19 सूर की सहृदयता और वचनविदग्धता

प्रभाकर सिंह

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • सूर के काव्य की सहृदयता और भावुकता का विवेचन-विश्‍लेषण कर सकेंगे।
  • सूर के काव्य में उनकी कल्पनाशीलता का परिचय दे सकेंगे।
  • वाग्विदग्धता से परिपूर्ण सूर-काव्य के अंशो की तलाश कर सकेंगे।
  • सहृदयता, भावुकता और वाक्चातुर्य के लिए प्रसिद्ध सूर-काव्य की गुणवत्ता जान सकेंगे।
  • सूर-काव्य के भाव और कला पक्ष का उद्घाटन कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   गहन अनुभूति की सृजनात्मक अभिव्यक्ति रचनाकार को कालजयी बनाती हैं। भक्तिकाल के कवियों में यह सामर्थ्य थी। सूर उनमें सबसे विरल कवि हैं। जीवन की प्रगाढ़ अनुभूतियों और सबल पक्षों को उन्होंने बड़ी हार्दिकता से अपने काव्य में रूपायित किया है। कृष्ण का जन्मोत्सव, यशोदा का वात्सल्य भाव, बालक्रीड़ा या गोपियों के हृदय की मार्मिकता आदि की सूर-काव्य में सहृदय और संवेदनशील अभिव्यक्ति हुई है। बाल-लीला और भ्रमर-गीत सार में सूर के वाणी की विलक्षणता देखते ही बनती है। वाग्विदग्धता के लिए उन्होंने उद्धव और गोपियों  के संवाद का आश्रय लिया, जिनके वाणी में वाक्चातुर्य का रंग देखने को मिलता है।

  1. सूर-काव्य में सहृदयता और भावुकता

   रचनाकार की संवेदनशीलता और भावुकता उसके मानसिक स्वरूप, संस्कार और बाह्य परिवेश से मिलकर निर्मित होते हैं। भक्ति-आन्दोलन का वह रचनात्मक दौर था, जिसमें सूर की रचना का विस्तार हुआ, उनकी मौलिक अनुभूति उनके काव्य को विशिष्ट बनाती है। रचना की यह मुख्य प्रवृत्ति उनके काव्य की सहृदयता और भावुकता में अभिव्यक्त होती है। अभिव्यक्ति की यही विलक्षणता उन्हें अपने युग के अन्य कवियों से अलग भी करती है।

 

3.1. सहृदयता

 

सहृदयता मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। अनुभूति के अनुकूल सहृदयता का स्वरूप अलग-अलग होता है। सूर-काव्य में कृष्ण के जन्मोत्सव, बाल-भाव, राधा-कृष्ण प्रेम और गोपियों के स्वाभाविक प्रेम में सहृदयता का स्वरूप अलग-अलग अनुभूतियों के साथ सूर-काव्य को समृद्ध करता है।

 

कृष्ण-जन्मोत्सव के बाद यशोदा के वात्सल्य और कृष्ण बाल-लीला में सूर इस तरह प्रवेश करते हैं, मानो वे खुद उन क्षणों के द्रष्टा और भोक्ता रहें हों –

 

यशोदा हरि पालने झुलावे

हलराई मल्हावै जोई-सोई कछु गावै।

 

प्रतीत होता है, जैसे यशोदा की जगह खुद सूर ही कृष्ण को लोरी गाकर सुला रहे हों, उन्हें सोते देख प्रसन्‍न हो रहे हों। बाल-लीला में सूर कृष्ण की बाल-चेष्टाओं और शरारतों का चित्रण करते हुए बाल ‘मन’ के गहन भावों को बड़ी हार्दिकता और सहृदयता से चित्रित करते हैं। बाल-लीला के कुछ स्वाभाविक चित्र, जिनमें सूरदास की सहृदयता का दर्शन होता है –

 

हरि अपने आँगन कुछ गावत।

तनक-तनक चरननिं सौ नाचत मनहीं-मनहीं रिझावत।।

xx                    xx                                xx

मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी ?

किती बेर मोंहि दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।।

xx                                xx                                xx

मैया मैं नहि माखन खायो

ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ।

 

कृष्ण की बाल सुलभ चेष्टाओं – हाव-भाव, हठ, रोना, हँसना, गाना आदि प्रसंगों का चित्रण करते हुए सूर बालक की मनादेशा में पहुँच जाते हैं। सहृदयता उनकी रचना में इस अर्थ में भी महत्त्वपूर्ण है कि वहाँ बाल-मनोविज्ञान के साथ-साथ माँ के हृदय की कोमल छाया का भावपरक वर्णन भी मोहक है। मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है – “वे जब बालक कृष्ण की लीलाओं, चेष्टाओं और मनोभावों की व्यंजना करते हैं, तो स्वयं बालक बने प्रतीत होते हैं और जब माँ यशोदा की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करते हैं तो मातृ हृदय से युक्त जान पड़ते हैं। सूर की गहरी अनुभूति और अभिव्यक्ति के कारण उनकी कविता में ‘तदाकार परिणति’ की अद्भुत क्षमता है।”  गोचारण संस्कृति में कृष्ण गाय चराने जाते हैं, सारे ग्वाल उन्हे छोटा जान उन्हीं से गाय घिरवाते हैं, जिसकी शिकायत माँ यशोदा से वे कुछ यूँ करते हैं –

             

मैया हौं न चरैहों गाई।

सिगरे ग्वाल घिरावत मोसो मेरे पाइ पिराई।

 

कृष्ण और राधा के प्रथम मिलन और उनसे उन दोनों के मन में उपजने वाले प्रेम और आकर्षण का मनोहारी चित्रण सूर ने बड़ी संवेदनशीलता से किया है –

 

खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी।

गए स्याम रवि-तनया के तट अंग लसति चन्दन की खोरी

औचक ही देखि तह राधा, नैन विसाल भाल दिए रोरी,

सूर स्याम देखत ही रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी।

 

सूर के काव्य में सहृदयता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति कृष्ण-राधा के प्रेम और विरह में ही दिखाई देती है। गोपियों में राधा कृष्ण से सबसे अधिक प्रेम करती है, इसीलिए उनके ऊपर कृष्ण के विरह का असर सबसे गहरा दिखाई देता है –

 

अती मलीन वृषभानु कुमारी।

हरि स्रम-जल अन्तर तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी।

अधोमुख रहति उरध नहि चितवति ज्यों गथ  हारे थकित जुआरी।

छूटे चिहुर बदन कुम्हिलाने, ज्यो नलिनी हिमकर की मारी।

हरि-सन्देश सुनि सहज मृतक भई, इक बिरहिनी दूजे अलि जारी।

सूर स्याम बिनु ज्यों हैं ब्रजबनिता सब स्यामदुलारी।

 

कृष्ण के वियोग में राधा अत्यन्त क्षीण हो गईं। विरह्जन्य प्रेम की उनकी भावुकता का पता इसी अर्थ से लगाया जा सकता है कि कृष्ण-प्रेम से उद्भूत पसीने से भीगी हुई अपनी साड़ी को वह इसलिए धुलवाना नहीं चाहती है, क्योंकि उसके भीतर कृष्ण-प्रेम की गन्ध बसी है। उसके मुख की दशा किसी जुए में पराजित जुआरी जैसी है, जो अपने मुख को सदैव नीचे किए रहती है। बाल बिखरे हैं। मुख कुम्हलाया हुआ है। इन सबके ऊपर एक दुःख, उद्धव के योग-सन्देश का भी है। यह दशा न सिर्फ वृषभानु कुमारी की है बल्कि उन समस्त गोपियों की है, जो कृष्ण के प्रेम में पगी है। गोपियाँ स्वीकार भी करती हैं –

 

ऊधो! हम अति निपट अनाथ।

जैसे मधु तोरे की माखीं त्यों हम बिनु ब्रजनाथ।

 

गोपियाँ कृष्ण के बिना उस मधुमक्खी की भाँति तड़प रही है, जिसका मधुछत्ता ही तोड़ लिया गया हो। सूर के भावुकता की यह अद्भुत पराकाष्ठा है। यह प्रेम में मग्न हृदय की उदात्त दशा है। गोपियों के हृदय में कृष्ण के प्रति प्रेम का आलम यह है कि कृष्ण के जाने के बाद उनकी आँखें लगातार कृष्ण की राह देख रही हैं; और उनकी आँखों से आँसू के धार थम नहीं रहे हैं। इतना ही नहीं, सहृदयता का यह रूप गोपियों के साथ गोकुल के पशु, पक्षी, और कुँज सब में व्याप्‍त है।

 

उधो अँखियाँ अति अनुरागी।

इकटक मग जोवति अरु रोवति भूलेहु पलक न लागी।

 

3.2. भावुकता

 

भावुकता और कल्पना में अन्तर्सम्बन्ध है। भावुकता का कोई भी चित्रण कल्पना के साथ जुड़कर विस्तार पाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी कल्पना को भावुकता की सहचरी मानते हैं। उन्हीं के शब्दों में, ‘‘किसी भावोद्रेक द्वारा परिचालित अन्तर्वृत्ति जब उस भाव का पोषक स्वरूप गढ़कर या काट-छाँटकर सामने रखने लगती है तब उसे सच्‍ची कवि कल्पना कहते हैं। भावोद्रेक और कल्पना में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि काव्य मीमांसकों ने दोनों को एक ही समझकर कह दिया है – कल्पना आनन्द है (इमैजिनेशन इज ज्वाय)। सूरदास ने कई स्थलों पर काव्य-बल से प्रस्तुत प्रसंग के मेल से अत्यन्त मनोरम व्यापार समष्टि की योजना की है। कोई गोपिका या राधा स्वप्‍न में श्रीकृष्ण के दर्शनों का सुख प्राप्‍त कर रही थी कि उसकी नींद उचट गई। इस व्यापार के मेल में कैसा प्रकृति-व्यापी और गूढ़ व्यापार सूर ने रखा है –

 

हमको सपनेहु में सोच।

जा दिन ते बिछुरे नन्दनन्दन ता दिन ते यह पोच।।

मनौ गोपाल आए मेरे घर हँसि करि भुजा गही।।

 

भावावेग के क्षणों में सूर की कल्पना निखरकर सामने आती है। उद्धव को देखकर गोपियों के मन में अनगिनत कल्पना के भाव आते हैं। कभी वे उनका गोकुल में आने का स्वागत करती हैं तो कभी उन पर खीज जाती हैं। उद्धव के माध्यम से कृष्ण पर व्यंग्‍य करती हुई कहती हैं –

 

उधो भली करी तुम आए।

ये बातें कहि कहि या दुःख में ब्रज के लोग हँसाए।

 

गोपियों का यह कहना कि हे उद्धव, अच्छा ही हुआ कि तुम आ गए । यहाँ भी उनके कष्टों का व्यंग्यार्थ ध्वनित होता है कि इस कष्ट के समय में एक तो तुम आए और दूसरा अपने योग की अटपटी बातों से ब्रजवासियों को हँसाया।

 

यह भावुकता मन के विषम-भावों की अभिव्यक्ति है, लेकिन इन पदों में गोपियों की कृष्ण के प्रति प्रेम की अधिकता का ही प्रदर्शन होता है। वे कृष्ण-प्रेम में इस कदर भावुक हैं कि कभी तो कृष्ण को याद कर रोने लगती हैं, तो कभी खीजकर उनको ताने देने से नहीं चूकती –

 

निरखत अंक श्यामसुन्दर के बार-बार लावति छाती।

लोचन-जल कागद-मसि मिलि कै ह्वै गई स्याम स्याम की पाती।

 

गोपियाँ श्री-कृष्ण के पत्र प्राप्‍त कर उनके लिखे अक्षरों को बार-बार देखती हैं और अपनी छाती से लगाती हैं। इस भावुकता के क्षण में उनके प्रेमाश्रु से वह कागज़ भींगकर श्यामवर्ण का हो जाता है। जो उन्हें श्याम सदृश प्रतीत होता है। यहाँ सूर की भाव-प्रवणता दर्शनीय है। इन संवेगों के चित्रण में सूर के भावुक हृदय का दर्शन होता है। सुख-दुःख से भरे मन के विविध भावों की सृजनात्मक अभिव्यक्ति सूर की कविता में आद्योपान्त मौजूद है। विरह में तड़प, कृष्ण के रूप की आसक्ति तथा उनके दर्शन की व्याकुलता सिर्फ गोपियों में ही नहीं है, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों से लेकर गाय-गोरुओं में भी है। संयोग के समय घर, यमुना के हरे-भरे कछार, करील कुंज जितने मनमोहक हैं, वियोग के क्षण में उसके दुःख और विरह की व्याप्ति भी उतनी ही करुण है। विरह में अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हुए गोपियाँ प्रायः प्रकृति के व्यापार के साथ भाव-मग्‍न हो, अपने भावुक छवि का दर्शन करती हैं। विरह में भावनाओं के अतिरेक के कारण प्रकृति के ये अवयव जो कभी सुखद अनुभूतियों के कारक बनते हैं, वह अब दुःख के कारण और भयावह रूप में नजर आते हैं। गोपियों के आँसुओं के माध्यम से ये भाव सूर की कविता में कुछ ऐसे प्रकट हुए हैं –

 

निसिदिन बरसत नैन हमारे।

सदा रहति पावस ऋतु हम पे, जब ते स्याम सिधारे।।’’

X                X                     X                     

 

देखियत चहु दिसि तें घन घोरे।

मानो मत्त मदन के हथियन बल करि बन्धन तोरे।।

 

भाव-व्यंजना और भाव-सबलता का यह पद, जिसमें यशोदा, नन्द को उलाहना देते हुए कहती हैं –

 

नन्द ब्रज लीजै ठोकि बजाय।

देहु विदा मिलि जाहिं मधुपुरी जहँ गोकुल के राय

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भ्रमरगीतसार की भूमिका में इस पद की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं – ‘ठोकि बजाय’ में कितनी व्यंजना है।

 

तुम अपना ब्रज अच्छी तरह सम्भालों तुम्हें इसका गहरा लोभ है। मैं तो जाती हूँ। एक-एक वाक्य के साथ हृदय लिपटा हुआ आता दिखाई दे रहा है। एक-एक वाक्य दो-दो तीन-तीन भावों से लदा हुआ है। श्‍लेष आदि कृत्रिम विधानों से मुक्त ऐसा ही भाव-गुरुत्व हृदय को सीधे जाकर स्पर्श करता है। इसे भाव सबलता कहें या भाव-पंचामृत; क्योंकि एक ही वाक्य ‘नन्द ब्रज लीजै ठोकि बजाय’ में कुछ निर्वेद, कुछ तिरस्कार, कुछ अमर्ष तीनों की मिश्र व्यंजना, जिसे भाव-सबलता ही कहनें से सन्तोष होता नहीं पाया जाता है।’’

  1. सूर-चातुरता और वाग्विदग्धता

   सूरदास के काव्य में सहृदयता और भावुकता के साथ चतुरता और वाग्विदग्धता का अनुपम संसार मौजूद है। उनकी चतुरता, व्यावहारिक समझ, वाणी की विदग्धता और वक्रता उनके काव्य को विशिष्ट बनाते हैं। माखन चोरी और बाल-लीला में कृष्ण-यशोदा का संवाद, उद्धव-गोपी संवाद इस विलक्षण अभिव्यक्ति के उदाहरण हैं। आचार्य शुक्ल ने सूरदास की इस काव्य प्रतिभा के बारे में लिखा भी है, ‘‘सूरदास में जितनी सहृदयता और भावुकता है प्रायः उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है। किसी भी बात को कहने के न जाने कितने टेढ़े-मेढ़े  ढंग उन्हें मालूम थे। गोपियों के वचन में कितनी विदग्धता और वक्रता भरी है।’’

 

4.1. चतुरता

 

सूरदास की चतुरता कृष्ण और गोपियों के चातुर्य अभिव्यक्ति में है। माखन-चोरी के सन्दर्भ में माँ यशोदा से संवाद करते हुए कृष्ण अपनी प्रत्युत्पन्‍नमति से, समझदारी से माँ के प्रश्‍न का ऐसा उत्तर देते हैं कि माँ हतप्रभ रह जाती हैं –

 

मैया मैं नहिं माखन खायो।

ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायौ।।

देखत ही गोरस में चींटी काढ़न को कर नायो

 

चतुरता का इससे अच्छा उदाहरण कहाँ मिलेगा। भ्रमरगीत प्रसंग में गोपियों और उद्धव के बीच संवाद में चतुरता, वाक्चातुर्य के कई प्रसंग हैं। प्रेम और विरह के प्रगाढ़ भावों के बीच वाक्चातुर्य से गोपियाँ अपने मन को हल्का भी करती हैं और उद्धव पर कटाक्ष करती हैं। बड़ी चतुराई से वार्ता करती हैं, वहाँ उनकी विलक्षण प्रतिभा का प्रतीक दिखता है। उद्धव के योग को वे अपने लिए उपयुक्त नहीं बतातीं। स्पष्ट रूप से कहती हैं कि योग तो ठगी का सौदा है, जो यहाँ बिकेगा नहीं, हम इसका मर्म नहीं जानते।

 

उधो! जोग जोग हम नाही

उधो! जोग विसरि जनि जाहु।

बाँधहुँ गाँठि कहूँ जनि छूटै फिर पाछै पछिताहु।।

 

यहाँ व्यंग्य और वाक्चातुर्य का सकारात्मक प्रयोग हुआ है। गोपियों का लक्ष्य है कि वे इस चतुरता से एक ओर अपने हृदय में पल रहे कृष्ण-प्रेम को, उनकी याद को, और प्रगाढ़ करेंगी; दूसरे उद्धव से उन्हें छुटकारा भी मिलेगा। वे योग और ज्ञान पर प्रेम और भावुकता की जीत भी चाहती हैं।

 

4.2. वाग्विदग्धता

 

वाग्विदग्धता या वाणी की वक्रता सिर्फ चमत्कारपूर्ण कथन ही नहीं है, वह काव्य का कौशल भी है। कुन्तक तो उसे कवि व्यापार का कौशल या प्रतिभा कहते हैं। सूर के काव्य में वाग्वैदग्द्य का यह कौशल भ्रमरगीतसार में गोपियों के कथन में विशेष रूप से उपस्थित है। गोपियाँ उद्धव को सम्बोधित कर वचन-वक्रता द्वारा जो अभिव्यक्ति करती हैं, उसमें उनकी तिलमिलाहट और खीज भी है, जो कृष्ण और उद्धव दोनों के प्रति है। गोपियों के वाग्वैदग्द्य की यह भी विशेषता है कि उनमें कोरी वचन-वक्रता नहीं है, वह भाव प्रेरित वचन-वक्रता है। भाव के साथ तर्क का सामंजस्य उनके वाग्वैदग्द्य को विशिष्टता प्रदान करता है। गोपियों की वचन-वक्रता का निशाना कभी कृष्ण और मथुरा के लोग होते हैं, तो कभी उद्धव और उनका योग एवं ज्ञान। गोपियों की वाग्विदग्धता, कृष्ण के प्रति उनकी अत्यधिक मोहासक्ति को द्योतित करती है। वचन-वक्रता में भावसिक्त व्यंग्य है। मन की भावना वाणी की वक्रता के साथ कृष्ण और उद्धव के प्रति व्यक्त होती है। कृष्ण, जो कहलाते तो ‘गोपीनाथ’ हैं, लेकिन करते हैं कुब्जा से प्रेम –

 

काहे को गोपीनाथ कहावत

जो पे मधुकर कहत हमारे गोकुल कहे न आवत

सपने की पहचानि जानि कै हमहिं कलंक लगावत।

जो पै स्याम कूबरी रीझै, सो किन नाम धरावत।

 

गोपियाँ यहाँ उद्धव से कृष्ण की निन्दा करती हैं। उनका तर्क है कि कृष्ण अगर गोपीनाथ हैं तो फिर गोकुल क्यों नहीं आते। हमारी और उनकी पहचान स्वप्‍न जैसी है। खुद गोपीनाथ कहाकर हमें क्यों लज्जित करते हैं। भ्रमरगीत में उद्धव गोपियों का सबसे अधिक व्यंग्य झेलते हैं। योग, ज्ञान एवं पण्डिताई लेकर ‘उद्धव’ गोकुल आते हैं, पर गोपियाँ उनका परिहास करती हैं। उद्धव के पास पोथी-ज्ञान तो है, लेकिन लोक-ज्ञान की कमी है। गोपियाँ लोक-ज्ञान से उद्धव के शास्‍त्रीय-ज्ञान को पराजित करती हैं और व्यंग्‍य करती हुई कहती हैं –

 

आए जोग सिखावन पाण्डे

परमारथी पुराननि लादे ज्यों बंजारे टाँड़े।

हमरी गति पति कमलनयन की जोग सिखै ते राँडे।

कहौ मधुप कैसे समयंगे एक म्यान दो खाँड़े।

 

आपस में संवाद करती हुई गोपियाँ कहती हैं, हे सखी, देखो ये पंडित जी हमें योग सिखाने आए हैं। गोपियों का पण्डित सम्बोधन भी उद्धव की मूर्खता पर व्यंग्य है। ये पण्डित उसी प्रकार अपने ज्ञान की पोथियों से लदे हैं, जैसे कोई बंजारा बैल पर सामान लादकर व्यापार करता है। हमारे प्रियतम तो कृष्ण हैं ही, योग तो वे सीखें जो राँड़ हों और बड़ी चतुरता से तर्क देती हैं कि एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती हैं। गोपियाँ अपने एकनिष्ठ प्रेम को सिद्ध करने के लिए कई तर्क प्रस्तुत करती हैं। इसी क्रम में उद्धव के योग का उपहास भी करती हैं। गोपियों की वचन-वक्रता में उद्धव के ज्ञान और योग की अच्छी खबर ली गई है। गोपियाँ उस ज्ञान को बैठे ठाले का ज्ञान बताती हैं, जो योग जनित है। वे उद्धव को ज्ञान और योग का धूर्त व्यापारी समझती हैं, योग-व्यापार को घाटे का सौदा कहती हैं, जो ब्रज में बिकने वाला नहीं है –

 

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहें

यह व्यापार तिहारो उधो ऐसेहि फिरि जैहें।

दाख छाड़ि के कटुक निबौरी को अपने मुख खैहें।

 

गोपियाँ बेबाक कहती हैं। तुम्हारी योग रूपी ठग-विद्या इस ब्रज में नहीं बिकेगी। यह तुम्हारे साथ ज्यों का त्यों चला जाएगा क्योंकि यहाँ यह किसी के हृदय में नहीं समाएगा। भला कोई अंगूर छोड़कर नीम की कड़वी निबोरी क्यों खाएगा। इतने से भी गोपियाँ सन्तुष्ट नहीं होती हैं, तो उद्धव के व्यापारी स्वरूप पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं –

 

आयो घोष बड़ो व्यापारी

लादि खेप गुन ग्यान जोग की ब्रज में आन उतारी।

फाटक दैकर हाटक माँगत भोरै निपट जु धारी।

धुरही ते खोटो खायो है लये फिरत सिर भारी।

 

इन अहीरों की बस्ती में एक बड़ा व्यापारी आया है, जो ज्ञान और योग की गठरी लेकर ब्रज में उतरा है। जो हमसे भूसा या फटकन देकर कृष्ण रूपी स्वर्ण माँग रहा है। अपने इस खोटे सामान के भार को सर पर लिए घूम रहा है। गोपियों का यह तर्क महज उपहास नहीं, उनकी वचन-वक्रता एवं वाग्विदग्धता का अद्भुत नमूना है। वे कृष्ण के वियोग में रोटी या छाती पीटती हुई, हाय-हाय नहीं करती, बल्कि कृष्ण के उस सन्देशवाहक को उसके ही तर्कों से पराजित करती हैं। सूर द्वारा भावों के प्रकटीकरण का यह सौन्दर्य अप्रतिम है। यहाँ सिर्फ तर्क या शास्‍त्रार्थ की ही मुद्रा नहीं है, बल्कि प्रेम का भावनात्मक स्पर्श भी है। जब गोपियाँ यह कहती हैं कि –

 

उर में माखनचोर गड़े।

अब कैसहूँ निकसत नहीं उधो। तिरछे ह्वै जु अड़े।।

 

हे उद्धव, हमारे हृदय में माखनचोर का रूप ऐसा चुभ गया है कि वह किसी भी तरह नहीं निकलता; क्योंकि वे टेढ़े ढंग से हृदय में अड़ गए हैं। गोपियाँ अपने बालपन के प्रेम का तर्क देती हुई कहती हैं –

 

लरिकाई को प्रेम कहौ अलि कैसे करिकै छूटत?

कहा कहौ ब्रजनाथ-चरित अब अन्तरगति, यों लूटत।

 

इस प्रकार सूर की भावना के साथ उनके कथन की शैली भी विदग्धता उत्पन्‍न करती है।

 

सूर के यहाँ विदग्धता ऊपरी नहीं, हृदय के गहरे भावों से निकलती है। इसीलिए गोपियां उद्धव से निराकार की जगह साकार कृष्ण की प्रशंसा करती हैं, जिनका प्रेम उनके हृदय में घर कर गया है। सूरदास अलंकारों के माध्यम से भी वाणी की विदग्धता उत्पन्‍न करते हैं। वक्रोक्ति अलंकार इसमें सबसे अधिक सार्थक है।

 

उधो अब यह समझ भई

नन्दनन्दन के अंग-अंग प्रति उपमा न्याय दई।

 

यहाँ प्रथम पंक्ति में वक्रोक्ति अलंकार के प्रयोग से विदग्धता लाई गई है, तो दूसरी पंक्ति में काव्यलिंग, रूपक, व्यतिरेक के आधार पर कथन भंगिमा पैदा की गयी है। सूरदास के काव्य में वाग्विदग्धता प्रेम की तन्मयता और गहराई का प्रतीक है। भावप्रेरित यह वचन-वक्रता सूर-काव्य की विशिष्टता है। वचन-वक्रता में कल्पनाशीलता के समावेश से सूर गोपियों की भावनाओं का प्रभावी चित्रण करते हैं। ग्रामीण और लोकजीवन के गहरे बोध से सम्पृक्त मुहावरों और लोकोक्तियों में यह अभिव्यक्ति और भी विशिष्ट बन जाती है। सूर के वचन-वक्रता की इस सृजनात्मकता की ओर संकेत करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने सही लिखा है – ‘‘आचार्य शुक्ल जिसे सूर की वाग्विदग्धता कहते हैं, वह केवल वचन-वक्रता और शब्द-क्रीडा नहीं है, उसमें व्यंग्य और विनोद के साथ गहरी कल्पनाशीलता भी है। वही कल्पनाशीलता अलंकारों, मुहावरों और लोकोक्तियों की खोज में सक्रिय दिखाई देती है। अलंकारों, मुहावरों और लोकोक्तियों की खोज में सूर की कल्पना ग्राम-समाज की ओर जाती है, क्योंकि वही कवि के ज्ञान और अनुभव का परिचित क्षेत्र है और गोपियों का वास्तविक परिवेश भी। गोपियों की भाव-दशाओं को अधिक प्रभावशाली और चित्रात्मक रूप में व्यक्त करने के लिए यदि कहीं कोई अलंकार आता है, तो वह किसान जीवन के किसी न किसी अनुभव से जुड़ा होता है।’’

 

उद्धव गोपी संवाद में गोपियों की वचन-वक्रता में उनके व्यक्तित्व और लोक के परिवेश की विविध छवियाँ दिखाई देती हैं। लोक के सहज एवं निष्कपट वक्तव्य में उनकी वचन-वक्रता भावों के साथ समाविष्ट हो गयी है। इसलिए उसको भाव-प्रेरित वचन-वक्रता कहा जाता है। भ्रमरगीत के इन पदों में तद्युगीन समाज और किसानी जीवन की संस्कृति का भी बोध जुड़ा है। कृष्ण के व्यवहार से निराश और विरह में विक्षुब्ध गोपियों को जब उद्धव की कड़वी बातें सुनने को मिलती हैं, तो उनका मन और भी व्यथित हो जाता है। अपनी इस व्यथा को, भाव दशा को, भावप्रेरित वचन वक्रता में लोक के मुहावरे और किसानी जीवन की संवेदना को गापियों के माध्यम से सूर ने लिखा है –

 

लरि मरि झगरि भूमि कहु पाई,

जस अपजस बितई।

अब लौं सूर कहति है, उपजी सब ककरी करूई।।

 

कहना न होगा कि सूर के काव्य में विदग्धता काव्य के आन्तरिक और बाह्य दोनों भावों से फूटती है। गोपी-उद्धव संवाद में गोपियों की वाणी में यह आरम्भ से अन्त तक व्याप्‍त है। वह अपनी बात उपालम्भ या उलाहना से आरम्भ करती हैं और धीर-धीरे उसमें प्रेम भाव, स्मृति और संवेदना की गहराई आती जाती है। भाव-प्रेरित यह वचनवक्रता सिर्फ भाषिक चमत्कार नहीं पैदा करता, वह भावों की अतल गहराई में जाकर प्रेम की प्रतिबद्धता और समर्पण का प्रतीक बन जाता है। तभी तो गोपियों के इन कथनों से उद्धव निरुत्तर और मतिहीन हो जाते हैं।

  1. निष्कर्ष

   सूर-काव्य की सहृदयता और वाग्विदग्धता का विवेचन-विश्‍लेषण एक मनोहारी कर्म है। सूर के काव्य की यह सबसे विरल और सृजनात्मक अभिव्यक्ति है। कृष्णलीला और भ्रमरगीत में सूरदास सहृदयता और वचन-वक्रता का चित्र उपस्थित करते हैं। गोपियों और उद्धव के संवाद में गोपियों के सहारे सूर की वाग्विदग्धता का परिचय मिलता है। उद्धव के शास्‍त्र-ज्ञान के समानान्तर गोपियाँ लोक के अनुभव से वाग्विदग्धता और सहृदयता की विविध छवियों का प्रयोग करती हैं। इस प्रसंग में सूर की काव्य-भाषा और काव्य-रूप के अन्तर्गत लोक-भाषा, छन्द, अलंकार और लोक की विविध मार्मिक छवियों का चित्रण सूर के काव्य की सृजनात्मकता का उदाहरण है।

you can view video on सूर की सहृदयता और वचनविदग्धता

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा, बनारस
  4. भ्रमरगीत सार , रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा, वाराणसी
  5. सूर साहित्य, हजारी प्रसाद द्विवेदी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
  8. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
  9. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  10. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  11. हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 

    वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  3. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0
  4. http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/2/sur-ke-pad.html
  5. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8