26 पारिवारिक वर्गीकरण

ठाकुर दास

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पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. भाषा परिवार की संकल्पना
  4. पारिवारिक वर्गीकरण के आधार
  5. पारिवारिक वर्गीकरण की संदिग्धता
  6. आंतरिक पुनर्रचना एवं तुलनात्मक पुनर्रचना
  7. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ में आप सीखेंगे कि –

  1. पारिवारिक वर्गीकरण से क्या तात्पर्य है?
  2. पारिवारिक वर्गीकरण और आकृतिमूलक वर्गीकरण में क्या अंतर है?
  3. पारिवारिक वर्गीकरण किन आधारों पर किया जाता है?
  4. क्या पारिवारिक वर्गीकरण के आधार पर वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाले जा सकते है?
  5. आंतरिक पुनर्रचना एवं तुलनात्मक पुनर्रचना से क्या तात्पर्य है और उन दोनों में क्या अंतर है? 
  1. प्रस्तावना

   भाषाविदों के द्वारा विश्व की भाषाओं का मुख्य रूप से दो आधारों पर वर्गीकरण किया गया है। ये आधार हैं – आकृति या रचना तथा पारिवारिक या आनुवंशिक संबंध। आकृतिमूलक वर्गीकरण के बारे में हम पिछली इकाई में पढ़ चुके हैं। रचना तत्व या आकृति के आधार पर किया गया वर्गीकरण आकृतिमूलक वर्गीकरण कहलाता है। इस इकाई में हम पारिवारिक वर्गीकरण के बारे में परिचित होंगे।

 

ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का प्रमुख विषय है भाषाओं का पारिवारिक वर्गीकरण। इस विषय पर पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों से काम किया जा रहा है और विश्व की भाषाओं को विभिन्न भाषा परिवारों में वर्गीकृत किया गया है। पारिवारिक वर्गीकरण पर विचार करने से पहले हमें भाषा परिवार की संकल्पना को समझना होगा।

  1. भाषा परिवार की संकल्पना

    भाषा परिवार से तात्पर्य किसी सामान्य पूर्वज या प्राक् भाषा से निकली हुई तथा आनुवंशिक संबंध से जुड़ी हुई भाषाओं से है। इस आधार पर पारिवारिक वर्गीकरण को आनुवंशिक एवं ऐतिहासिक वर्गीकरण की संज्ञा भी दी जाती है। विश्व की विभिन्न भाषाओं का तुलनात्मक पद्धति के आधार पर पारिवारिक वर्गीकरण किया गया है तथा विभिन्न भाषा परिवारों की स्थापना की गई है जैसे भारत-यूरोपीय (भारोपीय) परिवार, द्रविड़ परिवार, चीनी परिवार, आस्ट्रेलियाई परिवार, अमरीकी परिवार आदि। भाषाविदों ने विश्व के 18 प्रमुख भाषा परिवारों का वर्णन किया है, जिनमें से भारोपीय भाषा परिवार का महत्व सबसे ज़्यादा है। इसके कई कारण हैं – जनसंख्या की दृष्टि से इसके बोलनेवाले सर्वाधिक हैं और बहुत बड़े भूभाग में इस परिवार की भाषाएँ बोली जाती हैं। इस परिवार से संबद्ध भाषाएँ युरोप तथा एशिया के काफ़ी बड़े भाग में बोली जाती हैं। साहित्यिक दृष्टि से भी इन भाषाओं का साहित्य उत्कृष्ट है। इस परिवार की भाषाओँ का सर्वाधिक अध्ययन हुआ है।

 

भारोपीय भाषा परिवार को ‘केंटुम’ और ‘शतम’ वर्गों के रूप में जाना जाता है। यह विभाजन पश्चिमी और पूर्वी भाषाओं के रूप में भी किया गया है। पूर्वी भाषाएँ ‘केंटुम’ वर्ग और पश्चिमी भाषाएँ ‘शतम’ वर्ग के रूप में चिह्नित की गई हैं। शतम वर्ग को भारत-ईरानी, आर्य भाषा परिवार के रूप में भी जाना जाता है। भारत की आर्य भाषाएँ इसी वर्ग में आती हैं।

 

भाषाओं के बीच पारिवारिक संबंध को सांस्कृतिक संचरण के रूप में भी परिभाषित किया जा सकता है। सभी भाषाओं में समय के साथ परिवर्तन होता है और अधिक समय बीतने पर अधिक परिवर्तन होता है। जब किसी भाषा का कई पीढ़ियों तक सांस्कृतिक संचरण होता रहता है तब उसमें काफ़ी परिवर्तन आ जाता है और वह मूल भाषा या प्राक् भाषा से काफी अलग हो जाती है। कभी-कभी तो उसका नाम भी अलग हो जाता है। उदाहरण के लिए आइबेरिया प्रायद्वीप में बोली जानेवाली भारोपीय परिवार की भाषा लैटिन का स्वरूप बदलकर स्पेनिश हो गया। इसी प्रकार इंग्लैंड में प्राक्-जर्मैनिक विकसित होकर एंग्लो-सैक्सन अथवा अंग्रेज़ी बन गई।

 

यदि हम स्पेनिश, पुर्तगाली, इतालवी, रोमानियाई भाषाओं की तुलना करें तो हम इन भाषाओं में एक प्रकार की “पारिवारिक समानता” पाते हैं। जर्मन और फ्रांसीसी भाषा की तुलना करते समय यह “पारिवारिक समानता” प्रकट नहीं होती। किंतु अंग्रेजी, डच, स्वीडिश या डेनिश, जर्मन की तुलना की जाए तो इन भाषाओं के बीच एक ‘’आनुवंशिक  समानता” दिखाई देती है। यही स्थिति हमें हिंदी, बांग्ला, असमिया, उड़िया. मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि भाषाओं में भी मिलती है। यदि इन भाषाओं की तुलना करें तो हमें इनमें एक प्रकार की आनुवंशिक समानता मिलती है, ये सभी भाषाएँ आर्य भाषा परिवार से संबंध रखती हैं। किंतु यदि हम मराठी या बांग्ला या हिंदी की तुलना तेलुगु या तमिल से करें तो इनमें समानता नहीं मिलती क्योंकि ये भाषाएँ भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं। मराठी, बांग्ला ओर हिंदी आर्य परिवार की भाषाएँ हैं तो तेलुगु और तमिल द्रविड़ परिवार की।

 

इस प्रकार हम पूर्वज भाषा से विकसित वंशज भाषाओं के बीच परिवारिक या आनुवंशिक संबंध की बात कर सकते हैं। पारिवारिक रूप से संबंधित भाषाओं के बीच संबंध गहरा या समीपस्थ अथवा दूरस्थ हो सकता है। संबद्धता की मात्रा (डिग्री) को वंश-वृक्ष के रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है। भाषा संबंधों को व्यक्त करने में वंश-वृक्ष बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

 

पारिवारिक वर्गीकरण के लिए तुलनात्मक पद्धति का सहारा लिया जाता है। तुलनात्मक पद्धति संबंद्ध भाषाओं की तुलना करने की एक पद्धति है, जिसके अंतर्गत संबद्ध भाषाओं सें तुलनात्मक सामग्री के आधार पर भाषाओं के मूल रूप तक पहुँचने का प्रयास किया जाता है। यहाँ तुलनात्मक सामग्री से तात्पर्य आधारभूत शब्दावली से है, जिसके अंतर्गत रिश्ते-नाते की शब्दावली (माता, पिता, भाई, बहन आदि), संख्यावाचक शब्द  (एक, दो, तीन, चार आदि), सर्वनाम शब्दों (मैं, तुम, वह आदि) तथा आधारभूत क्रियाओं (आना, जाना, खाना, सोना, पीना आदि) को लिया जाता है, क्योंकि इस प्रकार के शब्दों में परिवर्तन अपेक्षाकृत बहुत कम होते हैं। यदि इन शब्दों में साम्य मिलता है तो पारिवारिक रूप से संबद्ध होने की संभावना बढ़ जाती है। इसी से संबंधित तुलनात्मक पुनर्रचना तथा आंतरिक पुनर्रचना के सिद्धांत भी हैं, जिनपर आगे चर्चा की जाएगी।

  1. पारिवारिक वर्गीकरण के आधार

    पारिवारिक वर्गीकरण के सामान्यतया चार आधार माने जाते हैं।

  1. स्थान समीपता
  2. शब्द साम्य या समानता
  3. व्याकरण साम्य या समानता
  4. ध्वनि साम्य या समानता 
  1. स्थान समीपता – आम तौर पर एक परिवार से संबद्ध भाषाएँ स्थान की दृष्टि से एक दूसरे के समीप होती हैं। इससे उन भाषाओं की एक परिवार से संबद्ध होने की संभावना बढ़ जाती है। भारतीय भाषाओं में हिंदी, पंजाबी, बांग्ला, गुजराती आदि ऐसी भाषाएँ हैं जो एक परिवार में आती हैं। इनमें स्थान समीपता पाई जाती है। परंतु स्थान समीपता पारिवारिक वर्गीकरण का एकमात्र आधार नहीं बन सकती। कुछ भाषाएँ एक दूसरे के समीप होकर भी एक परिवार में सम्मिलित नहीं होतीं, जैसे तेलुगु, मराठी, कन्नड स्थान की दृष्टि से समीप हैं किंतु भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं जबकि जर्मन, अंग्रेजी, फ्रेंच, संस्क़ृत आदि स्थान के आधार पर दूर होकर भी एक परिवार – भारोपीय परिवार में आती हैं। इस प्रकार स्थान समीपता पारिवारिक समानता या वर्गीकरण की द्योतक तो है किंतु निर्णायक नहीं है।
  1. शब्द समानता – इसके अंतर्गत भाषाओं में आधारभूत शब्दावली संबंधी समानता को लिया जाता है। इसमें शब्द की आकृति के साथ-साथ अर्थ पर भी विचार किया जाता है। यदि एकाधिक शब्दों में शब्द समानता मिलती है तो यह पारिवारिक दृष्टि से संबंद्ध होने की ओर संकेत देती है। शब्द समानता के लिए आधारभूत शब्दावली पर ही विचार किया जाता है।

    इसी आधार पर संस्कृत, फ़ारसी, ग्रीक, लैटिन, जर्मन, अंग्रेज़ी और हिंदी के कुछ आधारभूत शब्दों में पारिवारिक समानता दिखाई पड़ती है। इसी आधार पर इन भाषाओं को भारोपीय परिवार के अंतर्गत रखा गया है।

 

संस्कृत    फ़ारसी     ग्रीक       लैटिन         जर्मन       अंग्रेज़ी        हिंदी

मातृ         मादर       Mater    Mater        Mutter   Mother      माता

पितृ         पिदर       Pater      Pater         Vater      Father       पिता

भ्रातृ        बिरादर    Frater     Frater        Bruder   Brother     भ्राता

सप्त        हफ़्त        Hepta    Septem      Sieben   Seven        सात

 

शब्द साम्य के संबंध में काफ़ी सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है। कई बार आगत शब्दों के कारण भी शब्द साम्य हो सकता है। जैसे हिंदी तथा चीनी भाषा में चाय शब्द के आधार पर दोनों को एक परिवार से संबद्ध नहीं माना जा सकता। हिंदी तथा तुर्की भाषा में सैंकड़ों शब्द अरबी भाषा से आगत शब्द हैं, इसके आधार पर हिंदी और तुर्की को एक परिवार के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता।

 

कई बार विभिन्न परिवारों की भाषाओं में भी आंशिक समानता मिलती है, जैसे संस्कृत में जाल्म: शब्द (निर्दयी, अत्याचारी), अरबी में ज़ालिम (ज़ुल्म या अत्याचार करनेवाला), भोजपुरी में नियरे (समीप) तथा अंग्रेज़ी में नियर आदि शब्दों में आकस्मिक साम्य को इन भाषाओं में पारिवारिक या ऐतिहासिक समानता का आधार नहीं माना जा सकता।

 

अनुकरणमूलक शब्दों में अक्सर शब्दार्थ समानता मिलती है – जैसे हिंदी में म्याउँ, चीनी में म्याउँ किंतु इसे परिवारिक समानता का आधार नहीं माना जा सकता।

  1. व्याकरण समानता – इसके अंतर्गत पद रचना और वाक्य रचना में समानता पर विचार किया जाता है। यह पारिवारिक संबंधों का पुष्ट आधार होता है। प्रत्यक भाषा की पद रचना और वाक्य रचना बहुत हद तक स्वतंत्र होती हैं। इनमें बहुत कम परिवर्तन होता है।

   इस स्तर पर क्रिया शब्दों, उनकी धातुओं, प्रत्ययों के जुड़ने के स्वरूप, प्रत्यय धातु के आदि, मध्य या अंत में कहाँ लगते हैं तथा वाक्य की रचना किस प्रकार से होती है – इन मुद्दों पर विचार किया जाता है।

  1. ध्वनि समानता – यदि विवेच्य भाषाओं की प्रयुक्त ध्वनियों में समानता होती है तो उनमें पारिवारिक संबंध होने की संभावना बढ़ जाती है। किसी भाषा की ध्वनियों में विकासक्रम में परिवर्तन होते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर संस्कृत की ऋ, ष, ज्ञ, ऐ, औ आदि का मूल रूप में उच्चारण आज नहीं मिलता। संस्कृत, फ़ारसी, रूसी, फ़्रेंच, जर्मन, अंग्रेज़ी आदि भाषाएँ भारोपीय परिवार की भाषाएँ हैं। संस्कृत में ज ध्वनि नहीं थी जबकि अन्य भाषाओं में यह ध्वनि है। संस्कृत में टवर्ग ध्वनियाँ थीं, किंतु अन्य भारोपीय भाषाओं में ये ध्वनियाँ नहीं है। संस्कृत में ड़, ढ़ ध्वनियाँ नहीं है किंतु उससे विकसित भारतीय आर्य भाषाओं में ये ध्वनियाँ मिलती हैं। कई बार विदेशी भाषाओं के संपर्क के साथ विदेशों ध्वनियाँ आ जाती है, जैसे अरबी-फ़ारसी के संपर्क से हिंदी में क़, ख़, ग़, फ़, ज़ आदि ध्वनियाँ भी आ गईं। फिर विदेशी शब्दों को आत्मसात करने में मूल अरबी-फ़ारसी ध्वनियों में परिवर्तन हो गया।

    अर्थ की स्थिति भी ध्वनि या शब्द समानता की तरह अनिश्चित होती है, अर्थ परिवर्तन भी भाषा की सामान्य विशेषता है। जैसे संस्कृत में ‘’मृग’’ शब्द का अर्थ ‘’कोई भी पशु’’ था, किंतु बाद में यह ‘’पशु विशेष’’ के रूप में विकसित हो गया। फ़ारसी में ‘’मृग’’ शब्द के साथ दो परिवर्तन घटित हुए – एक ध्वनि परिवर्तन जिससे यह ‘’मृग’’ से ‘’मुर्ग’’ हो गया और दूसरा अर्थ परिवर्तन जिससे यह पशु से पक्षी के अर्थ में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि अर्थ भी स्थिर रहनेवाली वस्तु नहीं है।

 

इस प्रकार हम देखते हैं कि ध्वनि समानता भी पारिवारिक संबंध का पुष्ट आधार नहीं है। सबसे विश्वसनीय आधार व्याकरण समानता होती है, दूसरे आधार उसे पुष्ट करने में सहायक हो सकते हैं।

  1. पारिवारिक वर्गीकरण की संदिग्धता

    भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण की संदिग्धता के कई कारण मिलते हैं।

  1. सामग्री की कमी के कारण किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता। सामग्री की कमी का मुख्य कारण यह है कि विश्व की कई भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं। कुछ भाषाओं के कुछ ही शब्द बच पाए हैं। अत: अपूर्ण सामग्री के आधार पर सही निष्कर्ष नही निकाले जा सकते।

    अधिकांश भाषाओं में, अलिखित होने के कारण, पर्याप्त सामग्री नहीं मिल पाती।

  1. भाषाओं के इतिहास में समकालिकता का अभाव भी कठिनाई उत्पन्न करता है। जो प्राचीन भाषाएँ ज्ञात हैं उनमें ऐतिहासिक दृष्टि से हज़ारों वर्षों का अंतर मिलता है। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार सबसे प्राचीन भाषा सुमेरी 4000 वर्ष ईसापूर्व की मानी जाती है। मिस्री 2,800 वर्ष ईसापूर्व, भारोपीय 2000 वर्ष ईसापूर्व, चीनी 1500 वर्ष ईसापूर्व, द्रविड़ 500 वर्ष ईसापूर्व, ग्रीक 800 वर्ष ईसापूर्व, तुर्की 800 वर्ष ईसापूर्व आदि की मानी जाती हैं। भारोपीय परिवार में भी भारत-इरानी का समय 2000 से 1500 वर्ष ईसापूर्व, हित्ती का 1850 वर्ष ईसापूर्व, इटैलियन का 700 वर्ष ईसापूर्व, स्लाविक का 900 वर्ष ईसापूर्व, बाल्टिक का 1500 वर्ष ईसापूर्व माना जाता है। इस प्रकार काल-भेद के कारण भी भाषाओं के पारिवारिक संबंधों के अन्वेषण में काफ़ी कठिनाई होती है।
  2. संसार की सभी भाषाओं का समान रूप से अध्ययन भी नहीं हो पाया है। कुछ भाषाओं का अध्ययन संतोषप्रद है तो कुछ का बिल्कुल नहीं। भाषा परिवारों की संख्या के संबंध में भी एकरूपता नहीं है। 

   इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रामाणिक सामग्री की कमी, ऐतिहासिक समकालिकता का अभाव तथा अध्ययन की अपूर्णता भाषाओं के बीच संबंध-स्थापन में समस्या पैदा करते हैं। 

  1. आंतरिक पुनर्रचना एवं तुलनात्मक पुनर्रचना

    आंतरिक पुनर्रचना एक पद्धति है जिसके माध्यम से किसी भाषा के वर्तमान रूपों के आधार पर उसके प्राचीन रूपों की पुनर्रचना की जा सकती है। आंतरिक पुनर्रचना में एक ही भाषा के विभिन्न रूपों (परिवर्तों) की तुलना की जाती है, इसमें यह मानकर चला जाता है कि ये परिवर्त एक मूल रूप से विकसित हुए हैं। वर्तमान संरूपिमों को भी एक रूपिम से विकसित माना जाता है। आंतरिक पुनर्रचना की आधारभूत धारणा यह है कि विभिन्न परिवेशों में दो या दो से अधिक सार्थक रूपों का संबंध प्राचीन रूप से संबंद्ध हो सकता है।

 

तुलनात्मक पुनर्रचना में विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध समानार्थी शब्दों  की तुलना करके उस के प्राक् रूप को पुनर्रचित किया जाता है। इसके अंतर्गत यह मानकर चला जाता है कि ये भाषाएँ किसी एक पूर्वज या प्राक् भाषा से विकसित हुई है।

 

जिस प्रकार तुलनात्मक पुनर्रचना द्वारा पुनर्रचित भाषा को प्राक्-उपसर्ग द्वारा द्योतित किया जाता है, उसी प्रकार आंतरिक पुनर्रचना द्वारा पुनर्रचित भाषा रूप को पूर्व-उपसर्ग द्वारा प्रकट किया जाता है – जैसे प्राक्-भारोपीय भाषा या प्राक्-आर्य भाषा। इसी प्रकार प्राक्-आर्य भाषा के पूर्व रूप को पूर्व-प्राक्-आर्य भाषा कहा जाता है।

 

आंतरिक पुनर्रचना को तुलनात्मक पुनर्रचना द्वारा पुनर्रचित प्राक् भाषाओं पर भी लागू किया जा सकता है। दूसरी ओर किसी भाषा के पुनर्रचित रूप के बाद तुलनात्मक पुनर्रचना लागू की जा सकती है। परंतु इसमें सावधानी बरतने की आवश्यकता होती है क्योंकि तुलनात्मक पुनर्रचना लागू करने से पहले आंतरिक पुनर्रचना लागू करने से भाषा के पूर्व रूपों से संबंधित महत्वपूर्ण साक्ष्य मिट सकते हैं और इस प्रकार पुनर्रचित प्राक् भाषा की परिशुद्धता संदिग्ध हो सकती है।

 

तुलनात्मक पुनर्रचना के आधार पर कई भारतीय आर्य भाषाओं के अध्ययन किए गए हैं। इनमें देवी प्रसन्न पट्टनायक का उड़िया-असमिया-बंगाली-हिंदी, ठाकुर दास का कश्मीरी-लहंदा-पंजाबी-हिंदी तथा पूर्वी हिंदी तथा बिहारी भाषाओं का संबंधपरक अध्ययन प्रमुख हैं। इन अध्ययनों के निष्कर्षों को वंशवृक्षों के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है। नीचे वर्तमान कश्मीरी-लहंदा-पंजाबी-हिंदी की तुलनात्मक पुनर्रचना के आधार पर इन भाषाओं के पुनर्रचित प्राक्-रूप से इन के विकास-क्रम को वंशवृक्ष द्वारा दर्शाया गया है।

               

 

(आधुनिक कश्मीरी, लहंदा, पंजाबी और सिंधी के शब्दों में ध्वनि समानता के अनुसार तुलनात्मक पुनर्रचना के सिद्धांत के आधार पर प्राक्–कश्मीरी-लहंदा-पंजाबी-सिंधी की पुनर्रचना की गई है और उनमें हुए ध्वनि परिवर्तनों के आधार पर भाषाओं का विकास दिखाया गया है। सबसे पहले द्वित्वों के सरलीकरण के आधार पर कश्मीरी प्राक्-भाय़ा से अलग होती है। फिर अंत:स्फ़ोटी ध्वनियों के विकास के कारण लहंदा-सिंधी वर्ग प्राक् लहंदा-पंजाबी-सिंधी से अलग हो जाता है। पंजाबी में अंत:स्फ़ोटी ध्वनियाँ नहीं मिलतीं। इस प्रकार वर्तमान भाषाओं से तुलनात्मक पुनर्रचना के सिद्धांत के आधार पर भाषाओं के प्राक्-रूप की पुनर्रचना की जाती है और प्राक् भाषा से विकसित आधुनिक भाषाओं को वंशवृक्ष के आधर पर दिखाया जाता है।)1

  1. निष्कर्ष

   इस इकाई में हमने पारिवारिक वर्गीकरण तथा उसके आधारों के बारे में चर्चा की। साथ ही पारिवारिक वर्गीकरण तथा आकृतिमूलक वर्गीकरण के अंतर को भी समझा। विगत डेढ़-दो सौ वर्षों में विश्व की अनेक भाषाओं का अध्ययन किया गया है और उन्हें आनुवंशिक सिद्धांतों अथवा तुलनात्मक पद्धति के आधार पर विभिन्न भाषा परिवारों में वर्गीकृत किया गया है।  पारिवारिक वर्गीकरण के आधारों की चर्चा करते हुए हमने देखा की स्थान-समीपता, व्याकरणिक साम्य, शब्द साम्य तथा ध्वनि साम्य के आधारों में से कोई भी आधार असंदिग्ध रूप से विश्वसनीय नहीं है, इस लिए पारिवारिक वर्गीकरण की विश्वसनीयता को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है।

 

इकाई के अंत में हमने तुलनात्मक तथा आंतरिक पुनर्रचना पद्धतियों के बारे में पढ़ा। आंतरिक पुनर्रचना में एक ही भाषा के विभिन्न संबद्ध रूपों की तुलना करके उसके पूर्व रूप की पुनर्रचना की जाती है जबकि तुलनात्मक पुनर्रचना के अंतर्गत विभिन्न संबद्ध भाषाओं के संबद्ध रूपों की तुलनाकर पूर्वज या प्राक् रूप की पुनर्रचना की जाती है। तुलनात्मक पुनर्रचना के आधार पर भाषा-संबंधों की व्याख्या भी की जाती है। 

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अतिरिक्त जानें

शब्दावली

आधारभूत शब्दावली         Basic vocabulary

आनुवंशिक वर्गीकरण       Genetic Classification

तुलनात्मक पद्धति             Comparative Method

ध्वनि साम्य/समानता        Sound similarity

पारिवारिक वर्गीकरण        Geneological Classification

पूर्वज भाषा                       Ancestor language

प्राक् भाषा                        Proto language

भाषा परिवार                     Language family

भाषा संपर्क                       Language contact

वंश-वृक्ष                           Family tree

व्याकरण साम्य/समानता   Grammatical similarity

शब्द साम्य/समानता         Word similarity

समानार्थी शब्द                  Cognate

सांस्कृतिक संचरण            Cultural transmission

स्थान समीपता                  Locational Proximity

 

संदर्भ

  1. Anthony Fox, Linguistic Reconstruction: An Introduction to Theory and Method, Oxford University Press (1995).
  2. Campbell, Lyle (2004). Historical Linguistics: An Introduction (2nd ed. ed.). Cambridge (Mass.): The MIT Press.
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  4. Lehmann, W. P. Historical Linguistics: An Introduction. New York, 1962.
  5. Pattanayak, D.P A Controlled Historical Reconstruction of Oriya-Assamese-Bengali-Hindi, Mouton, The Hague, 1966
  6. T. Givón, Internal reconstruction: As method, as theory, Typological Studies in Language (2000).
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  8. Thakur Dass, Position of Hindi and Bihari Dialects in Indo-Aryan: A study in Language Relationship. unpublished Ph.D thesis, Delhi University 1977
  9. द्विवेदी, कपिलदेव. भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 2012 (तेरहवाँ संस्करण)
  10. शर्मा, देवेंद्रनाथ. भाषाविज्ञान की भूमिका, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1966
  11. Language Typology -Language Reconstruction ( https://youtu.be/0yj_TrtaS4k)