34 लिपि एवं लेखिमविज्ञान
रामबख्श मिश्र
पाठ का पारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- लिपि और लेखन का स्वरूप
- लिपि एवं लेखन का महत्व
- लेखन एवं वाक् में अंतर
- लिपि एवं लेखन का विकास
- लिपि सुधार
- लिपि एवं लेखन के विशिष्ट अनुप्रयुक्त पक्ष
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के बाद आप
- लिपि का स्वरूप और उसके विभिन्न प्रकारों को जानेंगे।
- लेख, उपलेख और लेखिम की अवधारणाओं और भाषा के अध्ययन में उनका महत्व जान सकेंगे।
- लेखन तथा वाक् के स्वरूप और उनके बीच अंतर को जान सकेंगे।
- व्यावहारिक जीवन में लिपि व लेखन से जुडे सरोकारों को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
मानव भाषा की अभिव्यक्ति के दो रूप हैं 1) मौखिक 2) लिखित। भाषा लिखित रूप में लेखन के माध्यम से किसी विशेष लिपि–व्यवस्था के द्वारा व्यक्त होती है। उच्चरित भाषा का दृश्य प्रतिरूप लेखन है, जो मानव–निर्मित यादृच्छिक आकृतियों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। यह एक व्यापक और व्यावहारिक अवधारणा है। लिखित रूप में भाषा किसी वस्तु (जैसे- कागज, कपड़ा, पत्थर, ताम्रपत्र, भोजपत्र आदि) पर अंकित दृश्य–प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होती है तथा हम इसे अपनी आँखो के द्वारा ग्रहण करते हैं। धीरे-धीरे लेखन के कई प्रकार विकसित हो गए। इनमें से कुछ प्रमुख हैं: उत्कीर्ण–लेखन, हस्तलेखन, मुद्रित-लेखन एवं डिजिटल–लेखन।
भाषा के दृश्य प्रतीकों की यादृच्छिक–व्यवस्था को लिपि कहते हैं। वस्तुत: लिपि वर्णों तथा चिह्नों के संयोजन की एक विशिष्ट प्रणाली होती है। हम यह भी कह सकते हैं कि भाषा की लेखन व्यवस्था, लिपि भाषा का दृश्य प्रतिरूप है जो भाषा को एक स्थूल या मूर्त सांकेतिक स्वरूप प्रदान करती है। लिपि कुछ निर्धारित चिह्नों की सहायता से भाषा का प्रतिनिधित्व करती है। इस पाठ में हम लोग भाषा के लिखित रूप को भाषावैज्ञानिक दृष्टि से समझने का प्रयास करेंगे। विशेष रूप से वाक्, लिपि और लेखन के विभिन्न पक्षों को समझेंगे।
- लिपि और लेखन का स्वरूप
लिपि खुद में भाषा नहीं होती है पर वह भाषा को लिखने का माध्यम जरूर होती है। यही कारण है कि एक लिपि में थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ कई भाषाएँ लिखी जा सकती हैं और एक भाषा भी कई लिपियों में लिखी जा सकती है।
भाषाएँ अपनी आवश्यकता के अनुसार लिपि अथवा लेखन व्यवस्था का विकास करती हैं। उदाहरण के लिए हिंदी की लिपि ‘देवनागरी’ है। लेखन की आधारभूत इकाई ‘लेखिम’ है। लेखन व्यवस्था लेखिमों के एक सेट से बनती है। लिपि में शामिल लेखिमों के कुछ विशिष्ट गुण होते हैं जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से नियमों के तहत प्रयोग में आते है। लेखिम एक ‘लेख’ (Graph) का भी हो सकता है अथवा उसके अंतर्गत एकाधिक लेख हो सकते हैं जो परिपूरक हो सकते हैं और वे सभी एक ही मूल्य के होते हैं। वे लेख जो किसी विशिष्ट लेखिम के विभेद होते हैं उन्हें ‘उपलेख’ या उपवर्ण कहते हैं। जैसे –A और a और a। सैद्धांतिक दृष्टि से एक लेखिम एक समूह अथवा परिवार जैसा होता है और किसी लेख अथवा उपलेख से बड़ा होता है। लेखिमों का काम भाषा की ध्वनियों का लिखित प्रतिनिधित्व करना होता है। वह वस्तुत: स्वनिम का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई वर्ण अथवा वर्णों का सेट होता है। अपने दृश्य रूप में वह एक प्रकार्यमूलक (Functional) इकाई है। लेखिमों के संयोजन से भाषा का पठनीय दृश्य रूप बनता है जिससे उनका स्थायी मूल्य हो जाता है।
किसी विशेष लिपि में किसी लेखिम का विशिष्ट मूल्य होता है जैसे किसी सिक्के अथवा मुद्रित नोट का मूल्य किसी खास देश में ही होता है। जैसे – नेपाल का रूपया और भारत का एक रूपया मूल्य में बराबर नहीं होते हैं। रोमन लिपि के <p> और देवनागरी के <प > में मूल्यगत अंतर है। देवनागरी लिपि के ‘प’ में ‘अ’ स्वर शामिल है अर्थात् <प= p ǝ >, रोमन के ‘p’ में ‘अ’ स्वर शामिल नहीं है अर्थात् < p =प>। निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि वर्णो का अपने आप में कोई मूल्य नहीं होता, किसी भाषा की लिपि में रहकर ही उनका मूल्य सुनिश्चित होता है।
लेखिम से किसी भाषा के विशेष अभिलक्षणों जैसे स्वनिम या रूपिम को अथवा उसके विभेदों को द्योतित किया जाता है। विकास और मूल प्रकृति के हिसाब से लेखिम को मख्यत: तीन वर्गो में रखा गया है –
(1) लेखिम जिनसे स्वनिमों की पहचान होती है।
(2) लेखिम जिनसे रूपिमों की पहचान होती है।
(3) लेखिम जो संयुक्त प्रकृति के होते है।
स्वनिम–विज्ञान और रूपिम–विज्ञान के सादृश्य पर लेखिमविज्ञान भी है। कुछ भाषाविज्ञानी लेखिमविज्ञान को Phonology के तर्ज पर Graphology और कुछ Phonemics के सादृश्य पर Graphemics भी कहते हैं।
स्वन, उपस्वन, स्वनिम
रूप, उपरूप, रूपिम
लेख, उपलेख, लेखिम
लेखिम दृश्यभाषा की सबसे छोटी व्यतिरेकी इकाई है। लेखन अथवा मुद्रण में लेखिम की रूपात्मक उपस्थिति लेख से पूरी होती है।
लेखन शैली की भिन्न–भिन्न परंपराएँ हैं। यूरोपीय देशों के लोग बाएँ से दाएँ लिखते हैं, अरबी लोग दाएँ से बाएँ, चीनी लोग ऊपर से नीचे और कास्कोजियन लोग नीचे से ऊपर की और लिखते हैं।
- लिपि एवं लेखन का महत्व
भाषा की उत्पत्ति के साथ मनुष्य को अभिव्यक्ति का माध्यम तो मिल गया किंतु उसके संचय और संरक्षण की सुविधा उसे हजारों वर्ष बाद लेखन व लिपि के आविष्कार द्वारा ही प्राप्त हो सकी। लिपि का अविष्कार मानव समाज को नई दिशा देने वाले क्रांतिकारी आविष्कारों में से एक है। लिपि के आविर्भाव ने मानव सभ्यता के विकास में कई अति महत्वपूर्ण आयाम जोड़ दिए। मुख्य है:
- लिपि अर्थात लेखन–व्यवस्था के द्वारा भाषा को एक स्थायी रूप देना संभव हो सका। लिखित रूप में भाषा देशकाल की सीमा से पार जाकर स्थायी बन जाती है। अत: लिपि द्वारा मानव अपने, अनुभवों, कल्पनाओं, और विचारों को मूर्त और स्थायी रूप देने में सक्षम हो पाया है।
- लिपि के द्वारा ही मानव के लिए ज्ञान का सर्जन, संरक्षण, संवर्धन और सातत्य बनाए रखना संभव हो सका। यदि लिपि व लेखन का विकास न हुआ होता तो मनुष्य दूरस्थ स्थानों पर संदेश न भेज पाता, विविध उपलब्धियों को संरक्षित न कर पाता, अनेक विषयों पर शोध न कर पाता; विज्ञान, कला, दर्शन व शिल्प के क्षेत्र में प्रगति न कर पाता, भावी पीढि़यों को अपनी सांस्कृतिक तथा साहित्यिक धरोहर से परिचित न करा पाता।
- संप्रेषण तो पशु-पक्षी भी कर लेते हैं किन्तु मानवीय संप्रेषण व्यवस्था यानी भाषा कहीं अधिक समुन्नत है। लेकिन उससे भी बढकर लिपि अर्थात् लेखन–व्यवस्था वह आधार है जो मानव जाति को पशु–पक्षियों से पृथक् और प्रकृति की सर्वाधिक विकसित कृति सिद्ध् करती है।
- लेखन का अपना विशिष्ट महत्व है क्योंकि लेखन के तकनीकी सहयोग से भाषा के स्वरूप में एकरूपता तथा स्थिरता आती है। उसका सही व मानक रूप सबके सामने प्रत्यक्ष होता है। समय और स्थान की दूरी के कारण अलग–थलग पड़े लोग लेखन के माध्यम से जुड़ जाते हैं।
- किसी भाषा समुदाय की अस्मिता की सबसे महत्वपूर्ण पहचान उसकी लेखन–व्यवस्था, लिपि और उसका लिखित साहित्य है।
- संरचनात्मक स्थिरता और प्रामाणिकता में लेखन की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। चूँकि विभिन्न प्रदेशों एवं क्षेत्रों में बोलियों के प्रभाव स्वरूप भाषा का उच्चरित रूप समान नही रह पाता है। इसलिए लिखित रूप मानक द्वारा अनुशासित होने के कारण भाषा की व्याकरणिक संरचना एवं एकरूपता बनाए रखता है।
- पारंपारिक भाषाविज्ञान में मौखिक की अपेक्षा लिखित भाषा को अधिक महत्व दिया जाता रहा है। सभ्य समाज में आवश्यकतानुसार लिख लेना और लिखी हुई भाषा को पढ और समझ लेना किसी भी शिक्षित व्यक्ति के लिए आवश्यक गुण माना जाता है। समाज की सर्वोत्तम साहित्यिक एवं ज्ञानपरक उपलब्धियों का भंडारण भाषा के लिखित रूप में ही होता है।
- लेखन एवं वाक् में अंतर
लेखन एवं वाक् भाषिक अभिव्यक्ति के दो अलग–अलग माध्यम हैं, फिर भी दोनों में बड़ा घनिष्ठ संबंध है। लेखन वाक्य का स्थूल रूप में प्रतिनिधित्व करता है।
प्राचीनकाल से ही भाषा के लिखित स्वरूप की अपेक्षा मौखिक स्वरूप को वरीयता दी गई है। बच्चा पहले बोलना सीखता है, उसके बाद लिखना सिखता है। वह लिखना नहीं भी सीखता है और अनपढ़ रह जाता है। इस प्रकार मौखिक स्वरूप की ही प्राथमिकता है। विश्व की कई हजार भाषाएँ आज भी मौखिक रूप में जीवित हैं। उनमें अभी तक लेखन की शुरुआत ही नहीं हुई। फिर भी लेखन का महत्व निर्विवाद है। लेखन एवं वाक् की तुलना करते हुए निम्नलिखित भेद सामने आते है :
लेखन | वाक् | |
1. | लेखन में स्थान विस्तार की सीमा होती है और उनके प्रतिभागी देश और काल के लिहाज से दूरस्थ हो सकते हैं। | लेखन में स्थान विस्तार की सीमा होती है और उनके प्रतिभागी देश और काल के लिहाज से दूरस्थ हो सकते हैं। |
2. | लिखित रूप ज्यादा व्यवस्थित अर्थात् व्याकरणिक दृष्टि से अधिक सुगठित, ठोस और मानक के निकट होता है। | जबकि वाक् की संरचना शिथिल और कम व्यवस्थित होती है उसमें क्षेत्रीय और सामाजिक बोलियों के तत्व हो सकते हैं। |
3. | लिखित शीर्षको, वाक्यों, पैराग्राफों आदि को उनकी शक्ल–सूरत से पहचाना जा सकता है लेखन में विराम चिह्नों, बड़े–छोटे–टेढ़े अक्षरों तथा रेखांकन आदि से भी बड़ी सहायता मिलती है। रंगों के प्रयोग की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। | भाषा के मौखिक स्वरूप में ये सारी सुविधाएँ नहीं होतीं। मौखिक व्यवहार की कुछ अपनी विशिष्टताएँ होती है जैसे
पराभाषिक तत्व– हाव– भाव, अंग संचालन, चाक्षुष संपर्क वक्ता–श्रोता के बीच की दूरी, ऊँचे–नीचे सुर,बलाघात और अनुतान के विविध प्रयोगों की भूमिका होती है। |
4. | वैधानिक व आधिकारिक स्तर पर भाषा के लिखित स्वरूप की वैधता, मान्यता तथा महत्व मौखिक स्वरूप की अपेक्षा अधिक होता है। लिखित दस्तावेज़ जैसे- अनुबंध, वसीयत, निविदा आदि की वैधानिक मान्यता होती है। यही कारण है कि हस्ताक्षर की वैधता तथा महत्व अधिक है। | मौखिक स्वरूप की वैधता तथा विस्वसनीयता संदिग्ध होती है। यदि कोई व्यक्ति अन्य पर केवल मौखिक रूप में आरोप लगाता है तो उस पर कोई वैधानिक कार्यवाई तब तक नहीं की जाती है जब तक कि वह व्यक्ति लिखित आरोप-पत्र दायर नहीं करता। |
5.
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लिखित स्वरूप अधिक प्रतिष्ठापूर्ण, एकरूप होता है। शिक्षण, प्रशासन, प्रबोधन और साहित्य सृजन का माध्यम होने के कारण यह ज्यादा शक्ति संपन्न होता है। यह मानक का प्रतिनिधित्व करता है अत: अधिक औपचारिक व सक्षम होता है। इसमें मानक के अनुपालन की बाध्यता अधिक होती है। इसमें भाषा के उच्च कोड तथा तकनीकी शब्दावली का ही अधिक प्रयोग होता है। | भाषा के मौखिक स्वरूप में वर्जित शब्दावली जैसे गालियों का तथा व्याकरणिक त्रुटियों का भी प्रयोग किया जाता है। भाषा के मौखिक प्रयोग के स्तर पर स्वच्छंदता अधिक होती है। |
6. | वर्तमान में भाषा के चार प्रायोगिक कौशल माने जाते हैं। इनमें से दो बोलना और सुनना वाक् के कौशल हैं तथा लिखना और पढ़ना ये दोनों लेखन के कौशल हैं। यद्यपि लिखना–पढ़ना भी वाक्-कौशलों पर ही आधारित है किन्तु इनका ज्ञान औपचारिक शिक्षण द्वारा ही प्राप्त होता है। | आज भी विश्व की लगभग आधी से अधिक भाषाएँ लिपिविहीन रूप में जीवित हैं। क्योंकि बोलना और सुनना जोकि वाक् के कौशल हैं वे मनुष्य की प्राथमिक भाषिक आवश्यकता हैं। बहुत से लोग लिखने–पढ़ने के कौशल के बिना भी सुखपूर्वक जी लेते हैं। जबकि बोलने–सुनने की क्षमता का अभाव व्यक्ति को शारीरिक अक्षमता जनित कष्ट का अनुभव कराती हैं। |
7. | आनुवांशिक रूप से जुड़ी भाषाओं में प्राप्त लिखित तुलनात्मक सामग्री से मृत मूलभाषा के स्वरूप का और तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति का पुनर्निर्माण किया जा सकता है। | अलिखित भाषाओं में ऐसी तुलना तथा मूलभाषा का पुनर्निमाण संभव नहीं होता। |
8. | लिखित रूप को बार-बार पढ़ा जा सकता है और देश-काल की सीमा से परे अनगिनत लोग उसे पढ़ सकते हैं। लेखक नहीं जानता कि उसका लिखा कौन-कौन, कब-कब और कहाँ-कहाँ पढ़ेगा। | भाषा के मौखिक रूप में यह गुण्वत्ता अंतर्निहित नहीं होती है। किंतु वर्तमान समय में भाषा के मौखिक रूप को भी डिजिटल तथा रिकॉर्डिंग की तकनीक द्वारा यह गुणवत्ता प्राप्त हो गर्इ है। |
- लिपि एवं लेखन का विकास
मनुष्य ने प्रारंभ में अपने उपयोग तथा अनुभव में आने वाली वस्तुओं की स्मृति को चित्रांकन द्वारा सुरक्षित रखने का प्रयास किया। उत्तर पाषाण कालीन भित्ति-चित्रों में इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। संभवत: वस्तुओं का बोध कराने के लिए ही चित्रलिपि की उत्पत्ति हुई थी जिसमें आख्यान भी प्रस्तुत किए जाते थे। इसमें प्रयुक्त प्रतीक अर्थबोध तो कराते थे लेकिन ध्वनिबोध का अभाव हो जाता था। अधिक से अधिक भावाभिव्यक्ति के साथ उनका संरक्षण होता गया। इसके प्रयोग प्राय: सभी देशों मे पाए जाते हैं। वर्तमान लिपियों का विकास निश्चय ही चित्रात्मक लिपि से हुआ है।
लिपि के विकास का क्रमिक सोपान इस प्रकार है – (1) चित्रलिपि, (2) सूत्रलिपि, (3) प्रतीकात्मक लिपि, (4) भावमूलक लिपि, (5) गूढ़ाक्षरिक लिपि, (6) क्रीटलिपि, (7) हिट्टाइट लिपि (8) सिंधु घाटी की लिपि, (9) चीनी लिपि (10) ध्वनिमूलक लिपि— (क) अक्षरात्मक लिपि (ख) वर्णमालात्मक लिपि।
भारतवर्ष में प्रचलित लिपियाँ जिन दो लिपियों से उद्भूत हुई हैं वे हैं ब्राह्मी लिपि तथा खरोष्ठी लिपि।
ब्राह्मी लिपि- अधिकांश आधुनिक भारतीय लिपियों का विकास ब्राह्मी लिपि से ही हुआ है। बाह्मी एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। देवनागरी सहित अन्य दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्व एशियाई, तिब्बती तथा कुछ लोगों के अनुसार कोरियाई लिपि का विकास इसी से हुआ था।
कई विद्वानों का मत है कि यह लिपि प्राचीन सरस्वती लिपी (सिंधु लिपि) से निकली है, अत: यह पूर्ववर्ती रूप में भारत में पहले से प्रयोग में थी। बौद्धों के प्राचीन ग्रंथ ‘ललितविस्तर’ में उन लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गई थीं। उनमें ‘ब्रह्मलिपि’ का नाम भी मिला है। इस लिपि का सबसे पुराना रूप अशोक के शिलालेखों में ही मिलता है।
ब्राह्मी लिपि की विशेषताएँ
- यह बाएँ से दाएँ की तरफ लिखी जाती है।
- यह मात्रात्मक लिपि है। व्यंजनों पर मात्रा लगाकर लिखी जाती है।
- कुछ व्यंजनों के संयुक्त होने पर उनके लिये ‘सयुक्ताक्षर’ का प्रयोग (जैसे प्र =प् + र) भी हुआ है।
- वर्णों का क्रम वही है जो आधुनिक भारतीय भाषाओँ में है। यह वैदिक शिक्षा पर आधारित है।
खरोष्ठी लिपि – सिंधु घाटी की चित्रलिपि के अतिरिक्त भारत की दो प्राचीनतम लिपियाँ हैं, जिनमें से एक खरोष्ठी लिपि है। यह दाएँ से बाएँ को लिखी जाती थी। सम्राट अशोक ने शाहबाजगढ़ी और मनसेहरा के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में ही लिखवाए हैं। इसके प्रचलन की देश और कालपरक सीमाएँ ब्राह्मी की अपेक्षा संकुचित रहीं और बिना किसी प्रतिनिधि लिपि को जन्म दिए ही देश से इसका लोप भी हो गया। ब्राह्मी जैसी दूसरी परिष्कृत लिपि की विद्यमानता अथवा देश की बाएँ से दाहिने लिखने की स्वाभाविक प्रवृत्ति संभवत: इस लिपि के विलुप्त होने का कारण रहा हो।
खरोष्ठी लिपि की कुछ विशेषताएँ है:
- प्रत्येक व्यंजन में अ की विद्यमानता,
- दीर्घस्वरों एवं स्वरमात्राओं का अभाव,
- अन्य स्वरमात्राओं का ऋजुदंडों द्वारा व्यक्तीकरण,
- तथा संयुक्ताक्षरों की अल्पता
- लिपि सुधार
समय समय पर लिपियों की जाँच पड़ताल और मूल्यांकन आवश्यक होता है। कुछ छोड़कर तथा कुछ जोड़कर उनमें संशोधन और सुधार करना होता है। भाषाओं के मानकीकरण और आधुनिकीकरण के साथ-साथ उनकी लिपियों का भी अद्यतन और सक्षम होना आवश्यक है। प्राय: भाषाओं के वाक् रूप में परिवर्तन होता चलता है, लिखित रूप काफी पीछे रह जाता है। इसलिए मौखिक रूप और लिखित रूप में कमोबेश अंतर हो जाता है। अंग्रेजी, फ्रेंच और चीनी भाषाएँ इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। लिखित रूप वाक् पर आधारित और गौण होता है और उसका अलग अस्तित्व होता है। प्राचीन लेखन व्यवस्थाएं जटिल थीं, उनमें दक्षता हासिल करने के लिए लंबे प्रशिक्षण की जरूरत पड़ती थी। लिखना–पढ़ना एक छोटे से विशेष वर्ग तक सीमित था। मुद्रण के पहले हस्तलिखित पुस्तकों की बहुत प्रतिष्ठा थी, वे सबको सुलभ नहीं थीं। अपने लिखित रूप में भाषाएँ रूढिग्रस्त हो जाती हैं और लेखन में ठहराव सा आ जाता है। उच्चारण और लेखन में अंतर बढ़ जाता है। ज्ञान के विस्फोट और विस्तार वाले आज के युग में लिपियों को संक्षिप्त और नियमित होने के साथ-साथ सरल और सुस्पष्ट भी होना चाहिए। टंकण, मुद्रण और कंप्यूटर की दृष्टि से लेखन का तार्किक और व्यवस्थित होना आवश्यक है। अनके देशों के लोग अपनी लिपि को बदलने की सोच रहे हैं, कुछ ने तो बदल भी लिया है। अब शिक्षित लोग प्राय: द्विभाषी, बहुभाषी हो रहे हैं अत: उनके लिए कई लिपियों का ज्ञान आवश्यक हो जाता है।
- लिपि एवं लेखन के विशिष्ट अनुप्रयुक्त पक्ष
ब्रेल लिपि (Braille)— दृष्टिबाधित लोगों के लिए उत्कीर्ण लेख ब्रेल लिपि में लिखे जाते हैं। जिसको विश्वभर में नेत्रहीनों द्वारा पढ़ने और लिखने में छूकर व्यवहार में लाया जाता है। इस लिपि का अविष्कार 1821 में एक नेत्रहीन फ्रांसीसी लेखक लूई ब्रेल ने किया था। यह लिपि कागज पर अक्षरों को उभारकर बनाई जाती है। इसमें अलग–अलग अक्षरो, संख्याओं और विराम चिह्नों को उभरे हुए बिंदुओं के माध्यम से दर्शाते हैं।
आशुलिपि (Stenography)– यह भी लेखन की एक अनुप्रयुक्त विधा है जिसमें बहुत तेज गति से बोले गए वक्तव्य को कुछ विशिष्ट वर्णों, चिह्नों और संक्षिप्तियों के माध्यम से बड़ी शीघ्रता से लिखा जाता है। इस विधा के प्रशिक्षित आशुलिपिक (Stenographer) होते हैं। इसके रोजगारपरक पाठ्यक्रम शिक्षण संस्थाओं में चलते हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्वन वर्णमाला (IPA) अंतरराष्ट्रीय स्वनिक संगठन द्वारा तैयार अंतरराष्ट्रीय वर्णमाला का मूल उद्देश्य है किसी भाषा की वाग्ध्वनियों को उपयुक्त चिह्न प्रदान करना तथा सभी संभावित वाग्ध्वनियों के लेखन, वर्गीकरण को सुनिश्चित करना। ओटो जेस्पर्सन द्वारा दी गई संकल्पना पर हेनरी स्वीट, डैनियल जोन्स आदि ने 19वीं शताब्दी में इसका प्रारूप तैयार किया। इसके चिह्न रोमन लिपि के हैं जिन्हें उल्टा-पुल्टा करके अनेक चिह्न तैयार किए गए हैं, और कुछ ग्रीक लिपि के चिह्न भी लिए गऐ हैं। इसके अंतर्गत किसी भाषा के स्वनिमों का वर्गीकरण, नामकरण, उनके आपसी व्यतिरेक को दिखाने का प्रयास किया जाता है।
मानस्वरों की संकल्पना इसका एक प्रमुख योगदान है। कोशनिर्माण में अथवा अन्यत्र कहीं भी शब्दों के उच्चारण के लिए तथा सही उच्चारण सुनिश्चित करने के लिए स्वनिमिक प्रतिलेखन आवश्यक होता है। लिप्यंतरण में तथा किसी अलिखित भाषा के लिए वर्णमाला तैयार करने में इनकी विशेष भूमिका है।
हस्तलेखन द्वारा व्यक्ति की पहचान – लेखन की पहचान से अपराधियों को पकड़ने में मदद मिलती है। उसके द्वारा लिखित पत्र, डायरी या परीक्षा की उत्तरपुस्तिका, हस्ताक्षर से फोरेंसिक भाषाविज्ञान में सहायता मिलती है, जैसे कोई बाएँ हाथ से लिखता है या किसीने बाएँ हाथ से लिखा है अथवा दायें से।
- निष्कर्ष
लिपि से भाषा का दृश्य रूप सुलभ होता है। लिपियों के विकास का इतिहास लंबा है: चित्रलिपि, भावलिपि, सूत्रलिपि शब्दलिपि, आक्षरिक लिपि। लिपियों में गुणात्मक सुधार भी हुए। वस्तुत: लिपि खुद में भाषा नहीं है वह भाषा को लिखने का एक माध्यम मात्र है। इसलिए एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और कई भाषाएँ एक लिपि में। लिपि से भाषा की अस्मिता सुनिश्चित होती है और भाषा में स्थायित्व आता है। लिखित रूप में समाज का अनुभवजन्य ज्ञान संचित रहता है। लेखिमविज्ञान लिपि विश्लेषण और अध्ययन की प्रणाली है। उसकी मूल इकाई लेखिम है जिसका मूल्य भाषाओ में भिन्न होता है। फिर लेखिम के विभेद भी हो सकते हैं जिन्हें उपलेख कहते हैं।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- Baines, John. Bennet, John & Houston, Stephen (Eds.) (2008). The Disappearance of Writing Systems. Equinox Publishing, London
- Diringer, David (1948). The Alphabet- A Key to the Libtory of manking, Munshiram Manoharlal Publishers. Pvt.Ltd. New Delhi.
- Pandey, Raj Bali. (1957). Indian Paleography. Motilal Banarasi Das, Delhi
- ओझा, गौरीशंकर हीराचंद. (1993). भारतीय प्राचीन लिपिमाला. वैदिक बुक्स
- पाण्डेय, राजबली. (2004). भारतीय पुरालिपि. लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद.