27 भाषा परिवर्तन

ठाकुर दास

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. भाषा परिवर्तन का स्वरूप
  4. भाषा परिवर्तन के प्रकार
  5. भाषा परिवर्तन के कारण
  6. भाषा परिवर्तन के आयाम
  7. भाषा और समाज
  8. निष्कर्ष 
  1. पाठ का उद्देश्य

    इस इकाई को पढकर आप

  1. भाषा परिवर्तन क्या है, यह जान सकेंगे।
  2. भाषा परिवर्तन के कारण समझ पाएँगे।
  3. भाषा परिवर्तन के प्रकार कौन-कौन से हैं, इनका परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
  4. भाषा परिवर्तन के कौन-कौन से आयाम हैं, यह समझ सकेंगे।
  5. भाषा और समाज का क्या संबंध है, यह जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   भाषा परिवर्तन या भाषा विकास एक ऐसी संघटना है, जिसके अंतर्गत समय के अंतराल में भाषा के विभिन्न स्तरों पर अर्थात ध्वनि, रूपिम, वाक्य, अर्थ तथा अन्य कारकों में परिवर्तन होता है। जीवंत भाषा हमेशा परिवर्तनशाल होती है। भाषा में परिवर्तन का अध्ययन समकालिक एवं द्विकालिक (ऐतिहासिक) आधार पर किया जाता है। समय के अंतराल पर हुए परिवर्तन द्विकालिक परिवर्तन कहलाते हैं। इस पाठ में हम भाषा परिवर्तन के विभिन्न पक्षों पर विचार करेंगे।

  1. भाषा परिवर्तन का स्वरूप

   उन्नीसवीं शताब्दी में भाषा परिवर्तनों के आधार पर भाषा संबंधों की व्याख्या की गई तथा भाषा परिवारों की स्थापना की गई। इसी शताब्दी के अंतिम 25 वर्षों में भाषाविदों के एक वर्ग, युवानव्य वैयाकरणों ने यह दावा किया कि ध्वनि परिवर्तन नियमित होते हैं। उनका दावा था कि एक ध्वनि किसी भाषा में हमेशा एक ही तरह से परिवर्तित होती है, इसमें कोई अपवाद नहीं होता है। इन्होंने ध्वनि परिवर्तन में भाषाभाषियों की मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं की अपेक्षा यांत्रिक प्रकृति पर अधिक बल दिया था। बीसवीं शताब्दी में भी भाषाविज्ञानियों की रुचि इस ओर आकर्षित हुई तथा कई महत्वपूर्ण तथ्यों का उद्घाटन किया गया। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह सामने आया कि सभी जीवंत भाषाओं में परिवर्तन होते रहते हें। नए शब्द, नए व्याकरणिक रूप, नई संरचनाएँ तथा मौजूदा शब्दों के नए रूप एवं अर्थ विकसित होते रहते हैं और पुराने रूप लुप्त होते रहते हैं।

 

भाषा परिवर्तन से तात्पर्य ध्वनि, शब्द (कोशीय) अर्थ, लिपि-वर्तनी आदि में होने वाले परिवर्तनों से है। ध्वनि परवर्तन के अंतर्गत कभी भाषा में किन्हीं स्वरों का लोप हो जाता है तो कहीं आगम। कभी असमान व्यंजन-गुच्छों का समान व्यंजन-गुच्छों में परिवर्तन होता है तो कभी समान व्यंजन-गुच्छों का सरलीकरण। ध्वनि परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं – अनियमित तथा नियमित। ध्वनि परिवर्तन पहले स्वनिक परिवर्तन के रूप में प्रारंभ होता है, बाद में सामाजिक स्वीकृति मिलने पर स्वनिमिक परिवर्तन का रूप ले लेता है। स्वनिक परिवर्तन को अनियमित तथा स्वनिमिक परिवर्तन को नियमित ध्वनि परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है। जब ऐसे ध्वनि परिवर्तन के नियम पूरे भाषा समुदाय द्वारा स्वीकृत हो जाते हैं तब उन्हें नियमित ध्वनि परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है।

 

ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारण हैं – सरलीकरण, सादृश्य और भाषाई संपर्क। सभी भाषा-भाषी कम से कम प्रयत्न द्वारा भाषा के शब्दों का उच्चारण करना चाहते हैं, उच्चारण में मितव्ययता अपनाना पसंद करते हैं। इसी प्रकार भाषा संपर्क भी ध्वनि परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है। अंग्रेजी के संपर्क के कारण हिंदी में ज़, फ़ ध्वनियाँ आ गई हैं। अरबी-फारसी के संपर्क के कारण भी, उर्दू के माध्यम से हिंदी में ख़, ग़, ज़ तथा फ़ आदि ध्वनियों का आगम हुआ है।

 

कोश के स्तर पर भी अरबी-फ़ारसी तथा अंग्रेज़ी के संपर्क के कारण हज़ारों शब्द हिंदी शब्द भंडार का भाग बन गए हैं। आधुनिकीकरण और मानकीकरण के फलस्वरूप भी भाषा में कई स्तरों पर परिवर्तन होते हैं। देवनागरी लिपि तथा वर्तनी के मानकीकरण के फलस्वरूप देवनागरी लिपि के कई वर्णों का रूप बदल गया। पुराने वर्णों का स्थान नए वर्णों ने ले लिया।

 

समाजभाषाविज्ञान के अंतर्गत भी भाषा परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है, जिसके अंतर्गत यह देखा जाता है कि सामाजिक परिवर्तनों का भाषा पर क्या प्रभाव पडता है।

 

भौगोलिक आधार पर भी भाषा में परिवर्तन होते हैं, यह बोली विज्ञान से संबद्ध विषय है। भाषा में सामाजिक वर्गों के अनुसार भी परिवर्तन होता है। विभिन्न सामाजिक वर्गों में धर्म, सामाजिक स्तर, लिंग, शैक्षिक स्तर आदि पर भाषा भेद पैदा होता है।

  1. भाषा परिवर्तन के प्रकार

   भाषा परिवर्तन के कई प्रकार दिखाई पडते हें। भाषा परिवर्तन के प्रकारों के अंतर्गत हम ध्वनि परिवर्तन, लिपि-वर्तनी परिवर्तन, कोशीय परिवर्तन तथा अर्थ परिवर्तन की सोदाहरण चर्चा करेंगे।

 

4.1 ध्वनि परिवर्तन

ध्वनि परिवर्तन के अंतर्गत स्वनिक तथा स्वनिमिक दोनों प्रकार के परिवर्तन सम्मिलित होते हैं। ध्वनि परिवर्तन हमेशा स्वनिक परवर्तन के रूप में शुरू होते हैं। बाद में सामाजिक स्वीकृति मिलने पर स्वनिमिक परिवर्तन का रूप ले लेते हैं। .ख, .ग, .ज और .फ ध्वनियों का विकास हिंदी के अरबी-फारसी संपर्क के कारण हुआ। धीरे-धीरे ये ध्वनियाँ हिंदी की ध्वनि व्यवस्था में सम्मिलित हो गईं। आधुनिक हिंदी में .ख और .ग का तो ख और ग में आत्मसातीकरण हो गया है किंतु फ़ और ज़ को अंग्रेजी संपर्क के कारण अपना उच्चारण सुरक्षित रखने के लिए बल मिला है।

 

भाषा संपर्क के अतिरिक्त मुखसुख या प्रयत्नलाघव भी ध्वनि परिवर्तन का एक प्रमुख कारण बताया गया है।

 

सत्य ˃ सच्च ˃ सच, कर्म ˃ कम्म ˃ काम, प्रचार ˃ परचार इसके उदाहरण हैं। अशिक्षा व अज्ञान के कारण भी कुछ शब्दों की ध्वनियों में परिवर्तन हो जाता है। जैसे – गार्ड ˃ गारद, लैंटर्न ˃ लालटेन, गोस्वामी ˃ गोसाईं आदि। सादृश्य को भी ध्वनि परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण कारण कारण माना गया है। द्वादश के सादृश्य पर एकादश तथा पैंतालीस के सादृश्य पर सैंतालीस में अनुनासिकता का आगम इसके कुछ उदाहरण हैं।

 

कुछ ध्वनि परिवर्तन समाज भाषावैज्ञानिक अर्थात सामाजिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप होते हैं। इस दिशा में लेबाव के ध्वनि परिवर्तन की सामाजिक अभिप्रेरणा के अध्ययन से समाज भाषाविज्ञान की नींव पड़ी। हिंदी में बहन/बहिन. भाड़ा/भारा, ‘ह’ से पहले तथा बाद के ‘अ’ का ‘ऐ’ के रूप में उच्चारण पश्चिमी हिंदी अथवा मानक हिंदी का एक प्रमुख लक्षण है जबकि पूर्वी हिंदी में इस का उच्चारण ‘अ’ ही रहता है।

 

4.2 लिपि-वर्तनी परिवर्तन

पश्चिम में 15वीं शताब्दी में छापेखाने के आविष्कार ने मुद्रकों के सामने लिपि-वर्तनी के मानकीकरण की समस्या प्रस्तुत कर दी थी। 15वीं से 17वीं शताब्दी के पाठों में हमें कई आंतरिक विसंगतियाँ मिलती हें। कई बार टाइपसैटर उपलब्ध टाइप या फोंट के कारण भिन्न-भिन्न वर्तनी का चयन करते पाए गए हैं। इस संबंध में भारत में देवनागरी लिपि-वर्तनी के मानकीकरण को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने सन् 1965 में मानक देवनागरी लिपि एवं वर्तनी प्रस्तुत की। इसका उद्देश्य टाइपराइटर के लिए देवनागरी लिपि को रेखीय आधार प्रदान करना था। आगे चलकर कंप्यूटर के लिए देवनागरी लिपि की आवश्यकता महसूस की गई। निदेशालय ने देश के प्रमुख भाषाविदों के सहयोग एवं मार्गदर्शन के आधार पर देवनागरी लिपि के वर्णों को मानक रूप प्रदान किया तथा वर्तनी संबंधी नियमों का प्रतिपादन किया।

  • अ, आ, ओ, औ, घ, छ, झ, ध, भ के पुराने रूपों को छोड़ नए रूपों को अपनाने की व्यवस्था की गई।
  • संस्कृत में द्वित्वों को मिलाकर ऊपर-नीचे लिखने की परिपाटी के अनुसार हिंदी में भी इसी तरह लिखने की परंपरा थी जैसे अन्न, पत्ता, बुद्ध, शुद्धि आदि। अब इन शब्दों को अन्न, पत्ता, बुद्ध, शुद्धि के रूप में लिखने की व्यवस्था निर्धारित की गई।
  • नासिक्य व्यंजन गुच्छों में पंचम वर्ण के स्थान पर अनुस्वार के प्रयोग की व्यवस्था की गई जैसे गंगा, चंचल, कण्ठ, अन्त, सम्पादन आदि शब्दों को गंगा, चंचल, कंठ, अंत और संपादन के रूप में लिखने की सिफ़ारिश की गई।
  • शब्दांत –यी ओर –ये को क्रमश: -ई और –ए के रूप में लिखने की व्यवस्था की गई – जैसे आय़ी को आई, गये को गए के रूप में लिखने का सुझाव दिया गया।
  • साथ ही अरबी-फारसी शब्दों की वर्तनी निर्धारित की गई।

   कुछ मीडिया-घरानों की अपनी तरजीह तथा विभिन्न कंप्यूटर कंपनियों के व्यापारिक स्वार्थ के कारण इस क्षेत्र में आज भी काफ़ी अराजकता दिखाई देती है। अब इस दिशा में अगस्त 2012 से भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा देवनागरी से भी स्थिति में परिवर्तन होने की संभावना दिखाई दे रही है, किंतु यूनिकोड के मंगल फ़ोंट से भी समस्या का पूर्ण समाधान नहीं हुआ है।

 

4.3 कोशीय परिवर्तन

विभिन्न भाषा समुदायों के परस्पर संपर्क के कारण कोशीय परिवर्तन होते हैं। कभी-कभी विजेता समुदाय के कई शब्द विजित समुदाय ग्रहण कर लेता है। भारत में अरबों, तुर्कों, मुगलों के संपर्क के कारण कई अरबी-फारसी शब्द (यकीन, माजरा, असबाब, कशिश, कोशिश, हुनर, शहंशाह, गैर, मुल्क, लेकिन, दस्तावेज़, फ़ासला, फ़ारिग, ग़बन, गज़ब, ग़ायब, ग़ुसलख़ाना, ज़मीर, ज़बान, ज़लज़ला, ज़माना, फ़िरका, फ़ाज़िल, संगदिल, रोज़, ज़ुल्म, हकीकत, हाल, हौज़, हवस आदि) हिंदी भाषा में सम्मिलित हो गए। इसी प्रकार आगे चलकर अंग्रेजों के संपर्क में आने के बाद कई अंग्रेजी शब्द (टिकट, स्टेशन, रेल, रेडियो, रोड, ट्रेन, ट्राम, ट्राली, ट्रक, ड्राइवर, ड्रम, ड्रेस, हैलो, आक्सीजन, नाईट्रोजन, हाइड्रोजन, हाइवे, नेशनल, टी,वी., टेलीफ़ोन, मोबाइल आदि) हिंदी भाषा में सम्मिलित हो गए हैं। इसी प्रकार द्रविड़ भाषाओं से भी हिंदी ने सैकड़ों शब्द ग्रहण किए हैं।

 

विभिन्न संस्कृतियों के संपर्क के कारण हिंदी भाषा ने अनेक विदेशी भाषाओं से भी शब्द ग्रहण किए हैं – तूफ़ान और चाय (चीनी), सुनामी (जापानी), कमीज़ और रेस्तराँ (फ्रांसीसी) आदि शब्द ग्रहण किए गए हैं। यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है।

 

4.4 अर्थ परिवर्तन

शब्दों के अर्थों में भी परिवर्तन होता रहता है। कभी शब्द के अर्थ का अपकर्ष होता है तो कभी उत्कर्ष। कभी शब्द अपना मूल अर्थ छोड़कर दूसरा अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। कुछ शब्दों के अर्थ में विस्तार या संकोच होता है।

 

इस प्रकार अर्थ परिवर्तन की पाँच दिशाएँ प्राप्त होती हैं।

  1. अर्थ विस्तार: तेल का प्रयोग तिल के तेल के लिए किया जाता था, अब यह किसी भी तेल के लिए प्रयुक्त होता है – जैसे सरसों का तेल, मूँगफली का तेल आदि। यह तेल के मूल अर्थ के विस्तार का उदाहरण है।
  2. अर्थ संकोच: मंदिर का प्रयोग पहले किसी भी भवन के अर्थ में किया जाता था किंतु अब यह देव-मंदिर के अर्थ में रूढ़ हो गया है। इस प्रकार मंदिर शब्द का अर्थ संकुचित हो गया।
  3. अर्थादेश: उदाहरण के लिए कल्याण शब्द को लें। संस्कृत में इसका प्रयोग विवाह के अर्थ में होता था, अब हिंदी में यह भलाई के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसका मूल अर्थ तमिळ में कल्याण मंडपम (विवाह मंडप) में सुरक्षित है।
  4. अर्थोत्कर्ष: गवेषणा शब्द का पहले अर्थ था गाय को खोजना, अब इसका प्रयोग अनुसंधान या शोध के अर्थ में होने लगा। इस प्रकार इसके अर्थ में उत्कर्ष हो गया।
  5. अर्थापकर्ष: शौच शब्द का पहले पवित्र कार्य के अर्थ में प्रयोग होता था, अब मल-त्याग के अर्थ में प्रयोग होता है। यह अर्थापकर्ष का उदाहरण है। 
  1. भाषा परिवर्तन के कारण

   भाषा परिवर्तन एक सामान्य घटना है। कभी शब्दों में स्वरों का लोप हो जाता है तो कभी आगम। कभी असमान व्यंजन-गुच्छों का समान व्यंजन-गुच्छों में परिवर्तन तो कभी समान व्यंजन-गुच्छों का सरलीकरण। जब ऐसे भाषा परिवर्तन के नियम पूरे भाषा समुदाय द्वारा स्वीकृत हो जाते हैं तब उन्हें नियमित भाषा परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है। संस्कृत शब्द ‘’सर्प’’, ‘’धर्म’’, ‘’कर्म’’ आदि शब्दों का विकास इसी सिद्धांत के आधार पर पालि भाषा में क्रमश: ‘’सप्प’’, ‘’धम्म’’ और ‘’कम्म’’ हो गया। यह परिवर्तन असमान व्यंजन-गुच्छों से समान व्यंजन-गुच्छों में परिवर्तन था। फिर हिंदी में समान व्यंजन-गुच्छों के सरलीकरण तथा व्यंजन-गुच्छ से पहले स्वर के दीर्घीकरण के फलस्वरूप ये शब्द क्रमश: ‘’साँप’’, ‘’धाम’’, ‘’काम’’ में विकसित हो गए।

 

भाषा परिवर्तन के कई कारण होते हैं। इनमें प्रमुख हैं – सरलीकरण, सादृश्य, भाषा संपर्क आदि।

 

5.1 सरलीकरण भाषा-भाषी कम से कम प्रयत्न के द्वारा भाषा के शब्दों का उच्चारण करना चाहते हैं। दूसरे शब्दों में वे उच्चारण में मितव्ययिता अपनाना पसंद करते हैं। मुसकराना से मुस्काना या मुस्कियाना का विकास सरलीकरण का उदाहरण माना जा सकता है।

 

5.2 सादृश्य किसी शब्द के सादृश्य पर अन्य शब्द का विकास जैसे द्वादश के सादृश्य पर एकादश सब्द का एकादश के रूप में उच्चारण विकसित हुआ। इस प्रकार एकादश शब्द प्रचलन में आ गया।

 

5.3 भाषा संपर्क भाषा संपर्क भी भाषा परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है। अरबी-फारसी तथा अंग्रेजी के संपर्क के कारण हिंदी भाषा में बहुत से शब्द आ गए हैं। दो भाषाओं में संपर्क के कारण भाषा में कोशीय परिवर्तन होते हैं।

 

5.4 आधुनिकीकरण

संविधान में हिंदी को राजभाषा घोषित करने के बाद हिंदी को प्रशासन तथा शिक्षा की माध्यम-भाषा के रूप में विकसित करने का कार्य भारत सरकार ने अपने हाथ में लिया। विभिन्न विषयों में तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता महसूस की गई। तदनुसार वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली के विकास के लिए वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग की स्थापना की गई। शब्दावली निर्माण के सिद्धांतों का निर्माण किया गया। अंतरराष्ट्रीय शब्दों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया। कई अंतरराष्ट्रीय शब्दों के साथ संस्कृत प्रत्यय लगाकर नए तकनीकी शब्द विकसित किए गए जैसे –

 

आक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रेट, फास्फेट, पेट्रोल आदि।

आक्सीकरण (Oxygenation), रेडियोधर्मिता (Radio-activity), पास्चुरीकरण (Pasteurization)

 

इस तरह पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण के लिए अधिकतर संस्कृत के उपसर्ग-प्रत्ययों का सहारा लिया गया। सभी भारतीय भाषाएँ इसी प्रकार नए तकनीकी शब्दों का निर्माण करती हैं। हिंदी में संस्कृत की शब्द निर्माण परंपरा के आधार पर बनाए गए नए शब्द इस प्रकार हैं –

 

दूरमुद्रक (Teleprinter)     परिप्रेक्ष्य (Perspective)   तुलनपत्र (Balance sheet)

सचिव (Secretary)           पदोन्नति (Promotion)     कीटनाशक (Pesticide)

परिवीक्षा (Probation)       संक्रांति (Transition)       सम्मेलन (Conference)

 

इस प्रकार विभिन्न विषयों के लगभग सात लाख तकनीकी शब्द हिंदी शब्दभंडार में सम्मिलित किए जा चुके हैं। धारे-धीरे ये शब्द हिंदी शब्दकोशों का भाग बनते जा रहे हैं। हिंदी भाषा के आधुनिकीकरण की यह प्रक्रिया भाषा नियोजन से संबंद्ध है।

 

5.5 मानकीकरण भाषा के मानकीकरण के फलस्वरूप भी कई स्तरों पर परिवर्तन होते हैं। देवनागरी वर्तनी के मानकीकरण के फलस्वरूप देवनागरी लिपि के कई वर्णों का रूप बदल गया, पुराने वर्णों के स्थान पर नए वर्णों का प्रचलन हो गया। हिंदी की वर्तनी में अनुस्वार तथा ये/यी के स्थान पर ए/ई का प्रयोग लिपि-वर्तनी परिवर्तन के उदाहरण हैं। 

  1. भाषा परिवर्तन के आयाम

    भाषा परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिए दो आयामों की अक्सर चर्चा की जाती है। ये हैं – आंतरिक और बाह्य आयाम, जिनके व्याख्याताओं के परस्पर विरोधी दावे रहे हैं। आंतरिक व्याख्याकार  मुख्य रूप से संरचनात्मक या मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा को परिवर्तन का आधार मानते हैं। उनका मत है कि भाषा परिवर्तन के पीछे मुख्य कारक संरचनात्मक नियमितता होती है। सन् 1952-55 के दौरान मार्तिने के विचार रहे हैं कि समरूपता के लिए स्वनिमिक परिवर्तन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी प्रकार के विचार परवर्ती भाषाविदों (हाकिंस – 1976) की शोध में भी प्राप्त होते हैं। आंतरिक आयाम के एक अन्य पक्षधर वेलयर के अनुसार स्वानिम और रूपिम  वाक्य विन्यास को प्रभावित करनेवाले बाह्य कारक आंतरिक दबावों की अपेक्षा महत्वहीन होते हैं। भाषा परिवर्तन के लिए सामाजिक तथा ऐतिहासिक कारकों का महत्व संदर्भ मात्र का ही होता है। ओहाला के अनुसार किसी विशिष्ट भाषा में हुए परिवर्तनों का सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों से संबंध न तो सहायक हो सकता है और न ही आवश्यक है।

 

बाह्य आयाम के प्रमुख प्रणेता लबोव (1972) रहे हैं जो यह मानते हैं कि भाषा परिवर्तनों को केवल सामाजिक संदर्भ के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। लबोव ने भाषा परिवर्त और परिवर्तन का अध्ययन किया और उन्होंने ‘आई’ और ‘आउ’ द्वि-स्वरकों के केंद्रीयकरण के पैटर्न के विश्लेषण से यह सिद्ध कर दिखाया कि इसकी व्याख्या भाषा परिवर्तन के सामाजिक संदर्भ के परीक्षण से ही की जा सकती है। इसमें भाषा-भाषियों की अभिवृत्तियों तथा अपेक्षाओं के संदर्भों को सम्मिलित किया जा सकता है। इस प्रकार बाह्य आयाम के व्याख्याता सामाजिक परिवर्तों तथा संदर्भ को भाषा परिवर्तन का मुख्य कारक मानते हैं।

 

आंतरिक और बाह्य आयामों के व्याख्याताओं का दृष्टिकोण परस्पर विरोधी रहा है। एंडर्सन (1985) आंतरिक और बाह्य आयामों के विभेद को नहीं मानते। उनका मानना है कि भाषा पूर्णतया एक सामाजिक संघटना है और इसे सामाजिक प्रकार्यों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जब आंतरिक कारक किसी भाषा परिवर्तन की पूर्ण व्याख्या न कर सकें तभी बाह्य कारकों की व्याख्या की सहायता ली जानी चाहिए।

बाह्य आयाम के व्याख्याता (मेइये, लेबाव, वाइनराइख आदि) आंतरिक कारकों के आधार पर भाषा परिवर्तन की व्याख्या को नकारते हैं – अधिकांश भाषा परिवर्तन की प्रक्रिया को पूरी तरह समझने के लिए सामाजिक, ऐतिहासिक – बाह्य कारकों की परीक्षा करने की बात करते हैं। वे मानते हैं कि भाषिक सिद्धांत में नवोन्मेष और परिवर्तन में अंतर करना होगा। नवोन्मेष वक्ता आधारित होते हैं और परिवर्तन के लिए प्रेरक तत्व का काम करते हैं। भाषा परिवर्तन नवोन्मेष का परिणाम होते हैं, और भाषिक संरचना में दिखाई देने लगते हैं। 

  1. भाषा और समाज

    भाषा और समाज का परस्पर संबंध होता है। सामाजिक परिवर्तन के कारण सामाजिक मूल्यों तथा भाषिक मूल्यों में परिवर्तन होने शुरू हो जाते हैं। अपेक्षाकृत स्थिर समाजों में पारंपरिक मूल्यों के प्रति अगाध निष्ठा होती है, कोई इनके प्रति संदेह नहीं करता। सामाजिक परिवर्तन की स्थिति में सामाजिक मूल्यों को लेकर प्रश्न उठने लगते हैं, उन्हें चुनौती दी जाने लगती है। समाज भाषा को प्रभावित करता है तथा भाषा भी समाज को प्रभावित करती है।

 

कभी-कभी देश के बाहर से आने वाले आप्रवासी वर्ग पर समाज की भाषा थोपी जाती है। आप्रवासी अपनी भाषा छोड़कर उस समाज की भाषा का व्यवहार करना शुरू कर देता है। इससे उसकी भाषा की मृत्यु की स्थिति पैदा हो जाती है, आप्रवासियों की सांस्कृतिक पहचान नष्ट होना शुरू हो जाती है। जब आप्रवासी अपनी भाषा को अपने घर में प्रयोग करने लगते हैं तब भाषा- विस्थापन की बजाय भाषा-अनुरक्षण की प्रक्रिया काम करने लगती है। अब यह माना जाने लगा है कि आप्रवासियों को अपनी भाषा तथा संस्कृति छोडने के लिए विवश करने की नीति अच्छी नहीं है।

  1. निष्कर्ष

    इस इकाई में हम ने समझा कि भाषा परिवर्तन से क्या है, भाषा परिवर्तन कैसे होता है, इसके कौन-कौन से प्रकार हैं। भाषा परिवर्तन के दो आयामों – बाह्य और आंतरिक आयामों के व्याख्याताओं के परस्पर विरोधी विचारों की भी चर्चा की गई। भाषा परिवर्तन का मुख्य आधार स्वनिक परिवर्तन होता है और जब यह स्वनिमिक परिवर्तन का रूप ले लेता है तब भाषा परिवर्तन होता है।

 

भाषा परिवर्तन स्वनिक, स्वनमिक, रूपिमिक, लिपि-वर्तनी, आर्थी आदि भाषा संरचना के विभिन्न स्तरों पर दिखाई देते हैं। भाषा परिवर्तन के कारणों के बारे में भी हमने देखा कि सरलीकरण, सादृश्य, भाषा संपर्क के साथ-साथ भाषा नियोजन के अंतर्गत आधुनिकीकरण एवं मानकीकरण का भी भाषा परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण योगदान रहता है। भारत में हिदी के राजभाषा घोषित होने के बाद हिदी के विकास की जो प्रक्रिया आरंभ हुई, वह भाषा के आधुनिकीकरण और मानकीकरण की प्रक्रियाओं से जुड़ती है और उसके फलस्वरूप हमें हिंदी के शब्द भंडार में अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिलता है। हमने यह भी देखा कि कई प्रकार के समाजभाषावैज्ञानिक कारक भी भाषा को प्रभावित करते हैं।                   

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अतिरिक्त जानें

शब्दावली

अभिप्रेरणा Motivation
अभिवृत्ति Attitude
असमान व्यंजनगुच्छ Dissimilar consonant clusters
आंतरिक आयाम Internal Dimension
आत्मसातीकरण Assimilation
आधुनिकीकरण Modernization
एकस्वरक Monopthong
कोशीय परिवर्तन Lexical change
तकनीकी शब्द Technical term
द्विकालिक Diachronic
द्विस्वरक Diphthong
मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा Psychological Motivation
प्रकार्यगत मितव्ययता Functional Economy
नवोन्मेष Innovation
बाह्य परिवर्तन External Change
भाषा अनुरक्षण Languagemaintenance
भाषा का समाजविज्ञान Sociology of Language
भाषा परिवर्त& Linguistic Variant
भाषा परिवर्तन Language Change
भाषा विस्थापन Language Shift
भाषिक संघटना Linguistic Phenomena
भाषा समुदाय Linguistic Community
मानकीकरण Standardization
लोप Elision
विचलन Deviation
विजित समुदाय Defeated Community
विजेता समुदाय Victor Community
विभेद Variation
व्यावसायिक वर्ग Occupational Class
समकालिक Synchronic
संरचनात्मक नियमितता Structural Regularity
समान व्यंजनगुच्छ Similar Consonant Clusters
सरलीकरण Simplification
स्वनिक Phonetic
स्वनिमिक Phonological
सांस्कृतिक अस्मिता Cultural Identity
सामाजिक प्रकार्य Social Function

    संदर्भ

  1. Bright, William (1997). “Social Factors in Language Change.” In Coulmas, Florian (ed) The Handbook of Sociolinguistics. Oxford: Blackwell.
  2. Chambers, J.K. (2003). Sociolinguistic Theory: Linguistic Variation and its Social Significance. Blackwell
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  5. Labov, William (1966), The Social Stratification of English in New York City, Diss. Washington.
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  10. द्विवेदी, कपिल. भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 2012 (तेरहवाँ संस्करण)
  11. शर्मा, देवेंद्रनाथ. (1966) भाषाविज्ञान की भूमिका राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली