15 रूपवैज्ञानिक प्रक्रियाएँ
प्रो. सुरेंद्र दुबे
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- रूपविज्ञान
- रूपिम
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरांत आप-
- रूपविज्ञान के अंतर्गत अर्थतत्व और संबंधतत्व का परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
- शब्दरचना और पदरचना/रूपरचना की विभिन्न प्रक्रियाओं से अवगत होंगे।
- रूपस्वनिमविज्ञान तथा रूपस्वनिमिक परिवर्तन से परिचित होंगे।
- रूपस्वनिम की अवधारणा को जान सकेंगे।
- प्रस्तावना
रूपविज्ञान के अंतर्गत पदों (रूपों) का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। भाषा के चार प्रमुख घटक होते हैं-ध्वनि, शब्द/पद, वाक्य और अर्थ। भाषा की लघुतम अविभाज्य इकाई ध्वनि है। जैसे-अ्, क्, च्, प्, य् आदि। किंतु इनसे किसी अर्थ का बोध नहीं होता है। सार्थकता की दृष्टि से भाषा की लघुतम स्वतंत्र इकाई शब्द है। जैसे-‘कब’, ‘चल’, ‘यह’, ‘वह’ आदि। किंतु इनसे किसी पूर्ण अर्थ का बोध नहीं होता। भाषा की लघुतम पूर्ण सार्थक इकाई वाक्य है। जैसे-‘लड़के ने कुत्ते को डंडे से मारा’। इस वाक्य में प्रयुक्त शब्द ‘लड़के’, कुत्ते’, ‘डंडे’, ‘मारा’ वाक्य में बदले हुए रूप में दिखाई देते हैं।अर्थात् शब्द वाक्य में प्रयुक्त होने के लिए कैसे बदल जाते हैं? क्यों बदल जाते हैं? किस तरह बदल जाते हैं? आदि का रूपविज्ञान के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है। शब्दरचना से लेकर पद बनने तक की यात्रा की पूर्ण और स्पष्ट जानकारी के लिए रूपविज्ञान का अध्ययन आवश्यक है।
- रूपविज्ञान
भाषा के चार अवयव हैं- ध्वनि, शब्द/पद, वाक्य एवं अर्थ। इनमें से प्रत्येक का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। शब्द तथा रूप या पद की आंतरिक संरचना के वैज्ञानिक अध्ययन को रूपविज्ञान कहते हैं।
3.1 शब्द तथा पद/रूप – सार्थकता की दृष्टि से भाषा की लघुतम स्वतंत्र इकाई शब्द है। शब्दों से ही नए शब्द तथा वाक्य बनते हैं, किंतु शब्दों को क्रम में रख देने मात्र से वाक्य नहीं बनते। जैसे चार शब्द हैं-‘लड़का’, ‘कुत्ता’, ‘डंडा’ और ‘मारना’। इनको अगल-बगल रख देने से किसी पूर्ण अर्थ का बोध नहीं होता है। इन्हीं शब्दों के साथ जब कारक चिह्न, प्रत्यय या परसर्ग जुड़ जाता है, तो ये शब्द वाक्य में प्रयुक्त होने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं।
ऊपर के शब्दों में कारक चिह्न, प्रत्यय या परसर्ग जोड़कर जब हम बोलते या लिखते हैं कि ‘लड़के ने कुत्ते को डंडे से मारा।’ तो यह वाक्य बन जाता है और इससे पूर्ण अर्थ का बोध होता है। अब इस वाक्य को देखें, इसमें वही चार शब्द हैं, किंतु बदले रूप में-‘लड़के ने’, ‘कुत्ते को’, ‘डंडे से’, ‘मारा’। इन्हें ही पद या रूप कहते हैं अर्थात् वाक्य में प्रयुक्त होने की योग्यता रखने वाले शब्द को पद या रूप कहते हैं।
इस प्रकार शब्द को पद या रूप में बदल देने वाला तत्त्व कारक चिह्न, प्रत्यय या परसर्ग है। इसे संबंधतत्व या रचनातत्त्व भी कहते हैं।
3.2 अर्थतत्व (Content Element) और संबंधतत्व (Function Element)– शब्द दो प्रकार के होते हैं-प्रातिपदिक और धातु। इन्हीं प्रातिपदिक और धातु को अर्थतत्व कहते हैं। जब इन अर्थतत्त्वों (शब्दों) में संबंधतत्व (कारक चिह्न, प्रत्यय या परसर्ग) जुड़ता है तो पद या रूप बनता है।
अर्थतत्व (शब्द) + संबंधतत्व = रूप
(पाणिनि ने पद को परिभाषित करते हुए लिखा है-‘सुप्तिङन्तं पदम्’ (अष्टाध्यायी, 1-4-14)। इसे ही स्पष्ट करते हुए पतंजलि ने भी कहा है-‘नापि केवला प्रकृतिः प्रोक्तव्या नापि केवल प्रत्ययः’।)
ऊपर के उदाहरण वाक्य को पुनः देखते हुए कह सकते हैं कि उसमें चार अर्थतत्व हैं-‘लड़का’, ‘कुत्ता’, ‘डंडा’ और ‘मारना’। इन शब्दों को पद बनाने के लिए इनमें क्रमशः संबंधतत्व जोड़े गए हैं-‘ने’, ‘को’, ‘से’ तथा ‘मारना’ क्रिया को पूर्णकालिक बनाने के लिए संबंधतत्व जो उसी में जुड़ गया है)।
तात्पर्य यह कि शब्दों (प्रातिपदिक एवं धातु) में प्रयोग योग्यता लाने के लिए उनमें संबंधतत्व (कारक चिह्न, प्रत्यय या परसर्ग) जोड़कर उन्हें पद बनाया जाता है। जैसे, ‘लड़का’ शब्द है और ‘लड़के ने’ पद।
3.3 शब्दरचना, पदरचना/रूपरचना की पद्धतियाँ- ऊपर हमने देखा कि पद/रूप किसे कहते हैं? अब हम यहाँ देखेंगे कि पद कैसे बनते हैं? हम पहले देख आए हैं कि अर्थतत्व में संबंधतत्व के जुड़ने से पद बनते हैं। अर्थतत्व में यह संबंधतत्व अनेक प्रकार से जोड़े जाते हैं। यह जोड़ना ही पद-रचना की पद्धति है।
3.3.1 शून्य संबंधतत्व द्वारा- हम कहीं कहीं वाक्यों में देखते हैं कि शब्दों को अविकृत छोड़ दिया गया है। शब्दों में जुड़ा हुआ संबंधतत्व दिखाई नहीं देता। जैसे,
संस्कृत – नदी बहति।
अंग्रेजी – you go.
हिंदीं – वह गया।
इन तीनों वाक्यों में ‘नदी’, ‘you’ या ‘वह’ के साथ कोई संबंधतत्व जुड़ा हुआ प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे रहा है, किंतु ये तीनों शब्दों के पद बन गए हैं। शब्द में संबंधतत्व जुड़े बिना शब्दों के रूप बन नहीं सकते, इसलिए वैज्ञानिक दृष्टि से यह माना जाता है कि यहाँ शून्य संबंधतत्व का प्रयोग किया गया है। संस्कृत के वैयाकरण भी यह नहीं मानते कि यहाँ विभक्ति नहीं है, वे कहते हैं कि यहाँ विभक्ति का लोप हो गया है। उनकी यह ‘विभक्ति लोप’ की कल्पना भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
3.3.2 संबंधतत्व योग द्वारा- अर्थतत्व में संबंधतत्व जोड़ कर रूप बनाने की प्रक्रिया अत्यंत व्यापक है। संबंधतत्व अर्थतत्व में कहीं पहले, कहीं मध्य में तो कहीं अंत में जोड़ा जाता है। पहले जुड़ने वाले संबंधतत्व को आदियोग (उपसर्ग), बीच में जुड़ने वाले संबंधतत्व को मध्ययोग (विकरण) और अंत में जुड़ने वाले संबंधतत्व को अंतयोग (प्रत्यय/परसर्ग) कहते हैं।
3.3.2.1 आदियोग (उपसर्ग/Prefix)– मूल शब्द या प्रकृति जिसे अर्थतत्व कहा जाता है उसके पहले संबंधतत्व जोड़कर बहुत-सी भाषाओं में पद-रचना होती है। संस्कृत में भूतकाल की कुछ क्रियाओं में आदि में ‘अ’ जुड़ता है, जैसे-अगच्छत्, अपठत् आदि। अफ्रीका की बंटु कुल की भाषा में भी यह प्रवृत्ति देखी गई है।
उपसर्ग के प्रयोग से हिंदी शब्दों के अर्थ में भी व्यापक परिवर्तन देखा जा सकता है। जैसे-‘ज्ञान’ शब्द से ‘अज्ञान’, ‘संज्ञान’, ‘विज्ञान’, ‘अभिज्ञान’ आदि।
3.3.2.2 मध्ययोग (Infix)– कहीं कहीं संबंधतत्व अर्थतत्व के बीच में आता है जैसे,
संस्कृत – ‘रूणद्धि’ (रुध् धातु)
अरबी – ‘किताब’, ‘कुतुब’ (कतब धातु से)
3.3.2.2 अंतयोग (Suffix)- अर्थतत्व के अंत में संबंधतत्व जोड़कर पदरचना/रूपरचना करने की प्रवृत्ति बड़ी व्यापक है। सबसे अधिक इसी का प्रयोग होता है। संस्कृत में प्रकृति के बाद विभक्ति प्रत्यय जोड़ा जाता है-जैसे राम, गम् या पठ् से-रामः, रामं, रामेण गच्छति, पठामि आदि। इसी तरह हिंदीं में अर्थतत्व के बाद कारक चिह्न/परसर्ग लगाकर पदनिर्माण किया जाता है। जैसे, लड़के ने, कुत्ते को, डंडे से। ‘मारा’, ‘भगाया’ आदि। अंग्रेजी में प्रत्ययों से बनने वाले रूप भी इसी श्रेणी में आते हैं- Ask- Asked या Go-Going या Pass-Passed या Run-Running.
3.3.3 ध्वनिप्रतिस्थापन द्वारा– पदरचना / रूपरचना के लिए अंतर्वर्ती स्वर में परिवर्तन कर संबंधतत्व का कार्य लिया जाता है। जैसे-
संस्कृत – 1. दशरथ – दाशरथि 2. रुद्र – रौद्र
हिंदीं- 1. बालक – बालिका 2. पुत्र – पुत्री
अंग्रेजी – 1. Tooth-Teeth 2. Find-Found
3.3.4. आवृत्ति द्वारा– कहीं-कहीं पदरचना / रूपरचना में ध्वनि आवृत्ति द्वारा भी संबंधतत्व का कार्य लिया जाता है। इसे अभ्यास भी कहते हैं। संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि प्राचीन भाषाओं में इस तरह के प्रयोग मिलते हैं। जैसे, संस्कृत में पठ्-पपाठ, नद्-ननाद, बुध-बुबोध आदि।
3.3.5 ध्वनिगुण (बलाघात या सुर) द्वारा– अनेक भाषाओं में पदरचना के लिए बलाघात या सुर द्वारा संबंधतत्व का कार्य लिया जाता है। उदाहरणार्थ, अफ्रीका की एक भाषा है ‘फुल’। इस भाषा के शब्द ‘मिवरत’ आदि को यदि एक सुर में बोला जाए तो उसका अर्थ होता है-‘मैं मार डालूँगा’; किंतु इसी शब्द में यदि ‘त’ को आरोही सुर में बोला जाए तो अर्थ होगा-‘मैं नहीं मरूँगा’।
भोजपुरी के निम्नांकित शब्दों से इसे और ठीक ढ़ंग से समझा जा सकता है-
करबऽ- तुम करोगे।
कऽरब – मैं करूँगा।
पढ़बऽ – तुम पढ़ोगे।
पऽढ़ब – मैं पढूँगा।
इन उदाहरणों में रूप एक रहने पर भी बलाघात के कारण अर्थभेद हो जाता है।
3.3.6 आदेश (Suppletion) द्वारा– प्रायः यह भी देखा जाता है कि मूल शब्द (प्रातिपदिक/धातु) के बदले कहीं-कहीं दूसरे शब्द का प्रयोग हो जाता है और कालांतर में दोनों परस्पर असंबद्ध शब्दों में भी एक प्रकार के संबंध की कल्पना कर ली जाती है, इसे ही आदेश कहते हैं। जैसे-संस्कृत के दृश् धातु का लट्, लिङ्, लोट्, लङ्, लकार में पश्य आदेश हो जाता है। आदेश का अर्थ समग्र रूपपरिवर्तन है। माना यह जाता है कि पूर्व में दृश् और पश्य् दो धातुएँ रही होगी, किंतु धीरे-धीरे उक्त चार लकारों में ‘दृश्’ का रूप लुप्त हो गया और ‘पश्य्’ का चलता रहा। कालांतर में इसे ही आदेश मान लिया गया।
हिंदीं की ‘जाना’ क्रिया से भी इसे समझा जा सकता है। ‘जाना’ का पूर्णकालिक रूप ‘‘गया’ होता है, जो किसी स्वनिक प्रक्रिया से संभव नहीं है। वास्तव में ‘जाना’ और ‘गया’ में कोई संबंध नहीं है। ‘जाना’ संस्कृत की ‘या’ धातु से तथा ‘गया’ ‘गम्’ धातु से निकला है, हिंदीं में आकर दोनों एक में मिल गए। इसे ही आदेश कहा जाता है।
अंग्रेजी के Go का भूतकालिक रूप Went इसी प्रकार परस्पर असंबद्ध होते हुए आदेश से एक में जुड़ा है।
3.4 रूपपरिवर्तन– भाषा के घटकों में परिवर्तन ही उसका ऐतिहासिक विकास है। विकास की यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। ध्वनि या अर्थ की तरह रूप में भी परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन के कतिपय प्रमुख कारण हैं-
3.4.1. सरलता- मनुष्य स्वभावतः सरलता का आग्रही रहा है। जो काम आसानी से हो जाए वह उसे तुरंत स्वीकार कर लेता है। जैसे-
संस्कृत में तृतीया एकवचन में ‘ण’/‘णा’ के स्थान पर ‘न’ को स्वीकारना (मुनिना, साधुना आदि) इसी सरलता के आग्रह के कारण हैं।
हिन्द में ‘पूर्वीय’ के लिए ‘पौरस्त’ था, किंतु ‘पाश्चात्य’ आधार पर सरलता के कारण इसके लिए ‘पौर्वात्य’ रूप स्वीकार कर लिया गया।
3.4.2. नवीनता- हम भाषा के क्षेत्र में भी नवीनता को खोजते और उसका व्यवहार करते रहते हैं। जैसे, ‘मैं’ का बहुवचन ‘हम’ है, किंतु पूर्वी हिंदीं की बोलियों के प्रभाव में ‘मैं’ के स्थान पर हम का प्रयोग होने लगा तो उसका बहुवचन बनाने के लिए ‘हमलोग’ प्रयोग में आ गया। ‘श्रेष्ठ’ को और महत्त्व देने के लिए ‘श्रेष्ठतम’ का प्रयोग नवीनता के आग्रह का ही परिणाम है।
3.4.3. बल- मनुष्य बोलते या लिखते समय अपनी बात पर बल देने के लिए रूप में परिवर्तन कर देता है।
जैसे, ‘खालिस’ के स्थान पर ‘निखालिस’ का प्रयोग या ‘फजूल’ के स्थान पर ‘बेफजूल’ का प्रयोग इसी बल देने के कारण होने लगा।
3.4.4. अज्ञान- मनुष्य के अज्ञान के कारण भी अनेक रूपों में परिवर्तन हो जाता है और धीरे-धीरे प्रयोग में आकर मान्यता प्राप्त कर लेता है। जैसे, ‘उपरोक्त’, ‘दरअसल में’, ‘सापेक्षिक’ इसी प्रकार के परिवर्तित रूप प्रयोग में आ गए हैं।
3.4.5. सादृश्य- एक प्रचलित रूप के सादृश्य के आधार पर दूसरे शब्द का भी रूपपरिवर्तन हो जाता है। उदाहरणार्थ, हिंदीं में बहुत से संस्कृत के पुल्लिंग शब्दों का प्रयोग अरबी-फारसी के सादृश्य पर स्त्रीलिंग में होने लगा है। जैसे, आत्मा, आय, आयु, गंध, जय आदि। ये सभी संस्कृत में पुल्लिंग हैं किंतु हिंदीं में अरबी-फारसी के स्त्रीलिंग शब्दों (रूह, आमद, उम्र, बू, फतह आदि) के सादृश्य पर स्त्रीलिंग में प्रयोग होते हैं।
(रूपपरिवर्तन के ये कारण अलग-अलग न होकर लगभग मिले जुले हैं। जैसे, सरलता या नवीनता, अज्ञानता या बल-ऐसे एक या एकाधिक कारण एक रूपपरिवर्तन में कारण बन सकते हैं। समझने की सुविधा के लिए ये वर्गीकरण किए गए हैं।)
अब तक हमने ‘पद’, ‘पदरचना’ और ‘रूपपरिवर्तन’ पर विचार किया। आगे ‘रूपिम’ के विषय में भी थोड़ी जानकारी प्राप्त कर लें।
4.रूपिम
हम ऊपर कह आए हैं कि ‘सार्थकता की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई ‘शब्द’ है। इन्हीं शब्दों में जब संबंधतत्व जुड़ता है अर्थात् जब वे वाक्य में प्रयुक्त होने की योग्यता धारण कर लेते हैं, तो उन्हें ‘पद’ कहते हैं।
रूपिम को समझने के लिए सबसे पहले हम हिंदी के इस वाक्य को देखें-‘गीता की पाठशाला में पढ़ाई होगी।’
इस वाक्य में पाँच पद हैं, जिन्हें सामान्यतः शब्द कह सकते हैं। लेकिन इन पाँच पदों को भी और छोटे खंडों में विभाजित किया जा सकता है। जैसे-‘गीता’, ‘क्-ई’, ‘पाठ’, ‘शाला’, ‘में’, ‘पढ़्-आई’, ‘हो-ग्-’,-ई’। अब इस वाक्य में हमें ये नौ खण्ड दिखाई दे रहे हैं। इन्हें सार्थकता की दृष्टि से और छोटा नहीं किया जा सकता।
यही ग्यारह रूपिम हैं। अर्थात् ‘वाक्य की लघुतम अर्थवान इकाई को रूपिम कहते हैं।’
4.1 रूपिम के भेद- प्रयोग के आधार पर रूपिम के निम्नांकित भेद होते हैं।
4.1.1. प्रयोग के आधार पर- रूपिमों का प्रयोग के आधार पर वर्गीकरण करने पर दो प्रकार दिखाई देते हैं-
(क) मुक्त रूपिम (Free Morpheme)– वाक्य में जिन रूपिमों का प्रयोग बिना किसी अन्य रूपिम की सहायता के मुक्त रूप से होता है, उन्हें मुक्त रूपिम कहते हैं।
जैसे, ‘मोहन’, ‘घर’ और ‘पुस्तक’ मुक्त रूपिम हैं, क्योंकि इनके प्रयोग में किसी अन्य रूपिम की सहायता नहीं ली गई है। ये स्वतंत्र रूप से प्रयोग में आते हैं। अतः इन्हें मुक्त रूपिम कहते हैं।
(ख) बद्ध रूपिम (Bound Morpheme)- वाक्य में जो रूपिम अकेले न आकर किसी न किसी शब्द के साथ जुड़कर प्रयोग में आते हैं, उन्हें बद्ध रूपिम कहते हैं।
जैसे, ‘लड़कों’ में ‘ओं’, और ‘एकता’ में ‘ता’ बद्ध रूपिम हैं; क्योंकि ये किसी भी वाक्य में बिना किसी रूपिम के जुड़े प्रयुक्त नहीं हो सकते हैं। अतः इन्हें ‘बद्ध रूपिम’ कहते हैं।
4.2 उपरूप (Allomorph)- एक रूपिम के कई समानार्थी रूप जब परिपूरक वितरण में प्रयुक्त हों, तो उन्हें उपरूप कहते हैं।
इन्हें ठीक से समझने के लिए निम्नांकित उदाहरण पर ध्यान देना समीचीन होगा-
अंग्रेजी में संज्ञा को बहुवचन बनाने के लिए – स् (s), ज़् (z), इज (es), इन (en), रिन (ren), शून्य (zero) का प्रयोग होता है। जैसे-
-स् (-s) Cats
-ज् (-z) Dogs
-इज् (-iz) Bushes
-अन् (-en) Oxen
-रन् (-ren) Children
-शून्य (-zero) Deer
ये सभी रूप समानार्थी हैं। ये सभी परिपूरक वितरण (Complementary distribution) में हैं। अर्थात् समानार्थी होने के बावजूद इनका प्रयोग और स्थान निश्चित है। एक ही जगह पर दूसरे या दूसरे की जगह पर तीसरे का प्रयोग नहीं हो सकता है। जैसे, Cats की जगह Cates या Eyes की जगह पर Eyen नहीं हो सकता है।
अतः कह सकते हैं कि सभी छह रूप अंग्रेजी भाषा में बहुवचन बनाने के लिए किसी एक ही (संकल्पनात्मक) रूपिम के ‘उपरूप ’ (Allomorph) हैं।
हिंदीं में भी अंग्रेजी की ही तरह बहुवचन बनाने के लिए एक ही रूपिम के अनेक ‘उपरूप ’ प्रचलित हैं। जैसे-
- -ओं माताओं
- -ो लड़को
- -यों कवियों
- -ए बेटे
- -एँ बहुएँ
- -याँ नदियाँ
- -ँ गुडियाँ
- -शून्य (0) हाथी
ये सभी आठ रूप समानार्थी हैं। ये सभी परिपूरक वितरण (Complementary distribution) में हैं अर्थात् समानार्थी होने के बावजूद इनका प्रयोग और स्थान निश्चित है। एक ही जगह पर दूसरे या दूसरे की जगह पर तीसरे का प्रयोग नहीं हो सकता है। जैसे-‘माताओं’ की जगह पर ‘मातों’ या ‘लडकों’ की जगह पर ‘लड़कयों’ का प्रयोग नहीं हो सकता है।
अतः पुनः कह सकते हैं कि ये सभी आठ रूप हिंदी भाषा में बहुवचन बनाने के लिए किसी एक ही (संकल्पनात्मक) रूपिम के ‘उपरूप ’ (Allomorph) हैं।
4.3 रूपिमों के मिलने पर उनमें होने वाले स्वनिमिक परिवर्तन के अध्ययन के लिए रूपस्वनिमविज्ञान (Morphophonemics) नामक एक अलग शाखा का विकास हुआ है। यह संस्कृत-हिंदीं की संधि के निकट है, किंतु संधि में उन परिवर्तनों को लिया जाता है जिनमें दो रूपिमों के मिलने से एक के अंत या दूसरे के आरंभ या दोनों में परिवर्तन होता है।
जैसे-
विद्या+आलय = विद्यालय
रमा+ईश = रमेश
उत्+गम = उद्गम
लेकिन हम देखते हैं कि दो रूपिमों के मिलने पर उपर्युक्त के साथ अन्य स्थानों पर भी परिवर्तन हो जाता है।
जैसे-
घोड़ा+दौड़ = घुड़दौड़
ठाकुर+आई = ठकुराई
इन सारे परिवर्तनों का अध्ययन रूपस्वनिमविज्ञान में होता है। अंतरराष्ट्रीय भाषाविज्ञान के क्षेत्र में ‘संधि’ का प्रयोग भी इसी के अंतर्गत हो रहा है।
4.3.1 रूपस्वनिमिक परिवर्तन (Morphophonemic change)– वस्तुतः रूपस्वनिमिक परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं-
(क) बाह्य- जहाँ रूपिम के अंत या आदि अर्थात् उनके बाहरी स्वनिमों में परिवर्तन होता है।
जैसे-
विद्या+आलय = विद्यालय
उत्+गम = उद्गम
रमा+ईश = रमेश
(‘संधि’ रूपों में ये परिवर्तन दिखाई देते हैं)
(ख) आभ्यंतर- जहाँ संधि स्थलों के अतिरिक्त शब्द के भीतर परिवर्तन होता है।
जैसे- घोड़ा+दौड़ = घुड़दौड़
समाज + इक = सामाजिक
लोटा + इया = लुटिया
बूढ़ा + पा = बुढ़ापा
4.3.2 रूपस्वनिमिक परिवर्तन को नियंत्रित करने वाले कारक तत्वों के आधार पर भी उनके दो भेद किए जा सकते हैं-
(क) स्वनप्रक्रियात्मक रूप से प्रतिबंधित रूपस्वनिमिक परिवर्तन (Phonologically Conditioned)-
अति + अधिक =अत्यधिक
उत् + भव = उद्भव
सत् + चरित्र = सच्चरित्र
चित् + मय = चिन्मय
उपर्युक्त उदाहरणों में क्रमशः ‘अति’ में ‘ई’ का ‘अ’ (स्वर) के पूर्व आने पर ‘य’ में परिवर्तन, ‘उत्’ के ‘त्’ का संघोष व्यंजन ‘भ’ के पूर्व आने पर ‘द’ में परिवर्तन, ‘सत्’ के ‘त्’ का ‘च्’ के पूर्व आने पर ‘च’ में परिवर्तन (समीकरण) तथा ‘चित्’ के ‘त्’ का ‘म’ (नासिक्य) के पूर्व आने पर ‘न्’ में परिवर्तन स्वनप्रक्रियात्मक परिवेश पर आधारित है।
(ख) रूपप्रक्रियात्मक रूप से प्रतिबंधित रूपस्वनिमिक परिवर्तन (Morphologically Conditioned)-
जाला + बहुवचन प्रत्यय ए – जाले
माला + बहुवचन प्रत्यय एँ – मालाएँ
मकान + बहुवचन प्रत्यय 0 – मकान
दुकान + बहुवचन प्रत्यय एँ – दुकानें
उपर्युक्त उदाहरणों में दो रूपिमों जाला, माला के अंतिम स्वनिम आ तथा अंतिम दो रूपिमों मकान, और दुकान के अंतिम स्वनिम न् होने पर भी बहुवचन रूपिम (प्रत्यय) क्रमशः ‘–ए’ और ‘–एँ’ हैं तथा अंतिम दो उदाहरणों में बहुवचन रूपिम प्रत्यय क्रमशः ‘-0’ और ‘एँ’ हैं। उपर्युक्त रूपस्वनिमिक परिवर्तन स्वनप्रक्रियात्मक परिवेश के आधार पर नहीं, अपितु रूपप्रक्रियात्मक परिवेश द्वारा नियंत्रित है क्योंकि प्रथम और तृतीय रूपिम पुल्लिंगी शब्द हैं और द्वितीय और चतुर्थ रूपिम स्त्रीलिंगी शब्द हैं।
4.3.3 रूपस्वनिमविज्ञान के अंतर्गत रूपस्वनिम (Morphophoneme) की संकल्पना को भी समझना आवश्यक है। यदि स्वनिमविज्ञान और रूपिमविज्ञान के बीच के भाषावैज्ञानिक स्तर का अध्ययन माने तो रूपस्वनिम रूपस्वनिमविज्ञान के स्तर की इकाई है। रूपस्वनिम वस्तुतः स्वनिमों का वह वर्ग है जो किसी रूपप्रक्रियात्मक या व्याकरणिक परिवेश में वैकल्पिक रूप से प्रयुक्त होते हैं। अंग्रेजी में प्रयुक्त निम्नलिखित संज्ञाओं के एकवचन और बहुवचन रूपों को देखें-
Knife – knives
Wife – Wives
Life _ Lives
उपर्युक्त शब्दों में बद्ध बहुवचन रूपिम के पूर्व मुक्त रूपिमों knife, wife और life के knive, wive और live उपरूप प्रयुक्त होते हैं। अतः बहुवचन रूपिम के पूर्व उपरूपों में मुक्त रूपिम में /f/ स्वनिम के स्थान पर /v/ स्वनिम का विकल्पन होता है। जिसे /F/ रूपस्वनिम द्वारा प्रकट किया जा सकता है जो एकवचन रूप में /f/ और बहुवचन रूप में /v/के रूप में प्रयुक्त होता है।
इस संदर्भ में हिंदी के निम्न उदाहरण देखें-
सङ्काय, सङ्ख्या, सङ्गीत, सङ्घर्ष
सञ्चय, सञ्जय
सन्ताप, सन्देश, सन्निधि
सम्प्रति, सम्बल
संयम, संरक्षण, संलग्न, संवार
संशय, संसर्ग, संहार
उपसर्ग में तृतीय स्वनिम के रूप में क्रमशः ङ, ञ, न्, म् तथा अनुस्वार का विकल्पन होता है। रूपस्वनिम {ं} के साथ {सं} इस बद्ध रूपिम में रूपस्वनिमिक परिवर्तन के कारण होने वाले सभी स्वनिमिक परिवर्तनों का प्रतिनिधित्व करना है।
- निष्कर्ष
- शब्द और पद के वैज्ञानिक अध्ययन को रूपविज्ञान कहते हैं।
- शब्द को जब वाक्य में प्रयुक्त होने योग्य बनाया जाता है तो उसे पद कहते हैं। जैसे- लड़का, कुत्ता, डंडा, मारना ये शब्द हैं।
- किंतु इनसे वाक्य नहीं बनता है। वाक्य बनाने के लिए इन शब्दों में कुछ जोड़ना पड़ता है। जैसे लड़ने ने कुत्ते को डंडे से मारा।
- अर्थात् लड़का शब्द हैं किंतु ‘लड़के ने’ रूप है, क्योंकि इसमें ‘-ए’ तथा परसर्ग ‘ने’ जुड़ा है।
- वाक्य में प्रयुक्त होने की योग्यता रखनेवाले शब्द को पद या ‘रूप’ कहते हैं।
- ऊपर के वाक्य में ‘राम’ शब्द को अर्थतत्व और ‘-ए’ तथा ‘ने’ को संबंधतत्व कहते हैं।
- अर्थतत्व में संबंधतत्व के जुड़ने से ‘पद’ बनता है अर्थात् शब्द (प्रातिपदिक/धातु) को अर्थतत्व और इससे जुड़ने वाले प्रत्यय/परसर्ग को संबंधतत्व कहते हैं और इनके योग (अर्थतत्व +संबंधतत्व) से ‘पद’ या ‘रूप’ बनते हैं।
पदरचना की पद्धतियाँ- अर्थतत्व में संबंधतत्व के योग से पद या रूप बनता है। ये संबंधतत्व मुख्यतः छः प्रकार से जोड़े जाते है- शून्य संबंधतत्व (दो मकान), संबंधतत्व योग (अज्ञान, पढ़वा, उसने), ध्वनिप्रतिस्थापन (दाशरथि, बालिका), आवृत्ति (बुबोध, ननाद), बलाघात (करबऽ, कऽरब), आदेश (दृश्य – पश्य)।
रूपपरिवर्तन- भाषा के घटकों में परिवर्तन ही उसका विकास है। रूपपरिवर्तन को रूपविकास भी कहते हैं। इसके प्रमुख कारण हैं- सरलता (पूर्वीय के लिए पाश्चात्य के आधार ‘पौर्वात्य’ स्वीकार करना), नवीनता (बहुवचन के लिए ‘हम’ में ‘लोग’ जोड़कर ‘हमलोग’ बना लेना), बल (फ़जूल पर जोर देने के लिए ‘बेफ़जूल’ बनाना), अज्ञान (उपरोक्त) सादृश्य (हिंदीं में अरबी-फारसी के सादृश्य पर आत्मा, आय आदि को स्त्रीलिंग मानना)।
रूपिम- इस वाक्य के आधार पर रूपिम को समझा जा सकता है।
गीता की पाठशाला में पढ़ाई होगी। इसमें ‘गीता’/’क्-‘//’-ई’/‘पाठ’/‘शाला’/‘में’/‘पढ़्’/‘-आई’/‘हो’/‘ग्-//-ई’/-खंड दिखाई देते हैं। यही ग्यारह रूपिम हैं।
अर्थात् ‘वाक्य की लघुतम अर्थवान इकाई को रूपिम कहते हैं।’
प्रयोग के आधार पर ‘मोहन घर में पुस्तक पढ़ता है।’ वाक्य में स्वतंत्र ढ़ंग से प्रयुक्त होने वाले मुक्त रूपिम ‘मोहन’, ‘घर’, में’, ‘पुस्तक’ ‘पढ़’और ‘है’ है। क्योंकि ये बिना किसी के योग के स्वतंत्र ढ़ंग से प्रयुक्त होते हैं।
इसी तरह ऐसे रूपिम जो बिना किसी रूप से जुड़े प्रयुक्त नहीं हो सकते, उन्हें बद्ध रूपिम कहते हैं जैसे -‘लड़कों की एकता प्रशंसनीय है’ इस वाक्य में ‘ओं/ता/नीय बद्ध रूपिम हैं।
उपरूप – एक रूपिम के कई समानार्थी रूप जब परिपूरक वितरण में प्रयुक्त हों, तो उन्हें उपरूप कहते हैं। जैसे, हिंदीं में बहुवचन बनाने के लिए एक ही रूपिम के अनेक उपरूप प्रचलित हैं- ओं (माताओं), -ों (लड़कों), -यों (कवियों), -ए (बेटे), -एँ (बहुएँ), -याँ (नदियाँ), -ँ (गुडि़याँ), शून्य (0) हाथी।
रूपस्वनिमविज्ञान- यह रूपिमों के मिलने पर होने वाली स्वनिमिक परिवर्तन का अध्ययन करने वाली शाखा है। रूपस्वनिमिक परिवर्तन हिंदीं/संस्कृत की ‘संधि’ के निकट का पद है। संधि में दो रूपिमों या पदों के मिलने से एक के अंत या दूसरे के आरंभ या दोनों में परिवर्तन होता है किंतु रूपस्वनिमिक परिवर्तन में उक्त के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी परिवर्तन हो जाता है। जैसे-घोड़ा+दौड़ =घुड़दौड़।
रूपस्वनिमिक परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं-
(क) बाह्य– विद्या+आलय = विद्यालय (संधि रूपों जैसा) और
(ख) आभ्यन्तर- घोड़ा+दौड़ = घुड़दौड़
रूपस्वनिमिक परिवर्तनों को नियंत्रित करने वाले तत्वों के आधार पर इनके दो भेद हैं-
(क) स्वनप्रक्रियात्मक रूप से नियंत्रित- सूर्य + उदय = सूर्योदय
(ख) रूपप्रक्रियात्मक रूप से नियंत्रित –दुकान+एँ= दुकानें
रूपस्वनिम किसी व्याकरणिक परिवेश में विकल्पित होने वाले स्वनिमों के वर्ग का प्रतिनिधित्व करना है। जैसे- अनुस्वार (ं) सड़्; सञ्, सन्, सम्, -सं, में ङ्, ञ्, न्, म् और अनुस्वार का प्रतिनिधित्व करता है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- गुप्त, मोतीलाल; भटनागर, रघुवीर प्रसाद (सं.). (1974). आधुनिक भाषाविज्ञान की भूमिका. जयपुर : राजस्थान हिंदीं ग्रंथ अकादमी
- तिवारी, भोलानाथ. (1973). भाषाविज्ञान. इलाहाबाद : किताब महल
- द्विवेदी, कपिलदेव. (1978). भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र. वाराणसी : विश्वविद्यालय प्रकाशन
- शर्मा, आचार्य देवेंद्रनाथ. (1983). भाषाविज्ञान की भूमिका. नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन
- सक्सेना, बाबूराम. (2013). सामान्य भाषाविज्ञान. प्रयाग : हिंदीं साहित्य सम्मेलन
- सक्सेना, द्वारिका प्रसाद. (1979). भाषाविज्ञान के सिद्धान्त और हिंदीं भाषा. नई दिल्ली : मीनाक्षी प्रकाशन
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