29 सैद्धांतिक भाषाविज्ञान बनाम अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान
कृष्ण कुमार गोस्वामी
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- भाषाविज्ञान का स्वरूप और क्षेत्र
- सैद्धांतिक भाषाविज्ञान
- अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान: स्वरूप एवं महत्व
- अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का क्षेत्र
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप-
- भाषाविज्ञान के स्वरूप और क्षेत्र की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे;
- आधुनिक भाषाविज्ञान की अवधारणा समझ सकेंगे;
- सस्यूर के सिद्धांत से परिचित हो सकेंगे;
- भाषाविज्ञान की अध्ययन की पद्धति का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
भाषा मानव जाति को दिया गया एक दैव उपहार है। ध्वनि-प्रतीकों की यह एक ऐसी व्यवस्था है जिससे एक भाषाभाषी समुदाय आपस में विचार-विमर्श करता है। इसके बिना मानव सभ्यता का विकास संभव नहीं हो सकता, क्योंकि सामाजिक व्यवस्था का अंग होने के कारण मनुष्य को समाज के अन्य सदस्यों के साथ संपर्क स्थापित करना पड़ता है। संपर्क स्थापित होने पर संप्रेषण के लिए कई माध्यम हैं जिनमें भाषा सर्वाधिक सशक्त और सक्षम माध्यम है। सशक्त माध्यम-भाषा न केवल भाषाविज्ञानियों के लिए गंभीर अध्ययन का विषय है वरन् दार्शनिकों, तर्कशास्त्रियों, मनोविज्ञानियों, समाजशास्त्रियों, कंप्यूटरविज्ञानियों आदि के लिए भी है। भाषाविज्ञान भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। वस्तुत: उसका यह अध्ययन मानव भाषा का अध्ययन है। यह मानव व्यवहार के सार्वभौमिक और अभिज्ञेय अंश के रूप में भाषा का अध्ययन करता है। यह भाषा के वर्णन और विवेचन द्वारा, भाषा संबंधी तथ्यों की जानकारी देता है। दूसरे अर्थ में, भाषा के क्या और ‘कैसे’ के उत्तर मिल जाते हैं। इस प्रकार भाषावैज्ञानिक विश्लेषण एवं वर्णन भाषासिद्धांत पर आधारित होता है, किंतु भाषासिद्धांत भी कई भाषाओं के विश्लेषण के आधार पर बनाए जाते हैं। भाषाविज्ञान के सैद्धांतिक संदर्भ के साथ-साथ इसके अनुप्रायोगिक संदर्भ का भी अपना महत्व और उपयोगिता है। ‘भाषा कैसे काम करती है’ संबंधी अध्ययन अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अंतर्गत आता है। समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, अनुवाद, भाषाशिक्षण आदि भाषाविज्ञान के अनुप्रयोगिक क्षेत्र में आते हैं।
- भाषाविज्ञान का स्वरूप और क्षेत्र
भाषा की आंतरिक व्यवस्था का अध्ययन भाषाविज्ञान करता है। भाषाविज्ञान भाषा और विज्ञान के योग से बना है। ‘भाषा’ से अभिप्राय ध्वनि-प्रतीकों की व्यवस्था है और ‘विज्ञान’ ‘वि’ उपसर्ग तथा ‘ज्ञान’ शब्द से बना है। अत: विज्ञान का अर्थ हुआ ‘विशिष्ट ज्ञान’। इस प्रकार भाषाविज्ञान की विषयवस्तु ‘भाषा’ है और अध्ययन-प्रणाली वैज्ञानिक। भाषाविज्ञान की परंपरा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’, यास्क का निरुक्त सिद्धांत, शिक्षाग्रंथों और प्रातिशाख्यों मे वर्णित सिद्धांत, कात्यायन और पतंजलि की भाषिक अंतर्दृष्टि, भर्तृहरि का भाषा-चिंतन, मीमांसकों एवं नैयायिकों तथा बौद्ध एवं जैन संप्रदायों के भाषाविश्लेषण भारत में भाषावैज्ञानिक अध्ययन की परंपरा को समृद्ध करते हैं। इस परंपरा में संस्कृत का भाषाचिंतन काफी विकसित रहा है। बाद में पालि, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का भाषापरक अध्ययन उतना समृद्ध नहीं रहा, क्योंकि इनके व्याकरणों पर संस्कृत के भाषा-चिंतन अथवा व्याकरण का अत्यधिक प्रभाव मिलता है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में जो व्याकरण लिखे गए और जो भाषाचिंतन हुआ, उन पर प्राचीन परंपरा के प्रभाव की अपेक्षा पाश्चात्य अर्थात लातीनी व्याकरण की परंपरा का अधिक प्रभाव मिलता है। इसका एक उदाहरण हिंदी में रचित कामताप्रसाद गुरू का व्याकरण है। किशोरीदास वाजपेयी के ‘हिंदी शब्दानुशासन’ में भारतीय परंपरा का थोड़ा-बहुत प्रभाव मिल जाता है। इनके बाद रचित हिंदी व्याकरणों में आधुनिक भाषाविज्ञान चिंतन-आधार के रूप में मिल जाता है।
आधुनिक भाषाविज्ञान के प्रवर्त्तक स्विस फर्दिनां दसस्यूर (1857-1913) माने जाते हैं। उन्होंने अपने अध्ययन और रचनाओं से भाषावैज्ञानिक चिंतन को न केवल आधुनिक संदर्भ दिया वरन् उनके विचारों ने मानविकी के कई क्षेत्रों को भी काफी प्रभावित किया। उन्होंने संरचनावाद और प्रतीकविज्ञान की आधारभूत नींव रखी, जिससे भाषाविज्ञान की अधिकतर अवधारणाएँ सस्यूर की विचारधारा से ही उद्भूत हुई। सस्यूर ने अपने जीवनकाल में अपनी कक्षा में छात्रों के लिए व्याख्यान के रूप में जो नवीन भाषावैज्ञानिक संकल्पनाएँ प्रस्तुत कीं, उनके देहांत के बाद उनके दो शिष्यों चार्ल्स बेली और सेशेहाय ने उनके व्याख्यानों का संग्रह और संपादन कर ‘कोर्स इन जनरल लिंग्विस्टिक्स’ के नाम से प्रकाशित कराया। इस पुस्तक में कुछ कमियों के होते हुए भी इस पुस्तक का यूरोपीय और अमेरिकी भाषावैज्ञानिक विचारधारा पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
सस्यूर ने भाषा को एक ओर सामाजिक वस्तु माना तो दूसरी ओर वैयक्तिक व्यवहार। उन्होंने भाषा के जीवंत स्वरूप को समझने के लिए द्विचर (Binary) शब्दावली प्रस्तुत की और उन्हें निम्नलिखित युग्मों के रूप में बताया।
(क) भाषा व्यवस्था (la langue) और भाषा व्यवहार (la parole),
(ख) संकेतार्थ (Signified) और संकेतक (Signifier),
(ग) उपादान (Substance) और रूप (Form)
(घ) विन्यासक्रमी (Syntagmatic) और सहचारक्रमी (Associative),
(ङ) समकालिक (Synchronic) और द्विकालिक (Diachronic)
सस्यूर ने भाषा के सामाजिक और संस्थागत पक्ष को समझने के लिए भाषा व्यवस्था (la langue) की संकल्पना प्रस्तुत की जिसे अमरीकी विद्वान नोअम चॉम्स्की ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भाषिक क्षमता और भाषिक निष्पादन (व्यवहार) के रूप में प्रस्तुत किया। सस्यूर के मतानुसार भाषाव्यवस्था समूहगत अनुबंधन का परिणाम होती है। भाषाव्यवस्था वह व्याकरणिक व्यवस्था है जो प्रत्येक प्रयोक्ता के मस्तिष्क में अमूर्त रूप से अंतर्निहित रहती है और उसे सामाजिक संस्था तथा मूल्य व्यवस्था दोनों के रूप में समझा जा सकता है। इसका प्रयोग भाषा समुदाय के सदस्य परस्पर संप्रेषण के लिए करते हैं। यह प्रयोक्ता की निजी इच्छा अथवा प्रतीकों के अपने उच्चरित या लिखित माध्यम से नियंत्रित नहीं होती। इसीलिए यह अपनी प्रकृति में समरूपी होती है। भाषा व्यवहार (la parole) एक मूर्त और व्यक्त भाषायी रूप है जो समूहगत न होकर व्यक्तिपरक है। व्यक्त रूप होने के कारण इसका संबंध एक ओर व्यक्ति के क्रिया-व्यापार से होता है और दूसरी ओर उसके मौखिक और लिखित अभिव्यक्ति-माध्यमों के साथ। इसीलिए भाषिक व्यवहार अपनी प्रकृति में विषमरूपी होता है।
भाषाव्यवस्था का संबंध भाषिक इकाइयों की संरचनात्मक व्यवस्था से है। शब्द, वाक्य आदि भाषिक इकाइयों को भाषिक प्रतीक के रूप में देखा जाता है। इसी संदर्भ में सस्यूर ने भाषाविज्ञान को एक वृहत्तर विषय प्रतीकविज्ञान के अंतर्गत माना है। प्रतीकविज्ञान समाज के जीवन के प्रतीकों का अध्ययन करता है। अत: भाषिक अध्ययन का प्रमुख कार्य प्रतीकों का विश्लेषण करना है। सस्यूर ने भाषिक प्रतीक को संकेतार्थ (वाच्य) और संकेतक (वाचक) के समन्वित संबंध का परिणाम माना है और भाषा-व्यवस्था के संदर्भ में उनकी प्रकृति मूल्यपरक मानी है। उनके विवेचन के अनुसार शतरंज के खेल में प्रयुक्त होने वाले मोहरे अपने-अपने मूल्य के रूप में जाने जाते हैं जैसे-प्यादा एक घर चलता है और तिरछे काटता है, घोड़ा ढाई घर फाँद कर भी जा सकता है। किंतु वे अपनी आकृति या उपादान के रूप में नहीं जाने जाते। वे मोहरे लकड़ी, प्लास्टिक, पत्थर आदि किसी भी उपादान में हो सकते हैं। इसी प्रकार भाषिक इकाइयाँ भी अपने मूल्यों अर्थात संकेतन-प्रकार्य से जानी जाती हैं। अत: ये मूल्य प्रकार्यजन्य होते हैं जो भाषिक व्यवस्था को रूप (Form) प्रदान करते हैं हिंदी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में कर्ता कर्म, क्रिया आदि के अपने-अपने मूल्य है जो अलग-अलग भाषिक व्यवस्था के भीतर अपना-अपना कार्य करते हैं।
सस्यूर ने विन्यासक्रमी और सहचारक्रमी संबंधों में भेद करते हुए कहा कि भाषिक प्रतीकों के विन्यासक्रमी और सहचारक्रमी संबंधों के आधार पर संरचनात्मक रूप बनता है। भाषिक प्रतीकों को एक व्यवस्थित कड़ी में लाना विन्यासक्रमी संबंध है, क्योंकि भाषा प्रतीकों का मात्र जमघट नहीं होता वरन वह उनके निर्धारित क्रम का परिणाम भी होता है। वास्तव में विन्यासक्रमी संबंध वह है जिसमें यह देखा जाता है कि कौन-सी इकाई पहले आएगी और कौन-सी इकाई बाद में। उदाहरण के लिए, ‘मोहन ने शीला को किताब दी’ वाक्य विन्यासक्रमी संबंध के कारण स्वीकार्य है और ‘को किताब शीला मोहन दी ने’ वाक्य भाषा-सम्मत नहीं माना जा सकता है, हालांकि दोनों वाक्यों में छह-छह इकाइयाँ है। भाषिक इकाइयों के बीच पाए जाने वाले संबंधों की ओर सहचारक्रमी संबंध ध्यान दिलाता है जो किसी संदर्भ अथवा वातावरण-विशेष में रहने के कारण भाषिक प्रतीकों में दिखाई देता है। ‘पलक’ और’ ‘फलक’ शब्दों में ‘प’ और ‘फ’ के बीच सहचार संबंध है क्योंकि ‘प’ और ‘फ’ ध्वनियों के आदि स्थान पर तो हैं, किंतु इन की परवर्ती ध्वनियाँ समान हैं। इसी प्रकार सहचारक्रमी संबंध के आधार पर ‘पढ़ना’ शब्द के रूप-सादृश्य में ‘चढ़ना’ ‘बढ़ना’ आदि शब्दों का स्मरण हो आएगा। इसके अतिरिक्त ‘पढ़ना’ शब्द उन शब्दों को भी मस्तिष्क में लाएगा जो रूप और अर्थ से भिन्न हों जैसे पुस्तक, कागज। सस्यूर इसे सहचारक्रमी संबंध के अंतर्गत मानते हैं। डेनमार्क के विद्वान येल्मस्लाव ने संसार के सहचारक्रमी संबंध को रूपावली (Paradigm) की संज्ञा दी है।
भाषा के अध्ययन के लिए सस्यूर ने समकालिक अथवा एककालिक अध्ययन और द्विकालिक अथवा कालक्रमिक अध्ययन को विभाजित किया है। समकालिक अध्ययन में किसी निश्चित समय पर स्थित भाषा की संरचना, उसके स्वन-स्वनिम, शब्द, व्याकरण, नियमों आदि का विवेचन होता है। कालक्रमिक अध्ययन में विभिन्न कालों में होने वाले भाषिक परिवर्तनों का अध्ययन होता है। कालक्रमिक अध्ययन भी दो प्रकार का होता है- क) ऐतिहासिक और ख) तुलनात्मक। ऐतिहासिक अध्ययन एक काल-बिंदु से लेकर कालांतर में विभिन्न काल-बिंदुओं तक का विकासात्मक अध्ययन है जबकि तुलनात्मक अध्ययन एक काल-बिंदु से दूसरे काल-बिंदु तक का तुलनापरक अध्ययन है। समकालिक अध्ययन स्थैतिक और वर्णनात्मक होता है जबकि कालक्रमिक अध्ययन विकासपरक और ऐतिहासिक होता है। वस्तुत: सस्यूर के ये सिद्धांत आधुनिक भाषाविज्ञान के आधारभूत सिद्धांत हैं जिनसे आज के भाषा सिद्धांतों को समझने में कठिनाई नहीं होगी।
- सैद्धांतिक भाषाविज्ञान
भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषा ‘साध्य-वस्तु’ और ‘साधन-वस्तु’ दोनों है। साध्य-वस्तु के रूप में भाषा विश्लेष्य-सामग्री होती है और साधन-वस्तु के रूप में यह विश्लेषण के साधन के रूप में काम करती है। जिस भाषा का अध्ययन होता है, उसे वस्तु–भाषा कहते हैं और जिस भाषा से वस्तु-भाषा का अध्ययन और विश्लेषण होता है, वह निरूपक भाषा (Meta language) कहलाती है। सैद्धांतिक भाषाविज्ञान के केंद्र में निरूपक भाषा होती है, जिसका मुख्य उद्देश्य वस्तु-भाषा से संबंधित नियमों और सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। इसके अतिरिक्त इन नियमों और सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषण की विधि और प्रणाली का निर्माण और विकास करता है। इसके अध्ययन-क्षेत्र में न केवल उन भाषाओं की प्रकृति का विश्लेषण होता है जो संप्रति व्यवहार में हैं वरन उन भाषाओं का भी अध्ययन किया जाता है जो पहले कभी थीं अथवा भविष्य में उनके होने की संभावना है। इस प्रकार सैद्धांतिक भाषाविज्ञान से तात्पर्य भाषाओं का वैज्ञानिक विवेचन विश्लेषण और वर्णन करना है। इसका अध्ययन क्षेत्र किसी विशेष भाषा का अध्ययन नहीं है, वरन विश्व में पाई जाने वाली जितनी भी मानव भाषाएँ हैं तथा उनके जितने भी रूप हैं, उनका अध्ययन करना है और उनके भीतर समान रूप से काम करने वाले नियमों की खोज भी करना है। इन्हीं नियमों के आधार पर यह भाषा के सार्वभौमिक तत्वों और उसके प्रकार्यों का विवेचन करता है। आधुनिक भाषाविज्ञान के सुविख्यात अमरीकी विद्वान नोअम चाम्स्की के मतानुसार भाषाविज्ञान अपने सैद्धांतिक संदर्भ में उस सार्वभौमिक व्याकरण की खोज करता है जिसमें भाषा को मानव का सहजात गुण माना गया है। इस प्रकार भाषाविज्ञान वह विज्ञान है जो भाषाओं का वर्णन करता है और उनका वर्गीकरण करता है। भाषाविज्ञान भाषा की विभिन्न इकाइयों यथा ध्वनियों, शब्दों, पदों, रूपिमों, पदबंधों, वाक्यों आदि के पैटर्नों की पहचान करता है और उनका विवेचन एवं वर्णन यथासंभव पूर्णता से, सटीकता से और मितव्ययिता से करता है।
इस प्रकार सैद्धांतिक भाषाविज्ञान भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन है। अन्य विज्ञानों की भांति भाषाविज्ञान की भी एक सुपरिभाषित विषयवस्तु है, प्राकृतिक भाषा, चाहे वह प्रचलित हो या अप्रचलित। वह अपनी विषय-वस्तु के विभिन्न पक्षों एवं आयामों की जाँच करता है, उसके तथ्य प्रस्तुत करता है, उसका विश्लेषण करता है तथा उसका निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और सत्यापन-योग्य विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। भाषाविज्ञान का दृष्टिकोण और पद्धति वैज्ञानिक होती है। यह प्रेक्षण, परिकल्पना, परीक्षण, सत्यापन तथा प्रयोग पर आधारित होता है। वास्तव में भाषाविज्ञानी भाषाओं के बारे में जब कोई बात करता है तो वह पहुँच उनका प्रेक्षण और परीक्षण करता है। वह सच्चे वैज्ञानिक की भांति भाषा के संबंध में तथ्य प्रस्तुत करता रहता हैं, अपनी पद्धतियों में परिष्कार करता है और उससे और बेहतर सिद्धांतों और नियमों का निर्माण करता है। इससे वह भाषा-सार्वभौम की खोज भी करता है।
भाषाविज्ञान सामाजिक विज्ञानों के अंतर्गत आता है, किंतु इसका संबंध भौतिकी, कंप्यूटर, शरीरविज्ञान, प्राणिविज्ञान, गणित आदि अन्य भौतिक विज्ञानों से भी है। यह ध्वनि-विज्ञान के माध्यम से भौतिकी के साथ जुड़ता है, मानव के स्वरयंत्रों की संरचना के लिए शरीरविज्ञान को स्पर्श करता है। कंप्यूटर की तकनीकी का प्रयोग करते हुए भाषा की संरचना का अध्ययन करता है, तथा प्राणियों की संचार-व्यवस्था के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से प्राणिविज्ञान की सहायता लेता है। इस प्रकार भाषाविज्ञान वैज्ञानिक कसौटी के जो मूल आधार सर्वांगपूर्णता, अंत:संगति और मितव्ययिता है, उन्हीं के अनुसार अध्ययन और विवेचन करता है। यह एक प्रयोगात्मक विज्ञान है और प्रायोगिक विज्ञानों में भी यह एक सामाजिक विज्ञान है, क्योंकि इस की विषयवस्तु मानव से संबंद्ध है जो भौतिक विज्ञानों से काफी भिन्न है।
भाषा के विभिन्न पक्षों एवं आयामों के अध्ययन के लिए व्याकरण अथवा शब्दानुशासन हैं जो भाषा का निर्देशात्मक विवेचन करता है। किंतु भाषाविज्ञान भाषा का वर्णनात्मक अध्ययन करता है, और उस का मूल विषय भाषा का मौखिक रूप है। प्रारंभ में भाषाविज्ञान शब्द अंग्रेजी के ‘फिलोलॉजी’ का पर्याय रहा है। बाद में ‘फिलोलॉजी’ के स्थान पर ‘लिंग्विस्टिक्स’ का प्रयोग होने लगा। वास्तव में ‘फिलोलॉजी’ और ‘लिंग्विस्टिक’ दोनों का अर्थ ‘भाषा का विज्ञान’ (Science of Language) से है, किंतु इन दोनों में अंतर माना जाने लगा। ‘फिलोलॉजी’ ग्रीक भाषा का शब्द है जिसमें प्राचीन भाषाओं के अध्ययन पर अधिक बल दिया जाता है और उनके विकास का विवेचन किया जाता है, जब कि ‘लिंग्विस्टिक्स’ शब्द लेटिन शब्द ‘लिंग्वा’ (Lingua) से आया है जिसमें जीवित भाषाओं की संरचना के अध्ययन पर बल दिया जाता है। हिंदी में ‘फिलोलॉजी’ शब्द के लिए ‘भाषाशास्त्र’ और ‘लिंग्विस्टिक्स’ शब्द के लिए ‘भाषाविज्ञान’ शब्द का प्रयोग हो रहा है। ‘शास्त्र’ में सैद्धांतिक व्याख्या अधिक होती है, जबकि ‘विज्ञान’ में सैद्धांतिक अध्ययन के साथ-साथ प्रयोगात्मक अध्ययन पर भी बल दिया जाता है। कुछ विद्वानों ने ‘भाषिकी’ शब्द का भी प्रयोग ‘भौतिकी’, ‘रसायनिकी’ आदि शब्दों के आधार पर किया है, किंतु वह स्वीकृत नहीं हो पाया। इसलिए भाषाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाली ज्ञान की शाखा को भाषाविज्ञान कहा जा रहा है।
भाषाविज्ञान एक विकासशील विषय है। इसके संपोषण और संवर्धन के लिए कई संप्रदायों का विशेष योगदान है। इनमें प्राग संप्रदाय के मैथेसियस, रोमन याकोब्सन, त्रुबेत्स्कोय आदि, कोपेनहेगन संप्रदाय के येल्म्स्लाव, अमरीकी संरचनात्मक संप्रदाय के ब्लूमफील्ड, हाकेट, सपीर आदि ने एक ओर आधुनिक भाषाविज्ञान के विकास में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है तो एम ए के हैलिडे के ‘व्यवस्थापरक व्याकरण’ (Systemic Grammar), फिलमोर के कारक व्याकरण’ (Case Grammar), पाइक के ‘बंधिमविज्ञान’ (Tagmemics), नोअम चामस्की के ‘रूपांतरणपरक-प्रजनक व्याकरण’ (TG Grammar) और सिडनी लैंबके ‘स्तरपरक व्याकरण’ (Sratificational Grammar) आदि ने भाषाविज्ञान को समृद्ध करने में उल्ल्ेखनीय कार्य किया है।
भाषाविज्ञान के अंगों से अभिप्राय भाषा-संरचना के अंगो या स्तरों से है। भाषायी अंगों या स्तरों की संख्या और शब्दावली के बारे में भाषाविज्ञानियों में काफी मतभेद है। राबर्ट हॉल ने ध्वनि-प्रक्रिया। (स्वनविज्ञान और स्वनिमविज्ञान) रूप-प्रक्रिया और वाक्य-विन्यास भाषा के तीन अंग बताए हैं। आर. एच. रॉबिन्स ने ध्वनि-प्रक्रिया, व्याकरण और अर्थविज्ञान में विभाजित किया है। हॉकेट ने भाषा के पांच स्तरों या अंगों का विभाजन किया है जिन्हें वे ‘उपव्यवस्था’ कहते हैं।
(क) व्याकरणिक व्यवस्था – रूपिमों का स्टॉक और उनकी व्यवस्था;
(ख) ध्वनि-प्रक्रिया की व्यवस्था- स्वनिमों का स्टॉक, और उनकी कार्यप्रणाली;
(ग) रूप स्वनिमिक व्यवस्था- एक संहिता जिसके अंतर्गत व्याकरणिक और ध्वनि-प्रक्रियापरक अंग परस्पर बंधे होते हैं;
(घ) अर्थपरक व्यवस्था- इसमें विभिन्न रूपिम, शब्द आदि कैसे संबंद्ध होते है, किस व्यवस्था के अंतर्गत स्थितियों के अनुसार इन्हें रखा जा सकता है;
(ङ) स्वनिमिक व्यवस्था- किस प्रकार वक्ता के उच्चारण से स्वनिमों का क्रम ध्वनि-तरंगों में परिवर्तित हो जाता है और श्रोता इन का विकोडीकरण करता है।
हॉकेट ने उपर्युक्त प्रथम तीन को केंद्रीय उपव्यवस्थाएँ कहा है और अंतिम दो को परिधीय उपव्यवस्थाएँ कहा है। वास्तव में केंद्रीय उपव्यवस्था की संरचनात्मक व्यवस्था का सीधा संबंध भाषिक संसार और उसकी रूपपरक प्रकृति से रहता है। इसलिए इसके अध्ययन-क्षेत्र को सूक्ष्म भाषाविज्ञान (Microlinguistics) कहते हैं। परिधीय उपव्यवस्था अर्थात अर्थपरक व्यवस्था और स्वनिक व्यवस्था की संरचनात्मक व्यवस्था का संबंध एक ओर भाषेतर संसार से रहता है तो दूसरी ओर केंद्रीय उपव्यवस्था से भी रहता है। अत: स्वनविज्ञान को पूर्वापेक्षी भाषाविज्ञान (Prelinguistics) और अर्थविज्ञान को इतरविषयी भाषाविज्ञान (Meta linguistics) कहा जाता है।
वास्तव में भाषा एक जटिल प्रक्रिया है, इसलिए भाषाविज्ञान ने अपने अध्ययन की सुविधा के लिए यह वर्गीकरण किया है। भाषा की संरचना के बारे में कोई मूलभूत अंतर नहीं है। ये सभी अंग अंतर-संबद्ध हैं या एक-दूसरे में अंतर्व्याप्त (Overlapped) है इसलिए वर्गीकरण कड़ा या अपारदर्शी नहीं होना चाहिए। भाषाविज्ञानी को मानव-भाषा का वर्णन करना है और कोई भी मानव एक ही समय में भाषा के मात्र एक अंग का प्रयोग नहीं करता। वस्तुत भाषा-प्रक्रिया के तीन पक्ष हैं- पदार्थ, रूप और संदर्भ पदार्थ- भाषा की कच्ची सामग्री है जिसमें श्रवणपरक (ध्वनिपरक) पदार्थ और चाक्षुख (लेखिमिक) पदार्थ-आता है। रूप आतंरिक संरचना एक गठन है जिसमें व्याकरण और शब्द आते हैं। संदर्भ रूप और स्थिति के बीच का संबंध है जिस अर्थ कहते हैं। इसी आधार पर भाषाविज्ञान के चार मुख्य अंग निर्धारित किए गए हैं – ध्वनिविज्ञान, रूपविज्ञान, वाक्यविज्ञान और अर्थविज्ञान:
ध्वनिविज्ञान: ध्वनि-विज्ञान का अध्ययन दो रूपों में होता है। (क) स्वनविज्ञान (Phonetics) और (ख) स्वनिम विज्ञान (Phonemics या Phonology) स्वन-विज्ञान ध्वनि को भाषा की लघुतम अर्थ भेदक इकाई मानते हुए इनका सिद्धांतिक अध्ययन करता है। इसमें विभिन्न उच्चारण अवयवों द्वारा ध्वनियों का जो उच्चारण होता है उसके बारे में बताया जाता है। उच्चारण, संवहन और श्रवण के आधारपर इसके तीन भेद किए गए हैं- उच्चारणात्मक स्वनविज्ञान (Articulatory Phonetics) के अंतर्गत सामान्यत: स्वर और व्यंजन में अंतर करते हुए स्वर-व्यंजन के वर्गीकरण, वागेंद्रियों के प्रकार्य आदि पर विचार किया जाता है। उच्चारणात्मक स्वनविज्ञान के अंतर्गत अध्ययन वस्तुत: ध्वनियों का शरीरवैज्ञानिक अध्ययन है। भौतिक स्वनविज्ञान (Acoustic Phonetics) के अंतर्गत ध्वनियों की कंपनावृत्ति (Frequency), आयाम (Amplitude) आदि का विवेचन होता है। इसे ध्वनि का भौतिक अध्ययन भी कहते हैं जिसका संबंध भौतिकी से है। श्रवणात्मक स्वनविज्ञान (Auditory Phonetics) के अंतर्गत श्रवण प्रक्रिया का अध्ययन होता है। उसमें ध्वनियों का शरीरवैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन भी होता है। स्वनिमविज्ञान में भाषा-विशेष की ध्वनियों का अध्ययन होता है। इसमें भाषा विशेष (अंग्रेजी अथवा हिंदी) की ध्वनियों का विवेचन करते हुए उनका वर्गीकरण उनकी व्यवस्था आदि का अध्ययन होता है। भाषाविज्ञान के संरचनावादी संप्रदाय के विद्वानों ने इसे स्वनिमविज्ञान (Phonemics) की संज्ञा दी थी, किंतु आजकल इसमें स्वनिम को भाषा की लघुतम अर्थभेदक इकाई मानते हुए स्वनप्रक्रिया (Phonology) भी कहते है।
रूपविज्ञान: इसके अंतर्गत भाषा में प्रयुक्त रूपों अथवा पदों का अध्ययन किया जाता है। रूप भाषा की लघुतम सार्थक इकाई है। यदि किसी वाक्य को सार्थक इकाइयों में विभाजित किया जाए तो उससे कई सार्थक इकाइयाँ मिलेगी। उदाहरण के लिए, ‘असफलता’ शब्द में ‘फल’ मूल रूप है, ‘अ’ और ‘स’ उपसर्ग रूप है तथा ‘ता’ प्रत्यय रूप है। इस प्रकार रूपविज्ञान के अंतर्गत रूपों की रचना, रूपों के प्रकार, रूपात्मक प्रक्रिया, शब्दों के रूप-परिवर्तनमूलक (Inflectional) और व्युत्पत्तिमूलक (Derivational) परिवर्तनों का अध्ययन होता है। इसी के अंतर्गत रूपस्वनिमविज्ञान (Morphophonemics) आता है जिसमें रूपों में होने वाले स्वनिमिक परिवर्तनों का अध्ययन होता है।
वाक्यविज्ञान: वाक्यविज्ञान के अंतर्गत वाक्य की संरचना और व्यवस्था का अध्ययन और विश्लेषण किया जाना है। वाक्य-विश्लेषण का संबंध सामान्यत वाक्यों और उनके घटकों से है। वाक्यविज्ञान वाक्यों का वह विश्लेषण है जो व्याकरणिक विश्लेषण में वाक्यों को महत्तम इकाई के रूप में देखता है। वाक्य का विश्लेषण स्वनिम और अक्षरों में विभाजित कर ध्वन्यात्मक इकाइयों के रूप में, इसके रूपिमों और शब्दों को रूपिमिक इकाइयों के रूप में और पदबंध तथा वाक्यों को वाक्यात्मक इकाइयों के रूप में किया जाता है। रूपांतरण-प्रजनक व्याकरण में इन सभी दृष्टियों के संयोजन से वाक्यों का अध्ययन किया जाता है। इसमें क्रम, अन्विति, निकटस्थ अवयव, केंद्रिकता, रूपांतरमूलकता आदि की दृष्टि से वाक्य का अध्ययन होता है।
अर्थविज्ञान: अर्थविज्ञान में अर्थ को भाषा का आंतरिक पक्ष मानते हुए भाषिक अर्थ का अध्ययन किया जाता है। कुछ अमरीकी भाषाविज्ञानियों की धारणा रही है कि अर्थ भाषाविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में नहीं आता यह दर्शन अथवा मनोविज्ञान का विषय है। किंतु इस धारणा का खंडन भी हुआ है कि संप्रेषणीयता भाषा का प्रमुख प्रयोजन है, इसलिए अर्थ के अध्ययन का भाषा अध्ययन से अलग करना उचित नहीं है। वस्तुत: शब्दार्थ का स्वरूप पर्यायवाची शब्द, भिन्नार्थी शब्द, विलोम शब्द लाक्षणिक अर्थ-अर्थविज्ञान के अंतर्गत आते है। अर्थविज्ञान भाषा की अर्थ व्यवस्था का भी विवेचन करता है। अर्थविज्ञान में संकेत प्रयोग विज्ञान (Pragmatics) को भी लिया जा सकता है।
भाषाविज्ञान के उपयुक्त चार अंगो के अतिरिक्त अब वाक्य से ऊपर की संरचना प्रोक्ति अथवा पाठ (discourse or text) को भी लिया गया है। आधुनिक भाषाविज्ञान ने वाक्योपरि संरचना के रूप में प्रोक्ति विश्लेषण की भी चर्चा की है। इसे भाषाविज्ञान का पाँचवा अंग माना जा सकता है। वास्तव में वाक्य से कई बार अर्थ की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती है। प्रोक्ति वाक्योंपरि स्तर की एक ऐसी इकाई है जिसके कथ्य में आंतरिक संसक्ति (cohesion) तथा वाक्यों में संदर्भपरक और तर्कपूर्ण अनुक्रम होता है। यह भाषा की अर्थपरक व्याकरणिक संरचना है। प्राचीन काल में भारतीय विद्वानों ने महावाक्य की जो अवधारणा रखी थी, वह एक प्रकार से प्रोक्ति ही थी।
- अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान: स्वरूप महत्व
आधुनिक युग में यह संकल्पना दृढ़ हो गई है कि भाषाविज्ञान सामाजिक विज्ञानों में सबसे अधिक व्यापक और विकसित विषय है। इसकी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि और संरचनात्मक विश्लेषण की वैज्ञानिक दृष्टि तो होती ही है, साथ ही प्रयोजन और प्रकार्य की दृष्टि से इसका संबंध अन्य विषयों एवं शास्त्रों से है। अत: किसी भी विषय के प्रतिपादन में शुद्ध विज्ञान, अनुप्रयुक्तविज्ञान अर्थात विज्ञान का अनुप्रायोगिक रूप और व्यावहारिक प्रयोग का सम्मिलन अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। किसी विज्ञान के सिद्धांत को किसी दूसरे विषय-विशेष में अनुप्रयोग की बात करते समय उसके दो पक्ष हमारे समक्ष आते हैं- एक, सैद्धांतिक पक्ष और दो, अनुप्रायोगिक पक्ष। इसमें से दूसरा पक्ष पहले पक्ष पर आधारित होता है। दोनों पक्षों के कार्य का आरंभ पूर्वज्ञात बिंदु से ही होता है। यदि एक और वैज्ञानिक पक्ष से विषय की प्रकृति पर हमारी समझ विकसित होती है तो अनुप्रायोगिक पक्ष से उसकी व्यावहारिक प्रकृति के प्रति हमारी सोच का विकास होता है।
विज्ञान की सार्थकता तथा विकास की कसौटी उसकी अनुप्रायोगिकता पर आधारित है। अनुप्रायोगिकविज्ञान ‘सिद्धांत के लिए’ दृष्टिकोण का खंडन करता है और यह सिद्धांतों का उपयोग व्यावहारिक क्षेत्र में करने की बात करता है। वास्तव में जब किसी विषय या कार्यक्षेत्र के सिद्धांतों का प्रयोग किसी अन्य विषय या कार्यक्षेत्र की स्थिति-विशेष या प्रक्रिय-विशेष को समझने के लिए किया जाता है, तब उस प्रयोग को ‘अनुप्रयोग’ की संज्ञा दी जा सकती है। यही अवधारणा भाषाविज्ञान पर लागू होती है। भाषाविज्ञान सिद्धांत के रूप में भाषा की आंतरिक व्यवस्था के अध्ययन का क्षेत्र है। इसीलिए सैद्धांतिक भाषाविज्ञान की जो अन्वेषण-सामग्री होती है, वह भाषा की अपनी परिधि के भीतर की सामग्री होती है। भाषा की अपनी संरचना, बुनावट और अपने नियमों की संहिता भाषाविज्ञान के मुख्य विषय बनते हैं। इसके अतिरिक्त यह उच्चतर स्तर पर भाषा-विशेष की सीमा का अतिक्रमण भी कर जाता है।
इस दिशा में भाषावैज्ञानिक सिद्धांत किसी एक भाषा से संबंद्ध न होकर भाषा के सामान्य पक्ष से जुड़ा होता है। आधुनिक भाषाविज्ञान में भाषा के अनुप्रायोगिक पक्ष पर भी चिंतन हुआ है। इधर भाषाविज्ञान या उसके सिद्धांतों एवं प्रणालियों का प्रयोग अन्य विषयों अर्थात् मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, दर्शन आदि कार्यक्षेत्र में किया जाने लगा है। ऐसे सभी प्रयोगों को सामान्यत: अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की संज्ञा दी गई है। दूसरे शब्दों में इसे भाषिक मनोविज्ञान का अनुप्रयोग या भाषिक समाजशास्त्र का अनुप्रयोग या भाषिक मानवशास्त्र का अनुप्रयोग कहा जा सकता है। इस प्रकार भाषा का सैद्धांतिक विश्लेषण और वाक्य, रूपिम, स्वनिम आदि उसके व्याकरणिक स्तरों का वैज्ञानिक अध्ययन भाषाविज्ञान का सिद्धांत कहलाता है, जबकि सैद्धांतिक भाषाविज्ञान के नियमों, सिद्धांतों, तथ्यों और निष्कर्षों का किसी अन्य विषय में अनुप्रयोग करने की प्रक्रिया और क्रिया-कलाप का विज्ञान ही अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान है। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान अपने ज्ञान भंडार के विवेचनात्मक परीक्षण के पश्चात उसका अनुप्रयोग उन क्षेत्रों में करता है, जहाँ मानव भाषा एक केंद्रीय घटक होती है और उससे उन क्षेत्रों की कार्यक्षमता का संवर्धन किया जा सकता है।
अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान प्रायोगिक एवं कार्योन्मुख एक ऐसी वैज्ञानिक विधा है, जो मानव कार्य-व्यापार में उठने वाली भाषागत समस्याओं का समाधान ढूँढती है। भाषिक क्षमता एवं भाषिक व्यवहार के संदर्भ में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का संबंध प्रत्यक्षत: व्यवहार पक्ष से जुड़ा है, जिसमें भाषासिद्धांत का उपयोग एक ऐसे उद्देश्य तथा प्रयोजन के लिए होता है जो भाषाविज्ञान से बाहर होता है। यदि भाषाविज्ञान प्रत्येक ‘क्या’ का उत्तर देता है तो अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान प्रत्येक ‘कैसे’ तथा ‘क्यों’ का उत्तर देता है। यह उपभोक्ता-सापेक्ष (Consumer-oriented) है, जिसमें भाषा के उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं द्वारा निर्धारित लक्ष्य के संदर्भ में भाषा-सिद्धांतों का अनुप्रयोग होता है। वास्तव में भाषा से हम क्या-क्या काम ले सकते हैं, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान उस दिशा में काम करता है। इसलिए जैसे-जैसे इसकी उपयोगिता बढ़ती गई देश एवं काल के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न विधाओं से संबंद्ध किया जाता रहा है; यथा- भाषा शिक्षण, अनुवाद, कोशविज्ञान, शैलीविज्ञान, कंप्यूटर भाषाविज्ञान, समाजभाषाविज्ञान।
- अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का क्षेत्र
अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञानी सैद्धांतिक भाषाविज्ञान द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से तथ्यों का चयन करता है, जिसके लिए चयन के सिद्धांत, प्रासंगिकता के सिद्धांत और प्रयोजनीयता के सिद्धांत में से किसी एक सिद्धांत को उपयोग में लाया जाता है। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के क्षेत्रों के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान समाजभाषाविज्ञान और मनोभाषाविज्ञान को भाषाविज्ञान के अनुप्रायोगिक क्षेत्र के भीतर समाहित करते हैं और कुछ इसे भाषाविज्ञान के रूप में ही स्वीकार करते हैं। अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान को भाषाशिक्षण के अनुप्रयोग तक सीमित माना जाता है। इसी परिप्रेक्ष्य में रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, भोलानाथ तिवारी और कृष्ण कुमार गोस्वामी ने (1980) अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के कार्यक्षेत्र का अध्ययन करते हुए उसके तीन संदर्भ बताए हैं।
- ज्ञान-क्षेत्र का संदर्भ:
- विद्या-क्षेत्र का संदर्भ:
- भाषाशिक्षण का संदर्भ:
ज्ञान-क्षेत्र का संदर्भ: जहाँ तक ज्ञान क्षेत्र का संदर्भ है, इसमें भाषाविज्ञान और उसके सिद्धांतों का अनुप्रयोग ज्ञान के अन्य क्षेत्रों को स्पष्ट करने के लिए किया जाता है। इस संदर्भ में यदि हम समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को लें तो यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के साथ-साथ बातचीत करने वाला सर्जनात्मक प्राणी
भी है। अत: भाषा एक बहुआयामी प्रक्रिया है, अत: इसका सीधा संबंध मानव मन और मानव जीवन के अनेक स्तरो से बना रहता है। यदि एक ओर वह मन की आंतरिक प्रकृति से जुड़ी हुई है तो दूसरी ओर समाज की संचार व्यवस्था से भी। इसी कारण चॉम्स्की जैसे विद्वान भाषा की आंतरिक प्रकृति को मानव मन की आंतरिक वृत्ति के साथ जोड़कर देखते हैं और वे मनोभाषाविज्ञान को मूलत: भाषाविज्ञान ही मानते हैं, न कि भाषाविज्ञान का मनोविज्ञान में अनुप्रयोग। इसके विपरीत लेबाव, गंपर्ज जैसे विद्वान मानव व्यवहार की आंतरिक संरचना के मूल में भाषा व्यवहार को सिद्ध मानते हैं। इनका मत है कि मानव जहाँ एक ओर समाज से बँधा होता है, वहाँ वह दूसरी ओर उस समाज की भाषा से भी बँधा होता है। समाज और भाषा को यदि हम समन्वित रूप में लें तो हम पाते हैं कि वे एक-दूसरे के लिए संदर्भ ही नही बन जाते, अपितु ज्ञान के एक विशेष-क्षेत्र का प्रतिपादन भी करते हैं अर्थात ‘समाजशास्त्र’ और ‘भाषाविज्ञान’ के समन्वित रूप ‘समाजभाषाविज्ञान की जो संकल्पना हमारे समक्ष आती है, वह जहाँ एक ओर समाज और व्यक्ति-समूह के सामाजिक-व्यवहार का अध्ययन ‘भाषा’ के माध्यम से करती हैं, वहाँ दूसरी ओर ‘समाजभाषाविज्ञान’ को भाषाविज्ञान का रूप मानती है। इसलिए हम समाज और भाषा को साथ-साथ लेकर ही भाषा की सही प्रकृति का अध्ययन कर पाते हैं। इसलिए लेबॉव ने ‘समाजभाषाविज्ञान’ को भाषाविज्ञान माना है। इस प्रकार चॉम्स्की और लेबॉव का दृष्टिकोण जहाँ भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के निरूपण के लिए ‘मानव मन’ अथवा ‘मानव समाज’ से संबद्ध ज्ञान को जोड़ता हैं, वहाँ भाषाविज्ञान का अनुप्रायोगिक पक्ष भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के माध्यम से हमारे सामाजिक तथा मानसिक व्यवहार को समझने-समझाने में सहायता भी करता है। इसी दृष्टि से कंप्यूटरीकृत भाषाविज्ञान में भी मानव-मशीन अंतंरक्रिया के प्ररिेप्रेक्ष्य में कंप्यूटर प्रणाली से उठने वाली भाषायी समस्याओं के समाधान के लिए भाषिक सिद्धांतों और पद्धतियों को उपभोक्ता के रूप में काम में लाया जाता है। वस्तुत: कृत्रिम बुद्धि के क्षेत्र में कंप्यूटर विज्ञानियों के लिए भाषा का तार्किक पक्ष आगे बढ़ने का साधन है। इसमें प्रकृत भाषा संसाधन के लिए भाषावैज्ञानिक सिद्धांत, प्रक्रिया और नियमों का अनुप्रयोग होता है। इस प्रकार समाज की संरचना तथा प्रकृति को समझने के लिए भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग ‘समाजभाषाविज्ञान’ है; मानव भाषा के विभिन्न रूपों के उत्पादन तथा बोधन की प्रक्रिया को समझने के लिए भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग ‘मनोभाषाविज्ञान’ है और मानव की कंप्यूटरीकृत क्षमता के अंतर्गत भाषावैज्ञानिक नियमों का संसाधन ‘कंप्यूटरीकृत भाषाविज्ञान’ है। ज्ञानक्षेत्र की ये विधाएँ अनुप्रायोगिक होते हुए भी अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाए हुए है।
विद्या-क्षेत्र का संदर्भ: चूँकि अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का संबंध विशेष विधाओं से है, अत: इसमें भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का जो अनुप्रयोग किया जाता है, उसका लक्ष्य संक्रियात्मक होता है। संक्रियात्मक रूप में शैलीविज्ञान, अनुवादविज्ञान, कोशविज्ञान, वाक्चिकित्सा विज्ञान आदि विषयों में भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग अनिवार्यत: होता है, क्योंकि ये मुख्यत:भाषा से संबंद्ध हैं। शैलीविज्ञान, भाषा की और सर्जनात्मक प्रक्रिया और कलात्मक प्रयोगों का अध्ययन करता है, जिसमें भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग होता है। कोश-निर्माण की प्रक्रिया में भाषावैज्ञानिक सिद्धांत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अनुवाद में दो भाषाओं की विभिन्न इकाइयों की आंतरिक व्यवस्था और प्रणाली को समझने और सही विकल्पों के चयन में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान काफी उपयोगी सिद्ध होता है। वाक्चिकित्सा विज्ञान में भाषा संबंधी रोगों और विकारों के निदान में भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग होता है। इन विधाओं को एक निश्चित सैद्धांतिक संदर्भ देने में और उसके अध्ययन-विश्लषण के लिए एक सुनिश्चित वैज्ञानिक तकनीक विकसित करने में भाषावैज्ञानिक सिद्धांत एवं प्रणाली के अनुप्रयोग का सर्वाधिक योगदान है। दूसरे शब्दों में, भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग इन विधाओं के लिए भाषावादी दिशा के साथ-साथ वस्तुवादी तथा वैज्ञानिक दिशा भी प्रदान करता है।
भाषाशिक्षण का संदर्भ: भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का सर्वाधिक अनुप्रयोग आज भाषाशिक्षण के संदर्भ में होता है। यह इसका संकुचित संदर्भ है। भाषाविज्ञान की इस देन ने अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया है और अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की अनिवार्यता सिद्ध कर दी है। भाषाशिक्षण में भाषिक विश्लेषण करने और अधिगम प्रक्रिया को समझने में भाषाविज्ञान का अनुप्रयोग सहायक सिद्ध हो सकता है। भाषाशिक्षण में जब भी भाषा संरचना का प्रयोग होता है उसमें भाषाविज्ञान का उपयोग होता है। इस प्रकार भाषा शिक्षक भाषाविज्ञान का उपभोक्ता है जो अपने प्रयोजन के अनुसार भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का प्रयोग करता है। आज मातृभाषा शिक्षण और अन्यभाषाशिक्षण, शैक्षिक व्याकरण, शिक्षण सामग्री और तकनीक इन सब में भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग की अनिवार्यता परिलक्षित होती है। यही कारण है कि विद्वान भाषाशिक्षण और अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान को सहधर्मी और पर्यायवाची संकल्पनाएँ बताते हैं।
- निष्कर्ष
भाषाविज्ञान भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन है जो उसकी आंतरिक व्यवस्था का विवेचन करता है। उसके सार्वभौमिक तत्वों और उसके प्रकार्यों का विश्लेषण करता है। उससे संबंधित सामान्य नियमों और सिद्धांतों का निर्माण करता है। भारत की प्राचीन भाषावैज्ञानिक परंपरा के विकास और संवर्धन में पाणिनि, यास्क, पतंजलि, भर्तृहरि आदि आचार्यों का बहुत बड़ा योगदान है। आधुनिक भाषाविज्ञान के प्रादुर्भाव में फर्दीना द सस्यूर का उल्लेखनीय योगदान माना जाता है। भाषाविज्ञान के अध्ययन-क्षेत्र के अंतर्गत मानव भाषा के ध्वनि, रूप, शब्द, वाक्य, अर्थ, प्रोक्ति आदि अंगो का अध्ययन होता है। आधुनिक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में भाषा के सैद्धांतिक स्वरूप के साथ-साथ अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान एक ऐसे विषय के रूप में उभरा जिसमें भाषाविज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग का प्रयास किया गया। इसी अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के अंतर्गत समाजभाषाविज्ञान, मनोभाषाविज्ञान, कंप्यूटर भाषाविज्ञान, अनुवाद, शैलीविज्ञान, कोशविज्ञान, भाषाशिक्षण, वाक्चिकित्सा आदि विषयों का विकास हुआ।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- Hockett, C.F. (1970). A Course in Modern Linguistics, Oxford University & IBH Publishing Co., New Delhi
- Srivastava, R.N. (1994). Applied Linguistics, Kalinga Publishers, Delhi
- नारंग, वैश्ना. (1981). सामान्य भाषाविज्ञान, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- श्रीवास्तव, रवींद्रनाथ. तिवारी, भोलानाथ एवं गोस्वामी, कृष्ण कुमार (सं), (1980). अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान, आलेख प्रकाशन, दिल्ली
- सिंह, कृपा शंकर और सहाय, चतुर्भुज. आधुनिक भाषाविज्ञान, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
वेब लिंक
https://hi.wikipedia.org/s/24ji
https://hi.wikipedia.org/s/2wz
https://hi.wikipedia.org/s/27uf