13 रूपविज्ञान : परिभाषा एवं स्वरूप

डॉ. अनिल दुबे

 

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. रूपविज्ञान : स्वरूप एवं प्रकार
  4. अध्ययन की विषयवस्तु
  5. रूपविज्ञान और स्वनिमविज्ञान
  6. रूपिमविज्ञान और वाक्यविज्ञान
  7. रूपपरिवर्तन कारण और दिशाएँ
  8. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप –

  • रूपविज्ञान की अवधारणा को समझ सकेंगे।
  • रूपविज्ञान में अध्ययन की विषयवस्तु को जान सकेंगे।
  • रूपविज्ञान और स्वनिमविज्ञान के संबंध से परिचित हो सकेंगे।
  • रूपविज्ञान और वाक्यविज्ञान के संबंध का परिचय पा सकेंगे।

 

  1. प्रस्तावना

 

प्रत्येक भाषा कुछ सीमित अर्थहीन इकाइयों का प्रयोग करती है जिनके द्वारा असंख्य अर्थपूर्ण इकाइयों की रचना की जाती है। इन सीमित अर्थहीन इकाइयों को हम सामान्य भाषा में ‘ध्वनि’ कहते हैं, जिसे भाषाविज्ञान में ‘स्वन’ नाम दिया गया है। जब ये किसी भाषा विशेष की ध्वनि व्यवस्था को गठित करते हैं, तो स्वनिम कहलाते हैं। स्वनिमों द्वारा विभिन्न स्तरों पर अर्थवान इकाइयों की रचना की जाती है। इनमें पहला स्तर ‘रूप’ (Morph) का है। इसके बाद क्रमशः शब्द, पद, पदबंध, उपवाक्य, वाक्य, और प्रोक्ति आते हैं। ‘रूप’ की संकल्पनात्मक इकाई रूपिम है। रूप, रूपिम और इनसे जुड़ी इकाइयों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन रूपविज्ञान में किया जाता है, जिसका विवेचन प्रस्तुत इकाई में किया जा रहा है।

 

  1. रूपविज्ञान : स्वरूप एवं प्रकार

 

‘रूपविज्ञान’ भाषाविज्ञान की एक शाखा है, जिसके अध्ययन की केंद्रीय इकाई ‘रूपिम’ है। अंग्रेजी में रूपविज्ञान के लिए ‘मार्फोलॉजी’ (Morphology) शब्द का प्रयोग किया जाता है, जो ‘Morph’ और ‘logy’ दो शब्दों से मिलकर बना है। ‘मार्फ’ (Morph) के लिए हिंदी में ‘रूप’ शब्द का प्रयोग होता है और ‘लॉजी’ (logy) का अर्थ है- ‘विज्ञान’। विभिन्न भाषावेत्ताओं ने रूपविज्ञान को अनेक प्रकार से परिभाषित किया है। आगे कुछ प्रमुख भाषाविदों की परिभाषाएँ उद्धृत की जा रही हैं-

 

नाइडा के अनुसार, “रूपविज्ञान रूपिम तथा शब्द-निर्माण में उसकी व्यवस्था का अध्‍ययन करता है”।

ब्लाक तथा ट्रेगर का मत है कि रूपविज्ञान शब्द-गठन का विवेचन करता है।

 

कैरोल के अनुसार, “रूपविज्ञान उस पद्धति अथवा प्रणाली का अध्ययन है जिसके अनुसार शब्द-निर्माण किया जाता है और निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि रूपविज्ञान का संबंध रूपिमों की पहचान, शब्द-निर्माण में उनके क्रम, उनमें होने वाले परिवर्तन तथा विविध व्याकरणिक संरचनाओं में पाई जाने वाली व्यवस्था का अध्ययन है।”

(उद्धृत हिंदी-रूपविज्ञान, (1981) चमनलाल अग्रवाल)

 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि रूपविज्ञान भाषाविज्ञान की वह शाखा है जिसमें रूपिमों के अर्थ, स्वरूप, अनुक्रम, उनकी प्रतीति और प्रकार्य आदि के आधार पर उनके भेदों का किसी भाषा विशेष की संरचना के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है।

 

रूपविज्ञान के प्रकार-

  • (क) अध्ययन की दिशा के आधार पर-रूपविज्ञान के अध्ययन की दिशा के आधार पर रूपविज्ञान के तीन प्रकार हैं-
  • वर्णनात्मक रूपविज्ञान- इसमें किसी भाषा या बोली के किसी एक समय की शब्द और/या पदरचना का अध्ययन होता है।
  • ऐतिहासिक रूपविज्ञान- इसमें भाषा या बोली के विभिन्न कालों की शब्द और/या पदरचना का अध्ययन कर उसमें रूपविज्ञान का इतिहास या विकास प्रस्तुत किया जाता है।
  • तुलनात्मक रूपविज्ञान- इसमें दो या अधिक भाषाओं की शब्द और/या पदरचना का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है।
  • (ख) रूपिम योग की प्रक्रिया के आधार पर-रूपिम योग की प्रक्रिया के आधार पर इसके दो भेद किए जाते हैं-
  • व्युत्पादक रूपविज्ञान (Derivational Morphology)- इसमें मुक्त रूपिम या शब्द में व्युत्पादक रूपिमों को जोड़कर नए शब्द बनाने की प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है।
  • रूपसाधक रूपविज्ञान (Inflectional Morphology)- इसमें शब्दों में रूपसाधक रूपिमों को जोड़कर पद बनाने की प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है।
  1. अध्ययन की विषयवस्तु

 

4.1 भाषाई स्तर

 

जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, भाषाविज्ञान में भाषा का अध्ययन निम्नलिखित स्तरों पर किया जाता है-

स्वन – स्वनिम – रूपिम – शब्द – पद –पदबंध – वाक्य – प्रोक्ति

इनमें रूपविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र का विस्तार रूपिम से लेकर शब्द/पद तक है। इसे निम्नांकित चित्र में देख सकते हैं-

रूपिम

शब्द/पद

इस चित्र में तीर का पहला निशान रूपिमों को मिलाकर शब्द और पद बनाए जाने को संकेतित करता है तथा दूसरा निशान शब्द या पद का विश्लेषण रूपिमों में किए जाने की ओर संकेतित करता है। अतः रूपविज्ञान में भाषा के रूपिम स्तर तथा शब्द/पद स्तर दोनों का अध्ययन किया जाता है।

 

4.2 रूप, रूपिम और उपरूप

 

रूपिम स्तर पर रूपविज्ञान में रूप, रूपिम और उपरूप तीनों का अध्ययन विश्लेषण किया जाता है। साथ ही इनमें परस्पर संबंध और अंतर को भी रेखांकित किया जाता है। इन तीनों की संकल्पना को संक्षेप में इस प्रकार देख सकते हैं-

 

रूप (Morph) – रूप एक भौतिक इकाई है जो भाषिक कथनों में प्रयुक्त किया जाता है। किसी  वाक्य में प्रयुक्त ध्वनियों का छोटा से छोटा अनुक्रम जिसका अर्थ होता है, रूप कहलाता है। संकल्पना की दृष्टि से रूप मूर्त इकाई होता है।

 

रूपिम (Morpheme)- भाषा की लघुतम अर्थवान इकाई जिसे और अधिक सार्थक खंडों में विभक्त नहीं किया जा सकता है, रूपिम कहलाता है। दूसरे शब्दों में, रूपिम स्वनिमों का ऐसा सबसे छोटा अनुक्रम है जो कोशीय अथवा व्याकरणिक दृष्टि से सार्थक होता है। ब्लूमफील्ड के अनुसार, “रूपिम वह भाषाई रूप है जिसका भाषा विशेष के किसी अन्य रूप से किसी प्रकार का ध्वन्यात्मक और अर्थगत सादृश्य नहीं है”। रूपिम एक अमूर्त संकल्पना है। रूपिम को ‘{ }’ चिह्न के माध्यम से संकेतिक किया जाता है। कुछ भाषाओं में सभी रूपिम मुक्त होते हैं और अर्थ को स्थिर रखते हुए उनका पुनर्विभाजन नहीं हो सकता।

 

उपरूप (Allomorph)- दो या दो से अधिक ऐसे रूप जिनमें कुछ ध्वन्यात्मक विभेद होने के बावजूद उनसे एक ही अर्थ निकलता हो, तथा वे परिपूरक वितरण में हों, उपरूप कहलाते हैं। ये रूप एक ही परिवेश व संदर्भ में नहीं आते, अपितु मिलकर वे एक रूपिम के सभी संभव संदर्भों को पूरा करते हैं।

 

इस प्रकार कह सकते हैं कि उपरूप वे रूप हैं जो एक दूसरे का स्थान नहीं लेते हैं। यदि एक दूसरे का स्थान ले भी लेते हैं तो अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता है।

 

4.3 वितरण (Distribution)

वितरण एक पद्धति है जिसका प्रयोग रूपिमों और उपरूपों के निर्धारण में किया जाता है। जब दो या दो से अधिक ऐसे रूप प्राप्त होते हैं जो एक दूसरे से मिलते-जुलते हैं, तो वे दो स्वतंत्र रूपिम हैं या एक ही रूपिम के उपरूप इसका निर्धारण वितरण के माध्यम से किया जाता है।

 

वितरण के भेद- मूल रूप से वितरण के दो भेद किए जाते हैं-

  1. व्यतिरेकी वितरण (Contrastive Distribution)
  2. अव्यतिरेकी वितरण (Non-contrastive Distribution)
  3. व्यतिरेकी वितरण (Contrastive Distribution)- जब दो रूप समान शाब्दिक (या पदबंधीय) परिवेश या संदर्भ में आते हैं और इनका अर्थ अलग-अलग होता है तो वे परस्पर व्यतिरेकी वितरण में होते हैं। जैसे- हँसी और हंसी एक ही तरह के दिखने वाले दो शब्द हैं, किंतु दोनों का अर्थ अलग-अलग है। अतः दोनों परस्पर व्यतिरेकी वितरण में हैं।
  4. अव्यतिरेकी वितरण (Non-contrastive Distribution)- यह दो रूपों के परस्पर व्यतिरेकी नहीं होने की अवस्था है। इसके दो उपभेद हैं-
  • (क) परिपूरक वितरण (Complementary Distribution)- जब दो या दो से अधिक रूपों में कुछ ध्वन्यात्मक विभेद होता है किंतु उनका कोशीय अर्थ या व्याकरणिक प्रकार्य समान होता है तो वे आपस में परिपूरक वितरण में होते हैं। ऐसे रूपिम आपस में उपरूप होते हैं। जैसे- ‘चिड़ियाँ’ और ‘रातें’ शब्दों में बहुवचन क्रमशः ‘ँ’ और ‘एँ’ द्वारा व्यक्त होता है। उक्त ध्वन्यायत्मक विभेद के बावजूद दोनों का प्रकार्य अर्थ एक ही है और इनमें से कोई भी एक दूसरे के परिवेश में नहीं आता। अतः दोनों आपस में परिपूरक वितरण में है।
  • (ख) स्वतंत्र वितरण (Free Distribution)यह अव्‍यतिरेकी वितरण का ही एक प्रकार है। जब दो या दो से अधिक रूप इस प्रकार से वितरण में होते हैं कि दोनों का एक दूसरे के स्थान पर कहीं भी प्रयोग किया जा सकता है तो वे आपस में स्वतंत्र वितरण में होते हैं। जैसे- ‘खराब’ और ‘ख़राब’ दोनों का अर्थ एक ही है। साथ ही किसी भी वाक्यात्मक परिवेश में दोनों का एक दूसरे की जगह प्रयोग किया जा सकता है। अतः दोनों आपस में स्वतंत्र वितरण में है।

 

4.4 रूपिमिक प्रक्रियाएँ

  • व्युत्पादन (Derivation)- किसी मूल शब्द के साथ अन्य रूपिमों को जोड़कर नए कोशीय शब्द बनाने की प्रक्रिया को ‘व्युत्पादन’ कहते हैं। यह एक खुली प्रक्रिया है जिसमें किसी व्युत्पादित शब्द में और प्रत्यय जोड़कर नए-नए शब्द निर्मित किए जाते हैं। मुख्य रूप से इसके अंतर्गत प्रत्यय योग (पूर्व प्रत्यय/ मध्य प्रत्यय/ अंत प्रत्यय जोड़ना), समासीकरण (और संधीकरण) पुनरुक्त शब्द निर्माण आदि आते हैं। इसके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं-

 

अ + ज्ञान = अज्ञान (उपसर्ग/पूर्व प्रत्यय योग)

लूट (क्रिया) +एरा = लुटेरा    (संज्ञा)

दान (संज्ञा) + ई = दानी    (विशेषण)

सुंदर (विशेषण) +   ई = सुंदरी    (संज्ञा)

लड़का (सज्ञा)  +   पन = लड़कपन  (भाववाचक संज्ञा)

  • रूपसाधन (Inflection)- शब्दों में प्रत्ययों को जोड़कर ‘पद’ व्याकरणिक शब्द बनाने की प्रक्रिया रूपसाधन कहलाती है। हिंदी में रूपसाधन को पदरचना प्रक्रिया भी कहा गया है। प्रत्ययों को जोड़कर शब्द के रूपपरिवर्तन की यह प्रक्रिया व्याकरणिक कोटियों के आधार पर होती है। यह एक बंद प्रक्रिया है, अर्थात किसी शब्द के साथ रूपसाधक प्रत्यय लग जाने के बाद उसमें और कोई प्रत्यय नहीं जोड़ा जा सकता है। जैसे- लड़की + याँ = लड़कियाँ, भाषा + एँ = भाषाएँ आदि।

 

इन उदाहरणों में मूल शब्द के साथ रूपसाधक प्रत्ययों को जोड़कर एकवचन से बहुवचन बनाया गया है। रूपसाधन द्वारा पदों (व्याकरणिक शब्दों) का निर्माण किया जाता है इसलिए कुछ विद्वानों द्वारा इसे पदनिर्माण या पदसाधन भी कहा गया है।

 

उपर्युक्त दोनों प्रक्रियाओं को जिन प्रत्ययों द्वारा संपन्न किया जाता है, उन्हें व्युत्पादक और रूपसाधक प्रत्यय कहते हैं। इनमें निम्नलिखित अंतर हैं-

व्युत्पादक रूपिम

 

1. व्युत्पादक प्रत्यय लगने के बाद बना शब्द स्वतंत्र शब्द की भाँति भाषा में प्रयुक्त हो सकता हैं।

 

2. व्युत्पादक प्रत्ययों के लगने से बने शब्द नए शब्द होते हैं। प्रायः उनका शब्द-वर्ग बदल जाता है।

 

3. व्युत्पादक प्रत्यय लगकर बने शब्दों में पुनः व्युत्पादक प्रत्यय लगाकर नए शब्द बनाए जा सकते हैं।

 

4. भाषा में व्युत्पादक प्रत्ययों की संख्या अधिक पाई जाती है।

रूपसाधक प्रत्यय

 

1. रूपसाधक प्रत्यय लगकर बना शब्द स्वतंत्र शब्द की भाँति प्रयुक्त नहीं हो सकता है।

 

2. रूपसाधक प्रत्यय लगाकर नया शब्द नहीं अपितु शब्द के विभिन्न व्याकरणिक रूप प्राप्त होते हैं।

 

3. रूपसाधक प्रत्यय लग जाने के बाद फिर उस शब्द में कोई व्युत्पादक प्रत्यय नहीं लग सकता है।

 

4. रूपसाधक प्रत्यय प्रायः कम संख्या में होते है।

 

4.5 रूप विश्लेषण

 

किसी पद (व्याकरणिक शब्द) के निर्माण में लगे मुक्त और बद्ध रूपिमों और उनकी व्यवस्था को प्राप्त करना रूप विश्लेषण है। इस संदर्भ में सुप्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक सी. एफ. हॉकेट (C. F. Hockett) के ‘Two models of grammatical description’ (1954) में निम्नलिखित दो प्रतिदर्शों की चर्चा की गई है-

  1. मद और विन्यास (Item and Arrangement)

‘मद’ एवं ‘विन्यास’ ‘व्याकरणिक’ की एक पद्धति है। इसमें किसी निर्मित (व्युत्पादित) शब्द अथवा पद में आए हुए रूपिमों और उनके क्रम या विन्यास का विश्लेषण किया जाता है। दूसरे शब्दों में, रूप-विश्लेषण में मूल शब्दों (मुक्त रूपिमों) और उनमें लगे हुए उपसर्गों एवं प्रत्ययों (बद्ध रूपिमों) का विश्लेषण किया जाता है। मद और विन्यास पद्धति के अनुसार प्रत्येक पद एक से अधिक मदों (Items) के एक निश्चित व्यवस्था में मिलने से बनता है। अतः किसी शब्द या पद का विश्लेषण करते हुए उसमें आए हुए मदों तथा उनके विन्यास को ज्ञात कर सकते हैं। जैसे-

 

दुकानें (बहुवचन) = दुकान  (एकवचन)  +  एँ (प्रत्यय)

मकान (बहुवचन) = मकान (एकवचन) +  0 (प्रत्यय)

 

प्रथम उहादरण में ‘दुकानें’ पद में  मूल शब्द ‘दुकान’ और प्रत्यय ‘एँ’ दो मद प्राप्त होते हैं, और इनका क्रम है- दुकान (मद-1) + एँ (मद-2)। यह क्रम दोनों मदों का विन्यास है जिसे बदला नहीं जा सकता है। अर्थात ‘एँ + दुकान’ नहीं लिखा जा सकता है। दूसरे शब्द ‘मकान’ का बहुवचन रूप ‘मकान’ ही है इसमें कोई प्रत्यय दिखाई नहीं दे रहा है। अतः यहाँ ‘शून्य प्रत्यय’ मानकर बहुवचन निर्माण का विन्यास बताया जा सकता है। बद्ध रूपिम मूल शब्द के पहले भी आ सकते हैं। ऐसी स्थिति में ‘मद-1’ के स्थान पर बद्ध रूपिम होंगे। उपसर्गों द्वारा निर्मित शब्दों में यह देखा जा सकता है-  अज्ञान = अ + ज्ञान।

निर्मित शब्द = मद-1 + मद-2।

  1. मद और प्रक्रिया (Item and Process)

मद और प्रक्रिया के अनुसार सभी पद एक से अधिक मदों के केवल एक निश्चित व्यवस्था में ही मिलने से नहीं बने होते हैं, बल्कि कुछ पदों के निर्माण में रूपिमों के योग के साथ-साथ कोई परिवर्तन भी हुआ रहता है। अतः उनका विश्लेषण करते हुए घटक मदों, उनकी व्यवस्था और और पद निर्माण प्रक्रिया तीनों बताने की आवश्यकता पड़ती है। मूल मद, उनकी व्यवस्था और नए रूप के निर्माण में हुई प्रक्रिया के आधार पर नियमों की स्थापना की जाती है। जैसे-

 

लड़के (बहुवचन) = लड़का (एकवचन)  +    ए (प्रत्यय)

मद-1 +   मद-2 + प्रक्रिया (आ>ए)

 

उपर्युक्त उदाहरण में देखा जा सकता है कि ‘लड़के’ पद के निर्माण में दो मद ‘लड़का’ और ‘ए’ लगे हैं जिनमें ‘लड़का’ मद-1 और ‘ए’ मद-2 हैं, किंतु केवल इनके योग से ही ‘लड़के’ पद निर्मित नहीं हुआ है, बल्कि लड़का शब्द के अंतिम वर्ण ‘आ’ (अथवा आ का ए में परिवर्तन) का लोप भी हुआ है।

 

शब्द और रूपावली (Word and Paradigm)

 

संस्कृत, ग्रीक तथा लैटिन के व्याकरणों से प्रेरित यह एक प्रतिष्ठित एवं परंपरागत निदर्श (Model) है और रूपप्रक्रियात्मक विश्लेषण संबंधी दो अन्य निर्देशों मद और विन्यास (IA- Item and Arrangement) तथा मद और प्रक्रिया (IP- Item and Process) की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। ग्रीक तथा लैटिन व्याकरणों में रूपावली के एक शब्द-रूप को यादृच्छिक ढंग से प्रमुख रूप से चुन लिया गया है।

 

क्रिस्टल ने रूपावली (Paradigm) की परिभाषा इस प्रकार दी हैं कि A set of GRAMMATICALLY conditioned FORMS all derived from a single ROOT or STEM is called paradigm. (Crystal: 220)

 

4.6 शब्द-वर्ग और व्याकरणिक कोटियाँ

 

शब्द-वर्ग (Parts of Speech)

 

प्रत्येक भाषा में शब्दों का वर्गीकरण किया जाता है। पारंपरिक व्याकरणक में शब्दों का वर्गीकरण कहीं उनके व्यवहार के आधार पर तथा कहीं उनके अर्थ के आधार पर किया गया है, उदाहणार्थ- संज्ञा को व्यक्ति, वस्तु, स्थान और भाव का नाम कहकर परिभाषित किया गया। संज्ञा की यह परिभाषा अर्थ पर आश्रित है। इसी प्रकार विशेषण की परिभाषा- ‘जो संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताता हो, प्रकार्य पर निर्भर है। भाषिक शब्दों का वर्गीकरण उनके रूप और प्रकार्य अर्थात उनके स्वनिमिक, रूपिमिक व वाक्यीय गुणों के आधार पर किया जाता है।

 

प्रत्येक भाषा की संरचना के अनुरूप उसके शब्द-वर्गों की संख्या और प्रकृति का निर्धारण होता है। भारतीय संस्कृत वैयाकरण यास्क ने नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात चार वर्ग किए हैं। पाणिनि ने सुबंत और तिङन्त केवल दो वर्ग बनाए है। हिंदी में निम्नलिखित आठ शब्द-वर्ग हैं-

  1. संज्ञा
  2. सर्वनाम
  3. विशेषण
  4. क्रिया
  5. क्रियाविशेषण
  6. संबंधसूचक
  7. योजक
  8. विस्मयादिबोधक

 

व्याकरणिक कोटियाँ (Grammatical Categories)

 

वे अभिलक्षण जिनकी रूपात्मक अभिव्यक्ति शब्द-वर्गों के माध्यम से होती है व्याकरणिक कोटि कहलाते हैं। अन्य शब्दों में, किसी मूल शब्द में संबंध तत्व के जुड़ने के कारण वह पद बनता है। संबंध तत्व के द्वारा व्यक्त अर्थतत्व (मूल शब्द) के लिंग, वचन, पुरूष, काल, आदि भेदों को व्याकरणिक कोटियाँ कहते हैं।

 

व्याकरणिक कोटि का प्रमुख उद्देश्य भाषा में अभिव्यंजना संबंधी सूक्ष्मता और निश्चयात्मकता लाना है। विभिन्न भाषाओं में इनकी संख्या में एकरूपता नहीं मिलती है और न ही ये सार्वभाषिक एवं समानरूप में वर्गीकृत हैं अर्थात भाषाओं में इनकी संख्या अलग-अलग हो सकती है। हिंदी में निम्नलिखित आठ व्याकरणिक कोटियाँ हैं-

  1. लिंग (Gender)
  2. वचन (Number)
  3. पुरुष (Person)
  4. कारक (Case)
  5. काल (Tense)
  6. पक्ष (Aspect)
  7.  वृत्ति (Mood)
  8. वाच्य (Voice)
  1. रूपविज्ञान और स्वनिमविज्ञान (Morphology and Phonology)

 

भाषा में शब्द और पद निर्माण में कुछ ऐसी भी स्थितियाँ पाई जाती है जिनमें रूपिमिक योग के साथ-साथ स्वनिमिक परिवर्तन भी होते हैं। अतः ऐसी स्थितियों के अध्ययन के लिए रूपविज्ञान  और स्वनिमविज्ञान दोनों की आवश्यकता पड़ती है। भाषावैज्ञानिकों द्वारा दोनों के योग से बनने वाले इस संधिक्षेत्र को रूपस्वनिमविज्ञान नाम दिया गया है। इसमें शब्द, रूप, या पद स्तरों पर दो रूपिमों के एक साथ मिलने पर होने वाले परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है। जैसे-

 

घोड़ा + दौड़ = घुड़दौड़, हाथी + ओं = हाथियों, भालू + ओं =भालुओं।

 

उपर्युक्त उदाहरणों में देखा जा सकता है कि दो रूपिमों के योग में मूल रूपिम की आंतरिक संरचना में भी स्वनिमिक परिवर्तन हुआ है। इसकी व्याख्या रूपविज्ञान और स्वनिमविज्ञान दोनों स्तरों के अध्ययन द्वारा ही की जा सकती है। ‘संधि’ मूल रूप से रूपस्वनिमविज्ञान का ही अध्ययन क्षेत्र है जिसमें दो शब्दों या रूपों के मिलने पर होने वाले परिवर्तन का विश्लेषण किया जाता है।

 

रूपस्वनिमिक परिवर्तन रूप या शब्द के स्तर पर दो या दो से अधिक रूपिमों के एक साथ आने पर घटित होते हैं। यह मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं-

  1. बाह्य परिवर्तन (External Change)- जब कोई मुक्त और बद्ध रूपिम आदि या अंत में जुड़ते हैं तो उनके जुड़ने के बाद उस शब्द के बाहरी ध्वनि (या स्वन) में परिवर्तन हो जाता है, उसे बाह्य रूपस्वनिमिक परिवर्तन कहते हैं। जैसे-

 

राम+अवतार= रामावतार

अति+अंत= अत्यंत आदि

 

यहाँ पहले उदाहरण में जब दो मुक्त रूपिम आपस में जुड़ रहे हैं तो जुड़ने के बाद एक नए शब्द का निर्माण हो रहा है लेकिन निर्मित शब्द में रूपस्वनिमिक परिवर्तन ‘अ + अ = आ’ हो गया है। इसी प्रकार दूसरे शब्द में भी जब ‘अंत’ शब्द जुड़ रहा है तो प्रथम शब्द के अंतिम स्वन के स्थान पर ‘य’ का आगम होता है। जिसका कारण रूपस्वनिमिक परिवर्तन ही है।

 

  1. आंतरिक परिवर्तन (Internal Change)- दो रूपिमों के आपस में मिलने पर प्राप्त नए शब्द के भीतर परिवर्तन होता है तो उसे आंतरिक रूपस्वनिमिक परिवर्तन कहते हैं। जैसे- घोड़ा + दौड़ = घुड़दौड़, समाज + इक = सामाजिक आदि।

 

यहाँ ‘घोड़ा’ शब्द में ‘दौड़’ जुड़ने पर इसकी आंतरिक संरचना परिवर्तित हो गई है और यह ‘घुड़’ बन गया है। इसी प्रकार ‘समाज’ शब्द में ‘इक’ प्रत्यय जुड़ने पर यह ‘सामाज’ हो गया है।

 

  1. रूपिमविज्ञान और वाक्यविज्ञान (Morphology and Syntax)

 

रूपविज्ञान और वाक्यविज्ञान में अंतःक्रिया (Interaction) पद निर्माण को लेकर हमेशा से रही है। पदों के रूप में परिवर्तन केवल व्याकरणिक कोटियों के आधार पर ही नहीं होता है बल्कि पदबंधीय या वाक्यात्मक घटकों के आने पर भी होता है। ऐसी स्थिति में रूपविज्ञान के साथ वाक्यविज्ञान का संघात होता है। हिंदी में परसर्ग योग के कारण संज्ञाओं, विशेषणों एवं क्रियाओं के बनने वाले तिर्यक रूप इसके उपयुक्त उदाहरण हैं-

 

लड़का + ने = लड़के ने, पीला + में = पीले में, चलना + को = चलने को आदि।

 

इन उदाहरणों में देखा जा सकता है कि परसर्ग योग से आकारांत शब्द एकारांत हो गए हैं। इनके अध्ययन के लिए रूपविज्ञान और वाक्यविज्ञान दोनों आवश्यक हैं।

 

  1. रूपपरिवर्तन कारण और दिशाएँ

 

जब किसी शब्द का एक रूप किसी कारण दूसरे रूप में परिवर्तित होता है तो उसे रूपपरिवर्तन कहते हैं। भाषा परिवर्तशील है और उसकी रूपरचना में परिवर्तन होता रहता है, यद्यपि ध्वनिपरिवर्तन की तुलना में यह कम होता है। कभी-कभी ये दोनों इतने समान या समीप हो जाते हैं कि इनको अलग कर पाना कठिन भी हो जाता है। रूपपरिवर्तन होने पर नए रूपों के साथ पुराने रूप भी चलते रहते हैं।

 

रूपपरिवर्तन के कारण

 

भाषा में रूपपरिवर्तन होने के कई कारण हैं। किसी भाषा में रूपपरिवर्तन के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

 

1) नवीनता की अभिरुचि

2) सरलीकरण

3) स्पष्टता

4) अज्ञान/बल

5) आवश्यकता

6) ध्वनि-परिवर्तन

7) सादृश्य

8) संक्षेपीकरण

 

रूपपरिवर्तन की दिशाएँ

रूपपरिवर्तन मुख्य रूप से निम्नलिखित दिशाओं में मिलता है-

  1. अतिरिक्त प्रत्यय
  2. पुराने संबंध तत्वों का लोप
  3. गलत प्रत्यय प्रयोग
  4. नए प्रत्यय प्रयोग
  5. मूल में परिवर्तन

 

इस प्रकार उपर्युक्त सभी किसी भाषा में होने वाले रूपपरिवर्तन के कारण एवं दिशाएँ हैं। जिनका अध्ययन भाषाविज्ञान की शाखा रूपविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है।

 

  1. निष्कर्ष:

 

संक्षेप में, रूपविज्ञान भाषाविज्ञान की एक केंद्रीय शाखा है जिसमें लघुतम अर्थवान इकाइयों का विश्लेषण रूप, रूपिम और उपरूप के रूप में किया जाता है। साथ ही व्युत्पादन और रूपसाधन की प्रक्रियाओं के माध्यम से शब्दनिर्माण और पदनिर्माण की व्याख्या की जाती है। रूपविज्ञान भाषाविज्ञान की एक स्वतंत्र शाखा होने के साथ-साथ स्वनिमविज्ञान और वाक्यविज्ञान से भी जुड़ा हुआ है।

 

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अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

  • अग्रवाल, चमनलाल. (1981). हिंदी-रूपविज्ञान. नई दिल्ली : अग्रवाल प्रकाशन।
  • तिवारी, भोलानाथ, (1986). भाषाविज्ञान, इलाहाबाद : किताब महल।
  • द्विवेदी, कपिलदेव. (2005). भाषा-विज्ञान और भाषा-शास्त्र, वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन।
  • पाण्डेय, त्रिलोचन. (1998). भाषविज्ञान के सिद्धांत, नई दिल्ली : तक्षशिला प्रकाशन।
  • रस्तोगी, कविता. (2000). समसामयिक भाषाविज्ञान, लखनऊ : सुलभ प्रकाशन।
  • श्रीवास्तव, रवींद्रनाथ. (1997). भाषाविज्ञान : सैद्धांतिक चिंतन, नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन।

 

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