21 अर्थ की अिधारणा और प्रकार

विजय कुमार कौल

epgp books

 

 

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. अर्थ की अवधारणा और प्रकार
  4. अर्थ के प्रकार
  5. निष्कर्ष 
  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्‍ययन के उपरांत आप –

  • अर्थ की अवधारणा को समझ सकेंगे,
  • अर्थ के प्रकार समझ सकेंगे,
  • अवधारणात्‍मक अर्थ के बारे में जान सकेंगे,
  • सहचारी अर्थ के प्रकारों के बारे में जान सकेंगे। 
  1. प्रस्तावना

    भाषाविज्ञानी और शिक्षाशास्त्री दोनों मानते हैं कि सुनना और बोलना एवं पढ़ना और लिखना, ये चार प्रक्रियाएँ लिखित और वाचिक भाषा में आती हैं। इनमें सुनना और पढ़ना तो समझने के लिए है और बोलना और लिखना समझाने के लिए। क्या समझने और समझाने के लिए? अर्थ।

 

अर्थविज्ञान में शब्दार्थ के आंतरिक पक्ष का विवेचन, विश्लेषण किया जाता है। अर्थ क्या है? अर्थ का ज्ञान कैसे होता है? शब्द और अर्थ में क्या संबंध है? संकेतग्रह कैसे होता है? मन में  बिंब-निर्माण कैसे होता है? बिंब से अर्थ-बोध की प्रक्रिया आदि भाषा के आंतरिक पक्ष हैं। अर्थविज्ञान में शब्दों के अर्थ में विकास, अर्थविकास की दिशाएँ, अर्थपरिवर्तन के कारण, एकार्थ और अनेकार्थ शब्दों के अर्थ का निर्णय, संकेतग्रह के साधन आदि अर्थविज्ञान के बाह्य पक्ष हैं। ‘अर्थ और उसे संप्रेषित करने वाला शब्द दोनों ही भाषा के अविछिन्न अंग हैं। ‘अर्थ’ शब्द से अभिन्न है। किसी भी अर्थ की अभिव्यक्ति और अर्थ का बोध किसी शब्द विशेष से ही संभव है। अर्थ का लक्षण देते हुए भर्तृहरि ने अपने ग्रंथ ‘वाक्यपदीय’ में कहा है कि ‘जिस शब्द के उच्चारण से जिस अर्थ की प्रतीति होती है, वही उसका ‘अर्थ’ है। शब्द और उससे निर्मित विभिन्न भाषिक इकाइयों के माध्यम से ही हम सोच पाते हैं और अपने भावों-विचारों को व्यक्त कर पाते हैं। किसी भी शब्द का यह संप्रेषित अर्थ प्रयोक्ता और श्रोता दोनों पर निर्भर करता है। अत: शब्द विशेष से उनके मस्तिष्क में उभरने वाले अर्थबिंब या अर्थ-छवि में पर्याप्त अंतर या भेद हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि किसी शब्द का उसके अर्थ से स्थिर या नित्य संबंध नहीं होता। साथ ही, यह भी आवश्यक नहीं कि किसी शब्द विशेष का एक ही अर्थ हो। एक शब्द के एक से अधिक अर्थ भी हो सकते हैं जो कि संदर्भ विशेष में प्रयोग किए जाने पर ही पूर्ण रूप से समझे जा सकते हैं। जैसे – ‘अर्थ शब्द – अभिप्राय, धन, हेतु, कारण, प्रयोजन – आदि के लिए प्रयुक्त होता है। इसलिए ‘अर्थशास्त्र’ (Economics) के संदर्भ में जब हम ‘अर्थ का प्रयोग करते हैं तो वहां इसका संबंध ‘धन’ से होता है। जबकि ‘भाषाविज्ञान के संदर्भ में इसी ‘अर्थ’ का प्रयोग ‘अभिप्राय’ के लिए होता है। अत: शब्द अर्थों के वाहक मात्रा नहीं होते, उनमें पारस्परिक संबंध भी होता है। इस शाब्दिक संबंध से ही सही अर्थ-प्राप्ति संभव है। 

  1. अर्थ की अवधारणा और प्रकार

    भाषाविज्ञान की वह शाखा जिसमें शब्दों के अर्थ का अध्ययन किया जाता है, अर्थविज्ञान कहलाता है। इस अनुशासन का मुख्य उद्देश्य भाषा के अंतर्गत अर्थ की संरचना, संप्रेषण एवं ग्रहण की प्रक्रिया का विश्लेषण करना होता है। अर्थात अर्थविज्ञान के अंतर्गत अर्थ के स्वरूप, शब्दार्थ संबंध, शब्दार्थ बोध के साधन, अनेकार्थवाची शब्द के अर्थ-निर्णय का आधार आदि विषयों का अध्ययन किया जाता है।

 

यह एक सामान्य अवधारणा है कि शब्द से अर्थ का बोध होता है किंतु सभी शब्दों से सभी अर्थों का बोध नहीं होता अपितु किसी निश्चित शब्द से किसी निश्चित अर्थ का ही बोध होता है, अन्य असंबद्ध अर्थ का नहीं। अतः शब्द और अर्थ के मध्य एक ऐसे संबंध को स्वीकार करना होगा जो निश्चित शब्द से निश्चित अर्थ के बोध का नियामक हो, अन्यथा किसी भी शब्द से किसी भी अर्थ का बोध स्वीकारना होगा। शब्द और अर्थ का यह संबंध प्रत्येक व्यक्ति अपनी भाषा-व्यवहार की परंपरा से सीखता है। क्योंकि मनुष्य को जगत में विद्यमान असंख्य वस्तुओं का अनुभव होता है और ये वस्तुएँ परस्पर भिन्न होती हैं अतः अपनी विशिष्ट सत्तात्मक पहचान रखती हैं। वस्तुओं की इस मूर्त सत्ता के लिए तकनीकी शब्दावली में ‘रूप’ शब्द व्यवहृत किया जाता है। चूँकि प्रत्येक भाषा समुदाय में प्रत्येक विशिष्ट मूर्त सत्ता के लिए एक विशिष्ट ‘नाम’ का प्रयोग किया जाता है और संबंधित भाषा समुदाय का व्यक्ति इस ‘नाम’ और ‘रूप’ के निश्चित संबंध को भाषा-प्रयोग से सीखता है, फलतः यह संबंध उसके मस्तिष्क में स्थायी रूप से विद्यमान हो जाता है। सामान्य रूप से इसे ही ‘अर्थ’ कहा जाता है।

 

आचार्य पाणिनि ने भाषा का सार  ‘अर्थ’ माना है। एतदर्थ शब्दों को ही ‘प्रातिपदिक’ (मूल संज्ञाशब्द या प्रकृति) माना है- अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्। (अष्टा. 1-2-45). यास्क ने अपने ग्रंथ ‘निरुक्त’ अर्थात निर्वचन, निरुक्ति (Etymology) का आधार ही अर्थ को माना है। अर्थ-ज्ञान के बिना निर्वचन असंभव है- अर्थनित्यः परीक्षेत। (निरुक्त 2-1)

 

वस्तुतः शब्द केवल अर्थों का संग्रह या समुच्चय मात्र नहीं होता अपितु शब्द एवं अर्थ परस्पर संबंधित भी होते हैं तथा शब्द एवं अर्थ का यह संबंध भाषा व्यवहार की परंपरा द्वारा निश्चित एवं स्थिर होता है। दैनिक बात-चीत में किसी शब्द के अर्थ का प्रयोग इसी संबंध के द्वारा किया जाता है, उदाहरणार्थ- यदि कोई पूछे कि दर्शाना शब्द का अर्थ क्या है तो सहजता से कहा जा सकता है दिखाना, इसी प्रकार यदि कोई दृढ़ शब्द का अर्थ पूछे तो कहा जा सकता है कि यह ढीला का विलोम है अथवा यदि कोई गुलाब शब्द का अर्थ जानना चाहता है तो उसे समझाया जा सकता है कि यह एक प्रकार का पुष्प होता है। अतः स्पष्ट है कि शब्द के अर्थ को व्यक्त करने की प्रक्रिया में शब्द के लक्षण द्वारा अर्थ का निर्धारण नहीं किया जाता बल्कि शब्द एवं उसके द्वारा संकेतित मूर्त सत्ता के परस्पर संबंध के द्वारा अर्थ का निर्धारण होता है।

 

उपर्युक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि प्रत्येक शब्द का अपना एक अर्थ, भाव या विचार होता है, जो उसे सार्थक बनाता है। इसे ही पारिभाषिक शब्दावली में अर्थग्राम (Semanteme) कहा जाता है। प्रत्येक काल-खंड में किसी शब्द का अर्थ सदैव एक-सा नहीं रहता अपितु उसमें समय के साथ-साथ विकार, परिवर्तन या विकास होता रहता है और यह परिवर्तन संबंधित भाषा समुदाय के व्यक्तियों की मानसिकता से जुड़ा होता है। शब्दों के अर्थ में आने वाले इस विकार का अध्ययन अर्थविज्ञान का महत्वपूर्ण क्षेत्र है। अर्थविज्ञान के अंतर्गत शब्द के अर्थ का अध्ययन करते समय सर्वप्रथम शब्द के अर्थ को रीति के अनुसार देखा जाता है, न कि शब्द के प्रयोगकर्ता द्वारा प्रस्तुत तात्पर्य से।

 

शब्दार्थ अध्ययन के दौरान भाषावैज्ञानिक सर्वप्रथम मस्तिष्क के द्वारा लिए गए अर्थ का ही अध्ययन करता है तथा उस शब्द के प्रस्तुतीकरण की शैली में निहित अर्थ एवं उस शब्द विशेष से संबंधित अन्य प्रसंगार्थों को उस दौरान अनदेखा करता है। मस्तिष्क के द्वारा ग्रहण किए गए अर्थ को ही शब्द के मूल अर्थ के रूप में लिया जाता है, जिसको प्राथमिक शाब्दिक अर्थ (Primary lexical meaning) कहा जाता है और कोशविज्ञान के दृष्टिकोण से भी इसी अर्थ को प्राथमिकता दी जाती है। हिंदी शब्द काँटा के कई अर्थ हैं, परंतु मुख्यार्थ के अनुसार इसका तात्पर्य उस काँटा से है जो चुभता है न कि जहाँ वजन किया जाता है। इस दूसरे अर्थ के संदर्भ में तराजू अधिक उपयोगी और प्रचलित शब्द है। काँटा शब्द के कुछ अन्य अर्थ भी मिलते हैं, जैसे- चुभना, पीड़ा, शत्रु। यहाँ तक की अब एक शनि काँटा  शब्द भी व्यवहार में आने लगा है जिसमें काँटे के साथ पीड़ा का भी अर्थ सम्मिलित है। परंतु काँटा शब्द सुनने पर हिंदी भाषा-भाषी के मस्तिष्क में सर्वप्रथम एक पतली नोंक वाली वस्तु का ही बिंब उभरता है जिसके अपने विशिष्ट लक्षण/गुण होते हैं। किसी शब्द के मुख्यार्थ के अतिरिक्त अन्य अर्थ भी महत्वहीन नहीं होते क्योंकि कवि एवं विज्ञापन-विशेषज्ञ शब्द से जुड़े अतिरिक्त अर्थों का अधिक प्रयोग करते हैं। 

  1. अर्थ के प्रकार

   जैसा कि उपर कहा गया है, किसी भाषा समुदाय द्वारा व्यवहृत शब्दों के माध्यम से जो भी अभिव्यक्त होता है, उसे उस भाषा समुदाय के संदर्भ में अर्थ के अंतर्गत रखा जा सकता है। इस आधार पर अर्थ के निम्नलिखित दो भेद संभव हैं-

  1. अवधारणात्मक अर्थ (Conceptual Meaning)-

  अवधारणात्मक अर्थ को तार्किक और संज्ञानात्मक अर्थ (Logical and cognitive meaning) कहते हैं। इससे अर्थ निर्देशात्मक (Denotative) होता है, जिसका संबंध मूलतः बाह्य जगत में विद्यमान वस्तुओं, उनसे प्राप्त अनुभवों तथा मन में उत्पन्न भावों आदि के नामकरण से होता है। जब किसी व्यक्ति के मस्तिष्क में वाह्य जगत की किसी वस्तु की संकल्पना उभरती है तो उसे अभिव्यक्त करने के लिए किसी शब्द का सहारा लिया जाता है। इस शब्द का वह अर्थ जो उस संकल्पना को एक नाम देता है, अवधारणात्मक अर्थ कहलाता है। यह संकेतित वस्तु के मूल/मुख्य लक्षण पर केंद्रित होता है एवं गौण लक्षणों को छोड़ दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, यह संकेतित वस्तु की जातिगत संकल्पना होती है। जैसे- जब हम ‘मिठाई’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो इसके अंतर्गत विभिन्न आकार-प्रकार एवं रंगों की मिठाई के अर्थ समाहित हो जाते हैं।

 

अवधारणात्मक अर्थ दो संरचनात्मक सिद्धांतों पर (व्यतिरेकी एवं घटकीय विन्यास) पर आधारित होता है। शब्दकोशों में भी शब्द का अर्थ इसी प्रकार से दिया गया होता है। व्यतिरेकी लक्षणों के आधार पर अवधारणात्मक अर्थ का अध्ययन इस प्रकार किया जाता है, जैसे-

 

सजीव +/-
मानवीय +/-
पुरुष +/-
वयस्क +/-

    इसी प्रकार घटकीय विन्यास के आधार पर भाषाविज्ञान की बड़ी इकाइयों का निर्माण छोटी इकाइयों द्वारा किया जाता है।

  1. सहचारी अर्थ (Associative Meaning ) –

    सहचारी अर्थ का संबंध बोलने वाले की समझ पर निर्भर करता है। इसको छह निम्नांकित प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है-

अ) संपृक्तार्थ/लक्ष्यार्थ (Connotative Meaning)

आ) सहप्रयोगार्थ (Collocative Meaning)

इ) सामाजिक अर्थ (Social Meaning)

ई) भावपरक (Affective Meaning)

उ) व्यक्तार्थ (Reflected Meaning)

ऊ) कथ्यगत अर्थ (Thematic Meaning)

 

(अ) संपृक्तार्थ/लक्ष्यार्थ (Connotative Meaning)  

जब कोई वक्ता किसी शब्द का व्यवहार करता है तो उस शब्द का अपना अर्थ होता है, उससे संबंधित कोई वस्तु इस जगत् में अवश्य विद्यमान होती है, तभी श्रोता उसके अर्थ को समझ पाता है। जब वक्ता द्वारा प्रयुक्त किसी शब्द से मुख्य या सामान्य अर्थ के अतिरिक्त भी कुछ अर्थ संप्रेषित हो रहा हो, जिसका समाहार मूल अर्थ में न होता हो, उसे संपृक्तार्थ कहते हैं। संपृक्तार्थ का क्षेत्र अवधारणात्मक अर्थ से अधिक विस्तृत होता है। इसमें समाज, सभ्यता एवं संस्कृति आदि का योगदान रहता है। संपृक्तार्थ, अर्थ का वह पक्ष है जो संबंधित भाषा समुदाय के यथार्थ को देखने-परखने के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जैसे – भारत में ‘कुत्ता’ शब्द कभी-कभी वफादारी के संदर्भ में भी व्यवहार में लाया जाता है क्योंकि यहाँ ‘कुत्ता’ की गणना एक वफादार जानवर के रूप में की जाती है। आज के तकनीकी युग में ऑडियो-विजु्अल विज्ञापन संपृक्तार्थ के सटीक उदाहरण हैं जिनमें भाषिक एवं दृष्य प्रतीक दोनों का प्रयोग संकेतित वस्तु के साथ एक विशेष प्रकार का अर्थ जोड़ते हैं।

 

जब हम अर्थ का विश्लेषण करते हैं तो हमें दो प्रकार के अर्थों को जानना पड़ता है- संपृक्तार्थ (Connotative Meaning) एवं अभिधेयार्थ (Denotative Meaning)। जैसे- पहाड़ शब्द कभी ऊँचाई को दर्शाता है और कभी कठिनाइयों एवं विपत्ति को दर्शाता है।

 

संपृक्तार्थ भाषा एवं समाज विशेष के संदर्भ में अर्थ को दर्शाता है। अतः यह न तो दो सामाजिक-सांस्कृतिक समुदायों के मध्य और न ही दो भाषा समुदायों के मध्य कोई निश्चित रूप ले सकता है। इसके अतिरिक्त एक ही भाषा समुदाय या सामाजिक-सांस्कृतिक समुदाय के अंतर्गत विभिन्न काल-खंडों में प्रयुक्त संपृक्तार्थ में भिन्नता भी संभव है।

 

दूसरे शब्दों में संपृक्तार्थ में बताया जाने वाला अर्थ मुख्य होता है। यह लौकिक और व्यावहारिक अर्थ होता है। जैसे- ‘गाय दूध देती है’, ‘घोड़ा दौड़ता है’, ‘मनुष्य सामाजिक प्राणी है’ में गाय, घोड़ा और मनुष्य का लोक-प्रचलित अर्थ लिया जाता है। मम्मट आदि भारतीय संस्कृत आचार्यों ने काव्यशास्त्रीय व्याख्या में  गाय आदि शब्दों को वाचक, गाय (पशु) आदि अर्थों में वाच्य और इस अर्थ को बताने वाली शक्ति को ‘अभिधा’ (Denotative) कहा है। जबकि लक्ष्यार्थ (Connotative meaning) में तीन बातें होती है- संपृक्तार्थ अर्थ में बाधा, संपृक्तार्थ से संबद्ध अर्थ का लेना और रूढ़ि‍ या प्रयोजन कारण। जैसे- ‘भारत हार गया’ में भारत कोई सजीव इकाई तो है नहीं, अतः भारत की टीम हार गई अर्थ होता है। इसी प्रकार ‘दांतों का अस्पताल’ में अस्पताल दांतों से बना हुआ न होकर दांतों के इलाज के लिए बना हुआ अस्पताल अर्थ देता है।

 

(आ) सहप्रयोगार्थ (Collocative Meaning)-

सहप्रयोगार्थ के अंतर्गत किसी शब्द का अर्थ उसके संरचनात्मक घटकों के अर्थों के योग से बने अर्थ से भिन्न और विस्तृत होता है। इसमें शब्द के प्रचलित अर्थ के अतिरिक्त उससे संबंधित अन्य अर्थ भी युक्त हो जाते हैं। जैसे- ‘लंबोदर’ शब्द का अर्थ है लंबा= बड़ा और उदर= पेट अर्थात ‘बड़ा है पेट जिसका’, किंतु सभी बड़े पेट वाले व्यक्तियों के लिए ‘लंबोदर’ शब्द का व्यवहार नहीं किया जाता, अपितु ‘गणेश’ के लिए किया जाता है। इसी प्रकार ‘सुंदर’ शब्द का अर्थ यद्यपि सुंदरता को दर्शाता है किंतु ज्यादातर नारी सौंदर्य को दर्शाता है तथा ‘गुलाब’ शब्द का अवधारणात्मक पक्ष जहाँ पुष्प की एक विशेष जाति जो विभिन्न आकार एवं विभिन्न रंगों के गुलाब की ओर संकेत करता है वहीं इस शब्द का प्रयोग परंपरागत रूप से वैभव एवं ऐश्वर्य के प्रतीक के रूप में भी किया जाता है। ‘लंबोदर’, ‘सुंदर’ एवं ‘गुलाब’ के संदर्भ में प्रयुक्त दोनों अर्थ सहप्रयोगार्थ कहलाते है।

 

(इ) सामाजिक अर्थ (Social Meaning)-

अर्थ सामाजिक होता है। जैसे – ‘तू, ‘तुम’ और ‘आप’ का व्याकरण की दृष्टि से प्रयोग एक ही अर्थ में होता है। लेकिन इनके सामाजिक अर्थ अलग-अलग हैं। सामाजिक स्तर में और आयु में बड़े-छोटे व्यक्तियों की भिन्नता से इनके अर्थ में अंतर आ जाता है।  सामाजिक अर्थ भाषा के सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से संबंधित होता है। अर्थ का यह पक्ष समाज की मान्यताओं और समाज में मान्यता प्राप्त कुछ चुनिंदा शब्दो के अर्थ को दर्शाता है। उदाहरणार्थ, मुंबई के अंडरवर्ल्ड के कुछ शब्द भिन्न प्रकार के अर्थ दर्शाते हैं, जैसे- ‘पेटी’ – एक लाख नगद, ‘खोखा’ – एक करोड़ नगद के लिए प्रयोग किया जाता है। दान और भिक्षा शब्दों को प्रायः धार्मिक दृष्टि से देखा जाता है।

 

(ई) भावपरक अर्थ (Affective Meaning)-

अर्थ का यह पक्ष वक्ता की अनुभूति एवं व्यवहार पर निर्भर करता है। जब कोई व्यक्ति किन्हीं परिस्थितियों में क्षमायाचना करता है या किसी से कोई सहायता माँगता है अथवा किसी को उसके द्वारा किए गए उपकार के बदले धन्यवाद देता है तो वह नम्रतापूर्वक शब्दों का प्रयोग करता है। इस अर्थ के प्रयोग में वाणी के साथ-साथ शारीरिक भाव-भंगिमा की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह अर्थ व्यक्तिविशेष की मनःस्थिति से जुड़ा होता है। हर व्यक्ति के लिए एक ही शब्द  के अलग अलग अर्थ हो सकते हैं।  जैसे यदि ‘सर्दी’ शब्द का उदाहरण लें तो अभिधार्थ में तो सर्दी का अर्थ एक अवधि विशेष से हैं  जिसमें या तो उत्तरी या दक्षिणी गोलार्ध सूर्य से दूर होता है। लेकिन भावपरक अर्थ के रूप में सर्दी शब्द हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग अर्थ को दर्शाता है। जैसे उस व्यक्ति के लिए सर्दी शब्द का अर्थ सकारात्मक होगा जो सर्द मौसम के आते ही स्लेजिंग का आनंद लेता है। लेकिन उस बच्चे के लिए नकारात्मक अर्थ होगा जिसे बर्फ के गोलों से दोस्तों ने प्रताड़ित किया हो।

 

(उ) व्यक्तार्थ (Reflected Meaning)-

यह अर्थ दूसरे अर्थों के संबंध को देखते हुए लिया जाता है, जैसे- एक शब्द के अर्थ को हम किस प्रकार ले लेते हैं। हिंदी शब्द चेला, सेवक का प्रयोग भिन्न-भिन्न संदर्भों में करते और समझते हैं।

 

(ऊ) कथ्यगत अर्थ (Thematic Meaning)-

यह अर्थ शब्दों के प्रयोग पर उनके प्रभाव को देख कर आँका जाता है। जैसे- हम ‘कल’ का प्रयोग दो प्रकार से कर सकते हैं- 1. मैं कल आऊँगा। 2. कल मैं आऊँगा। दूसरे वाले ‘कल’ में निश्चितता का भाव है। इसी प्रकार कर्तृवाच्‍य और कर्मवाच्‍य Active and Passive वाक्यों में शब्दों का अर्थ कुछ हद तक दूसरे वाले प्रकार का हो जाता है।

  1. निष्कर्ष

    इस प्रकार हम देखते हैं कि अर्थविज्ञान जिसमें शब्दों के अर्थ का अध्ययन किया जाता है, में अर्थ के प्रकार सांस्कृतिक वातावरण, वस्तु या व्यापार प्रदर्शन, व्याख्या, परस्पर मेल-जोल, सहप्रयोगों की सूचियों (Collocations) आदि के आधार पर विभिन्न प्रकार की  श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं। इसमें अर्थ की संरचना, संप्रेषण एवं ग्रहण की प्रक्रिया का विश्लेषण किया जाता है। भाषाविज्ञान की इस शाखा के अंतर्गत अर्थ के स्वरूप, शब्दार्थ संबंध, शब्दार्थ बोध के साधन, अनेकार्थवाची शब्द के अर्थ-निर्णय का आधार आदि विषयों का अध्ययन किया जाता है।

 

इसमें लक्ष्यार्थ (Connotative Meaning), सहप्रयोगार्थ (Collocative Meaning), सामाजिक अर्थ (Social Meaning), भावपरक अर्थ  (Affective Meaning), व्यक्तार्थ (Reflected Meaning) एवं कथ्यगत अर्थ (Thematic Meaning) आदि अर्थ के विभिन्न विषय सामान्यतया ध्यान में रखे जाते हैं।

you can view video on अर्थकी अिधारणा और प्रकार

 

अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

 

1) नारंग, वैश्ना, (1981 प्रथम संस्करण) सामान्य भाषा विज्ञान. दिल्ली: प्रकाशन संस्थान.

2) द्विवेदी, कपिलदेव, (2012) भाषा विज्ञान एवं भाषा शास्त्र. वाराणसी: विश्वविद्यालय प्रकाशन.

3) तिवारी, भोलानाथ, (1969 प्रथम संस्करण) शब्दों का अध्ययन. दिल्ली: शब्दकार प्रकाशक

4) Leech, G., (1981) Semantics- The Study of Meaning. New York: Penguin Books Ltd.

5) Lyons, J., (1981) Language and Linguistics: An Introduction. New York: Cambridge University Press.

6) Saeed, J. Ibrahim, (2003) Semantics. Oxford: Blackwell.

 

वेबलिंक्स

 

1) http://waiyu.bjfu.edu.cn/document/20130912102318957824.ppt

2) https://www.scribd.com/doc/51285452/Seven-Types-of-Meaning