23 घटकीय विश्‍लेषण

विजय कुमार कौल

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. घटकीय विश्लेषण सिद्धांत
  4. आर्थी घटकों के प्रकार
  5. घटकीय विश्लेषण सिद्धांत/पद्धति का अर्थ-अध्ययन में योगदान
  6. आर्थी इकाइयाँ
  7. आर्थी भूमिकाएँ
  8. घटकीय विश्लेषण सिद्धांत की प्रयोज्यता और सार्वभौमिकता
  9. निष्कर्ष 
  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप यह जान सकेंगे कि

  • भाषाविज्ञान की मुख्य शाखा अर्थविज्ञान में घटकीय विश्लेषण (Componential Analysis) क्‍या है?
  • वह किस प्रकार से एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अथवा भाषा विशेष के अंतर्गत ही सार्वभौमिक संकल्पनाओं (Universal Concepts) को समझने में सहायक सिद्ध होता है।
  • आप यह भी समझ पायेंगे कि किस प्रकार से अर्थ अधिगम में भाषा विशेष में प्रयुक्त संकेत (सामान्यतया शब्द मात्र- शब्दिम- Lexemes) उस भाषा को बोलने वाले लोगों के अनुभव (Perception) और विचार (Thought) से संबंध रखते हैं।
  1. प्रस्तावना

   घटकीय विश्लेषण (Componential Analysis) की अवधारणा यह  परख करती है कि किस प्रकार से भाषिक श्रेणियाँ (Linguistic Categories) भाषा विशेष के समुदाय के सांसारिक दृष्टिकोण (World view) से प्रभावित एवं निर्धारित होती है। इस अवधारणा को अमेरिकन भाषा एवं  नृ-वैज्ञानिक बेंजामिन ली वोर्फ़  और सपीर जिन्होंने इसे स्थापित किया था के नाम से सपीरर-वोर्फ़-प्राकल्पना (Sapir-Whorf hypothesis) के नाम से जानी जाती है। घटकीय विश्लेषण में जो शब्दिम (Lexemes) एक समान  सीमा (Common range) में आते हैं, वे एक आर्थी क्षेत्र (Semantic Domain) को निर्धारित करते हैं। इस प्रकार का आर्थी क्षेत्र उन अर्थ भेदक श्रेणियों और घटकों (Distinctive Semantic Features) से इंगित होता है जिनके द्वारा शब्दिम विशेष उस आर्थी-क्षेत्र में एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। साथ ही साथ यह आर्थी प्रक्षेत्र सभी शब्दिमों द्वारा साझा किए गए गुणों (Features) से भी निर्धारित होता है। ये दोनों  प्रक्रियाएँ एक साथ घटित होती है। इस प्रकार का घटकीय विश्लेषण यह दर्शाता है कि हिंदी भाषा में ‘आसन’ शब्दिम ‘पीढ़ी’, ‘बिछौना’, ‘चटाई’ आदि इस प्रकार एक दूसरे से भिन्न हैं कि इन में से कुछ के पाये हैं, कुछ जमीन पर ही लगाए जाते हैं। साथ ही साथ ये सभी शब्दिम वस्तु का एक समान गुण ‘जिस पर बैठा जा सके’ साझा करते हैं। घटकीय विश्लेषण को हम प्रसिद्ध अमेरिकी भाषा वैज्ञानिक, जेरोल्ड काट्ज के शब्दों में इस प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं कि-

 

“The word is broken down into meaningful components which make up the total sum of the meaning in a word” अर्थात ‘शब्द को अर्थपूर्ण घटकों में विखंडित किया जाता है जिनसे उस शब्द का समग्र अर्थ बनता है।’

 

इस प्रकार से घटकीय विश्लेषण जिसे फीचर एनालिसिस (Feature Analysis) अथवा कंट्रास्ट एनालिसिस (Contrast Analysis) भी कहा जाता है, अर्थविज्ञान में एक ऐसा विश्लेषण है जिसके द्वारा शब्दिमों के अर्थ-गुणों के समूहों को उपस्थिति (+) एवं अनुपस्थिति (-) द्वारा दर्शाया जाता है। इस प्रकार घटकीय विश्लेषण सिद्धांत, संघटनीय सिद्धांत (Principle of Compositionality) के विपरीत हटकर है। अर्थविज्ञान में यह सिद्धांत द्वितीय भाषा (L2) एवं उसकी संस्कृति को समझने में बहुत ही सहायक है (ओटनहेमर 2006, पृ. 20)।

शब्दिम [नर] [वयस्‍क]
मनुष्य + +
औरत +
लड़का +
लड़की

हिंदी के चार शब्दिमों का घटकीय विश्लेषण 

  1. घटकीय विश्लेषण सिद्धांत:

   इस सिद्धांत की चर्चा में जेरोल्ड काट्ज और फोडर के नाम मुख्यतया लिए जाते हैं। इन्होंने शब्दों के सापेक्षतया अर्थ को सामान्य तत्वों के छोटे समूहों के रूप में वर्णित करने का प्रयास किया जिनमें से कुछ ‘’सार्वभौमिक- Universals’ कहलाते हैं। नाते-रिश्ते (Kinship) वाले शब्द, रंगों की शब्दावली, वानस्पतिक  और जैविक जगत के शब्द इस प्रकार के विश्लेषण के लिये आसानी से एक वर्ग विशेष में आ जाते हैं। रिश्ते-नाते वाले शब्दों में लिंग (Gender) एक मुख्य घटक है। इस लिए माता-पिता, भाई-बहन,  और चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसा-मौसी आदि समूह लिंग के आधार पर ही बनते हैं। इस प्रकार का विश्लेषण एक संपूर्ण शब्द को कुछ घटकों के रूप में परिभाषित कर देता है। जैसे- आदमी: [+मानवीय + वयस्क+नर] इत्यादि। ऊपर दर्शाई गई मैट्रिक्स में स्पष्ट किया गया है कि [नर] [वयस्क] आर्थी घटक इन चार शब्दिमों में अलग अलग अर्थ का विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो संरचनात्मक अर्थविज्ञान (Structural Semantics) और घटकीय विश्लेषण प्राग संप्रदाय (Prague School) के ध्वनिविज्ञान सिद्धांत पर आधारित है जिसमें ध्वनियों के गुणों को  उनकी उपस्थितियों (+) एवं अनुपस्थितियों (-) द्वारा निर्धारित किया जाता है। इसी तर्ज पर भाषा के विभिन्न स्तरों यथा- शब्द, आर्थी-भूमिकाओं आदि के लिए घटकीय विश्लेषण किया जा सकता है।

 

शब्दिम (Lexeme) जटिल आर्थी संरचना को प्रस्तुत करता है। शब्दिम अपने आप में छोटे छोटे घटकों से बना होता है जिसमें अन्य शब्दिम भी समायोजित रहते हैं। उस शब्दिम के अर्थ में अर्थ-घटकों का एक निश्चित अंतस्‍संबंध होता है (क्रिस्टल 1987:104). शब्द में सभी आर्थी-घटक समानरूप से महत्त्वपूर्ण नहीं होते हैं, एक अथवा दो घटक ही इसमें मुख्य प्रभाव रखते हैं जो कि स्वयं दूसरे गौण घटकों को सुनियोजित करते  रहते हैं (लायन्स जे. 1995: 108 और लीच, 1983: 89)।

 

शब्दिम को  आर्थी-घटकों (Semantic Components) के रूप में विश्लेषित अथवा व्याख्यायित किया जा सकता है, जिसमें उसके विभिन्न भाषिक संबंधों यथा शाब्दिक, व्याकरणिक, वाक्यगत आदि को सरलता से समझा जा सकता है। शब्दिम की आर्थी-संरचना को अर्थ की व्यवस्था के रूप में व्यवहृत किया जाता है। एक सीमा तक हम किसी शब्दिम को यह बताते हुए परिभाषित कर सकते हैं कि संबंधित शब्दिम किससे संबंध रखता है और किस प्रकार से उसी समूह के दूसरे सदस्य से भिन्नता रखता है। उदाहरण  के लिये कुछ इस प्रकार के समूह ऐसे हो सकते हैं- खेल (टेनिस, बैडमिंटन, कबड्डी..), रंग (लाल, नीला, पीला, गुलाबी…) और सृजनात्मक लेखन (उपन्यास, कविता, लघु कथा)। यहाँ यह जानने में कठिनाई कदाचित ही अनुभव होगी कि अपने अपने समूह के इन सभी सदस्यों में क्या समानता है।

 

घटकीय विश्लेषण सिद्धांत के अनुसार, शब्दिम को उसके द्वारा साझा किए गए तथा असमानता रखने वाले गुणों की श्रेणी में वर्गीकृत किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप- बर्र, मधुमक्खी आदि  “उड़ने वाले और डंक मारने वाले कीड़े”; पतंगा और घरेलू मक्खी आदि अन्य “उड़ने वाले परन्तु डंक नहीं मारने वाले”; चींटी और दीमक “न उड़ने वाले और न डंक मारने वाले” वाले समूहों को इंगित करते हैं। यहाँ पर इन श्रेणियों के आर्थी गुण (Semantic Features) यह स्पष्ट करते हैं समूह के सदस्य के रूप में ये किस प्रकार से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और किस प्रकार से भिन्नता रखते हैं। इस प्रकार के गुणों का निश्चयकरण ही घटकीय विश्लेषण कहलाता है (Kreidler, 2002:87 और Wardhough, 1977:163)।

  1. आर्थी घटकों के प्रकार:

   जैकसन ने Words and their meaning (1996:83) में तथा नाइडा ने Componential Analysis of Meaning (1975:32) में आर्थी घटकों के प्रकारों को मुख्यतः दो प्रकारों में विभाजित किया है- पहला, समान घटक (Common Component) और दूसरा, नैदानिक घटक (Diagnostic or Destinctive Component).

 

समान घटक

 

अर्थविज्ञान में ये वे घटक हैं जो समस्त शब्दिमों द्वारा साझा किए गए समान आर्थी क्षेत्र को पहचानने में सहायक होते हैं। दृष्टांत के लिये- सभी जग ‘पात्र’ होते हैं जिनके गोल पैंदा, खुला मुंह, और हैंडल होता है।

 

नैदानिक घटक

 

इस श्रेणी में वे शब्दिम आते हैं जो एक ही आर्थी क्षेत्र एक दूसरे से भिन्नता  रखते हैं। जैसे ऊपर के उदहारण को ही लें तो इसमें यदि केवल एक जग ऐसा हो जिसका पैंदा गोल न होते हुए आयताकार हो तो [आकृति/shape] उस  आर्थी प्रक्षेत्र की नैदानिक घटक होगी। इन दो प्रकारों के अतिरिक्त घटकीय विश्लेषण के दो अन्य प्रकार भी हैं जो कि सांसारिक वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करते हैं। इनमें से पहला है रूपीय घटक जो कि वस्तु (object) के रूप से संबंधित होता है और दूसरा प्रकार्यात्मक घटक है जो वस्तु के प्रकार्य से संबंध रखता है। जैसे- सोफा, कुर्सी और बेंच आदि शब्दिमों को रूपीय एवं प्रकार्यात्मक घटकों के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है।

 

घटकीय विश्लेषण के उक्त दोनों  प्रकारों यथा समान घटक और दूसरा, नैदानिक घटक को आदमी, औरत, लड़का, लड़की आदि शब्दों के माध्यम से सरलता से समझा जा सकता है (लीच  1976:96)। ये सारे शब्द समान आर्थी घटक ‘मानव’ से संबंध रखते हैं तथा इस संबंध को निम्न मैट्रिक्स द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है-

घटक आदमी औरत लड़का लड़की
[मानव] + + + +
[वयस्‍क] + +
[नर] + +

मैट्रिक्स: आदमी, औरत, लड़का और लड़की के समान एवं नैदानिक घटक

 

नाइडा (1975:48) ने तीन आधारभूत घटक के नैदानिक अर्थ को निर्धारित करने के लिए तीन सोपान सुझाए हैं- समान गुणों का निर्धारण, अतिरेकता और निर्भरता का अध्ययन, नैदानिक गुणों के समूहों का निर्माण और उनकी जांच करना। इन तीनों सोपानों को आगे चलकर नाइडा ने छह क्रमवार श्रेणियों में विभाजित किया है। इन प्रकारों की चर्चा यहाँ नहीं की जा रही है।

  1. घटकीय विश्लेषण सिद्धांत/पद्धति का अर्थ-अध्ययन में योगदान

   घटकीय विश्लेषण का शब्दिम की अर्थ व्याख्या करने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है (जैकसन 2009: 91-92)। जैसे-

  1. पर्यायता (Synonymy) को समझने में– सटीक पर्यायवाची शब्द एक ही आर्थी-घटक साझा करते हैं। जैसे- वयस्‍क और प्रौढ़ दोनों के लिए एक जैसे ही घटक होंगे- [+वयस्‍क], [+मानव] ।
  2. पर्यायता का स्तर स्थापित करना– इस श्रेणी में पर्यायता के वे युग्म आते हैं जिनके शब्दिमों में कुछ समानता होती है परन्तु सभी आर्थी घटक समान नहीं होते हैं।
  3. विलोमता (Antonymy) को समझने में– विलोमार्थी युग्म भी सामान्यतया अपने सभी घटकों को साझा करते हैं सिवाय एक के। जैसे- आदमी और औरत [+निश्चित], [+सजीव], [+मानव] एक समान घटक साझा करते हैं परन्तु लिंग [+पुल्लिंग], [-पुल्लिंग] के आधार पर आपस में व्यतिरेकी हो जाते हैं।
  4. अंग-अंगी (Hyponymy) आशय संबंधो को समझना– अवनामिता अथवा अंग-अंगी संबंध, अर्थ के समावेशी होने को इंगित करते हैं अर्थात एक अर्थ दूसरे अर्थ में निहित रहता है। जैसे गाय का अर्थ चौपाये में समाहित है।
  5. घटकीय विश्लेषण अनुवादक को सटीक अनुवाद करने में भी योगदान देता है– घटकीय विश्लेषण शाब्दिक इकाइयों के अर्थ के नैसर्गिक गुणों को निर्धारित करता है जो कि एक अनुवादक के लिए अनुवाद करने में  बहुत उपयोगी होता है (नाइडा, 1975:7)।

    उपरोक्त शब्दिम स्तर के घटकीय विश्लेषण के अतिरिक्त वाक्य में प्रयुक्त विभिन्न आर्थी भूमिकाओं (Semantic Roles) को भी घटकों के रूप में व्याख्यायित कर अर्थ का विश्लेषण किया जा सकता है। विभिन्न आर्थी इकाइयों एवं वाक्य में उनकी भूमिका का विश्लेषण भी घटकीय विश्लेषण के अंतर्गत आता है। 

  1. आर्थी इकाइयाँ-

   किसी भाषा के संदर्भ में विस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के लिए अर्थविज्ञान किस प्रकार उपयोगी होता है, उसका अनुमान निम्न वाक्य की त्रुटियों को देखकर लगाया जा सकता है- 

  1. सेब ने राम को खाया।
  2. मेरी बिल्ली ने साहित्य पढ़ा।
  3. मेरी कुर्सी संगीत सुनती है।

   उपर्युक्त वाक्यों को देखकर यह ज्ञात होता है कि त्रुटि वाक्यों के ‘कर्ता’  में है। सेब कैसे खा सकता है ? बिल्ली साहित्य कैसे पढ़ सकती है और कुर्सी का संगीत सुनना असंभव सा लगता है। परंतु आश्चर्य की बात यह है कि उपर्युक्त वाक्यों में कोई व्याकरणिक त्रुटि नहीं है। व्याकरणिक मापदंड़ के अनुसार ये वाक्य पूर्ण और सही हैं।

 

प्रथम वाक्य की त्रुटि सेब के कारण हैं और उसका कर्ता की जगह प्रयोग अटपटा दिखता है। ‘मनुष्य’ कर्ता हो सकता है परंतु कोई ‘वस्तु’ नहीं और ऐसी ही त्रुटि शेष दोनों वाक्यों में भी दिखती है।

 

इसी कारण यह आवश्यक हो जाता है कि कर्ता ऐसा हो जो क्रिया से मेल खाता हो। ऐसे कर्ता का सजीव होना आवश्यक है और वह भी ऐसा सजीव जो संदर्भित क्रिया (खाना, पढ़ना, सुनना आदि) को संपादित करने की क्षमता रखता हो। इस संदर्भ में दो प्रकार की संज्ञा में अंतर किया जा सकता है, [+सजीव] एवं [-सजीव]। [+सजीव] से तात्पर्य है जो सजीव हो एवं [-सजीव] से तात्पर्य है जो निर्जीव हो।

 

इस प्रकार आर्थी लक्षणों के अनुसार अर्थ का विश्लेषण आरंभ होता है- [+सजीव], [-सजीव], [+मानवीय], [-मानवीय], [+पुरुष], [-पुरुष]

कुरसी गाय कन्या बालक पुरुष
सजीव + + + +
मानवीय + + +
नर + +
वयस्क + +

   इस प्रकार के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि पहले मन-मस्तिष्क के द्वारा ग्रहण किए गए अर्थ को ही जाना जाता है, जहाँ (+मानवीय, +नर, +वयस्क) के द्वारा ही अर्थ का निर्धारण किया जाता है। ऐसे ही लक्षणों का विश्लेषण यह दर्शाता है कि कुर्सी सुन नहीं सकती।

 

इसी विश्लेषण के द्वारा यह भी जानकारी मिलती है कि पेड़-पौधे पढ़ नहीं सकते। पढ़ने की क्रिया के लिए मनुष्य का कारक होना आवश्यक है। 

  1. आर्थी भूमिकाएँ-

   शब्दों को अर्थों का समुच्चय या संग्रह मात्र नहीं मानना चाहिए बल्कि किसी शब्द का मूल्यांकन इस आधार पर होना चाहिए कि किसी वाक्य में प्रयुक्त होकर उसने कार्य का संपादन किस प्रकार किया। किसी सामान्य घटना को दर्शाने वाला यदि कोई वाक्य जैसे- बालक ने गेंद उछाली, लिया जाए तो ज्ञात होता है कि इसमें क्रिया उछालने को दर्शाती है और संज्ञा पदबंध अपनी भूमिका में उस क्रिया में सम्मिलित हो जाता है, ऐसी संज्ञाओं के लिए आर्थी भूमिकाएँ बहुत ही सीमित रहती हैं। प्रस्तुत उदाहरण के विश्लेषण में निम्नांकित तीन इकाइयाँ अपनी भूमिका का निर्वहन करती हुई प्राप्त होती हैं-

  1. कर्ता (Agent)
  2. कथ्य (Theme)
  3. कारक (Instrument)

   उपर्युक्त उदाहरण के वाक्य में बालक गेंद उछालने की क्रिया करता है जिसको तकनीकी तौर पर कर्ता (Agent) कहते हैं। दूसरी आर्थी भूमिका गेंद की है, इसको तकनीकी तौर पर कथ्य (Theme) कहा जाता है। यही कथ्य कभी-कभी इकाई की भूमिका लेता है, जैसे- गेंद लाल है। इसी प्रकार वाक्यों में संज्ञा इकाइयों को उनकी आर्थी भूमिका के द्वारा पहचाना जाता है।

 

यद्यपि कर्ता प्रायः [+मानवीय] ही होते हैं किंतु कभी-कभी [–मानवीय] भी कर्ता का कार्य करते हैं, जैसे- कुत्ते ने गेंद पकड़ी, हवा नें गेंद उछाली और कार ने गेंद को कुचल दिया। इस प्रकार के वाक्यों में [–मानवीय] कर्ता का कार्य कर रहे हैं। [–मानवीय] जैसे कर्ता को करण (Instrument) कहते हैं, जैसे- पेन से लिखना, चम्मच से खाना इत्यादि। पेन और चम्मच की आर्थी भूमिका को करण भूमिका भी कह सकते हैं।

 

इसी प्रकार कभी-कभी [+मानवीय] भी कथ्य की भूमिका में आ सकता है। कभी-कभी एक ही वस्तु दो अलग-अलग आर्थी भूमिकाओं में आ सकती है, जैसे- बालक ने अपने आप को उछाला, यहाँ बालक कर्ता और कथ्य दोनों है।

 

वाक्य विश्लेषण से कुछ अन्य इकाइयाँ भी प्राप्त होती हैं, जिनकी वाक्य में एक निर्धारित भूमिका होती है। ये इकाइयाँ निम्नांकित हैं-

  1. अनुभावक (Experiencer)
  2. अवस्थिति (Location)
  3. स्रोत (Source)
  4. लक्ष्य (Goal)

    यदि किसी वाक्य में [+मानवीय] इकाई, जिसके अंदर सोचने, समझने, महसूस करने की क्षमता हो, संज्ञा पदबंध की भूमिका में हो तो उस भूमिका में इसे अनुभावक कहा जा सकता है। यदि किसी [+मानवीय] इकाई को किसी विषय या वस्तु से हर्ष अथवा विषाद हो रहा हो तो ऐसी स्थिति में वह किसी क्रिया का संपादन नहीं करता है अर्थात वह उस समय कर्ता की भूमिका में नहीं रहता है, वह केवल अनुभावक की भूमिका में रहता है। उदाहरणार्थ- यदि कोई यह पूछे कि क्या तुमने वह शोर सुना उस वक्त श्रोता केवल अनुभावक होता है और कथ्य शोर होता है।

 

इसी प्रकार कई आर्थी भूमिकाएँ निश्चित हो जाती हैं और उस घटना का विवरण दर्शाती है। यदि किसी वाक्य में मेज पर, कमरे में जैसी इकाई प्रयुक्त हुई हो तो वहाँ इस इकाई की आर्थी भूमिका अवस्थिति (Location) की रहती है।

 

किसी भी वाक्य में विभिन्न स्थानों पर स्थित इकाइयों की अपनी एक आर्थी भूमिका होती है और उस आर्थी भूमिका के संदर्भ में यह स्थान उनका स्रोत (Source)  कहलाता है। किंतु यदि किसी वाक्य में किसी स्थान पर प्रयुक्त कोई इकाई अपने स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित होता है तो वहाँ वह भिन्न आर्थी भूमिका का निर्वहन करता है और इस स्थिति में इस इकाई को लक्ष्य (Goal) कहते हैं। उदाहरणार्थ- बैंक में जमा राशि को Savings से Current में बदलना। यह आर्थी भूमिका निम्नलिखित वाक्य से स्पष्ट होती है-

  1. राधा ने दीवार पर मच्छर देखा।

     इस वाक्य में ‘राधा’ अनुभावक, ‘मच्छर’ कथ्य और ‘दीवार’ अवस्थिति है।

  1. उसने मोहन से एक पुस्तक उधार ली।

    इस वाक्य में ‘उसने’ कर्ता, ‘पुस्तक’ कथ्य एवं ‘मोहन से’ स्रोत है।

  1. उसने उस पुस्तक से तिलचट्टे को मारा।

    इस वाक्य में ‘उसने’ कर्ता, ‘पुस्तक से’ कारक तथा ‘तिलचट्टे को मारा’ कथ्य है। 

  1. घटकीय विश्लेषण सिद्धांत की प्रयोज्यता और सार्वभौमिकता-

   इस विश्लेषण सिद्धांत की अपनी सीमाएँ हैं। यह सभी क्षेत्रों की शब्दावली के साथ आसानी से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है। कुछ शब्द संस्कृतिबद्ध होते हैं जिसका आशय है कि इन शब्दों के अर्थो में जो भेद है वह एक संस्कृति के लिए तो उपयुक्त हो सकता है परंतु यह आवश्यक नहीं है कि वह दूसरी संस्कृति में भी पूर्णतया उपयुक्त हो। उदाहरण के लिए सभी संस्कृतियों में रिश्ते-नाते के शब्द होते हैं, परन्तु वे प्रायः भिन्न-भिन्न तरीके से व्यवस्थित होते हैं (जैकसन, 1991: 91)।

 

इस विश्लेषण सिद्धांत की दूसरी समस्या यह है कि यह विश्लेषण केवल संदर्भित अर्थ (Referential Meaning) को केंद्र में रखता है। दूसरे शब्दों में, यह केवल शाब्दिक इकाई और बाहरी जगत में उपलब्ध वस्तु एवं शब्दिमों के अर्थ जो कि जगतीय वस्तु को दर्शाते हैं  से संबंध दर्शाता है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि सभी शब्दों के जगत में उपलब्ध संदर्भ होते भी नहीं है, (नाइडा, 1975: 25)।

  1. निष्कर्ष

    घटक आर्थी रूप से एक ही अर्थ प्रक्षेत्र में संबंध रखने वाले शब्दिमों में परस्पर भेद करने में सहायक होते हैं। यद्यपि घटकीय विश्लेषण के द्वारा घटकों के रूप में पूर्ण अर्थ निर्धारण पर्याप्त नहीं है, तथापि घटकीय विश्लेषण विभिन्न आर्थी संकेतों, शब्दिम के अर्थ को परिभाषित करने में सहायक होते हैं। घटकीय विश्लेषण के सोपानों को चार आधारभूत प्रकियाओं यथा नामकरण, पैराग्राफीकरण, परिभाषीकरण और वर्गीकरण में सरलीकृत किया गया है। इनके  माध्यम से  शब्दिम के अर्थ को निर्धारित करने के लिए घटकीय विश्लेषण एक महत्वपूर्ण पद्धति है।

 

जेरोल्ड काटज के शब्दों में “Semantic components may be combined in various ways in different languages yet they would be identifiable as the ‘same’ component in the vocabularies of all languages” अर्थात आर्थी घटकों को भिन्न भिन्न भाषाओं में अनेक तरह से संयोजित किया जा सकता है, तथापि सभी भाषाओं की शब्दावली में इनकी पहचान एक घटक के रूप में की जाती है। अतः इस प्रकार का विश्लेषण भाषा निरपेक्ष और सार्वभौमिक प्रकृति का होता है और भाषा की सार्वभौमिकताओं (Langauge Universals) को समझने में सहायक होता है। अतः घटकीय विश्लेषण को द्वितीय अथवा विदेशी भाषा शिक्षण की एक विधि के रूप में अपनाया जा सकता है।

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अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

 

1) तिवारी, भोलानाथ, (1969 प्रथम संस्करण) शब्दों का अध्ययन. दिल्ली: शब्दकार प्रकाशन

2) द्विवेदी, कपिलदेव, (2012) भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र. वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन.

3) Jackendoff, R. 1983. Semantics and CCambridge, Massachusetts: MIT Press.

4) Jackendoff, R. 1990. Semantic Structures.Cambridge, MIT-Press.

5) Katz, Jerrold. 1972. The Philosophy of LOxford: Oxford University Press.

6) Lyons, J. (1995). Linguistic Semantics. An Introduction. Cambridge: Cambridge University Press.

 

वेबलिंक्स

 

1) http://www.jstor.org/stable/pdf/410665.pdf?seq=1#page_scan_tab_contents

2) https://neoenglish.wordpress.com/2010/12/16/the-theory-of-componential-analysis-in-semantics/