5 हिन्दी आलोचना में भक्ति काव्य का मूल्यांकन

अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • हिन्दी आलोचना और भक्ति-काव्य के सम्बन्ध को समझ सकेंगे।
  • हिन्दी आलोचना में भक्ति-काव्य सम्बन्धी विचारों से परिचित हो सकेंगे।
  • विभिन्‍न आलोचकों की भक्ति-काव्य सम्बन्धी अवधारणाओं की तुलना कर सकेंगे।
  • भक्तिकाल का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने के विभिन्‍न प्रतिमानों को समझ पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

   भक्ति-काव्य हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य निधि है। यह हिन्दी आलोचना का भी सर्वाधिक चिन्तनशील विषय-क्षेत्र रहा है। इसकी व्यापक और सुदीर्घ लोकप्रियता ने हिन्दी आलोचकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। आलोचकों को यह अपने भीतर मौजूद कालजयी मूल्यों और साहित्यिक तत्त्वों के अन्वेषण के लिए आमन्त्रण और चुनौती देता रहा है। हिन्दी के प्रमुख आलोचकों ने उसके स्वरूप की पड़ताल के दौरान आलोचना के प्रतिमान भी विकसित किए हैं। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि हिन्दी आलोचना में भक्ति-काव्य का मूल्यांकन किस रूप में किया गया है? विभिन्‍न आलोचकों के भक्ति काव्य के मूल्यांकन का आधार क्या है? भक्ति काव्य सम्बन्धी क्या निष्कर्ष सामने आए हैं? और इसने भक्ति काव्य को समझने के तरीके को कैसे प्रभावित किया है? इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर ‘हिन्दी आलोचना में भक्ति-काव्य का मूल्यांकन’ को हम पढ़-समझ सकते हैं।

  1. आरम्भिक हिन्दी आलोचना में भक्ति-काव्य का स्वरूप

   हिन्दी आलोचना में भक्ति-काव्य का स्वरूप समझने और उसका मूल्यांकन करने का इतिहास हिन्दी आलोचना जितना ही पुराना है। आरम्भिक प्रयासों के रूप में मध्ययुगीन भक्तों, कवियों, टीकाकारों की उक्तियां उल्लेखनीय हैं। यद्यपि ये आलोचना के वर्तमान स्वरूप के अनुरूप नहीं हैं, लेकिन भक्ति के कई आलोचकों ने इन्हें अपनी आलोचना में महत्त्वपूर्ण माना है। इसके अलावा ग्रियर्सन जैसे इतिहासकारों के लेख भी महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। हिन्दी आलोचना में भक्तिकाल का विवेचन भक्तिकाल से ही प्रारम्भ हो गया था। इन ग्रन्थों में भक्तमाल, चौरासी वैष्णवन की वार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता प्रमुख हैं। इनमें भक्ति विवरण के साथ उनका सारगर्भित मूल्यांकन भी मिलता है। भक्तमाल में नाभादास ने कबीर, सूर आदि के गुण-दोष का विश्‍लेषण किया है। इन भक्त रचनाकारों के जीवन और काव्य की यहाँ आलोचनात्मक एवं विवेकपूर्ण समीक्षा है। कबीर के बारे में उनका यह छप्पय प्रसिद्ध है –

 

भक्ति विमुख जो धर्म सो अधरम कर गायौ।

जोग, जग्य, व्रत, दान, भजन, बिनु तुच्छ दिखायो।।

हिन्दू तुरक प्रमान, रमैनी, शबदी, साखी।

पक्षपात नहीं बचन, सबही के हित की भाखी।।

आरूढ़ दसा हे जगत पर, मुख देखी नाहिन भनी।

कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट दरसनी।।

 

 (प्रकाश नारायण दीक्षित (सं), नाभादास कृत भक्तमाल:एक अध्ययन, प्रथम संस्करण, सन् 1961 ई., साहित्य भवन, इलाहाबाद, पृ. 69)

अर्थात कबीर ने भक्ति से विमुख धर्म को अधर्म कहा। भजन के बिना योग, यज्ञ, व्रत और दान को तुच्छ बताया। हिन्दू और तुर्क में भेद करने के बजाय पक्षपात रहित रहने को कहा और  सबका हित करने वाली साखी, सबद, रमैनी के रूप में अपना बचन सुनाया। किसी की मुँह देखी नहीं, कही, चाहे वह कितना भी बड़ा हो। वर्णाश्रम और षड्दर्शन की मर्यादा नहीं रखी। अर्थात नाभादास को कबीर की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ चिह्नित करने में पर्याप्‍त सफलता मिली है। भक्तमाल में अष्टछाप के प्रमुख कवियों सूरदास, नन्ददास, चतुर्भुजदास आदि का भी वर्णन किया गया है। इस तरह वार्ता साहित्य में भी भक्तिकाल के कवियों के जीवन संस्मरण और विश्‍लेषण मिलता है। हालांकि इन रचनाओं में कई अतिशयोक्तियाँ और दन्त कथाएँ भी मिलती है। इनको हटा दें, तो यह तो कहा ही जा सकता है कि इन ग्रन्थों से उस काल में इन कवियों के होने के प्रमाण तो मिलते ही हैं। यह इन ग्रन्थों के अलावा उस समय की लोक कथाओं और मौखिक जनश्रुतियों में भी इस काल के रचनाकारों के बारे में हमें जानकारी मिलती है।

सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रन्थों में भक्ति-काव्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन किया गया है। सबसे पहले ग्रियर्सन ने भक्ति-काव्य के व्यापक और गहरे प्रभाव को अपने इतिहास-ग्रन्थ में रेखांकित किया। वे लिखते हैं कि “हम अपने को एक ऐसे धार्मिक आन्दोलन के सामने पाते हैं, जो उन सब आन्दोलनों से कहीं अधिक विशाल है जिन्हें भारतवर्ष ने कभी देखा है, यहाँ तक कि बौद्ध धर्म के आन्दोलन से भी अधिक विशाल है, क्योंकि उसका प्रभाव आज भी वर्तमान है। उस युग में धर्म ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का विषय हो गया था।”( आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1987 ई., पृ. 52) उन्होंने भक्ति आन्दोलन की तुलना युरोप के रिनेसाँ से की है। इसके अलावा ग्रियर्सन ने तुलसी-काव्य का मूल्यांकन एक आलोचनात्मक निबन्ध में किया है। रामचरितमानस की व्यापक लोकप्रियता के बारे में उन्होंने लिखा है कि “राजमहल से झोपड़ी तक, यह ग्रन्थ प्रत्येक हाथ में है और हिन्दू समाज के छोटे-बड़े, धनी-निर्धन, बालक-वृद्ध चाहे जो हों, प्रत्येक वर्ग द्वारा समान रूप से पढ़ा-सुना और समझा जाता है।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1987 ई., पृ. 52) उन्होंने धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि के साथ-साथ साहित्यिक दृष्टि से भी मानस का महत्त्व रेखांकित किया है। तुलसी के चरित्र-निर्माण की विशेषता बताते हुए उन्होंने लिखा है कि “तुलसी के खलपात्र भी केवल कालिमा से पुती तस्वीरें नहीं हैं। प्रत्येक की अपनी चरित्रगत विशिष्टता है और इनमें से कोई ऐसा नहीं है, जिसमें दोष की कमी को पूरा करने वाला कोई गुण न हो।”( जार्ज ग्रियर्सन, दि मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, अनुवाद- किशोरीलाल गुप्‍त, हिन्दी साहित्य का नया इतिहास, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, 1961, पृ. 141)

 

इनके पश्‍चात मिश्र बन्धुओं ने अपने ‘हिन्दी नवरत्‍न’ में तीन भक्त कवियों कबीर, सूर और तुलसी को शामिल कर भक्ति-काव्य का महत्त्व बताया। हिन्दी नवरत्‍न के अलावा मिश्रबन्धुओं ने मिश्रबन्धु विनोद में भक्तिकाल के कवियों का समग्र परिचय दिया है। हालांकि उन्होंने इन कवियों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन नहीं किया। उनका सारा विवेचन प्रशंसात्मक है। वे कविता के महत्त्व के कारणों का परिचय देने के बजाय उस पर दाद देते हुए प्रतीत होते हैं। (विश्‍वनाथ त्रिपाठी, हिन्दी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पुनर्मुद्रित 1995,पृ. 32-33)

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल की श्रेष्ठता को स्थापित किया। इनके पश्‍चात आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने भक्तिकाल की गहरी छानबीन की। इससे भक्तिकाल के मूल्यांकन को नई दिशा प्राप्‍त हुई।

  1. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

   आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति-काव्य के मूल्यांकन में उसकी साहित्यिक विशेषताओं तथा महत्त्व को उजागर करने के साथ, उसके कारण, स्वरूप, राजनीतिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक तथा धार्मिक स्थितियों पर भी प्रकाश डाला है। सन् 1929 में उनका हिन्दी  साहित्य का इतिहास प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी भक्ति-काव्य सम्बन्धी स्थापनाएँ सार रूप में संग्रहीत हैं। इसके अलावा गोस्वामी तुलसीदास ग्रन्थ में उन्होंने भक्तिकाव्य में तुलसी को सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में स्थापित किया है। इसके अलावा शुक्ल जी ने जायसी ग्रन्थावली का सम्पादन किया तथा उसकी एक लम्बी भूमिका लिखी। उन्होंने सूरदास की भ्रमरगीतसार पुस्तक का संकलन-सम्पादन किया तथा इसकी एक सारगर्भित भूमिका लिखी। इनसे इन दोनों महाकवियों का महत्त्व स्थापित हुआ। इसके अतिरिक्त चिन्तामणि के निबन्धों में प्रसंगवश भक्ति-काव्य के अनेक पक्ष उजागर हुए हैं। हिन्दी साहित्य का इतिहास में भक्ति-काव्य के उदय का कारण बताते हुए शुक्ल जी ने पहली बार भक्ति-काव्य का उसके समय और समाज से सम्बन्ध दिखाया है। भक्ति-काव्य के उदय के राजनीतिक कारण के रूप में इस्लाम के आगमन से पराजित हिन्दू जाति की पराजय और निराशा से मुक्ति की आकांक्षा के रूप में देखा है। उन्होंने लिखा कि “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मन्दिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे।… अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 39) उन्होंने दिखाया कि राजनीतिक के साथ ही धार्मिक स्थिति भी भक्ति काव्य के उदय की ज़मीन तैयार कर चुकी थी। इन्हीं स्थितियों में दक्षिण से आई भक्ति को उत्तर भारत में पूरा फैलने का अवकाश मिला।

भक्ति-काव्य के सम्यक् अध्ययन और मूल्यांकन को शुक्ल जी ने वर्गीकरण के जरिए सहज बोधगम्य बना दिया। उन्होंने सर्वप्रथम भक्ति-काव्य को दो हिस्सों निर्गुण और सगुण में बाँटा। पुनः निर्गुण के दो हिस्से किए ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी। इसी तरह सगुण के दो हिस्से किए राम-भक्ति शाखा और कृष्ण-भक्ति शाखा। इस तरह भक्ति-काव्य सहज बोध के लिए उपयुक्त बन गया।

 

शुक्ल जी ने भक्ति-काव्य में राम-काव्य को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया है। उन्होंने भक्ति के तीन अंग – कर्म, धर्म और ज्ञान माने हैं। राम-काव्य इसीलिए सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि उसमें तीनों अंगों का पूर्ण विकास मिलता है। इस प्रतिमान पर उन्हें निर्गुण काव्य सीमित महत्त्व का लगा। उन्होंने निर्गुण काव्य को कर्म से दूर कर देने वाला माना। उन्हें सन्त काव्य केवल कोरे ज्ञान पर और सूफी काव्य केवल प्रेम पर बल देता प्रतीत हुआ। सन्त काव्य में मौजूद प्रेम-तत्त्व को उन्होंने सूफी प्रभाव से आया हुआ माना। उन्होंने लिखा कि “कबीर तथा अन्य निर्गुणपन्थी सन्तों के द्वारा अन्तस्साधना में रागात्मिका ‘भक्ति’ और ‘ज्ञान’ का योग तो हुआ, पर ‘कर्म’ की दशा वही रही जो नाथपन्थियों के यहाँ थी। इन सन्तों के ईश्‍वर ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप ही रहे, धर्मस्वरूप न हो पाए।”( वही, पृ. 42) इस राय के बावजूद आचार्य शुक्ल कबीर-काव्य को निम्‍नवर्गीय जनता को, भक्ति शुष्कता और आत्मदीनता के भाव से उबारने के कारण महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उन्होंने लिखा कि “इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सम्भाला जो नाथपन्थियों के प्रभाव से प्रेम-भाव और भक्ति-रस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्‍न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।”( वही, पृ. 42)

निर्गुण काव्य की ज्ञानाश्रयी शाखा की ही तरह प्रेममार्गी शाखा भी साहित्यिक और सामाजिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। शुक्ल जी ने उसे प्रेम-सूत्र के द्वारा हिन्दू-मुसलमान के बीच अपरिचय और अलगाव को मिटाने वाले रूप में देखा। वे उसकी सामासिक संस्कृति के निर्माण में निभाई गई भूमिका को रेखांकित करते हुए लिखते हैं “कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए, उन सामान्य जीवन-दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्य-मात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा।”( आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 66-67) जायसी को तुलसी और सूर के समकक्ष स्थान देना उनके सूफी काव्य के महत्त्व को पहचानने का प्रमाण है। शुक्ल जी से पहले मिश्रबन्धुओं ने नवरत्‍न में जायसी को शामिल नहीं किया था। वे बड़े कवि के रूप में सबसे पहले शुक्ल जी के द्वारा ही पहचाने गए।

शुक्ल जी सगुण काव्य को निर्गुण की तुलना में जनता का ज्यादा हित करने वाला मानते हैं। कृष्ण काव्य ने भक्ति के निराले आनन्द-लोक की सृष्टि की। उस लोक में सांसारिक विधि निषेध, दुःख-कष्ट, जरा-व्याधि नहीं है। वह सिद्धावस्था का काव्य है। वह यौवन और सौन्दर्य का वासनामुक्त आनन्द-लोक रचने के कारण श्रेष्ठ है। सूरदास इसके प्रतिनिधि रचनाकार हैं। वे तुलसी जैसे सर्वांगपूर्ण काव्य के रचयिता तो नहीं, मगर अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं। आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि “यद्यपि तुलसी के समान सूर का काव्य-क्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि उसमें जीवन की भिन्‍न-भिन्‍न दशा का समावेश हो, पर जिस परिमित पुण्य-भूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया, उसका कोई कोना अछूता न छूटा। शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक इनकी दृष्टि पहुँची, वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।…बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भण्डार और कहीं नहीं।” (वही, पृ.91-92) आचार्य शुक्ल जी तुलसी को सर्वश्रेष्ठ मानने पर भी सूरदास को नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा में सबसे बढ़कर बताते हैं।

 

राम-काव्य को उन्होंने सर्वांगपूर्ण कहा है। वह कर्म, धर्म और ज्ञान – तीनों को साथ लेकर चलने वाला है। उसमें विराट् समन्वय और लोकमंगल की भावना अन्तर्निहित है। तुलसी का काव्य उसका चरम उत्कर्ष है। शुक्ल जी ने विषय और शिल्प दोनों स्तरों पर तुलसी-काव्य की सर्वांगपूर्णता दिखाई है। तुलसी की कथ्यगत सम्पूर्णता का उल्लेख कर उनकी सर्वश्रेष्ठता घोषित करते हुए शुक्ल जी लिखते हैं कि “भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं, तो इन्हीं महानुभाव को। और कवि जीवन का कोई एक पक्ष लेकर चले हैं। जैसे वीर-काल के कवि उत्साह को; भक्ति-काल के दूसरे कवि प्रेम और ज्ञान को; अलंकार-काल के कवि दाम्पत्य प्रणय या शृंगार को। पर इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों और व्यवहारों तक है।”( वही, पृ. 114)

आचार्य शुक्ल के अनुसार रचना शैली की दृष्टि से भी तुलसी सर्वश्रेष्ठ हैं। उन्होंने मध्यकाल के हिन्दी प्रदेश की सभी काव्य-भाषाओं में और सभी शैलियों में श्रेष्ठ रचनाएँ की हैं। वे लिखते हैं कि “काव्य-भाषा के दो रूप और रचना की पाँच मुख्य शैलियाँ साहित्य क्षेत्र में गोस्वामी जी को मिलीं। तुलसीदास जी के रचना-विधान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से सबके सौन्दर्य की पराकाष्ठा अपनी दिव्य-वाणी में दिखाकर साहित्य क्षेत्र में प्रथम पद के अधिकारी हुए।”( वही, पृ. 91)

भक्ति-काव्य का मूल्यांकन करने के लिए आचार्य शुक्ल ने अपने नए प्रतिमान विकसित किए थे। ये प्रतिमान रामचरितमानस सहित तुलसी-काव्य से ही निर्मित हुए थे। इस केन्द्रीय दृष्टि के कारण उन्हें अनेक सफलताएँ मिलीं, लेकिन निर्गुण काव्य के मूल्यांकन में थोड़ी चूक हो गई, जिसे बाद के आलोचकों ने दुरुस्त किया।

  1. डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल

   सन् 1933 में डॉ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल की पुस्तक हिन्दी काव्य की निर्गुण धारा प्रकाशित हुई। यह मूलतः उनका शोध-ग्रन्थ है। इसने सर्वप्रथम निर्गुण भक्ति-काव्य सम्बन्धी शुक्ल जी की स्थापनाओं का खण्डन किया और उसका महत्त्व स्थापित किया गया है। शुक्ल जी ने लिखा था कि निर्गुण सन्त जनता को कर्म-क्षेत्र से हटाने में लगे थे। बड़थ्वाल ने सन्तों को कृषि और व्यवसाय से जुड़ा हुआ बताया। उन्होंने निर्गुण काव्य को समाज को दुरुस्त करने वाले काव्य के रूप में देखा, न कि तोड़ने वाले काव्य के रूप में। ‘सन्त’ शीर्षक लेख में उन्होंने लिखा कि “समाज की शृंखला को सन्त तोड़ना नहीं चाहता। समाज में प्रचलित अन्यायों और बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाने में वह बेशक नहीं हिचकता। विशेषकर ऐसे अवसर पर जब युग की आवश्यकताओं को देखते हुए सामाजिक नियम अधूरे और निकम्मे पड़ जाते हैं, उस समय वह समाज के नियमों को आवश्यकता के अनुकूल ढालने में सहायता करता है। किन्तु वह समाज को विशृंखल करना बिल्कुल नहीं चाहता।”

बड़थ्वाल ने सगुण और निर्गुण को बिल्कुल अलग रखकर देखने को गलत बताया। निर्गुण काव्य को श्रम के सौन्दर्य से पूर्ण और समाज की जाति और धर्म सम्बन्धी भेद को मिटाने वाले काव्य के रूप में देखना उनके मूल्यांकन की खासियत है। इसी तरह आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने सन्त काव्य और विशेषतः कबीर और दादू की रचनाओं का महत्त्व स्थापित किया।

  1. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

    भक्ति-काव्य की निर्गुण शाखा का महत्त्व प्रतिष्ठित करने का श्रेय आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी को ही जाता है। उन्होंने कबीर की रचनाओं को अपने आलोचनात्मक प्रतिमानों का आधार बनाया। उनकी तीन पुस्तकें मध्यकालीन धर्म साधना, कबीर और हिन्दी साहित्य की भूमिका भक्ति-काव्य सम्बन्धी उनके मूल्यांकन को समझने के लिए बहुत उपयोगी हैं। इनका सार उन्होंने अपने छात्रोपयोगी इतिहास पुस्तक हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास में संगृहीत कर दिया है। भारत की धर्म और काव्य-परम्परा का गहन अन्वेषण कर उन्होंने साबित किया कि कबीर किसी विदेशी धर्म दर्शन को अपनाकर नहीं चले थे, बल्कि उनकी काव्य-परम्परा का मूल भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में है। उन्होंने दिखाया कि निर्गुण काव्य परम्परा सगुण की तुलना में अधिक प्राचीन और व्यापक भारतीय परम्परा है। परम्परा को गहराई से देख पाने के कारण ही उन्होंने भक्ति-काव्य को इस्लाम के आगमन की प्रतिक्रिया में पराजित हिन्दू जाति की देन माने जाने का प्रतिवाद किया। उसका महत्त्व घोषित करते हुए उन्होंने लिखा कि “मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं रहा हूँ, लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।”( आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1987 ई, पृ. 15-16) आचार्य द्विवेदी ने भक्ति-काव्य को शास्‍त्र निर्देश के बजाय लोकचिन्ता के कोण से देखने का मार्ग चुना। उन्होंने लिखा है कि “मतों, आचार्यो, सम्प्रदायों और दार्शनिक चिन्ताओं के मानदण्ड से लोक-चिन्ता को नहीं मापना चाहता, बल्कि लोक-चिन्ता के सापेक्ष में उन्हें देखने की सिफारिश कर रहा हूँ।”(वही, पृ. 20) भक्ति-काव्य के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से सम्बन्ध की पड़ताल करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि सन्त-काव्य सामाजिक स्थितियों के कारण आमजनों में पैदा हुए असन्तोष को स्वर देने वाला काव्य है। मध्यकालीन धर्म साधना में वे लिखते हैं – “मध्यकाल का सन्त-साहित्य प्रधान रूप से धार्मिक साहित्य है, परन्तु उसका धार्मिक रूप साधारण जनता के लिए लिखा गया है। इस विषय में तो किसी को मतभेद नहीं होगा कि इस साहित्य में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों की आलोचना की गई है। दीर्घकाल से प्रचलित धार्मिक विश्वासों, सामाजिक और वैयक्तिक आचरणों के मान तथा विभिन्‍न सम्प्रदायों द्वारा स्वीकार सिद्धान्तों पर या तो आक्रमण किया गया या उसके सम्बन्ध में सन्देह प्रकट किया गया है। यह उन विभिन्‍न सन्तों के तीव्र असन्तोष का फल था जो उन्हें सामाजिक परिस्थितियों के कारण अनुभूत हो रहा था।”(आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, मध्यकालीन धर्म साधना, साहित्य भवन, इलाहाबाद, तृतीय संस्करण, सन् 1961, पृ. 84) निर्गुण साहित्य के साथ ही सगुण साहित्य को भी आचार्य द्विवेदी ने परम्परा से जोड़कर देखा। सगुण-निर्गुण में से एक की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करने के बजाय उन्होंने दोनों की विशेषताओं का सहृदयतापूर्वक उद्घाटन किया। उन्होंने दोनों के समान सूत्रों की तलाश की और उसके समान सार के रूप में प्रेम, भक्ति और लोकमंगल-कामना की पहचान की है। आचार्य द्विवेदी लिखते हैं “इस सम्पूर्ण साहित्य के मूल में यह है कि भक्त का भगवान के साथ एक व्यक्तिगत सम्बन्ध है। भगवान या ईश्‍वर इन भक्तों की दृष्टि में कोई शक्ति या सत्तामात्र नहीं है, बल्कि एक सर्वशक्तिमान व्यक्ति है, जो कृपा कर सकता है, प्रेम कर सकता है, उद्धार कर सकता है, अवतार ले सकता है। निर्गुण मत के भक्त हों या सगुण मत के, भगवान के साथ उन्होंने कोई-न-कोई अपना सम्बन्ध पाया है।”(आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिन्दी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन-नई दिल्ली, सन् 1987, पृ. 85) लौकिक सम्बन्ध द्वारा अलौकिक प्रेम की चाह भक्ति-काव्य की बहुत बड़ी विशेषता है। यह भक्त को भगवान के समकक्ष बना देती है।

 

आचार्य द्विवेदी भक्ति-काव्य को अपने दौर की असुन्दर स्थितियों से मुक्ति की आकांक्षा के रूप में देखते हैं। साथ ही वे उसकी सीमाओं की ओर भी संकेत करते हैं। भक्ति-काव्य की मुक्ति की आकांक्षा को आधुनिक आकांक्षा से अलग करते हुए उन्होंने लिखा है कि “जिस प्रकार एक आधुनिक रचनाकार अपने इर्द-गिर्द की परिस्थिति में कुछ असुन्दर देखता है तो उसे सुन्दर शोभन में परिवर्तित करने के लिए व्याकुल हो उठता है। भक्ति-साहित्य में भी इस प्रकार की व्याकुलता प्रचुर मात्रा में है, पर वह आधुनिक इसलिए नहीं है, क्योंकि उसका आदर्श परलोक में मनुष्य को मुक्त करना है।” (आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, पब्लिकेशन ब्यूरो, पंजाब यूनिवर्सिटी, चण्डीगढ़, प्रथम संस्करण, सन् 1970, पृ. 18-19) आचार्य द्विवेदी का भक्ति-काव्य का मूल्यांकन उसके कलात्मक और साहित्यिक मूल्यों का भी उद्घाटन करता है। वह भक्ति-काव्य को हिन्दी साहित्य में अधिक लोकतान्त्रिक, बहुसंस्कृतिवादी और मानवीय मूल्यों को अनुप्राणित करने वाली निधि के रूप में स्थापित करता है।

  1. स्वातन्त्र्योत्तर आलोचना में भक्ति-काव्य

   स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना परम्परा प्राप्‍त स्थापनाओं को लेकर आगे बढ़ी। इस दौर में भक्ति-काव्य के मूल्यांकन की नई दृष्टि मुख्यतः प्रगतिशील आलोचकों की रचनाओं से मिलती है। मुक्तिबोध भक्ति-काव्य का मूल्यांकन वर्गीय चेतना के आधार पर करने वाले पहले आलोचक हैं। उन्होंने भक्ति-काव्य के मूल्यांकन के लिए उसे उस दौर की गतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक शक्तियों से बनने वाले इतिहास के बीच रखकर देखने का प्रस्ताव किया है। वे सामाजिक  संघर्ष को केन्द्र में रखकर कुछ नए निष्कर्ष तक पहुँचे हैं। उन्होंने निर्गुण सन्तों की वाणियों को सर्वाधिक आधुनिक और प्रगतिशील बताया है। वे भक्ति-आन्दोलन के पतन का कारण सगुण मत द्वारा निर्गुण की पराजय के रूप में देखते हैं। यह उन्हें उच्‍च वर्गीय ब्राह्मण केन्द्रित व्यवस्था द्वारा निम्‍नवर्गीय क्रान्तिकारी चेतना की पराजय लगी है। वे तुलसी की साहित्यिक प्रतिभा के भी कायल हैं, किन्तु उनकी विचारधारा को प्रतिगामी मानते हैं। उनके निबन्ध से भक्ति-काव्य के सामाजिक दाय को समझने की एक नई दृष्टि मिलती है।

 

रामविलास शर्मा ने भक्ति-काव्य को सामाजिक-सांस्कृतिक और मानवीय दृष्टि से ही नहीं जातीय और राष्ट्रीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण बताया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना, हिन्दी जाति का साहित्य और भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश भक्ति काव्य के मूल्यांकन की दृष्टि से उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। आखिरी पुस्तक भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश के पहले खण्ड में भक्ति की परम्परा रेखांकित की गई है। दूसरे खण्ड में भक्ति-आन्दोलन के विभिन्‍न पहलुओं का विस्तृत विवेचन किया गया है। भक्ति को वे भागवत और आलवारों से पीछे ऋग्वेद तक ले जाते हैं। इस तरह वे पाश्‍चात्य विद्वानों के इसाईयत के प्रभाव से भक्ति के उत्पन्‍न होने को गलत ठहराने के लिए एक और तर्क देते हैं। वे भक्ति को सगुण, निर्गुण को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में देखते हैं। उन्होंने कबीर की जातिगत असमानता विरोधी चेतना को योगियों के प्रभाव से अलग, भक्ति के कारण उत्पन्‍न माना है। यह भक्ति तुलसीदास सहित सभी भक्त कवियों को जाति-पाँति विरोधी बना देती है। उन्होंने भक्ति-काव्य को सांस्कृतिक-सामाजिक के अलावा अखिल भारतीय एवं वैश्‍व‍िक साहित्य के सन्दर्भ में रखकर देखा है। उन्होंने भक्ति काव्य को भारत के जातीय साहित्य के रूप में स्थापित करते हुए लिखा कि “काव्य और संगीत के इस समन्वय से इन कवियों ने एक ओर समाज-सुधार के आन्दोलन को व्यापक रूप दिया, तो दूसरी ओर हिन्दी प्रदेश के जनपदों का अलगाव दूर करते हुए जातीय एकता स्थापित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।” (रामविलास शर्मा, भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, प्रथम खण्ड, किताब घर, दिल्ली, संस्करण 1999, पृ. 188) उनके यहाँ भक्ति-काव्य ऐसा काव्य हो गया है, जिसमें भारत की एकता और अखण्डता के अविनश्‍वर स्रोत हैं।

 

भक्ति-काव्य के मूल्यांकन की दृष्टि से नामवर सिंह की दूसरी परम्परा की खोज पुस्तक भी उल्लेखनीय है। इसमें कबीर के लोक-धर्म और अस्वीकार के साहस के सहारे दूसरी परम्परा की परिकल्पना की गई है। इसके अतिरिक्त कबीर, सूर, जायसी, मीरा, तुलसी आदि के भक्ति-काव्य पर लिखी अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं, जो भक्ति-काव्य के मूल्यांकन में अपने तरीके से कुछ जोड़ती हैं। भक्ति-काव्य का मूल्यांकन करने वालों में विजयदेव नारायण साही, परशुराम चतुर्वेदी, देवीशंकर अवस्थी, विश्‍वनाथ त्रिपाठी, डॉ. धर्मवीर, डॉ. उदयभानु सिंह, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि उल्लेखनीय हैं।

  1. निष्कर्ष

  इस तरह हम कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना में भक्ति-काव्य का मूल्यांकन अनेक दृष्टियों से किया गया है। उसे उसके दौर के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक  स्थितियों के साथ रखकर समझा गया है। आर्थिक परिवेश, वर्ग संरचना, जाति व्यवस्था, धार्मिक स्थिति आदि के साथ ही उसे भारत की बहुसांस्कृतिक बहु भाषिक एवं अखिल भारतीय साहित्यिक परम्परा से जोड़कर भी समझा गया है। हिन्दी आलोचना भक्ति-काव्य का साहित्यिक ही नहीं सामाजिक, सांस्कृतिक, जातीय, राष्ट्रीय और सार्वभौमिक महत्त्व को उजागर करने में सफल रही है। भक्तिकाल के दो प्रमुख रूप है। एक धर्म और भक्ति का रूप है और दूसरा साहित्य, संस्कृति और कला का रूप है। दोनों रूपों में भक्तिकाल श्रेष्ठ है। इसलिए कुछ आलोचक भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य के  ‘स्वर्णयुग’ के रूप में याद करते हैं।

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ.रामकुमार वर्मा, लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद
  3. हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा,बनारस
  4. हिन्दी आलोचना ,विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  6. हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. मध्यककालीन धर्म साधना, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, साहित्य भवन, इलाहाबाद
  8. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  9. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी

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  7. http://www.hindikunj.com/2010/05/itihas-shukl_30.html
  8. https://www.youtube.com/watch?v=ryQw4xpWZ1I