35 भाषाभूगोल

रामबख्‍श मिश्र

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्‍य
  2. प्रस्‍तावना
  3. भाषाभूगोल, बोलीविज्ञान, सामाजिक बोलीविज्ञान
  4. हिंदी का भौगोलिक क्षेत्र विस्तार, वंशवृक्ष
  5. केंद्रिक क्षेत्र, अवशिष्‍ट क्षेत्र, संक्रमण क्षेत्र की अवधारणा
  6. भाषा सर्वेक्षण
  7. भाषा/ बोली मानचित्रावली,सममाषांश रेखा/रेखासमूह
  8. बोली कोश तथा व्याकरण
  9. निष्‍कर्ष 
  1. पाठ का उद्देश्‍य

    इस पाठ के अध्‍ययन के उपरांत आप-

  • भाषा के भौगो‍लिक आयाम और उससे जुड़े विभिन्‍न पक्षों को जान सकेंगे।
  • देखेंगे कि भाषा की पहचान उसके भौगोलिक क्षेत्र विस्‍तार से कैसे होती है?
  • जानेंगे कि भाषाक्षेत्र के विभिन्न अंचलों में क्षेत्रीय बोलियाँ बोली जाती हैं, उनमें उच्चारण, व्याकरण और अर्थ में भी अंतर पाया जाता है फिर भी उनमें बोधगम्‍यता बनी रहती है।
  • भाषाभूगोल को समझकर आप भाषा के कई व्‍यावहारिक पहलुओं को समझ सकेंगे। 
  1. प्रस्‍तावना

   भाषा विज्ञान की विकसित शाखाओं में भाषाभूगोल बहुत महत्‍वपूर्ण है। कोई भी भाषा अपनी क्षेत्रीय बोलियों और उनकी उपबोलियों में रुपायित होती है उसका भौगोलिक क्षेत्र विस्तार जितना बड़ा होगा उसी अनुपात में उसकी बोलियां और उपबोलियां भी अधिक होंगी।  किसी भाषा का क्षेत्र विस्‍तार कई प्रांतों अथवा कई देशों में हो सकता है। तमिल भाषा तमिलनाडु से श्रीलंका तक विस्‍तृत है। बंगला भारतीय भाषा तो है ही, बंगलादेश की राष्‍ट्रभाषा है। इसी तरह आर्यभाषा उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है। नेपाली, कश्‍मीरी, पंजाबी, सिंधी, उर्दू आदि की क्षेत्रीय बोलियाँ देश के भीतर और बाहर भी हैं। हिंदी भाषा बोलियों की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। इसमें लगभग दो दर्जन प्रमुख बोलियाँ और उनके अधीन सैकड़ों उपबोलियाँ हैं।

 

अंग्रेजी भाषा के भौगोलिक क्षेत्रीय भेद अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर हैं। न्‍यूजीलैंड, आस्‍ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, सिंगापुर, भारतवर्ष आदि में अंग्रेजी में भौगोलिक दूरी के अधीन क्षेत्रीय रूपभेद विकसित हो गए हैं। आज अमेरिकी अंग्रेजी का स्‍वतंत्र वजूद विकसित हो गया है, बेटी माँ से बड़ी हो गई है। इसका आधार भी भौगोलिक है।

 

भाषा की पहचान उसकी भाषिक गुणवत्ता मात्र से नहीं होती, कई बार राजनीतिक और सामाजिक, सांस्कृतिक कारकों की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण तथा निर्णायक होती है, यथा स्कैंडिनेवियाई भाषाओं में बोधगम्यता में कोई कठिनाई नहीं होती। नार्वेजियन, स्वेडिश, डैनिश भाषाभाषी लोग परस्पर एक दूसरे की भाषाएँ समझ लेते हैं। ये अलग-अलग देशों की राष्‍ट्रभाषाएँ हैं फिर भी इनमें पर्याप्‍त समानता और बोधगम्यता पाई जाती है, मानो ये सभी एक ही भाषा की बोलियाँ हों। जबकि चीनी भाषा की तथाकथित बोलियाँ एक दूसरे से इतनी भिन्न हैं कि उनके बोलने वाले एक दूसरे की भाषा नहीं समझ पाते। शुद्ध पारस्परिक अबोधगम्यता के आधार पर उन्हें भिन्न-भिन्न भाषाएँ माना जा सकता है लेकिन चीन की राजभाषा नीति के अधीन वे सभी एक ही भाषा चीनी की बोलियाँ मानी जाती हैं।

  1. (1) भाषाभूगोल, बोलीविज्ञान, सामाजिक बोलीविज्ञान

   भाषाभूगोल में किसी निश्चित भाषा समुदाय के अंतर्गत भाषिक अंतरों-विभिन्नताओं तथा समानताओं के फैलाव तथा वितरण का अध्ययन किया जाता है।

 

भाषागत भेद और विकल्पन दोनों ही इसके अध्ययन की विषयवस्तु हैं, यह निर्विवाद है। एक सीमित अर्थ में हम कह सकते हैं कि बोलियाँ क्षेत्रीय और सामाजिक होती हैं, पहली क्षितिजीय और दूसरी अधिक्रमपरक—

 

 

बोलीविज्ञान अपने में क्षेत्रीय तथा सामाजिक दोनों प्रकार के अध्ययन को समाविष्‍ट कर लेता है जबकि भाषाभूगोल का क्षेत्र केवल क्षेत्रीय बोली तक सीमित है।

 

भाषाएँ अपनी बोलियों में रूपायित होती हैं, जैसे रुपया सिक्कों में। बोलियाँ भाषा का महत्वपूर्ण अंश होती हैं। बोली ही भाषा बनती है। कालांतर में किसी भाषा की क्षेत्रीय बोलियों में अलगाव बढता जाता है और वे स्वंतत्र भाषाओं के रूप में विकसित हो जाती हैं। भाषाओं और बोलियों को समझने में भाषाभूगोल की महत्वपूर्ण भूमिका है। किसी क्षेत्र विशेष में भाषिक अभिलक्षणों का वितरण मानचित्र पर दिखाया जाता है। उस क्षेत्र में प्रतिद्वंद्वी वैकल्पिक अभिलक्षण भी पाए जाते हैं। भाषिक मानचित्र/एटलस भाषाओं के भौगोलिक अध्ययन में आवश्यक उपकरण सिद्ध होते हैं। बोली भूगोल उन भाषायी लक्षणों के पूर्ववर्ती विस्तार के साक्ष्य देता है जो इस समय केवल अवशेष रूप में ही मिलते हैं।

 

भाषाभूगोल के अध्ययन का इतिहास पुराना है। यूरोप में भाषाभूगोल के अध्ययन की परंपरा 1880 के दशक से है। जर्मनी के जार्ज वेंकर (Wenker) ने मानक जर्मन भाषा के कुछ वाक्यों की सूची स्कूली अध्यापकों को भेजकर स्थानीय बोली में प्रतिलेखन करा लिया। पचास हजार में से 45,000 अध्यापकों ने कार्य पूरा करके लौटाया। वेंकर का यह काम राष्‍ट्रीय स्तर का है जिसमें हाथ से बनी भाषिक मानचित्रावली भी प्रकाशित हुई। डेनमार्क में Marius Kristensen ने अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना 1912 में पूरी की। फ्रांस में निदेशक ज्यूलस गिलिएरॉन (Gillieron) का भाषासर्वेक्षण सुप्रसिद्ध बोलीवैज्ञानिक एडमोंट (Edmont) की सहायता से प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं द्वारा 1910 तक संपन्न हुआ, जो तेरह खंडों में प्रकाशित है। यह बड़े महत्व का और दूरगामी परिणामवाला सिद्ध हुआ। बाद में हैंस कुरथ (Hans Kurath) के निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य प्रकाशित हुए-

 

(i) The Linguistic Atlas of the United States and Canada.

(ii) The Linguistic Atlas of New England (with Handbook).

 

इन सबके फलस्वरूप राष्‍ट्रीय स्तर के बड़े सर्वेक्षण इटली, स्विट्ज़रलैंड, स्पेन, रोमानिया, युनाइटेड स्टेट्स, इंग्लैंड और भारत में शुरू हुए और पूरे हुए।

 

भाषाभूगोल की अध्ययन परंपरा पर आधारित  बोलीविज्ञान (Dialectology) एक स्वतंत्र अनुशासन के रूप में स्थापित हो गया है। पार्श्‍व में और इसके भीतर सामाजिक बोली विज्ञान (Social Dialectology) का विकास हो गया है। जिसमें शहरी (Urban) और ग्रामीण (Rural) बोलीविज्ञान भी शामिल हैं। सामाजिक बोली रूप संस्कृत में मिलते हैं। कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ नाटक में कुलीन संभ्रांत लोग संस्कृत बोलते हैं जबकि स्त्री पात्र,भृत्य तथा सेवक आदि प्राकृत बोलते हैं। भाषा के उच्च कोड के रूप में संस्कृत का ही व्यवहार होता रहा है। इस प्रकार मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं और संस्कृत के बीच डाइग्लोसिया की स्थिति बनी रही।

 

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भाषा की सामाजिक बोली का व्यवस्थित अध्ययन प्रारंभ हुआ। अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में बोली जाने वाली अंग्रेज़ी भाषा में सामाजिक स्तर भेद का शोधपरक अध्ययन करने का श्रेय विलियम लेबॉव(1966) को है। उनकी महत्वपूर्ण कृति से एक नए प्रकार के शोधकार्य का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसके सादृश्य पर इंग्लैंड के नॉरविच शहर की अंग्रेजी भाषा में सामाजिक भेदों पर शोध पीटर ट्रडगिल (1974) ने किया। वुल्फ्राम और फ़सोल्ड(1974) ने अमेरिकी अंग्रेज़ी की सामाजिक बोलियों का और जे. वेंकटेश्‍वर शास्त्री(1994) ने तेलुगु बोलियों का अध्ययन किया।

 

इन सबसे यह बात स्थापित हो गई कि भाषाओं में भौगोलिक अध्ययन के साथ-साथ सामाजिक बोलियों के अध्ययन की भी अहमियत है। भारतीय भाषावैज्ञानिकों द्वारा भी इस दिशा में शोधकार्य आरंभ किया गया।

 

चैम्बर्स और ट्रडगिल(1998,20) के अनुसार भाषाविज्ञान में सर्वाधिक डाटापरक अध्ययन करने वाली शाखा है बोलीविज्ञान। भौगोलिक और समाजभाषिक महत्व की प्रभूत सामग्री का अध्ययन विश्‍लेषण का कार्य बड़े पुरुषार्थ का है जो संपादक के समय और मानवीय क्षमता से बहुत अधिक का होता है।

 

(2)  हिंदी का भौगोलिक क्षेत्र विस्तार

हिंदी का क्षेत्र देश का ह्रदय क्षेत्र है। हिमाचल प्रदेश, पंजाब का कुछ भाग, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड हिंदीभाषी प्रदेश कहलाते हैं। इस हृदय क्षेत्र के बाहर दक्षिण एशिया के बहुत बड़े भू-भाग में हिंदी जनभाषा (Lingua-franca) के रूप में व्यवहृत हो रही है। दक्षिण एशिया के बाहर हिंदी अंतरराष्‍ट्रीय भाषा के रूप में मान्य है। दिनोंदिन हिंदी जाननेवालों की संख्या में वृद्धि और क्षेत्र में विस्तार हो रहा है।

 

 

मोटे रूप में हिंदी पश्चिमी और पूर्वी भौगोलिक क्षेत्रों में विभक्‍त है इसकी पांच उपभाषाएँ हैं जिनकी अपनी-अपनी बोलियाँ हैं। उनका विवरण निम्नलिखित है:

 

भाषा           उपभाषा                      बोलियां

हिंदी           1. पश्चिमी हिंदी               1) खड़ीबोली

                                                    2) ब्रजभाषा

                                                    3) हरियाणवी

                                                    4) बुंदेली

                                                    5) कनौजी

                  2. पूर्वी हिंदी                 1) अवधी

                                                    2) बघेली

                                                    3) छत्तीसगढ़ी

                  3. राजस्थानी                1) मारवाड़ी

                                                    2) मेवाती

                                                    3) जयपुरी

                                                    4) मालवी

                  4. पहाड़ी                     1) पश्चिमी पहाड़ी

                                                    2) मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमायूँनी-गढ़वाली)

                 5. बिहारी                     1) भोजपुरी

                                                   2) मगही

                                                   3) मैथिली

 

इन बोलियों के नामकरण का आधार प्रायः भौगोलिक हैं।

 

वंशवृक्ष (Stammbaum) – वंशवृक्ष से भाषाओं की शाखाओं-प्रशाखाओं के विकास और विस्तार को समझने में आसानी होती है। यह किसी भाषा की शाखाओं-प्रशाखाओं के विकास और अपसरण को प्रदर्शित करने की पारंपरिक विधि है। एक मूलभाषा से विकसित होने वाली बोलियों में देशकाल से अंतर बढ़ता जाता है जिनके समुच्चय से उनकी पहचान स्वतंत्र भाषाओं के रूप में होने लगती है। वंशवृक्ष आरेख से भाषाओं की शाखाओं-प्रशाखाओं के विकास और विस्तार को समझने में आसानी होती है और यह पता चलता है कि कौन-कौन सी भाषाएँ सगी बहनें हैं, कौन चचेरी अथवा बहुत दूर की हैं। साथ ही यह भी कि बेटी, पोती और परपोती भाषाओं की आनुवंशिक संबद्धता का कालक्रमिक स्तर और अनुपात क्या और कितना है। ब्लूमफ़ील्ड (2005,312) ने प्राचीन भारोपीय भाषावृक्ष का आरेख दिया है और हरदेव बाहरी (2013,108) ने राजस्थानी का —

 

  1. केंद्रिक क्षेत्र, अवशिष्‍ट क्षेत्र, संक्रमण क्षेत्र

    (1) केंद्रिक क्षेत्रभाषा के विस्तार में सभी क्षेत्र समान महत्व के नहीं होते। किन्ही विशिष्‍ट कारणों से कोई क्षेत्र अधिक महत्व का हो जाता है तो कोई कम। किसी भाषा के भौगोलिक क्षेत्र में वह क्षेत्र केंद्रिक क्षेत्र होता है जहाँ से नवीन अन्‍वेषणों तथा परिवर्तनों का फैलाव शुरू होता है। ऐसे केंद्र प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जैसे कोई राजधानी है तो वह सत्ता का पर्याय बन जाती है। उदाहरण के रूप में वाराणसी को लें। यह प्राचीन परंतु जीवंत शहर है। यहाँ धर्म तथा अध्यात्म की परंपरा है, महादेव शिव और गंगा इस शहर की प्राणधारा हैं। अंतरराष्‍ट्रीय स्तर का काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्‍वविद्यालय, केंद्रीय तिब्बती विश्‍वविद्यालय और कॉलेजों की वजह से यह शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र है। वाराणसी पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार तथा झारखंड आदि का मुख्य व्यावसायिक केंद्र है तथा राजनैतिक नेतृत्व आदि के कारण यह विशिष्‍ट केंद्र के रूप में स्थापित है। अतः यह नए रूपों के उद्भव और विस्तार का स्रोत है। इसलिए इसे केंद्रिक क्षेत्र कहा जा सकता है।

 

कैलाशचंद्र भाटिया (1973,140) के अनुसार अगर समभाषांश रेखाएँ गुच्छरूप में समान या असमान दूरी के साथ समीप आ जाती हैं और किसी एक स्थान को लक्ष्य करती हुई उसके चतुर्दिक रहती हैं तो उस विशिष्‍ट स्थान को केंद्रीय क्षेत्र कहा जाता है। यह केंद्र राजनीतिक, व्‍यावसायिक, सांस्कृतिक तथा औद्योगिक आदि आधारों पर बनता है। जैसेकि नई दिल्ली राजनीतिक, मुंबई व्यावसायिक, वाराणसी सांस्कृतिक, कानपुर औद्योगिक दृष्टि से केन्द्रीय हैं। 

 

 

(2) अवशिष्‍ट क्षेत्र अवशिष्‍ट क्षेत्र के अंतर्गत वे क्षेत्र आते हैं जो केंद्रिक क्षेत्र के प्रभाव से अछूते रह जाते हैं। भाषिक दृष्टि से ये वे क्षेत्र होते हैं जहाँ भाषा का अपेक्षाकृत प्राचीन, शुद्ध रूप बचा हुआ है। तालाब में फेंका एक पत्थर जहाँ गिरेगा पानी की लहरें वहां से चारों ओर फैलने लगेंगी लेकिन दूरी बढ़ने के साथ धीरे-धीरे कमजोर होती जाएंगी। इसी प्रकार दूर-दराज के क्षेत्र नूतन प्रभाव से वंचित रह जाते हैं। ऐसे क्षेत्रों में आधुनिक सुख सुविधाओं का खासा अभाव रहता है। स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बैंक, पोस्ट ऑफिस, आवागमन के साधन, सड़क और रेल की सुविधाएँ नगण्य रहती हैं। प्राकृतिक विपदाएँ गरीबी, महामारी, अंधविश्‍वास, पिछड़ापन आदि अवशिष्‍ट क्षेत्रों में अधिक पाए जाते हैं। अवशेष का तात्पर्य है छूटा या बचा हुआ। खेत की जुताई में कोने की थोड़ी जमीन छूट जाती है जिसे फावड़े से कोड़ना पड़ता है। ऐसे अवशिष्‍ट क्षेत्र दुर्गम पहाड़ी वन क्षेत्रों में पाए जाते हैं। सरकारी अफसर भी वहां जाना और रहना पसंद नहीं करते। इन क्षेत्रों में हर स्तर पर विकास की गति अत्यंत धीमी होती है लेकिन भाषा के प्राचीन रूप अधिक सुरक्षित मिलते हैं। प्राचीन लक्षणों का अब तक बना रहना नए रूपों की अपेक्षा अधिक सरलता से अंकित होता है। बोली भूगोल की सबसे अधिक सामग्री अवशेष रूपों द्वारा दी जाती है जोकि भाषा के प्राचीनतर लक्षणों के साक्षी है। वे रूप प्रायः दूरवर्ती, छोटे और असंबद्ध क्षेत्रों में मिलते हैं।

 

द्रविड़ परिवार की एक भाषा ब्राहुई दक्षिण भारत के मुख्य क्षेत्र से बहुत दूर पाकिस्तान में जीवित बची हुई है। मध्य पूर्व भारत में द्रविड़ परिवार की माल्टो, कुड़ुख, कुईकुवि, गदबा, पारजी, गोंडी, कोलामी, नाइकी, पेंगो, कोंडा, मांडा आदि और आस्ट्रोएशियाई परिवार की, मुंडारी, हो, खड़िया, भूमिज, करमाली, महली, कोरक, जुवांग, शबर, सोरा, गुतोब आदि तथा हिमालय की लंबी पट्टी में अनेक अल्पसंख्यक लिपिविहीन भाषाएँ हैं। देश के बँटवारे के समय लाखों की संख्या में सिंधी आए, बाद में काफी संख्या में तिब्बती आए। ये भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बसे हुए हैं और अपनी भाषाएँ बोलते हैं। अवशेष का एक आयाम यह भी है।

 

कैलाशचन्द्र भाटिया (1973-142) के अनुसार बोली भूगोल की सहायता से सबसे अच्छी सामग्री अवशिष्‍ट रूपों की दी जाती है जोकि भाषा के किसी प्राचीनतर रूप को हमारे समक्ष प्रकट करते हैं। किसी भाषा के क्षेत्र में कुछ भूभाग ऐसा हो सकता है जहाँ प्राचीनरूप स्थिर बने रहें और शेष स्थानों पर नवीन रूपों का प्रचार प्रसार हो जाए। जो भी आदिम रूप मिलते हैं वे किसी सीमित क्षेत्र तक ही रहते हैं, नवीन रूपों के सामने कुछ लोग उनको गँवारू अप्रचलित तक कह देते हैं। जब कोई ऐसा केंद्र बच जाए जिसको छोड़ते हुए चारों ओर से समभाषांश रेखाएँ निकल जाएँ तो वह क्षेत्र अवशिष्‍ट क्षेत्र कहलाता है।

 

(3) संक्रमण क्षेत्र पास-पास भौगोलिक क्षेत्रों में प्रयुक्‍त होने के कारण कुछ भाषाएँ एक दूसरे के संपर्क में रहती हैं। सीमाक्षेत्रों में उनमें अंतरव्याप्ति दिखलाई पड़ती है। जैसे जाड़ा, गर्मी और वर्षा ऋतुएं एक दूसरे की अवधि में प्रवेश करती और घटती-बढ़ती रहती हैं, वैसे ही दो भाषाओं के बीच संक्रमण क्षेत्र बन जाते हैं। वहां पर लंबी पट्टी के दायरे में दोनों रूप मिश्रित और वैकल्पिक रूप में प्रयुक्‍त होते हैं। जैसे दिल्ली की हिंदी पर पंजाबी का और दरभंगा की हिंदी पर बंगला का प्रभाव है। अर्थात भाषा का जैसा रूप केंद्रिक क्षेत्र में होता है वैसा सीमावर्ती क्षेत्र में नहीं होता।

  1. भाषा-सर्वेक्षण

   भाषा-भूगोल का सीधा संबंध भाषा सर्वेक्षण की प्रक्रिया से है। भाषा सर्वेक्षण से प्राप्‍त सामग्री व तथ्यों के आधार पर किसी भाषा का ऐतिहासिक विकास समझा जा सकता है।

 

‘भाषा समुदाय’ से तात्पर्य किसी भाषा के उस क्षेत्र विशेष से है जिसमें भाषिक स्तर पर सहजरूप से पारस्परिक बोधगम्यता बनी रहती है। वहाँ पर एक छोर से दूसरे छोर की ओर चलें तो बोलियों में बोधगम्यता बनी रहती है जिसे बोली सातत्य (Dialect Continuum) कहा जाता है। लेकिन यदि दोनों छोरों पर देखा जाए तो अंतर इतना बढ़ जाता है कि आपसी बोधगम्यता का अभाव होने लगता है। ऐसी जगहों से दूसरी भाषा का क्षेत्र शुरू हो जाता है। दूसरे छोर पर स्थित भाषा की पड़ोसी भाषा से बोधगम्यता तो बनी रहती है और दोनों के मध्य संक्रमण की स्थिति धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। यह स्थिति भारत की अनेक भाषाओं की सीमाओं पर देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए मैथिली भाषाभाषियों के लिए बंगला अधिक बोधगम्य है लेकिन राजस्थान की मारवाड़ी बोली बहुत कम बोधगम्य है।

 

बोली के फैलाव से आशय है कि शब्द पड़ोसी बोलीक्षेत्र का अतिक्रमण कर रहा है, साथ ही उस बोली के अनुसार उसमें अनुकूलन-परिवर्तन भी हो रहा है। इस प्रकार शब्द का रूप यह घोषित करता है कि वह कहाँ से आया है?किस स्‍थान से आया है? और उसके आने का मार्ग क्या था?वस्तुतः प्रत्येक शब्द का अपना निजी इतिहास होता है।

 

ब्रिटिशकाल में सर जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया भारत का भाषा सर्वेक्षण बड़े महत्व का है। इस कार्य से भारतीय भाषाओं के विश्‍लेषण और पारिवारिक वर्गीकरण के उपरांत भारतीय भाषाओं के विकास की रूपरेखा पहली बार स्पष्‍ट हुई।इसमें 364 भारतीय भाषाओं और बोलियों का सर्वेक्षण किया गया। यह 1894 से 1928 के बीच किया गया।

 

ग्रियर्सन का कार्य बहुत बड़े पैमाने पर है। तब देश गुलाम था, राजे-रजवाड़ों की बहुतायत थी, शिक्षण संस्थाओं की कमी, आवागमन और संचार माध्यमों की कमी थी। अब स्थिति बदल गई है और देश में बहुत बदलाव आ गया है। अस्तु अब नए सिरे से भाषा सर्वेक्षण करने की महती आवश्यकता है। इस संदर्भ में कुछ वर्ष पहले भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर (कर्नाटक) में इस का प्रारूप बना था और शिक्षण-प्रशिक्षण की लंबी कार्यशाला भी संपन्‍न हुई थी, अब जो प्रस्तावित है वह भाषावैज्ञानिक आधार पर अधिक सुदृढ़ और व्यवस्थित है। इसमें समाजभाषाविज्ञान, सांस्कृतिक नृविज्ञान, साहित्यिक अध्ययन का भी समावेश होगा और यह प्रशिक्षित सर्वेक्षकों और भाषावैज्ञानिकों द्वारा संपन्‍न किया जाएगा। अतः इसकी गुणवत्ता तथा प्रासंगिकता अधिक होगी।

 

वर्ष 1991 में भारत की जनगणना में हजारों मातृभाषाओं की पहचान की गई है जिनकी स्‍वतंत्र व्‍याकरणिक संरचना है। भाषा शोध और प्रकाशन केद्र, बड़ोदा ने गणेश देवी के नेतृत्‍व में पीपुल्‍स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया 2010 में आरंभ किया। 50 खंडों इसके परिणाम प्रकाशित हुए हैं। इस सर्वेक्षण से पता चला कि आदिवासियों की 480 भाषाएं हैं। अरूणाचल में 66 भाषाएं बोली जाती है। पश्चिमी बंगाल में 38 भाषाएं और 9 लिपियाँ प्रयुक्‍त हैं। बंगाल के ओल चिकी (संथाल), कनेल हो, वरांग द्विती लेपचा, सदरी,लिम्‍वू,बंगाली, उर्दू, नेपाली लिपियां प्रयुक्‍त हैं। 400 मिलियन लोग हिंदी  बोलते हैं। लाखों लोग अंग्रेजी को मातृभाषा कहते हैं।

 

भाषा सर्वेक्षण से प्राप्‍त सामग्री एवं तथ्यों को दो प्रकार से प्रस्तुत किया जा सकता है। ये दोनों पद्धतियाँ एक दूसरे की पूरक हैं –

(1) बोली मानचित्रावली (Dialect Atlas)

(2) बोली कोश (Dialect Dictionary)

  1. बोली मानचित्रावली

  बोली मानचित्रावली बोलीविज्ञान का महत्वपूर्ण उपकरण है। इसमें किसी भाषा के क्षेत्र विशेष की समस्त प्रमुख बोलियों की भेदक व्याकरणिक विशेषताओं का मानचित्र में वितरण कर उनका क्षेत्र निर्धारण किया जाता है। साथ ही उनकी सीमाओं पर प्राप्‍त होने वाले संक्रमण क्षेत्रों को भी मानचित्र में प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार प्रत्येक बोली की अपनी भेदक विशेषताओं का भौगोलिक प्रदर्शन उसकी अपनी क्षेत्रीय अखंडता का सूचक बन जाता है।बोली मानचित्र अर्थात डायलेक्ट एटलस(Dialect Atlas) के निर्माण में निम्नलिखित की भूमिका बहुत प्रासंगिक होती है-

  1. पारंपरिक चिह्न जैसे बिंदु, वृत्त, त्रिभुज, आदि जिनका उल्लेख आवश्यक होगा कि कौन से चित्र से क्या आशय है जिसे मातृभाषी लोगों के भाषिक व्यवहार में पाया गया है।
  2. दूरी के मापन का पैमाना बतलाना होगा, जैसे एक सेंटीमीटर बराबर सौ किलोमीटर या पचास किलोमीटर जो भी हो।
  3. दिशा निर्देश भी प्रदान करना होता है। उर्ध्वमुखी तीर से उत्तर दिशा मानने की परंपरा है। उसे देखकर पूरब, पश्चिम, दक्षिण का बोध हो जाता है। दिशा बदलने की दशा में भी अपेक्षित निर्देश आवश्यक है।
  4. रंगों का प्रयोग: भाषाओं, बोलियों, उपबोलियों के भेद दिखाने के लिए रंगों का प्रयोग आवश्यक होता है जिससे उन्हें आसानी से पहचाना जा सके। अलग प्रांतों अथवा देशों को दिखलाने के लिए भी रंगों का प्रयोग करना सामान्य बात है।
  5. वास्तव में मानचित्र पृथ्वी के संपूर्ण अथवा उसके किसी भाग को ऊपर से देखने से प्राप्‍त दृश्य स्वरुप की अभिव्यक्ति है। मानचित्र पृथ्वी की सतह का सानुपातिक चित्रण होता है तथा यह सदा वास्तविक क्षेत्र से छोटा होता है।

    बोली मानचित्र के प्रकार

(1) स्वनिक मानचित्र: स्वनिक मानचित्र के माध्यम से उच्चारण भिन्नता को दर्शाते हैं।

 

 

डॉ. लता दुबे को बुंदेली के विभिन्‍न क्षेत्रों में ‘अंधेरो’शब्‍द के एक दर्जन से अधिक उच्‍चारण मिले हैं।

उन्होंने बुंदेली क्षेत्र में शब्‍दों के क्षेत्रीय उच्‍चारणों को मानचित्रावली में दिखलाया है। रामेश्‍वर प्रसाद अग्रवाल ने बुंदेली के अध्‍ययन में व्‍याकरणिक शब्‍दों के वितरण को मानचित्र में दिखलाया है। पंजाबी भाषा की मानचित्रावली प्रो. हरजीत सिंह गिल की और उत्तर प्रदेश की बोली मानचित्रावली डॉ. कैलाश चंद्र अग्रवाल की क्‍लासिक कृतियाँ है। डॉ. व्यास नारायण दुबे ने छत्तीसगढ़ के भाषा सर्वेक्षण के आधार पर कुल 42 बोलियों में से नौ प्रमुख क्षेत्रीय बोलियों की पहचान की है और उनका वर्णनात्मक विवरण और मानचित्र प्रस्तुत किया है।

 

निम्नलिखित शोधकार्य भी उल्लेखनीय हैं।

  1. अल्मोड़ा जिले की कुमाँऊनी का भाषाभूगोल – डॉ हेमा उप्रेति।
  2. बाँदा जिले का बोली भूगोल – डॉ भगवान दीन मिश्र
  3. आजमगढ जिले की बोली – डॉ महेंद्र नाथ दुबे
  4. हिमालय क्षेत्र की बोलियों पर डॉ सिद्धेश्‍वर वर्मा का कार्य महत्वपूर्ण है।

    (2) शब्दपरक मानचित्र: जब किसी वस्तु या भाव के लिए विभिन्न शब्द प्रयुक्‍त किए जाते हैं तो उनका वितरण शब्दपरक मानचित्र में दिखलाया जाता है। जैसे रामेश्‍वर प्रसाद अग्रवाल ने इस मानचित्र में दिखलाया है कि-

 

 

भाटिया(1973:356) से साभार

 

बुंदेली में कर्मकारकीय प्रत्‍यय ‘को’ के विविध रूप (यथा ग्‍वालियर संभाग में ‘कौ’ छतरपुर में ‘खाँ’, गुना में खों, छिदवाडा में ‘कुँ’, को और सुदूर दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र में ‘खँ’) प्रचलित हैं।

 

(3) रूपक्रियात्मक मानचित्र: किसी एक व्याकरणिक इकाई के लिए अनेक रूप प्रचलित हों तो उन व्याकरणिक रूपों का क्षेत्रीय वितरण रूपक्रियात्मक मानचित्र में दिखाया जाता है।

 

क्षेत्रकार्य:-

सर्वेक्षण या क्षेत्र कार्य के महत्‍वपूर्ण पक्ष इस प्रकार है:

 

(अ) क्या कार्य करना है, उसे सुनिश्चित और परिसीमित करना, पूर्ववर्ती भाषिक या भाषिकेतर कार्यो का अध्‍ययन करना, पठनीय संदर्भ सूची तैयार करना, क्षेत्र को देख समझ कर कुछ आधारभूत सामग्री संकलन करके लाना और कार्य की रूपरेखा तैयार करना सर्वाधिक प्रारंभिक तैयारी है।

(ब) सामग्री संकलन में प्रत्यक्ष / अप्रत्यक्ष, अनुभवाश्रित/ प्रातिभ विधियों का उपयोग, क्षेत्र के प्रतिनिधि केंद्रों और सूचकों का चयन, पर्यवेक्षक की कठिनाई, नैतिक आचार संहिता का पालन तथा क्षेत्र में संभावित कठिनाइयों की भी प्रासंगिकता होती है।

(स) क्षेत्र कार्य में प्रश्‍नावलियाँ आवश्यक उपकरण होती है। सामाजिक प्रश्‍नावली में जाति, वर्ग, धर्म, उम्र, लिंग-भेद, शिक्षा व्यवसाय, स्थायी निवास आदि की जानकारी सूचक से लेनी होती है। भाषिक प्रश्‍नावली में उच्चारणपरक, व्याकरणिक, शाब्दिक, अर्थगत तथा रिश्ते-नाते की शब्दावली आदि की विभिन्नताओं का विवरण लेना होता है। अध्‍ययनकर्ता को सामग्री की रिकार्डिंग, लिप्यंकन, विश्‍लेषण, संदेहास्पद तत्वों का पुनर्निश्चयन आदि की प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करना होता है।

(द) वर्णनात्मक प्रस्तुति व्यवस्थित होनी चाहिए। भूमिका परिचय, अपनाई गयी पद्धतियों का उल्लेख, अध्यायों में बाँटकर व्यवस्थित प्रस्तुति, पूर्ववर्ती कार्यों की समीक्षा, शोधपरक नवीन सिद्धांतो का निर्माण, आरेख, सारणी तथा मानचित्रों से कथन की पुष्टि, निष्कर्ष, संदर्भ ग्रंथसूची तथा परिशिष्‍ट आदि का समावेश होना चाहिए।

 

समभाषांश रेखा (Isogloss):

यह एक प्रकार की रेखा है जो समान भाषिक लक्षण वाले स्थान बिंदुओं को जोड़ती है। अर्थात् कोई भाषिक तत्व जिन-जिन स्थान बिन्दुओं पर प्रयुक्‍त पाया गया है उन बिंदुओं को जोड़ने वाली रेखा ‘समभाषांश रेखा’ है। समभाषांश रेखा को कुछ विद्वानों ने शब्दरेखा या समभाषिक रेखा भी कहा है। औच्चारणिक, व्याकरणिक और शाब्दिक प्रयोग संबंधी ‘समभाषांश रेखाओं का समूह’ (Bundle of Isoglosses) से एक बोली का दूसरी बोली से पार्थक्य सुनिश्चित होता है। एक समभाषांश रेखा से बोली के क्षेत्र का निर्धारण करना उचित नहीं है जितना समभाषांश रेखा समूह द्वारा। समभाषांश रेखा समूह जितनी अधिक रेखाओं से युक्‍त होगा उतना ही अधिक स्पष्‍ट बोली सीमा का निर्धारण सम्भव होगा। डच-जर्मन क्षेत्र के बीच पूर्व-पश्चिम दिशा में चलनेवाला समभाषांश रेखा समूह जो निम्न जर्मन को उच्च जर्मन से अलग करता है, बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। भाषिक अभिलक्षणों का फैलाव बहुत हद तक सामाजिक हालातों पर निर्भर करता है। संप्रेषण का घनत्व और सामाजिक समूहों की भिन्न प्रतिष्‍ठा इसके प्रमुख कारक हो सकते हैं।

  1. बोली कोश

   क्षेत्रीय बोलियों में शब्द संपदा प्रचुर मात्रा में मिलती है। उनमें ऐसे शब्द मिलते हैं जिनके समतुल्य शब्द मानक भाषा में नहीं होते। लोकगीतों, लोकभाषाओं, मुहावरों एवं कहावतों में भी बहुत रोचक शब्द मिलते हैं। रिश्तेनाते की शब्दावली, व्यावसायिक शब्दावली, धार्मिक सांस्कृतिक, खानपान, वेशभूषा पहनावा और आभूषणों की शब्दावली, लोहारों, सुनारों, कुम्हारों की और महाजनों, साहूकारों की शब्दावली, वर्जित शब्दावली को एकत्र कर शब्दकोश का निर्माण करना आवश्यक है। ब्रजभाषा क्षेत्र की कृषक शब्दावली का अध्ययन हुआ है। भोजपुरी के कोश कुछ प्रकाशित हैं और कुछ तैयार हो रहे हैं। वस्तुतः किसी बोली के शब्द उसकी ताकत होते हैं, वे बोली को जीवंत बनाए रखते हैं। बोली भूगोल के अध्ययन से बोली कोश तैयार किए जा सकते हैं।

  1. व्याकरण

    बोलियों का भी व्याकरण होता है। शब्द संरचना में मूल, उपसर्ग और प्रत्यय की भूमिका होती है। शब्दों के कारकीय रूप होते हैं, व्युत्पत्ति प्रक्रिया से नूतन शब्द निर्मित होते हैं। पदबंधों, उपवाक्यों, वाक्यों की संरचना में लिंग, वचन, काल, वाच्य, पुरुष आदि की व्याप्ति होती है। व्याकरणिक अध्ययन विश्‍लेषण का आशय भाषा की संरचना के अध्ययन से है जो बहुत महत्वपूर्ण है।

  1. निष्‍कर्ष

    भाषाभूगोल के अंतर्गत भाषाओं, उपभाषाओं और उनकी बोलियों के भौगोलिक क्षेत्र विस्तार, उनके विकास अथवा ह्रास के इतिहास का अध्ययन किया जाता है। उनके विशिष्‍ट अभिलक्षणों के अंतरों, विभिन्नताओं तथा असमानताओं का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। वंशवृक्ष से उनका उद्भव, विकास और आनुवंशिक संबंध दिखलाया जाता है। इस संदर्भ में भाषिक मानचित्रावली बहुत महत्वपूर्ण उपकरण है। यद्यपि भाषाभौगोलिक शोधकार्य के परिणामों को मानचित्रावलियों में दिखलाना धीमा, महँगा और सीमित प्रकार का कार्य है लेकिन यह क्षेत्र विशेष के विभेदों का सर्वोत्तम बिंब प्रस्तुत करता है। ये परिणाम नूतन सर्वेक्षण-कार्य और उसके विश्‍लेषण पर आधारित होते हैं इसलिए महत्वपूर्ण होते हैं।

 

भाषाओं में क्षेत्रीय और सामाजिक भेदोपभेदों का होना स्‍वाभाविक है। अंजनी कुमार सिन्हा (2011,68) के अनुसार विभिन्न भाषा समुदाय भाषा और बोलियों का प्रयोग अपने आपको एक सूत्र में पिरोने के लिए तथा दूसरे समुदाय से अलग अपनी पृथक पहचान बनाए रखने के लिए करते हैं। भाषिक भेदोपभेद भाषाओं को जीवंत बनाए रखने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतः भाषाभूगोल के अध्‍ययन विश्‍लेषण की प्रासंगिकता असंदिग्ध है।

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अतिरिक्‍त जानें

 

पारिभाषिक शब्दावली-

अवशिष्‍ट क्षेत्र (Relic Area)

केंद्रिक क्षेत्र (Focal Area)

क्षेत्रकार्य (Field Work)

नैतिक आचार संहिता (Ethic code of Conduct)

प्रश्‍नावली (Questionnaire)

बोली (Dialect)

बोली भूगोल (Dialect Geography)

बोलीविज्ञान (Dialectology)

भाषा क्षेत्र (Language Area)

भाषा मानचित्रावली (Language Atlas)

भाषा सीमा (Language Boundary)

मानक भाषा (Standard Language)

वंशवृक्ष (Stammbaum)

व्यक्तिबोली (Idiolect)

संक्रमण क्षेत्र (Transition Area)

समभाषांश सीमा रेखा (Isogloss)

सर्वेक्षक (Surveyor)

समभाषांश सीमा रेखा समूह (Bundle of Isoglosses)

सामाजिक बोलीविज्ञान (Social Dialectology)

 

पुस्‍तकें

  1. Francis, W.N. (1983). Dialectology: An Introduction. Longman.
  2. Labov William. (1966). The Social Stratification of English in New York City, ELLO
  3. Sastry, J. Venkateswara. (1994). A study of Telugu regional and social Dialects. CIIL, Mysore.
  4. Trudgill, Peter. (1974). The Social Differentiation of English in Norwich. Cambridge.
  5. Wolfram, Walt and Fasold, Ralf. (1974). The Study of Social Dialects in American English, NJ Prentice Hall.
  6. बंद्योपाध्याय, प्रणव कुमार; अग्निहोत्री, रमाकान्त. (2011). भाषा, बहुभाषिकता और हिंदी. दिल्‍ली : अच्छा साहित्य सदन.
  7. भाटिया, कैलाश चन्द्र. (1973). भाषाभूगोल. लखनऊ : उ०प्र० हिंदी संस्थान

    वेब लिंक

 

https://hi.wikipedia.org/wiki/भाषा_भूगोल

https://hi.wikipedia.org/wiki/उपभाषा_विज्ञान

http://www.jstor.org/stable/4167699?seq=1#page_scan_tab_contents

https://en.wikipedia.org/wiki/Language_geography