32 कोशविज्ञान

कृष्‍ण कुमार गोस्‍वामी

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कोशविज्ञान: स्वरूप और क्षेत्र
  4. कोश-निर्माण प्रक्रिया
  5. कोशों के प्रकार
  6. कोशनिर्माण में प्रविष्टि की संरचना
  7. शब्दकोशों की ऐतिहासिक परंपरा
  8. एकभाषी कोश (हिंदी)
  9. द्विभाषी कोश
  10. निष्‍कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्‍ययन के उपरांत आप-

  • कोशविज्ञान की अवधारणा समझ सकेंगे;
  • शब्दकोशों के निर्माण की प्रक्रिया को जान सकेंगे;
  • शब्दकोशों के प्रकारों की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे;
  • हिंदी के एकभाषी शब्दकोशों के बारे में अवगत हो सकेंगे;
  • द्विभाषी शब्दकोशों के बारे में सूचना प्राप्त कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   कोशविज्ञान भाषा की शब्दावली के सैद्धांतिक पक्षों का अध्ययन करता है। इसका अनुप्रयोगिक  रूप कोश निर्माण प्रक्रिया है जिसमें विभिन्न स्रोतों से एक भाषा की कोशगत सूचना एकत्रित की जाती है। उस सूचना को स्पष्ट और व्यवस्थित रूप में संयोजित किया जाता है। उसमें पर्यायवाची तथा समध्वन्यात्मक शब्दों जैसी अर्थगत सूचनाएँ दी जाती हैं। इससे एक-एक शब्द के अर्थ का वर्णन करने में सहायता मिलती है। इस दृष्टि से कोश-निर्माण प्रक्रिया में व्यावहारिक उपयोगिता प्रमुख होती है और सैद्धांतिक प्रतिपादन गौण। इस लिए इसकी पहचान अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के रूप में हुई है। कोश-निर्माण-प्रक्रिया या कोशकला को कोशविज्ञान का व्यावहारिक अथवा अनुप्रयुक्त पक्ष कहा जा सकता है। कोश-निर्माण-प्रक्रिया में शब्द-सामग्री का संग्रह किया जाता है, शब्दों का चयन और वर्गीकरण होता है और फिर उसमें अर्थ-निर्धारण होता है। यह शब्द-संकलन का मात्र यांत्रिक कार्य नहीं है अपितु इसमें भाषायी आयामों का भी विवेचन होता है जिसमें कोशगत रूपों का वर्गीकरण और प्रस्तुतीकरण होता है। 

  1. कोशविज्ञान का स्वरूप और क्षेत्र

    व्याकरणिक परंपरा में भाषा-अध्ययन के दो खंड मिलते हैं: 1. शब्द और शब्द समूह और 2. शब्दानुशासन अर्थात व्याकरण। कोशविज्ञान (Lexicology) का संबंध भाषा के शब्द और शब्द समूह के अध्ययन से है। यह अध्ययन भी दो धरातलों पर होता है – एक, सैद्धांतिक और दो, व्यावहारिक। सैद्धांतिक धरातल पर वह शब्दों का अध्ययन स्वतंत्र शाब्दिक इकाई के रूप में करता है। भाषा की शब्द-संपदा की संरचना और बुनावट का विवेचन करता है। यह भाषाविज्ञान की अनुप्रयुक्त शाखा है जिसमें स्वनिमविज्ञान के अनुप्रयोग से उच्चारण, वर्तनी, अक्षर-विभाजन आदि का निर्धारण होता है। रूपविज्ञान के आधार पर प्रविष्टियों अर्थात शब्दों का रूपपरक विश्लेषण होता है तथा शब्द की रूपावली में सर्वाधिक प्रयुक्त शब्द या आधारभूत शब्द को आधिकारिक दृष्टि से ग्रहण किया जाता है। शब्दविज्ञान के अंतर्गत शब्द की प्रयोग संबंधी सूचना इकट्ठी की जाती है और आवृति के आधार पर उनका चयन किया जाता है। वाक्यविज्ञान की सहायता से उसके सहप्रयोग और संदर्भपरक सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं। अर्थविज्ञान के सहयोग से शब्दों का अर्थविषयक विवेचन होता है। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के माध्यम से व्युत्पत्तिमूलक अध्ययन होता है जिसमें शब्दों के रूप और अर्थ की उत्पत्ति, विकास और परिवर्तन के क्रम को जानने में सहायता मिलती है। द्विभाषी कोशों के लिए तो व्यतिरेकी विश्लेषण की अपेक्षा रहती है। इस प्रकार भाषाविज्ञान के अनुप्रयोग से यह अध्ययन वस्तुनिष्ठ हो जाता है।

 

कुछ विद्वान कोशविज्ञान को शब्दविज्ञान और शब्दार्थविज्ञान की श्रेणी में रखते हैं। शब्दार्थविज्ञान शब्दों के गठन और अर्थ का सैद्धांतिक अध्ययन करता है। इसमें शब्दों के सार्वभौम गुणों और अभिलक्षणों का विवेचन होता है। वास्तव में यह अर्थविज्ञान (Semantics) है, किंतु कोशविज्ञान अर्थविज्ञान नहीं है। कोशविज्ञान के अंतर्गत कोश-निर्माण-प्रक्रिया (Lexicography) भी सम्मिलित है। इस प्रकार कोशविज्ञान शब्दार्थ विज्ञान के सिद्धांतों के अनुप्रयोग का क्षेत्र है जो शब्द-निर्माण के ढांचे को बनाने में व्यावहारिक सिद्धांत प्रस्तुत करता है। दूसरे शब्दों में, यह दृष्टि प्रदान करता है कि विभिन्न प्रकार के शब्दकोश कैसे बनाए जाएँ। अत: कोशविज्ञान का व्यावहारिक या अनुप्रयुक्त पक्ष कोश-निर्माण-प्रक्रिया अथवा कोश कला (Lexicography) है जिसमें शब्दकोश के निर्माण की प्रविधि या पद्धति का अनुप्रयोग होता है। 

  1. कोश-निर्माण-प्रक्रिया

  भारत में ‘कोश’ और ‘कोष’ शब्द प्राचीन काल से मिलते हैं। पुराने अर्थ में संस्कृत में कोश के कई अर्थ मिलते हैं – संदूक, खोल, थैली, ढक्कन, म्यान, कटोरी, बाल्टी, बादल आदि; अर्थात उन वस्तुओं को मूलत: कोश कहते थे जिनमें कुछ रखा जाए। बौद्ध तथा जैन साहित्य में यह शब्द उस ग्रंथ के लिए प्रयुक्त होने लगा जिसमें गाथाएँ या छंद आदि संगृहीत होते थे। बाद में उन पुस्तकों को भी कोश कहा जाने लगा, जिनमें शब्द तथा उनके अर्थ होते हैं। इस प्रकार पहले कोष और कोश दोनों एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते थे। बहुत समय बाद हिंदी में कोश शब्द ‘शब्दकोश’ के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा और कोष शब्द का प्रयोग ‘खज़ाना’ के अर्थ में होने लगा।

 

पश्चिम में अंग्रेज़ी शब्द ‘Dictionary’ मिलता है जो लेटिन का Dicere है जिसका अर्थ है ‘बोलना’ या ‘कहना’। इससे Diction शब्द बना जिसका अर्थ है ‘जो बोला जाए या कहा जाए’ अथवा ‘शब्द’। इन शब्दों का समूह है ‘डिक्शनरी’। अंग्रेज़ी में कोश को Lexicon भी कहते हैं, जिसका संबंध मूलत: यूनानी धातु Legein से है। इस धातु से यूनानी शब्द Lexis बना, जिसका अर्थ ‘शब्द’ है। Lexis से यूनानी शब्द Lexicon बना जिसका अर्थ है ‘शब्दकोश’। यही अंग्रेज़ी में Lexicon हो गया है। अंग्रेज़ी में शब्दकोश को Glossary भी कहते हैं जो यूनानी Glossa से बना है जिसका अर्थ ऐसा शब्द है जिसमें अर्थ या व्याख्या की अपेक्षा होती है। अंग्रेज़ी में शब्दकोश के लिए Thesaurus (थेसॉरस) शब्द भी चलता रहा है जो यूनानी शब्द Thesaurus से आया है और इसका मूल अर्थ ‘खज़ाना’ या ‘भंडार’ होता है। अब थेसॉरस में शब्द के अर्थ क्षेत्र में निहित विभिन्न अर्थों, पर्याय, विलोम आदि के साथ-साथ वाक्यांश भी होते हैं। अरबी, फारसी और उर्दू में शब्दकोश को ‘लुगत’ कहते हैं जो मूलत: अरबी से आया है। प्राचीन अरबी में लुगत शब्द का प्रयोग ‘शब्द’ के लिए होता था जो अब ‘शब्दों के संग्रह’ के अर्थ में होता है।

 

कोश से अभिप्राय शब्दों के क्रमबद्ध संग्रह, उनके अर्थ-निर्धारण और व्याकरणिक कोटियों से है। इसी संदर्भ में कोशविज्ञान और कोश-निर्माण-प्रकिया के विभिन्न पक्षों पर सन् 1960 में यूनेस्को के विशेषज्ञों में चर्चा-परिचर्चा हुई थी। इसी संदर्भ में सी.सी. बर्ग ने कोश की परिभाषा दी है ‘कोश उन समाजीकृत भाषिक रूपों की व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध सूची है जो किसी भाषा-भाषी समुदाय के वाक्-व्यवहार से संग्रह किए गए हैं और जिनकी व्याख्या कोशकार द्वारा इस प्रकार की गई हो कि योग्य पाठक प्रत्येक रूप का स्वतंत्र अर्थ समझ सके तथा उस भाषिक रूप के सामूहिक प्रकार्य और तथ्यों से अवगत हो सके।’ इस प्रकार कोश की परिभाषा में (1) व्यवस्थित क्रमबद्धता, (2) वैज्ञानिक विधि का पालन, (3) भाषा-भाषी समुदाय, (4) कोशीय भाषा रूप – एक, समाजीकृत और दो, वाक् व्यवहार (5) स्वतंत्र अर्थपरक व्याख्या, (6) संरचनात्मक अभिव्यक्ति और (7) योग्य पाठक आते हैं। इस दृष्टि से इस परिभाषा में पद्धति (1,2), प्रकृति (3,4) प्रकार्य (5,6) और हेतु (7) तत्वों का समावेश है। इसमें मुख्य रूप है कोशीय भाषा जो समाजीकृत भाषारूप और भाषा समुदाय के वाक् व्यवहार से संबद्ध है। कोशकार को स्थिर या एक रूप और विचलनकारी या बहुरूपी स्थिति के बीच शब्दों के समस्त प्रयोग-क्षेत्रों की छानबीन करनी होती है तथा वस्तुपरक कसौटी के आधार पर ऐसे समाजीकृत रूपों का संग्रह करना होता है, जो संबद्ध भाषा-भाषी समुदाय के वाक्-व्यवहार के अंश हैं। इस प्रकार कोश-निर्माण-प्रक्रिया कोश निर्माण की कला और विज्ञान दोनों हैं। इसमें विभिन्न स्रोतों से एक भाषा की कोशगत सामग्री एकत्रित की जाती है। तत्पश्चात् उस सामग्री को स्पष्ट और व्यवस्थित रूप दिया जाता है। इसमें पर्यायवाची और समध्वन्यात्मक जैसी अर्थगत सूचनाएँ दी जाती हैं। कोशविज्ञान मुख्यतः भाषा की शब्दावली के सैद्धांतिक पक्षों का अध्ययन करता है और उसकी कोशगत संरचना का विवेचन प्रणाली के रूप में करता है। कोश का निर्माण अर्थ-ग्रहण की कठिनाइयों को दूर करने के लिए किया जाता है। इसमें अर्थ का निर्धारण किया जाता है। अर्थ-भेद का पता चलता है। वस्तुतः भाषा की आत्मा अर्थात् अर्थ का बोध कराना ही कोशकार का कार्य है।

  1. कोशों के प्रकार

   कोश का उद्देश्य मुख्यत: अर्थ, पर्याय, विलोम, व्युत्पत्ति, उच्चारण, प्रयोग, प्रतिशब्द आदि देना है। ये कोश एकभाषी, द्विभाषी या बहुभाषी कोश हो सकते हैं। कोशों का वर्गीकरण भाषा, विषय, प्रकृति आदि अनेक आधारों पर किया जा सकता है। भाषा और बोली के आधार पर एकभाषी कोश, द्विभाषी कोश, बहुभाषी कोश, पदबंध कोश, बोली कोश, वर्णनात्मक कोश, थेसारस, पर्याय कोश, विलोम कोश, व्युत्पत्ति कोश, उच्चारण कोश, उपसर्ग कोश, प्रत्यय कोश, प्रयोग कोश, ऑनलाइन या ई-कोश आदि होते हैं। काल के आधार पर ऐतिहासिक कोश, समकालिक कोश, तुलनात्मक कोश आदि होते हैं। विषय के आधार पर विश्वकोश, संस्कृति कोश, विज्ञान कोश, मनोविज्ञान कोश, भाषाविज्ञान कोश, सूक्ति कोश, परिभाषा कोश, साहित्यकार कोश, साहित्य-धारा कोश, साहित्य कोश आदि शामिल हैं। इनके अतिरिक्त मुहावरा कोश, लोकोक्ति कोश, पारिभाषिक कोश, वर्तनी कोश, शिक्षार्थी अथवा अध्येता कोश आदि को भी उपर्युक्त आधारों में सम्मिलित किया जा सकता है। इस प्रकार शब्दकोश एक ऐसा कोश है जिसमें किसी भी  भाषा के शब्दों का संग्रह होता है। उसमें व्यवस्थित रूप से अनेक व्याकरणिक सूचनाएँ दी जाती हैं तथा उच्चारण, वर्तनी, सटीक अर्थ, मानकता, शुद्धता आदि का निर्णय भी लिया जाता है। 

  1. कोशनिर्माण में प्रविष्टि की संरचना

    शब्‍दकोश का कार्य दीर्घकालीन और जटिल होता है। इसमें बहुत-सी सामग्री का संकलन तथा समावेश करना होता है। इसलिए कोश का निर्माण करते हुए कार्य को योजनाबद्ध रूप से कई चरणों में वि‍भाजित करने की आवश्‍यकता होती है। नियोजन करने के बाद सामग्री संकलन किया जाता है। सामग्री का यह संकलन कोश के प्रकार पर आधारित होता है। प्रविष्टियों का चयन किया जाता है और उनकी क्रम व्‍यवस्‍था भी निर्धारित की जाती है। उसके बाद प्रविष्टि की संरचना तैयार की जाती है। वस्‍तुत: शब्‍दकोश की प्रविष्टि में एक कोशीय इकाई तथा उसका कोशीय विवरण होता है। कोशीय इकाई भाषा के शब्‍द का एक अंग होता है, किंतु इसका संबंध शब्‍द भंडार की अन्‍य इकाइयों से भी होता है। कोश में जब इसका वर्णन होता है तो इसका अपना अलग संसार होता है और अपनी विशेषताएँ होती हैं। साथ ही सामाजिक, सांस्‍कृतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक आदि अनेक अभिलक्षणों का समावेश भी होता है।

 

शब्‍दकोश की संरचना के कई सोपान होते हैं। पहला है शीर्ष शब्‍द जिसे प्रविष्टि शब्‍द अथवा प्रविष्टि इकाई भी कहते हैं। शीर्ष शब्‍द के निर्धारण के लिए कोशकार पैराडाइम पद्धति का सहारा लेता है। शब्‍द के सभी विकारी रूपों के योग को पैराडाइम कहता है; जैसे- लड़का, लड़के, लड़कों आदि तथा खाना, खाया, खाइए, खाएगा। दूसरा चरण है उच्‍चारण और वर्तनी। उच्‍चारण का देना या न देना कोशों के प्रकार, भाषा की प्रकृति और उसके अभिलक्षणों पर आधारित है। इसके बाद व्‍युत्‍पत्ति दी जा सकती है। इसमें कुछ कोशकार मात्र स्रोत भाषा का नाम देते हैं और कुछ स्रोत भाषा के साथ शब्‍द भी देते हैं। कोश में व्‍याकरणिक सूचना संक्षिप्‍त रूप में देने की परंपरा है और विस्‍तृत सूचना देने का भी प्रावधान है। बहुत से कोशकार प्राय: शब्‍द वर्ग अर्थात यह शीर्ष शब्‍द संज्ञा है या क्रिया या विशेषण आदि देते हैं और साथ ही लिंग विधान अर्थात पुल्लिंग या स्‍त्रीलिंग या उभयलिंग देते हैं। अंत में अर्थ दिए जाते हैं। अर्थ के पेटे में पहले मुख्‍यार्थ दिया जाता है। यदि किसी शब्‍द की परिभाषा देनी पड़े तो वह आवश्‍यकता से अधिक न दी जाए। बाद में संदर्भपरक, आंचलिक, लाक्षणिक, तकनीकी आदि अर्थ दिए जाते हैं। आवश्‍यकता हो तो वाक्‍य-प्रयोग और चित्र भी दिए जा सकते हैं। 

  1. शब्दकोशों की ऐतिहासिक परंपरा             

    प्राचीन काल में भारतीय विद्वानों ने कोश-निर्माण के लिए भाषायी अंतर्दृष्टि की आवश्यकता महसूस की थी। इस प्रयास में ‘निघंटु‘ को भारत का सर्वप्रथम कोश माना जाता है। निघंटु में वैदिक शब्दों का संकलन है जिसकी व्याख्या यास्क ने 700 ईसा पूर्व ‘निरुक्त’ नाम से की थी। इसमें शब्द की ‘धातु’ लेकर अर्थ बताया गया और उस शब्द का प्रयोग भी बताया गया। इसके पश्चात उत्पलिनी कोश, त्रिकांड, रत्नकोश, शब्दार्णव आदि कई कोशो का निर्माण हुआ। पाँचवीं शताब्दी में ‘अमरकोश’ की रचना हुई थी और इसे लौकिक संस्कृत का प्रथम कोश माना जाता है। यह कोश इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि इसपर सत्तर से अधिक टीकाएँ लिखी गईं। अंग्रेजी के प्रसिद्ध थेसॉरस के रचयिता रॉजेट ने अपने कोश के निर्माण में अमरकोश का आभार माना है। अमरकोश में वर्णानुक्रमता का प्रथम प्रयास हुआ है। संज्ञा शब्दों के लिंग-संकेत भी मिलते हैं। शब्दों के विभिन्न अर्थ देने की भी कोशिश मिलती है। अमरकोश के बाद जिन कोशों की रचना हुई वे पर्यायों या समध्वन्यात्मक शब्दों की कोशगत विशेषताओं पर आधारित थे। चिकित्सा, ज्योतिष और गणित के भी कई तकनीकी कोशों का निर्माण हुआ। पालि में महाव्युत्पत्ति कोश’ और अभिधानप्पदीपिका कोशो की रचना हुई जिनमें वैदिक तथा लौकिक संस्कृत के कोशों से अलग हट कर होना तो था ही मुहावरों का भी प्रयोग हुआ। प्राकृत में ‘पाइअ लच्छी नाममाला’ (प्राकृत लक्ष्मी नाममाला) एक पर्याय कोश है। अपभ्रंश में हेमचंद्र के ‘देशी नाममाला‘ कोश में प्राय: प्राकृत के शब्द मिलते हैं। हिंदी कोशों के निर्माण का प्रारंभ वैष्णव हिंदी कवि नंददास की ‘मानमंजरी नाममाला’ (1561 ई) से माना जाता है जो अमरकोश के आधार पर पर्यायवाची या संबद्ध शब्दों का संकलन है। इसी प्रकार भारतीय नाममाला, प्रकाश नाममाला, नाम रत्नाकर कोश, नाम प्रकाश, अमर प्रकाश, अमरकोश भाषा, नामरामायण आदि कोश भी उल्लेखनीय स्थान रखते हैं।

 

प्राचीन काल में यूरोप के अनेक देशों में धर्मग्रंथों के हाशिये पर कठिन शब्दों के अर्थ लिखने की परंपरा रही है। बाद में इसी सामग्री को अनुक्रमणिका तथा शब्दसूची का रूप दिया गया। इस तरह की एक शब्दसूची 725 ई की  ‘कॉर्पस ग्लॉसरी’ (Corpus Glossary) है जो इंग्लैंड में मिली है। इसमें लैटिन में अर्थ हैं। 10वीं शताब्दी तक लैटिन-अंग्रेज़ी, लैटिन-फ्रांसीसी, लैटिन-इटेलियन कोशों का निर्माण हुआ। 15वीं शताब्दी में प्रथम अंग्रेज़ी-लैटिन कोश का निर्माण हुआ जिसकी प्रविष्टियाँ पूर्णतया वर्णानुक्रम के अनुसार है। यहीं से एकभाषी अंग्रेज़ी कोशों तथा आधुनिक कोशविज्ञान का श्रीगणेश माना जाता है। इंग्लैंड में पहले कई व्यक्तिगत प्रयास हुए हैं। सन 1604 में जी हार्वे का पहला अंग्रेज़ी कोश है जिसमें सिर्फ साहित्य के शब्द लिए गए हैं, सामान्य बोलचाल के शब्द नहीं हैं। 1623 में कॉड्रे (Cawdrey) के कोश में स्त्रियों के लिए शब्दों के संकलन के साथ-साथ बाज़ारू और शिष्ट व्यवहार में प्रयुक्त होने वाले शब्द भी दिए गए। 17वीं शताब्दी में जान बुलोकर (1616), हेनरी कौकेरम (1623), थॉमस ब्लाउंट (1656), फ़िलिप्स (1658), कोल्स (1676) के कोशों का भी निर्माण हुआ। 1721 में एन बेली का Universal Etymological English Dictionary नामक कोश प्रकाशित हुआ जिसमें व्युत्पत्ति पर अधिक बल दिया गया। 1755 में डॉ. जॉनसन का कोश A Dictionary of English Language दो भागों में प्रकाशित हुआ जिसने कई वर्षों तक अपनी धाक जमाए रखी। 1874 में आर जी लॉथम द्वारा इस कोश का संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ। 19वीं शताब्दी में कोश के क्षेत्र में एक नया प्रयास हुआ जो आज भी अपना वर्चस्व बनाए हुए है। इसमें कॉलरिज के संपादन में 1884,1928 और 1933 में तीन अलग-अलग संस्करण प्रकाशित हुए। बाद में एफ जे फर्निवाल, जे ए एच मरे, ब्रैडले, डबल्यु क्रेगी, सी टी ओनियन्स आदि ने इसी कोश पर कार्य किया जो ‘ऑक्सफोर्ड इंगलिश डिक्शनरी’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस कोश के आज भी कई संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। इसी प्रकार व्हिटने की ‘सेंचुरी’ (1889-91), यूल की  हॉब्सन-जॉब्सन’ (1886), चैंबर्स ट्वेंटिएथ सेंचुरी डिक्शनरी’’, आदि के साथ-साथ राजेट का ‘थेसॉरस’ भी प्रकाशित हुए हैं। अमेरिका में कोशों का विकास अलग से हुआ। इसमें मुख्य नाम एन वेब्स्टर का है जिनका कोश The American Dictionary of English Language (1828) है। यह व्युत्पत्ति, उच्चारण, व्याख्या, परिभाषा आदि की दृष्टि से जॉनसन के कोश से अधिक प्रामाणिक और अच्छा है। इस प्रकार अंग्रेज़ी कोश-परंपरा काफी समृद्ध रही है।

 

प्रारंभ के हिंदी के एकभाषी कोश अमरकोश पर आधारित थे और यह परंपरा 18वीं शताब्दी के अंत तक चलती रही। ये कोश परंपरागत और रूढ़िगत थे। 19वीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वान भारतीय भाषाओं में रुचि लेने लगे और उन्होंने यूरोपीय कोश पद्धति के आधार पर व्याकरण, शब्दकोश और शब्दावलियों का निर्माण किया। इसी प्रयास में एक ईसाई पादरी टी आदम ने ‘हिंदवी भाषा कोश’ नामक प्रथम कोश 1829 में प्रकाशित किया। इस कोश में अकारादि क्रम से बीस हज़ार प्रविष्टियाँ हैं जिसमें प्रत्येक शब्द की व्याकरणिक सूचनाओं के साथ-साथ पद और मुहावरे भी है। यह कोश लगभग 80 वर्षों तक भारतीय कोशकारों का प्रेरणास्रोत और माडल रहा है। इस कोश के आधार पर हिंदी कोश (1856), शब्दकोश (1873), ए डिक्शनरी ऑफ हिंदी लैंग्वेज (1875), कोश रत्नाकर (1876), मंगल कोश (1877), देव कोश (1883), क़ैसर कोश (1885), मधु सूदन निघंटु (1887), विवेक कोश (1892), भाषा कोश (1898), गौरी नागरी कोश (1901), हिंदी शब्द पारिजात (1914) आदि शब्दकोशों का निर्माण हुआ। इन कोशों में कोश-निर्माण के सिद्धांतों का पालन नहीं किया गया। इनमें संस्कृत के तत्सम शब्द, स्थानीय बोलियों के शब्द, विदेशी शब्द और संकर शब्द मिलते हैं। इन कोशों के   शब्दों में निश्चित क्रम का अभाव था और अर्थ की व्यवस्था के लिए कोई निश्चित पद्धति भी नहीं अपनाई गई। 

  1. एकभाषी कोश (हिंदी)

   हिंदी शब्दसागर (1922-29) का प्रकाशन हिंदी कोश-निर्माण प्रक्रिया के विकास का प्रारंभ है। इस वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित कोश का निर्माण श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा, बालकृष्ण भट्ट, भगवानदीन, अमर सिंह और जगमोहन वर्मा के संपादन मंडल के अंतर्गत चार खंडों (बाद में बारह खंडों) में प्रकाशित हुआ। बाद में इस कोश का परिवर्द्धित संस्करण सन 1965-76 में ग्यारह खंडों में आया। कोशविज्ञान की दृष्टि में यह कोश शब्द चयन, अर्थ विवेचन, व्युत्पत्तिपरक अंतर्दृष्टि और प्रयोग-निर्धारण में सर्वोत्तम है। यह वृहत्त कोश है जिस में लगभग एक लाख प्रविष्टियाँ हैं। इसमें संस्कृत शब्दों के प्रति अधिक रुचि मिलती है जिसके कारण अनेक अप्रचलित शब्द नहीं है और अरबी-फारसी के शब्दों को उपयुक्त स्थान नहीं मिला। अर्थों का वैज्ञानिक अनुक्रम भी नहीं है। इस कोश के बाद रामचंद्र वर्मा के संपादन में ‘संक्षिप्त शब्दसागर‘ (1933) का संस्करण प्रकाशित हुआ। इसी पर आधारित करुणापति त्रिपाठी के संपादन में ‘लघुतर हिंदी शब्दसागर’ (1964) का प्रकाशन हुआ। इनके अतिरिक्त ‘हिंदी शब्द-संग्रह‘ (1920) और ‘शब्द कल्पद्रुम’ (1925) कोश भी उल्लेखनीय हैं। ‘हिंदी शब्दसागर‘ के आधार पर भाषा शब्दकोश (1936), अभिनव हिंदी कोश (1947), नालंदा हिंदी कोश (1949), भार्गव आदर्श हिंदी शब्दकोश (1950), राष्ट्रभाषा कोश (1951), हिंदी राष्ट्रभाषा कोश (1952), भारतीय हिंदी कोश (1956), हिंदी शब्दकोश (1957), अशोक हिंदी कोश (1958) आदि का प्रकाशन हुआ। इनमें से कुछ कोश संक्षिप्त रूप में थे और इनका निर्माण छात्रों के लिए हुआ था। कालिका प्रसाद आदि के संपादन में बृहत हिंदी कोश’(1952) एक प्रामाणिक कोश माना जाता है जिसमें कुछ कमियों के होते हुए भी शब्द चयन, अर्थ-विवेचन और व्युत्पत्ति का प्रतिपादन अच्छा हुआ है। रामचंद्र वर्मा के संपादन में ‘मानक हिंदी कोश’ के पाँच खंडों का प्रकाशन 1962-65 के दौरान हुआ। इसमें व्युत्पत्ति और अर्थ-विवेचन की दृष्टि से कई कमियाँ मिलती हैं। कोशविज्ञान में इसका कोई विशेष योगदान नहीं मिलता। हिंदी में अभी तक ‘थेसॉरस’ का प्रणयन नहीं हुआ है। अरविंद कुमार और कुसुम कुमार ने ‘हिंदी समांतर कोश’ (1996) को लिखने का जो प्रयास किया है, उसे थेसॉरस की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इनके अतिरिक्त हरदेव बाहरी (1993), वी रा जगन्नाथन (2009) आदि के हिंदी कोश प्रकाशित हुए हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने ‘वर्धा हिंदी कोश’ प्रकाशित किया है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय मानक हिंदी कोश के निर्माण में कार्यरत है। तथापि यह कहना असमीचीन न होगा कि उपर्युक्त कोशों में अभी तक ऐसा मानक कोश बन नहीं पाया जिसकी तुलना अंग्रेजी के ‘ऑक्सफोर्ड कोश‘ तथा रूसी, फ्रांसीसी, जर्मन आदि भाषाओं के कोशों से की जा सके। 

  1. द्विभाषी कोश

    13-14वीं शताब्दी में हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो द्वारा रचित ख़ालिक़बारी सबसे पुराना और प्रथम माना जाता है। इसमें फारसी शब्दों के हिंदी पर्याय दिए गए हैं। कहीं-कहीं अरबी और तुर्की शब्द भी हैं। इसके बाद मिर्ज़ा खान द्वारा रचित ‘लुगतए हिंदी’ (1675), अब्दुल हंसवी कृत ‘ग्रेएबुल लुगत’ (लगभग 1688), तजल्ली द्वारा लिखित ‘अलखुदाई’ आदि कोशों की रचना हुई जिनमें हिंदी शब्दों की व्याख्या अरबी-फारसी में की गई है।

 

अठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वानों ने व्यवस्थित और उपयोगी कोशों की रचना की। इनमें अधिकतर अंग्रेजी-हिंदी कोश हैं। फर्ग्यूसन (1773), किर्क पैट्रिक (1785), हैरिस (1790) और गिलक्राइस्ट (1798) ने द्विभाषी कोशों का निर्माण किया जिनमें अंग्रेजी-हिंदुस्तानी शब्दावली का संकलन है। इसी शताब्दी में तुरोनेसिस (1704) और केटेलर (1743) ने लेटिन-हिंदुस्तानी कोश तैयार किया था। इस प्रकार हिंदी के द्विभाषी कोशों की व्यवस्थित और वैज्ञानिक परंपरा अठारहवीं शताब्दी में प्रारंभ हो गई थी।

 

उन्नीसवीं शताब्दी में बहुत से कोशों का निर्माण हुआ जिनमें विदेशी विद्वानों का योगदान उल्लेखनीय है। 1808 ई. में टेलर और हंटर के ‘ए डिक्शनरी ऑफ हिंदुस्तानी एंड इंग्लिश’ कोश का निर्माण हुआ। वस्तुत: टेलर ने इस कोश का निर्माण निजी प्रयोग के लिए किया था। बाद में इन्होंने विलियम हंटर के सहयोग से फोर्ट विलियम कालेज, कोलकाता के हिंदी विद्वानों के साथ परामर्श कर इसे प्रकाशित कराया। इस कोश-क्षेत्र में रॉवेक (1811), थॉमसन (1846,1895), ब्राइस (1847,1880), कोरर्बेस (1848,1862), हैजेलग्रोव (1865), फालन (1880), क्रेवेन (1888) आदि अनेक यूरोपीय विद्वानों का विशेष योगदान रहा है। शेक्सपियर का ‘डिक्शनरी ऑफ हिंदुस्तानी एंड इंग्लिश’ (1817,1820,1834) वैज्ञानिक है और इसमें सत्तर हज़ार प्रविष्टियाँ हैं। प्लाट्स के ‘ए डिक्शनरी ऑफ उर्दू, क्लॉसिकल हिंदी एंड इंग्लिश’ (1884) का प्रविष्टि संख्या, व्युत्पत्ति और वर्तनी के दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस कोश में बोलचाल की शब्दावली की तुलना में  साहित्यिक शब्दावली का अधिक प्रयोग है। इनके अतिरिक्त हिंदी-फ्रेंच कोश (तासी 1849) और हिंदी-पुर्तगाली कोश (होमाम 1874) का प्रकाशन हुआ। आदम (1829), थॉमस (1838), ग्रांट्स (1859), ग्रिब (1865) आदि के कोश आज भी उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त हूपर और कटवारीलाल का ‘ग्रीक-हिंदी कोश’ बाइबिल के नए विधान पर आधारित है।

 

बीसवीं शताब्दी में अधिकतर कोश प्रादेशिक भाषाओं से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से प्रादेशिक भाषाओं में प्रकाशित हुए। हिंदी के संपर्क भाषा होने के कारण हिंदी और अंग्रेजी के द्विभाषी कोशों की रचना होना स्वाभाविक था। चैपमैन के ‘ईंग्लिश-हिंदुस्तानी पाकेट वोकेबलरी’ (1904,1908), जी. रैकिंग के ‘ईंग्लिश-हिंदुस्तानी डिक्शनरी’ (1905), डी. फिलाट के ‘इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी’ (1917), सुखसंपत राय भंडारी कृत ‘ट्वेंटियथ सेंच्युरी इंग्लिश–हिंदी डिक्शनरी’ (1949), उस्मानिया विश्वविद्यालय द्वारा रचित ‘संक्षिप्त अंग्रेजी-हिंदी कोश’ (1953), रामचंद्र पाठक के ‘भार्गव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी’ (1958), हरदेव बाहरी के ‘ए कंप्रिहैंसिव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी’ (1960), कॉमिल बुल्के कृत ‘ए इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी’ (1968), एस के वर्मा और रमानाथ सहाय के ‘ऑक्सफोर्ड प्रोग्रेसिव इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी’ (1977), सुरेश अवस्थी और इंदुजा अवस्थी के ‘चैंबर्स इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी’ (1981) आदि कई कोश उल्लेखनीय हैं। इन कोशों में कॉमिल बुल्के के कोश का विशिष्ट स्थान है जिसमें शब्दों के न केवल प्रचलित और विविध प्रयोग दिए गए हैं बल्कि अंग्रेजी शब्दों के अर्थों का चयन संदर्भ और स्थिति के अनुसार किया गया है। हरदेव बाहरी के कोश में अंग्रेजी शब्दों के हिंदी पर्यायों का गुच्छ मिलता है जिसे प्रयोक्ता को संदर्भपरक अर्थ ढूँढने में कठिनाई होती है। वर्मा एवं सहाय तथा अवस्थीद्वय के कोश क्रमश: अंग्रेजी ऑक्सफोर्ड तथा चैंबर्स डिक्शनरियों के हिंदी रूपांतरण हैं। इन कोशों के बाद व्यक्तिगत स्तर पर इंद्रनाथ आनंद के ‘मॉडर्न अंग्रेज़ी-हिंदी कोश’ (1998), सुरेश कुमार एवं रमानाथ सहाय के ‘ऑक्सफोर्ड इंगलिश-इंगलिश-हिंदी कोश’ (2008), कृष्ण कुमार गोस्वामी के ‘आलेख अंग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश’ (2014) आदि कई कोश प्रकाशित हुए हैं जो कुछ सुव्यवस्थित एवं उपयोगी हैं। हिंदी-अंग्रेज़ी कोशों का निर्माण अधिक नहीं हुआ है और जो कोश उपलब्ध हैं उनमें आर एस मेकग्रेगर (1993), हरदेव बाहरी (1997), महेंद्र चतुर्वेदी एवं भोलानाथ तिवारी (1978) आदि के कोश उल्लेखनीय हैं। इधर ‘शब्दकोश.काम’ जैसे ऑनलाइन अथवा ई-कोशों का विकास हो रहा है। हाल ही में कृष्ण कुमार गोस्वामी का ‘अंग्रेज़ी-हिंदी पदबंध कोश’ (2015) प्रकाशित हुआ है जिसमें अंग्रेज़ी के पदबंधों के हिंदी अर्थ के साथ-साथ अंग्रेज़ी और हिंदी के वाक्य-प्रयोग भी हैं। इसी प्रकार भारत में सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर अंग्रेज़ी या हिंदी से भारतीय भाषाओं में अथवा भारतीय भाषाओं से अंग्रेज़ी या हिंदी में अनेक कोशों और शब्दावलियों का निर्माण हुआ है। केंद्रीय निदेशालय, भारत सरकार द्वारा हिंदी से अनेक भारतीय भाषाओं में कोश निर्मित हुए हैं। निदेशालय ने भारतीय भाषाओं के त्रिभाषी और बहुभाषी कोश भी तैयार किए हैं। 

  1. निष्‍कर्ष

   भाषा अध्ययन के संदर्भ में कोश का अपना विशिष्ट स्थान है। इसका संबंध भाषा की मूलभूत इकाई ‘शब्द’ से होता है। कोशविज्ञान शब्दों का अध्ययन एक स्वतंत्र इकाई के रूप में करता है। वह शब्द की व्यवस्था के अध्ययन के साथ-साथ उसके प्रयोगगत विविध संदर्भों का उद्घाटन भी करता है। यह भाषाविज्ञान की अनुप्रयुक्त शाखा है और इसका अनुप्रायोगिक पक्ष कोश-निर्माण-प्रक्रिया है जिसमें शब्दों (या प्रविष्टियों) की बनावट-बुनावट, उसके उच्चारण, स्रोत, शब्द-वर्ग, अर्थ-निर्धारण आदि आधारों के अतिरिक्त प्रयोगधर्मी प्रकृति पर भी प्रकाश पड़ता है। यह भाषा के मानकीकरण में भी महत्वपूर्ण योगदान करता है। कोशों का वर्गीकरण भाषा, बोली, साहित्य, काल, पुस्तक आदि विभिन्न आधारों पर किया जाता है। विश्वकोश या ज्ञानकोश, थेसारस, पारिभाषिक शब्दावली, सूक्ति कोश आदि भी कोश-निर्माण-प्रक्रिया के अंतर्गत आते हैं। इन कोशों में एकभाषी और द्विभाषी कोशों का अधिक महत्व है। प्रादेशिक भाषाओं, विदेशी भाषाओं, बोलियों आदि के बीच अनेक एकभाषी और द्विभाषी कोश उपलब्ध हैं। ऑनलाइन एकभाषी  और द्विभाषी कोशों का विकास भी हो रहा है। तकनीकी तथा पारिभाषिक कोशों, पदबंध कोशों, त्रिभाषी और बहुभाषी  कोशों, विषयपरक कोशों, विश्वकोशों आदि कोशों की भी अपनी उपादेयता है जिनकी निर्माण-प्रक्रिया जारी है।

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अतिरिक्‍त जानें

पुस्‍तकें

  1. Singh, Ram Adhar. (1982). An Introduction to Lexicography. Mysore: CIIL
  2. Zgusta, Ladislav et al. (1971). Manual of Lexicography. The Hague: Mouton & Company
  3. गोस्वामी, कृष्ण कुमार. (1986) हिंदी के एकभाषी और द्विभाषी कोश: एक सिंहावलोकन, शब्दायन (स्मारिका), नईदिल्ली: वै.त.श.आयोग. भारत सरकार
  4. तिवारी, भोलानाथ. (1979). कोशविज्ञान. दिल्ली: शब्दकार

    वेब लिंक्‍स

 

http://www.hinditech.in/journal/कोश-इतिहास-एवं-वर्तमान—बृजेश-कुमार-यादव.aspx?cid=12

https://en.wikipedia.org/wiki/Lexicography

http://study.com/academy/lesson/lexicography-definition-history.html

http://www.ajol.info/index.php/lex/article/viewFile/84816/74806Burkhanov