28 दोहरा अभिशाप

केदार प्रसाद मीणा and रमेश चन्द मीणा

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • दलित आत्मकथाओं के सन्दर्भ में सामान्य जानकारी हासिल करेंगे।
  • एक दलित स्‍त्री की आत्मकथा के माध्यम से वर्ण-जाति एवं पुरुषसत्ता के क्रूर एवं घृणित चेहरे को समझ सकेंगे।
  • एक दलित स्‍त्री की व्यथा एवं उसके संघर्ष से रू-ब-रू हो सकेंगे।
  • दलित आत्मकथाओं के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं से रू-ब-रू हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    दलित साहित्य में आत्मकथा सबसे अधिक ताकतवर विधा साबित हुई है। दलित समाज चूँकि सदियों से जातिगत भेदभाव से प्रताड़ित रहा है;इसलिए साहित्य लेखन में आने के बाद, सबसे पहले उसने अपनी बात बिना कल्पना और अलंकारों के कही है। इसलिए इस विधा के सबसे पहले और सबसे ताकतवर रूप में सामने आने पर कोई आश्चर्य किए जाने की जरूरत नहीं है। कई विद्वान दलित लेखन की शुरुआत मध्यकालीन सन्त-काव्य और उससे भी पहले बुद्ध के समय से ही मानते हैं;पर गौर करने पर पता चलता है कि इस ‘आधुनिक’ दलित साहित्य और विमर्श की शुरुआत के बाद ही दलित-दृष्टि से प्राचीन बौद्ध और सन्त साहित्य को भी नए ढंग से समझा गया है। आज देश की लगभग हर बड़ी भाषा में दलित-साहित्य लिखा जा रहा है। इसकीशुरुआत मराठी से मानी जाती है। इसकी बड़ी वजह डॉ.भीमराव अम्बेडकर द्वारा चलाए गए सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों का वहाँ अधिक प्रखर होना है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि मराठी से इसकी शुरुआत के बावजूद दलित साहित्य को नई ऊँचाई हिन्दी भाषा में लिखने वाले साहित्यकारों ने दी है। इनमें कौशल्या बैसन्त्री का बड़ा अहम् स्थान है, क्योंकि मराठी भाषी होने के बावजूद उन्होंने अपनी यह आत्मकथा हिन्दी में लिखी है।

 

दलित साहित्य में आत्मकथा लेखन की शुरुआत मराठी के पत्र अस्मितादर्श  के दीपावली विशेषांक (1976) से मानी जाती है। इस अंक में मराठी के कई साहित्यकारों, जिनमें राजा ढाले,नामदेव ढसाल और बाबूराव बागुल जैसे साहित्यकार शामिल हैं। मैं और मेरा लेखन  कॉलम में उन्होंने अपने-अपने जीवन और लेखन के बारे में लिखा। ये आत्मकथ्य बड़े पैमाने पर पढ़े और सराहे गए। माना जाता है कि उनकी प्रेरणा से ही बाद में विस्तृत आत्मकथाएँ लिखी गई। इसके बाद ही मराठी की प्रसिद्ध आत्मकथाएँ – आठवणीचे पक्षी  (यादों के पंछी, प्र.ई.सोनकांबले) और बलुत  (अछूत, दया पँवार) आदि प्रकाशित हुई। कालान्तर में कई अन्य भाषाओं में भी अच्छी आत्मकथाएँ लिखी गई, मराठी में लक्ष्मण गायकवाड की उठाईगीर, शरण कुमार लिम्बाले की अक्‍करमाशी, अंग्रेजी में प्रोफेसर श्यामलाल की अनटोल्ड स्टोरी ऑफ ए भंगी वाईस चांसलर, पंजाबी में बलबीर माधोपुरी की छांग्या रुख,  कन्‍नड़ में सिद्धलिंगय्या की उरुकेरी  आदि। हिन्दी भाषा में भी मराठी के समान एक से बढ़कर एक दलित आत्मकथाएँ सामने आयी हैं। हिन्दी में अब तक कोई दो दर्जन आत्मकथाएँ लिखी जा चुकी हैं। इनमें अपने अपने पिंजरे (मोहनदास नैमिशराय, 1995), जूठन (ओमप्रकाश वाल्मीकि,1997), दोहरा अभिशाप (कौशल्या बैसन्त्री, 1999), मेरा सफर मेरी मंजिल (डी.आर. जाटव,2000), तिरस्कृत (सूरजपाल चौहान, 2002), झोंपड़ी से राजभवन (माताप्रसाद, 2002), मेरा बचपन मेरे कन्धों पर (श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, 2009), मुर्दहिया (तुलसीराम,2010), मेरी पत्‍नी और भेडिया (डॉ. धर्मवीर,2011), शिकंजे का दर्द (सुशीला टाकभौरे,2011) आदि प्रमुख हैं।

 

कौसल्या बैसन्त्री की आत्मकथा दोहरा अभिशाप किसी स्‍त्री द्वारा लिखी गई हिन्दी की पहली दलित आत्मकथा है। मराठी में तो बेबी काँवले, मल्लिका अमरशेख, कुमुद पाँवडे, मीनाक्षी मून आदि कई लेखिकाओं ने आत्मकथाएँ लिखी हैं। हिन्दी की दूसरी दलित स्‍त्री की आत्मकथा, सुशीला टाकभौरे की शिकंजे का दर्द है।

  1. गरीबी और जातिगत भेदभाव

   लेखिका बचपन से ही भयंकर गरीबी का सामना करती हैं। अशिक्षा और अन्धविश्‍वासों के कारण उसके माँ-बाबा कई सन्तानों को जन्म देते हैं। अधिक बच्‍चे पैदा करना उस दौर में वहाँ के दलितों में बुरा या अजीब नहीं माना जाता था। लेखिका लिखती हैं, “उस समय खाना खाने, पानी पीने की तरह ही बच्‍चे होना सामान्य काम समझा जाता था।कहते,ये भगवान देता है,भगवान की मर्जी है,क्या करें!” (कौसल्या बैसन्त्री, दोहरा अभिशाप, परमेश्‍वरी प्रकाशन,दिल्ली,1999, पृ. 51) लेखिका के कुल ग्यारह भाई-बहन का जन्म हुआ, उनमें से पाँच बहनें और एक भाई जिन्दा रह पाए,बाकी भुखमरी और बीमारी के चलते मर गए। काम का अभाव, मामूली मेहनताना और बड़े-बड़े परिवार होने के कारण भुखमरी और बीमारी का दौर हमेशा हर दलित गाँव और बस्ती में बना रहता था। बाबा (रामा महार) पहले अंग्रेजों के एक क्लब में काम करते थे। फिर एक पारसी विधवा की बेकरी पर काम करने लगे। उस काम को छोड़ बाबा कबाड़ी का काम करने लगे। क्लब में नौकरी के दौरान भी वे कई बार अंग्रेजों द्वारा छोड़ी गई जूठन और बख्सीस में फेंके गए चन्द पैसों पर निर्भर रहते थे। बेकरी की नौकरी के दौरान उसकी तनखाह नहीं बढ़ाई गई। मजबूरन बाबा वहाँ से कभी-कभी डबल रोटी चुराकर साथ काम करने वाले लड़के मंग्या के हाथों घर भिजवाते थे। लेखिका की स्वाभिमानी माँ अपने पति को यहाँ बेगार करते देखना पसन्द नहीं करती थी और एक दिन उसने बाबा को वहाँ के काम से हटा लिया, “तब माँ ने उसी के सामने बाबा का हाथ पकड़कर बेकरी के बाहर खींचा और बेकरी वाली से कहती है कि ‘तुम मेरे पति से इतना काम करवाती हो और उनकी कद्र भी नहीं करते। कई वर्षों से एक पैसा भी नहीं बढ़ाया। अब मैं यहाँ नौकरी नहीं करने दूँगी। चाहें हम भूखे ही रहें,परन्तु यहाँ काम नहीं करने दूँगी।” (वही, पृ. 44) यहाँ से निकलने के बाद बाबा कुछ साल तक कबाड़ी का काम करते रहे, बाद में सालों तक वे एम्प्रेस मिल में काम करते रहे। बाबा एम्प्रेस मिल से कपड़े चुराकर लाते, उससे परिवार के कपड़े और बिस्तर-पर्दे आदि तैयार कर गुजारा किया जाता। माँ (भागीरथी) भी मिल में काम करतीं। कभी-कभी सवर्णों की कॉलोनियों में जाकर चूड़ी आदि सामान भी बेचतीं। कौशल्या और उनकी बहनें गरीबी का दंश करीब से भोगने को मजबूर थीं। उनके पास कभी अच्छा खाना नहीं होता, वे रात का बासी खाना सुबह खाकर स्कूल जातीं, स्कूल से भूखी लौटती और शाम को खाना खा पातीं। कौशल्या के पास स्कूल में ले जाने के लिए अच्छा टिफिन और अच्छा खाना नहीं होता। इससे वे बार-बार हीन भावना से भर जातीं और स्कूल में सबसे अलग बैठकर अपना टिफिन खोलतीं। स्कूल के साथ-साथ घर के बहुत से काम निपटातीं। स्कूल जाते वक्त दोनों बहनें रास्ते में गोबर इकट्ठा करती जातीं, ताकि उसे घर लाकर उपले बनाए जा सकें। कई बार रेल की पटरियों के आसपास से कोयला इकट्ठा करतीं, ताकि खाना बनाने में ईंधन के काम लिए जा सकें। कमली आत्या के साथ भोर में ही इमलियाँ बीनने जाती हैं, ताकि बासी खाने को खट्टा बनाकर खाया जा सके।

 

लेखिका के दलित परिवार को बार-बार दलित होने का एहसास कराया जाता। लेखिका की माँ सवर्ण बस्तियों में बार-बार जातिगत भेदभाव की शिकार होती। ब्राह्मण स्‍त्रि‍याँ “चूड़ियाँ हाथ में डलवाने माँ के पास आती थीं, तब पुरानी साड़ी पहनती थी और चूड़ियां पहनने के बाद स्‍नान कर लेती थीं। माँ अछूत हैं, यह वे जानती थीं। माँ को बुरा लगता था, परन्तु पैसे के लिए वह अपमान सह लेती थीं। मजबूर थीं इसलिए।” (वही,पृ. 64) ऐसा नहीं था कि केवल सवर्ण हिन्दू लोग या ब्राह्मण लोग ही छुआछूत बरतते। पास के मुस्लिम इलाके गड्डीगोदाम की कसाई औरतें और गोंड आदिवासी औरतें भी महारों के साथ भेदभाव करतीं। गोंड आदिवासियों के साथ सवर्ण लोग भेदभाव करते, और ये महारों के साथ। लेखिका लिखती हैं, “वैसे देखा जाए तो गोंड (आदिवासी) जाति का रहन-सहन महार-मांगों जैसा ही था। न वे पढ़े-लिखे न अमीर,परन्तु वे अछूत नहीं थे। किन्तु ब्राह्मण या उच्‍च समझे जाने वाले लोग इन्हें घर की चीजों को छूने नहीं देते। ये लोग भी महार-माँगों के घर नहीं आते-बैठते।” (वही, पृ. 32) आदिवासी लड़की जंगला ने कौशल्या को घड़ा छूने पर डाँट दिया, “जंगला जोर से चीखी कि घड़े को क्यों छू दिया? अब हमें घड़ा फेंकना पड़ेगा।” (वही, पृ. 88) दलित भी अपने से निम्‍न दलित जाति को घृणा से देखते। कौशल्या ने यह निष्पक्ष रूप से लिखा है। वे बताती हैं कि महार लोग माँग लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते। एक बार मैला ढोता एक माँग दलित कौशल्या के बदबू आने पर नाक भींचने पर कहता भी है कि हम कैसा गन्दा काम करने को मजबूर हैं, सोचो। वह उसकी बात का बुरा नहीं मानती, बल्कि उससे सहानुभूति दिखाती। लेखिका को बचपन में और निरक्षर लोगों के बीच ही नहीं, बड़े अफसर की पत्‍नी बनने के बाद और पढ़े-लिखे लोगों के बीच भी जातिगत भेदभाव का शिकार होना पड़ा। भोपाल में रहते समय वे स्थानीय महिलाओं की संस्था ‘नागरिक कल्याण समिति’ व ‘मातृसेवा संघ’ में जातिगत रूप से अपमानित की गई। वहाँ की भिसी को तो जातिगत अपमान पर लेखिका ने पत्र लिखकर करारा जवाब दिया, “…आपकी जाति के लोगों ने हमारे बाप-दादा और हमारी जाति के लोगों को सदियों से सताया है। पीने को पानी नहीं,पढ़ाई नहीं, सम्पत्ति नहीं, काम करने की मनाही। गाँव के बाहर चिथड़ों में रहने को मजबूर किया। और भी अमानुष अत्याचार किए। फिर भी हमने यह सब सहकर अपने पाँव पर खड़े रहकर उन्‍नति की और आपसे आगे बढ़कर दिखाया है। अब आप से दबकर नहीं रहेंगे। फिर मैं आपसे क्यों डरूं!” (वही, पृ. 116) पर जातिगत भेदभाव पर हर बार वह इसी तरह जवाब नहीं दे पाती। अपने पति की निरसा-आसनसोल में नौकरी के दौरान उनके साथ जातिगत आधार पर सवर्ण चपरासी और बाबुओं द्वारा भेदभाव किया जाता है, पर वे लोग बस सहने को मजबूर होते। लेखिका की माँ भी हर बार उसका प्रतिकार नहीं कर पाती।

  1. शिक्षा के लिए संघर्ष

    लेखिका कौशल्या के माँ-बाबा के जीवन का जैसे एक मात्र ध्येय था – अपने बच्‍चों को खूब पढ़ाना-लिखाना। हालाँकि कई बेटियों के पैदा होने पर वे जमाने की भाँति दुखी होते और चाहते कि उनको बेटे अधिक होते। बेटे के जन्म और उसके निरोगी रहने के लिए हिन्दू देवी-देवताओं से मिन्‍नतें भी माँगते, पर वे बेटियों के साथ किसी भी प्रकार भेदभाव नहीं करते। हाँ, कभी-कभी माँ बड़बड़ाती जरूर, “माँ हमेशा बाल धोते वक्त बड़बड़ाती रहती थीं- “देवा, मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था कि मेरे नसीब में लड़कियाँ ही लिखी हैं?” (वही, पृ. 13) बेटे के जन्म पर वे गणपति की पूजा भी करते, पर अपनी इस सोच के बावजूद वे बेटियों को समान सुविधा और प्यार देते। उनको उन्होंने पहले जाई बाई के स्कूल, और आगे फिर सीताबड़ी के भिड़े कन्याशाला और कॉलेज तक पढ़ने भेजा। लेखिका की सबसे छोटी बहन को तो उनसे भी अधिक अच्छे, प्रोव्हीडेन्स गर्ल्स हाईस्कूल और सेण्ट उरसुला गर्ल्स हाईस्कूल में पढ़ने भेजा। फीस भरने के लिए भारी मशक्‍कत की, एकाध बार तो फीस माफ करवाई गई। ‘हरिजन सेवक संघ’ से आर्थिक सहायता ली गई। उधर स्कूल में दलित होने के कारण लेखिका बार-बार अपमानित हुई। स्कूल में ब्राह्मण लड़कियाँ अच्छे कपड़े पहनकर आती थीं। अपने को श्रेष्ठ जाति की समझकर वे दलित लड़की कौशल्या से दूर रहती थीं। यह भी उनसे अपनी जाति छिपाती रहती थीं और कुनबी जाति की बन जाती थीं। हीन भावनावश अकसर सवर्ण लड़कियों से दूर ही रहती थी -“ब्राह्मणोंकी लड़कियाँ बहुत अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर आती थीं। उनकी तुलना में मेरे कपड़े बहुत घटिया होते थे।…मेरे पास अच्छा डिब्बा भी नहीं था। मैं अल्युमीनियम के डिब्बे में रोटी लाती थी। मैं लड़कियों के सामने डिब्बा नहीं खोलती थी। मुझे अपने घटिया डिब्बे और घटिया रोटी को उनके सामने खोलने में शर्म आती थी। मैं दीवार की ओर मुँह करके खाना खाती थी, ताकि कोई देख न ले।… मैं अस्पृश्य हूँ, इसका मुझे बहुत दुःख होता था और मैं हीनता महसूस करती थी। कोई मुझे मेरी जाति न पूछ बैठे,इसका मुझे सदैव डर रहता था। इसलिए मैं अकेली चुपचाप खाने की छुट्टी में या स्कूल शुरू होने के पहले एक ओर बैठी रहती थी।” (वही, पृ. 41) गरीब होने के कारण लेखिका पर एक बार किताब चोरी करने का आरोप लगा जबकि किताब शिक्षिका के पास थी। स्कूल की शिक्षिका अपने निजी कार्य कौशल्या से करवाती थीं। लेखिका ने एक दूसरी दलित लड़की का जिक्र किया है। उसकी माँ पागल थीं, और पिता दर्जी का काम करते थे। वह लड़की देर रात पिताजी के सिलाई के कपड़ों में बटन लगाती थी, और सुबह जल्दी उठकर घर के सारे काम निपटाकर थकी-हारी स्कूल आती थी। थकान के कारण वह कभी-कभी स्कूल में ऊँघने लगती। इस बात पर उसे डाँट पड़ती। उसका उपहास उड़ाया जाता। जल्द ही वह लड़की स्कूल छोड़ने को मजबूर हो गई। कई बार कौशल्या अपनी बहन अहिल्या को अस्पताल में दिखाकर या उसे मिल में छोड़कर देर से स्कूल आती, तो इनको भी शिक्षिका द्वारा काफी परेशान किया जाता। दलितों के प्रति असहयोग से भरा विद्यालय का माहौल लेखिका को भी कई स्कूल छोड़ने को मजबूर करने लगता है, पर अपने माँ-बाबा की प्रेरणा से वे स्कूल में बनी रहीं।

 

इधर बस्ती के कई ईर्ष्यालु लोगों को इन बच्‍चों का स्कूल जाना अच्छा नहीं लगता। वे तरह-तरह से इनको तंग करते थे। लेखिका और उनकी बहन को स्कूल आते-जाते छेड़ा जाता था। दरवाजे के सामने टट्टी-पेशाब कर दिया जाता, घर पर पत्थर फेंके जाते, नल से पानी नहीं भरने दिया जाता आदि। बस्ती के लोग ही नहीं, रिश्तेदार भी तंग करते, “वे लोग बस्ती के कुछ लोगों से मिलकर हमें तरह-तरह से तंग करते थे। गणपति उत्सव के समय हमारे घर पर बड़े बड़े पत्थर फेंकते थे।…छत के खपरैल चूर चूर हो जाते थे। पिताजी मिल से आने के बाद नए खपरैल डालकर छत को दुरुस्त करते थे। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और हमारी पढ़ाई जारी रही।” (वही, पृ. 59) जल्दी शादी न करके कॉलेज जाने और कुछ सामाजिक संगठनों में सक्रिय होने पर बस्ती की महिलाएँ कौशल्या के चरित्र पर सवाल उठाने लगीं, “इतनी बड़ी हो गई हैं, थन लटक रहे हैं, शादी नहीं हुई, बूढ़ी होंगी तब करेंगी क्या?” कोई कहती,“अरे, जाने दो। अभी तक क्या कोरी रह गई हैं? इतने यार-दोस्त आते हैं घर में, तो क्या कुछ नहीं होता होगा?” हम चुपचाप सहते थे सब।” (वही, पृ. 75) यह सब इसलिए किया जाता कि कुछ बच्‍चे पढ़ना क्यों चाहते हैं। उनके माँ-बाप उन्हें पढ़ा क्यों रहे हैं! ऐसे विपरीत माहौल में पढ़ाई जारी रखना किसी बड़ी क्रान्ति से कम नहीं था। यहाँ बता देना जरूरी है कि पढ़ाई के प्रति इतनी ललक बाबा साहेब के विचारों के प्रसार से भी बलवती होती गई। बस्ती में बाबा साहेब की जयन्ती मनाई जाने लगी। लेखिका की माँ उनके विचारों से प्रभावित होती गईं और कई तरह के अन्धविश्‍वासों, हिन्दू देवी-देवताओं के असर से मुक्त होती गईं। 

  1. पुरुषवादी शोषण और वर्चस्व से संघर्ष

    दलित स्‍त्री का हमेशा से दोहरा शोषण होता रहा है। एक पुरुष सत्ता द्वारा और दूसरा वर्णव्यवस्था के तहत दलित स्‍त्रि‍याँशोषित होती रही हैं। रजत रानी मीनू लिखती हैं, “दलित स्‍त्री मात्र दलित होने की त्रासदी नहीं सहती, बल्कि दलित जाति से होने के कारण वह लिंग-भेद और जाति-भेद सहते हुए दोहरे तिहरे आक्रमण झेलती हैं। एक पुरुष प्रधान समाज होने के कारण वह अपने ही समाज के पुरुषों की दृष्टि से भी दूसरे दर्जे की प्राणी मात्र है, जो उनके अनुसार कम बुद्धि की है। इसको आधार बनाकर तमाम उलाहने, अवहेलनाएँ, तिरस्कार उसे झेलने पड़े हैं। इस कारण उसे अपनों से ही उपेक्षा तथा प्रताड़ना मिलती है। दूसरी ओर गैर-दलित समाज उसे दो तरह से कमजोर पाता है, एक तो वह स्‍त्री है,दूसरे वह दलित जाति से होती है।” (रजत रानी मीनू, हिन्दी दलित कथा साहित्य : अवधारणाएँ और विधाएँ, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्युटर्स (प्रा.)लि., नई दिल्ली,2010,पृ. 167) भारतीय समाज में कुछेक आदिवासी समुदायों को छोड़ हर जगह पितृसत्तात्मक सामन्ती समाज व्यवस्था रही है, जहाँ परिवारों में केवल पुरुषों के हुक्म चलते रहे हैं। ऊँच-नीच में विभक्त इस समाज में पूरा दलित समाज हमेशा से हाशिये पर रहा है और दलित स्‍त्रि‍याँ ऊँची जातियों के लिए राह चलते मन बहलाने की चीज। मजबूर दलित पुरुष चाहकर भी इनकी रक्षा करने में असमर्थ रहे हैं। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के तहत दलित समाज भी धर्म से हिन्दू और परिवार व्यवस्था में पुरुषवादी हो गए। इसके बाद दलित पुरुष खुद एक तरह से स्‍त्री विरोधी हो गया।

 

दोहरा अभिशाप  में केवल कौशल्या के बाबा हैं, जो बहुत उदार और स्‍त्री स्वाभिमान के समर्थक पुरुष हैं। वे जीवन में कहीं स्‍त्री विरोधी नजर नहीं आते। अपनी पत्‍नी भागीरथी को हर काम अपने ढंग से करने की,अपने ढंग से जीने की आज़ादी देते हैं। समाज का हर ताना सुनकर भी बेटियों को उच्‍च शिक्षा दिलाते हैं और उनको अपने अनुकूल मनचाहा जीवनसाथी चुनने की इजाजत देते हैं। लेकिन लेखिका के बाबा के जैसे दलित पुरुष कम नजर आते हैं। लेखिका अपने घर में जितना स्वाभिमान और आज़ादी पाती हैं, बाहर उतना ही अपमान और ठगी देखती हैं। कई बार वे अपने दलित समाज के लोगों द्वारा ही अपमानित होती हैं। बाबा साहेब के एक बहुत करीबी और प्रसिद्ध समाजसेवी आदमी की हवस का शिकार होने से वे बाल-बाल बचती हैं। अस्पताल के दरबान के माध्यम से एक डाक्टर का सहयोग लेकर वे नर्सिंग कोर्स में दाखिला चाहती हैं। दरबान उसे डाक्टरनुमा आदमी के घर ले जाता है,जहाँ वे ठगे जाने से बाल-बाल बचती हैं, “मेरी कच्‍ची उम्र देखकर वह कुछ सहम गया था। फिर भी उसने एक कागज पर कुछ लिखकर मेरे सामने रखा। उसमें लिखा था कि मैं तुमसे प्यार करना चाहता हूँ। उसके घर में घुसते ही मुझे कुछ कल्पना तो आई थी। पता नहीं,मुझमें कहाँ से हिम्मत आई। मैंने उससे कहा कि आज मुझे बहुत पढ़ना है,कल मेरी परीक्षा है। उसके बाद आऊँगी और मैं उठ खड़ी हुई।” (दोहरा अभिशाप, कौशल्या बैसन्त्री, पृ. 66) लेखिका का परिवार पानी की सुविधा के लिए अपना निजी नल लगवाना चाहता है। लेखिका अपने बाबा के साथ नगरपालिका के मेयर जायसवाल के पास जाती हैं। वह उसे दो-तीन दिन बाद रात आठ बजे अपने घर बुलाता है,पर वे सब समझ जाती हैं और वहाँ नहीं जाती हैं। फिर वे नगरपालिका के एक ‘बहुत अच्छे’ सदस्य के पास जाती हैं। नल लगाने के बदले वह प्रस्ताव रखता, “…कल हमारे साथ सिनेमा देखने चलोगी?” (वही, पृ. 79) लेखिका को समाज के ‘अच्छे’ लोगों में ऐसे महिला शोषक बार-बार मिलते हैं। वे अपने आसपास देखती हैं कि महिलाओं को दलित समाज में कहीं कोई इज्जत और अधिकार नहीं है। बस्ती का जयराम खुद कमाता नहीं है और अपनी पत्‍नी रामकुँवर को पीटता है। उससे पैसे छीनकर नशा करता है। दूसरी तरफ पैसे के लालच में वह भीतर भीतर उसे कहीं भी प्रेम करने की अप्रत्यक्ष इजाजत भी दे देता है। दसर्या अपनी बेटी को चन्द पैसे के लिए एक ‘साहब’ के हाथों बेच देता है,जो बाद में ‘जलकर मर’ जाती है। सखाराम की पत्‍नी को छेड़ता एक ठेकेदार है और इसकी सजा इसी स्‍त्री को नंगा करके गधे पर बिठाकर दी जाती है। वह अपमानित स्‍त्री रात में बस्ती के कुएँ में कूदकर‘आत्महत्या’ कर लेती है, “बस्ती से बाहर निकालने के बाद वह बेचारी झाड़ी में छिपी रही, क्योंकि उसके बदन पर पूरे कपड़े नहीं थे। रात में वह बस्ती के कुएँ में कूद गई। सवेरे उसका शरीर पानी के ऊपर तैर रहा था। उसके माँ-बाप आए और कहने लगे कि इसने हमारी नाक कटवाई, अच्छा ही हुआ कि यह कुलटा मर गई।” (वही,पृ. 73) भोपाल में लेखिका के सम्पर्क में आई दलित लड़की ललिता भी दलित समाज के संकीर्ण माहौल में परेशान रहती है। उसका पति उसे मारता-पीटता है, उसके चरित्र पर शक करता रहता है। इस तरह परेशान-पागल होकर वह खुद भी मर जाता है। कुछ साल बाद ललिता भी जलकर मर जाती है। ये स्‍त्री पात्र कई बार गैर दलित समाज के हाथों शोषित होती हैं, कई बार अपने दलित समाज द्वारा भी, जो पुरुषवादी-सामन्ती हथकण्डों से इन पर कहर ढाता रहा है। लेखिका की नानी और माँ इस पुरुषवादी सोच की हमेशा विरोधी रहीं। उनकी नानी तो अपने क्रूर धनी पति को हमेशा के लिए छोड़ कर गाँव से नागपुर शहर में आ जाती हैं और कभी वापस नहीं लौटतीं। यहीं रहकर अपनी बेटी को पालती-पोसती हैं। उसका घर बसाती हैं और अपनी नातिनों को पालने-पोसने की भी जिम्मेदारी निभाती हैं। बस्ती के आसपास की कई महिलाएँ जैसे दलित महिला जाई बाई और आदिवासी महिला झूलाबाई लड़कियों के लिए स्कूल चलाती नजर आती हैं,उस दौर में यह कोई मामूली बात नहीं थी। लेखिका कौशल्या बैसन्त्री भी काफी स्वाभिमानी स्‍त्री साबित होती हैं।

  1. दलित दम्पति का तनाव

    यह आत्मकथा एक उच्‍च शिक्षित दलित पति-पत्‍नी के दाम्पत्य जीवन की कहानी भी है। कौशल्या बैसन्त्री को उनके माँ-बाबा अपने जीवन के सभी फैसले खुद लेने की छूट देते हैं। शान्त और उदार स्वभाव के बाबा और बाबा साहेब के भाषण सुनने वाली जुझारू माँ मानते हैं कि उनकी बेटियाँ उनसे अधिक समझदार हो गई हैं। लेखिका ‘शेड्यूल कास्ट स्टूडेण्ट फेडरेशन’ की जॉइण्ट सेक्रेटरी होती हैं और इसी संगठन की ओर से सन् 1945 में उन्नाव में हुए उत्तर प्रदेश के ‘शेड्यूल कास्ट स्टूडेंट फेडरेशन’ के अधिवेशन में जाती हैं। वहाँ उनकी पहचान बी.एच.यू. से आए देवेन्द्र कुमार से होती है, “यह विद्यार्थी उस वक्त एम.ए., एल.एल.बी. करके डी.लिट्. कर रहा था। यह कानपुर से निकालने वाले हिन्दी अखबार सावधान और मद्रास से निकालने वाले एक अंग्रेजी अखबार में लेख लिखता था।” (वही, पृ. 94) उसकी शादी हो चुकी थी,मगर बाद में उसकी पत्‍नी व बच्‍चों की मृत्यु हो गई। लेखिका उससे शादी कर लेती हैं। बाद में पता चलता है कि वह ‘बहुत शैतान आदमी’ था, वह पहली पत्‍नी को भी पीटता था। उसे “पत्‍नी सिर्फ खाना बनाने और उसकी शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी।” (वही, पृ. 104) यह रिश्ता सालों तक इसी तरह तनाव भरा चलता रहा, “पैसे देवेन्द्र कुमार अपनी आलमारी में ताले में बन्द रखता और रोज दूध और सब्जी के पैसे देता था।” (वही, पृ. 104) पति उसकी हर तरह से उपेक्षा करता रहा और लेखिका दशकों तक पीड़िता बनी रही। वे अपने पति के खूबियों की प्रशंसा करती हैं, “देवेन्द्र कुमार को स्वतन्त्रता सेनानी का ताम्रपत्र मिला और पेन्शन भी मिलती है। सरकार ने उसके कार्य की प्रशंसा की थी। किन्तु यही व्यक्ति अपने घर में लड़ाई करता था अपनी पत्‍नी से।” (वही, पृ. 105) देवेन्द्र के इस रवैये के चलते दाम्पत्य जीवन की दूरियाँ बढ़ती गईं “बहुत अत्याचार होने पर मैंने कोर्ट में देवेन्द्र कुमार पर केस दायर किया। आज दस वर्ष से कोर्ट में केस अटका पड़ा है। मुझे हर माह 500 रुपये मेण्टेनेन्स के मिलते हैं।” (वही, पृ. 106) लेखिका चालीस वर्ष तक उस घर में रहकर सब कुछ ‘झेलती’ रहीं और जब बच्‍चे बड़े हो गए, पति पर केस दायर कर दिया।

  1. निष्कर्ष

    कौशल्या बैसन्त्री की यह आत्मकथा अपने अन्त में एक सन्देश छोड़ती है, “अगर हम स्वाभिमान से अपनी उन्‍नति करना चाहते हैं, तब हमें अपने पाँव पर खड़ा होकर,अपने पर भरोसा रखकर,आगे बढ़ना होगा। हमें अपने अन्दर शक्ति पैदा करनी होगी। किसी का सहारा लेकर चलने से काम नहीं बनेगा।” (वही,पृ. 124) प्रसंग के हिसाब से तो यह बात दलित महिलाओं के बारे में कही गई प्रतीत होती है, लेकिन लेखिका सम्पूर्ण दलित समाज के बारे में यह बात कह रही हैं। लेखिका ने कोई अतिरिक्त बयानी नहीं की है। कई सवर्ण पुरुषों के प्रोत्साहन की भी सराहना की गई है। अपने आसपास के परिवेश की विपन्‍नता और सम्पन्‍नता को बिना किसी लाग-लपेट के दर्शाया है। उस जमाने में दलित बालिकाओं का स्कूल जाना और प्रोत्साहन पाना, उत्तर भारत की तुलना में जातिगत भेदभाव का कम शिकार होना, बाबा साहेब के अनुकरण से धार्मिक अन्धविश्‍वासों से पिण्ड छुड़ाना, लड़कियों का सामाजिक कार्यों में आगे आना, उच्‍च शिक्षा ग्रहण करना,प्रेम विवाह तक करना आदि सकारात्मक पहलुओं का इससे पता चलता है। इसके साथ ही दलित समाज के एक हिस्से और परिवारों के संक्रमण के दौर को समझने के लिए, विशेषकर दलित दाम्पत्य जीवन को समझने के लिए यह एक अच्छी रचना है।

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अतिरिक्त जानें-

 

पुस्तकें

  1. दोहरा अभिशाप, कौसल्या बैसन्त्री, परमेश्वरी प्रकाशन,दिल्ली
  2. हिन्दी दलित कथा साहित्य : अवधारणायें और विधाएँ, रजत रानी मीनू, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्युटर्स (प्रा.)लि., नयी दिल्ली
  3. समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध, अनीता भारती, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. अम्बेडकरवादी स्त्रीचिंतन (सामाजिक शोषण के खिलाफ आत्मवृत्तात्मक संघर्ष), तेज सिंह (संपा.), स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद
  6. दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. विमर्श के विविध आयाम, डॉ.अर्जुन चव्हाण, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
  8. दलित चेतना साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार?, रमणिका गुप्ता, समीक्षा प्रकाशन, दिल्ली

    वेब लिंक्स

  1. https://docs.google.com/file/d/0Bwvi_WaL_v3GZ3UwMndWWEdkQjg/edit
  2. http://www.dalitmat.com/index.php/kala-sahitya/770-kaushlya-baisantri-died
  3. http://www.debateonline.in/310113/
  4. http://www.dalitmat.com/index.php/kala-sahitya/1351-2014-07-08-14-29-53
  5. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF