37 संकेतप्रयोगविज्ञान
रामबख्श मिश्र
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- संकेतप्रयोगविज्ञान क्या है?
- अन्य शास्त्रों से इसका क्या संबंध है?
- संकेतप्रयोगविज्ञान के घटक क्या हैं?
- भाषिक व्यवहार में शिष्टता/ नम्रता और अभद्रता
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप –
- संकेतप्रयोगविज्ञान की संकल्पना और उसके विविध आयामों को जान सकेंगे।
- भाषाओं की प्रकृति और प्रयोग को समझने में इस विज्ञान की संकल्पनाओं के महत्व से अवगत होंगे।
- वाक् व्यापार क्या है? इसके कितने आयाम और प्रकार हैं? यह जान सकेंगे।
- व्यावहारिक जीवन से जुड़े इन सबके विभिन्न सरोकारों को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
वाक्यों का अर्थ समझने में संदर्भ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। भाषा में शब्दों, पदबंधों का बहुअर्थी होना सामान्य बात है। किसी वार्तालाप में इधर-उधर से कई संदर्भ जुड़े होते हैं और कुछ नियम भी होते हैं जो वार्तालाप की सफलता के लिए आवश्यक माने जाते हैं। भाषिक व्यवहार में शिष्टता अथवा नम्रता की भी भूमिका होती है। यही नहीं कभी-कभी आवश्यकतानुसार अभद्रता का भी औचित्य होता है। यह सब संकेतप्रयोगविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र में आता है। समाज में संप्रेषण भाषा के माध्यम से संपन्न होता है। भाषा के प्रयोक्ता सामाजिक प्राणी होते हैं। उनका संप्रेषण और भाषिक व्यवहार समाज में ही संपन्न होता है। अतः समाज ही भाषाई और संप्रेषणपरक साधनों पर अपना नियंत्रण रखता है।
- संकेतप्रयोगविज्ञान (Pragmatics) क्या है ?
संकेतप्रयोगविज्ञान समाज की स्थितियों से नियंत्रित मानव संप्रेषण में भाषा प्रयोग का अध्ययन करने वाला शास्त्र है। Pragmatics शब्द ग्रीक भाषा का है जिसका व्युत्पत्तिपरक अर्थ है मनुष्य के कार्यकलाप का अध्ययन। यह शब्द दर्शनशास्त्र से भाषाविज्ञान में आया है।
सुप्रसिद्ध विद्वान लीच की दृष्टि में-
(1) संकेतप्रयोगविज्ञान अर्थविज्ञान का अंग है।
(2) अर्थविज्ञान संकेतप्रयोगविज्ञान का अंग है।
(3) अर्थविज्ञान और संकेतप्रयोगविज्ञान शोध के स्वतंत्र शास्त्र अवश्य हैं परन्तु वे एक दूसरे के पूरक हैं।
संकेतप्रयोगविज्ञान की सीमा कहाँ तक है? यह भाषाविज्ञान के भीतर भी है, और बाहर भी। अर्थविज्ञान से इसका आत्मीय संबंध है और अर्थविज्ञान अपनी मूलप्रकृति में दर्शनशास्त्र है। अर्थ का अध्ययन दोनों के केंद्र में है फिर भी निम्नलिखित अंतर द्रष्टव्य है—
“Semantics focuses on the interpretation of utterances in relative isolation, pragmatics looks at the contexts in which meaning develops and the purposes for which utterances are used, that is, speaker intension and hearer range of interpretation.”
(Winkler 2008:152)
संकेतविज्ञान (Semiotics) की तीन शाखाएँ हैं वाक्यविज्ञान, अर्थविज्ञान और संकेतप्रयोगविज्ञान। इनमें तीसरा अपेक्षाकृत नवीन अध्ययन क्षेत्र है। संकेतप्रयोगविज्ञान के लिए हिंदी में कई नाम यथासमय प्रचलन में आए हैं। भोलानाथ तिवारी (1984, 106-107) ने इसे प्रकरणार्थविज्ञान कहा है, तो पांडेय शशिभूषण शीतांशु (2015, 9-16) ने भाषाव्यवहारशास्त्र कहा है। संकेतप्रयोगविज्ञान समाज की स्थितियों से नियंत्रित मानव संप्रेषण में भाषा प्रयोग का अध्ययन करने वाला शास्त्र है। वस्तुतः इसमें प्रकरण और भाषिक व्यवहार दोनों का बहुत महत्व है। प्रतीकों और उनके प्रयोगकर्ताओं के संबंधों का अध्ययन है संकेतप्रयोगविज्ञान। इसने भाषा को उसकी अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति के परिवेश से जोड़ा है और भाषाविश्लेषण पद्धति के पारंपरिक दायरों को तोड़कर विस्तृत और बहुआयामी बनाया है। इसलिए अब भाषावैज्ञानिक अध्ययन में भाषा के प्रायोगिक पक्ष पर सर्वाधिक जोर दिया जाने लगा है।
कविता रस्तोगी (2000, 15-16) भाषाविज्ञान के सूक्ष्म (Micro) तथा बृहद (Macro) रूप के संदर्भ में कहती हैं कि सूक्ष्म विचारधारा भाषाविज्ञान को स्वतंत्र और स्वायत्त विज्ञान के रूप में स्थापित करती है। एफ.डी. सस्यूर ने भाषा अध्ययन के संकुचित क्षेत्र की आवश्यकता पर बल दिया। इससे भाषा के कलेवर में प्राप्त समस्त विशेषताओं का वर्णनात्मक अध्ययन होता है और सामान्य सिद्धांत निर्मित किए जाते हैं। अर्थात् औच्चारणिक व्यवस्था, शब्दसंरचना, वाक्यविन्यास और अर्थ पर आधारित अध्ययन वर्णनात्मक और सैद्धांतिक भाषाविज्ञान है। संकेतप्रयोगविज्ञान बृह्द भाषाविज्ञान के अन्तर्गत माना जाता है। मानव समाज और संस्कृति से संबंधित होने के कारण इसमें भाषिक अर्थ का यथेष्ट विस्तार मिलता है। चूँकि भाषाविज्ञान के अतिरिक्त अन्य विषयों के लिए भी भाषा का महत्व है अतः आधुनिक समय में अनेक अंतर्विषयिक क्षेत्र प्रकाश में आए हैं- समाजभाषाविज्ञान, संगणकभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, भाषा प्रौद्योगिकी आदि की गणना बृहद भाषाविज्ञान के अंतर्गत होती है।
अर्थविज्ञान और संकेतप्रयोगविज्ञान के संबंध और अंतर पर भाषावैज्ञानिकों, तर्कशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, दार्शनिकों आदि तथा प्राचीन और नवीन अध्येताओं में कमोबेश घमासान युद्ध जैसे हालात हैं। अनेक स्थापनाओं में सिद्धांतवादी और व्यवहारवादी भाषावैज्ञानिक अर्थविज्ञानियों तथा संकेतप्रयोगविज्ञानियों में सहमति का अभाव है। लेविंसन (1983, 1-34) ने इसकी लंबी सूची दी है जिसमें से कुछ का विवरण जॉन लॉयंस आदि के द्वारा संपादित (1987, 156-57) में उपलब्ध है—
(1) अर्थविज्ञान अर्थ का अध्ययन करता है। जबकि संकेतप्रयोगविज्ञान प्रयोग का। अर्थ और प्रयोग की वैकल्पिक परिभाषाएँ भी हैं।
(2) भाषिक सामर्थ्य (Competence) अर्थविज्ञान के केंद्र में है, जबकि भाषिक व्यवहार (Performance) संकेतप्रयोगविज्ञान के केन्द्र में।
(3) अर्थविज्ञान पारंपरिक रूप से स्थापित अर्थों पर आधारित है, जबकि संकेतप्रयोगविज्ञान गैर पारंपरिक अर्थों पर।
(4) अर्थविज्ञान नियमों के अधीन चलता है, जबकि संकेतप्रयोगविज्ञान मनोवृत्तियों, सिद्धांतों, सूत्रों और अभिव्यक्तियों की रणनीतियों के अधीन।
(5) अर्थविज्ञान सत्य प्रतिबंधित अध्ययन क्षेत्र है, जबकि संकेतप्रयोगविज्ञान सत्यप्रतिबंधित नहीं है।
(6) अर्थविज्ञान शाब्दिक अर्थ का अध्ययन है, संकेतप्रयोगविज्ञान शब्देतर अर्थ का।
(7) अर्थविज्ञान वाक्यों के अर्थ का अध्ययन है, जबकि संकेतप्रयोगविज्ञान उक्तियों के तात्पर्य का।
(8) अर्थविज्ञान संदर्भमुक्त अध्ययन क्षेत्र है, संकेतप्रयोगविज्ञान संदर्भ आधारित अर्थ का।
3.1 संदर्भ की भूमिका
संदर्भ की अवधारणा अपनी प्रकृति, व्यवहार क्षेत्र और प्रकार्य में सर्वव्यापी जटिल और बहुआयामी है। किसी भी अर्थ और उसकी समझ में इसकी निर्णायक भूमिका होती है। संदर्भ निकट का अथवा बहुत दूर का, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक, स्थानीय अथवा भूमंडलीय प्रकार का हो सकता है।
According to Hans R. Dua (2010,164) “the various distinctions and parameters of context highlight the highly embedded nature of spontaneous language use, social interaction and communication in negotiation of meaning, interpretation and understanding.”
विमलकृष्ण मतिलाल (2001, 25) कहते हैं कि दार्शनिक वैयाकरण भतृहरि ने अर्थ निर्धारण के प्रमुख कारकों (यथा साहचर्य, विरोध, उद्देश्य, क्षमता, स्थान, समय आदि) की लंबी सूची दी है। जिसमें द्वि-अर्थी या बहुअर्थी शब्दों के सही अर्थबोध में संदर्भ की भूमिका को बहुत महत्वपूर्ण माना है। जैसे- सैंधव का अर्थ घोड़ा और नमक दोनों होता है। भोजन कर रहा व्यक्ति यदि सैंधव माँग रहा है तो आशय यह हुआ कि वह नमक माँग रहा है, घोड़ा नहीं।
भाषा का प्रयोग बहुत कुछ संदर्भाश्रित होता है। सामाजिक व्यवहार क्षेत्र और संदर्भ में बदलाव के साथ अलग अलग पद्धतियों से भाषा प्रयोग की अपेक्षा की जाती है। पारिवारिक स्तर पर समवयस्क दोस्त मित्रों से, नौकरों से, पास-पड़ोस गली मोहल्ले में भाषा का प्रयोग अनौपचारिक होता है। एतदर्थ डाइग्लोसिया का निम्न कोड बहुत उपयुक्त होता है। शासन प्रशासन, शिक्षा, साहित्य, धर्म-दर्शन, व्यवसाय आदि क्षेत्रों में भाषा की औपचारिक शैली दूसरी होती है। उसमें प्रयुक्ति विशेष के अनुसार पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग होता है। औपचारिक संदर्भों में डाइग्लोसिया का उच्च कोड प्रस्तुत होता है। उनमें प्रयोगगत एकरूपता होती है, मानक भाषा रूप का प्रयोग होता है। संदर्भ के अनुरूप शैली होती है।
‘मिट्टी’ शब्द का अर्थ है , जमीन की मिट्टी जैसे खेत में बीज बोने से पहले उसकी मिट्टी तैयार करनी होती है लेकिन अगर संदर्भ यह हो कि – कल रात को ही उनकी मौत हो गई थी। सबको खबर कर दी गई है। अभी तक दरवाजे पर मिट्टी पड़ी है। तो यहाँ इस संदर्भ में ‘मिट्टी’ शब्द का अर्थ हुआ – ‘मृत शरीर’, ’शव’।
हिंदी में मृत्यु की सूचना देने के लिए बहुत सी शैलियाँ हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :
- शंकराचार्य करपात्री स्वामी ब्रह्मलीन हो गए।
- शर्माजी महीने भर अस्पताल में भर्ती रहे, आज उनका चोला छूट गया।
- सिन्हाजी दिवंगत हो गए।
- अमुक प्रांत के राज्यपाल नहीं रहे।
- उनका नौकर सड़क दुर्घटना में गुजर गया।
- अखंडानंदजी गोलोकवासी हो गए।
- डॉ. सलीम का इंतकाल हो गया।
- मास्टर डेविड की डेथ हो गई।
स्वर्गवासी हो गए, देहांत हो गया, मर गया, शिव सायुज्य को प्राप्त हो गए आदि मृत्यु संबंधी कुछ और भी उक्तियाँ मिलती हैं। इनमें समानार्थकता के साथ-साथ शैलीभेद है। प्रयोक्ता को इनमें से चयन करते समय ध्यान रखना होता है कि मरने वाले का सामाजिक स्तर और महत्व क्या था। प्रयोक्ता का उससे कौन सा आत्मीय या औपचारिक संबंध था। उक्ति वक्ता की मानसिक स्थिति के साथ संदेश देती है।
अंग्रेजी के ‘paper’ शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। संदर्भ के अनुसार
- कागज : छोटा सा पेपर चाहिए, फोन नंबर लिखना है।
- अख़बार : सुनो, अंग्रेजी का पेपर लाकर देना।
- प्रश्नपत्र : परीक्षार्थियों को मैथ का पेपर कठिन लगा।
- अभिलेख : वकील ने न्यायालय में वादी का पेपर तैयार किया।
3.2 विविध
संकेतप्रयोगविज्ञान का दायरा बहुत बड़ा है। इसके अंतर्गत तटस्थ कथन, अप्रत्यक्ष कथन, मुहावरे, कहावतें, प्रहसन/हास परिहास, विज्ञापनों की कथ्य शैली, प्रीतिकर कथन आदि की अपनी भूमिका होती है। इन्हें भाषाओं के सार्वभौम तत्व माना जा सकता है। ट्रेनों में अपरिचित सहयात्रियों से बातचीत की शुरुआत प्रायः तटस्थ कथन से होती है। जैसे “बड़ी गर्मी है” तो अगला बोलता है कि “हां, इस साल पानी कहाँ ठीक से बरसा। गर्मी और बढ़ सकती है”। अप्रत्यक्ष कथन जैसे किसी ने कहा “गाड़ी आ रही है” शायद किसी को सावधान करने के लिए कहा जिसका आशय हुआ कि सड़क मत पार करो, दुर्घटना हो जाएगी अथवा यह आशय हुआ कि भोज पर आमंत्रित मेहमान आ रहे हैं, उनकी गाड़ी दिखी।
भाषिक व्यवहार में अर्थबोध के और भी आयाम हैं—
1) पराभाषिक तत्व – अंगसंचालन, चाक्षुष संपर्क आदि। जैसे (हाथ से इशारा करके) तुम, तुम और तुम मेरे साथ आओ।
आपकी नौकरी कब लगेगी? उत्तर में (हाथ ऊपर करके) हरि इच्छा।
2) अन्वादेश – वह, वे, आप जैसे सर्वनाम पूर्वोक्त संज्ञाओं के बदले प्रयुक्त होते हैं। जैसे-
(i) एक कौआ था। वह बहुत प्यासा था।
(ii) यहाँ सुशीला खड़ी थी, वह कहाँ चली गई?
इन दोनों वाक्यों में ‘वह’ के अर्थ अलग-अलग होंगे।
3) स्थिति निर्देशी अभिव्यक्तियाँ – वहाँ, कहाँ, जहाँ, यहाँ, उधर। जैसे—
(i) तुम वहाँ जाकर बैठो और इधर देखो।
4) आदरार्थक में एकवचन के लिए बहुवचन का प्रयोग। जैसे-
(i) गाँधीजी बड़े आदमी थे, वे गुजरात के रहने वाले थे ।
5) आसन्न भविष्य के लिए आसन्न भूत का प्रयोग। जैसे –
(i) तुम यहीं रहो, मैं अभी आया।
6) सकारात्मक हाँ के लिए नकारात्मक प्रश्नवाचक। जैसे-
(i) तुम मेरे साथ सिनेमा देखने चलोगे?
क्यों नहीं।
7) पूर्वमान्यता और संक्षिप्तता – भाषिक व्यवहार में संप्रेषणपरक संक्षिप्तता का सिद्धांत भी काम करता है। जिसमें कई बातें अनकही रह जाती हैं अथवा पूर्वज्ञात और स्वीकृत मान ली जाती हैं।
सूरजभान सिंह (1985, 6-7) मानते हैं कि “लोकव्यवहार में वाक्य का अंतिम लक्ष्य संदेश संप्रेषण है। संप्रेषण के स्तर पर देखें तो पता चलेगा कि वाक्य की अभिव्यक्ति मात्र ध्वनियों, व्याकरणिक रचनाओं और अर्थतत्वों (भावों) का मिलाजुला रूप नहीं है। वाक्य के पीछे प्रायः एक सामाजिक व्याकरण भी छिपा रहता है जो यह निर्देश देता है कि किस परिवेश या संदर्भ में किस वाक्य या अभिव्यक्ति का प्रयोग उपयुक्त है। इसके अलावा वाक्य में कभी-कभी वक्ता का निजी दृष्टिकोण, मंतव्य या उसकी विशिष्ट अभिवृत्ति (Attitude) भी निहित रहती है। इस संपूर्ण परिवेश में ही वाक्य संप्रेषणीय होता है। वाक्यों की रचना पर कई प्रकार के प्रतिबंध हैं – संरचनागत, अर्थगत, संदर्भगत आदि। वाक्य की बाह्य संरचना के पीछे अर्थ संरचना का एक पूर्ण जाल फैला है। जो कई प्रकार से वाक्य की बाह्य संरचना को प्रभावित और नियंत्रित करता है और जिसकी व्याख्या सामान्य व्याकरणिक नियमों से संभव नहीं”।
3.3 संकेतप्रयोगविज्ञान का संस्कृति पक्ष
संकेतों के प्रयोग में अपनी संस्कृति भी संपृक्त दिखाई देती है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रतीक चिह्न में उगता हुआ सूर्य प्रकाश और ज्ञान के प्रसार का, खिलता हुआ कमल ऐश्वर्य/समृद्धि की देवी कमला अर्थात लक्ष्मी के निवास का प्रतीक और जल जीवन का प्रतीक है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रतीक चिह्न में वीणावादिनी सरस्वती हैं।
अभिनव कुमार मिश्र (2013-14, 55) ने बनारस की बोली काशिका में संबोधन, अभिवादन और भाषिक व्यवहार के अन्यान्य संदर्भों में ‘महादेव’ शब्द के सामाजिक संकेतप्रयोगों का अध्ययन किया है। उदाहरण –
महादेव – संबोधन और नमस्ते।
महादेव-महादेव – (उत्तर में) नमस्ते।
का महादेव – आप कैसे हैं?
महाराजा, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री अथवा किसी विशिष्ट विदेशी मेहमान के आगमन पर दर्शनार्थ उमड़ा जनसैलाब प्रायः ‘हर-हर महादेव’ की हर्ष ध्वनि के साथ उनका स्वागत करता है, ऐसी परंपरा है।
संदर्भ के अनुसार महादेव शब्द का दूसरा अर्थ भी निकल सकता है जैसे- हट जा, महादेव आवत हउन। अर्थात् हट जाओ साँड आ रहा है।
- संकेतप्रयोगविज्ञान का अन्य शास्त्रों से संबंध
वस्तुतः भाषाविज्ञान के सारे अंग-उपांग, सभी शाखाएँ जैसे समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, आदि संकेतप्रयोगविज्ञान के विभिन्न पक्षों से जुड़े हुए हैं। उदाहरणार्थ- समाजशास्त्र के जितने परिवर्त हैं जैसे (आय, आवास, शिक्षा का स्तर) और मनोविज्ञान के जितने परिवर्त हैं जैसे (आईक्यू, चारित्रिक विशेषताएँ, रूमानी मिजाज ) वे सभी संकेतप्रयोगविज्ञान में शामिल हैं। हम सामाजिक व्यक्ति को भाषाई व्यक्ति मानते हैं जिसमें बहुत सारी चीजों को जगह मिलती है। इस प्रकार संकेतप्रयोगविज्ञान एक विशाल तंबू की तरह है जिसमें बहुत सारी चीजों को जगह मिली हुई है। अर्थात् इसके घटकों और परिप्रेक्ष्य का दायरा सीमित होने के बजाय बढ़ता जाता है। पारंपरिक भाषावैज्ञानिक शोध क्षेत्र की जिन समस्याओं से हम लोग दो-चार होते रहे हैं, संकेतप्रयोगविज्ञान ने उन सबको बहुत पीछे छोड़ दिया है, उनका नूतन समाधान देकर। वार्तालाप और उसमें वक्ता तथा श्रोता की भूमिका की अदला-बदली, उनमें तर्क-वितर्क (दर्शनशास्त्र), भाषा-शिक्षण (अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान), मनुष्य और कंप्यूटर के बीच की अंतःक्रिया (कंप्यूटर सॉफ्टवेयर और उसकी स्वरुप संरचना के अतिरिक्त) नृतत्वशास्त्र, मनोचिकित्सा तथा मनोविज्ञान, जनसंचार, शिक्षाशास्त्र आदि से संबद्ध बाहरी समस्याएँ भी संकेतप्रयोगविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र से जुड़ गई हैं।
संकेतप्रयोगविज्ञान का गहरा संबंध है नोऑम चोमस्की की संकल्पना से :-
(1 ) भाषाज्ञान सामर्थ्य (Linguistic Competence)
(2 ) भाषा व्यवहार (Linguistic Performance)
भाषा प्रयोक्ता में भाषा का ज्ञान और उसके प्रयोग संबंधी नियमों का ज्ञान तथा उसके आधार पर भौतिक संसार में संपन्न होने वाला मूर्त व्यवहार संकेतप्रयोगविज्ञान की आधारभूमि है। संकेतप्रयोगविज्ञान के सिद्धांतों से वक्ता और श्रोता में स्थित तर्कपूर्ण समझ शक्ति के विभिन्न आयामों की व्याख्या की जाती है। संकेतप्रयोगविज्ञान की परिभाषा और सीमाओं की व्यापक उहापोह के मूल में है ‘भाषाप्रयोक्ता’।
भाषाप्रयोक्ता का दृष्टिकोण भी बहुत प्रासंगिक है। उसका दृष्टिकोण अपनी भाषा पर आधारित है। ‘सपीर व्होर्फ़‘ के सापेक्षता सिद्धांत के अनुसार किसी भाषा में अभिव्यक्ति संप्रेषण के जो संसाधन मौजूद हैं उन्ही के अधीन वह भाषिक व्यवहार करता है — बोलता समझता है। उसी के अनुसार उसकी समझ और विश्वदृष्टि विकसित होती है, जिससे वह दुनिया को देखता है।
5.संकेतप्रयोगविज्ञान के घटक
5.1 वाक् व्यापार अथवा वचन कर्म
वाक्-घटनाएँ भाषिक व्यवहार की छोटी-छोटी इकाइयाँ हैं। वाक्यों से सामान्य वार्तालाप पूरे होते हैं। वार्तालाप में शामिल व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति के अनुसार वाक्-घटनाओं में भाषा का प्रयोग होता है। सामान्य कथन, प्रश्न, निवेदन, धमकियाँ, वायदे आदि इसके प्रकार भेद हैं। इसलिए इनका अध्ययन समाजभाषाविज्ञान में भी महत्वपूर्ण है। इरविन ट्रिप तथा गंपर्ज़ ने वाक्-घटना को भाषिक संरचना की इकाई माना है। प्रजनक अर्थविज्ञान में इसे भाषा व्यवहार की इकाई माना गया है। क्रिया पदबन्धों में वाक्-घटना की प्रकृति और प्रकार्य संबंधी सूचना मिलती है और उन्हीं में भाषा अथवा बोली रूपायित होती है।
संकेतप्रयोगविज्ञान को स्थापित करने वाले अग्रणी दार्शनिक विद्वान हैं जे. एल. ऑस्टिन, जे. आर. सार्ल और एच. पी. ग्राइस। ऑक्सफोर्ड के दार्शनिक ऑस्टिन ने वाक् व्यापार और वचन कर्म सिद्धांत प्रस्तुत किया। वे गणित और तर्कशास्त्र के विद्वान थे। 1960 में उनकी मृत्यु के बाद उनके व्याख्यानों का संकलन 1962 में प्रकाशित हुआ जिसका निचोड़ है कि शब्दों से कैसे क्या किया जा सकता है। वाक् व्यापार के सैद्धांतिक अध्ययन को वे संकेतप्रयोगविज्ञान के अधीन मानते थे। उन्होंने भाषिक व्यवहार की उपयोगिता को वाक् व्यापार के व्यापक अधिक्षेत्र के रूप में महसूस किया और नैसर्गिक भाषाओं की अभिव्यक्ति में अर्थ को आधारभूत तत्व माना। ऑक्सफोर्ड में उन्हीं के शिष्य रहे जे. आर. सार्ल ने उनके विचारों को बाद के वर्षों में परिष्कृत और व्यवस्थित करके आगे बढ़ाया। वाक् व्यापार सिद्धांत का मूल है—सामाजिक संस्था और परंपरा के अधीन किसी वाक्य की उक्ति जिससे कर्म संपन्न होता है। ऑस्टिन ने वाक् व्यापारों को कुछ कहे में संपादित कर्म के रूप में परिभाषित किया।
कुछ कहने में हम कुछ कर रहे होते हैं। जैसे कोई पादरी किसी बच्चे के सिर पर जल की बूँदे छिड़कर तत्संबंधी शब्दावली बोलता है तो यह उक्ति वाक् व्यापार तो है ही साथ ही यह बपतिस्मा का कर्म भी है।
वाक् व्यापार का विश्लेषण तीन भिन्न स्तरों पर किया जा सकता है –
1) वाच्य सामान्य\ भाषिक वचन कर्म ( Locutionary speech act)
2) वाच्यवृत्ति\ भाषेतर वचन कर्म (Illocutionary speech act)
3) वाच्य संरक्षण\अनुपालक वचन कर्म (Perlocutionary speech act)
पहले का संबंध भाषा के संरचनात्मक गठन अर्थात ‘क्या कहा गया है’ से है, दूसरे का अभिव्यक्त भाषा में निहित अर्थों से है जो बड़ी सीमा तक उक्ति की वृत्तिकता (modality) से परिचालित है जैसे – आदेश देना, वादा करना, नामकरण करना, अपने अनुभव प्रस्तुत करना आदि। और तीसरे का संबंध अभिव्यक्त उदगारों की अनुपालना से है। अर्थात् श्रोता द्वारा उस उक्ति में निर्दिष्ट कार्य के अनुपालन से है। वाक् व्यापार के अंतर्गत पांच प्रकार की संप्रेषण कियाएँ होती हैं –
1) निदेशात्मक (Directives) – आप यहाँ बैठिए।
2) प्रतिबद्धतात्मक (Commissives) – मैं कल तुम्हें बाजार ले चलूँगा।
3) भावात्मक (Expressives) – मैं आपका आभारी हूँ।
4) कथनात्मक (Declarations) – आज से आप भीष्म कहलाएँगे
5) प्रतिनिधानात्मक (Representatives) – इस साल बारिश सामान्य रहेगी।
परवर्ती विद्वान एच. पी. ग्राइस (1975) ने अर्थ और उसके संप्रेषण पर विचार करते हुए वार्तालाप गत निहितार्थ का सिद्धांत प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार वार्तालाप और उसके निहितार्थ में संबंध है और अंतर भी है। बाहर की दुनिया में जो हो रहा है वह नैसर्गिक अर्थ है। उसकी अभिव्यक्ति भाषिक उक्तियों में होती है वह नैसर्गिक अर्थ नहीं है। अर्थ के विश्लेषण में उन्होंने वक्ता के अभिप्रेत अर्थ को महत्वपूर्ण माना। वे वार्तालाप में तार्किकता को बहुत महत्व देते हैं। उनका कहना है कि उच्चारों का आशय समझने में वक्ता और श्रोता के बीच एक अघोषित सहकारिता का सिद्धांत (Co-operative Principle) काम करता है क्योंकि संप्रेषण दोनों का साझा उद्देश्य है। इसमें कुछ नियम काम करते हैं जिन्हें मानना वक्ता के लिए अपेक्षित होता है। ग्राइस ने इन विवक्षा सूत्रों के अधीन निम्नलिखित नियमों की पहचान की है :
(1) गुण (Qualitiy) : ऐसा कुछ न कहें जिसका प्रमाण नहीं है, मत कहिए जिसे आप मानते हैं कि झूठ है।
(2) संबंध (Relation) : वही कहिए जो प्रासंगिक हो।
(3) परिमाण (Quantity) : जितनी अपेक्षित हो उतनी ही सूचना दीजिए, उससे अधिक नहीं।
(4) रीति (Manner): संक्षेप में व्यवस्थित बोलें, अस्पष्टता और भ्रामकता से बचें।
ग्राइस कहते हैं कि वार्तालाप में प्राय: इन सूत्रों का उल्लंघन होता है। इनमें किसी भी एकाधिक सूत्र का उल्लंघन किए जाने पर भाषिक अर्थ के स्थान पर निहितार्थ व्यंजित होता है। जैसे गुण (Quality) सूत्र का उल्लंघन करते हुए जब आप किसी मूर्ख व्यक्ति से कहते हैं कि ‘आप तो जीनियस हैं’ तो यह निहितार्थ व्यक्त होता है कि आप परममूर्ख हैं। ऐसे ही जब आप परिमाण सूत्र का उल्लंघन करते हुए किसी से पूछते है कि ‘क्या आप यात्रा से लौट आए और मेरा काम कर दिया’ वे उत्तर दें कि ‘मैं यात्रा से लौट आया’ से यह निहितार्थ निकलेगा कि आपका काम नहीं किया। संबंध सूत्र का उल्लंघन करते हुए यदि कोई किसी से यह पूछने पर कि ‘क्या मैं आपका स्कूटर ले जा सकता हूँ’, वह उत्तर दे कि ‘मुझे अभी अत्यावश्यक काम से जाना है’ का निहितार्थ होगा कि मैं आपको स्कूटर नहीं दे सकता।
वार्तालाप में वक्ता और श्रोता का होना प्राय: अनिवार्य है। इस संदर्भ में यह महत्वपूर्ण होता है कि कौन किससे बात करता है, दोनों में संबंध क्या है, उनकी स्थिति में कितना अन्तर है। अर्थात् कब, कहाँ, किस उद्देश्य से बात कर रहे हैं। जैसे—दोनों सहपाठी हैं कक्षा में बातें कर रहे हैं अथवा खिलाड़ी हैं खेल के मैदान में बातें कर रहे हैं या फिर दोनों ट्रेन में अपरिचित सहयात्री हैं या कार्यालय में अधिकारी और अधीनस्थ कर्मचारी हैं। शादी-विवाह के समारोह में शामिल हैं अथवा शवदाह-संस्कार में शामिल हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न सामाजिक संदर्भों का तथा परिवेश का भाषिक व्यवहार पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता है।
सामाजिक परिवेश में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्थिति व हैसियत का आकलन करना होता है। समाज में एक दूसरे की हैसियत सुनिश्चित करने वाले परिवर्त बहुतेरे होते हैं। गुणात्मक विशेषताएँ — आयु, लिंग, रिश्ते-नाते वाले संबंध, व्यवसाय, सम्पत्ति, शिक्षा, धर्म, पारिवारिक स्थिति। इसके अतिरिक्त स्थान, विषयवस्तु, किसी तीसरे अन्य व्यक्ति की उपस्थिति, समय, हालात भी बड़े प्रभावकारी तथा कारगर परिवर्त होते हैं।
भाषिक व्यवहार में हम सर्वनामों, क्रियारूपों, संबोधन शब्दावली का चयन करके दूसरों के प्रति अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं, इसमें एकजुटता, शक्ति, दूरी, आदर, निकटता/ आत्मीयता और सामाजिक परंपराओं की जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
6.1 भाषिक व्यवहार में शिष्टता/ विनम्रता
भाषिक व्यवहार में नम्रता/ शिष्टता का अत्यधिक महत्व है। शिष्टता के निर्वाह में अतिरिक्त खर्च कुछ नहीं होता बल्कि लाभ अच्छा खासा मिलता है। यह भाषिक व्यवहार की नैतिक आचार संहिता में शामिल है। कोई व्यक्ति बातचीत में खासा दक्ष और गुणी है तो वह प्रशंसित होता है। जो व्यक्ति नियमों का पालन करता है वह उत्तम व्यक्ति होता है और दूसरों को धोखा नहीं देता।
अब प्रश्न यह उठता है कि शिष्ट भाषिक व्यवहार से क्या आशय है? सेना में अधिकारी का आदेश न तो शिष्ट है और न तो अशिष्ट है। आदेश का पालन होना चाहिए यह वांछनीय है। हानि-लाभ का पैमाना भी इसमें काम करता है। यदि सम्बोधित व्यक्ति के हित में है तो सामान्य आदेश कि – “एक लड्डू और लीजिए/ले लो” भी एक शिष्ट भाषिक व्यवहार माना जाएगा।
औचित्य की समझ होना और उसका निर्वाह करना सफल संप्रेषण की आवश्यक शर्त है। डेल हाइम्स मानते हैं कि केवल भाषिक ज्ञान सामर्थ्य से काम नहीं चलता उसके साथ औचित्य का भी ज्ञान होना चाहिए और परिस्थिति विशेष में उसका सही प्रयोग संप्रेषण को धार देता है। किसी सभा में यदि अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी हो तो अध्यक्ष से अनुमति लेकर बोलना अच्छा माना जाता है। कुछ व्यवहार रूप एक संस्कृति में अच्छे माने जाते हैं जबकि दूसरी संस्कृति में अच्छे नहीं माने जाते।
सकारात्मक शिष्टता की रणनीति है कि अगले से असहमति की बजाय सहमति प्राप्त कर ली जाए। असहमति से विवाद और झगड़े बढ़ते हैं, अशांति की स्थिति में अपना मन भी अशांत हो जाता है। सकारात्मक शिष्टता की रणनीति के तहत ही कबीर ने कहा है कि—
एक ने कही दूसरे ने मानी ।
कहें कबीर कि दोनों ज्ञानी ।।
भाषा में लोग विभिन्न मात्रा में नम्रता की अभिव्यक्ति करते हैं। जीवन में हानि-लाभ, नफा-नुकसान बहुत हद तक इस पर निर्भर करता है। प्रायः अपने से बड़े लोगों का आदर करने की परंपरा सर्वत्र है। अपरिचित लोगों के साथ भी औपचारिक अवसरों पर नम्र होना चाहिए। नम्रता में भी अधिक्रम होता है जो एक भाषा से दूसरी भाषा में भिन्न रूप में व्यक्त होता है। जैसे, हिंदी में—
आप………..आइए, सुनिए, देखिए
तुम…………….आओ, सुनो, देखो
तू…………………आ, सुन, देख
अंग्रेज़ी में इस तरह के तीन प्रकार नहीं होते, एक ही प्रकार रहता है लेकिन सर, प्लीज, योर ऑनर, माई लॉर्ड वगैरह के प्रयोग द्वारा आदर की अभिव्यक्ति होती है। कार्यालयों में, सार्वजनिक स्थानों में, औपचारिक बैठकों में अथवा सामाजिक समारोहों में बैठने की व्यवस्था में प्रोटोकॉल का ध्यान रखना होता है।
6.2 भाषिक व्यवहार में अभद्रता
समाजभाषिक परिस्थितियों में हमेशा नम्र ही रहा जाए ऐसा कोई आवश्यक नहीं है। विशेष अवसरों पर अभद्र भी हुआ जा सकता है। अभद्रता का भी अपना एक औचित्य है तथा यह भी भाषिक व्यवहार की रणनीति का एक हिस्सा है।
समाज के लोगों में लड़ाई-झगड़ा होता रहता है। जरूरत के अनुसार गालियाँ भी खूब दी जाती हैं। मुंशी प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में कहीं जिक्र किया है की किसी की दी हुई गाली को अगले व्यक्ति द्वारा प्रतिउत्तर में दी गई गाली कितनी अधिक ऊँचाई से काटती है, इस बात का भी प्रभाव होता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में इस बात का उल्लेख किया है कि जनकपुर में भगवान राम के बाराती लोग भोजन कर रहे हैं और वहाँ की महिलाएँ गीत गा-गा कर उन्हें मधुर गालियाँ सुना रही हैं।
वस्तुतः हल्की-फुल्की गालियाँ तो रोजमर्रा के भाषिक व्यवहार को सरस बनाती रहती हैं। भाषिक व्यवहार में की गई थोड़ी-बहुत अभद्रता वक्ता और श्रोता के अनौपचारिक एवं अत्यन्त आत्मीय संबंधों को अभिव्यक्त करती है। जैसे- आजकल समवयस्क घनिष्ठ मित्र प्रायः पारस्परिक वार्तालाप में अबे, साले, कमीने, हरामी आदि गालियों का भी प्रयोग करते हैं।
इस प्रकार हमने देखा कि संकेतप्रयोगविज्ञान प्रतीकों और उनके प्रयोगकर्ताओं के संबंधों का अध्ययन है। इस ने भाषा को उसकी अभिव्यक्ति और उसकी अभिव्यक्ति के परिवेश से जोड़ा है। संकेतप्रयोगविज्ञान के प्रभाव ने भाषा विश्लेषण पद्धति के पारंपरिक दायरों को तोड़कर विस्तृत और बहुआयामी बनाया है। इस कारण अब भाषिक अध्ययन में भाषा के प्रायोगिक पक्ष पर सर्वाधिक ज़ोर दिया जाने लगा है।
- निष्कर्ष
संप्रेषण में इधर उधर से कई चीजें जुडी होती है जिनसे कई जटिल समस्याएं होती हैं। वस्तुतः भाषाज्ञान एक चीज है और भाषा का प्रयोग बिल्कुल दूसरी चीज है। कोई सूचना कोडीकृत है, कोई सूचना कोडीकृत नहीं है। दोनों में अंतर है फिर भी दोनों में पूरा तालमेल होना आवश्यक है। संकेतप्रयोगविज्ञान के सिद्धांत सामान्यतया संज्ञानात्मक सिद्धांत हैं जिनसे हम विवेकपूर्ण रणनीति अपनाकर सूचना तंत्र को विकसित और समृद्ध बनाते हैं। हम वैकल्पिक संरचना का चयन भी करते हैं जिससे आशय समझना संभव हो सके। संप्रेषण की प्रक्रिया में हम जान पाते हैं कि भाषाज्ञान क्या होता है? इस बिंदु पर घमासान विवाद है कि हमारी भाषिक क्षमता की क्या स्थिति है? क्या वह ज्ञान का स्थाई कोश है अथवा हमारी क्षमता भाषा की गतिशील संरचना की समझ पर आधारित है जिससे किसी वाक् घटना का आशय समझ पाते हैं। पक्ष विपक्ष में चाहे जितने तर्क वितर्क हों, सहमति असहमति हो लेकिन एक बात तो तय है कि लोगों द्वारा भाषा का व्यवहार कैसे किया जाता है, यही भाषा वैज्ञानिक अध्ययन का केंद्र बिंदु है।
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अतिरिक्त जानें
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अंतःक्रिया (Interaction)
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अवमानना (Humiliation)
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संकेतप्रयोगविज्ञान (Pragmatics)
संज्ञान (Cognition)
संपृक्तार्थ, लक्षणा (Connotation)
संबोधन शब्दावली (Address terms)
पुस्तकें
- Austin, J. L. 1962 How to Do Things with Words, Oxford, Clarendon Press
- Brown, P. & Levinson. 1987 Politeness: Some Universals in Language Usage, Cambridge, Cambridge University Press.
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वेब लिंक
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http://study.com/academy/lesson/what-is-pragmatics-definition-examples.html