38 भाषा के अभिकल्प अभिलक्षण
उमाशंकर उपाध्याय
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- हॉकेट द्वारा प्रारंभिक रूप से प्रस्तावित अभिलक्षण
- हॉकेट द्वारा 1960 में जोड़े गए अतिरिक्त अभिलक्षण
- अंतिम रूप से जोड़े गए तीन अभिलक्षण
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप-
- हॉकेट द्वारा भाषा की मुख्य भेदक विशेषताओं के रूप में प्रस्तावित अभिलक्षणों से अवगत हो सकेंगे।
- 1960 में उनके द्वारा प्रतिपादित अतिरिक्त अभिलक्षणों को समझ सकेंगे।
- उनके द्वारा अंतिम चरण में जोड़े गए तीन विशिष्ट अभिलक्षणों को जान सकेंगे।
- उपर्युक्त अभिलक्षणों के माध्यम से मानवेतर प्राणियों की संप्रेषण व्यवस्थाओं की तुलना में मानव भाषा के वैशिष्ट्य से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
भाषाचिंतकों में यह एक चर्चा का विषय रहा है कि क्या मानवभाषा अन्य प्राणियों की संप्रेषण प्रणालियों से तात्विक रूप से भिन्न है? क्या इनके बीच केवल मात्रात्मक अंतर है अथवा ये गुणात्मक रूप से भिन्न हैं? सुप्रसिद्ध अमरीकी भाषाविद चार्ल्स एफ़. हॉकेट ने 1959 में प्रकाशित अपने एक लेख “एनिमल लैंग्वेजेज़ एंड ह्यूमन लैंग्वेज’’ में ऐेसे सात अभिकल्प अभिलक्षण निर्धारित किए जिनके आधार पर मानवभाषा और मानवेतर प्राणियों की संप्रेषण प्रणालियों की तुलना की जा सकती है।
- हॉकेट द्वारा प्रारंभिक रूप से प्रस्तावित अभिलक्षण
हॉकेट द्वारा प्रस्तावित वे सात अभिलक्षण निम्नलिखित हैं :
- द्वैतता या संरचना द्वित्व (Duality of Structure)
- उत्पादकता (Productivity)
- याद्दच्छिकता (Arbitrariness)
- अंतरविनिमेयता या व्यतिहारिता (Interchangeability)
- विस्थापन (Displacement)
- विशेषीकरण (Specialization) और
- सांस्कृतिक प्रेषण या संचारण (Cultural Transmission)
हॉकेट ने यह प्रतिपादित किया कि उपुर्यक्त सात अभिलक्षण, जिन्हें उन्होंने ^The key properties of Language^ कहा, इनका समग्र समुच्चय किसी ज्ञात मानवेतर संप्रेषण व्यवस्था में नहीं पाया जाता, यद्यपि इनमें से कुछ विशेषताएं मानवेतर संप्रेषण में पाई जाती हैं।
द्वैतता
द्वैतता या संरचना द्वित्व मानवभाषा की इस विशेषता की ओर संकेत करता है कि भाषा में संरचना के दो स्तर हैं- एक स्तर अभिव्यक्ति की अर्थहीन इकाइयों का और दूसरा स्तर कथ्य की अर्थयुक्त इकाइयों का। जैसे, ‘आजकल’ शब्द, पाँच ध्वनियों या अभिव्यक्ति की अर्थहीन इकाइयों, आ+ज्+क्+अ+ल् से बना है। यह ‘आजकल’ शब्द की अभिव्यक्ति संरचना है। कथ्य की इकाइयों की दृष्टि से यह शब्द कथ्य की दो अर्थयुक्त इकाइयों, ‘आज’+‘कल’ के योग से बना है। यह ‘आजकल’ शब्द की कथ्य संरचना है। मानवेतर प्राणियों की संप्रेषण प्रणालियों में प्राय: एक ध्वनि-संकेत या दृश्य-संकेत का एक निश्चित आशय होता है। वहाँ एक से अधिक ध्वनि-संकेत या दृश्य-संकेत मिलकर अर्थयुक्त इकाइयों की रचना नहीं करते। इसका परिणाम यह है कि मानवेतर संप्रेषण प्रणालियों में यदि गाय और कुत्ता जैसे प्राणी 8-10 वाचिक संकेत उत्पन्न करते हैं तो वे उतने ही अर्थों को व्यक्त कर पाते हैं। जबकि कोई मानवभाषा अपने 50-60 वाचिक अभिव्यक्ति के संकेतों को पहले कथ्य की इकाइयों में संरचित करती है जिससे भाषा के हज़ारों शब्दों की रचना होती है और उन शब्दों को वाक्यों में संरचित कर असंख्य भावों और विचारों को व्यक्त किया जा सकता है।
इस प्रकार मानव भाषा की द्वैतता या दुहरी संरचना का यह अभिलक्षण मानवभाषा की अभिव्यक्ति क्षमता को अन्य प्राणियों की संप्रेषण प्रणालियों से अत्यधिक सक्षम बना देता है।
उत्पादकता
भाषा का यह अभिकल्प अभिलक्षण भाषा की इस विशेषता को व्यक्त करता है जो भाषा को कथ्य या अर्थ की सीमित इकाइयों के माध्यम से असंख्य वाक्यों को उत्पन्न करने और समझने में सक्षम बनाता है। बच्चे भाषा अर्जित करने की प्रक्रिया में नए-नए वाक्यों का प्रयोग करते हैं। वे ऐसे वाक्य भी बोलते हैं जो उन्होंने पहले कभी नहीं सुने। इसी प्रकार भाषा के विभिन्न प्रयोक्ता जीवन की विविध स्थितियों और संदर्भों के अनुरूप नए-नए वाक्यों की रचना करते हैं।
दूसरी ओर भाषा के श्रोता भी उनसे कहे गए नए वाक्यों को सहज रूप में समझ लेते हैं और उन्हें इन नए वाक्यों को समझने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती है। अत: इस अभिलक्षण के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि मानव भाषा का कोई भी वक्ता ऐसे वाक्य की रचना कर सकता है जो उसकी भाषा के समग्र इतिहास में कभी बोला न गया हो।
मानवेतर प्राणियों के ध्वनि-संकेत विभिन्न सुनिश्चित स्थिति-संदर्भों से जुड़े होते हैं अत: वे नई परिस्थितियों के अनुरूप भावों को व्यक्त करने के लिए अभिव्यक्तियों का सृजन नहीं कर पाते। यह सृजनात्मकता या उत्पादकता मानवभाषा का मानवेतर संप्रेषण प्रणालियों की तुलना में महत्वपूर्ण भेदक अभिलक्षण है।
यादृच्छिकता
यादृच्छिकता से तात्पर्य मानवभाषा की उस विशेषता से है जिसके अनुसार भाषिक रूपों, जैसे शब्द और वाक्य तथा उनके अर्थ में कोई प्राकृतिक या तार्किक संबंध नहीं होता है। यह संबंध केवल रूढिपरक होता है। उदाहरण के लिए ‘पेड़’ शब्द के रूप का या उसे गठित करने वाली ध्वनियों-प्+ए+इ का ‘पेड़’ शब्द के अर्थ से कोई तार्किक संबंध नहीं है। प्, ए, और इ ध्वनियों का अपने आप में कोई अर्थ नहीं है जिससे कि इनके योग से बने शब्द से “पेड़” अर्थ निष्पन्न हो सके। अत: ‘पेड़’ शब्द तथा “पेड़” अर्थ का संबंध केवल यादृच्छिक या रूढि़गत संबंध है। इनके बीच कोई तार्किक या प्राकृतिक संबंध नहीं है। इसीलिए विभिन्न भाषाओं में “पेड़” अर्थ को ‘ट्री’ (अंग्रेज़ी) या ‘चेट्टु’ (तेतुगु) शब्दों द्वारा भी व्यक्त किया जा सकता है।
यहाँ तक कि हिंदी में भी इस अर्थ को ‘वृक्ष’ और ‘तरु’ आदि अन्य शब्दों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। यदि कोई पूछे कि अपनी भाषा में इस वस्तु को आप ‘पेड़’ क्यों कहते हैं तो इसका युक्तिसंगत उत्तर देना भाषा के बड़े विद्वान या भाषाविद के लिए भी संभव नहीं होगा सिवाय यह कहने के कि हमने आरंभ से ही अपने माता-पिता, परिवार के सदस्यों तथा समवयस्कों से इस वस्तु के लिए इस शब्द का प्रयोग होते सुना था! और यह पूछे जाने पर कि माता-पिता आदि इस शब्द का प्रयोग क्यों करते थे तो यही कहा जा सकेगा कि उनके पूर्वज और समवयस्क भी इस वस्तु के लिए इसी शब्द का प्रयोग करते थे। तात्पर्य यह कि इस शब्द का प्रयोग रूढि़गत है। अनुरणनात्मक या अनुकरणात्मक शब्द जिनमें ध्वनियों या पशु पक्षियों की बोलियों का सादृश्य दिखाई देता है उपर्युक्त चर्चा के अपवाद लगते हैं। एक तो भाषा में इस प्रकार के शब्द, जैसे हिंदी में घंटे के बजने की आवाज़- ‘टन-टन’ या कुत्ते के भौंकने की आवाज़– ‘भौं-भौं’ बहुत कम होते हैं, दूसरे ध्यान से देखने पर इन शब्दों में भी यादृच्छिकता का तत्व बना रहता है। अंग्रेजी में घंटा डिंग-डौंग की आवाज़ करता है और जर्मन में कुत्ता ‘ग्नैफ़-ग्नैफ़’ करता है। मानवेतर संप्रेषण प्रणालियों में प्राप्त संकेत पशु-पक्षियों के विभिन्न भावावेगों से जुड़े नैसर्गिक संकेत होते हैं। उनमें प्राय: मानव भाषा जैसा यादृच्छिकता का अभिलक्षण दिखाई नहीं देता।
अंतरविनिमेयता या व्यतिहारिता
अंतरविनिमेयता मानवभाषा संबंधी एक ऐसा अभिलक्षण है जो भाषाके प्रयोक्ताओं से संबंध रखता है। इसके अनुसार मानवभाषा एक ऐसी संप्रेषण प्रणाली है जिसमें दोनों लिंगों के व्यक्ति भाषिक संकेतों के प्रेषण और ग्रहण करने काम करते हैं। अर्थात् एक ही व्यक्ति संकेतों का प्रेषक भी हो सकता है और प्रेषिती भी।
मानवेतर प्राणियों की कुछ संकेत प्रणालियों में प्राय: नर संकेतों का प्रेषक होता है जबकि मादा संकेतों को ग्रहण मात्र करती है। कोयल के संबंध में कहा जाता हैकि ‘कोयल गाती है।’ परंतु जानकार लोग कहते हैं कि वस्तुत: ‘नर कोयल गाता है’ और मादा कोयल केवल संकेतों को ग्रहण करती है। यही बात वर्षा ऋतु में मेंढकों के संबंध में कही जा सकती है। इसी प्रकार कुछ मानवेतर प्राणियों के संकेत केवल मादा द्वारा प्रेषित होते हैं और नर द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। उपर्युक्त चर्चा के संदर्भ में मानवभाषा का यह अभिलक्षण एक ऐसा भेदक अभिलक्षण है जो भाषाव्यवहार में पुरुष और स्त्री को समान रूप में सक्षम बनाता है।
विस्थापन
यह अभिकल्प अभिलक्षण मानवभाषा की इस विशेषता की ओर संकेत करता है जिसके कारण मानवभाषा का प्रयोग प्रयोक्ता की तात्कालिक परिस्थिति से भिन्न परिवेश के सदंर्भ में किया जा सकता है। कोई व्यक्ति वर्धा में बैठ कर दिल्ली या ह्यूस्टन की ही नहीं मंगल ग्रह के संबंध में भी बेखटके बात कर सकता है। स्थान की दृष्टि से ही नहीं काल की दृष्टि से भी वह व्यक्ति सिर्फ़ अब और आज से हटकर गुज़रे हुए कल, पिछले महीने या अतीत के किसी साल की और इसी प्रकार आगामी कल, महीने या सदी की बात उतनी ही सरलता से कर सकता है। इस प्रकार मानवभाषा का व्यवहार प्रयोग के स्थान और समय से बँधा नहीं होता।
इस संदर्भ में यदि मानवेतर प्राणियों की संप्रेषण प्रणालियों को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनका प्रयोग प्राणिविशेष की तात्कालिक परिस्थिति से उत्पन्न भय, क्रोध आदि आवेगों की अभिव्यक्ति के लिए होता है। पशु-पक्षी आदि किसी अन्य स्थान या किसी अतीत या आगामी घटना के संबंध में अपने आवेगों की अभिव्यक्ति नहीं करते। बर्ट्रेंड रसेल के ये शब्द इस संदर्भ में प्रासंगिक हैं– ‘कोई कुत्ता चाहे जितनी वाक्पटुता से भौंके, वह आपको यह नहीं बता सकता कि उसके माता-पिता ग़रीब पर ईमानदार थे।’
विशेषीकरण
यह अभिलक्षण बताता है कि मानवभाषा का व्यवहार संप्रेषण के लिए किया गया एक विशेष व्यवहार है क्योंकि मानवभाषा में प्रयुक्त वाचिक संकेत संप्रेषण के अतिरिक्त साँस लेने, भोजन करने जैसे किसी अन्य प्रयोजन की पूर्ति नहीं करते। जैसे मानवभाषा के वाचिक संकेतों के विशेषीकृत उत्पादन का प्रयोजन संप्रेषण ही होता है कुछ अन्य नहीं इसी प्रकार इन वाचिक संकेतों का श्रोताओं पर प्रभाव उनके तात्कालिक भौतिक प्रभाव से नितांत भिन्न होता है।
मानवेतर संप्रेषण की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाले ध़्वनि-संकेत पशु की विशिष्ट भावावस्था में उत्पन्न होनेवाल़े सहज संकेत होते हैं। वे किसी विशेष प्रयास का परिणाम नहीं होते। किसी मनुष्य के रोने की आवाज़ से उसके दुखी होने की बात का पता चलता है, किंतु रोने को संप्रेषण नहीं कहा सकता। पर जब कोई व्यक्ति अपने दुखी होने की बात करता है तो अपनी बात कहने के लिए उसे विशेष प्रयास करना पड़ता है। जब घर में भोजन बन रहा हो तो रसोई में बर्तनों की खड़खड़ाहट तथा बन रहे भोजन की गंध से बैठक में बैठे हुए लोगों को भोजन बनने की सूचना मिल जाती है पर जब कोई व्यक्ति अपने उच्चारण अवयवों से कुछ शब्दों का उच्चारण कर इस बात की घोषणा करता है कि भोजन तैयार है तब वह उन शब्दों को बोलने में एक विशेषीकृत प्रयास करता है जिसका भोजन बनाने की प्रक्रिया से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। विशेषीकरण मानवभाषा की इसी भेदक विशेषता को संकेतित करता है।
सांस्कृतिक संचारण
इस अभिलक्षण के अनुसार मानवभाषा का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचार आनुवंशिक आधार पर नहीं अपितु सांस्कृतिक आधार पर होता है, जबकि मानवेतर संप्रेषण प्रणालियाँ आनुवंशिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचारित होती हैं। अर्थात् मानवभाषा अपने परिवेश से अर्जित की जाती है, जबकि पशुओं को अपनी संप्रेषण प्रणालियाँ जन्मना प्राप्त होती हैं।
मानव में भाषा-अर्जन की क्षमता जन्मजात होती है, पर वह कौन-सी भाषा सीखेगा यह उसके तात्कालिक परिवेश पर निर्भर होता है। एक जर्मन दंपति का नवजात शिशु माता-पिता से दूर भारतीय परिवेश में पाले जाने पर जर्मन नहीं, कोई भारतीय भाषा ही बोलेगा। जब कि नवजात मानवेतर प्राणी किसी भी परिवेश में पाले जाने पर भी आनुवंशिक रूप से प्राप्त ध्वनि/दृश्य/गंध संकेतों का प्रयोग करेगा। यदि मानव– शिशु को अकेला रखा जाए और उसे कोई भाषिक परिवेश न मिले तो भाषा-अर्जन की जन्मजात आनुवंशिक क्षमता के बावजूद वह कोई भाषा बोल नहीं पाएगा। संयोगवश मानव संसर्ग से दूर पले बच्चों का कुंठित भाषिक विकास इस बात की पुष्टि करता है। संसार की मूल भाषा का पता लगाने के उद्देश्य से शिशुओं को एकांत में रखकर किए गए ऐतिहासिक प्रयोग भी भाष-अर्जन के लिए भाषिक परिवेश की अनिवार्यता सिद्ध करते हैं। अत: मानवेतर संप्रेषण प्रणालियों के आनुवंशिक संचार के विपरीत मानवभाषा का सांस्कृतिक संचारण मानवभाषा का एक भेदीक अभिलक्षण है।
- हॉकेट द्वारा 1960 में जोड़े गए अतिरिक्त अभिलक्षण
हॉकेट ने 1960 में ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ में प्रकाशित अपने ‘द ओरिजिन ऑफ स्पीच’ में पूर्वोक्त अभिलक्षणों के साथ निम्नलिखित छह और अभिलक्षण प्रस्तावित किए :
- वाक्-श्रव्य सरणि (Vocal-Auditory Channel)
- व्यापक प्रसारण और दिशात्मक अभिग्रहण
- (Broadcast Transmission and Directional Reception)
- पूर्ण प्रतिपुष्टि (Total Feedback)
- क्षिप्र विलोपन (Rapid Fading)
- विविक्तता (Discreteness)
- अर्थत्व (Semanticity)
वाक्-श्रव्य सरणि
प्राणिजगत में संप्रेषण के लिए विभिन्न प्रकार की सरणियों का प्रयोग किया जाता है। सिद्धांतत: संप्रेषण के लिए दृश्य, श्रव्य, गंध, स्पर्श और स्वाद की सरणियों का उपयोग किया जा सकता है। मानवभाषा वागवयवों द्वारा उच्चारित तथा कानों द्वारा ग्रहण की जाती है। इस वाक्-श्रव्य सरणि का लाभ यह है कि दृश्य सरणि का उपयोग जहाँ प्रकाश में ही किया जा सकता है वहाँ श्रव्य सरणि का उपयोग रात के अँधेरे में भी किया जा सकता है। श्रव्य सरणि की तुलना में भी यह इस रूप में अधिक सक्षम है कि इसका प्रयोग ग्रहणकर्ता से दूर होते हुए भी किया जा सकता है।
मानवभाषा लेखन प्रणाली का भी उपयोग करती हैं जो कि उपर्युक्त प्रकारों की दृष्टि से एक दृश्य सरणि है लेकिन लेखन वाचिक भाषा पर आधारित होता है। प्रत्येक मानवभाषा वाचिक श्रव्य संकेतों का प्रयोग करती है पर प्रत्येक भाषा लेखन प्रणाली का उपयोग नहीं करती। वैसे भी परिमाण की दृष्टि से भाषा का प्रयोग अधिकांशत: वाक्-श्रव्य सरणि से ही होता है। क्योंकि मानवेतर संकेतप्रणालियाँ भी वाक्-श्रव्य सरणि का प्रयोग करती हैं यह अभिलक्षण भेदक अभिलक्षण नहीं है।
अगले तीन अभिलक्षण, व्यापक प्रसारण और दिशापरक अभिग्रहण, पूर्ण प्रतिपुष्टि और क्षिप्र विलोपन इसके आनुषंगिक अभिलक्षण हैं।
व्यापक प्रसारण और दिशात्मक अभिग्रहण
इस अभिलक्षण का संबंध पिछले अभिलक्षण, वाक्- श्रव्य सरणि से है। इसके अनुसार वाक्-संकेत उच्चारित होते ही अपनी प्रबलता के अनुरूप चारों ओर वायुमंडल में प्रसारित हो जाते हैं जिसे वायुसंकेतों का सर्वदिशात्मक प्रसारण भी कहा जा सकता है। अन्य सरणियों से इसकी तुलना करने पर हम देखते हैं कि जहाँ तक दृश्य-सरणि का प्रश्न है उसका प्रसारण उस दिशा-विशेष तक ही सीमित होता है जिस-दिशा में वह दृश्य संकेत होता है। यथा-बंदर का चेहरे की माँसपेशियों को तानकर घुड़की देना पूर्णत:, सामने से ही देखा जा सकता है, दाएँ, बाएँ या पीछे से नहीं। इसे एकदिशात्मक कहा जा सकता है। गंध-संकेत का प्रयोग किए जाने की स्थिति में संकेत-ग्रहण की दिशा प्राय: वायु-प्रवाह की दिशा से प्रभावित होती है। स्पृश्य-संकेत स्थानीयकृत ही होते हैं। अत: वाक्-श्रव्य सरणि के माध्यम से प्रसारित ध्वनि-संकेत व्याप्ति की दृष्टि से सर्वाधिक सक्षम संकेत सिद्ध होते हैं।
संप्रेषण का एक पक्ष यदि संकेतों का उत्पादन है तो दूसरा उतना ही महत्वपूर्ण पक्ष संकेतों के अभिग्रहण का है, जिसके बिना संप्रेषण अधूरा है। वाक्-श्रव्य सरणि के संदर्भ में अधिग्रहण दिशात्मक होता है अर्थात् ध्वनि-संकेत भले ही चारों ओर से आएँ ग्रहणकर्ता को संकेत के स्रोत की जानने में कोई कठिनाई नहीं होती है। इससे उसके लिए आरंभकर्ता के साथ संवाद स्थापित करना आसान हो जाता है।
पूर्ण प्रतिपुष्टि
मानवभाषा के संकेतों की एक विशेषता यह भी है कि वाक्-श्रव्य सरणि का प्रयोग करने के कारण ये संकेत न केवल श्रोता द्वारा सुने जाते हैं अपितु स्वयं वक्ता द्वारा भी समग्र रूप में सुने जाते हैं। इसका लाभ यह है कि वक़्ता निरंतर अपने संदेश का निरीक्षण कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर अपने उच्चारण और कथन को सुधार सकता है। पूर्ण प्रतिपुष्टि का यह अभिलक्षण मानवभाषा को मानवेतर संप्रेषण प्रणालियों की तुलना में एक वैशिष्ट्य प्रदान करता है।
इस संदर्भ में यदि दृश्य संकेत प्रणालियों को देखें तो हम पाते हैं कि अपने चेहरे से अपने क्रोध और अपनी आक्रमकता को व्यक्त करने वाला पशु स्वयं अपने चेहरे को नहीं देख सकता, मनुष्य को भी ऐसी स्थिति में आईने की आवश्यकता पड़ेगी जो कि वास्तविक स्थितियों में संभव नहीं है।
क्षिप्र विलोपन
मानवभाषा का यह अभिकल्प अभिलक्षण भाषा की अभिव्यक्ति सामग्री ध्वनि की इस विशेषता की ओर संकेत करता है जिसके अनुसार भाषा के संकेत उच्चारित होते ही क्षिप्र गति से क्षीण होकर विलुप्त हो जाते हैं। पहली नज़र में, तीव्र गति से भाषा के संकेतों का विलुप्त हो जाना इन संकेतों की कमी और कमज़ोरी लगती है पर ध्यान देने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन संकेतों का त्वरित या क्षिप्र विलोप संप्रेषण की सरणि को लगातार संप्रेषण के लिए उपलब्ध बनाए रखता है। इसे भाषा के लिखित माध्यम के संदर्भ में सरलतापूर्वक समझा जा सकता है। लेखन के क्रम में किसी फलक पर जितना लिख दिया जाता है उतने अंश को मिटाने पर ही फिर कुछ लिखा जा सकता है जबकि ध्वनि संकेतों की यह विशेषता उन संकेतों के स्वत: शीघ्र लुप्त हो जाने के कारण सरणि को कोरा, उपयोग के लिए निरंतर तैयार बनाए रखती है।
इस अभिलक्षण के संदर्भ में यदि गंध-संकेतों का, फे़रोमोन का, प्रयोग करने वाली संप्रेषण प्रणालियों को देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि इनका प्रभाव लक्षित वायुमंडल में कुछ देर बना रहता है, शीघ्र समाप्त नहीं होता। अत: अगला संकेत तुरंत नहीं दिया जा सकता।
विविक्तता
भाषा का यह अभिकल्प अभिलक्षण भाषा की इस विशेषता की ओर संकेत करता है कि भाषा की अभिव्यक्ति की अर्थहीन इकाइयों से बनी अभिव्यक्ति-संरचना तथा कथ्य की अर्थवान इकाइयों से बनी कथ्य-संरचना, दोनों ही इन आधारभूत इकाइयों में विश्लेषणीय होती हैं क्योंकि वाचिक भाषा में, एक सतत वाक्प्रवाह का अंग होते हुए भी इनमें से प्रत्येक इकाई के आरंभ को पूर्ववर्ती इकाई के अंत से एवं प्रत्येक इकाई के अंत को परवर्ती इकाई के आरंभ से अलग किया जा सकता हैं। भाषिक इकाइयों के आरंभ और अंत की यह सुस्पष्टता भाषा को विविक्त बनाती है।
मानवेतर प्राणियों की संप्रेषण प्रणालियों में प्राय:
पशु-पक्षियों की पुकारों को इस प्रकार इकाइयों में विश्लेषित नहीं किया जा सकता है। सिंह की गर्जना या दहाड़ को, हाथी की चिंघाड़ को या कोयल की कूक को विविक्तता के इस अभिलक्षण के अभाव में घटकीय इकाइयों में खंडित नहीं किया जा सकता है।
भाषा की ध्वनि की प्रत्येक इकाई का उच्चारण तथा श्रवण की दृष्टि से शेष सभी इकाइयों से भिन्न होना भाषा में विविक्तता के इस अभिलक्षण को संभव बनाता है। भाषिक इकाइयों की यह पारस्परिक भिन्नता ही भाषिक संरचना के दोनों स्तरों – अभिव्यक्ति स्तर तथा कथ्य स्तर पर उनका मूल्य है।
अर्थत्व
भाषा का यह अभिलक्षण मानवभाषा की इस विशेषता की ओर संकेत करता है कि भाषा की कथ्य की इकाइयाँ या रूप अर्थवान होते हैं। अन्य शब्दों में उनमें, और प्रकारांतर से भाषा में, अर्थत्व होता है। कथ्य की इकाइयों में, यथा-रूपिम, शब्द, पदबंध और वाक्य में अर्थत्व के होने से आशय यह है कि ये इकाइयाँ जिस प्रकार संरचनाबद्ध होकर एक-दूसरे से एक विन्यास में, एक क्रम में जुड़ती हैं, उसी प्रकार से ये बाह्य यथार्थ से जुड़ती हैं। भाषिक इकाइयों का यह जुड़ाव ही उनमें निहित अर्थत्व है।
भाषा का यह अर्थत्व अभिलक्षण प्रकारांतर से इस बात का के विशिष्ट संकेतों को विशिष्ट अर्थों के साथ जोड़ा जा सकता है।
- हॉकेट द्वारा प्रस्तावित अंतिम अभिलक्षण
बाद में उन्होंने विशिष्ट मानवीय अभिलक्षणों के रूप में निम्नलिखित तीन अभिलक्षण और जोड़े और दावा किया कि अत्यंत आदिम भाषाओं में भी ये 16 अभिलक्षण पाए जाते हैं –
- वाक्छल
- निजपरकता
- अधिगम्यता
वाक्छल
यह भाषा का अभिलक्षण मानवभाषा की उस विशेषता की ओर संकेत करता है जिसके अनुसार मानवभाषा उन बातों को भी व्यक्त कर सकती है जो यथार्थ नहीं हैं। सामाजिक व्यवहार में संकोचवश या नाराजगी में भूखे होने पर भी कोई कह सकता है कि मुझे भूख नहीं है। मानवेतर संप्रेषण प्रणालियों में कोई पशु-पक्षी या इतर जीव अपने नैसर्गिक संवेगों से भिन्न संकेतों का प्रयोग नहीं करता।
मानवभाषा में असंभव संकल्पनाएँ भी, जैसेकि ‘आकाशकुसुम’ या आकाश का फूल, या ‘शशशृंग’ या खरगोश के सींग जैसी उक्तियाँ की जा सकती हैं। व्यंजना भी असत्य का एक प्रकार है। अंतर केवल इतना कि श्रोता को भी यह ज्ञात होता है कि जो कहा जा रहा है वह अक्षरश: सत्य नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य व्यंग्य करना है। एक अत्यंत कंजूस व्यक्ति से कहा जा सकता है कि आप तो दानवीर हैं।
नाटकों और फिल्मों में बोले गए संवादों का अभिनेता के वास्तविक जीवन के यथार्थ से कोई संबंध नहीं होता। उपर्युक्त सभी स्थ्िातियों में मानवभाषा व्यवहार मानवेतर प्राणियों के ‘भाषा’ व्यवहार से भिन्न दिखाई पड़ता है। इसीलिए मन, वचन और कर्म की एकता मनुष्यों में सहज सिद्ध नहीं है अपितु साध्य है। इस प्रकार मानवभाषा यथार्थ और मिथ्या, दोनों प्रकार की स्थितियों को समान रूप से व्यक्त कर सकती है।
निजपरकता
निजपरकता भाषा का वह अभिकल्प अभिलक्षण है जिसके अंतर्गत भाषा की यह विशेषता आती है कि इसके माध्यम से स्वयं मानवभाषा का अध्ययन किया जा सकता है। मानवेतर संकेतप्रणालियों के माध्यम से संसार की विभिन्न स्थ्िातियों तथा प्राणि-विशेष द्वारा स्वयं संवेदनाओं को संकेतित किया जा सकता है, किंतु इन संकेत-प्रणालियों द्वारा स्वयं का विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। जब हम कहते हैं कि ‘आ दीर्घ स्वर है।’ या ‘ख महाप्राण व्यंजन है।’ या जब हम कहते हैं कि ‘चलना शब्द में चल धातु है और ना प्रत्यय है।’ तो हम भाषा के माध्यम से भाषा के संबंध में ही बात कर रहे होते हैं। इसी प्रकार जब कोई कहता है ‘कि’ उसने ई-मेल भेजा। ‘एक सकर्मक वाक्य है’ अथवा जब कोई कहता है कि ‘ठंड गरम का विलोम है।’ तो वह मानवभाषा के माध्यम से भाषा के संबंध में ही वक्तव्य दे रहा होता है। भाषा की यह विशेषता ही भाषा की निजपरकता है। इस स्थिति को यों समझा जा सकता है कि एक चिमटा किसी भी ठोस वस्तु को पकड़ सकता है पर स्वयं अपने आपको नहीं। निजपरकता द्वारा भाषा में अपने आपको वर्णित-विश्लेषित करने की यही क्षमता परिलक्षित होती है।
अधिगम्यता
इससे तात्पर्य यह है कि मानवभाषा को सीखा जा सकता है। यह सीखे जा सकने की विशेषता मानवेतर प्राणियों की संकेतप्रणालियों से मानवभाषा को अलगानेवाला एक भेदक अभिलक्षण है। मानवेतर प्राणियों की संकेतप्रणालियों सीखी नहीं जातीं। वे विभिन्न प्राणियों को आनुवंशिक रूप से प्राप्त होती हैं। मनुष्य भाषा अर्जन की क्षमता जन्मजात होते हुए भी भाषा-विशेष अपने तात्कालिक परिवेश में बोली जानेवाली भाषा को सुनकर, उसका व्यवहार करके सीखता है। इतना ही नहीं अपनी मातृभाषा से भिन्न भाषा सीख सकता है। एक ही नहीं, एक से अधिक भाषाएँ भी सीख सकता है। सीखे जा सकने का यह गुण मानवभाषाओं को मानवेतर संकेतप्रणालियों की तुलना में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है।
भाषाएं सिखाई और सीखी जा सकती हैं। एक भाषा भाषी कोई अन्य भाषा भी सीख सकता है। यह क्षमता मनुष्य को यह स्वतंत्रता देती है कि वह किसी कोड़ विरोध से बंधा हुआ नहीं है और चाहे तो अपना कोड बदल सकता। मानवेत्तर प्राणियों की संप्रेषण प्रणालियों में यह संभव नहीं होता।
- निष्कर्ष
- भाषा के अभिकल्प अभिलक्षण यह बताते हैं कि मानव भाषा मानवेतर संप्रेषण व्यवस्थाओं से किस प्रकार भिन्न है।
- समग्र रूप से इन अभिलक्षणों का समुच्चय किसी ज्ञात मानवेतर संप्रेषण व्यवस्था में नहीं पाया जाता, यद्यपि इनमें से कुछ मानवेतर संप्रेषण में पाए जाते हैं।
- वाक् श्रव्य सरणि और उसके आनुषंगिक अभिलक्षण तथा अंतर्विनिमेयता, द्वैतता, उत्पादकता, विविक्तता और अर्थव्व मानव भाषा को तुलनात्मक रूप से अधिक सक्षम बनाते हैं।
इसी प्रकार से यादृच्छिकता, विशेषीकरण, वाक्छल, विस्थापन, निजपरकता और अधिगम्यता मानव भाषा को उसके तात्कालिक परिवेश से मुक्त करते हैं।
you can view video on भाषा के अभिकल्प अभिलक्षण |
अतिरिक्त जानें
कुछ भाषाविदों ने हॉकेट के द्वारा प्रस्तावित भाषा के अभिकल्प अभिलक्षणों की आलोचना की है। उनका मानना है कि पशु संप्रेषण और मानव भाषा को साथ-साथ रखने के प्रभावी साधन होने के बावजूद भाषा विकास के परिप्रेक्ष्य में ये अभिलक्षण निष्प्रभावी हैं। हॉकेट का सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य आधुनिक भाषा विकासपरक शोध से सामंजस्य नहीं रखता। ये आलोचना के दो मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित है। विषयवस्तु या कथ्य की बजाय साधनों पर बल और प्रयोक्ताओं की संज्ञानात्मक योग्यताओं की अपेक्षा स्वयं कोड पर बल। विस्तार के लिए देखें –Language Evolution: Why Hockett’s Design Features are a Non-Starter. इसके लिए निम्न वेब लिंक पर जाएँ –
https://www.ncbi.nlm.nih.gov/articles
पुस्तकें
- Hockett. C.F. 1959. Animal Languages and Human Language. Human Biology. Vol.3.No.1 pp32-36
- Hockett. C.F. 1960. The origin of speech, Scientific American. 203. Pp.89-97
- Hockett. C.F. and Altman Stuart A. 1968. A note on Design Features in Seboek, Thomas.A (Ed.) Animal Communicationas. Techniques of study and Results of Research Bloomingtom. Indiana Univ. Press. Pp61-72
वेब लिंक
https://en.wikipedia.org/wiki/Hock