3 भाषा संरचना के विभिन्न स्तर और उनके अन्तस्संबंध

डॉ. राजमणि शर्मा

 

epgp books

पाठ का प्रारूप

  1. उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. भाषा संरचना के विभिन्न स्तर
  4. भाषा संरचना के विभिन्न स्तर और उनके अन्तस्संबंध
  5. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्‍ययन के उपरांत आप –

  • भाषा संरचना की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • भाषा संरचना के विभिन्‍न स्‍तरों को भी पहचान सकेंगे।
  • रूपात्‍मक संरचना का ज्ञान प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • वाक्‍य संरचना तथा उसमें पदक्रम, अन्‍वयबंध, उपवाक्‍य की भूमिकाओं से आप परिचित हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

 

भाषा संरचनात्मक की अवधारणा

 

फ्रांसीसी भाषा-वैज्ञानिक फर्दिनो द सस्यूर ने भाषा के तीन पक्ष स्वीकार किए हैं- (1) व्यक्तिगत, (2) सामाजिक तथा (3) सामान्य या सर्वव्यापक। किन्तु ये तीनों पक्ष भाषा के तीन स्तरों पर प्रयोग से संबद्ध हैं। सही अर्थों में बोध (अनुभूति) और अभिव्यंजना (अभिव्यक्ति) भाषा के पक्ष हैं। भाषाविज्ञान में अभिव्यक्ति का तात्पर्य स्वनात्मकता (ध्वन्यात्मकता) से है और अनुभूति का स्वनों के द्वारा प्रकट आशय से है।

 

अभिव्यक्ति पक्ष की संरचना यौगिक संरचना है, जो स्वनात्मक एवं व्याकरणात्मक संरचना से निर्मित हुई है। इस सम्पूर्ण संरचना को स्वनात्मक संरचना, स्वन-संरचना और  स्वनिमिक संरचना तथा वाक्यात्मक संरचना में विभाजित किया जा सकता है। अभिव्यक्ति पक्ष में एक अन्‍य संरचना का योग भी दिखाई पड़ता है। यह सरंचना रूपात्मक एवं स्वनात्मक संरचनाओं के मध्य संपर्क का कार्य करती है। इसे रूपस्वनिमिक संरचना कहा जाता है। अनुभूति पक्ष को अर्थ-संरचना का नाम दिया जाता है। शब्दावली भाषा का एक और घटक है। भाषा और शब्द दो भिन्न वस्तुएँ हैं। भाषा एक प्रकार का ढाँचा अथवा व्यवस्था है, इस व्यवस्था के अनुसार शब्दों का प्रयोग होता है। इस प्रकार शब्द भाषायी नियमों के प्रयोग का साधन है। संपूर्ण भाषा-संरचना को निम्नलिखित आरेख द्वारा दर्शाया जा सकता है –

 

आधुनिक भाषा-विज्ञान में स्वन एवं अर्थ संरचना अप्रधान या गौण मानी जाती है और स्वनिमिक, रुपात्‍मक एवं वाक्यात्मक संरचना को प्रधान कहा जाता है। रूपस्वनिमिक संरचना संस्कृत की संधि है। हिंदी में भी इसका स्वरूप अधिकांशतः तत्सम शब्दों में दिखाई देता है।

 

3. भाषासंरचना के विभिन्न स्तर

 

व्याकरणिक संरचना भाषा की वह इकाई है, जिसके सार्थक टुकड़े हो सकते हैं, या एकाधिक सार्थक टुकड़ों को नियमपूर्वक जोड़ने से जो भाषा की इकाई प्राप्त होती है, वह व्याकरणिक/भाषिक संरचना है। यथा- ‘भाग्यवान’, ‘सुंदरता’, ‘पढ़ता’। भाग्य+वान (वाला) व्याकरणिक संरचना है, क्योंकि इसके दोनों टुकड़े (घटक) सार्थक हैं। इसी तरह सुंदरता, पढ़ता आदि का विश्लेषण भी सार्थक घटकों में हो सकता है। संरचना के अर्थ में घटकों का अर्थ संन्निहित होना चाहिए। इसका यह भी तात्पर्य है कि संरचना का अर्थ बड़ा होता है। घटक के अर्थ को निकाल लेने पर भी उस संरचना में कुछ अर्थ बचा रहता है। यह कुछ अर्थ ही संरचनात्मक अर्थ (स्ट्रक्चरल मीनिंग) कहलाता है। संरचनात्मक अर्थ का अस्तित्व संरचना के बाहर संभव नहीं है लेकिन घटकों का अर्थ संरचना के बाहर भी बना रहता है।

 

(क)   रूपात्मक संरचना

 

रूपात्मक संरचना में (रूप) के निर्माण का विचार एवं विवेचन होता है। हिंदी में रूपिम शब्द निर्माण की तीन पद्धतियाँ प्रचलित हैं – (1) समास पद्धति, (2) पुनरावृत्ति पद्धति एवं (3) सर्ग पद्धति।

 

(1)  समास पद्धति में संयोजक तत्त्व हटा दिया जाता है, जिससे एक से अधिक शब्द आपस में मिलकर एक शब्द की रचना करते हैं। यही क्रिया समास कहलाती है। और, इस प्रकार बने शब्द सामासिक शब्द कहलाते हैं। यथा- घोड़ों की दौड़ > घुड़दौड़, माता और पिता > मातापिता। पहले में ‘की’ परसर्ग और दूसरे में ‘और’ समुच्चय बोधक का लोप हुआ है। एक साथ आए समास के अर्थ को व्यक्त करने वाले पदों का विलगाव विग्रह कहलाता है। घोड़ा+दौड़, माता+पिता। ये टुकड़े घटक भी कहलाते हैं।

 

समास मूलतः चार प्रकार के हैं- (1) अव्ययी भाव- इसमें पहला अथवा दूसरा पद अव्यय होता है। इसमें अव्यय पद की ही प्रधानता होती है। क्रिया-विशेषण के रूप में संज्ञा, विशेषण तथा अव्यय की पुनरुक्ति भी अव्ययी भाव समास है- निडर (नि+डर), बेवजह (बे+वजह), दिनोंदिन (दिन+दिन), यथाशक्ति (यथा+शक्ति)। (2) तत्पुरुष – इसमें दूसरा पद प्रधान रहता है। इसके कई भेद हैं- समानाधिकरण, व्यधिकरण। व्यधिकरण के द्वितीया से सप्तमी तक छः भेद हैं। (3) बहुव्रीहि – इसमें दोनों पदों के अलावा अन्य पद प्रधान होता है। यथा- अबला (जिसके बल नहीं वह), अनुचित (जो उचित नहीं)। (4) द्वन्द्व- इसमें दोनों पद प्रधान होते हैं और एक साथ कई पद आ सकते हैं। यथा- घर और परिवार – घर-परिवार।

 

(2)   पुनरावृत्ति पद्धति बहुत प्रभावी नहीं। यह दो प्रकार की  होती है। कभी तो उसी शब्द को दुहरा दिया जाता है। यथा- खट खट, पट पट और कभी शब्द के उच्चारण से मेल खाते सार्थक अथवा निरर्थक शब्द की पुनरावृत्ति की जाती है; यथा- गाना-बजाना, लोटा-वोटा। ‘गाना’ के साथ आया ‘बजाना’ सार्थक है, जबकि ‘लोटा’ के साथ प्रयुक्त ‘वोटा’ निरर्थक है।

 

(3)   सर्ग पद्धति में मूल शब्द के आदि, मध्य या अंत अथवा आदि और अंत दोनों में कुछ जोड़कर नया अर्थ देने वाला शब्द बनाया जाता है। यथा- ज्ञान के पूर्व ‘अ’ जोड़कर ‘अज्ञान’; और अंत में ‘-ई’ की संपृक्ति से एक नया रूप निर्मित हो जाता है- अ+ज्ञान+ई = अज्ञानी। अंत में केवल ‘ता’ जोड़कर सुंदर+ता = सुंदरता, भावुक+ता = भावुकता बनता है। रूप के प्रारंभ में जो जुड़ता है उसे उपसर्ग (आदि सर्ग) तथा शब्द के मध्य या अंत में जो जुड़ता है, उसे प्रत्यय (अंत्य सर्ग) कहा जाता है। उपसर्ग ‘अ’ और प्रत्यय ‘ता’ अर्थवान इकाई हैं। यथा- उपसर्ग ‘अ’+ज्ञान= अज्ञान। यहाँ शब्द का अर्थ नकारात्मक हो जाता है। सुंदर+ता (प्रत्यय)= ‘सुंदरता’। स्पष्टतः ‘ता’ का योग उसे भाववाचक संज्ञा का रूप प्रदान कर देता है, जबकि ‘सुंदर’ विशेषण था।

 

उपसर्ग तीन प्रकार के हैं- (क) तत्सम, (ख) तद्भव और (ग) विदेशी। तत्सम उपसर्गों का प्रयोग हिंदी के तत्सम शब्दों तक ही सीमित नहीं। इनका प्रयोग तद्भव शब्दों के निर्माण में भी होता है। यथा- स+पूत=सपूत, अ+काज=अकाज, अन+मोल=अनमोल।

 

रूपात्मक संरचना समृद्धि, भाषा-विशेष की समृद्धि और भाषिक संश्लिष्टता का पर्याय है। वचन और लिंग परिवर्तन के प्रत्यय भी भाषा वैशिष्ट्य के प्रमाण हैं। यथा- औरत+एँ, ओं = औरतें, औरतों (बहुवचन) तथा लड़का+ई = लड़की (स्त्री लिंग)।

 

भाषा-शब्द-संरचना में शब्द की जाति को लिंग कहा जाता है। व्याकरणिक लिंग-विधान हर भाषा का अपना होता है। संस्कृत में तीन लिंग-पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसक लिंग हैं जबकि हिंदी में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग का ही विधान है। लिंग-विधान रूपायित और चयनात्मक रूपों में मिलता है। रूपायित वह रूप है, जिसमें पुल्लिंग से स्त्रीलिंग का निर्माण होता है। यथा- पु.-छात्र, स्त्रीलिंग-छात्रा, प्रिय-प्रिया, नद-नदी, सेठ-सेठानी, गोप-गोपी आदि। और चयनात्मक वह रूप है जो स्वतंत्र शब्द के रूप में स्त्रीलिंग का कार्य करते हैं। यथा- दिन (पु.), रात (स्त्री.), कान (पु.), नाक (स्त्री.), पुरुष (पु.), औरत (स्त्री.)। लिंग, वचन, पुरुष की भाँति कारक भी एक व्याकरणिक कोटि है और भाषा में इस कोटि का संबंध संज्ञा और सर्वनाम रूपों की निर्मिति से है। हिंदी में कारक चिह्नों को परसर्ग एवं विकारक चिह्नों को विभक्ति कहा जाए तो अधिक उचित होगा। हिंदी में शब्दों के दो मुख्य विकारक रूप हैं- एक सामान्य विकारक और दूसरा तिर्यक विकारक। सामान्य विकारक के शब्द का रूप अपरिवर्तित रहता है। तिर्यक विकारक में शब्द का रूप बदल जाता है। यथा-

 

‘काल’ शब्द संरचना की अगली व्याकरणिक कोटि है। यह केवल क्रिया-रूपों को प्रभावित करती है। यह तीन प्रकार की है- भूत, वर्तमान और भविष्यत्। भूतकाल में संबंधतत्व अर्थतत्व से इस प्रकार मिल जाता है कि उसके अस्तित्व का पता ही नहीं चलता। यथा- ‘जा’ (जाना) का रूप ‘गया’ (भूतकाल) हो गया। जैसे- वह जाता है (वर्तमान काल), वह गया (भूतकाल)। सामान्यतः भूतकाल का रूप – ‘था’, ‘थे’, ‘थी’ है। वर्तमान काल सूचक संबंध तत्व हैं- है, हैं, हूँ। ‘गा’, ‘गे’, ‘गी’ आदि भविष्यत् काल सूचक संबंधतत्व है। यह बताया जा चुका है कि वाक्य संरचना में अर्थ तत्व एवं संबंध तत्व मिलकर कार्य करते हैं।

 

(ख)   वाक्य संरचना

 

‘वाक्य’ प्रायः सार्थक शब्दों के समूह का संरचनात्मक स्वरूप है, जो भाव को व्यक्त करने की दृष्टि से अपने आप में पूर्ण है। भारतीय आचार्य पतंजलि एवं समकालीन यूरोपीय विद्वान थ्रैक्स पूर्ण अर्थ की प्रतीति कराने वाले शब्द समूहों को वाक्य मानते हैं। इसमें दो बातें प्रमुख हैं (1) वाक्य-शब्दों का समूह है और (2) वाक्य पूर्ण होता है। वस्तुतः ये दोनों शर्तें वाक्य-धरातल पर कभी पूरी होती हैं और कभी नहीं। यथा- यहाँ दो संरचनाएँ हैं-

  1. तुम कब जाओगे?
  2. कल !

 

यहाँ ‘कल’ शब्द अकेला है, समूह नहीं पर अर्थ की दृष्टि से पूर्ण है। यहाँ ‘कल’ शब्द- ‘कल जाऊँगा’ का बोधक है। अर्थ की पूर्णता भी विवादास्पद है। किंतु भाषा संरचना के धरातल पर वाक्य सबसे बड़ी इकाई के रूप में मान्य है।

 

वाक्य के दो अंग होते हैं- उद्देश्य और विधेय। उद्देश्य वाक्य का वह अंग है, जिसके संबंध में वाक्य के शेष अंग में कुछ कहा गया हो। उद्देश्य में केन्द्रीय शब्द या उसका विस्तार आ सकता है। यथा- ‘लड़का गया’ में ‘लड़का’ केंद्रीय शब्द (उद्देश्य) है किंतु ‘राम का लड़का’ वाक्य में ‘राम का’ लड़का  का विस्तार है। अतः इस वाक्य में- ‘राम का लड़का’ उद्देश्य होगा। विधेय वाक्य का वह अंश है जो उद्देश्य के बारे में सूचना दे। इसमें क्रिया और उसका विस्तार होता है। ‘लड़का गया’ में ‘गया’, ‘लड़का घर गया’ में ‘घर गया’ विधेय है।

 

(1)   पदक्रम

 

हर भाषा में रूप या पद वाक्यात्मक सरंचना के आधार होते हैं। किंतु वाक्यात्मक-संरचना के धरातल पर हर भाषा में पदों का स्थान नियत रहता है। यथा-

 

1.दिनेश ने रमेश को मारा – हिंदी

Dinesh beats Ramesh –   अंग्रेजी

 

हिंदी में पदक्रम- कर्ता+कर्म+क्रिया है तो अंग्रेजी में कर्ता+क्रिया+कर्म पदक्रम मान्य है। इतना ही नहीं इस संरचना को निम्नलिखित रूप में देखिए-

 

2. रमेश ने दिनेश को मारा

 

स्पष्टतः संरचना (1) और संरचना (2), अर्थ के धरातल पर भिन्न हो जाते हैं। पहले में कर्ता दिनेश है और कर्म रमेश। दूसरे में ठीक इसका उल्टा। कर्ता तथा कर्म का संबंध संरचनात्मक अर्थ है। वस्तुतः वाक्य के बाहर कर्ता तथा कर्म की स्थिति संभव नहीं। कर्ता या कर्म किसी घटक के नित्य अर्थ भी नहीं है। यहाँ यह स्पष्ट है कि वाक्य का अर्थ समझने के लिए वाक्य में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ जानना ही पर्याप्त नहीं बल्कि वाक्य में शब्दों के परस्पर संबंधों को भी जानना जरूरी है। इसे यों समझा जा सकता है-

 

शब्दों के अर्थ+शब्दों के परस्पर संबंध = वाक्यार्थ

घटकों के अर्थ+घटकों के परस्पर संबंध = संरचना का अर्थ।

 

(2)   अन्वय

अन्वय का तात्पर्य है- व्याकरणिक अनुरूपता। विभिन्न भाषाओं में विशेषण-विशेष्य, कर्ता-क्रिया, कर्म-क्रिया आदि विभिन्न व्याकरणिक कोटियों में लिंग, वचन, पुरुष तथा मूल और विकृत रूप आदि की अनुरूपता होती है। व्याकरणिक अनुरूपता के नियम हर भाषा के अलग हैं। यथा- संस्कृत में कर्ता-क्रिया में लिंग का अन्वय नहीं है, किंतु हिंदी में है। यथा-

 

संस्कृत –      बालकः पठति;       हिंदी – बालक पढ़ता है।

संस्कृत –      बालिकाः पठति;       हिंदी –       बालिका पढ़ती है।

 

कतिपय भाषाओं के विशेषण में भी लिंग तथा वचन का अन्वय होता है। हिंदी इसका उदाहरण है। किंतु अंग्रेजी में यहाँ अन्वय प्रक्रिया प्रभावी नहीं है-

 

अच्छा छात्र           =     Good Student

अच्छी छात्रा          =     Good Student

अच्छे छात्र           =     Good Students

अच्छी छात्राएँ         =     Good Students

हिंदी की क्रिया कभी कर्ता के अनुरूप होती है –

श्याम (कर्ता) गया      –     नीलिमा (कर्ता) गई

 

कभी कर्म के अनुरूप –

 

श्याम ने रोटी खाई।

श्याम ने आम खाया।

 

यहाँ क्रमशः कर्म ‘रोटी’ तथा ‘आम’ के कारण क्रिया की संरचना बदल गई। मूल विकृत रूप की भी विशेषण-विशेष्य से अनुरूपता होती है। यथा –

यह काला कपड़ा उठाओ।

उस काले कपड़े को उठाओ।

 

(3)   पदबंध

जब एक से अधिक रूपों में बँधकर एक व्याकरणिक इकाई (संज्ञा, क्रिया-विशेषण) का कार्य करे तो उस संयुक्त इकाई को पदबंध कहते हैं। यथा –

(1) वहाँ घर है।

(2) सड़क के किनारे बायीं तरफ घर है।

 

पहले वाक्य में ‘वहाँ’ एक क्रिया-विशेषण पद (स्थान वाचक) है। दूसरे वाक्य में ‘सड़क के किनारे बायीं तरफ’ कई पदों की एक ऐसी इकाई है जो स्थान-वाचक क्रिया-विशेषण पद न होकर क्रिया-विशेषण पदबंध है। वस्तुतः पदबंधीय व्यवस्था के कारण एक ही वाक्यात्मक संरचना से कई रचनाएँ बन सकती हैं। यथा –

  1. लड़का दूध पीएगा।
  2. वह लड़का गरम दूध पीएगा।
  3. वह छोटा लड़का हल्का गरम दूध पीएगा।

 

वाक्य (2) तथा (3) वाक्य (1) के विस्तार हैं। तीनों वाक्य वास्तव में एक ही साँचे के वाक्य हैं- कर्ता+कर्म+क्रिया। साँचे की स्पष्टता के लिए- ‘लड़का’, ‘वह लड़का’, ‘वह छोटा लड़का’, ‘दूध’, ‘गरम दूध’, ‘हल्का गरम दूध’- को इकाई के रूप में स्वीकार करना होगा और इन इकाइयों का नाम होगा- ‘पदबंध’।

 

(4)   उपवाक्य

 

पदबंध तथा वाक्य के बीच में उपवाक्य की संकल्पना भी आवश्यक है, इसके लिए निम्नलिखित वाक्यों पर विचार करना जरूरी है-

  1. यदि उसने दवा खाई तो जरूर अच्छा हो जाएगा।
  2. यदि आँधी आई तो पेड़ गिर जाएगा।

 

वाक्य (1) में- शर्तसूचक अव्यय (यदि), कर्ता (उसने), कर्म (दवा), क्रिया (खाई), शर्तसूचक विशेषण (तो), निश्चयवाचक सर्वनाम (जरूर), विशेषण (अच्छा), क्रिया (हो जाएगा)- ये सभी पदबंध हैं, दूसरे वाक्य में भिन्न पदबंध हैं। इस प्रकार पदबंधों की संख्या और प्रकार के आधार पर सभी वाक्य विभिन्न प्रकार के माने जाएँगे जबकि दोनों वाक्य वास्तव में एक ही प्रकार के हैं क्‍योंकि ‘यदि’, ‘तो’ के साँचे में दोनों वाक्य आ जाते हैं। वस्तुतः यह संरचना दो उपवाक्यों की है। यथा- ‘उसने दवा खाई’ तथा ‘जरूर अच्छा होगा’। इन्हें एक वाक्य बनाने के लिए ‘यदि’ तथा ‘तो’ का प्रयोग किया गया है। ‘उपवाक्यों’ की संकल्पना का आधार वैज्ञानिकता और संक्षिप्तता है।

 

  1. भाषा संरचना

 

वाक्य के निकटतम अवयव (Immediate constituente

 

वाक्य एक संघटना है और संघटना के संयोजक तत्‍व अवयव कहलाते हैं। किसी संघटना के समस्त संघटकों का पारस्परिक संबंध एक जैसा नहीं होता। उनमें कतिपय एक दूसरे से सुसंबद्ध होते हैं। इन सुसंबद्ध संघटकों को समीपी या निकटस्थ अवयव कहते हैं। यह निकटता स्थान की न होकर अर्थ की होती है। जैसे ‘इज ही गोइंग’ (Is he going)। इसमें तीन अवयव हैं। देखने में ‘इज’ ‘ही’ के निकट हैं किंतु वास्तविक रूप में ‘ही’ की तुलना में ‘गोइंग’ के निकट हैं। इस वाक्य में ‘इज’ ‘गोइंग’ का निकटतम अवयव है और फिर ये दोनों मिलकर ‘ही’ के निकटस्थ हैं। वस्तुतः निकटतम अवयव के आधार पर ही किसी वाक्य या वाक्यांश का संरचनात्मक अर्थ स्पष्ट होता है। यथा- निम्नलिखित वाक्य देखिए-

 

  1. मोहन का भाई बम्बई भाग गया

संरचना में स्पष्टतः दो खंड दिखायी दे रहे हैं-

(क) मोहन का भाई और (ख) बम्बई भाग गया।

संरचना (ख) में भी दो खंड दिखायी दे रहे हैं-

(क) ‘बम्बई’ और (ख) ‘भाग गया’

 

इसे निम्नलिखित आरेख द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है-

 

उपर्युक्त संरचना में भाई और बम्बई साथ हैं किंतु ‘भाई’ ‘बम्बई’ का निकटतम अवयव न होकर ‘मोहन’ का निकटतम अवयव है, जबकि ‘बम्बई’ ‘गया’ का निकटतम अवयव है ‘भाग’ का नहीं।

 

वस्तुत इस संरचना के मूल अवयव या घटक दो हैं (1) मोहन और (2) गया। अर्थात् मूल संरचना हुई-

 

‘मोहन गया’ और ‘मोहन’ तथा ‘गया’ निकटतम संरचना के वे अवयव है जिन पर इस संरचना का क्रमिक विस्तार हुआ है।

 

एक उदाहरण और द्रष्टव्य है-

 

सुंदर     फूल  और  फलों  से  भरा  उपवन

 

निकटस्थ अवयव की दृष्टि से इसके दो विश्लेषण हो सकते हैं और दोनों के अनुसार अर्थ में अंतर आ जायेगा –

 

 

उपर्युक्त विश्लेषण में ‘सुंदर’ शब्द केवल ‘फूल’ का विशेषण है किंतु

 

 

मुहावरेदार और मुहावराविहीन प्रयोगों में भी इसका अंतर दिखाई देता है-

  1. मोहन आम खा रहा है।
  2. मोहन का सर चक्कर खा रहा है।

 

पहली संरचना में ‘खा’ का निकटस्थ अवयव ‘आम’ है

 

इसके विपरीत दूसरे वाक्य में ‘चक्कर’ ‘खा’ का निकटस्थ अवयव है और ‘चक्कर’ तथा ‘खा’ दोनों मिलकर ‘रहा है’ के निकटस्थ अवयव हैं

प्रस्तुत उदाहरण – रुको, मत जाओ तथा रुको मत, जाओ में निकटतम अवयव के कारण संरचनात्मक अर्थ में परिवर्तन द्रष्टव्य है

पहले वाक्य में ‘मत’ ‘जाओ’ का निकटतम अवयव है, जबकि दूसरे वाक्य में ‘मत’ ‘रुको’ का निकटतम अवयव है फलस्वरूप वाक्यार्थ बदल गया।

 

  1. भाषा संरचना के विभिन्न स्तर और उनके अन्तस्संबंध

 

भाषा के संरचनात्मक स्तरों के अन्तस्संबंध को निम्नलिखित आरेख द्वारा दर्शाया जा सकता है –

 

यह स्पष्ट किया जा चुका है कि भाषा संरचना की सबसे बड़ी इकाई वाक्य है। अर्थात्, उपवाक्य, पदबंध, शब्द क्रमशः उससे छोटी इकाई हैं। सबसे छोटी इकाई ‘शब्द’ का विश्लेषण करने पर रूपिम प्राप्त होते हैं। यथा- स+हृदय दो रूपिम हैं। रूपिम व्याकरणिक संरचना नहीं है, क्योंकि इसके सार्थक टुकड़े संभव नहीं है। उपर्युक्त संरचनात्मक स्तरक्रम से स्पष्ट है कि सामान्य रूप से रूपिम शब्द का घटक बनता है, शब्द पदबंध का, पदबंध उपवाक्य का और उपवाक्य वाक्य का। वाक्य घटक नहीं, क्‍योंकि वाक्य से बड़ी संरचना की परिकल्पना यहाँ नहीं की गई है। शब्द, पदबंध और उपवाक्य घटक भी हैं और संरचना भी हैं। रूपिम और शब्द को एक साथ देखें तो शब्द संरचना हैं, क्योंकि शब्द का विश्लेषण करने पर रूपिम घटक रूप में प्राप्त होते हैं। शब्द और पदबंध को एक साथ देखें तो शब्द घटक हैं, क्योंकि पदबंध का विश्लेषण करने पर घटक के रूप में शब्द प्राप्त होते हैं। यथा –

 

‘सहृदय मनुष्य’ = पदबंध; ‘सहृदय’, ‘मनुष्य’ = शब्द घटक है।

 

जबकि यहाँ पदबंध संरचना है और पदबंध एवं उपवाक्य को एक साथ रखने पर पदबंध घटक हैं।

 

यहाँ एक बात स्पष्ट है कि वाक्य का संरचनात्मक अर्थ घटकों के अर्थ+घटकों के परस्पर संबंध से स्पष्ट होता है। यथा –

  1. साँप मेढक खाता है।
  2. मेढक साँप खाता है।

 

इन दोनों वाक्यों में तीन घटक हैं। यहाँ तीनों घटकों का एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ है। दोनों वाक्यों में साँप और मेढक से एक प्रकार के जीव का बोध होता है, और ‘खाता है’ से एक प्रकार के क्रिया-व्यापार का बोध होता है। लेकिन इस तरह की समानता के बाद भी दोनों वाक्यों में कर्ता, कर्म के परस्पर बदलाव के कारण अर्थ बिलकुल उलट गया है। संरचना (1) में कर्ता-साँप है और संरचना (2) में कर्ता-मेढक है, ठीक इसी तरह संरचना (1) में कर्म-मेढक है, संरचना (2) में कर्म-साँप है। कर्ता तथा कर्म का संबंध संरचनात्मक अर्थ है। वाक्य के बाहर कर्ता कर्म की स्थिति संभव नहीं। तात्पर्य यह कि अर्थ घटक जब वाक्य की स्थिति में मिलते हैं, तभी उनका (कर्ता, कर्म, क्रिया) संरचनात्मक अर्थ विज्ञप्त होता है, क्योंकि कर्ता, कर्म या क्रिया किसी घटक का नित्य अर्थ भी नहीं।

 

उपर्युक्त आरेख में एक संरचना है- विशेषण+संज्ञा = ‘सहृदय मनुष्य’। यह संरचना मनुष्य के वैशिष्ट्य को इंगित करती है। किंतु यह इसका घटकीय अर्थ होगा न कि संरचनात्मक अर्थ होगा। वाक्य संरचना में प्रयुक्त होने पर यह ‘कर्ता’ का अर्थ प्रदान करता है। उपर्युक्त वाक्य संरचना में दो उपवाक्य हैं- (1) ‘सहृदय मनुष्य दूसरों की मदद करते हैं’ तथा (2) ‘सहृदयता का जीवन व्यतीत करते हैं’। ये दोनों संरचनाएँ स्वयं में अलग-अलग वाक्य संरचना भी हैं तथा ‘और’ की संपृक्ति के कारण संयुक्त वाक्य भी हैं। एक वाक्यात्मक धरातल पर ये दोनों संरचनाएँ उपवाक्य कहलाएँगी।

  1. निष्कर्ष
  • भाषा संरचना के धरातल पर शब्द, पदबंध, उपवाक्य और वाक्य (पदक्रम, अन्वय) भाषा-संरचना के स्तर हैं।
  • वाक्यों के परस्पर संबद्ध अवयव (संघटक तत्त्व) निकटतम अवयव कहलाते हैं।
  • शब्द संरचना (रूपात्मक संरचना) में शब्द निर्माण पद्धति के साथ-साथ वचन, लिंग-परिवर्तन का विवेचन किया जाता है।
  • भाषा-संरचना के स्तरों- शब्द, पदबंध, उपवाक्य और वाक्य-के परस्पर मिलन से निष्पन्न संरचनात्मक अर्थ भाषा के संरचनात्मक स्तरों के अंतस्‍संबंध का परिणाम है।

 

you can view video on भाषा संरचना के विभिन्न स्तर और उनके अन्तस्संबंध

अतिरिक्त जानें

  • संरचना की प्रयोगगत विशेषता को देखकर उसके दो वर्ग किए जा सकते हैं- अंतर्मुखी रचना (Endocentric construction) एवं बहिर्मुखी रचना।
  • अंतर्मुखी रचना वह रचना है जो प्रयोग की दृष्टि से लगभग उस इकाई के बराबर हो, जो इकाई उक्त रचना का ही घटक है।

 

मीठा फल

प्रयोग- मीठा फल खाओ।

यहाँ केवल ‘फल’ के प्रयोग से अभिप्राय निष्पन्न हो जाता।

  • बहिर्मुखी रचना वह रचना है जो प्रयोग की दृष्टि से अपने किसी घटक के बराबर नहीं, जैसे- ‘घर में’। वाक्य में जहाँ ‘घर में’ प्रयोग करना चाहिए वहाँ केवल ‘घर’ या केवल ‘में’ के प्रयोग द्वारा वाक्य की व्याकरणिकता की रक्षा नहीं की जा सकती। यथा –

 

वह घर में पढ़ रहा है।

वह घर पढ़ रहा है।

दूसरी रचना में प्रथम रचना का संप्रेष्य पूर्णतया बदल जाता है।

 

संदर्भ ग्रन्थ

 

1.  Bloomfield, Leonard (1933). Language, New York: Holt, Rinehart and Winston 2.  Gleason, H.A. (1955). Introduction to Descriptive Linguistics, New York : Holt Rinehart 3.  Hockett, Charles.F. (1958). A Course in Modern Linguistics. New York: Macmillan 4.  Taraporewala, I.J.Sorabji (1962). Elements of the Science of Language, Calcutta: Calcutta University 5.  शर्मा, राजमणि (1998). हिंदी भाषा : इतिहास और स्‍वरूप. नयी दिल्ली : वाणी प्रकाशन