31 दलित कविता
केदार प्रसाद मीणा and रमेश चन्द मीणा
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- हिन्दी दलित कविता की मूल सम्वेदना एवं उसकी वैचारिकी को समझ सकेंगे।
- हिन्दी दलित कवि एवं कवयित्रियों के बारे में जानेंगे, साथ ही साथ उनकी काव्य-दृष्टि को समझ सकेंगे।
- हिन्दी दलित साहित्य में हिन्दी दलित कविता का योगदान जानेंगे।
- दलित साहित्य के नजरिये से गाँधीवादी एवं मार्क्सवादी दृष्टिकोण का मूल्यांकन करेंगे और अम्बेडकरवादी दृष्टिकोण के बारे में जानेंगे।
- प्रस्तावना
भारतीय साहित्य में एक नई और महत्त्वपूर्ण धारा का विकास दलित साहित्य के उत्थान के साथ होता है। देश की लगभग सभी बड़ी भाषाओं में दलित साहित्य लिखा जा रहा है, जिसकी अपनी अलग और खास विशेषताएँ हैं।हिन्दी में भी गम्भीर दलित साहित्य लेखन हो रहा है। यूँ दलित समाज को केन्द्र में रखकर हिन्दी में साहित्य बहुत पहले से लिखा जाता रहा है, ऐसे हिन्दी साहित्यकारों में सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, प्रेमचन्द, नागार्जुन, फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, मगर दलित साहित्य लेखन की यह नई धारा इस अर्थ में नयी है कि इसमें दलित समाज से आए साहित्यकार खुद साहित्य लिख रहे हैं। इनके द्वारा हिन्दी में लिखी गई दलित आत्मकथाएँ विशेष रूप से चर्चित रही हैं –जूठन, तिरस्कृत, मुर्दहिया, मेरा बचपन मेरे कन्धों पर आदि।इस दलित धारा ने हिन्दी कविता को भी नए स्वर से समृद्ध किया है। दलित कवि-कवयित्रियाँ कविताएँ लिखकर हिन्दी साहित्य को अनकहे अनुभवों से लगातार समृद्ध कर रहे हैं। इनमें ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम, कुसुम वियोगी, डा.एन.सिंह, मलखान सिंह, दयानद बटोही, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, ईश कुमार गंगानिया, कैलाश दहिया, अनिता भारती, रजनी तिलक, जियालाल आर्य, तेजपाल सिंह तेज, रजनी अनुरागी, पूनम तुषामड़, कौशल पंवार, रजनी दिसोदिया, मुसाफिर बैठा, सूरजपाल चौहान, मुकेश मानस, जयप्रकाश लीलवान, प्रेमचन्द गाँधी, बलबीर माधोपुरी, सुशीला टाकभौरे, रजत रानी ‘मीनू’, कंवल भारती, सुदेश तनवर आदि प्रमुख हैं। इन कवि-कवयित्रियों के कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और इनमें से अधिकांश लगातार कविता कर्म कर रहे हैं। इन सब की कविताओं में कहीं कुछ मिला-जुला तो कहीं काफी भिन्न स्वर भी देखने को मिलते हैं।
- जातिवादी शोषण का प्रतिकार: मनुष्यता की पक्षधरता
दलित कविता का मूल स्वर भारतीय समाज में हो रहे वर्ण और जाति भेद पर आधारित शोषण के तीव्र प्रतिकार का है। इस वर्ण व्यवस्था के आधार पर बनी जाति-व्यवस्था भारतीय समाज को आज भी नरक बनाए हुए है। निम्न समझी जाने वाली और आर्थिक रूप से गरीब जातियों का अमानवीय शोषण जारी है। दलित कविता इस शोषण का मुखर विरोध कर रही है। इस जातिवादी शोषण के लिए मुख्यरूप से जिम्मेदार तथाकथित ऊँची जाति ब्राह्मण की पहचान दलित कविता करती है। कवि मलखान सिंह अपनी कविता सुनो ब्राह्मण में इसी जाति से विशेष रूप से सवाल करते हैं – “सुनो ब्राह्मण/हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें/…/तुम, मेरे साथ आओ/चमड़ा पकाएँगे/दोनों मिल-बैठकर/ …/ शाम को थककर पसर जाओ धरती पर/सूँघो खुद को/बेटों को/ बेटियों को/तभी जान पाओगे तुम/जीवन की गन्ध को/बलवती होती है जो/देह की गन्ध से।” (दलित-निर्वाचित कविताएँ, सं. कँवल भारती, साहित्य उपक्रम, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश),पृ. 49) दलित कवि मेहनत करके ईमानदारी से कमाने को मूल्य समझता है, न कि चालाकी से निम्न,गरीब और निरक्षर जातियों को ठगकर कमाने-खाने को। इस तरह की हर अमानवीय लूट को ये कवि निन्दनीय बताते हैं।कवि नवेन्दु महर्षि अपनी कविता ‘तुम सिर्फ चालाक हो’में कहते हैं –“तुम सिर्फ चालाक हो/ योग्य नहीं/ योग्य तो हैं वे-/ जो/ चट्टान तोड़ते हैं/ नहरें बनाते हैं/ सड़कें बनाते हैं/… / योग्य तो हैं वे/ तुम नहीं/ तुम तो/ अंगूठा कटवाते हो/ सिर कलम करते हो/ कान में पिघला शीशा डालते हो।” (अनभै साँचा त्रैमासिक, दलित विमर्श पर केन्द्रित विशेषांक, सं. द्वारिका प्रसाद चारुमित्र, अक्टूबर-दिसम्बर,2008,अंक-12,दिल्ली,पृ. 139) हिन्दू समाज में मेहनत करने को निम्नवर्गीय और बिना मेहनत किए जीने को उच्चवर्गीय संस्कृति समझे जाने की इस गलत धारणा की निर्मिति के लिए धर्मग्रन्थों का सहारा लिया गया,इसलिए ये धर्मग्रन्थ और इनमें निष्ठा रखने वाला समाज इनके विरोध और सवालों के केन्द्र में हैं। कँवल भारती अपनी कविता ‘तब, तुम्हारी निष्ठा क्या होती?’में धर्मग्रन्थ आधारित इस जातिवादी व्यवस्था को गलत बताकर सवर्ण जातियों के भेदभावकारी तत्त्वों से सवाल करते हैं – “तुम्हारी स्त्री,बहिन और पुत्री के साथ/ कर सकता है बलात्कार;/ जला सकता है घर-बार/ तब, तुम्हारी निष्ठा क्या होती? / यदि रामायण में राम / तपस्वी-धर्मनिष्ठ ब्राह्मणों का करते कत्ले आम/ तुलसीदास मानस में लिखते-/ पूजिए सूद्र सील गुन हीना/ तब,तुम्हारी निष्ठा-क्या होती?” (तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?, कँवल भारती,बोधिसत्व प्रकाशन,रामपुर(उत्तर प्रदेश),1996,पृ. 38) हिन्दू धर्मग्रन्थों पर आधारित इस महान भारतीय संस्कृति को दलित कवि छलावा बताता है, क्योंकि इसमें दलितों के लिए कोई सम्मानजनक जगह नहीं रही है। उनका सबकुछ इसी ‘महान’ संस्कृति के कारण छीन लिया गया।बलबीर माधोपुरी मेरा बुजुर्ग कविता में कहते हैं, “परिन्दों को उड़ने को आकाश/ रहने को घर है/ और मेरे पास क्या है/ गौरवमयी संस्कृति का देश/ गुलामी की प्रथा को बरकरार रखने के लिए/ मेरी अपनी जमीन।” (अनभै साँचा त्रैमासिक, दलित विमर्श पर केन्द्रित विशेषांक, सं. द्वारिका प्रसाद चारुमित्र, अक्टूबर-दिसम्बर, 2008, अंक-12, दिल्ली, पृ. 137) इस देश के मूल निवासी दलित यहीं अपनी धरती पर ही गुलाम बना दिए गए हैं। दलित कवि का यह दर्द माधोपुरी की इस कविता में व्यक्त हुआ है।
- मनु,गाँधी-मार्क्स से सवाल और बुद्ध एवं डा.भीमराव अम्बेडकर का अनुसरण
दलित कविता मनु और ‘मनुस्मृति’ के विरोध की कविता है। ‘मनुस्मृति’ ही जाति-वर्ण आधारित सामाजिक व्यवस्था का सबसे बड़ा पैरोकार ग्रन्थ है। इसमें व्यक्त मनु के सामाजिक सिद्धान्त को दलित अपने समाज की बर्बादी का सिद्धान्त मानते हैं। इसलिए दलित कविता मनु को नहीं,बुद्ध के अहिंसक और समतावादी सिद्धान्तों को अपना आदर्श मानती है। रजनी तिलक लिखती हैं –“हम जंग नहीं चाहते/ जीना चाहते हैं/ हम विनाश नहीं सृजन चाहते हैं/ हम युद्ध नहीं/ बुद्ध चाहते हैं।” (पदचाप, रजनी तिलक, निधि बुक्स,दिल्ली-पटना,2006,पृ. 6) दलित कविता मनु को नफरत और घृणा से देखती है। जयंत परमार ‘मनु’ कविता में लिखते हैं, “नीम की शाख पे/ नंगा करके/ लटका दूँगा तुझको मनु!/ तेरी रगों को चीर फाड़ कर देखूँगा/ तूने पिया है कितना लहू/ मेरे बुजुर्गों का!” (दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ,नयी दिल्ली,2009,पृ. 411) इसी तरह आधुनिक समाज नायकों में यह दलित कविता महात्मा गांधी की बजाय डा.भीमराव अम्बेडकर को अपना आदर्श मानती है। इसलिए दलित कविता में गांधी का विरोध मुख्यतया देखने को मिलता है। सुशीला टाकभौरे गांधीवादी मान्यताओं का लगभग मजाक उड़ाते हुए लिखती हैं –“अपने तीन बन्दर/ शायद यही था आपका/ दूरदर्शी अभियान/ भोले भाले लोगों को भरमाने के लिए/ देते रहे ऐसा ज्ञान-‘सत्य मत देखो’/ ‘सत्य मत कहो’, ‘सत्य मत सुनो’।” (मेरे काव्य संग्रह-स्वाति बूंद और खारे मोती-हमारे हिस्से का सूरज, सुशीला टाकभौरे, स्वराज प्रकाशन,नई दिल्ली,पृ. 125) हालाँकि डॉ. धर्मवीर, सूरजपाल चौहान और कैलाश दहिया जैसे कुछ कवि बुद्ध और डॉ. अम्बेडकर के सिद्धान्तों से अपने ढंग की तार्किक असहमति जता रहे हैं, पर यह स्वर अभी तक दलित कविता का मुख्य स्वर नहीं बन सका है। पिछली शताब्दी में पूरी दुनिया मार्क्सवाद से प्रभावित रही। श्योराज सिंह ‘बेचैन’, मुकेश मानस, कँवल भारती जैसे कई हिन्दी दलित कवि अपने शुरुआती दौर में मार्क्सवाद से प्रभावित होकर कविता लिखते रहे, मगर जातिवादी सवालों और जातीय नरसंहारों पर प्रगतीशील विद्वानों की अकर्मण्यता देखकर इनका मार्क्सवाद से मोहभंग भी हुआ। दलित कवि मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों के सम्मुख अपना मोहभंग और आक्रोश प्रकट करते हैं। जयप्रकाश लीलवान कविता कॉमरेड से बातचीत में लिखते हैं, “कॉमरेड,इनके विरुद्ध युद्ध/ जो बहुत पहले शुरू होना था/ नहीं हुआ, कहाँ गया युद्ध?/और आप,क्या इतना भी/ नहीं समझते कि जब तक/ बिस्वेदारों के आकाश को/ समतल बनाने वाली बातें/ बहानों की लाठियों से/ पीटी जाती रहेंगी तब तक/ हिन्दुत्व का ‘सूक्ति विलास’ और/ पश्चिम छाप की कोई भी ‘क्रान्ति’/ किताबों से उठकर किताबों में ही/ ढेर होती रहेगी।” (दलित- आज का समय-समकालीन दलित कवियों की कविताओं का संकलन,सं. डा. तेज सिंह, समता प्रकाशन,दिल्ली,2002,पृ. 101-102) दलित कवि स्पष्ट कहते हैं कि उनके आदर्श में एकलव्य-सी साधना और डा. अम्बेडकर-सा विवेक है। वे दलित पीढ़ी से डॉ. अम्बेडकर को आत्मसात करने का खुला आग्रह रखते हैं। डा. दयानन्द बटोही ‘द्रोणाचार्य सुनें: उनकी परम्पराएँ सुनें’में लिखते हैं “हे गुरु/ तुम्हारी परम्पराएँ अब बहुत दिन तक नहीं चलेंगी/ क्योंकि अब एकलव्य कोई नहीं बनेगा/ मैं आगाह किए जाता हूँ/ बनना ही है तो द्रोणाचार्य जैसे गुरु का शिष्य/ कोई क्यों बने?/ बनना ही है तो डा. अम्बेडकर का शिष्य बनो।” (दलित साहित्य-समग्र परिदृश्य, सं. डॉ. मनोहर भण्डारे, स्वराज प्रकाशन,नयी दिल्ली,2013,पृ. 71) सम्पूर्ण दलित कविता की तरह हिन्दी दलित कविता पर भी डॉ. अम्बेडकर के जीवन और शिक्षा का गहरा प्रभाव है।
- जाति-वर्ण आधारित ग्रामीण व्यवस्था का नकार
जातिवादी शोषण के गढ़ नि:सन्देह भारत के गाँव हैं। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस बात को प्रमुखता से कहा था। दलितों के साथ जातिवादी भेदभाव यहाँ आज भी आम हैं। गाँवों में रहने वाले दलितों के घर जला देने और उनकी बहन-बेटियों के साथ दबंग जातियों द्वारा किए जाने वाले अनाचार की घटनाएँ आए दिन देखने-सुनने को मिलती हैं। गाँवों में दलितों पर होने वाले इन जातिवादी अत्याचारों के बखान और विरोध से दलित कविता लबालब है। मलखान सिंह अपनी कविता ‘एक पूरी उम्र’में गाँव के इस भयावह जीवन को बयान करते हैं, “यकीन मानिए / इस आदमखोर गाँव में / मुझे डर लगता है/ बहुत डर लगता है।” कवि को यह डर क्यों है? क्योंकि, “लगता है कि अभी बस अभी/ ठकुराइसी मेड़ चीखेगी/ मैं अधशौच ही/ खेत से उठ जाऊँगा। / कि अभी बस अभी/ महाजन आएगा/ मेरी गाड़ी से भैंस/ उधारी में खोल ले जाएगा। /…खुलकर खाँसने के अपराध में प्रधान/ मुश्क बाँध मारेगा/ लदवाएगा डकैती में/ सीखचों के भीतर/ उम्र भर सड़ाएगा।” (दलित- निर्वाचित कविताएँ, कँवल भारती (सम्पादन), पृ. 35-36) दलित लोग गाँवों में सदियों से रह रहे हैं, पर वहाँ हमेशा उनका शोषण ही हुआ है। उन्हें नारकीय जीवन के सिवा वहाँ कुछ नहीं मिला है। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता ‘ठाकुर का कुआँ’में इस अभावपूर्ण जीवन का दर्द बयाँ करते हैं, “कुआँ ठाकुर का/ पानी ठाकुर का/ खेत-खलिहान ठाकुर के/ गली-मुहल्ले ठाकुर के/ फिर अपना क्या?/गाँव?शहर?देश?” (दलित चेतना की कविताएँ, सं. डॉ. रामचन्द्र, डॉ. प्रवीण कुमार,स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली,2014,पृ. 15) अपनी दूसरी कविता ‘तब तुम क्या करोगे?’में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं,“यदि तुम्हें/ धकेलकर गाँव से बाहर कर दिया जाए/ पानी तक न लेने दिया जाए कुँए से/ दुतकारा-फटकारा जाए/ चिलचिलाती दुपहर में/ कहा जाए तोड़ने को पत्थर/ काम के बदले/ दिया जाए खाने को जूठन/ तब तुम क्या करोगे?” (दलित: निर्वाचित कविताएँ, सं. कँवल भारती, पृ. 60) जाहिर है कि दलित इन दबंगों से लड़कर जीत नहीं पायेगा और अंततः वह गाँव छोड़ देगा।सुखवीर सिंह अपनी कविता ‘बयान-बाहर’में बताते हैं कि दलित का शोषण किसी गाँव विशेष की कहानी नहीं है। भारत का हर गाँव इसी तरह का जातिवादी गाँव है, “ओ मेरे गाँव/ तेरा कोई भी हो चाहे नाम/पर काम हमेशा एक ही सा रहा है/ पिछली गुलाम सदियों की तरह/ आज भी सुख-दु:ख/ ठीक वैसा का वैसा ही/ जाति-धर्म के खूँटे से बँधे हुए/ गाँव के सभी लोगों ने ताउम्र सहा है।” (वही, पृ. 168-169) दलित कवि गाँव को दलितों के रहने लायक नहीं समझते हैं। वे शहर में तुलनात्मक रूप जातिवादी शोषण कम पाते हैं, मगर कवि इस मुगालते में नहीं है कि शहरों में दलितों के लिए सब कुछ अच्छा है। शहरों में भी जातिवाद और आर्थिक शोषण है। झाड़ूवाली कविता में ओमप्रकाश वाल्मीकि शहर दलित स्त्री के संघर्ष के बारे में लिखते हैं, “सुबह पाँच बजे/ हाथ में थामे झाडू/ घर से निकल पड़ती है/ रामेसरी/…/ गन्दगी के इस शहर में दुर्गन्ध बन जाते हैं/ फिर एक दिन,जब/ रामेसरी की खुरदरी हथेली हो जाती है असमर्थ/ हाथ गाड़ी को धकेलने में/ छोटे-छोटे हाथ।” (वही,पृ. 79) इस तरह हिन्दी दलित कविता हर जगह के जातिवादी शोषण की पहचान कर रही है, इसका नकार एवं प्रतिरोध भी कर रही है।
- शिक्षा के प्रति अस्तित्व सा लगाव
हिन्दी दलित कविता दलित समाज के शिक्षा के प्रति असीम आकर्षण को प्रतिनिधित्व दे रही है। यह आकर्षण डा. भीमराव अम्बेडकर के ‘शिक्षा शेरनी का दूध होती है’ जैसे बयानों और अपने समाज की बेहतरी के एकमात्र सम्भव तरीके के चलते पैदा हुआ है। शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते में रोड़ा बनने वाले जातिवादी वातावरण और इसकी क्रूरताओं के दर्शन इस कविता में होते हैं। जयप्रकाश कर्दम अपनी कविता गूंगा नहीं था मैं में लिखते हैं, “आपसी मतभेदों को भुलाकर / तुरत-फुरत,स्कूल के/ सारे सवर्ण छात्र/ गोलबन्द हो जाते,और/ खेल-गुरुजी से हाकियाँ ले-लेकर/ दलित छात्रों पर हमला बोल देते ।” (गूंगा नहीं था मैं, अतिश प्रकाशन,दिल्ली,1997, पृ. 37) दलित छात्रों पर सवर्ण छात्रों द्वारा केवल हमले ही नहीं होत,सवर्ण अध्यापकों द्वारा उन्हें प्रताड़ित भी किया जाता है। अपनी दूसरी कविता ‘वर्णवाद का पहाड़ा’में शिकायत करते हैं, “मास्टर जी!/ हम शुक्रगुजार हैं कि तुमने/ हमें पढ़ाया/ प्रगति का रास्ता दिखाया/ लेकिन समता के मार्ग पर तुम/ खुद नहीं चल पाए/ हमने रखा तुम्हें/ वर्ण और जाति से ऊपर/ पर नहीं उठ पाए तुम अपनी/ जातीय अहमन्यता की संकीर्णता से ।” (वही, पृ. 21) स्कूलों में हर प्रकार का जातिवादी शोषण और प्रताड़ना झेलने के बावजूद दलित कवि कहते हैं कि शिक्षा ही उनके समाज को आगे बढ़ाएगी और उनकी सन्तानों को चाहिए कि वे शिक्षा और किताबों का साथ न छोड़े। चन्द्रभान ‘देखना एक दिन’ कवितामें लिखते हैं,“देखना/ किताबें एक दिन/ काट देंगी सारे बन्धन/ ऐसा ना हो सका…तो/ भटकना नहीं/ चूल्हे पर नजर रखना/ पेट पर नहीं/ पढना, खूब पढ़ना/ देखना एक दिन/ किताबें ही रंग लाएगी/ नई जिन्दगी की राह बनाएगी/देखना एक दिन।” (अनभै साँचा (त्रैमासिक), दलित विमर्श पर केन्द्रित विशेषांक, सं. द्वारिका प्रसाद चारुमित्र, अक्टूबर-दिसम्बर,2008,अंक-12, दिल्ली,पृ. 134) सुशीला टाकभौरे भी लिखती हैं, “भक्ति से बड़ा ज्ञान है/ अन्धी भक्ति से बड़ी जागृति/ मन्दिर नहीं चाहिए/विद्यालयों के दरवाजे खटखटाइए।” (दलित साहित्य-समग्र परिदृश्य, सं. डॉ. मनोहर भंडारे, स्वराज प्रकाशन,नयी दिल्ली,2013,पृ. 105)
दलित कविता के अनुसार इस समाज को शिक्षा केवल पेट भरने के लिए नहीं, बल्कि अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए भी चाहिए। यह समाज शिक्षा से विवेकवान बनकर अपने शोषकों की पहचान करना चाहता है और फिर उन्हें सबक भी सिखाना चाहता है। मोहनदास नैमिशराय झाडू और कलम कविता में लिखते हैं, “कल मेरे हाथ में झाडू था/ आज कलम/ कल झाडू से मैं तुम्हारी गन्दगी हटाता था/ आज कलम से/ मैं तुम्हारे भीतर की गन्दगी धोऊँगा।” (दलित- निर्वाचित कविताएँ, सं. कँवल भारती, पृ. 112) शिक्षा केवल दलित पुरुषों में ही यह आत्मविश्वास नहीं पैदा करती है, इससे दलित स्त्री भी एक नया आत्मविश्वास प्राप्त करती है। वह अपना भला-बुरा समझने लगती है, अपने फैसले खुद करने की हिम्मत प्राप्त करती है। श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की लड़की ने डरना छोड़ दिया कविता में यह आत्मविश्वास जगाते हैं, “अक्षर के जादू ने/उस पर असर बड़ा बेजोड़ किया/ चुप्प रहना छोड़/ दिया,लड़की ने डरना छोड़ दिया/ हँसकर पाना सीख/ लिया,रोना-पछताना छोड़ दिया/…/ घुट-घुटकर/ अब नहीं मरेगी, मंच पै चढ़कर बोलेगी/ समय और शिक्षा/ ने उसके चिन्तन का रुख/ मोड़ दिया।” (क्रौंच हूँ मैं, श्यौराजसिंह‘बेचैन’, सहयोग प्रकाशन, दिल्ली, 1995, पृ.48) हिन्दी दलित कविता शिक्षा को दलित समाज के अस्तित्व की बेहतरी के लिए सबसे बड़ा हथियार बताती है।
- स्त्री मुक्ति का भिन्न स्वर
भारत में स्त्री सम्बन्धी अध्ययन लम्बे समय तक पुरुषों द्वारा ही किए गए हैं। आज भी कमोबेश ऐसा ही है, लेकिन सवर्ण समाज की स्त्री अपनी सामाजिक स्थिति का आकलन आज खुद करने लगी है। दलित स्त्री का बहुत छोटा हिस्सा ऐसा सामने आया है, जो अपनी सामाजिक स्थिति का खुद आकलन कर रहा है।यूँ तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो मुख्य धारा के हिन्दी साहित्य में यह स्त्रीवादी स्वर काफी समय बाद प्रबल हुआ है, जबकि दलित साहित्य में यह स्वर प्रबल हुआ है। आज दलित स्त्री अपने को किसी दलित पुरुष की नहीं, खुद अपनी नजर से देखने लगी है। रजनी अनुरागी लिखती हैं, “मैं वैसी नहीं हूँ/जैसी तुम मुझे देखते हो/ मैं वैसी हूँ/ जैसी मैं खुद को देखती हूँ/ तुम देख नहीं सकते मुझको/मेरी ही तरह।” (बिना किसी भूमिका के, रजनी अनुरागी, आरोही प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. 37) यह दलित स्त्री खुद को कैसे देखती है? रजनी तिलक ‘औरत-औरत में अन्तर है’ कविता में इस स्त्री दृष्टि का परिचय देती है, “औरत-औरत होने में/ जुदा-जुदा फर्क क्या है?/ एक भंगी तो दूसरी बामणी/ एक डोम तो दूसरी ठकुरानी/ दोनों सुबह से शाम खटती हैं/ बेशक,एक दिन भर खेत में/ दूसरी घर की चारदीवारी में/ शाम को एक सोती है बिस्तर पे/ तो दूसरी काँटों पर/… / एक सताई जाती है स्त्री होने के कारण/ दूसरी सताई जाती है स्त्री और दलित होने पर/ एक तड़पती है सम्मान के लिए/ दूसरी तिरस्कृत है भूख और अपमान से।” (पदचाप, रजनी तिलक, निधि बुक्स, दिल्ली-पटना, 2006,पृ. 40) रजनी तिलक की दलित स्त्री कहती है कि वह ऊँची जाति की तुलना में शोषण की अधिक शिकार है। वह दलित पुरुषवाद की और ऊँची जाति के पुरुषों के शोषण की भी शिकार है। इस तरह वह दोहरे शोषण की शिकार है। लेकिन यह सवर्ण स्त्री की तरह न तो शोषण से समझौता कर रही है और न इससे किसी प्रकार के अवसाद में डूब रही है। वह इसका मुकाबला कर रही है। वह अपनी माँ से साफ कहती है कि वह पुरुषवादी और जातिवादी शोषण को झेलने को तैयार नहीं है और माँ को भी चाहिए कि वह अपनी इस आधुनिक बेटी को अत्याचारों को सहन करने का पाठ न पढ़ाए। पूनम तुषामड लिखती हैं, “झाडू, तसली और/ कूड़े की विरासत/ माँ मुझे मत दो। / मुझको पढ़ना,आगे बढ़ना/ खुद को नए साँचे में गढ़ना/ और सबको है जगाना/ माँगकर खाने की आदत/ और नसीहत/ माँ मुझे मत दो।” (माँ मुझे मत दो, पूनम तुषामड, सफाई कर्मचारी आन्दोलन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010, पृ. 43) दलित महिलाओं में एक स्त्री स्वर ऐसा है जो हर पुरुष में एक दरिन्दा देखता है और अपनी समस्याओं से निजात प्रेम विवाह में ही देखता है। अनीता भारती की कविताओं में यह स्वर प्रमुखता से देखने को मिलता है। कुछेक दलित कवयित्रियों को छोड़, बाकी का स्त्री स्वर पुरुषों के प्रति इस तरह की नफरत से भरा नहीं है। ये कवयित्रियाँ अपनी बस्ती से भागना नहीं चाहती हैं,उसे बेहतर बनाना चाहती हैं। समाज के भीतर रहकर वे देखती हैं कि दलित पुरुष का बड़ा हिस्सा मेहनती है और स्त्री के प्रति समता के भाव से भरा है। रजत रानी ‘मीनू’ अपनी कविता पिता भी होते हैं माँ में बताती हैं कि दलित पुरुष महिलाओं के उत्थान में सहायक है, “मैं उत्तीर्ण होती थी। पापा को लगता था/ वे ही पास हो गए हैं परीक्षा में/बाँटते देखे मिठाई/मनाते थे खुशियाँ/ उनकी आँखों में चमकता है/ माँ जैसा प्यार।” (पिता भी होते हैं माँ, रजत रानी मीनू, वाणी प्रकाशन,दिल्ली,2015, पृ. 33) दलित स्त्री अपने पुरुषों से पिण्ड छुड़ाकर या उनसे नफरत करके अपनी मुक्ति के सपने नहीं देखती है। वह अपने संघर्षशील समाज में रहकर उसे बेहतर बनाना चाहती है। वह स्त्री-पुरुष में समता वाले इसके सामजिक मूल्यों को अपनी कविता की प्रेरणा बना रही है। यही वजह है कि इसका स्वर सवर्ण स्त्री विमर्श से अलग ढंग का विकसित हो रहा है।
- नए समाज के निर्माण की आकांक्षा
हिन्दी की दलित कविता देश की वर्तमान जातिवादी व्यवस्था से असहमति और प्रतिरोध की कविता है। मलखान सिंह मुझे गुस्सा आता है कवितामें लिखते हैं, “आज/ आजादी की आधी सदी के बाद भी/ हम गुलाम हैं/ पैदायशी गुलाम हैं/ जिनका धर्म चाकरी है/ और बेअदबी पर/ कंटीले डंडे की चोट/ थूथड़ पर खाना है या/ भूखा मरना है।” (दलित निर्वाचित कविताएँ, सं. कँवल भारती, पृ. 40) देश की बड़ी आबादी आज भी जातिवादी अत्याचारों की शिकार है और कवि को इस बात का अफसोस है। वह चाहता है कि देश के हुक्मरान भी इन हालातों पर शर्मिन्दा हों। इसके साथ ही यह देश से जातिवादी भेदभाव को खत्म कर सामाजिक समरसता के आग्रह की कविता भी है।दलित कवि-कवयित्रियाँ इस व्यवस्था और समाज से जातिवाद को खत्म करना चाहते हैं। वे ऐसा केवल अपने दलित समाज के हक़ में ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण देश को बेहतर बनाने के लिए चाहते हैं। क्योंकि असल में देश का भविष्य भी जातिवादी सोच और भेदभाव से विहीन समाज में है। सारी दुनिया अपने अन्तर्विरोधों को खत्म कर निरन्तर मानवता और लोकतन्त्र को मजबूत करने का जनमत तैयार कर रही है। विभिन्न देशों में ऐसा साहित्य लिखा जा रहा है जो इन अन्तर्विरोधों को जल्द से जल्द खत्म करने में सहायक बन रहा है। भारत में यह कार्य दलित साहित्य मजबूती से कर रहा है। यह भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों को उजागर कर उन्हें खत्म करने में सहायक बन रहा है। दलित कवि जानते हैं कि जिस तरह पेड़ का हर पत्ता हरा होने पर ही पेड़ के वजूद का पता चलता है, उसी प्रकार भारतीय समाज की सही पहचान तब होगी जब समाज की जाति को समान अवसर मिले। ओमप्रकाश वाल्मीकि पेड़ कविता में लिखते हैं- “पेड़/ तुम उसी वक्त तक पेड़ हो/ जब तक ये पत्ते/तुम्हारे साथ हैं/ पत्ते झरते ही/ पेड़ नहीं ठूँठ कहलाओगे/ जीते जी मर जाओगे!” (दलित चेतना की कविताएँ, डॉ. रामचंद्र/ सं. डॉ.प्रवीण कुमार, पृ. 18) ओमप्रकाश वाल्मीकि का आशय है कि देश की अगर बहुसंख्यक दलित जातियाँ बर्बाद होती हैं, तो देश की गरिमा और लोकतन्त्र पर अभिशाप होगा। तब यह देश अपने पर गर्व नहीं कर सकेगा। यह देश कब अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था और सामाजिक स्थिति पर गर्व कर सकता है? ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता ‘झाडूवाली’में इस सवाल का जवाब आक्रोश के साथ देते हैं, “जब तक रामेसरी के हाथ में/ खडांग-खांग घिसटती लौह गाड़ी है/ मेरे देश का लोकतन्त्र/ एक गाली है! ” (दलित निर्वाचित कविताएँ, कँवल भारती (सम्पादन), पृ. 59) कवि का आग्रह है कि सभी को समान अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त हों। दलितों के हक़ में केवल दोयम दर्जे के काम ना आए। उसकी मेहनत को कोई शोषक ठेकेदार या व्यवस्था का भ्रष्ट सिपाही न लूटे। दलित कवि को अहसास है कि दलित समाज की मेहनत की लूट से ऊँची जाति के लोग फल-फूल रहे हैं और कठिन श्रम करने के बावजूद वह बदहाल है। जयप्रकाश कर्दम ‘किले’कविता में लिखते हैं, “ब्राह्मण का मान/ ठाकुर की शान/ सेठ की तिजोरी/ खेत-खलिहान/ मिल-कारखाने/ कोठी और हवेली/ मेरे श्रम और शोषण से/ फले-फूले हैं/ मेरी हिंसा और अपमान पर खड़े हैं।” (गूंगा नहीं था मैं, जयप्रकाश कर्दम, पृ. 11) दलित कवि चाहता है कि यह देश समतामूलक समाज का धनी और सच्चा लोकतन्त्र बने। इस निर्णायक संघर्ष में सफलता मिलना बहुत आसान काम नहीं है। दलित तो संघर्ष करके देश-समाज को बदलना चाहता है,मगर वह जानता है कि देश का नीति नियन्ता वर्ग ऊँची जातियों से आया हुआ है। वह दलितों के दर्द को कभी तवज्जों नहीं देता रहा है। इसलिए दलित कवि को लगता है कि हालात बदलने में अभी समय लगेगा। वह जानता है कि ऐसा सम्भव है,पर वह भी जानता है कि जब तक जातिवादी भेदभाव की व्यवस्था को बनाए रखने वाले तत्त्व मजबूत हैं, ऐसा सम्भव नहीं होगा। इसलिए दलित कवि देश के ऐसे तत्त्वों को तोड़ने के लिए निर्णायक संघर्ष का आगाज़ चाहते हैं। कँवल भारती नई सदी में प्रवेश कविता में लिखते हैं, “पिछली सदी का इतिहास बोध/ नई सदी में/ मार्गदर्शन कैसे करेगा/ अगर आदमखोर बाघ भी / होंगे नई सदी में?/ तो संकल्प लें हम नई सदी के सूरज का स्वागत/ एक कायर भीड़ के रूप में नहीं/ प्रतिरोध की शक्ति जुटाकर/ आदमखोर बाघों पर टूट पड़ने का/ हौसला लेकर करेंगे।” (माँझी जनता(पाक्षिक), जनवरी,2001, सं. शालीग्राम ढोरे,हिन्दी खण्ड,नागपुर, महाराष्ट्र)
- निष्कर्ष
इस दौर में लिखी जा रही दलित कविताएँ सहानुभूति का कम, भोगे हुए यथार्थ का भावनात्मक दस्तावेजीकरण अधिक है। इसका स्वर आक्रोश से भरा हुआ, मगर सच्ची संवेदना और गहरे दर्द का है। इन कवियों की भाषा कहीं-कहीं बहुत तल्ख हो जाती है। पुरुष कवियों की भाषा कई बार गाली के स्तर तक तीखी हो जाती है। कवयित्रियों की भाषा अपने शोषकों के प्रति बहुत नफ़रत और अति नाटकीयता से भरी होती है, पर यह अस्वाभाविक नहीं लगती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिन्दी की दलित कविता भारतीय समाज की विसंगतियों,दलितों के साथ हो रहे जातिवादी भेदभावों व अमानवीय अत्याचारों के प्रति विरोध की कविता है। यह इस समाज और व्यवस्था को बदलकर समतामूलक बनाने की चाह और संघर्ष की कविता भी है।
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अतिरिक्त जानें-
पुस्तकें
- दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
- तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती ?- कँवल भारती की कविताएं, बोधिसत्व प्रकाशन, दिल्ली
- दलित साहित्य का समाजशास्त्र, हरिनारायण ठाकुर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
- दलित हस्तक्षेप, रमणिका गुप्ता, शिल्पायन प्रकाशन, नई दिल्ली
- दलित विमर्श: साहित्य के आइने मे, डॉ.जयप्रकाश कर्दम, साहित्य संस्थान, गाजियाबाद
- हिदी काव्य में दलित काव्य धारा , डॉ.माता प्रसाद, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
- हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा, माताप्रसाद(सं.), विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
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- http://www.iias.org/event/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%A7-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF