की अवधारणा से परिचित होंगे।
- दलित साहित्य के बारे में विभिन्न विद्ववानों के विचार समझेंगे।
- दलित साहित्य के मूल दृष्टिकोण से परिचित होंगे।
- दलित साहित्य के अन्तर्गत स्वानुभूति एवं सहानुभूति के बारे में जानेंगे।
2. प्रस्तावना
साहित्य में आज दलित विमर्श के रूप में एक मुहिम-सी चल पड़ी है। सदियों से उपेक्षित, तिरस्कृत, दबी-कुचली मानवता ने आज जीवन का मर्म सीख लिया है। भारतीय समाज-व्यवस्था की मूल वृत्ति वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद व ऊँच-नीच के कारण समाज का बहुत बड़ा वर्ग अपने मानवीय अधिकारों सें वंचित और नारकीय जीवन जीने को विवश था। सदियों से भारतीय समाज-व्यवस्था को संचालित करने वाली मनुवादी व्यवस्था ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के नाम पर समाज को बाँटकर विषमता की गहरी खाई खोद दी थी। एक ओर ऐसा वर्ग था, जिसके हाथ में सभी तरह के अधिकार थे, तो दूसरी तरफ ऐसा वर्ग भी था, जिसे समाज में जीने तक का अधिकार नहीं था। पशु से भी बदतर जीवन जीने को विवश यह वर्ग शूद्र के रूप में अभिहीत हुआ। बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अथक संघर्ष एवं संवैधानिक व्यवस्था के कारण समाज के निचले पायदान का व्यक्ति आज जागृत होने लगा है, अपने मानवोचित अधिकारों के प्रति सचेत हो रहा है। जिसकी पीड़ा साहित्य में कभी अभिव्यक्ति नहीं पाई, वह स्वयं आज अपने भोगे हुए यथार्थ को कलमबन्द करने को उद्यत है। उसी पीड़ा की अभिव्यक्ति आज दलित साहित्य के रूप में हो रही हैं। दलित साहित्य को समझने से पूर्व भारतीय समाज-व्यवस्था व दलित शब्द पर थोड़ी चर्चा अपेक्षित है।
3. दलित कौन?
सदियों से भारतीय समाज-व्यवस्था वेदों, शास्त्रों, स्मृति ग्रन्थों एवं धर्म ग्रन्थों में बनाए गए नियम कायदों से संचालित होती रही है। इसकी जड़ में वर्ण-व्यवस्था है। इस विषमतापूर्ण, अमानवीय व्यवस्था को धर्म सम्मत एवं शास्त्र सम्मत प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में व्यवस्था दी गई कि –
‘ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः
उरूतदस्य यद् वैश्यः पदोभ्याम् शूद्रो अजायतः।।‘
(ऋग्वेद: मण्डल 10, पुरुष सूक्त 190, ऋषिनारायण)
अर्थात एक विराट पुरुष की कल्पना कर उसके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति का मायाजाल रचा गया। वस्तुतः इस मुखस्थ संस्कृति ने पदस्थ संस्कृति को बुरी तरह कुचलने का एकाधिकार अपने पास सुरक्षित रख लिया। जो वैदिक व्यवस्था के शूद्र थे, वे ही कालान्तर में दलित के रूप में पहचाने गए। समाज का यह बहुसंख्यक समुदाय सदियों से मानवाधिकारों से वंचित रहा और यन्त्रणापूर्ण जीवन जीने को विवश हुआ। कालान्तर में चातुर्वर्ण व्यवस्था अनगनित जातियों में विभाजित हुई और आज भी भारतीय समाज में दलित जातियों की यह स्थिति है कि स्वाधीनता के सातवें दशक के पश्चात् भी उन पर अन्याय व अत्याचार कम नहीं हुए। प्रश्न उठता है कि ये दलित कौन हैं? ‘दलित’ का कोशीय अर्थ है – मसला हुआ, मर्दित दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, खण्डित, विनिष्ट किया हुआ। (संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर, सं. रामचन्द्र वर्मा, पृ. 468)
दूसरे शब्दकोश के अनुसार ‘दलित’ शब्द का अर्थ हुआ – दल्+क्त = टूटा हुआ, चीरा हुआ, फाड़ा हुआ, फटा हुआ, टुकड़े-टुकडे़ हुआ। (संस्कृत-हिन्दी कोश, सं. वा. शि. आपटे, पृ. 45) दोनों शब्द कोशों के अर्थ से प्रतीत होता है कि ‘दलित वह है जिसका दलन हुआ है।’ भारतीय समाज व्यवस्था में निचले पायदान के वर्ण, शूद्र का ही दलन हुआ है। वस्तुतः ‘दलित वह व्यक्ति है, जो विशिष्ट सामाजिक स्थिति का अनुभव करता है। जिसके जीने के अधिकारों को छीना गया है। मात्र जन्म के आधार पर जिनको समाज में एक ही प्रकार का जीवन मिला है। मनुष्य के रूप में उनके मूल्यों को नकारा गया है। मानव के रूप में जिनके अधिकारों को ठुकराया गया है।’ (डॉ. प्रभाकर : अस्मिता दर्श) यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ‘विशिष्ट सामाजिक स्थिति’ से तात्पर्य वर्ण व्यवस्था से है, जिसमें जन्म से ही जाति व वर्ण तय कर दिए जाते हैं, यह व्यवस्था इसे बदलने का अधिकार नहीं देती। इस सम्बन्ध में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का वक्तव्य दृष्टव्य है – ‘हिन्दुस्तान देश केवल विषमता का आश्रय स्थान है। हिन्दू समाज उसकी एक मीनार है और प्रत्येक जाति उसकी एक मंजिल है। लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि इस मीनार में सीढ़ी नहीं लगी है। एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक जाने के लिए उसमें मार्ग नहीं रखा गया है। जिस मंजिल में जन्मे, उसी मंजिल में मरे। नीचे की मंजिल में जन्मा व्यक्ति चाहे कितना ही लायक क्यों न हो, उसे ऊपर वाली मंजिल में प्रवेश नहीं और ऊपर की मंजिल में जन्मा व्यक्ति, चाहे वह कितना ही नालायक क्यों ना हो, उसे भी मंजिल से ढकेलने का साहस, किसी में भी नहीं। सचेतन और अचेतन पदार्थ सारे ईश्वर के रूप हैं, ऐसा कहने वाले स्वधर्मियों को ही अपवित्र मानते हैं।’ (मूकनायक पाक्षिक में डॉ. बी.आर.अम्बेडकर के लेख से)
डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय जाति व वर्ण व्यवस्था को स्पष्ट रूप से समझा दिया है, इसी कारण शूद्र कहे जाने वाले वर्ण को यन्त्रणापूर्ण जीवन जीने को विवश होना पड़ा। इस वर्ग की नियति उसके जन्म से ही निर्धारित हो जाती थी।
मराठी साहित्यकार बाबूराम बागुल का मानना है कि ”दलित शब्द से अनेक प्रकार का बोध होता है – जैसे अपमान बोध, दुःख-बोध, दैन्य-दासत्व-बोध, जाति-वर्ण बोध, विश्व बन्धुत्व-बोध और क्रान्ति-बोध।” (सारिका, मई 1976, सं. कमलेश्वर, पृ. 75) अर्थात भारतीय समाज-व्यवस्था में जिन्होंने अपमान व तिरस्कार सहा है तथा अब उस व्यवस्था के विरुद्ध क्रान्ति को उद्यत हैं, वे दलित हैं। ‘दलित पैन्थर्स’ ने अपने घोषणा-पत्र में ‘दलित’ की परिभाषा दी है कि ‘दलित का अर्थ अनुसूचित जाति, बौद्ध, कामगार, भूमिहीन, मजदूर, गरीब किसान, खानाबदोश जाति, आदिवासी और नारी-समाज।’ दलित शब्द के सम्बन्ध में यह दृष्टि अति व्यापक है। इस दृष्टि से समाज के पचासी प्रतिशत से भी अधिक लोग दलित हैं। अर्थात शूद्रों के साथ ही स्त्री भी दलित वर्ग की ही समझी जाती है। वस्तु-स्थिति यह है कि दलित शब्द को समझना बड़ा कठिन है। हमें इसके प्रचलित रूप पर ही विचार करना चाहिए। दलित शब्द आज साहित्य लेखन के सन्दर्भ में संकुचित अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है, क्योंकि दलित से छिटककर आदिवासी व स्त्री ने अपनी पहचान अन्यत्र तलाशनी प्रारम्भ कर दी है। वे अपनी अस्मिता की लड़ाई अलग से लड़ रहे हैं। भारतीय वर्ण-व्यवस्था में सबसे नीचे शूद्र आते हैं, और शूद्रों में पिछड़ों की भी गिनती होती है, लेकिन दलित शब्द जिन लोगों के लिए प्रयुक्त हो रहा है, उनमें पिछड़ा वर्ग सम्मिलित नहीं है। अतः मेरी दृष्टि में दलित वे हैं, जिन्हें पंचम वर्ण मानकर अन्त्यज माना गया तथा जिनके साथ छुआछूत का व्यवहार किया गया व किया जा रहा है, जो गाँव व शहर की बस्ती से एकदम बाहर नारकीय जीवन जीने को विवश है तथा संविधान में जिन्हें ‘अनुसूचित जाति’ कहा गया है, वे दलित हैं।
इस वर्ग के लिए दलित शब्द का सम्बोधन भी आधुनिक युग की देन है। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर इस वर्ग के लिए ’पद दलित’ शब्द का प्रयोग करते हैं। साहित्य में दलित साहित्य शब्द का प्रयोग भी डॉ. अम्बेडकर के जीवित रहते होने लगा था। सन् 1950 के लगभग यह शब्द अंकुरित हो गया था। मराठी दलित लेखक राजा ढाले का मानना है कि सन् 1948 के आस-पास ‘दलित सेवक साहित्य संघ’ व ‘दलित साहित्य संघ’ की स्थापना हो चुकी थी, किन्तु इनके होने पर भी ‘दलित साहित्य’ शब्द प्रचलित नहीं था। जनता साप्ताहिक (12.9.1953) में श्री आ-रणपीसे का दलित साहित्य का समालोचना शीर्षक लेख पढ़ने को मिलता है – ‘और वह भी दलित साहित्य का समालेचन करने के लिए पर्याप्त दलित साहित्य था।’ (दलित वाङ्मय प्रेरणा व प्रवृत्ति : शंकरराव खरात, पृ.6) इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि दलित साहित्य सन् 1948 से पहले से ही लिखा जा रहा था, किन्तु इसको पहचान सन् 1950 के पश्चात ही मिली।
4. दलित साहित्य की अवधारणा
भारत की चातुर्वर्ण-व्यवस्था में सबसे निचले पायदान के व्यक्ति के साथ घोर अन्याय व अत्याचार हुए हैं, जिसकी दास्ताँ भले ही इतिहास के पन्नों पर दर्ज न हो, लेकिन आधुनिक युग में जब ज्ञान की आँधी चली, तो सदियों से सन्तप्त मानवता को अपने अधिकारों का अहसास हुआ। संवैधानिक संरक्षण के अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के तहत उन्हें बोलने का अधिकार मिला। इसी के चलते सदियों से शोषित एवं पीड़ित समुदाय की वेदना की छटपटाहट अभिव्यक्त हुई। यही छटपटाहट दलित साहित्य के रूप में उभर कर सामने आई। दलित साहित्य को लेकर आज कई तरह की धारणाएँ चल पड़ी हैं। अतः दलित साहित्य को समझने के लिए हमें अनेक विद्वानों के मतों की सम्यक व्याख्या की आवश्यकता है, इसी आधार पर हम दलित साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत कर सकते हैं।
दलित चिन्तक कँवल भारती का मत है कि “दलित साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को रूपायित किया है। अपने जीवन-संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है, दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह कला के लिए कला नहीं, बल्कि जीवन का और जीवन की जिजीविषा का साहित्य है। इसीलिए कहना न होगा कि वास्तव में दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य की कोटि में आता है।’’ (कँवल भारती, युद्धरत आम आदमी, अंक 41-42, 1998, पृ.41)
कँवल भारती ने दलित साहित्य को एक सीमा रेखा में बाँध दिया है, उनके विचार से दलितों द्वारा दलितों के लिए लिखा साहित्य ही दलित-साहित्य की श्रेणी में आता है। उनकी यह दृष्टि दलित लेखन को संकुचित करती-सी प्रतीत होती है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का विचार है कि “दलित साहित्य जन साहित्य है, यानी मास लिटरेचर (MASS LITERATURE)। सिर्फ इतना ही नहीं; लिटरेचर ऑफ एक्शन (literature of action) भी है, जो मानवीय मूल्यों की भूमिका पर सामन्ती मानसिकता के विरुद्ध आक्रोशजनित संघर्ष हैं। इसी संघर्ष और विद्रोह से उपजा है दलित साहित्य।” (ओम प्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र, पृ.15) ओमप्रकाश वाल्मीकि की दृष्टि में संघर्ष, आक्रोश और विद्रोह का नाम दलित साहित्य है, जो तमाम तरह के सामन्ती मूल्यों की खिलाफत करता है।
दलित साहित्य के सम्बन्ध में शरण कुमार लिम्बाले के शब्द गौरतलब है – “दलितों का दुख, परेशानी, गुलामी, अधःपतन और उपहास के साथ ही दरिद्रता का कलात्मक शैली से चित्रण करने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है। आँह का उदात्त स्वरूप, अर्थात साहित्य। हर एक मनुष्य को स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और भययुक्त सुरक्षा मिलनी चाहिए, इसी पृष्ठभूमि पर निर्मित एक प्रवृत्ति साहित्य में अभिव्यक्त हो रही है। इस प्रवृत्ति का नाम दलित साहित्य है। दलित साहित्य मनुष्य को केन्द्र मानता है। मनुष्य के सुख-दुख से समरस होता हैं। मनुष्य को महान मानता है। मनुष्य को सम्यक् क्रान्ति की ओर ले जाता है।” (शरण कुमार लिम्बाले, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, पृ. 38-39)
शरण कुमार लिम्बाले दलित साहित्य को व्यापक अर्थ में प्रस्तुत कर रहे हैं। उनकी दृष्टि में मनुष्य और उसकी स्वतन्त्रता को केन्द्र में रखकर लिखा गया साहित्य दलित साहित्य की श्रेणी में आता है, जिसमें अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष की अभिव्यक्ति हुई है।
मोहनदास नैमिशराय ने दलित साहित्य के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा कि “कुछ लोगों ने लिखा और कहा है कि दलित साहित्य वेदना का, पीड़ा का साहित्य है। कुछ ने कहा यह मुक्ति का साहित्य है, इस सम्बन्ध में अगर हम ऐतिहासिक घटनाओं, दुर्घटनाओं का अध्ययन करें तो ऐसा मानना चाहिए कि दलित साहित्य पीड़ा, वेदना अथवा मुक्ति का ही साहित्य नहीं, बल्कि वह अपने अधिकारों, अस्मिता और पहचान के लिए संघर्ष करने वालों का साहित्य हैं।” (मोहनदास नैमिशराय, मराठी और हिन्दी दलित आत्मकथाएँ, पृ. 19)
दलित साहित्य वर्ण, जाति व्यवस्था से मुक्ति, वैज्ञानिक सोच व संवेदनशीलता का साहित्यिक हस्तक्षेप है, जो अन्धविश्वासों, अन्याय एवं शोषण के विरुद्ध होकर मनुष्य को पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है। वस्तुतः यह प्रतिरोध का साहित्य हैं। दलित वर्ग सदियों से सवर्णों के उत्पीड़न, दम्भ एवं शोषण का शिकार रहा हैं। वर्ण-व्यवस्था के पोषक धर्म ग्रन्थो एवं स्मृतिशास्त्रों ने दलित वर्ग के विरुद्ध यह फतवा जारी कर रखा था कि यदि गलती से भी इस वर्ग के व्यक्ति ने वेद मन्त्र सुन लिया या उसका उच्चारण कर लिया तो कानों में पिघला हुआ शीशा डाल दिया जाएगा तथा उसकी जीभ काट ली जाएगी। ऐसी अमानवीय व्यवस्था में दलित कभी भी अपनी पीड़ा का इजहार नहीं कर सके, लेकिन सदियों के उनके सतत संघर्ष, ज्ञान चेतना की लहर व संवैधानिक संरक्षण के कारण आज दलित अपनी वाणी को मुखरित करने को बेताब हुए हैं, तथा अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर वर्ण व्यवस्था के मठों व गढ़ों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध होकर अपनी असहनीय वेदना को प्रकट कर रहे हैं, जिसकी परिणिति दलित साहित्य के रूप में है। “दलित साहित्य लेखन दलित-अस्मिता की तलाश है, यह सामाजिक परीक्षण व उनके छिन्न-भिन्न कर देने की एक अनबुझी प्यास है। वर्ण-व्यवस्था से उपजी अमानवीय त्रासदी से मुक्ति की छटपटाहट ही दलित साहित्य का मूल स्वर है। जाति-विहीन, वर्ग विहीन समाज की संरचना ही इसका मूल प्रतिपाद्य हैं।” (डॉ. सी. बी. भारती, हंस, अंक-3, वर्ष 1996, पृ.70-71)
दलित साहित्य न केवल वर्ण व जाति-व्यवस्था से मुक्ति का साहित्य है, अपितु यह सामाजिक समानता, स्वतन्त्रता, मानवीयता एवं विश्वबन्धुत्व को प्रतिस्थापित करने का साहित्य है। इसलिए इसे परम्परागत साहित्यिक मानदण्डों पर नहीं कसा जा सकता। हूबनाथ ने लिखा है कि “इसलिए दलित साहित्य, साहित्य की परम्परागत परिभाषा के पैमाने के आधार पर साहित्य नहीं है, बल्कि सदियों से अन्याय व असमानता के नरक में पलते बेकसूर, बेजबानों के अन्तर का हाहाकार है, जो सदियों तक पकते-पकते तेजाब बन चुका है और आक्रोश बनकर उफन रहा है। इस साहित्य से हम धीरता, गम्भीरता, शालीनता, सभ्यता और सौन्दर्य प्रियता की उम्मीद नहीं कर सकते।” (हूबनाथ, नवनीत (हिन्दी डाइजेस्ट), अप्रैल 2010, पृ. 20)
सदियों से दलित भारतीय समाज के एक ऐसे यातना शिविर में रह रहे हैं, जहाँ उसके लिए दुःख और अपमान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इसलिए “दलित साहित्य उन अछूतों का साहित्य है, जिन्हें सामाजिक स्तर पर सम्मान नहीं मिला। सामाजिक स्तर पर जाति भेद के जो लोग शिकार हुए हैं, उनकी छटपटाहट ही शब्दबद्ध होकर दलित साहित्य बन रही है।” (डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन, अंगुत्तर, जुलाई-सितम्बर 1997, पृ. 70)
इस सम्बन्ध में बाबूराम बागुल के विचार महत्त्वपूर्ण है – “भारतीय विचार, समाज और साहित्य-परम्परा वर्ण-व्यवस्था से सम्बद्ध है, इस परम्परा को दलित साहित्य पूर्णतः नकारता है। वह स्वतः को ज्ञान-विज्ञान और विश्व-साहित्य की उस मानववादी क्रान्तिकारी दर्शन परम्परा से जोड़ता है, जिसमें मानव-स्वतन्त्रता के मूल्य पोषित, पल्लवित हुए हैं। वर्ण-व्यवस्था को मानने वाला भारतीय और मातृभाषा-भाषी व्यक्ति हमारा कुछ नहीं लगता, पर मनुष्य के लिए संघर्ष करने वाला, मनुष्य को महानता देने वाला व्यक्ति, चाहे वह अभारतीय भी हो, तो भी वह हमारा अपना हो, कारण हमारे लेखन का उद्देश्य ही मनुष्य की मुक्ति और महानता है।” (बाबूराव बाबुल, नवनीत (हिन्दी डाईजेस्ट), अप्रैल, 2010, पृ. 30)
बाबूराव बागुल के विचार दलित साहित्य को सम्पूर्ण छटपटाती मानवता की मुक्ति तक ले जाते हैं। यह उनका व्यापक दृष्टिकोण है। यह साहित्य संघर्षरत मनुष्य से प्रतिबद्ध है, जो दैन्य, दासता, ईश्वरीय व धर्मशास्त्रीय विधान को सिरे से खारिज करता है।
5. सहानुभूति व स्वानुभूति का प्रश्न
दलित साहित्य को लेकर एक विमर्श और चल रहा है। एक ओर वे दलित साहित्यकार हैं, जो दलितों द्वारा लिखे साहित्य को ही दलित साहित्य मानते हैं, दूसरी ओर राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर जैसे साहित्कार भी हैं, जो दलितेतर लेखकों द्वारा दलितों के लिए लिखे साहित्य को भी दलित साहित्य की श्रेणी में ले जाते हैं। यहाँ प्रश्न सहानुभूति और स्वानुभूति का है। दलितों द्वारा लिखा साहित्य स्वानुभूतिपरक है, जो यथार्थपरक व स्वयं भोगी हुई अनुभूति का साहित्य है। दूसरी ओर दलितेतर लेखकों द्वारा लिखा साहित्य है, जिसमें दलितों के लिए दया व सहानुभूति है। यह धारणा विवाद को जन्म देकर दलित साहित्य के वास्तविक उद्देश्य से भटकाती है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था व अन्याय का प्रतिरोध कई चिन्तकों और समाज सुधारकों द्वारा होता रहा है। भारतीय नवजागरण के पुरोधा राजाराम मोहनराय, दयानन्द सरस्वती आदि ने भी जातिवाद व वर्ण व्यवस्था का विरोध किया है, किन्तु महात्मा ज्योतिराव फूले, बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर व रामास्वामी पेरियार ने जिस दृष्टिकोण व विचारधारा से इस दर्द को समझकर उसे अभिव्यक्त किया है, उसे अन्य कोई अभिव्यक्त नहीं कर पाया। साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द, निराला, नागार्जुन, रांगेय राघव ने भी दलित पीड़ा को अपनी लेखनी का विषय बनाया, पर उनके लेखन में वह छटपटाहट नहीं है, जो दलित लेखकों की लेखनी में है, क्योंकि “किसी दर्द को खुद सहना और अभिव्यक्त करना तथा दूसरे के दर्द से द्रवित होकर उसे व्यक्त करने में जमीन-आसमान का फर्क होता है। रचनाकार कितना ही संवेदनशील हो, किन्तु वह अधिक से अधिक दूसरे की शारीरिक यातना को ही समझ सकता है। मानसिक छल, अपमान, वेदना को समझने के लिए शोषित के सामाजिक, मानसिक, सांस्कृतिक धरातल पर ही उतरना पड़ता है।” (हूबनाथ, नवनीत (हिन्दी डाइजेस्ट), अप्रैल 2010, पृ. 20)
इस सम्बन्ध में राजेन्द्र यादव के विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं। उनका कथन है कि “दलित लेखकों की यह जिद है कि नुमाइन्दगी या प्रतिनिधित्व की यह राजनीति बहुत दूर तक उनकी बात नहीं कह सकती। दुनिया का कोई वकील अपनी सादी निष्ठा और ईमानदारी या कानूनी पैंतरेबाजी के बावजूद वादी की तड़प, यातना और गुस्से को नहीं बता सकता, जितना वे स्वयं व्यक्त कर सकते है।” (राजेन्द्र यादव, हंस, अगस्त 1998. पृ. 04)
राजेन्द्र यादव, नामवरसिंह आदि दलितेतर लेखकों द्वारा दलितों के लिए लिखे साहित्य को भी दलित साहित्य मानते हैं। उनका तर्क है कि घोड़े पर लिखने के लिए घोड़ा बनने की जरूरत नहीं है। साहित्य संवेदना है, उसे सहानुभूति या स्वानुभूति के द्वन्द्व से परे हटकर दलित पीड़ा के दस्तावेज के रूप में समझना चाहिए। राजेन्द्र यादव इसे और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि दलित साहित्यकारों को इस प्रश्न से बिलकुल नहीं उलझना चाहिए की दलित साहित्य सिर्फ दलित ही लिख सकता है, क्योंकि यह व्यर्थ के विवाद में अपने को उलझा देना है। साहित्य एक ऐसा लोकतन्त्र है, जहाँ हरेक को अपनी बात कहने और लिखने की आजादी है। जो गैर-दलित लेखक दलित साहित्य लिख रहे हैं, उन्हें न तो आप रोक पाएँगे और न ही रोकना चाहिए। उन्हें वर्णवाद के कटघरे में खड़ा करने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि बात अन्ततः इस पर जाएगी कि आपकी उपलब्धियाँ क्या रहीं।” (राजेन्द्र यादव, जवाब दो विक्रमादित्य, पृ. 153-154)
नामवर सिंह भी यह मानते हैं कि दलित के पक्ष में कोई दलित लेखक लिखे या दलितेतर लेखक कोई फर्क नहीं पड़ता। “कोई लेखक दलित कुल में जन्म लेने से ही दलित चेतना का संवाहक नहीं हो जाता है।… जन्मना दलित ही दलित चेतना का प्रतिनिधि होगा, दूसरा कोई नहीं गलत हैं।’’ (प्रो. नामवर सिंह, नयापथ, अंक 26, 1998, पृ. 12-13)
रत्नकुमार साँभरिया दलितो द्वारा लिखे स्वानुभूतिपरक साहित्य को दलित साहित्य मानने पर आपत्ति करते हैं। उनकी दृष्टि में अनुभूतियाँ समय-समय पर बदलती रहती है। अतः दलित साहित्यकारों द्वारा खड़े किए गए इस विचार को साँभरिया ‘अतिवादी दृष्टिकोण व साहित्यिक संकुचन’ मानते हैं। दलित लेखकों का तर्क है कि स्वयं दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है क्योंकि उनके द्वारा लिखे साहित्य में अनुभव की प्रामाणिकता के साथ-साथ संघर्ष व सामाजिक-मानसिक स्थितियों का यथार्थ चित्रण जिस ढंग से स्वयं दलित लेखक कर सकते हैं, वैसा गैर दलित लेखक नहीं लिख पाते। “इस साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें दलित जीवन की कटु-तिक्त, मगर प्रमाणिक तस्वीर उभरकर आती है। यहाँ पर दलित चेतना प्रतिरोधी और एकांगी सामाजिकता में विकास को चुनौती देने वाली क्षति के निर्माण में संलग्न है।’’ (हरपाल सिंह ‘अरूष’, दलित साहित्य के आधार तत्व, पृ. 63)
6. दलित साहित्य का प्रयोजन
दलित साहित्य परम्परागत साहित्य से बिलकुल भिन्न है ‘नाट्यशास्त्र’ के प्रणेता भरतमुनि ने काव्य का प्रयोजन निर्धारित करते हुए लिखा है कि
“धर्म्य यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्द्धनम्
लोकोपदेश जननं नाट्यमेतद् भविष्यति|’’
(नाट्यशास्त्र : भरतमुनि)
अर्थात नाट्य (काव्य) धर्म, यश और आयु का साधक, हितकारक, बुद्धि का वर्द्धक तथा लोकोपदेशक होता है। इस सम्बन्ध में ‘काव्यालंकार’ के रचयिता भामह के भी विचार जानने योग्य हैं-
धर्मार्थकाम मोक्षेषु वैचक्षण्यं कला सु च।
करोति कीर्ति प्रीति च साधू काव्य निबन्धनम्||
(काव्यालंकार : भामह)
अर्थात उत्तम काव्य (साहित्य) की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रुपी चारों पुरुषार्थों को तथा समस्त कलाओं में निपुणता को और प्रीति (आनन्द) तथा कीर्ति को उत्पन्न करती है।
उपर्युक्त दृष्टि से परम्परागत साहित्य का प्रयोजन चारों पुरुषार्थों – धर्म,अर्थ काम और मोक्ष की प्राप्ति है। वस्तुतः इन रूपों में साहित्य भाव व्यापार है तथा इसे रसानुभूति का प्रमुख माध्यम माना गया है, किन्तु दलित साहित्य परम्परागत साहित्य की उक्त मान्यता को सिरे से ख़ारिज करते हुए साहित्य रचना द्वारा चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति को नकारता है तथा इनके स्थान पर अंधविश्वास, विकृत रूढ़ियों, परम्परागत आस्थाओं, भगवान, भाग्यवाद, देवी-देवताओं, आडम्बरों, पूर्वजन्म का फल, पुनर्जन्म इन सब को नकारता है तथा मनुष्य की पीड़ा, उसके दुःख-दर्द व इनके लिए जिम्मेदार कारकों की पड़ताल करता है। इसका उद्देश्य आनन्द प्राप्त करना नहीं अपितु मनुष्य की मरी हुई संवेदनाओं को कुरेदना है। दलित साहित्य तार्किक एवं वैज्ञानिक ढंग से परम्परागत भारतीय समाज की बद्धमूल धारणाओं का खण्डन करता है तथा वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को सिरे से ख़ारिज कर इनसे उत्पन्न समाज की विषमता व उसके यथार्थ को प्रस्तुत करता है। इसलिए दलित साहित्य में प्रेम, शृंगार, सौन्दर्य, प्रकृति चित्रण या भक्ति की अपेक्षा समाज की बर्बरता व उसकी विद्रूपता का कारुणिक व यथार्थ चित्रण है।
दलित साहित्य अपने परिवेश एवं समाज से गहरा सरोकार रखता है। इसलिए इसमें निजी दुःख से अधिक दलित समाज की पीड़ा का व्यापक चित्रण मिलता है। इसमें ‘मैं’ शब्द का प्रयोग ‘हम’ के लिए ही प्रयुक्त होता है। दलित समाज में सामजिक चेतना उत्पन्न करना, इनका सदियों से खोया आत्म सम्मान लौटना, सामाजिक रूपान्तरण करना तथा दलित-पीड़ित का पुनर्वास कर उन्हें मानवोचित अधिकार दिलाना दलित साहित्य का मुख्य प्रयोजन है। इसलिए दलित साहित्य भारतीय संविधानिक अधिकारों की प्राप्ति की बात करता है। इन सबकी प्राप्ति के लिए भले ही उसका स्वर आक्रोश से परिपूर्ण हो परन्तु उसमें एक गहरी आह और वेदना भरी पड़ी है। अतः दलित साहित्य आक्रोश के साथ-साथ वेदना का साहित्य भी है। यही दोनों तत्त्व इसे साहित्य की गहराई से जोड़ते हैं।
दलित साहित्य में पात्रों की जाति का उल्लेख अवश्य होता है क्योंकि जाति के अनुसार ही पात्रों का चरित्र-चित्रण, उनकी जातीय पहचान, पहनावा, बोली-भाषा, संस्कृति, उनकी भू-सामाजिक स्थिति आदि का यथार्थ चित्रण होता है जिससे दलित साहित्य अधिक प्रमाणिक और संवेद्य प्रतीत होता है। दलित साहित्य में जहाँ सवर्ण पात्रों की सृष्टि की गई है वहाँ वे पात्र (कुछ अपवादों को छोड़कर) प्रायः खलनायक के रूप में ही आये हैं, जो ब्राह्मणवाद व सामन्तवाद के पोषक होने के साथ-साथ दकियानूस व क्रूर होते हैं। उनकी भूमिका जातीय अहंकार को दर्शाने वाली होती है।
यद्यपि दलित साहित्य आज साहित्य की विभिन्न विधाओं-आत्मकथा, कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संस्मरण आदि के रूप में सामने आ रहा है तथापि इनमें एक सा ही कथानक, घटनाक्रम इसकी विविधता की कमी को उजागर करता है। एक दूसरी बात और उभरकर सामने आई है कि इसमें दलित जातियों की परस्पर जातीय स्तरयीता व आपसी भेदभाव का खुलासा भी हुआ है जो दलित एकता की कमजोर करने वाला प्रतीत होता है। इसके साथ ही इसमें प्रचारात्मकता अधिक है जिसके कारण इसमें अनुभूति की सच्चाई के बावजूद साहित्यिक गहराई नहीं आ पाई है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि दलित साहित्य लेखन में विविधता की अत्यन्त आवश्यकता है तथा कलात्मकता की जरुरत है को मराठी दलित लेखन में बखूबी प्रकट हो रही है।
दलित साहित्य में उन जाति सूचक शब्दों की अत्यधिक भरमार है जो कि सवर्ण समाज द्वारा उन्हें गाली के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। माननीय उच्चतम न्यायालय ने इन जाति सूचक, अपमान बोधक शब्दों को वर्जनीय कर रखा है। अतः दलित साहित्यकारों को भी चाहिए की यथार्थ लेखन के चक्कर में संविधानिक प्रतिबंधात्मक शब्दों का प्रयोग बड़ी सावधानी से करें।
जैसा की ऊपर कहा गया है कि दलित साहित्य में कलात्मकता का अभाव है। दलित साहित्य अभिधात्मक व सपाटबयानी से युक्त है। इसलिए इसमें परम्परागत साहित्य शास्त्रीय तत्त्व रस, छंद, अलंकार, बिम्ब प्रतीक आदि का आभाव है। वस्तुतः दलित साहित्य परम्परागत कलावाद को सिरे से ख़ारिज करता है तथा यह साहित्य आत्ममुग्धता, रहस्यवादी दर्शन, प्रेम की अश्लील अठखेलियों के चित्रण व बौद्धिक कलावाद को नकारकर साहित्य में प्रस्तुत महावृतांत महानायकत्व की अवधारणा स्वांत सुखाय रघुनाथ गाथा तथा ऐसी ही कथित उदात्त भावनाओं के विरुद्ध ‘बहुजन हिताय व बहुजन सुखाय’ की बात करता है। इसलिए इसमें परपरागत मिथकों व प्रतीकों को नए सिरे से रूपायित किया गया है। उसका बहुप्रचलित वाक्य है – ”बदबू ही हमारा सौन्दर्यशास्त्र है।”
अस्तु ! दलित साहित्य का मूल प्रयोजन सामजिक न्याय व मनुष्य की मुक्ति रहा है। इसलिए भले ही यह प्रचारात्मक प्रतीत हो किन्तु अंततः इसमें हजारों वर्षों से मूक लोगों की अभिव्यक्ति का सार्थक प्रयत्न किया गया है, जो उनके संघर्ष और चेतना से उत्पन्न हुआ है, जिसमें समाज से जोड़ने का कार्य किया है। भले ही उसमें भाषा का भदेसपन है किन्तु इसकी प्रस्तुति की सहजता और सरलता इसकी प्रामाणिकता को प्रकट करती है और यही दलित साहित्य की वास्तविक सच्चाई व ताकत है।
7. निष्कर्ष
कहा जा सकता है दलित लेखकों को भी हर जिद से ऊपर उठना चाहिए कि दलित पर हम स्वयं ही लिखेंगे, दूसरे क्यों लिखें? इस तरह की जिद अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता में बाधक है। दूसरी ओर दलित पर लिखने वाले दलितेतर लेखकों को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अब दया या सहानुभूतिपरक साहित्य की जरूरत नहीं। दलित जीवन पर लिखने के लिए वैसी ही पीड़ा व यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया जाना चाहिए, जिस पीड़ा को दलितों ने स्वयं भोगा है। उनके लेखन में चेतना का स्वर होना चाहिए जो पीड़ित मनुष्य को उसके मानवोचित अधिकारों को बहाल करें और सबसे अधिक उसमें लेखकीय ईमानदारी होनी चाहिए। फिर चाहे दलित के लिए दलित लेखक लिखे या सवर्ण लेखक, कोई फर्क नहीं पड़ता। उसमें डॉ.अम्बेडकर का संघर्ष, तल्खी तथा बुद्ध का मानवतावाद व करुणा होनी चाहिए और वास्तव में वह ही दलित साहित्य है, जिसमें सदियों से पीड़ा सहती मानवता के करुण क्रन्दन के साथ सतत संघर्ष भी हो।
you can view video on दलित साहित्य की अवधारणा |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- दलित विमर्श: साहित्य के आइने में, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ.एन.सिंह, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका’, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन इलाहाबाद
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, शरण कुमार लिम्बाले,
- मुख्यधारा और दलित साहित्य, ओमप्रकाश वाल्मीकि, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
- सत्ता संस्कृति और दलित सौन्दर्यशास्त्र, सूरज बड्त्या, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली
- दलित क्रान्ति का साहित्य, श्योराज राज सिंह बैचेन, संगीत प्रकाशन, दिल्ली
वेब लिंक्स-
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF#.E0.A4.85.E0.A4.B5.E0.A4.A7.E0.A4.BE.E0.A4.B0.E0.A4.A3.E0.A4.BE
- https://www.youtube.com/watch?v=cWNzpokMDgc
- https://www.youtube.com/watch?v=kVMuMQ2gwhc
- https://www.youtube.com/watch?v=4yUUnDwK7Fk
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B8%E0%A5%87_%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_/_%E0%A4%85%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%95_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE
- http://www.debateonline.in/310113/