17 वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप
वी. आर. जगन्नाथन
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- वाक्य की परिभाषा
- वाक्य का रचना पक्ष
- वाक्य का अर्थ पक्ष
- वाक्यगत युक्तियाँ
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप-
- वाक्य की परिभाषा देकर उसकी व्याख्या कर सकेंगे;
- वाक्य की रचना का वर्णन कर सकेंगे;
- शब्द, पद और पदबंध की पहचान कर सकेंगे;
- शब्दार्थ और वाक्यार्थ की व्याख्या कर सकेंगे;
- उक्ति की व्याख्या कर वाक्य के प्रयोग संदर्भ की पहचान कर सकेंगे और
- आकांक्षा आदि वाक्यगत युक्तियों का महत्व समझा सकेंगे।
2.प्रस्तावना
इस इकाई में हम हिंदी भाषा के संदर्भ में वाक्य की संकल्पना को समझेंगे और वाक्य के गठन की प्रमुख विशेषताओं की चर्चा करेंगे। लिखित भाषा में वाक्य को हम सामान्य रूप से विराम चिह्नों से पहचान लेते हैं। वाक्य प्रायः पूर्ण विराम या प्रश्न चिह्न या विस्मय चिह्न से पहचाने जाते हैं। लेकिन लेखन हर जगह हमारा साथ नहीं देता, क्योंकि लेखन की भी वैकल्पिक व्यवस्था होती है। जैसे “भाई साहब, चलिए” या “भाई साहब। चलिए”। इन वैकल्पिक व्यवस्थाओं के होते हुए हमें वाक्य की अवधारणा का वैज्ञानिक वर्णन चाहिए। भाषावैज्ञानिकों और वैयाकरणों ने अपने-अपने ढंग से वाक्य को परिभाषित किया है जिसमें वे वाक्य की सारी विशेषताओं को समेटने का यत्न करते हैं। हम इकाई के प्रारंभ में प्रमुख परिभाषाओं की चर्चा और व्याख्या करेंगे।
वाक्य भाषा की रचना का एक घटक है, अभिव्यक्ति के स्तर पर पूर्ण अर्थ देनेवाली एक उक्ति है। वाक्य का गठन भाषा के मान्य नियमों के अनुसार होना चाहिए, तभी दूसरे लोग हमारी बात को समझ पाएँगे। वाक्य के रचना पक्ष के अंतर्गत हम वाक्य के रचना तत्त्वों की जानकारी प्राप्त करेंगे और देखेंगे कि कैसे वाक्य शब्द, पद और पदबंधों से निर्मित होते हैं। इसी तरह वाक्य का अर्थ पक्ष भी महत्वपूर्ण है। वाक्य शब्दों से निर्मित होते हैं। हर शब्द का सुनिश्चित अर्थ क्षेत्र होता है। हम चर्चा करेंगे कि कैसे शब्दों के अर्थ से वाक्य का अर्थ सिद्ध होता है। भाषा वाक् व्यवहार की वस्तु है। इसका जीवन के संदर्भों से जुड़ाव है, इन्हें हम भाषा के प्रयोग संदर्भ कहेंगे। जीवन के विविध संदर्भों में ये प्रयोग भाषा के माध्यम से संप्रेषण भाषा का अंतिम लक्ष्य है। यह भाषा का दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है, भाषा का अर्थ पक्ष है। हम वाक्यों की ग्रहणीयता या स्वीकार्यता को प्रयोग संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में देखेंगे।
इकाई के अंत में हम इस बात की चर्चा करेंगे कि वाक्य की सामान्य विशेषताएँ क्या हैं।
- वाक्य की परिभाषा
वाक्य की रचना और भाषा में उसके प्रकार्य को जानने से पहले यह जानना आवश्यक होगा कि वाक्य क्या है। इसी को वाक्य की परिभाषा कहा जाता है। विभिन्न विद्वानों ने वाक्य को अपने ढंग से स्पष्ट करने का यत्न किया है। यहाँ हम कुछ प्रमुख परिभाषाओं की चर्चा और व्याख्या करेंगे।
3.1 आधुनिक विचार
अंग्रेज़ी के प्रख्यात वैयाकरण यस्पर्सन वाक्य को निम्न प्रकार से परिभाषित करते हैं – “वाक्य मानव की उक्ति है जो (ज़्यादा करके) संपूर्ण हो और अपने में स्वतंत्र हो। उसकी संपूर्णता और स्वतंत्रता इसी से सिद्ध होती है कि उसका एक अभिव्यक्ति के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व है।” (A sentence is a (relatively) complete and independent human utterance – the completeness and independence being shown by its standing alone or its capability of standing alone, i.e. of being uttered by itself. Philosophy of Grammar, Otto Jespersen)
यहाँ हम यस्पर्सन के दो शब्दों की व्याख्या करना चाहेंगे। ‘अभिव्यक्ति के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व’ यह स्पष्ट करता है कि रचना की दृष्टि से वाक्य भाषा के किसी अन्य रचना तत्व पर निर्भर नहीं है, स्वतंत्र है। इस बात को एक उदाहरण से स्पष्ट करेंगे। शब्द ‘एकता’ में /ता/ स्वतंत्र शब्द नहीं है, वह किसी अन्य शब्द के अंग के रूप में ही सार्थक है। इसी तरह ‘भाषा का’ स्वतंत्र रूप में नहीं आता, किसी वाक्य के अंग के रूप में ही उसका अस्तित्व है। इस अर्थ में वाक्य अपने आप में स्वतंत्र अभिव्यक्ति है। ‘संपूर्णता’ शब्द रचना की दृष्टि से उसकी पूर्णता का द्योतन करता है। अर्थात् रचना की दृष्टि से हर वाक्य में किन्हीं घटकों की अनिवार्यता होती है। सरल शब्दों में कहें तो हर वाक्य में कर्ता और क्रिया की अनिवार्यता है। ‘मेरा घर बड़ा है’ रचना की दृष्टि से पूर्ण है; ‘मेरा घर’,‘बड़ा है’ या ‘घर बड़ा’ कहें तो कोई अर्थ नहीं निकलता। यस्पर्सन ने ‘ज़्यादा करके’ का कोष्ठकों में उल्लेख किया है। वे यह संकेत कर रहे हैं कि ‘बेचारा रतन’, ‘क्यों नहीं’, ‘चलो तो’ आदि अभिव्यक्तियों को भी वाक्य की परिभाषा में समेट लेना चाहते हैं भले ही रचना की दृष्टि से ये अधूरे लगें। यहाँ हम यह सिद्ध कर सकते हैं कि ये अधूरे वाक्य भी संदर्भ के अनुसार सार्थक अभिव्यक्तियाँ हैं और हम रचना के नियमों से स्पष्ट कर सकते हैं कि इनमें अनिवार्य घटक कहीं विद्यमान हैं, केवल बोले नहीं गए हैं।
दूसरी परिभाषा ब्लूमफ़ील्ड की है, जो आधुनिक संरचनात्मक भाषाविज्ञान के जनक कहलाते हैं। वे कहते हैं कि वाक्य एक स्वतंत्र भाषिक रूप है, जो किसी व्याकरणिक रचना के तहत किसी बड़ी व्याकरणिक रचना का अंग नहीं है। (A “sentence is an independent linguistic form, not included by virtue of any grammatical construction in any larger।inguistic form.” Language, Leonard Bloomfield) ब्लूमफ़ील्ड ने रचना के स्तर पर यह स्पष्ट किया है कि वाक्य स्वतंत्र है, वह किसी और रचना का अंग नहीं बन सकता। ‘व्याकरणिक रचना’ से उनका तात्पर्य वाक्य के आंतरिक गठन से है। वे अपने ग्रंथ में इस संकल्पना का विस्तार करते हुए चर्चा करते हैं कि वाक्य के घटक क्या होंगे, उनमें आपस में क्या संबंध होगा आदि।
हिंदी के जाने-माने वैयाकरण कामताप्रसाद गुरु के अनुसार “एक पूर्ण विचार प्रकट करनेवाला शब्दसमूह वाक्य कहलाता है।” (हिंदी व्याकरण, कामताप्रसाद गुरु) ‘शब्दसमूह’ इस परिभाषा की कमज़ोर कड़ी है, क्योंकि आज हम वाक्य में शब्दों की नहीं, पदों की उपस्थिति मानते हैं। इस कारण यह परिभाषा वाक्य के रचना पक्ष पर प्रकाश नहीं डालती।
3.2 भारतीय परंपरा
भारत में भाषा चिंतन की सुदीर्घ परंपरा है। आज से लगभग ढाई हज़ार साल पहले पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ नामक संस्कृत व्याकरण की रचना की थी। पाणिनि हमेशा सूत्र रूप में अपनी बात कहते हैं। वाक्य की परिभाषा भी उन्होंने इसी ढंग से कही है – “समर्थः पदविधिः” इस परिभाषा के तीनों शब्द महत्वपूर्ण हैं। वाक्य पदों से निर्मित होता है। संज्ञा पद कर्ता, कर्म आदि पदबंधों का निर्माण करते हैं, क्रिया पद वाक्य का मूलाधार है। ये पद समर्थ होने चाहिए, अर्थात् अर्थ की दृष्टि से इनमें तालमेल होना चाहिए। ‘पदों की विधि’ वाक्य की संरचना का संकेत करता है। इस तरह केवल तीन शब्दों से पाणिऩि ने रचना पक्ष और अर्थ पक्ष दोनों की महत्ता स्थापित की है।
भर्तृहरि ने आज से लगभग डेढ़ हज़ार साल पहले वाक्यपदीयम् नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की थी जिसमें भाषा दर्शन के विविध आयामों पर मौलिक विचार व्यक्त किए थे। आपके अनुसार वाक्य उसे कहेंगे जिसके अवयव विश्लेषण करने पर आकांक्षा युक्त हों, जो दूसरे वाक्यों के शब्दों की आकांक्षा न रखता हो, जो क्रियाप्रधान हो, जो अविभाज्य अर्थ देता हो और जो गुणों से युक्त हो।
साकांक्षा अवयवं भेदे परानाकांक्षं शब्दकम्।
क्रियाप्रधानं एकार्थं सगुणं वाक्यं उच्यते।।
इस परिभाषा में वाक्य की कई विशेषताओं का समावेश हुआ है। ‘आकांक्षा’ का अर्थ हम ‘कामना’ के अर्थ में न लें, ‘अपेक्षा’ के अर्थ में लें। वाक्य में कई शब्द या पद अन्य स्थानों में अन्य रचनाओं की अपेक्षा करते हैं, जैसे क्रिया ‘भूख है’ ‘को’ युक्त कर्ता की अपेक्षा करती है जैसे “मुझे भूख नहीं है”। इस तरह ‘आकांक्षा’ की संकल्पना वाक्य के रचना पक्ष पर प्रकाश डालती है। आकांक्षा का आधार क्रिया ही है। ‘जाना’ क्रिया गंतव्य की अपेक्षा करती है, ‘देना’ क्रिया में कर्म के साथ प्राप्तिकर्ता का उल्लेख अनिवार्य है। वाक्य का ‘क्रियाप्रधान होना’ इसी विशेषता का संकेत करता है। ‘दूसरे वाक्यों के शब्दों की आकांक्षा न रखता हो’ यह उक्ति स्पष्ट करती है कि वाक्य रचना की दृष्टि से अपने में परिपूर्ण है, उसका गठन किसी अन्य वाक्य पर निर्भर नहीं है। अब हम दो अन्य शब्दों की व्याख्या करेंगे। ‘एकार्थ’ को समझने के लिए हमें भर्तृहरि के स्फोट सिद्धांत को जानना होगा। कोई वाक्य अर्थ कैसे देता है, इस बारे में प्राचीन भारतीय आचार्यों ने कई विचार व्यक्त किए हैं। अधिकतर वैयाकरण यही मानते हैं कि वाक्य में आए शब्दों के समन्वित अर्थ ही वाक्य का अर्थ है। भर्तृहरि का मत इन सबसे अलग और अनूठा है। वे मानते हैं कि अर्थ की दृष्टि से वाक्य एक है, अखंड है। जब हम एक वाक्य सुनते हैं तो पूरे वाक्य का अर्थ (एकार्थ) हमारे मन में कौंध जाता है। इसी को वे ‘अखंड वाक्य स्फोट’ कहते हैं। आधुनिक भाषाविज्ञान में वाक्यों की परिभाषा देते हुए कुछ विद्वानों ने वाक्य को एक उक्ति (utterance) के रूप में देखने की बात कही है। इस विचार में अखंड वाक्य स्फोट की झलक मिलती है। वाक्य का ‘सगुण होना’ वाक्य विश्लेषण की एक और विशेषता का संकेत करता है, जिसपर किसी अन्य वैयाकरण या भाषावैज्ञानिक ने विचार नहीं किया है। भारतीय व्याकरण परंपरा में ‘गुण’ विशेषण का पर्याय है। आप विचार कीजिए कि हम लंबे वाक्यों की रचना कैसे करते हैं। क्रियापद का अधिक विस्तार नहीं हो सकता। क्रिया के अतिरिक्त वाक्य में प्रमुखतः संज्ञा पद ही तो आते हैं। इन संज्ञा शब्दों का विस्तार हम विशेषणों से ही करते हैं। रचना की दृष्टि से विशेषण को आप मात्र शब्द न गिनें। निम्नलिखित वाक्य में संज्ञा शब्द ‘बेटे’ के साथ तीन प्रकार के विशेषक हैं।
“गाँव से आए हुए मेरे चाचा के वे दोनों होशियार बेटे”
उपवाक्य स्तरीय पदबंध स्तरीय शब्द स्तरीय
इस प्रकार वाक्य का हर शब्द सगुण हो सकता है, और इससे वाक्य विस्तार पाता है। अब हम भर्तृहरि के स्फोट के महत्व को इस विस्तार के संदर्भ में और स्पष्ट रूप से जान सकते हैं।
निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि भर्तृहरि ने जिस विशद रूप से वाक्य की परिभाषा दी है, वहाँ तक आधुनिक भाषाविज्ञान भी नहीं पहुँचा है। वास्तव में भाषाविज्ञान की दृष्टि ही इसका कारण है। ब्लूमफ़ील्ड भाषा में अर्थ पक्ष को महत्व नहीं देते, केवल रचना को विश्लेषण का आधार मानते हैं। ब्लूमफ़ील्ड का परवर्ती संप्रदाय रचनांतरणपरक व्याकरण वाक्य को परिभाषित करना भी आवश्यक नहीं समझता, क्योंकि वह यह मानता है कि घटक तत्त्वों के विश्लेषण से वाक्य संरचना का वर्णन ही भाषाविज्ञान का उद्देश्य है।
अन्य कई विद्वानों ने रचना पक्ष के संदर्भ में वाक्य में उद्देश्य और विधेय के होने की बात कही है, जिसके बारे में अगले अनुच्छेद में विचार करेंगे।
- वाक्य का रचना पक्ष
हमने चर्चा की कि वाक्य शब्दों से निर्मित होते हैं। लेकिन यह शब्दों का ढेर नहीं है, इन शब्दों की वाक्य में एक सुनिश्चित व्यवस्था है। अंग्रेज़ी का एक वाक्य लें। The policeman arrested the thief. अंग्रेज़ी में वाक्य के शब्दों के क्रम का महत्व है। अगर हम “The thief arrested the policeman.” कहें तो अर्थ उलट जाता है। संस्कृत में हम निम्नलिखित वाक्य में शब्दों का क्रम परिवर्तन करें तो भी अर्थ नहीं बदलता, क्योंकि शब्द के भीतर ही उसकी व्याकरणिक विशेषताएँ छिपी हैं। यही बात उस वाक्य के हिंदी अर्थ पर भी लागू होती है।
रामेण हतः रावणः (राम ने रावण को मारा)
ध्यान दें कि हिंदी में क्रम परिवर्तन करते समय संज्ञा के साथ परसर्ग को भी जोड़े रखें, जैसे रावण को मारा राम ने।
रचना पक्ष के विविध आयाम हैं। प्रमुख बात यह है कि प्रायः रचना में अंतर अर्थ भेद ला देता है, जैसे
मोहन का घर जाना ज़रूरी है। अर्थात् मोहन घर जाए।
मोहन के घर जाना ज़रूरी है। अर्थात् हम मोहन के घर जाएँ। यहाँ कर्ता ‘हम’ लुप्त है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि भाषा रचना के स्तर पर विकल्प देती है। जैसे ‘घर साफ़ करना’ और ‘घर की सफ़ाई करना’ दोनों समान अर्थ में एक ही संदर्भ में प्रयुक्त हो सकते हैं। इसी तरह अभिव्यक्ति के स्तर पर भी विकल्प देती है। “मैं बिलकुल चल नहीं पा रहा हूँ” और “मुझसे चला नहीं जा रहा है” एक ही अर्थ में दो अलग उक्तियाँ हैं।
4.1 प्राथमिक रचना – उद्देश्य और विधेय
वाक्य के स्वरूप को जानने से पहले हम यह देखना चाहेंगे कि वाक्य का क्या काम है और हम वाक्य के माध्यम से अभिव्यक्ति के स्तर पर क्या करते हैं। हम वाक्य या उक्ति से किसी व्यक्ति या वस्तु के संदर्भ में कोई बात कहना चाहते हैं। उस व्यक्ति या वस्तु के संदर्भ में हम जो सूचना देना चाहते हैं वह उसकी स्थिति हो सकती है या उसका कार्य व्यापार हो सकता हैl इस प्रकार हर वाक्य में प्रमुखत: दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं। पहला है वह व्यक्ति या वस्तु जिसके बारे में कोई बात कही जाए। इसको हम सामान्य भाषा में ‘कर्ता‘ (Subject) कहते हैं। लेकिन व्याकरण में इसके लिए शब्द है ‘उद्देश्य’l और उस व्यक्ति की स्थिति या उसके कार्य के बारे में हम जो सूचना देते हैं, इसके लिए सामान्य भाषा का शब्द है ‘क्रिया’। इसे हम व्याकरण में ‘विधेय’ (Predicate) कहेंगे। इस प्रकार हर वाक्य में ये दो प्रमुख पक्ष हैं ‘उद्देश्य’ और ‘विधेय’l जब हम विधेय की बात कहते हैं तो यह सिर्फ़ क्रिया शब्द नहीं है, बल्कि कर्ता के संदर्भ में कही गई सारी बातें जो वाक्य के भीतर आती हैं “विधेय” कहलाती हैंl उदाहरण के तौर पर “मोहन कल शाम को अपने घर से निकल कर बाज़ार की तरफ़ गया”। ‘मोहन’ के बाद जितनी भी बातें है वे सब विधेय के भीतर आती हैं। इसी तरह उद्देश्य भी वास्तव में एक शब्द नहीं है बल्कि उस व्यक्ति के संदर्भ में हम और भी कई बातें जोड़ सकते हैं जैसे ‘मेरा दोस्त मोहन’ या ‘उस स्कूल का नया छात्र मोहन’ आदिl
4.2 शब्द, पद और पदबंध
यहाँ हम शब्दों से वाक्य तक की रचना पर विचार करेंगे।
शब्द: वाक्य की रचना के संदर्भ में चर्चा करते हुए हम यह देखते हैं कि वाक्य केवल शब्दों से नहीं निर्मित होता l वाक्य की परिभाषा के संदर्भ में वाक्य में ‘शब्द समूह’ (Group of words) की बात कई वैयाकरण करते हैं। लेकिन हम यहाँ इस अवधारणा को और स्पष्ट करना चाहेंगे। शब्दों से वाक्य नहीं बनता बल्कि उनका क्रिया शब्द से तथा अन्य शब्दों से व्याकरणिक संबंध जुड़ना चाहिए। ‘मैं कपड़ा धो’ अभीष्ट अर्थ का संकेत तो करता है, लेकिन कोई निश्चित अर्थ नहीं दे पाता।
पद: अंग्रेज़ी व्याकरण में ‘पद’ नामक संकल्पना नहीं दिखाई देती, क्योंकि वह अश्लिष्ट भाषा है और वहाँ संज्ञा शब्दों में रूप परिवर्तन नहीं होता। संस्कृत श्लिष्ट भाषा है, शब्द का हर रूप वाक्य में उसकी स्थिति के अनुसार नियत होता है। यों कह सकते हैं कि एक शब्द के सारे रूपों के समूह को ही ‘शब्द’ की संज्ञा दी जाती है। संस्कृत में पद की परिभाषा है “सुप् तिङन्तं पदम्”, अर्थात् संज्ञा शब्द में ‘सुप्’ प्रत्यय लगते हैं और क्रिया शब्दों में ‘तिङ्’ प्रत्यय। क्रियाविशेषण आदि अव्यय शब्दों में कोई प्रत्यय नहीं लगता। क्या ये पद नहीं हैं, इस सवाल को हम यहाँ छोड़ दें। संस्कृत की अपेक्षा हिंदी थोड़ी अश्लिष्ट है। अंग्रेज़ी की तरह हिंदी की क्रिया कई शब्दों में बँट गई, जैसे ‘किया जा सकता है’। संस्कृत की विभक्तियाँ शब्द में जुड़ती थीं, हिंदी में ये अलग होकर स्वतंत्र शब्द के रूप में लिखी जाती हैं, जैसे ‘मीरा ने’, ‘मीरा को’। फिर भी हमें पद की संकल्पना की आवश्यकता है। हमने शुरू में ‘लड़का’ और ‘लड़के ने’ इन दोनों में शब्द की वास्तविकता की चर्चा की थी। अब हम कह सकते हैं कि यहाँ दो पद हैं, शब्द एक है। पद के संदर्भ में हम इनके प्रकार्यों की चर्चा कर सकते हैं। वास्तविक विश्लेषण में फिर भी कई कठिनाइयाँ रह जाती हैं। ‘लड़की’ और ’लड़कियाँ’ इन्हें हम दो शब्द गिनें या एक? दोनों शब्दों का संदर्भित व्यक्ति (referent) एक नहीं है। व्याकरण ग्रंथ प्रायः इन्हें व्युत्पन्न शब्द की कोटि में गिना देते हैं।
पदबंध: वाक्य के छोटे खंड हैं पदबंध (Phrase). जैसे ‘कपड़ा’ कहें तो यह वाक्य नहीं बन सकता। हाँ, किसी प्रश्न के उत्तर में आप ‘कपड़ा’ कह सकते हैंl लेकिन अगर आप इसी शब्द को अपने विधेय से जोड़ें और कहें “यह कपड़ा सुंदर है” तो यह वाक्य बना। इसी प्रकार मान लीजिए कि आप “खाया” कहें तो यह अपने में सार्थक नहीं है। हमें उस क्रिया का अर्थ तो मालूम पड़ रहा है, लेकिन यह किस व्यक्ति के संदर्भ में कहीगई है इसका उल्लेख न हो तो यह वाक्य का अंग नहीं बन सकता। आपको कहना पड़ेगा “मैंने खाना खाया” या “उसने खाना खाया”। इस तरह हम वाक्य में शब्दों के एक-दूसरे से समन्वित अर्थ को लेकर ही वाक्यार्थ को स्पष्ट कर सकते हैं। वाक्य के संदर्भ में हम यह बताना चाहेंगे कि शब्दों का परस्पर समन्वय आवश्यक है, तभी वाक्य अर्थ सूचित कर सकता हैl
पदबंध के प्रकार दो हैं – संज्ञा पदबंध और क्रिया पदबंध। भाषाविज्ञान में विद्वानों ने विशेषण पदबंध, क्रियाविशेषण पदबंध आदि की भी बात कही है, जो अनावश्यक है। विशेषण पदबंध संज्ञा पदबंध का ही अंग है, जिसे हम निम्नांकित आरेख से समझ सकते हैं। यही बात क्रिया पदबंध पर भी लागू है।
विशेषण शीर्ष परसर्ग आदि क्रियाविशेषण शीर्ष काल, पक्ष आदि
संज्ञा शब्द कोटियाँ क्रिया शब्द कोटियाँ
हम संज्ञा पदबंध की रचना स्पष्ट कर लें, तो विभिन्न कारकों के साथ वाक्य में उसके प्रकार्य की चर्चा कर सकते हैं।
4.3 वाक्य के प्रकार
अब हम वाक्य की रचना के संदर्भ में एक दूसरे आयाम की चर्चा करेंगे। हमने कहा कि व्यक्ति या वस्तु के संदर्भ में उसकी स्थिति या उसकीअस्मिता के बारे जानकारी देना वाक्य का काम है जैसे “वह लड़का कमरे में है” या “मेरा लड़का डॉक्टर है”l इन वाक्यों को हम अस्तित्वसूचक (Existential) या कॉप्यूला (Copulative) वाक्य कहते हैं। दूसरे प्रकार के वाक्य व्यापारसूचक वाक्य हैं। ‘कार्य व्यापार’ जिन्हें हम आमतौर पर ‘करना, जाना, पढ़ना, लिखना’ आदि क्रियाओं से सूचित करते हैं। ये सब क्रियाव्यापार हैं। व्यापारसूचक वाक्य में हम उस वाक्य को जीवन के संदर्भ में कहीं न कहीं जोड़कर देखते हैं। हमने अभी एक उदाहरण दिया था “राम जाता है”। यह वाक्य भाषा का सही वाक्य नहीं है। यह भले ही रचना की दृष्टि से सही लगे, लेकिन संदर्भ के हिसाब से यह सही नहीं है, क्योंकि यह उस लड़के के बारे में कोई निश्चित सूचना नहीं देता। इस तरह हम क्रिया व्यापारों को जीवन के संदर्भों से जोड़ते हैं – जो काम सामने हो रहा है वह वर्तमान काल है, जो काम हो चुका है वह भूतकाल है। इसी प्रकार हम अन्य कई दृष्टियों से भी इन वाक्यों को देख सकते हैंl कुछ क्रियाएँ एक बार होती है ख़त्म हो जाती हैं जैसे ‘वह सकुचाई’l लेकिन उस वाक्य को हम लंबे समय तक का वाक्य नहीं बना सकते। ‘वह सवेरे से शाम तक सकुचाती रहती है’ नहीं कह सकते, लेकिन ‘वह सवेरे से लेकर शाम तक पढ़ती रहती है’ कह सकते हैंl ये विभिन्न प्रकार की स्तिथियाँ हैं जिन्हें हम क्रियासूचक या व्यापारसूचक वाक्यों में देख सकते हैं और व्याकरण इन सबका अध्ययन करता हैl इस संदर्भ में हम एक बात और देखना चाहेंगे कि ये व्यापार किस तरह के हैं। जैसे हमने अकर्मक वाक्य की बात कहीं थी “वह छत पर सोता है”। यहाँ ‘छत पर’ स्थान है उस कार्य व्यापार का, लेकिन “वह खाना बना रहा है” में बनाना नामक व्यापार का संबंध खाने से है। “उसने फल काटा” यहाँ ‘काटने’ का संबंध फल से है। केवल आप “उसने काटा” कहेंगे तो यह वाक्य व्याकरणसम्मत नहीं होगा l आपको कर्म का उल्लेख करना पड़ेगा। इस तरह हम इन क्रिया व्यापारों को भी अलग-अलग स्तिथियों में अलग-अलग तरह की वाक्य संरचना में देखते हैं और तब हम उन वाक्यों की रचना की बात कहते हैं। हम अगले मॉड्यूल में विभिन्न प्रकार के वाक्यों की रचना की बात देखेंगे।
- वाक्य का अर्थ पक्ष
भाषा की परिभाषा के संदर्भ में हमने देखा कि वाक्य की संरचना का अध्ययन जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही भाषा का अर्थ पक्ष भी महत्वपूर्ण है। इस प्रकरण में हम इसी चर्चा को आगे बढ़ाएँगे और यह देखना चाहेंगे कि वास्तव में वाक्य के अध्ययन से हमारा क्या तात्पर्य है। जब हम वाक्यविज्ञान की बात करते हैं, तो वाक्य के संदर्भ में हमें किन बातों का अध्ययन करना चाहिए और कैसे करना चाहिए? नि:संदेह वाक्य भाषा की एक इकाई है, और यह भाषा की सबसे बड़ी इकाई है। ज़्यादातर व्याकरण ग्रंथ और कई भाषाविज्ञान के संप्रदाय वाक्य की रचना तक ही अपने को सीमित रखते हैं और भाषा के अर्थ पक्ष पर कम ध्यान देते हैं। अच्छा व्याकरणिक सिद्धांत वह है जो वाक्य का सर्वांगीण अध्ययन करे। भाषा के रचना पक्ष के साथ-साथ अर्थ पक्ष और प्रयोग पक्ष पर भी विचार करे। पहले हम अर्थ पक्ष की चर्चा करेंगे।
5.1 भाषा और अर्थ
अर्थ का भाषा की वाक्य संरचना से संबंध है क्योंकि अर्थ की सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विशेषताएँ रचना में प्रतिबिंबित होती हैं। एक उदाहरण लेते हैं। एक वाक्य है: “निकल जाओ जल्दी से… ” यह वाक्य बोलने वाला सद्भावना से नेक सलाह दे रहा है, परेशानी से दूर रहने की सलाह दे रहा है। इससे मिलता-जुलता वाक्य है: “निकल जाओ मेरे सामने से… ” यह वाक्य क्रोध की स्थिति में बोला जाता है, जहाँ हम व्यक्ति को डाँटते हैं और किसी बात पर दंडस्वरूप उसे भगाने के लिए इसका प्रयोग करते हैं। दोनों वाक्यों में क्रिया समान हैं- ‘निकल जाओ’l लेकिन इन दोनों वाक्यों में अर्थ का यह जो अंतर है उसे हम दो आधारों पर समझ सकते हैं। शब्द चयन पहला आधार है। सद्भावना वाले वाक्य में क्रिया विशेषण ‘जल्दी’ का प्रयोग है जबकि हम भगाने वाले वाक्य में ‘मेरे सामने से’ का प्रयोग करते हैं। जिस अर्थ में ये वाक्य बोले जाते हैं आप इन शब्दों को बदल नहीं सकते। नेक सलाह में ‘निकल जाओ मेरे सामने से‘ कभी नहीं कह सकते। इसके साथ इनके अंतर का एक दूसरा कारक तत्व है अनुतान। डाँट में आवाज़ ऊँची होती है और ‘निकल जाओ‘ पर बल आता है। इसे हम लिखित भाषा में नहीं दिखा सकते, लेकिन व्याकरण के विश्लेषण में उसका ध्यान रखा जा सकता है। अर्थ इस प्रकार वाक्य की रचना को कहीं न कहीं प्रभावित करता है और केवल लिखित भाषा के माध्यम से वाक्यों की रचना का विश्लेषण कभी-कभी अर्थ पक्ष की उपेक्षा करता है और विश्लेषण गलत हो जाता है। व्यवहार के संदर्भ में हम वाक्यों की रचना के बारे में बात करने के लिए उक्ति की संकल्पना का सहारा ले सकते हैं। वैसे हर वाक्य उक्ति भी है और उक्तियों में एक या अधिक वाक्य हो सकते हैं। हम एक वाक्य वाली उक्ति की यहाँ चर्चा करेंगे। हर उक्ति का एक प्रयोग संदर्भ होता है। वह बात क्यों कहीं गई, किस उद्देश्य से कही गई आदि। उदाहरणस्वरूप वाक्य है “आप तो बड़े महान हैं”l यह वाक्य वास्तव में व्यंग्य है और प्रशंसा के बहाने एक प्रकार से निंदा या विपरीत अर्थ सूचित करता है। इस वाक्य का तात्पर्य है कि आप सच में घटिया हैं। मान लीजिए कि हम किसी व्यक्ति की तारीफ़ करना चाहें तो शब्द वे ही होंगे ‘आप, महान‘। फिर हम व्यंग्य की अपेक्षा वास्तव में प्रशंसा का वाक्य किस प्रकार बोलते हैं? उदाहरण देखिए “आप तो सच में महान हैं”l इस वाक्य में हमने दो परिवर्तन किए- शब्द की दृष्टि से ‘बड़े महान’ की जगह ‘सच में महान’ कहा और अनुतान की दृष्टि से ‘सच में’ पर बल दिया, जबकि व्यंग्य में ‘महान’ पर उठता हुआ स्वर होता है और वही उसके व्यंग्यार्थ को व्यंजित करता है, सूचित करता है।
हम जब उक्ति की बात कहें तो वाक्य की संरचना के संदर्भ में उक्ति की कुछ और विशेषताओं की भी बात सोच सकते हैं। यानी उक्ति के स्तर पर ही हम अधूरे वाक्यों की चर्चा कर सकते हैं। एक उदाहरण लें- “न दूँ तो”। इस वाक्य के भी दो अर्थ निकलते हैं और उसे हम अनुतान से पहचान सकते हैं। यह विरोध प्रकट करने वाला वाक्य हो सकता है। “और न दूँ तो” यह वाक्य अपनी समस्या को किसी के सामने रखने वाला संदर्भ हो सकता है। इसी तरह “न मिले तो” से हम आशंका प्रकट कर रहे हैं। इस प्रकार उक्ति के संदर्भ में हम न केवल अधूरे वाक्यों की चर्चा कर रहे हैं बल्कि इन अधूरे वाक्यों के प्रयोग के अर्थ पक्ष पर भी ध्यान दे रहे हैं। उक्ति के संदर्भ में एक दूसरी महत्वपूर्ण बात है ‘संक्षिप्त वाक्य’l इनका उपयोग हम कई संदर्भों में करते हैं, जैसे प्रश्न के उत्तर में। किसी ने पूछा — “क्या मुझे भी मिलेगा?” उत्तर होगा “मिलेगा न”l किसी ने कोई सुझाव दिया या कोई संदेश दिया तो उत्तर में “क्यों नहीं”, किसी ने प्रश्न किया तो उसके उत्तर में “मिलेगा क्यों नहीं” या “मिल तो जाएगा”। इसी प्रकार एक अन्य प्रकार वाक्य है एक शब्द वाला वाक्य जैसे ‘बेशक, हाँ, बस, अरे’। इन सबका अपना-अपना प्रयोग संदर्भ होता है। अगर हम प्रयोग संदर्भ को जान जाएँ तो फिर उनकी रचना का भी विश्लेषण कर सकते हैं। इन वाक्यों का विश्लेषण हम अगली इकाई में करेंगे।
वाक्य के अर्थ को समझने के लिए उक्ति का उल्लेख इसी कारण आवश्यक है कि स्फोट सिद्धांत के अनुसार उक्त वाक्य का अर्थ ही मन में कौंधता है। इस दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि वाक्य में आए शब्दों के अर्थ का जोड़ वाक्यार्थ नहीं है। शब्दार्थ वास्तव में हमारे ज्ञान कोष का अंग है। इसे हम शब्द का जातिगत अर्थ कह सकते हैं। उदाहरण के लिए ‘गाय’ शब्द के शब्दार्थ में बहुत-सी सूचनाएँ समाविष्ट हैं – प्राणिवर्ग में उसका स्थान, आकार-प्रकार, रंग-रूप, स्वभाव आदि। हमारे जीवन में दृश्यमान गायें व्यक्त (Instances) रूप हैं। हम जब किसी एक गाय के किसी व्यापार की चर्चा करें तो जातिगत सारे अर्थों का उपयोग नहीं करते। “एक गाय ख़रीद लो” कहने पर मात्र दूध देनेवाले प्राणी का ही अर्थ हमारे सामने आता है।
वाक्यार्थ को समझने के लिए एक और उदाहरण लेते हैं।
उस अस्पताल में एक चोर है।
‘चोर’ के दो अर्थ हैं – चोरी जिसका पेशा है, या वह कर्मचारी जो चोरी करता है, ‘अस्पताल’ के दो अर्थ हैं – चोर के लिए चोरी का स्थान और मरीज़ों के लिए इलाज का स्थान, ‘है’ के दो अर्थ हैं– इस समय विद्यमान, अस्पताल की नौकरी में है। अगर हम उक्ति का संदर्भ न समझें तो वक्ता के अर्थ तक नहीं पहुँच सकते। वाक्यार्थ तभी मन में कौंधता है जब हम हर शब्द का सही अर्थ लेकर वक्ता का आशय समझ जाएँ।
5.2 वाक्य का प्रयोग संदर्भ
प्रयोग (Use) का वाक्य विश्लेषण में महत्व है। आमतौर पर अहिंदी भाषी प्रदेशों में पहली कक्षा की पाठ्यपुस्तकों में स्कूल जाते हुए दो बच्चों के चित्र के साथ दो वाक्य मिलते हैं -‘राम जाता है’ ‘सीता जाती है’l पुस्तक के लेखक सोचते हैं कि सबसे छोटा वाक्य दिया जाए जिससे सीखने वालों को कठिनाई न हो। वे शायद मानते हैं कि ‘जाता है’ की रचना ‘जा रहा है’ से आसान है। लेकिन ये वाक्य संदर्भरहित हैं, इस कारण निरर्थक हैं। “राम जाता है” का जीवन के किसी संदर्भ से कोई संबंध नहीं है क्योंकि उस व्यक्ति के संदर्भ में कोई नयी सूचना नहीं दी गई है। इसको हम भाषा की रचना से जोड़ कर देखें। आमतौर पर कहा जाता है कि अकर्मक वाक्य में केवल कर्ता और क्रिया का होना पर्याप्त है और उसके उदाहरणस्वरूप इसी प्रकार के वाक्य दिए जाते हैं। हम एक उदाहरण लेते हैं “मोहन सोता है”। इस वाक्य में भी कोई सूचना नहीं है। यह वाक्य प्रयोग की दृष्टि से निरर्थक है। इस वाक्य को संदर्भ के साथ जोड़ना आवश्यक है। “मोहन आठ बजे सोता है” या “मोहन छत पर सोता है”। ये वाक्य वास्तव में संदर्भ से जुड़ते हैं। अतः हम वाक्य विश्लेषण में एक नयी बात जोड़ना चाहेंगे कि अकर्मक क्रिया के वाक्य हमेशा केवल क्रिया के साथ आएँ यह सही नहीं हैl इनमें संदर्भ को सूचित करने के लिए अधिकरणकारक ‘में, पर’ आदि या किसी क्रियाविशेषण का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। दूसरा एक वाक्य लें। “माला सो रही है”- यह वाक्य संदर्भ से सही है क्योंकि कथन का समय इसका संदर्भ है। हम सामने किसी व्यक्ति को सोते देखते हैं और तब यह वाक्य बोलते हैं। व्याकरण में इन सब बातों का समावेश होना चाहिए, तभी व्याकरण अपने उद्देश्य में सफल हो सकेगा। भाषाविज्ञान में अलग-अलग संप्रदाय भाषा का अपने-अपने ढंग से विश्लेषण करते हैं। व्याकरण और भाषाविज्ञान में विद्वान केवल वाक्यविज्ञान (syntax) का ही अध्ययन करते हैं और अकसर प्रयोग संदर्भ को भूल जाते हैं। संकेतप्रयोगविज्ञान (pragmatics) के विद्वान भाषा के प्रयोग पक्ष पर ध्यान देते हैं, लेकिन उसे संरचना से नहीं जोड़ते। वाक्य की रचना और उसका प्रयोग भाषाके दो महत्वपूर्ण पहलू हैं और इन्हें जोड़कर देखना आवश्यक होगा। तभी हम व्याकरण को सार्थक और कारगर बना सकते हैं।
- वाक्यगत युक्तियाँ
वाक्य के अर्थ तक हम कैसे पहुँचते हैं? इससे जुड़ा हुआ सवाल है कि वाक्य की क्या विशेषताएँ हैं? हम इन दोनों प्रश्नों के उत्तर में वाक्यगत युक्तियों की चर्चा कर सकते हैं। ब्लूमफ़ील्ड ने चार युक्तियों की बात की है – वाक्य में पदक्रम, अनुतान, संधि और चयन। भारतीय मनीषियों ने वाक्य की चार विशेषताओं की चर्चा की है – आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और विवक्षा। हम भारतीय मनीषियों की चर्चा के ही संदर्भ में ब्लूमफ़ील्ड की युक्तियों की व्याख्या करेंगे।
6.1 आकांक्षा
इस मॉड्यूल के प्रारंभ में ही हमने आकांक्षा की चर्चा की थी। इस संकल्पना से वाक्य के घटकों के बीच आश्रितता का भान होता है। विधि के दो वाक्यों में जैसे “तुम जाओ”, “आप जाइए” में कर्ता और क्रिया का तालमेल होना चाहिए। अर्थात् ये परस्पर आश्रित हैं। आकांक्षा का भाषा में व्यक्त रूप अन्विति (Agreement) है और अन्विति का आधार लिंग, वचन आदि व्याकरणिक कोटियाँ हैँ। ‘बूढ़ा आदमी’ ,‘बूढ़ी औरत’ लिंग की अन्विति दिखाते हैं और ‘एक लड़का’, ‘दो लड़के’ वचन की अन्विति दिखाते हैं। अन्विति आकांक्षा का एक प्रकार है, और कई प्रकरणों में इसके कई रूप मिलते हैं। कुछ उदाहरण देखें।
‘चाह’ के साथ संकेतार्थ क्रिया – मैं चाहती हूँ कि घर जाऊँ।
‘चुक’ के साथ निषेध न होना – मैं नहीं खा चुका हूँ। (यह वाक्य गलत है)
‘मालूम’ के साथ कर्ता में ‘को’ – मुझे मालूम है।
कर्ता के लोप में वाच्य परिवर्तन – खाना परोसा गया।
इस तरह हम आकांक्षा की सहायता से कई वाक्य संरचनाओं की व्याख्या कर सकते हैं, कई वाक्य रूपांतरणों को समझ सकते हैं। ब्लूमफ़ील्ड का चयन का सिद्धांत आकांक्षा का एक अंग है। इसके लिए वे बहुवचन शब्द children का उदाहरण देते हैं, जो अन्य शब्दों की तरह मूल शब्द में /s/ लगने से नहीं बनता।
6.2 योग्यता
इस विशेषता का तात्पर्य है किसी इकाई के किसी प्रसंग में आने की संभावना। संस्कृत के वैयाकरणों ने योग्यता के अभाव का सुंदर उदाहरण दिया है ‘आग से सींचना’। सींचना पानी से ही होता है, आग में वह योग्यता नहीं है। ऐसा ही दूसरा उदाहरण है “वह लड़की पिता बन गई”। योग्यता वास्तव में वस्तु जगत के बारे में हमारे मस्तिष्क में अंकित हमारे ज्ञान कोष की विशेषता है। इसी से हमारे मन में विचार, धारणाएँ आदि निर्मित होते हैं। चूँकि यह ज्ञान वस्तु सत्य पर आधारित है, यह सार्वभौम है। इसी कारण हम एक दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान कर पाते हैं। एक उदाहरण लें। हम जानते हैं कि “एक कौवा आसमान में उड़ रहा था” सही वाक्य है, “एक गाय आसमान में उड़ रही थी” में योग्यता की कमी है। हमारे ज्ञान कोष में अंकित है कि ‘उड़ना’ पक्षियों का लक्षण है। विरासत (Inheritance) के सिद्धांत के आधार पर यह लक्षण कौवा, कबूतर, गौरैया सभी पर लागू होता है, चौपायों पर नहीं। स्वभावतः योग्यता से सहप्रयोग (Collocation) की संकल्पना जुड़ती है। ‘गाय’ कहते ही हमारे ध्यान में ‘दूध, बछड़ा, सींग, पूँछ’ आदि संबद्ध शब्द आते हैं। वास्तव में ये शब्द ‘गाय’ के जातिगत अर्थ के संकेतक हैं, जो हमारे ज्ञान कोष में अंकित हैं। यह तो बात हुई किसी मूर्त शब्द के लक्षणों की। अमूर्त शब्दों में भी हम सहप्रयोग की बात देख सकते हैं। हम जीत हासिल कर सकते हैं, हार हासिल नहीं करते। हम मेहनत से कार्यक्रम को सफल बनाते हैं, आलस के कारण उसे असफल नहीं बनाते, वह असफल हो जाता है। ब्लूमफ़ील्ड के चयन सिद्धांत को योग्यता के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
इसका तात्पर्य यह नहीं है कि शब्दार्थ साँचों में ढला होता है। भाषा सृजनात्मकता को अवसर देती है। कवि या लेखक ‘अश्रु पूरित मेघ नयन’ या ‘आह भरते शहर’ की बात कर उक्ति में नये प्राण भरते हैं। भाषा समुदाय इसी पद्धति से मुहावरों की सृष्टि करता है। इस तरह हम सामान्य प्रभावी भाषा से लेकर उच्च साहित्यिक भाषा तक सभी स्तरों पर अभिव्यक्ति की व्याख्या योग्यता के आधार पर कर सकते हैं।
6.3 सन्निधि
सन्निधि का अर्थ है ‘सामने होना’। वाक्य की यह विशेषता ब्लूमफ़ील्ड के पदक्रम की युक्ति से अधिक विस्तृत है। हम जानते हैं कि पदक्रम बिगड़ने से वाक्य का अर्थ बिगड़ सकता है, जैसे “बच्चे को काटकर गाजर खिलाओ”। सन्निहित वाक्य में भी क्रिया कर्म के बाद ही आनी चाहिए, जैसे ‘गाजर काटकर’। इसी नियम के कारण इस वाक्य में ‘बच्चा’ ‘काटकर’ का कर्म बन गया।
सन्निधि के निर्वहण में कई व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं। आगे के वाक्य देखिए-
- मैंने मंदिर की तरफ़ जाते हुए एक लड़के को देखा।
- मैंने एक लड़के को मंदिर की तरफ़ जाते हुए देखा।
लगता है कि पहले वाक्य में मंदिर जानेवाला ‘मैं’ है,दूसरे में ‘लड़का’। लेकिन दोनों वाक्य दोनों अर्थ दे सकते हैं। इसे हम भाषा में संदिग्धता की संज्ञा देते हैं। संदिग्धता भाषा मे अर्थ संप्रेषण की एक समस्या है, इसे केवल सन्निधि दूर नहीं कर सकती। संदिग्धता का निवारण करने के कई उपाय हैं। चॉम्स्की ने एक रोचक उदाहरण दिया है- Flying planes can be dangerous. इसके दो अर्थ हो सकते हैं। “हवाई जहाज़ उड़ाना ख़तरनाक हो सकता है”, “उड़ते हवाई जहाज़ ख़तरनाक हो सकते हैं”। पहले अर्थ में ‘flying’ विशेषण नहीं है। इस वाक्य की अंतर्निहित संरचना है एक उपवाक्य –To fly planes. इस तरह संदिग्धता को दूर करने में सन्निधि का प्रमुख कार्य है, अंतर्निहित संरचना की व्याख्या भी उपयोगी है। ऊपर के वाक्यों में सन्निधि संदिग्धता दूर करने में सहायक हो सकती है अगर हम कर्ता को उसके विधेय के साथ रख दें, जैसे
- मंदिर की तरफ़ जाते हुए को मैंने एक लड़के देखा।
- मैंने एक लड़के को मंदिर की तरफ़ जाते हुए देखा।
6.4 विवक्षा
‘विवक्षा’ का शाब्दिक अर्थ है ‘कहने की इच्छा’। इसका सीधा संबंध वाक्य की संरचना से नहीं है, अतः कई वैयाकरण इसे नहीं गिनाते। एक उदाहरण लें ‘आओ’ । इसके कई अर्थ हैं, आदेश, आग्रह, अनुरोध, अनुमति, सुझाव आदि। ब्लूमफ़ील्ड इसी को ‘अनुतान’ (Modulation) कहते हैं। हम सुरों के उतार-चढ़ाव तथा बोलने पर बल आदि से ये विभिन्न अर्थ व्यक्त करते हैं। साथ ही हिंदी में क्रिया के साथ ‘न, तो, भी’ आदि निपात जोड़कर भी अर्थच्छटाओं में अंतर किया जाता है, जैसे ‘आओ न’, ‘बैठो तो’ आदि।
- निष्कर्ष
इस मॉड्यूल में वाक्य के स्वरूप और भाषा में वाक्य के महत्व की चर्चा की गई है। भाषावैज्ञानिकों और वैयाकरणों ने भाषा के रचना पक्ष और अर्थ पक्ष के संदर्भ में भाषा को परिभाषित करने का यत्न किया है। रचना की दृष्टि से वाक्य पूर्ण है, भाषा की सबसे बड़ी इकाई है। सभी विद्वानों ने वाक्य में उद्देश्य और विधेय नामक दो प्रमुख घटकों की बात कही है। अर्थ पक्ष के संदर्भ में कई विद्वानों ने वाक्य को उक्ति माना, जो जीवन के प्रसंग में एक समन्वित अर्थ देता है। भारतीय मनीषा ने रचना में आकांक्षा को महत्वपूर्ण माना और क्रिया की प्रधानता स्वीकार की। अर्थ पक्ष के संदर्भ में उनकी वाक्यार्थ की अवधारणा अत्यंत मौलिक है। वे वाक्य को अखंड मानते हैं और स्फोट के रूप में पूरे वाक्य के अर्थ की प्रतीति की बात कहते हैं।
वाक्य के दो अनिवार्य घटक उद्देश्य और विधेय हैं। उद्देश्य वाक्य का कर्ता है, विधेय में क्रिया पदबंध के अतिरिक्त कर्म, करण आदि संज्ञा पदबंध आते हैं। शब्द जातिगत अर्थ देनेवाली इकाई है, इसका वाक्य में पद के रूप में ही प्रयोग होता है। संज्ञा और क्रिया पदों में अन्य शब्दों के साथ संबंध दिखाते हुए और दिखाने के लिए रूप परिवर्तन होता है। वाक्य विश्लेषण में इन सबका अध्ययन किया जाता है।
शब्दार्थ संकल्पना है, वाक्यार्थ संदर्भ से जुड़ता है। उक्त वाक्य के अर्थ को समझने के लिए हमें उसके प्रयोग संदर्भ को भी जानना होगा। प्रायः भाषाविज्ञान संदर्भ का ख़याल नहीं करता और संकेतप्रयोगविज्ञान संदर्भ को वाक्यविज्ञान से नहीं जोड़ता।
वाक्य की रचना और अर्थ के सम्यक् ज्ञान के लिए भारतीय मनीषियों ने वाक्य की चार विशेषताएँ बताई हैं। आकांक्षा का संबंध रचना से है। यह बताती है कि किस तरह वाक्य के घटक परस्पर आश्रित हैं। व्याकरणिक कोटियों के संदर्भ में वाक्य में अन्विति एक प्रमुख विशेषता है। योग्यता का संबंध हमारे मस्तिष्क में अंकित भाषाई ज्ञान से है। यह ज्ञान सार्वभौमिक है, इस कारण हम अभिप्रेत अर्थ संप्रेषित कर पाते हैं। इसका उपयोग करते हुए सृजनात्मक प्रतिभा का भी प्रदर्शन करते हैं। योग्यता का विश्लेषण साहित्यिक भाषा के स्वरूप को जानने में सहायक हो सकता है। सन्निधि का संबंध पदक्रम से है। इससे हम वाक्य में संदिग्धता के निवारण का उपाय कर सकते हैं। विवक्षा का संबंध बोलनेवालों के आशय से है। मौखिक भाषा में हम अनुतान के भेद से एक ही उक्ति के कई अर्थ द्योतित कर पाते हैं।
you can view video on वाक्य की परिभाषा एवं स्वरूप |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- गुरु, कामता प्रसाद. (1920). हिंदी व्याकरण. काशी : नागरी प्रचारिणी सभा
- सिंह, सूरजभान. (2000 सं.). हिंदी का वाक्यात्मक व्याकरण. दिल्ली : साहित्य सहकार
- Bloomfield, L. (1933). Language. New York: Holt
- Jespersen, Otto. (1920). Philosophy of Grammar, London : Allen & Unwin
वेब लिंक
https://hi.wikipedia.org/s/68k
https://hi.wikipedia.org/s/51p
http://bharatdiscovery.org/india/वाक्य_भेद