16 शब्‍दवर्ग और व्‍याकरणिक कोटियाँ

प्रो. सुरेंद्र दुबे

epgp books

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्‍य
  2. प्रस्तावना
  3. शब्दवर्ग
  4. व्याकरणिक कोटियाँ
  5. निष्‍कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्‍य

इस पाठ के अध्‍ययन के उपरांत आप-

  • भाषाओं में शब्दवर्गों और व्याकरणिक कोटियों में विभेद की स्थितियों से परिचित होंगे।
  • शब्दवर्ग की अवधारणा और शब्दभेदों से अवगत हो सकेंगे।
  • विभिन्न शब्दवर्गों की परिभाषाओं की जानकारी प्राप्त करेंगे।
  • विभिन्न व्याकरणिक कोटियों के प्रकार्य को जान सकेंगे।

 

भाषा का कार्य भाव या विचार की अभिव्यक्ति है। पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति वाक्य से ही संभव है, इसलिए वाक्य को ही भाषा की सहज इकाई माना जाता है। शब्दवर्ग और व्याकरणिक कोटियों का उद्देश्य भाषा में अभिव्यंजना संबंधी सूक्ष्मता और निश्चितता लाना है।

 

सूक्ष्म, स्पष्ट और निश्चित भाषाबोध के लिए शब्दवर्ग संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया तथा अव्यय और व्याकरणिक कोटियों- लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल, पक्ष, वृत्ति और वाच्य की जानकारी आवश्यक है।

 

  1. प्रस्तावना

शब्दवर्ग और व्याकरणिक कोटियों के संबंध में निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए-

 

क. प्रत्येक भाषा के शब्दवर्गों और पद तथा वाक्यरचना में अंतर होता है, इसलिए व्याकरणिक कोटियों का ऐसा कोई सामान्य ढाँचा नहीं बन सकता, जो सभी भाषाओं पर समान रूप से लागू हो।

 

ख. व्याकरणिक कोटियाँ कालसापेक्ष हैं। एक ही भाषा की व्याकरणिक कोटियाँ विकासक्रम में बदल जाती हैं। संस्कृत में तीन लिंग और तीन वचन होते हैं, किंतु उसी से विकसित हिंदी में यह संख्या दो हो गई है।

 

ग. शब्दवर्गों व्याकरणिक कोटियों के आधार पर भाषा का गठन नहीं होता, बल्कि भाषाप्रवाह का विश्लेषण कर वर्गों और कोटियों का निर्धारण होता है। प्रत्येक भाषा की प्रकृति भिन्न होती है, इसलिए उसकी कोटि भी स्वतंत्र और भिन्न होती है।

 

  1. 3. शब्दवर्ग

भाषा की लघुतम स्वतंत्र सार्थक इकाई शब्द है। ध्वनि के उस समुच्चय जिसके बोलने या पढ़ने से अर्थ का बोध होता है, उसे शब्द कहते हैं।

 

3.1   शब्दवर्ग – प्रत्येक भाषा में वाक्यों में उनके प्रयोग के आधार पर शब्दों की अलग-अलग कोटियाँ (Parts of Speech) होती हैं। संस्कृत में यास्क मुनि ने शब्दों के चार वर्ग बताए हैं-

 

(क) नाम (संज्ञा)

(ख) आख्यात (क्रिया)

(ग) उपसर्ग (प्र, परा, आ आदि)

(घ) निपात (अव्यय)

 

आगे चलकर पाणिनि ने इन्हें दो वर्गों में समाहित कर दिया- ‘सुबन्त’ और ‘तिङन्त’।

 

हिंदी के शब्दवर्ग अंग्रेजी के अनुकरण पर दिखाई देते हैं। जैसे – संज्ञा (Noun), सर्वनाम (Pronoun), विशेषण (Adjective), क्रिया (Verb), क्रियाविशेषण (Adverb), संबंधसूचक (Preposition), समुच्चयबोधक (Conjunction), विस्मयादिबोधक (Interjection)। कामताप्रसाद गुरु ने भी हिंदी में इन्हीं आठ वर्गों को स्वीकार किया है।

 

उपर्युक्त शब्दवर्गों अथवा शब्द भेदों को निम्नवत् परिभाषित किया गया है-

 

संज्ञा : पारंपरिक व्याकरणिक वर्गीकरण में इसे व्यक्ति, वस्तु और स्थान के नाम के रूप में परिभाषित किया गया है। नाम और वस्तु जैसे शब्दों की अस्पष्टता को देखते हुए भाषावैज्ञानिक अध्ययनों में इसे रूपप्रक्रिया और वाक्यविन्यास के रूपात्मक और प्रकार्यात्मक आधारों पर व्याख्यायित किया जाता है। जैसे कि संज्ञा वह शब्द भेद है जो वचन और कारक से संबद्ध रूपरचना से युक्त होता है तथा परसर्गों से पूर्व प्रयुक्त होता है और वाक्यरचना में कर्ता या कर्म के रूप में प्रयुक्त होता है। सामान्यतः इन्हें लिंग, वचन, कारक और गणनीयता के आधार पर विश्लेषित किया जाता है।

 

लड़का (पुल्लिंग) लड़की (स्त्रीलिंग)

मकान (पुल्लिंग) दुकान (स्त्रीलिंग)

लड़का (एकवचन, कर्ता कारक) लड़के (बहुवचन, कर्ता कारक)

लड़के (तिर्यक/विकारी, कारक) लड़कों (तिर्यक/विकारी कारक, बहुवचन)

मकान (गणनीय) , दूध (अगणनीय)

 

सर्वनाम : व्याकरणिक वर्गीकरण की दृष्टि से शब्दों का वह सीमित समुच्च्य जो एक संज्ञा (या संज्ञा पदबंध) के स्थान पर प्रयुक्त हो सकता है। जैसे- मैं, हम, तू, तुम, आप, वह, वे।

 

विशेषण : व्याकरणिक वर्गीकरण में वह शब्दभेद जो संज्ञाओं की विशेषता बताकर उनकी व्याप्ति को सीमित करता है। ‘काला घोड़ा’ पदबंध में घोड़ा शब्द समस्त घोड़ा जाति का वाचक न रहकर केवल काले घोड़ों तक परिसीमित हो जाता है। विशेषण का प्रयोग संज्ञा पदबंध में संज्ञा से पूर्व विशेषक के रूप में अथवा क्रिया के बाद विधेय विशेषण के रूप में, प्रविशेषकों के बाद जैसे- बहुत गहरा तथा तुलना के लिए किया जाता है। उदाहरण- उससे छोटा, सबसे बड़ा, सुंदरता, सुदरतम।

 

क्रिया : वह शब्दवर्ग जो कार्य व्यापार अथवा अवस्था (अर्थात करने या होने के भाव) को व्यक्त करते हैं। रूपात्मक दृष्टि से यह वह शब्दवर्ग है जिसमें काल, पक्ष, वृत्ति, वाच्य, लिंग, वचन और पुरूष के आधार पर रूपरचना हो सकती है। इसके दो मुख्य भेद हैं- सकर्मक क्रिया, और अकर्मक क्रिया।

 

क्रियाविशेषण : वह शब्दवर्ग है जो क्रिया की विशेषता बताकर क्रिया के व्यापार को सीमित करता है। इसके चार प्रकार हैं- स्थानवाचक- यहाँ, वहाँ, कालवाचक- आज, अब, परिमाणवाचक- बहुत, इतना रीतिवाचक- तेज, ऐसे आदि।

 

संबंधसूचक (पूर्वसर्ग) : संज्ञा पदबंध के पूर्व प्रयुक्त होने वाले शब्द जो किसी संज्ञा पदबंध का अन्य संज्ञा पदबंध या क्रिया से संबंध व्यक्त करते हैं। जैसे- in the house. हिंदी में परसर्ग द्वारा ये संबंध व्यक्त होते हैं- मकान में।

 

समुच्च्यबोधक : शब्दों या उनसे बड़ी रचनाओं को जोड़ने वाला शब्दवर्ग। इसके दो प्रकार हैं- समानाधिकरण (Co-ordinating) जैसे- और, या, यदि, तथा व्यधिकरण या आश्रयसूचक (Subordinating) जैसे- जबकि आदि।

 

विस्मयादिबोधक : वे अविकारी या अव्यय शब्द जो विस्मय, शोक, आदि मनोविकारों को व्यक्त करते हैं। जैसे- ओह! वाह! आदि। इनके अन्य शब्दवर्गों के साथ वाक्यीय संबंध नहीं होते।

 

कुछ भाषाविद इन आठ वर्गों को मुख्यतः तीन वर्गों-नाम, आख्यात (क्रिया) और अव्यय में समाहित करते हैं। उनका कहना है कि संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण को मूल रूप से एक ही वर्ग में रखा जाना चाहिए, क्योंकि संज्ञा का ही सर्वनाम होता है और इनका ही विशेषण, इसलिए इन्हें अलग-अलग वर्ग में रखने का कोई औचित्य नहीं है। क्रिया का एक अलग वर्ग रखना समीचीन है। शेष चार वर्गों-क्रियाविशेषण (कहाँ, कब, तब, अब आदि) संबंधसूचक (को, से, के आदि) समुच्चयबोधक (और, अथवा, तथा आदि) विस्मयादिबोधक (अरे, ओह, ठीक,शाबाश आदि) को एक ‘अव्यय’ की कोटि में रखना लाघव की दृष्टि से उचित है।

 

  1. 4. व्याकरणिक कोटियाँ

 

व्याकरणिक कोटियों का संबंध संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया से है; क्योंकि इन्हीं में संबंधतत्त्वों का योग होता है। संबंध तत्त्वों से लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल, पक्ष, वृत्ति और वाच्य का बोध होता है।

 

प्रमुख व्यारकणिक कोटियाँ निम्नांकित है-

 

4.1 लिंग (Gender)

 

लिंग का शब्दिक अर्थ चिह्न होता है। चिह्न, अर्थात् जिससे किसी चीज को पहचाना जाए। ये लिंग (चिह्न) दो प्रकार के होते हैं-(क) प्राकृतिक और (ख) व्याकरणिक। भाषा का संबंध व्याकरणिक लिंग से होता है। प्रत्येक भाषा के लिंग विधान अलग-अलग होते हैं। हिंदी में दो लिंग-पुल्लिंग और स्त्रीलिंग होते हैं। संस्कृत, जर्मन आदि भाषाओं में तीन लिंग होते हैं- पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग। व्याकरणिक लिंग सदैव प्राकृतिक लिंग का अनुसरण नहीं करते हैं। व्याकरणिक लिंग में प्राकृतिक लिंग का उल्लंघन भी पाया जाता है। संस्कृत में पत्नी के लिए ‘दार’ पुल्लिंग है, तो ‘भार्या’ स्त्रीलिंग। यह लिंग संबंधी  अनियमितता प्रायः अन्य भाषाओं में भी दिखाई देती है। व्याकरणिक लिंग का कोई तर्कसंगत आधार नहीं दिखता है। यह पर्याप्त मात्रा में यादृच्छिक है। पाणिनि ने लिंगनिर्णय के लिए लोक व्यवहार को प्रामाणिक माना है, तो पतंजलि इसके लिए विवक्षा (वक्ता की इच्छा) को प्रमाण मानते हैं। चीनी और जापानी भाषाओं में लिंगभेद नहीं मिलता है। कतिपय भाषाओं में चेतन-अचेतन या सशक्त अथवा दुर्बल के आधार पर लिंगनिर्णय किया जाता है।

 

लिंगनिरूपण दो प्रकार से होता है- प्रत्यययोग से स्वतंत्र प्रयोग से, और लिंगसूचक शब्द प्रयोग द्वारा।

 

4.1.1 प्रत्यय योग से- यहाँ पुल्लिंग में प्रत्यय के योग से स्त्रीलिंग बनाया जाता है।

 

संस्कृत  – बालकः  – बालिका

सुंदरः  –  सुंदरी

हिंदी –  नर – नारी

घोड़ा –     घोड़ी

मोर    –     मोरनी

अंग्रेजी  –     Hero –        Heroine

Lion  –        Lioness

Prince        –        Princess

 

4.1.2 स्वतंत्र शब्दप्रयोग– यहाँ पुल्लिंग और स्त्रीलिंग के लिए अलग-अलग स्वतंत्र शब्द प्रयोग में आते हैं-

 

संस्कृत  – भ्राता – भगिनी

पिता – माता

हिंदी – भाई – बहन

पुरुष –  स्त्री

अंग्रेजी – King  – Queen

Father – Mother

 

4.1.2 लिंगसूचक शब्दप्रयोग द्वारा- शब्द के पूर्व लिंगसूचक शब्दों के प्रयोग द्वारा लिंगनिरूपण किया जाता है-

 

हिंदी   –     नर भेड़       –     मादा भेड़

अंग्रेजी  –     He Goat     –        She Goat

Male Servant      –        Maid Servant

 

संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया पर लिंग का प्रभाव पड़ता है। हिंदी भाषा में सर्वनाम पर लिंग का प्रभाव नहीं पड़ता है। फ्रांसीसी भाषा में उपपदों (Articles) में भी लिंगभेद पाया जाता है।

 

4.2 वचन- वचन के संबंध में भी संसार की सभी भाषाओं में एकरूपता नहीं है, यद्यपि कि लिंग की तुलना में वचन अधिक वास्तविक है और व्यावहारिक भी। व्यावहारिक दृष्टि से वचन के वर्गीकरण के दो आधार होते हैं- एक और एकाधिक। यह संख्याभेद तर्कसंगत भी है और व्यावहारिक भी। अतः उक्त के आधार पर दो भेद किए जाते हैं- एक वचन और बहुवचन। कुछ भाषाओं में दो के लिए द्विवचन की कल्पना की गई है। संस्कृत, ग्रीक, अरबी, लिथुआनी आदि भाषाओं में द्विवचन का प्रयोग होता है।

 

हिंदी में बहुवचन के लिए लिंगभेद के आधार पर प्रत्यय जुड़ते हैं।

 

उदाहरणार्थ-

 

4.2.1       पुल्लिंग अविकारी शब्द में ‘शून्य प्रत्यय’ और ‘-ए’ के योग से बहुवचन बनाया जाता है।

 

प्रत्यय – एकवचन                       बहुवचन

0 (शून्य) आदमी       –           आदमी

‘-ए’              –                     लड़के

 

4.2.2       स्त्रीलिंग अविकारी शब्द में ‘-आँ’ और ‘-एँ’ लगाकर बहुवचन बनाया जाता है।

     

प्रत्यय –       एकवचन            बहुवचन

‘-आँ’        लड़की        –     लड़कियाँ

‘-एँ,        औरत         –     औरतें

 

4.2.3 समूहवाची शब्दों के योग से भी बहुवचन का निर्माण होता है, यथा-गण, वृंद, लोग, समूह आदि।

 

उदाहरण – शिक्षकगण, छात्रवृंद, मजदूर लोग, जनसमूह।

जोड़ा, दर्जन, ग्रोस आदि के योग से भी बहुवचन बनता है।

लिंग की तरह वचन भी सदैव तार्किक ही नहीं होता, यहाँ भी अपवाद होते हैं। जैसे संस्कृत में बीस के ऊपर के संख्यावाची शब्द एकवचन में ही चलते हैं। दर्शन, प्राण शब्द बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं।

 

2.2.4 अंग्रेजी में बहुवचन बनाने के लिए –s, -es, -en, -zero (प्रत्यय) का प्रयोग होता है।

जैसे – Books, Eyes, Horses, Oxen, Children, Deer आदि।

 

4.3 पुरुष– पुरुष की कल्पना वक्ता, श्रोता और इन दोनों से इतर के आधार पर की गई है। ऐसा माना जाता है कि जो बोल रहा है (वक्ता) वह उत्तम पुरुष, जो सुन रहा है (श्रोता) वह मध्यम पुरुष और इनसे जो भिन्न है वह अन्य (प्रथम) पुरुष है।

संस्कृत में यह क्रम इस प्रकार है-प्रथम पुरुष (सः), मध्यम पुरुष (त्वम्) और उत्तम पुरुष (अहम्)।

अंग्रेजी में इनका क्रम है- First person (I), Second person (you) and Third person (He).

     

 

हिंदी में पुरुषवचन और कारकमूलक होते हैं-

      पुरुष               एकवचन            बहुवचन

उत्तम पुरुष  मैं           –     हम (अविकारी)

मुझ  –     हम (विकारी)

 

मध्यम पुरुष  तू           –     तुम (अविकारी)

तुझ                तुम/तुम्ह-आप (अविकारी/विकारी)

अन्य पुरुष            वह          –     वे (अविकारी)

उस          –     उन (विकारी)

 

पुरुष के एकवचन रूप अपवर्जी और बहुवचन रूप समावेशी होते हैं। जैसे-‘मैं गया’ और ’हम गए’, इनमें पहले वाक्य में वक्ता के अतिरिक्त किसी अन्य का बोध नहीं होता है, किंतु दूसरे वाक्य में वक्ता (और श्रोता) के अतिरिक्त अन्य लोग भी समाहित हो जाते हैं।

 

इसी तरह ‘तू-चले’ या ‘वह चले’ से निर्दिष्ट व्यक्ति मात्र का बोध होता है, किंतु ‘तुम चलो’ और ‘वे चलें’ में श्रोता के अतिरिक्त और का भी ग्रहण होता है। इसलिए स्पष्ट है कि पुरुष का एकवचन अपवर्जी होता है और बहुवचन समावेशी।

 

 4.4 कारक- कारक का अर्थ होता है करनेवाला। व्याकरण में क्रिया को सिद्ध करनेवाले शब्द को ‘कारक’ कहते हैं। संसार की ज्ञात भाषाओं में कारकों की संख्या दो से लेकर तेईस तक पाई जाती है। जॉर्जी में तेईस कारक होते हैं। संस्कृत में सात कारक माने गए हैं- कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण और संबोधन। ‘संबंध’ का क्रिया की निष्पत्ति में कोई योगदान नहीं होता है, इसलिए इसे ‘कारक’ नहीं माना जाता है।

 

जैसे- राज्ञः पुरुषः गच्छति। इस वाक्य में ‘राज्ञः‘ का संबंध ‘गच्छति’ से नहीं है। हिंदी में छह कारक हैं ।

पं. रामाज्ञा पाण्डेय ने ‘व्याकरण दर्शन की भूमिका’ में लिखा है कि पाणिनि के पूर्व संप्रदान और अपादान का कारकत्व था ही नहीं।

कारक में लगनेवाले चिह्नों को विभक्ति या परसर्ग कहते हैं। हिंदी में ये चिह्न है- कर्ता-‘ने’, कर्म-‘को’, करण-‘से, संप्रदान-‘को’, ‘के लिए’, अपादान-‘से’, संबंध-‘का’, ‘की’, ‘के’, अधिकरण-‘में’, ‘पर’, संबोधन (इसका संबंध क्रिया से नहीं होता है। संबोधन पुकारने के अर्थ में आता है) ‘हे’, ‘अहो’, ‘अरे’।

 

4.5 काल- क्रिया द्वारा संपन्न होने वाले व्यापार के समय को ध्यान में रखकर सामान्यतः तीन भेद किये जाते हैं-(क) भूतकाल, (ख) वर्तमान काल और (ग) भविष्यत काल।

 

उपभेद- कालों से जुड़ी हुई क्रिया की पूर्णता, अपूर्णता और वृत्ति (Mood) के आधार पर इसके अनेक उपभेद किये गए हैं।

संस्कृत में काल और वृत्ति के आधार पर लकारों की कल्पना की गई है। इसमें 10 लकार होते हैं-लट्, लुङ्, लिट्, लुट्, लृट्, लृङ्, लोट्, विधि, लिंङ् और आशीर्लिङ्।

 

हिंदी में तीन काल हैं- भूत, वर्तमान और भविष्य। निश्चयार्थ, आज्ञार्थ और संभावनार्थ- इन तीन अर्थ वृत्तियों के आधार पर तथा व्यापार की पूर्णता-अपूर्णता के आधार पर हिंदी में काल के उपभेदों की संख्या 16 हो जाती है।

 

काल की दृष्टि से सामान्य नियमों के अतिरिक्त भी अनेक रूप दिखाई देते हैं। जैसे-

(क) ‘वह प्रत्येक रविवार को वहाँ जाता है।’

 

अब इस वाक्य को देखें। यहाँ यह पता चलता है कि वह रविवार को वहाँ पहले भी जाता था (भूतकाल), आज भी जाता है (वर्तमान काल) और भविष्य में भी जाएगा, ऐसी संभावना है (भविष्य काल)।

 

(ख) ‘यदि मोहन यहाँ आया तो यह काम होने से रहा।’

 

इस वाक्य में दोनों क्रियाएँ भूतकाल की हैं, किंतु उनका प्रयोग भविष्यत काल के लिए हुआ है।

तात्पर्य यह कि अन्य कोटियों की तरह काल भी पूर्णतः निरपवाद नहीं है।

 

4.6 पक्ष : व्याकरणिक कोटि काल का संबंध वाक्य में क्रिया रूप द्वारा संकेतित क्रिया व्यापार या घटना के वाक्य के कथन के पूर्व होने, साथ होने होने या बाद में होने के आधार पर क्रमशः भूत, वर्तमान और भविष्य की कोटियों में वर्गीकृत करने से है जबकि पक्ष का संबंध क्रियाव्यापार या घटना में लगनेवाली अवधि में क्रिया व्यापार की अवस्था या रीति से है। इस आधार पर क्रिया के मुख्यतः दो पक्ष प्राप्त होते हैं क्रिया के पूर्ण हो जाने की स्थिति में पूर्ण पक्ष और क्रिया के पूर्ण न होने की स्थिति में अपूर्ण पक्ष।

 

क्रिया के अपूर्ण रहने की अवस्था में यदि क्रिया की आवृत्ति होती रहती है तो उसे नित्य पक्ष कहा जाता है और यदि क्रिया में निरंतरता रहती है तो इसे सातत्य पक्ष कहते हैं। इन्हें निम्नलिखित उदाहरणों से समझा जा सकता है-

  • उसने काम किया है। (पूर्ण)
  • वह काम करता है। (नित्य पक्ष)
  • वह काम कर रहा है। (सातत्य पक्ष)

 

दृष्टव्य है कि उपर्युक्त तीनों वाक्य वर्तमान काल में है जिसका संकेत ‘है’ सहायक क्रिया से मिलता है। ‘है’ के स्थान पर  ‘था’ का प्रयोग कर इन्हें भूतकालिक वाक्य बनाया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि पक्ष को एक स्वतंत्र व्याकरणिक कोटि के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है।

 

4.7 वृत्ति : क्रिया के कुछ रूपों से क्रिया द्वारा निर्दिष्ट क्रियाव्यापार या घटना के प्रति वक्ता की मनोवृत्ति या दृष्टिकोण का बोध होता है। उदाहरणार्थ-

  • मोहन स्कूल में पढ़ता है।- निश्चयार्थ
  • तुम घर जाओ। -आज्ञार्थ
  • वह बड़ा आदमी बने। -संभावनार्थ
  • वह परिश्रम करता तो असफल न होता। -संकेतार्थ

 

उपर्युक्त उदाहरणों में निश्चयार्थ में क्रिया का कोई विशिष्ट रूप नहीं है जबकि आज्ञार्थक, संभावनार्थक तथा संकेतार्थक क्रियाओं में विशिष्ट प्रत्ययों को जोड़ा जाता है।

 

4.8 वाच्य– क्रिया का वह रूप जिससे यह बोध होता हो कि क्रिया का मुख्य विषय कर्ता है या कर्म या भाव।

जैसे-

 

(क) राम घर जाता है। इस वाक्य में ‘जाता है’ के रूपांतरण का संबंध अर्थ की दृष्टि से ‘राम’(कर्ता) के संबंध में विधान करने से है। अतः यह ‘कर्तृवाच्य’ है।

 

(ख) पत्र सीता द्वारा लिखा गया। इस वाक्य में ‘लिखा गया’ के रूपांतरण का संबंध अर्थ की दृष्टि से पत्र (कर्म) से है। अतः यह ‘कर्मवाच्य’ है।

 

(ग)  उससे अब चला नहीं जाता। इस वाक्य में ‘चला नहीं जाता’ के रूपांतरण का संबंध अर्थ की दृष्टि से चलने में असमर्थता के भाव से है। अतः यह भाववाच्य है।

 

कर्तृवाच्य में सकर्मक और अकर्मक दोनों तरह की क्रियाएँ हो सकती हैं।

कर्मवाच्य में केवल सकर्मक क्रियाएँ होती हैं।

भाववाच्य में केवल अकर्मक क्रियाएँ होती हैं।

सकर्मक और अकर्मक क्रियाभेद से इतर कर्मवाच्य और भाववाच्य के अंतर्गत क्रिया के रूपांतरण की संभावना को दृष्टिकोण में रखते हुए इन्हें अकर्तृवाच्य में समाविष्ट किया जाने लगा है जोकि अंग्रेजी में Passive voice के समतुल्य है।

रूपात्मक भाषाओं में उपर्युक्त वाच्यों के अतिरिक्त एक और वाच्यगत स्थिति होती है। इसके अनुसार केवल अवस्थिति-बोध होता है। जैसे-

संस्कृत  – एकः बालकः अस्ति।

हिंदी   – एक बालक है।

अंग्रेजी- There is a boy.

  1. निष्‍कर्ष

 

शब्दवर्ग– प्रत्येक भाषा में शब्दों के अलग-अलग वर्ग (Parts of Speech) होते हैं। संस्कृत में यास्क ने चार-नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात तथा पाणिनि ने दो-सुबन्त, तिङन्त शब्द विभाग बनाए हैं। हिंदी में अंग्रेजी के अनुकरण पर आठ वर्ग स्वीकार किये गए हैं-संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, क्रिया विशेषण, संबंधसूचक, समुच्चयबोधक तथा विस्मयादिबोधक। कुछ भाषाविद इन आठ को मुख्यतः तीन वर्गों में समेट लेते हैं- नाम आख्यात (क्रिया) और अव्यय।

 

व्याकरणिक कोटियाँ– व्याकरणिक कोटियों का संबंध संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया से है। ये निम्नांकित हैं।

 

लिंग- लिंग का अर्थ चिह्न(पहचान) है। लिंग दो प्रकार के होते हैं-प्राकृतिक और व्याकरणिक। भाषा का संबंध व्याकरणिक लिंग से हैं। प्रत्येक भाषा के लिंगविधान अलग-अलग होते हैं। संस्कृत में तीन लिंग- पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग तथा हिंदी में दो लिंग, पुल्लिंग और स्त्रीलिंग होते हैं। पुल्लिंग से स्त्रीलिंग बनाने के लिए प्रत्यय, स्वतंत्र शब्द और लिंग सूचक शब्दों को जोड़कर बनाया जाता है।

 

वचन- वचन के संबंध में भी संसार की सभी भाषाओं में एकरूपता नहीं है। संस्कृत में तीन वचन- एकवचन, द्विवचन और बहुवचन तथा हिंदी में दो वचन- एकवचन तथा बहुवचन का प्रयोग होता है। एकवचन से बहुवचन बनाने के लिए अनेक प्रत्यय जोड़े जाते हैं।

 

पुरुष- पुरुष की कल्पना वक्ता, श्रोता और इन दोनों से इतर के आधार पर की गई है। संस्कृत में तीन पुरुष-प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष है। अंग्रेजी में First Person, Second Person और Third Person हैं। हिंदी में उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष और अन्य पुरुष हैं।

 

कारक- व्याकरण में क्रिया को सिद्ध करने वाले शब्द को कारक कहते हैं। कारक भी भिन्न-भिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न होते हैं। संसार की ज्ञात भाषाओं में कारकों की संख्या दो से तेईस तक पाई जाती है। अंग्रेजी में दो, संस्कृत में सात, हिंदी में आठ कारक हैं, तो जॉर्जी में तेईस। हिंदी के कारक हैं- कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध, अधिकरण और संबोधन। कारक में लगनेवाले चिह्नों को विभक्ति या परसर्ग कहते हैं। हिंदी में चिह्न ये हैं- ने, को, से, को या के लिए, से, का-की-के, में-पर, 0/ए/ओ।

 

काल- क्रिया द्वारा कार्य सम्पन्न होने के समय को काल कहते हैं। काल सामान्यतः तीन होते हैं-भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल। संस्कृत में काल और वृत्ति (Mood) के आधार पर 10 लकार होते हैं।

 

पक्ष- पक्ष का संबंध क्रियाव्यापार या घटना में लगने वाली अवधि में क्रियाव्यापार की अवस्था या रीति से है। इस आधार पर क्रिया के मुख्यत: दो पक्ष प्राप्त होते हैं। क्रिया के पूर्ण हो जाने की स्थिति में पूर्ण पक्ष अपूर्ण रहने की स्थिति में अपूर्ण पक्ष। अपूर्ण रहने की  अवस्था में यदि क्रिया की आवृत्ति होती रहती है तो उसे नित्य पक्ष और यदि क्रिया में निरंतरता रहती है तो उसे सातत्य पक्ष कहते हैं।

 

वृत्ति- वृत्ति से क्रिया द्वारा निर्दिष्ट क्रिया व्यापार या घटना के प्रति वक्ता के मनोभाव का बोध होता है, हिंदी में निश्चयार्थ, आज्ञार्थ, संभावनार्थ और संकेतार्थ क्रिया रूप हैं।

 

वाच्य- क्रिया का वह रूप जिससे यह बोध होता है कि क्रिया का मुख्य विषय कर्ता है, कर्म है या भाव है, वाच्य कहलाता है। ये तीन प्रकार के होते हैं- कर्तृवाच्य (जहाँ मुख्य विषय कर्ता हो), कर्मवाच्य (जहाँ मुख्य विषय कर्म हो) और भाववाच्य (जहाँ क्रिया के भाव का बोध होता हो)।

 

you can view video on शब्‍दवर्ग और व्‍याकरणिक कोटियाँ

 

अतिरिक्‍त जानें 

पुस्‍तकें

  1. गुप्त, मोतीलाल; भटनागर, रघुवीर प्रसाद (सं.). (1974). आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका. जयपुर : राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी
  2. गुरु, कामताप्रसाद. (1977). हिंदी व्याकरण, काशी : नागरी प्रचारिणी सभा
  3. तिवारी, भोलानाथ. (1973). भाषाविज्ञान. इलाहाबाद : किताब महल
  4. द्विवेदी, कपिलदेव. (1978). भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र. वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन
  5. बाहरी, हरदेव. (2009). व्यावहारिक हिंदी व्याकरण तथा रचना. इलाहाबाद : लोकभारती
  6. शर्मा, आचार्य देवेन्द्रनाथ. (1983). भाषाविज्ञान की भूमिका. नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन
  7. शर्मा, हरीश. (2009). भाषाविज्ञान की रूपरेखा. गाजियाबाद (उ.प्र.) : अमित प्रकाशन
  8. सक्सेना, बाबूराम. (2013). सामान्य भाषाविज्ञान. प्रयाग :  हिंदी साहित्य सम्मेलन
  9. सक्सेना, द्वारिका प्रसाद. (1979). भाषाविज्ञान के सिद्धान्त और हिंदी भाषा. नई दिल्ली : मीनाक्षी प्रकाशन