28 आकृतिमूलक िर्गीकरण
ठाकुर दास
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई में आप यह पढ़ेंगे –
- आकृतिमूलक वर्गीकरण क्या है और किन आधारों पर किया जाता हैं?
- आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर भाषाओं के कौन-कौन से भेद-प्रभेद किए जाते है?
- आकृतिमूलक वर्गीकरण के अंतर्गत संसार की किन-किन भाषाओं को एक साथ रखा जा सकता है?
- क्या आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाले जा सकते है?
- प्रस्तावना
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अंतर्गत भाषाओं का वर्गीकरण अठारहवीं शताब्दी से किया जाता रहा है। ये वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किए गए हैं। मोटे तौर पर भाषाओं के वर्गीकरण के दो आधार माने गए हैं – आकृतिमूलक और पारिवारिक।
आकृतिमूलक वर्गीकरण का विकास रूपिमिक वर्गीकरण पर आधारित है जिसका विकास 19वीं शताब्दी के जर्मन भाषाविदों – श्लेगल, श्टाइनथाल, हुंबोल्ट एवं श्लाइखर द्वारा किया गया। अमेरिकी भाषाविद् ऐडवर्ड सपीर ने इसे व्यवस्थित करने का प्रयास किया। आगे चलकर अमेरिकी भाषाविद जोसेफ़ ग्रीनबर्ग, चेक भाषाविद् स्कालिद्का और रूसी भाषाविद् उपेंस्की ने इसका प्रयोग भाषाओं के रूपिमिक या रचनात्मक वर्गीकरण के लिए किया।
भाषा में दो प्रकार के तत्व होते हैं – संरचना तत्व और अर्थ तत्व। केवल संरचना के आधार पर किया गया वर्गीकरण आकृतिमूलक वर्गीकरण कहलाता है जबकि संरचना तत्व और अर्थ तत्व के सम्मिलित आधार पर किया गया वर्गीकरण पारिवारिक या ऐतिहासिक वर्गीकरण कहलाता है। इस प्रकार भाषा संरचना के किसी भी पक्ष के आधार पर किया गया वर्गीकरण आकृतिमूलक वर्गीकरण कहलाता है। स्वनिमिक रचना, रूपिमिक रचना या शब्द अथवा पद रचना, वाक्य रचना को आधार बनाकर आकृतिमूलक वर्गीकरण किया जाता है। यूँ तो रंगों की शब्दावली, स्वरों और व्यंजनों की संख्या को भी आधार बनाकर वर्गीकरण किया जा सकता है और वह भी आकृतिमूलक वर्गीकरण कहलाएगा। कहने का तात्पर्य यह कि जिन भाषाओं में पदों या वाक्यों की रचना का ढंग एक जैसा होता है, उन्हें एक वर्ग में रखा जाता है।
- आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार
‘’आकृतिमूलक’’ के पर्याय के तौर पर रूपात्मक, पदात्मक या संरचनात्मक शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार विभिन्न आधारों पर आकृतिमूलक वर्गीकरण करने के प्रयास किए गए हैं। वर्गीकरण के लिए मुख्यतया निम्नलिखित तीन प्रमुख आधारों का प्रयोग किया जाता है।
- रूपिमिक या संरचनात्मक : इस के अंतर्गत शब्द की आंतरिक संरचना के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है। कुछ भाषाओं में शब्द को रूपिमों में नहीं तोड़ा जा सकता। ऐसी भाषाएँ अयोगात्मक भाषाएँ कहलाती हैं। इसके विपरीत जिन भाषाओं में पद रचना मूल शब्दों के साथ परसर्ग एवं प्रत्यय जोड़कर की जाती है, ऐसी भाषाओं को योगात्मक भाषाएँ कहा जाता है।
- वाक्यविन्यासीय: इसके अंतर्गत भाषाओं को प्रमुख रूप से शब्दक्रम के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है।
- स्वनिमिक: इसके अंतर्गत भाषा की ध्वनि व्यवस्था के आधार पर कई पैरामीटरों पर वर्गीकरण किया जाता है। ध्वनियाँ दो प्रकार की होती हैं – खंडीय और खंडेतर। खंडेतर ध्वनियों के आधार पर भाषाओं के वर्गीकरण किए गए हैं।
अब इसे विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे –
3.1 रूपिमिक या संरचनात्मक
रूपिमिक या संरचनात्मक पैरामीटर को समझने के लिए शब्द और पद की रचना-प्रक्रिया को समझना आवश्यक है। शब्दों की रचना के लिए दो तत्व – प्रकृति और प्रत्यय या अर्थ तत्व और रचना तत्व ज़रूरी होते हैं। कभी कभी तीसरा तत्व – उपसर्ग भी काम में लाया जाता है। प्रकृति मूल तत्व है जो अर्थ को आधार प्रदान करता है, प्रत्यय उसको स्पष्ट करने वाला अंश होता है। उपसर्ग प्रकृति-प्रत्यय के योग से उत्पन्न शब्दार्थ का रूपांतरक होता है। इस प्रकार शब्दों की निष्पत्ति के लिए पहले दोनों का या तीनों का होना जरूरी होता है।
आकृतिमूलक वर्गीकरण में उन भाषाओं को एक वर्ग में रखा जाता है जिनमें पदों, वाक्यों या ध्वनियों की रचना का ढंग एक जैसा होता है। आकृतिमूलक वर्गीकरण के रूपिमिक आधार पर भाषाओं के दो मुख्य भेद किए जाते हैं – अयोगात्मक और योगात्मक भाषाएँ।
3,1.1 अयोगात्मक भाषाएँ वे होती हैं जिनमें प्रकृति – प्रत्यय जैसी कोई चीज़ नहीं होती। प्रत्येक शब्द की स्वतंत्र सत्ता होती है। वाक्य में प्रयुक्त होने पर उसमें कोई बदलाव नहीं होता है। ऐसी भाषाओं में शब्दों का विभाजन व्याकरणिक कोटियों – संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया क्रिया विशेषण आदि के रूप में नहीं किया जाता है। एक ही शब्द स्थान भेद से संज्ञा, विशेषण, क्रिया आदि कुछ भी हो सकता है। अयोगात्मक भाषाओं का प्रतिनिधित्व, सही मायने में, चीनी और वियतनामी भाषाएँ करती हैं।
चीनी भाषा में ‘जिन’ का अर्थ है ‘मनुष्य’, ’तो’ अनेक या समूहवाचक प्रत्यय है। दोनों को मिलाकर ‘’तोजिन’’ शब्द बना, जिसका अर्थ है ‘’बहुत मनुष्य’’। चीनी में बहुवचन सूचक विभक्तियाँ नहीं होतीं, किसी समूहवाचक शब्द के प्रयोग से बहुवचन का बोध हो जाता है। हिंदी में भी इसके उदाहरण मिल जाते हैं। हिंदी में लोग या गण शब्द के प्रयोग से बहुवचन का बोध होता है। जैसे हम लोग, अध्यापकगण, वक्तागण आदि।
अयोगात्मक भाषाओं में पदक्रम का विशेष महत्व होता है। पदक्रम में परिवर्तन से वाक्यों का अर्थ बदल जाता है। अंग्रेजी और हिंदी भाषा में भी इसके कुछ उदाहरण मिल जाते हैं। अंग्रेजी के इन दो वाक्यों को देखें –
Mohan hits Sohan
Sohan hits Mohan
इन दोनों वाक्यों में शब्दों या पदों में कोई अंतर नहीं है, केवल उनका स्थान बदल दिया गया है। पहले वाक्य में मोहन कर्ता है और सोहन कर्म। दूसरे वाक्य में स्थान बदल जाने से सोहन कर्ता और मोहन कर्म हो गए हैं। कर्ता और कर्म का भेदक कोई भी चिह्न शब्दों के साथ लगा हुआ नहीं मिलता। हिदीं में भी कुछ उदाहरण इसी तरह के मिल जाते हैं। जैसे –
साँप चूहा खाता है।
चूहा साँप खाता है।
यहाँ भी कर्ता और कर्म का निर्णय केवल स्थान से ही हो रहा है। पहले वाक्य में साँप कर्ता है और चूहा कर्म। दूसरे वाक्य में चूहा कर्ता है और साँप कर्म।
अयोगात्मक भाषाओं में एक ही शब्द संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि के रूप में प्रयुक्त होता है। ये उदाहरण देखें – अंग्रेजी के mail शब्द को लेते हैं।
- Bring the mail immediately.
- Mail these letters.
- Open the mail box.
इन वाक्यों में mail शब्द संज्ञा, क्रिया और विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। अयोगात्मक भाषाओं में एक ही शब्द विभिन्न व्याकरणिक कोटियों के तौर पर काम करता है।
हिंदी में भी कुछ ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं।
- उसका इस तरह जाना मुझे अच्छा नहीं लगा। (संज्ञा)
- तुम कल सुबह जाना। (क्रिया)
अयोगात्मक भाषाओं में चीनी तथा वियतनामी के अतिरिक्त तिब्बती, बर्मी, स्यामी आदि भाषाएँ भी आती हैं। अयोगात्मक भाषाओं की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- अयोगात्मक भाषाओं में पदक्रम का बहुत महत्व होता है। पदक्रम में परिवर्तन से वाक्य का अर्थ बदल जाता है। इसके कुछ उदाहरण हम देख चुके हैं।
- शब्दों में अर्थ परिवर्तन का आधार सुर होता है। सुर भेद से एक ही शब्द कई अर्थ प्रकट करता है। इसके उदाहरण चीनी भाषा में बहुत मिलते हैं जिनमें एक शब्द सुर परिवर्तन से कई-कई अर्थ देता है।
- अयोगात्मक भाषाओं में प्रत्यय और विभक्तियाँ नहीं होतीं। समूहवाचक शब्द का प्रयोग करके बहुवचन का बोध कराया जाता है।
- अयोगात्मक भाषाओं में एक ही शब्द संज्ञा, क्रिया, विशेषण आदि के रूप में प्रयुक्त होता है।
- अधिकांश अयोगात्मक भाषाओं के शब्द एकाक्षरी होते हैं।
3.1.2 योगात्मक भाषाएँ – इन भाषाओं में शब्द निर्माण प्रकृति और प्रत्यय के योग से होता है। योगात्मक भाषाओं के तीन प्रमुख भेद किए जाते हैं।
- अश्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ – इन भाषाओं में प्रकृति के साथ प्रत्यय या विभक्ति का योग होता है जो स्पष्ट दिखाई पडता है। इस वर्ग की प्रमुख भाषा के रूप में तुर्की का उदाहरण दिया जाता है। हिंदी में भी इसके काफी उदाहरण मिल जाते हैं – जैसे हिंदी शब्दों मे सजा-वट, सीधा-पन, कटु-ता, सम-ता, अ-समान, कु-पुत्र, वि-योग आदि। दूसरे शब्दों में अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में प्रकृति और प्रत्यय अलग – अलग दिखाई पडते हैं। ऐसी भाषाओं में प्रकृति के साथ प्रत्यय या रचनातत्व कभी पहले जुडता है, कभी मध्य में, कभी अंत में और कभी पूर्वांत में जुडता है। इस प्रकार अश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं के चार भेद किए जाते हैं –
पूर्वयोग – इसके उदाहरण बंटू परिवार की काफिर तथा जुलू भाषाओं में अधिक मात्रा में मिलते हैं। हिंदी में इसके उदाहरणों के रूप में अ-समय, वि-भाग, प्र-कार आदि शब्दों को लिया जा सकता है।
मध्ययोग – इसके उदाहरण संथाली भाषा में प्राय: मिल जाते हैं। जैसे –
मंझि = मुखिया
प = बहुवचनसूचक प्रत्यय
मपंझि = मुखिए
अंतयोग – तुर्की भाषा में इसके पर्याप्त उदाहरण मिलते हें। भारतीय भाषाओं में द्रविड़ परिवार की भाषाएँ इसके अनेकउदाहरण प्रस्तुत करती हैं। जैसे – कन्नड भाषा में ‘’सेवक’’ शब्द के विभिन्न कारकों में इस प्रकार रूप मिलते हैं। मलयालम में भी विभक्तियाँ शब्द के अंत में लगती हैं।
कर्ता – सेवक-नु (सेवक ने) सेवक-रु (सेवकों ने)
कर्म – सेवक-नन्नु (सेवक को) सेवक-रन्नु (सेवकों को)
करण – सेवक-निंद (सेवक से) सेवक-रिंद (सेवकों से)
संप्रदान – सेवक-निगे (सेवक के लिए) सेवक-रिगे (सेवकों के लिए)
संबंध – सेवक-न (सेवक का) सेवक-र (सेवकों का)
अधिकरण- सेवक-नल्लि (सेवक पर) सेवक-रल्लि (सेवकों पर)
पूर्वांतयोग – इस वर्ग की भाषाओं में प्रकृति से पूर्व और अंत में प्रत्यय या रचना तत्व लगते हैं। पूर्वांतयोग के उबाहरण न्यूगिनी की नफीरं भाषा में मिलते हैं। जैसे –
स्नफ = सुनना ज – स्नफ – उ = मैं सुनता हूँ।
- श्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ – इनमें प्रत्यय के जुड़ने से प्रकृति तत्व में कुछ परिवर्तन हो जाता है। नीति+ इक= नैतिक, भूगोल +इक=भौगोलिक, देव +इक=दैविक आदि। यहाँ इक प्रत्यय के योग से प्रकृति या अर्थतत्व में परिवर्तन हो गया है। इसी प्रकार अरबी भाषा में भी इसके पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं।
अरबी में धातु या प्रकृति तत्व क-त-प का अर्थ है लिखना। इससे कई शब्द बनते हैं। जैसे – किताब (पुस्तक), कुतुब (किताबें), कातिब (लिखनेवाला), मकतब (जहाँ लिखना सिखाया जाता है), मकतूब (लिखित) आदि। इसी प्रकार क-त-ल धातु से कत्ल, कातिल, इ-श-क से इश्क, आशिक आदि शब्द श्लिष्ट योगात्मकता के उदाहरण हैं।
भारोपीय परिवार तथा सामी परिवार की भाषाएँ इसी वर्ग में आती हैं। संस्कृत के अतिरिक्त लैटिन, ग्रीक, रूसी आदि भाषाओं की रचना व्यवस्था भी एक जैसी है। श्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में क्रमश योगात्मक से वियोगात्मक होने की प्रवृत्ति दिखाई पडती है। संस्कृत से हिंदी, लैटिन, फ्रांसीसी तथा स्पैनिश का विकास इसका प्रमाण है। संस्कृत योगात्मक थी, विभक्तियाँ शब्दों के साथ लिखी जाती थीं, किंतु हिंदी में विभक्तियाँ शब्दों के साथ नहीं लगतीं। यही बात फ्रांसीसी तथा स्पैनिश भाषाओं में भी दिखाई पडती है।
- प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ – प्रश्लिष्ट योगात्मक भाषाओं में प्रकृति और प्रत्यय (अर्थतत्व और रचनातत्व) का ऐसा मिश्रण हो जाता है कि उन्हें अलग करना संभव नहीं होता। अनेक अर्थतत्व सिमटकर आपस में मिल जाते हैं और एक शब्द बन जाता हैं। यह शब्द एक शब्द का नहीं, बल्कि पूरे वाक्य का अर्थ देता है।
संस्कृत में हमें प्रश्लिष्ट योगात्मकता के उदाहरण मिलते हैं। निम्नलिखित क्रियारूप से स्पष्ट हो जाता है –
जिगमिषति = वह जाना चाहता है।
पिपठियामि = मैं पढना चाहता हूँ।
एस्किमो तथा बास्क भाषाएँ इसी कोटि में आती हैं। बास्क के इन उदाहरणों से प्रश्लिष्टता दिखाई देती है।
दकर्किओत = मैं इसे उस तक ले जाता हूँ।
नकार्सु = तू मुझे ले जाता है।
हकार्त = मैं तुझे ले जाता हूँ।
भाषाविज्ञानी यह मानते हैं कि भाषा विकास का चक्र अयोगात्मकता से योगात्मकता तथा योगात्मकता से अयोगात्मकता की ओर चलता रहता है। आज की अनेक अयोगात्मक भाषाओं का प्राचीन रूप योगात्मक था। हिंदी, फ्रांसीसी, स्पैनिश, अंग्रेजी आदि कई भाषाएँ इसका उदाहरण हैं।
अब यह अनुभव किया जाने लगा है कि आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। सभी भाषाओं में अयोगात्मकता और योगात्मकता (अश्लिष्टता, श्लिष्टता और प्रश्लिष्टता) के उदाहरण मिल जाते हैं।
3.2. वाक्यविन्यास
आकृतिमूलक वर्गीकरण का दूसरा प्रमुख पैरामीटर वाक्यविन्यास के स्तर पर शब्दक्रम है। वाक्य स्तर पर शब्दक्रम के निम्नलिखित छह साँचे संभव है जिन के आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण किया जाता है।
- कर्ता क्रिया कर्म S V O (अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पैनिश)
- कर्ता कर्म क्रिया S O V (हिंदी तथा अन्य आर्य भाषाएँ)
- क्रिया कर्ता कर्म V S O (अरबी भाषाएँ)
- क्रिया कर्म कर्ता V O S (मालागास्कर की मालागासी भाषा)
- कर्म कर्ता क्रिया O S V (कौकेशिया की कबार्डियन भाषा)
- कर्म क्रिया कर्ता O V S ( ब्राजील की हिस्कारयाना भाषा)
विश्व की अधिकांश भाषाएँ पहले तीन शब्दक्रम वाले साँचों के अंतर्गत आती हैं। अंग्रेजी प्रधानतया कर्ता – क्रिया – कर्म शब्दक्रम वाली भाषा है। हिंदी कर्ता – कर्म – क्रिया शब्दक्रम वाली भाषा है। किंतु संस्कृत में इस प्रकार की स्थिति संभव नहीं है क्योंकि संस्कृत में विभक्तियों का प्रयोग किया जाता है। वाक्य में पदों को कहीं भी उलट-पुलट दें तब भी अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता। निम्नलिखित उदाहरण देखें –
देवदत्त: ओदनम् पचति । (देवदत्त चावल पकाता है)
ओदनम देवदत्त: पचति । (देवदत्त चावल पकाता है)
पचति देवदत्त: ओदनम । (देवदत्त चावल पकाता है)
पचति ओदनम् देवदत्त: । (देवदत्त चावल पकाता है)
3.3. स्वनिमिक
आकृतिमूलक वर्गीकरण का तीसरा आधार स्वनिमिक रचना है। स्वनिमों में खंडीय स्वनिम (स्वर और व्यंजन आते हैं। कुछ भाषाओं जैसे हिंदी में स्वर दीर्घता स्वनिमिक है जबकि अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिश आदि में स्वर दीर्घता स्वनिमिक नहीं होती। इसी प्रकार नासिक्य व्यंजनों की संख्या, प्राणत्व, मूर्धन्यता आदि के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है। हिंदी में प्राणत्व (अल्पप्राण, महाप्राण) स्वनिमिक है, अर्थ में अंतर करने का आधार बनता है।
स्वनिमिक आधार या पैरामीटर पर वर्गीकरण करने के लिए खंडीय स्वनिमों की अपेक्षा खंडेतर स्वनिमों का महत्व अधिक है। खंडेतर स्वनिमों में तान, बलाघात, अनुनासिकता आदि प्रमुख लक्षण हैं, जिनके आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण किया जाता है। चीनी, बर्मी आदि भाषाओं में तान स्वनिमिक है।
शब्दों में सुर परिवर्तन को तान कहा जाता है। तान वाली भाषाओं में अनेकार्थक शब्दों के अर्थ निर्णय में सुर या तान का प्रयोग किया जाता है। जैसे येन् शब्द के कई अर्थ हैं – धुआँ, नमक, आँख, हंस। इसी प्रकार अफ्रीका के बंतु परिवार की भाषाओं में भी सुर भेद या तान से अर्थ भेद होता है।
- निष्कर्ष
हमने आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधारों और उसके भेदों-प्रभेदों के बारे में जाना। विभिन्न भाषाओं में प्राप्त उदाहरणों के बारे में पढा और उनके आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण भी देखा। आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर विश्व की भाषाओं को अयोगात्मक तथा योगात्मक दो भागों में बाँटा जाता है। फिर योगात्मक भाषाओं के तीन भेद किए जाते हैं – अश्लिष्ट, श्लिष्ट और प्रश्लिष्ट योगात्मक। इन सभी भाषा भेदों के बारे में हमने इस पाठ में विस्तार से जाना। भाषाओं में संरचना के आधार पर विभाजक रेखा खींचना काफी मुश्किल है क्योंकि प्रत्येक भाषा में कुछ ऐसे अंश मिल जाते हैं जो उपर्युक्त दोनों वर्गों में पाए जाते है।
आकृतिमूलक वर्गीकरण के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना इसलिए भी कठिन है क्योकि संसार की सभी भाषाओं का अभी तक अध्ययन नहीं हो पाया है। संभव है, उनका अध्ययन होने पर और भी आकृतिमूलक विशेषताओं का पता चल सके और आकृतिमूलक वर्गीकरण को वैज्ञानिकता प्राप्त हो सके।
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अतिरिक्त जानें
शब्दावली
अनुनासिकता Nasalization
अयोगात्मक भाषा Analytic language
अर्थ तत्व Semantic elements
अश्लिष्ट योगात्मक Agglutinating
आंतरिक संरचना Internal structure
आकृतिमूलक वर्गीकरण Typological Classification
खंडीय स्वनिम Segmental Phonemes
खंडेतर स्वनिम Supra-segmental phonemes
नासिक्य व्यंजन Nasal consonants
पारिवारिक वर्गीकरण Genetic Classification
प्रश्लिष्ट योगात्मक Incorporating
प्राणत्व Aspiration
मुक्त-शब्दक्रम Free word order
मूर्धन्यता Retroflection
योगात्मक भाषा Synthetic language
रचना तत्व Structural elements
रूपिमिक Morphological
वाक्यविन्यासीय Syntactical
व्याकरणिक कोटियाँ Grammatical categories
शब्दक्रम Word Order
श्लिष्ट योगात्मक Inflecting
स्वनिमिक रचना Phonological structure
स्वर दीर्घता Vowel length
संदर्भ
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