25 ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का स्वरूप
ठाकुर दास
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का अध्ययन क्षेत्र
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई में आप सीखेंगे –
- ऐतिहासिक भाषाविज्ञान क्या है और इसका अध्ययन क्षेत्र क्या हैं?
- भाषाओं का आनुवंशिक या पारिवारिक वर्गीकरण।
- भाषा में होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या।
- शब्दों के इतिहास अर्थात व्युत्पत्ति (Etymology) का अध्ययन।
- बोलियों का वैज्ञानिक अध्ययन और
- भाषाओं के प्राक्-इतिहास (Proto-history) की पुनर्रचना एवं उनमें परस्पर-संबंध निर्धारण
- प्रस्तावना
आधुनिक भाषाविज्ञान का आरंभ बीसवीं शताब्दी से माना जाता है। फर्दिनाँ सस्यूर ने समकालिक (Synchronic) तथा द्विकालिक (Diachronic) भाषाविज्ञान में भेद स्थापित किया। 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में भाषा का अध्ययन ऐतिहासिक संदर्भ में किया जाता था। तत्कालीन भाषाविज्ञान वस्तुत: द्विकालिक भाषाविज्ञान था। इसका मुख्य उद्देश्य भाषा का ऐतिहासिक अध्ययन करना था। इसके अंतर्गत वर्तमान भाषाओं के आधार पर मूल भाषा या प्राक्-भाषा (Proto language) की पुनर्रचना करना, उनमें पारस्परिक संबंधों का अध्ययन तथा उन्हें विभिन्न भाषा परिवारों में वर्गीकृत करना शामिल थे। उसके लिए ऐतिहासिक पद्धति (Historical method) का सहारा लिया गया। भाषाओं के ऐतिहासिक अध्ययन के द्वारा विश्व की भाषाओं की तुलना की गई और उन्हें भाषा परिवारों के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया। इस प्रकार के अध्ययन को ऐतिहासिक भाषाविज्ञान कहा गया।
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का आरंभ सन् 1786 में विलियम जोंस के ग्रीक, लैटिन और संस्कृत की तुलना के आधार पर इनके किसी एक भाषा से विकसित होने के दावे से हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में ऐतिहासिक भाषाविज्ञान अपने चरम पर था।
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान वास्तव में भाषाविज्ञान का वह रूप है जिसमें भाषा की ऐतिहासिकता का अध्ययन किया जाता है। प्रारंभ में, ऐतिहासिक भाषा विज्ञान तुलनात्मक भाषाविज्ञान (Comparative Linguistics) ही था। इसके अध्येताओं का उद्देश्य भाषा परिवारों की स्थापना करना तथा तुलनात्मक पद्धति (Comparative Method) और आंतरिक पुनर्रचना (Internal Reconstruction) के आधार पर प्राक्-भाषाओं का पुनर्निर्माण करना था।
प्रारंभ में भारोपीय भाषाओं (भारोपीय भाषा परिवार) पर विशेष बल दिया गया, जिनमें से अधिकांश का काफी लंबा लिखित इतिहास था। आगे चलकर विद्वानों ने अन्य भाषा परिवारों की भाषाओं का भी अध्ययन किया जिनमें बहुत कम लिखित पाठ सामग्री उपलब्ध थी। अन्य यूरोपीय भाषाओं के बाहर की भाषाओं जैसे आस्ट्रोनेशियन भाषाओं, मूल अमेरिकी भाषाओं के विभिन्न भाषा परिवारों आदि के संदर्भ में कई तुलनात्मक भाषावैज्ञानिक अध्ययन सामने आए।
- ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का अध्ययन क्षेत्र
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान के अंतर्गत निम्नलिखित क्षेत्रों का अध्ययन किया जाता है।
(क) तुलनात्मक भाषाविज्ञान
जैसा कि हमने देखा, ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का प्रारंभ ही तुलनात्मक भाषाविज्ञान के रूप में हुआ। इसके अंतर्गत भाषाओं के बीच ऐतिहासिक संबंध स्थापित करने के उद्देश्य से भाषाओं का अध्ययन किया जाता था। अतीत में भाषा का प्रयोग किस प्रकार होता था और यह निर्धारण करने की चेष्टा की जाती थी कि प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भाषा का विकास कैसे हुआ और उनमें परस्पर-संबंध क्या है। अधिकांश शोध प्राक्-भाषा के आधुनिक भाषाओं के रूप में विकसित होने के संबंध में की जाती रही है। अध्ययन का मुख्य उद्देश्य प्राक्-भाषाओं की पुनर्रचना करना था।
भाषाओं के बीच संबंध दो आधारों पर हो सकता है – आनुवंशिक समानता या भाषाई आदान (Linguistic Borrowing)। इस प्रकार तुलनात्मक भाषाविज्ञान का लक्ष्य भाषा परिवारों का निर्माण करना, प्राक्-भाषाओं का पुनर्निर्माण करना तथा भाषाओं में आए भाषा परिवर्तनों का अध्ययन करना था।
इस प्रकार भाषा-उद्भव (Language Origin) के दो सिद्धांत प्राप्त होते हैं –
- आनुवंशिक वृक्ष सिद्धांत (Genetic Tree Theory)आगस्त श्लाईखर
यदि भाषाओं के बीच गहरे संबंधों के आधार पर स्पष्ट भाषाई साक्ष्य प्राप्त होते हैं तब पूर्वज भाषा को जननी भाषा तथा उससे विकसित भाषा को पुत्री भाषा तथा पुत्री भाषाओं को आपस में भगिनी भाषाओं की संज्ञा दी जाती है।
- लहर सिद्धांत (Wave Theory) हूगो शूखार्त
इसके अंतर्गत भाषा परिवर्तन सामान्यतया पानी में फैंके गए पत्थर से उत्पन्न लहर के रूप में किसी समुदाय में सीमित संदर्भ में शुरू होता है और धीरे-धीरे यह भाषा परिवर्तन अन्य संदर्भों तथा सामाजिक वर्गों तक फैलता-फैलता सभी संदर्भों तथा सभी भाषा-भाषियों तक फैल जाता है।
(ख) आनुवंशिक वर्गीकरण
यदि हम स्पेनिश, पुर्तगाली, इतालवी, रोमानियाई भाषाओं की तुलना करें तो हम इन भाषाओं में एक “पारिवारिक समानता” पाते हैं। जर्मन और फ्रांसीसी भाषा की तुलना करते हुए यह पारिवारिक समानता प्रकट नहीं होती। किंतु अंग्रेजी, डच, स्वीडिश या डेनिश, जर्मन की तुलना की जाए तो इन भाषाओं के बीच एक “आनुवंशिक समानता” उजागर होती है। यही स्थिति हमें हिंदी, बांग्ला, असमिया, उडिया. मराठी, गुजराती, पंजाबी आदि भाषाओं की तुलना करते समय भी मिलती है। इन भाषाओं में भी एक प्रकार की आनुवंशिक समानता मिलती है, ये सभी भाषाएँ एक भाषा परिवार – आर्य भाषा परिवार से संबंध रखती है। किंतु यदि हम मराठी या बांग्ला या हिंदी की तुलना तेलुगु या तमिल से करें तो इनमें समानता नहीं मिलती है क्योंकि ये भाषाएँ एक भिन्न भाषा परिवार – द्रविड़ परिवार की भाषाएँ हैं।
भाषाविद् भाषाओं की तुलना, उनकी समानता अथवा असमानता के बारे में नियमों को परिभाषित करने तथा आनुवंशिक वर्गीकरण स्थापित करने की कोशिश करते रहे हैं। इस विधि को ‘’तुलनात्मक पद्धति’’ कहा जाता है। इस आधार पर, विभिन्न भाषाओं के समूह में भाषाओं का वर्गीकरण आनुवंशिक वर्गीकरण कहा जाता है: इसमें एक ही समूह से संबंधित दो भाषाएँ आनुवंशिक रूप से जुड़ी होती हैं।
ऐतिहासिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन के अंतर्गत ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन-विश्लेषण करके वर्तमान एवं लुप्त भाषाओं के आंतरिक लक्षणों – शब्दावली, शब्द निर्माण तथा वाक्य विन्यास आदि की तुलना की जाती है। इसका उद्देश्य विश्व की भाषाओं के विकास एवं आनुवंशिक संबंधों का पता लगाना तथा भाषा के विकास को समझना होता है। वंश-वृक्षों के तौर पर भाषाओं का वर्गीकरण इसका प्रमुख उपकरण है। इस वृक्ष का आधार तुलनात्मक विधि होती है। इसके अंतर्गत संबद्ध मानी जानेवाली भाषाओं की तुलना की जाती है।
तुलनात्मक पद्धति को बहुत से भाषा परिवारों की भाषाओं पर, जिनमें लिखित ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है, लागू करके इसकी वैधता (Validity) प्रमाणित की गई है। साथ ही इसे उन भाषाओं पर भी लागू किया गया है जिनमें लिखित सामग्री उपलब्ध नही होती है। भाषाविदों ने जर्मैनिक, इटैलिक, कैल्टिक, ग्रीक, बाल्टिक, स्लैविक, अल्बानियन, आर्मीनियन तथा भारत-इरानी – नौ जीवित भाषाओं तथा दो लुप्त भाषाओं (टोखारियन और आनातोलियन) की तुलना करके लगभग 5000 वर्ष पूर्व की प्राक्-भारोपीय (Proto-Indo- European) भाषा का पुनर्निर्माण किया है।
(ग) भाषा परिवर्तन
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का दूसरा अध्ययन क्षेत्र भाषा परिवर्तन है। भाषा परिवर्तन एक ऐसी भाषिक संघटना है जिसके अंतर्गत समय के अंतराल में भाषा में विभिन्न – ध्वनि, रूपिम, वाक्य, अर्थ आदि के स्तरों पर भाषा में हुए परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है। जीवंत भाषा सदैव परिवर्तनशील होती है। भाषा परिवर्तन के आधार पर भाषाई संबंधों की व्याख्या तथा भाषा परिवारों की पुनर्रचना की जाती है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भाषा विज्ञानियों के एक वर्ग – नव्य वैयाकरणों ने यह दावा किया था कि ध्वनि परिवर्तन नियमित होते हैं। एक ध्वनि किसी भाषा में हमेशा एक ही तरह से परिवर्तित होती है, इसमें कोई अपवाद नहीं होता। आगे चलकर बीसवीं शताब्दी में भाषा विज्ञानियों ने यह स्थापित किया कि जीवंत भाषाओं में सदैव परिवर्तन होता है – नए शब्द, नए व्याकरणिक रूप तथा संरचनाएँ, वर्तमान शब्दों के नए अर्थ विकसित होते रहते हैं और पुराने रूप लुप्त होते रहते हैं।
भाषा परिवर्तन के कुछ निश्चित कारण होते हैं – कभी भाषा में कुछ स्वरों का लोप हो जाता हे तो कभी आगम। कभी असमान व्यंजन गुच्छों (Dissimilar Consonant Clusters) का समान व्यंजन गुच्छों (Similar Consonant Clusters) में परिवर्तन तो कभी समान व्यंजन गुच्छों का सरलीकरण । जब ऐसे भाषा परिवर्तन के नियम पूरे भाषा समुदाय द्वारा स्वीकृत हो जाते हैं तब उन्हें ‘’नियमित भाषा परिवर्तन’’(Regular Language Change) की संज्ञा दी जाती है।
भाषा परिवर्तन के कई कारणों में प्रमुख हैं – सरलीकरण, सादृश्य (Analogy) और भाषा संपर्क। सभी भाषा-भाषी उच्चारण में मितव्ययता अपनाना पसंद करते हैं। भाषा संपर्क भी भाषा परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है। अंग्रेजी संपर्क के कारण हिंदी भाषा में बहुत से अंग्रेजी शब्द आ गए हैं। अरबी-फारसी के संपर्क के कारण भी हिंदी में बहुत से शब्द ग्रहण किए गए हैं।
भाषा परिवर्तन पहले स्वनिक परिवर्तन (Phonetic Change) के रूप में प्रारंभ होता है, आगे चलकर स्वनिमिक परिवर्तन (Phonemic Change) का रूप ले लेता है। भाषा में आधुनिकीकरण तथा मानकीकरण के फलस्वरूप भी भाषा में कई स्तरों पर परिवर्तन होते हैं। देवनागरी लिपि तथा वर्तनी के मानकीकरण के फलस्वरूप देवनागरी लिपि के कई वर्णों का रूप बदल गया। पुराने वर्णों के स्थान पर नए वर्णों का प्रचलन हो गया है।
कोशीय परिवर्तन
कोशीय परिवर्तनों का अध्ययन भी भाषा परिवर्तन के अंतर्गत किया जाता है। कोशीय परिवर्तनों का मुख्य आधार भाषा संपर्क होता है। कभी-कभी विजेता समुदाय की भाषा के कई शब्द विजित समुदाय द्वारा ग्रहण कर लिए जाते हैं। भारत में तुर्कों, अरबों, मुगलों आदि को हम विजेता समुदाय (Victor Community) के रूप में मान सकते है और इनकी भाषाओं के संपर्क के कारण अरबी-फारसी से कई शब्द हिंदी ने ग्रहण किए हैं जैसे – यकीन, कोशिश, हुनर, वजीर, शहंशाह, मुल्क, लेकिन, जमाना, जुल्म. हाल, हकीकत, हवस आदि। इसी प्रकार अंग्रेजों के संपर्क के कारण कई अंग्रेजी शब्द हिंदी भाषा में सम्मिलित हो गए हैं, जैसे रेल, टिकट. स्टेशन, आक्सीजन, हाईड्रोजन, हाईवे, मोबाइल आदि।
संविधान में हिंदी को राजभाषा घोषित करने के फलस्वरूप, भाषा के आधुनिकीकरण को उद्देश्य से तकनीकी तथा पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की आवश्यकता महसूस की गई और लगभग सात लाख तकनीकी शब्दों का निर्माण किया गया। इस प्रकार का अध्ययन भाषा नियोजन का अंग है।
अर्थ परिवर्तन
शब्दों का अर्थ परिवर्तित होता रहता है। अर्थ परिवर्तन की पाँच प्रमुख दिशाएँ मिलती हैं – अर्थ विस्तार, अर्थ संकोच, अर्थादेश, अर्थोत्कर्ष और अर्थापकर्ष।
- अर्थ विस्तार
पहले शब्द सीमित अर्थ में प्रयुक्त होता है और बाद में उसके अर्थ में व्यापकता या विस्तार आ जाता है। इस स्थिति को ’अर्थ विस्तार’ कहा जाता है। जैसे ’प्रवीण’ शब्द का अर्थ पहले ’कुशल वीणा बजानेवाला’ था किंतु अब यह ’किसी भी काम में निपुणता’ का सूचक हो गया है। जैसे वह खाना बनाने में प्रवीण है। एक अन्य उदाहरण लें। ’तैल’ शब्द का पहले अर्थ था ’तिल का तेल’। किंतु आज तेल शब्द का प्रयोग सरसों, मूँगफली, नारियल या मिट्टी सभी प्रकार के तेल के लिए किया जाता है। ये सब अर्थ विस्तार के उदाहरण हैं।
- अर्थ संकोच
जब कोई शब्द पहले विस्तृत अर्थ का वाचक रहा हो लेकिन आगे चलकर सीमित अर्थ का वाचक हो गया हो, ऐसी स्थिति को ’अर्थ संकोच’ कहते हैं। जैसे ’गो’ शब्द पहले किसी भी पशु के अर्थ में प्रयुक्त होता था किंतु बाद में इसका अर्थ केवल ’गाय’ के लिए सीमित या संकुचित हो गया। इसी प्रकार ’सब्ज़ी’ शब्द का प्रयोग पहले किसी भी ’हरी चीज़’ के लिए किया जाता था किंतु अब इसका प्रयोग केवल ’तरकारी’ के लिए किया जाता है।
- अर्थादेश
अर्थादेश से तात्पर्य है अर्थ में परिवर्तन। जैसे ’आकाशवाणी’ का पहले अर्थ था देववाणी किंतु अब इसका अर्थ ’आल इंडिया रेडियो’ के लिए हो रहा है। वेदों में ’असुर’ शब्द ’देवता’ का वाचक था बाद में यह ’दैत्य’ का वाचक हो गया। वेद में ’ऊष्ट्र’ शब्द का प्रयोग ’भैंसे’ के अर्थ में किया जाता था किंतु बाद में उसका प्रयोग ’ऊँट’ के लिए होने लगा।
- अर्थोत्कर्ष अर्थ परिवर्तन के उदाहरणों पर विचार करते हुए दो बातें सामने आती हैं – कुछ शब्द पहले बुरे अर्थ में प्रयुक्त होते थे और बाद में अच्छे अर्थ में प्रयोग होने लगते हैं। यह अर्थोत्कर्ष की स्थिति है। ’गवेषणा ’ शब्द का पहले अर्थ ’गाय को खोजना’ था। अब इसका प्रयोग ’अनुसंधान या शोध’ के अर्थ में होने लगा है। यह अर्थोत्कर्ष का उदाहरण है।
5, अर्थापकर्ष कुछ शब्द पहले अच्छे अर्थ में प्रयुक्त होते थे किंतु बाद में उनका अर्थ बुरा हो जाता है। इसे अर्थापकर्ष कहा जाता है। ’शौच ’ का पहले प्रयोग ’पवित्र कार्य ’ के अर्थ में किया जाता था. अब इसका प्रयोग ’मल-त्याग’ के अर्थ में होता है। यह अर्थापकर्ष का उदाहरण है।
(घ) व्युत्पत्तिशास्त्र
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का एक अन्य महत्वपूर्ण अध्ययन क्षेत्र व्युत्पत्तिशास्त्र है जिसके अंतर्गत किसी भाषा के शब्दों के इतिहास का अध्ययन किया जाता है। इसमें हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि कोई शब्द कब और कैसे भाषा में आया और उसके अर्थ में क्या–क्या परिवर्तन हुए। भाषा में शब्द आगम के रूप में प्रवेश पा सकते हैं या व्युत्पत्तिपरक रूपिमविज्ञान के अंतर्गत भाषा में उपलब्ध तत्वों (उपसर्ग, प्रत्ययों आदि के मेल से) या इन दोनों प्रक्रियाओं की मिली-जुली संकर प्रक्रिया के आधार पर विकसित हो सकते हैं।
लबे तथा विस्तृत इतिहास वाली भाषाओं में व्युत्पत्तिशास्त्र शब्दों में परिवर्तन का अध्ययन करता है और तुलनात्मक भाषाविज्ञान की एक प्रविधि – तुलनात्मक पद्धति का उपयोग करके संबद्ध प्राक् भाषा तथा उसकी शब्दावली का अनुमान लगा सकते हैं। इस प्रकार प्राक् भाषा में शब्दों की धातुओं का पता लगाया जा सकता है। जिन भाषाओं में लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं है, उनमें भाषा परिवारों के संबंध में व्युत्पत्तिपरक अध्ययन किए गए हैं।
विभिन्न संस्कृतियों के संपर्क के कारण किसी भाषा में शब्द ग्रहण किए जाते हैं। इसी आधार पर हिंदी भाषा ने अनेक भाषाओं से शब्द ग्रहण किए हैं। तूफान, चाय (चीनी भाषा से), कमीज, रेस्तोराँ (फ्रांसीसी भाषा से), सुनामी (जापानी से), रेल, टिकट, स्टेशन, प्लेटफार्म आदि सैंकडों शब्द (अंग्रेजी से) तथा हजारों शब्द अरबी-फारसी से ग्रहण किए हैं। यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है।
(ड.) बोलीविज्ञान
बोली विज्ञान किसी भाषा के भौगोलिक आधार पर पाए जाने वाले विभिन्न भाषारूपों का वैज्ञानिक अध्ययन करता है। इन भाषिक रूपों को बोली की संज्ञा दी जाती है। बोलीविज्ञानी विभिन्न क्षेत्रों के व्याकरणिक लक्षणों के आधार पर किसी पूर्वज भाषा से विभिऩ्न बोलियों के विकास का अध्ययन करते हैं। भौगोलिक परिवेश में अंतर होने से कई बार शब्दों के अर्थ में अंतर पाया जाता है। इंग्लैंड की अंग्रेजी में ’कार्न’ शब्द का प्रयोग ’गेहूँ’ के लिए होता है जबकि अमरीकी अंग्रेज़ी में इसका प्रयोग ’मक्का’ के लिए किया जाता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चावल शब्द का अर्थ ’चावल’ और ’भात’ दोनों के लिए होता है, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में पके चावल को ’भात’ कहते हैं। इसी प्रकार ’डेरा’ शब्द का प्रयोग पश्चिम में ’थोडे समय के लिए रहने का स्थान’ के लिए होता है जबकि पूरब में ’घर’ के लिए।
भाषाओं के प्राक्-इतिहास की पुनर्रचना और परस्पर संबंध निर्धारण
इसके लिए आंतरिक पुनर्रचना तथा तुलनात्मक पुनर्रचना का प्रयोग किया जाता है। आंतरिक पुनर्रचना एक पद्धति है जिसके माध्यम से किसी भाषा के वर्तमान रूपों के आधार पर उसके प्राचीन रूपों की पुनर्रचना की जा सकती है। आंतरिक पुनर्रचना में एक ही भाषा के विभिन्न रूपों (परिवर्तों) की तुलना की जाती है, इसमें यह मानकर चला जाता है कि ये परिवर्त एक मूल रूप से विकसित हुए हैं। वर्तमान संरूपिमों को भी एक रूपिम से विकसित माना जाता है। आंतरिक पुनर्रचना की आधारभूत धारणा यह है कि विभिन्न परिवेशों में दो या दो से अधिक सार्थक रूपों का संबंध प्राचीन रूप से संबंद्ध हो सकता है।
तुलनात्मक पुनर्रचना में विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध समानार्थी शब्दों की तुलना करके उस के प्राक् रूप को पुनर्रचित किया जाता है। इसके अंतर्गत यह मानकर चला जाता है कि ये भाषाएँ किसी एक पूर्वज या प्राक् भाषा से विकसित हुई है। इस प्रकार किसी भाषा या विभिन्न संबद्ध भाषाओं के प्राक्-इतिहास की पुनर्रचना की जा सकती है।
तुलनात्मक पुनर्रचना के आधार पर कई भारतीय आर्य भाषाओं के अध्ययन तथा हिंदी का परस्पर-संबंधपरक अध्ययन प्रमुख हैं। इन अध्ययनों के निष्कर्षों को वंशवृक्षों के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है।
- निष्कर्ष
ऐतिहासिक भाषाविज्ञान, जिसे द्विकालिक या तुलनात्मक भाषाविज्ञान भी कहा जाता है, का उद्देश्य इस बात का अध्ययन करना है कि कालांतर में भाषा परिवर्तन कैसे होता है। इस कार्य के लिए यह ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण और जीवंत तथा लुप्त भाषाओं की शब्दावली, शब्द-निर्माण एवं वाक्यविन्यास के आंतरिक अभिलक्षणों की तुलना करता है। इसका उद्देश्य विश्व की भाषाओं के विकास तथा आनुवंशिक संबंधों का पता लगाना और भाषा के उद्भव एवं विकास की प्रक्रिया को समझना है। इस कार्य के लिए सभी भाषाओं का वंशवृक्ष के रूप में वर्गीकरण किया जाता है।
इस वंश-वृक्ष का आधार तुलनात्मक पद्धति था जिसके लिए संबंधित भाषाओं के शब्दों के ध्वनि-साम्य (Sound Similarity) के आधार पर परस्पर तुलना करके उनकी मूल पूर्वज भाषा या प्राक् भाषा का पुनर्निर्माण किया जाता था। समय बीतने के साथ, आनुवंशिक संबंध स्थापित करने के लिए आवश्यक सूचना का अभाव होने लगता है। यह एक कठिन चुनौती है।
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अतिरिक्त जानें
शब्दावली
अधिपरिवार Super Family
असमान व्यंजन गुच्छ Dissimilar Consonant Cluster
आंतरिक अभिलक्षण Internal Features
आंतरिक पुनर्रचना Internal Reconstruction
आनुवंशिक वर्गीकरण Geneological Classification
आनुवंशिक वृक्ष Geneological Tree
आनुवंशिक समानता Genetic Relatedness
कोशीय परिवर्तन Lexical Change
द्विकालिक भाषाविज्ञान Diachronic Linghuistics
ध्वनि साम्य Sound Correspondence
परस्पर बोधगम्यता Mutual Intelligibility
प्राक्-इतिहास Proto History
प्राक्-भाषा Proto Language
बोली विज्ञान Dialectology
भाषाई आदान Linguistic Borrowing
भाषाशास्त्र Philology
भौगोलिक परिवेश Geographical Environment
मानकीकरण Standardization
लुप्त भाषा Extinct Language
वंशवृक्ष Family Tree
व्याकरणिक लक्षण Grammatical Features
व्युत्पत्तिशास्त्र Etymology
समान शब्द Cognate
स्वनिक परिवर्तन Phonetic Change
स्वनिमिक परिवर्तन Phonemic Change
संदर्भग्रंथ सूची
- April McMahon, Understanding Language Change (Cambridge University Press, 1994)
- Henry M. Hoenigswald, Language change and linguistic reconstruction (Chicago: Univ. of Chicago Press 1960).
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- Raimo Anttila, Historical and Comparative Linguistics(Benjamins, 1989)
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- Roger Lass, Historical linguistics and language change. (Cambridge University Press, 1997)
- Theodora Bynon, Historical Linguistics(Cambridge University Press, 1977)
- Winfred P. Lehmann, Historical Linguistics: An Introduction(Holt, 1962)
- द्विवेदी, कपिलदेव. भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 2012 (तेरहवाँ संस्करण)
- शर्मा, देवेंद्रनाथ. ’भाषाविज्ञान की भूमिका’, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1966