21 सूरदास की राधा

देवशंकर नवीन

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • हिन्दी साहित्य में राधा-कृष्ण के स्वरूप का विकास-क्रम जान पाएँगे।
  • विद्यापति एवं सूरदास की काव्‍य-नायिका(राधा) के साम्य-वैषम्य से परिचित हो सकेंगे।
  • मध्ययुगीन समाज एवं तत्कालीन कवियों की स्‍त्री-दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में सूरदास की राधा की छवि‍यों से परि‍चि‍त हो सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    कि‍सी भी महान कवि‍ की महत्ता का मूल्‍यांकन परवर्ती रचनाधर्मि‍यों पर उनके काव्‍य-प्रभाव से भी जाना जाता है। इसी धारणा में कवि‍ सूरदास की रचनाधर्मिता की चर्चा करते ही विद्यापति की चर्चा आवश्‍यक हो जाती है, जाहि‍र है कि‍ विद्यापति की चर्चा आते ही उनके काव्‍य-वैभव के प्रसार हेतु सूरदास के काव्‍य-कौशल तक आना जरूरी हो जाता है। परवर्ती रचनाकारों में सूरदास सर्वाधि‍क महत्त्‍वपूर्ण कवि‍ हैं, जि‍नके यहाँ विद्यापति का प्रभाव पूरी आस्‍था से सर्वाधि‍क है। कई बार तो केवल भाषा का अन्तर दिखता है। वि‍षय-वस्‍तु पूरी तरह जस के तस दि‍खता है। ठीक इसी तरह विद्यापति भी ऐसे लगभग अकेले पूर्ववर्ती रचनाकार हैं, जो सूरदास की रचनाधर्मिता के सर्वाधि‍क महत्त्‍वपूर्ण स्रोत साबि‍त होते हैं। विषयबोध, भावबोध, लयबोध, तालबोध, अनुभूति, संगीतात्मकता, छन्द, अलंकार, रूपरस आदि से इतना अधिक साम्य किन्हीं अन्य रचनाकारों के यहाँ दिखना दुर्लभ है।

 

गीतिमयता, सहजता, सरलता, कथात्मकता, पदलालित्य और लोक-जीवन की अभिव्यक्ति इन दोनों के यहाँ घनीभूत है, जिस पर आगे विचार किया जाएगा।

  1. राधा के चरित्र का विकास

   प्राचीन पुराणों में केवल भागवत पुराण ऐसा है, जहाँ गोपाल-कृष्ण की कथा का वर्णन है, पर उसमें भी राधा की चर्चा कहीं नहीं है। पद्मपुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में राधा-कृष्ण के प्रेम की कथा की चर्चा विस्तार से है। मध्यकाल में देसिल बयना में रचे गए काव्य में इस प्रसंग का उल्लेख देखकर यह अनुमान करना सहज है कि लोक-जीवन में कहानियों और गीतों के रूप में इसकी पर्याप्‍त लोकप्रियता रही होगी।

 

राधा-कृष्ण विषयक प्रथम काव्य-रचना जयदेव रचित गीतगोविन्द (बारहवीं शताब्दी) है; जिसमें भक्ति और शृंगार का अद्भुत समावेश है। अनुमान किया जाता है कि लोक-प्रचलित आख्यानों और गीतों में वर्णित प्रसंगों से कवि को इस गीति-काव्य की प्रेरणा मिली होगी। लोक-परम्परा की इसी पद्धति के अगले चरण में चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में महाकवि विद्यापति ने राधा-कृष्ण विषयक पद मैथिली में रचे। उनकी इस पदावली को हिन्दी कृष्ण-काव्य की पहली रचना के रूप में स्वीकार किया गया। इस बात पर मतैक्य का अभाव है कि विद्यापति के पद लौकिक अवधारणाओं पर आधारित हैं, अथवा भक्ति के माधुर्य भरे भाव पर। वैसे ऐसी मत-भिन्‍नता राधा-कृष्ण विषयक समस्त रचनाओं के बारे में हो सकती है। खासकर विद्यापति की पदावली के सम्बन्ध में राधा-कृष्ण विषयक प्रेम को शृंगार और भक्ति की दृष्टि से अलग-अलग करने हेतु अलग से विवेचना करनी पडे़गी। लोग लाख कह लें कि राज्याश्रय में रहकर आश्रयदाता की प्रसन्‍नता के लिए उन्होंने शुद्ध शृंगारिक रचना की, पर सच्‍चाई कुछ अधिक व्याख्येय है। इस तथ्य से लोग भली-भाँति परिचित हैं कि चैतन्य महाप्रभु जैसे कृष्ण-भक्त को विद्यापति के पदों ने किस तरह भाव-प्रवण कर रखा था।

 

विद्यापति के बाद कृष्ण-काव्य के सबसे बड़े उद्गाता सूरदास हैं, जिनके यहाँ राधा-कृष्ण के कई-कई रूपों का चित्रण दिखता है। पुष्टिमार्ग के प्रवर्त्तक वल्लभाचार्य ने इनकी प्रतिभा का उपयोग अपने मत के प्रचार में किया। मान्यता है कि नन्ददास को छोड़कर अष्टछाप के अन्य सारे कवि सूरदास का स्पष्ट अनुकरण करते देखे जा सकते हैं। सूरदास के बाद राधा-कृष्ण-काव्य परम्परा के सार्थक-सामान्य-निरर्थक कवियों की लम्बी सूची है, जिनके अवदान का जिक्र किया जा सकता है। पर पुष्टिमार्ग और अष्टछाप की चर्चा इस दिशा में सर्वाधिक उल्लेखनीय है।

 

ईश कृपा पाकर भक्त बने लोग जब दुबारा ईश कृपा पाते हैं और ज्ञान के अधिकारी बनते हैं और फिर ब्रह्म के विषय की ज्ञातव्य बातें अपने प्रयत्‍न से समझते हैं, उनकी भक्ति पुष्टिभक्ति कहलाती है। पर जो ईश्‍वर के प्रति अमित प्रेम के अलावा और कुछ नहीं करते, ऐसी भक्ति पुष्‍टि‍मार्ग की चर्चि‍त शाखा शुद्धपुष्टिभक्ति कहलाती है। इस भक्ति के तीन सोपान माने गए हैं–प्रेम, आसक्ति, व्यसन। गोपियों की भक्ति शुद्धपुष्टिभक्ति में गिनी गई है, जो पुष्टिमार्ग का एक प्रकार है। इस भक्ति में भगवान की लीला में भाग लेना ही परम-मुक्ति है। विदित है कि लीला का तात्पर्य राधा समेत अन्‍य गोपियों के साथ कृष्‍ण की लीला है। पुष्टिमार्ग का मुख्य लक्ष्य इसी भक्ति में है।

 

वैसे तो अष्टछाप के सभी कवियों ने कृष्णलीला से सम्बद्ध विषयों पर रचनाएँ कीं, पर उन विषयों पर स्वतन्‍त्र ग्रन्थ प्रस्तुत करने का उद्यम केवल नन्ददास के यहाँ देखा जाता है। कृष्णलीला से सम्बद्ध विषयों के अलावा कुछ लौकिक और साहित्यिक विषयों पर भी नन्ददास ने रचनाएँ कीं।

 

भँवरगीत में उद्धव-गोपी सम्वाद के चर्चित प्रसंगों की प्रस्तुति खण्ड-काव्य के रूप में है। रासपंचाध्यायी की तरह उनकी आगली रचना सिद्धान्तपंचाध्यायी का विषय भी कृष्ण और गोपियों की रासलीला ही है। स्यामसगाई में राधा-कृष्ण की सगाई को विषय बनाया गया है। उन्होंने पाँच मंजरियों की रचना की–रसमंजरी में नायक-नायिका भेद की रचना है। अनेकार्थमंजरी दोहा छन्द में रची गई ऐसी रचना है जो संस्कृत नहीं जाननेवालों के लिए एक कोश जैसा है। मानमंजरी नाममाला भी एक कोश ही है, पर इसमें राधा के मान का वर्णन भी है। विरहमंजरी  ब्रजयुवती की विरह-दशा का वर्णन है। रूपमंजरी  एक कथाकाव्य है, जिसकी नायिका रूपमंजरी है, और यह सुन्दर नायिका लौकिक प्रेम को त्यागकर कृष्ण के प्रति आसक्त होती है। रुक्मिणीमंगल की कथा श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के उत्तरार्ध की कथा पर आधारित है।

 

जयदेव और विद्यापति ने राधा-कृष्ण-काव्य में गीति की जैसी प्रवाहमय धारा बहाई,  उसका तीव्रता से विस्तार हुआ और ब्रजभाषा में भक्ति-काव्य लिखने वाले सन्त कवियों ने उसे अपनाकर आगे बढ़ाया, कुछ और आगे आने पर मुक्तक के रूप में लिखे गए पदों में राधा-कृष्ण का प्रेम महत्त्वपूर्ण हो गया। कृष्ण-काव्य पूरी तरह मुक्तक का क्षेत्र बन गया। पर सच यह भी है कि वल्लभाचार्य के कहने पर सूरदास ने श्रीमद्भागवत की कथा को पदों में गाया।

 

भक्तिकालीन राधा-कृष्ण-काव्य परम्परा में प्रेम और समर्पण का उत्कर्ष था, पर राधा-कृष्ण विषयक पदों में भक्ति के लिए प्रेम के जिस शृंगारिक प्रसंग को अपनाया गया था, कालान्तर में भक्ति-काल का वह आदर्श वातारण रह न सका। भक्ति सम्प्रदाय रूढ़ियों और कर्मकाण्डी प्रवृत्तियों से जकड़ गया। पूरे भक्तिकाल का कृष्ण-काव्य, रीतिकाल में वैसे का वैसे रहने के बावजूद वह न रहा। यहाँ कृष्ण और राधा बहाना मात्र रह गए, समर्पण की उदात्त भावना की जगह यहाँ विलासिता का वातावरण छा गया और आध्यात्मिक पिपासा के स्थान पर वासना की अतृप्ति छा गई।

 

इस तरह राधा-कृष्ण-काव्य की परम्परा, इतिहास का दीर्घ अन्तराल तय करती हुई, भक्तिकाल की विपुल धारा को बल देती हुई, रीतिकाल में अपना सूत्र कायम रखती हुई, आधुनिक काल तक में बरकरार रही। सचमुच कृष्ण-काव्य की लम्बी परम्परा आज भी गार्हस्थ जीवन को सहज, सरल, निश्छल, नैतिक, नैष्ठिक, और गरिमामय रखने में हमें सहयोग देती है। कर्मयोग का तात्त्विक ज्ञान हमें इस काव्य की सम्पूर्ण धारा में मिल सकता है।

  1. विद्यापति एवं सूरदास की राधा

    तथ्य है कि गीतगोविन्द, विद्यापति पदावली  और सूरसागर  एक ही कोटि की रचनाएँ हैं, जिनमें भक्ति का आधार शृंगार है। विद्यापति और सूरदास की चर्चा साथ-साथ करने का एक महत्त्वपूर्ण आधार यह है कि सूरदास की रचना ब्रजभाषा में लिखे जाने के बावजूद, विद्यापति पदावली के सौ सवा सौ वर्ष बाद भी सूर का पद, उस परम्परा का विकसित और परिवर्द्धित रूप है। कुछ स्थानों पर तो परम्परा में कुछ नई कोपलें भी जुड़ी हैं। प्रेम और भक्ति–ये दो तत्त्‍व इन दोनों महाकवियों की इन रचनाओं के प्राण-तत्त्‍व हैं।

 

सूरदास ब्रजभाषा के पहले प्रतिष्ठित कवि हैं। विद्यापति पदावली की भाँति उनके पद भी गेय हैं और वे मुक्तक हैं। पर उनमें प्रबन्धात्मकता का रस इतना प्रबल है कि उसे ‘लीलापद’ भी कहा जाता है। विद्यापति पदावली  की गेयधर्मिता, लोक-साहित्य की सरलता और सहजता, विरह वर्णन में दैनन्दिन जीवन-प्रसंगों के चित्रण, विरहावस्था में हृदय की नानावृत्तियों के चित्रण…जिस तरह घनीभूत हैं, सूर के यहाँ भी ये सारे तत्त्व इसी रूप में मौजूद दिखते हैं। दोनों के यहाँ विरह वर्णन की जीवन्तता देखते ही बनती है। गोपियों की व्याकुलता, निरीहता, विवशता, धीरज के बावजूद बेचैनी, मिलन की उत्कण्ठा…अपनी प्रखर छवियों में व्यक्त हुई हैं।

 

विद्यापति की राधा अपने प्रिय के सुमिरन में अपना ही स्वभाव भूल जाती है–

 

अनुखन माधव माधव सुमिरइत सुन्दरि भेलि मधाई

ओ निज भाव सुभावहि बिसरल अपने गुन लुबधाई।

भोरहि सहचरि कातर दिठि हेरि छल लोचन पानि

अनुखन राधा राधा रटइत आधा आधा बानि।

राधा सँ जब पुनितहि माधव माधव सँ जब राधा

दारुन प्रेम तबहि नहि टूटत बाढ़त बिरहक बाधा।

दुहुँ दिसि दारुदहन जइसे दगधइ आकुल कीट परान

ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि कबि विद्यापति भान।

 

कृष्ण का स्मरण करते-करते राधा, कृष्ण रूप में हो जाती है और विरह में राधा-राधा रटने लगती है। फिर होश में आते ही कृष्ण-कृष्ण रटने लगती है। विरह की आग में झुलसती इस नायिका को कवि ने ऐसे अंकित किया है, जैसे लकड़ी के भीतर लगी हुई घुन का कीड़ा हो और लकड़ी की दोनों शिराओं में आग लगा दी गई हो।

 

सूरदास के श्याम की नायिका जब विरह व्यथा में होती है, तो वह भी ठीक इसी वजन पर विचलित होती है–

सुनो स्याम! यह बात और कोउ क्यों समझा कहै

दुहुँ दिसि की रति बिरह बिरहिनी कैसे के जो सहै।।

जब राधे, तब ही मुख ‘माधौ-माधौ’ रटति रहै

जब माधौ ह्वै जाति सकल तनु राधा बिरह दहै।।

उभय अग्र दव दारुकीट ज्यों सीतलताहि चहै

सूरदास अति विकल बिरहनी कैसेहु सुखन लहै।।

 

इस तरह के साम्य दोनों महाकवियों, विद्यापति और सूर के केवल शृंगारिक पदों में ही नहीं, अन्यत्र भी हैं।…

आँखों की चर्चा में विद्यापति और सूरदास– दोनों ने ही अद्भुत छटा दिखाई है। विद्यापति की नायिका की आँखें ऐसी हैं :

 

लोचन जुगल भृंग अकारे

मधुक मातल उड़ए न पारे

 

आँखों की भी ऐसी छवियाँ सूर के यहाँ कई जगहों पर दिखती हैं। पर, जहाँ विद्यापति के यहाँ ये आँखें नायिका की हैं, सूर के यहाँ नायक की हैं :

 

मनहुँ कंज ऊपर बैठे अलि

उड़ि न सकत मकरन्द लोभाने

 

या फिर

 

मनहुँ कमल सम्पुट नहँ बीधे

उड़ि न सकत चंचल अलिबारे

 

विद्यापति की नायिका की आँखें काफी चंचल हैं :

 

चकित चकोर जोर विधि बाँधल

केवल काजर पासा

 

सूर कहते हैं,

 

अंजन गुन अटके नातरु अबही उड़ जाते।

 

साथ-साथ चर्चा करने पर, विद्यापति और सूरदास में कई बार तो रस, शब्द, भाव, अलंकार के साथ-साथ पंक्ति तक समतुल्य लगने लगते हैं।

 

विद्यापति कहते हैं :

 

चंचल लोचन, बाँक निहारए, अंजन शोभा पा

जनि इन्दीवर, पवने पेलल, अलि भरे उलटा

 

इसी बात को सूर कहते हैं :

 

चंचल लोचन, बंक निहारनि, खंजन शोभा ता

जनु इन्दीवर, पवने ठेलल, अलि भरे उलटा

 

आँखों के ये चित्र जिस तरह दोनों के यहाँ समानता रख रहे हैं, वे स्पष्ट करते हैं कि सोच के स्तर पर दोनों महाकवियों ने समान सम्वेदनशीलता की जड़ें पकड़ रखी थी। जहाँ से दोनों की जीवन-दृष्टि के सूत्र खुलते थे, वे बिन्दु शायद एक ही थे। चित्र अंकित करने का कौशल दोनों के यहाँ समान रूप से श्रेष्ठ दिखता है। ऐसा तो प्रायः देखा जाता है कि प्रेम की आकुलता और चित्रण की मार्मिकता वियोग में ज्यादा निखरती है।

 

वियोग की जिन स्थितियों का चित्रण सूर के यहाँ पूर्वानुराग, मान, प्रवास और करुणा में है, वह परम्परा विद्यापति के यहाँ पहले से मौजूद दिखती है। स्वप्‍न दर्शन में सूरदास ने भी विद्यापति की ही भाँति गोपियों के विरह की व्यंजना की है। कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों के मन में कृष्ण की जो प्रेम-मूर्ति है, वह वियोग के समय कभी-कभी स्वप्‍न में आ जाती है। सूर की गोपियाँ जब संयोग की कामना से पुलकित होती रहती हैं, तभी नींद टूट जाती है और स्वप्‍न की वह प्रेममूर्ति विखण्डित हो जाती है फिर विरह की व्यथा बढ़ जाती है। ठीक ऐसे ही पद विद्यापति के यहाँ मौजूद हैं :

 

सुतलि छलहुँ हम घरबा रे, गरबा मोतिहार

राति जखन भिनसबा रे पिया आएल हमार

केहेन अभागलि बैरिनी रे भाँगलि मोहि नीन्द

भल कए देखि नहिं पाओल रे पिय मुख अरविन्द

 

विद्यापति और सूर के पदों पर विचार करते हुए यह स्थिति प्रकट होती है कि वस्तुतः हमारे समाज में सामन्ती संस्कार की जड़ें गहराई तक जमी हुई है। इतनी गहराई तक कि यहाँ प्रेम में भी पुरुष-सामन्तवाद घुसा हुआ नजर आता है। प्रेम का अर्थ सामान्य स्थितियों में नारियों और पुरुषों के लिए भिन्‍न है। नारी के लिए प्रेम का अर्थ सम्पूर्ण समर्पण है तो पुरुष के लिए सम्पूर्ण ग्रहण है। अर्थात् स्‍त्री की त्याग वृत्ति प्रेम है और पुरुष की लोभ वृत्ति प्रेम है।

 

विद्यापति और सूर के पदों में पुरुष की यही भ्रमर और स्वार्थी वृत्ति का प्रतिफलन तथा स्‍त्री की इसी व्याकुलता का चित्र अंकित है। राधा-कृष्ण लीला विषयक पदों में विद्यापति के यहाँ कृष्ण के मथुरागमन, गोपी-विरह, कुब्जा के प्रति कृष्ण की अनुरक्ति, गोपियों की व्याकुलता, पुरुष की भ्रमर-वृत्ति इत्यादि के जो चित्र अंकित हुए, ब्रजभाषा में वे पहली बार सूरदास के यहाँ संगठित और सुगठित रूप में हैं। सूर से पहले ब्रजभाषा में भ्रमरगीत काव्य की ऐसी सुगठित छवि नहीं दिखती। दौत्य वृत्ति का जो स्वरूप विद्यापति के प्रेम पदों में दिखता है, वह सूर के यहाँ भी है। मजे की बात यह है कि इस वृत्ति में जो उद्धव उनके यहाँ हैं, वही उद्धव इनके यहाँ भी है। गुण-गायन और व्यथा-सन्देश–प्रेम के दौत्य कर्म में ये ही प्रमुख हैं। और ये दोनों तत्त्‍व दौत्य वृत्ति वाले पदों में विद्यापति और सूर–दोनों के यहाँ बहुत प्रखर रूप में हैं। सामान्यतया आज भी होता है कि प्रेमी का सखा या प्रेमिका की सखी द्वारा इस पुण्य कर्म का निर्वाह होता है। दोनों पक्षों के रहस्यों को मात्र इन दोनों तक ही सीमित रखने वाले सखा को ही देवर और साली का आदर्श माना जा सकता है, जो दोनों में मिलन की उत्कण्ठा बढ़ाए, दोनों के प्रेम को और घना करे तथा विरह सन्देश देकर इस अन्तराल को नष्ट करे। सूर और विद्यापति के काव्य इसके प्रबल उदाहरण हैं।

 

राधा-कृष्ण प्रेम से सम्बन्धित जितने भी पद विद्यापति के हैं, वहाँ दोनों पक्षों की संयोगावस्था की स्मृति, विरहावस्था की व्याकुलता व्यक्त करते समय नायक और नायिका दोनों की कई-कई छवियाँ अंकित हुई हैं। उनके यहाँ राधा कभी अनुरागवती किशोरी है, कभी प्रेममय युवती है, असाधारण सुन्दरी है, स्वकीया है, कामिनी है, मानिनी है, वियोगिनी है, प्रौढ़ा है, अभिसार के लिए जुगत बैठाती चतुर सयानी है, लाज और पारिवारिक बन्धन को तोड़ने के लिए व्यग्र विलासिनी है, विरह में विक्षिप्‍त-व्यथित और नायक को हर तरह से समर्पित पुष्पांजलि है, नायक को उपालम्भ और उलाहना तथा उसकी स्वार्थी एवं रसिक वृत्ति पर उन्हें धिक्‍कारती हुई मान-मुग्धा है, प्रेमरस दीवानी है, और क्या-क्या है…इसी तरह भावानुभूतियों और स्थितियों की भी कई-कई मनोदशाएँ व्यक्त हुई हैं। वियोग की वेदना और प्रिय-प्रवास के दुख आदि के चित्रण यहाँ भरे पड़े हैं। ये सारे तत्त्‍व मिलकर विद्यापति के पदों में कथात्मकता, पद-लालित्य और रागात्मकता कूट-कूट कर भरे हैं, जिससे उन पदों में वे सारे दृश्य जीवन्त और मूर्तिमान हो उठते हैं। सूर के सारे लीलापद इन दशाओं से युक्तियुक्त हैं। नायिका के विरह वर्णन, नख शिख वर्णन, मनोदशा विवरण, सबमें सूरदास ने इन स्थितियों को लोकानुरंजकता से इस कदर भरा है कि वे विद्यापति के पदों के वजन पर ही लोक मनोहारी हैं। नायिका के देह वर्णन में जहाँ विद्यापति कहते हैं :

 

पल्लवराज चरणयुग शोभित

गति गजराजक भाने

कनक कदलि पर सिंह सँवारल

तापर मेरु समाने

 

इस बात को सूरदास कहते हैं :

 

अद्भुत एक अनुपम बाग

जुगल कमल पर गजवर क्रीड़त

तापर सिंह करत अनुराग

 

नारी-देह को बगीचे के रूप में देखने की जो परम्परा विद्यापति ने शुरू की, स्‍त्री अंगों के लिए सौन्दर्य के जो प्रतिमान जंगल के पशु-पक्षियों, ग्रह-नक्षत्रों, पेड़-पौधों, चाँद-तारों से लेने की जो परम्परा विद्यापति ने शुरू की, सूर के यहाँ वे सब मूर्तिमान लग रहे हैं।

 

विद्यापति की नायिका के नाभि विवर से निकली हुई नागिन (रोमावली) उसके सुवासित साँसों की प्यास में ऊपर चलती है। पर नायिका की नाक को देखने पर उसे गरुड़ की चोंच समझ लेती है और डर के मारे पर्वतों (स्तनों) के सन्धिस्थल में छुप जाती है :

 

नाभि-विवर सँय लोभ लतावली

भुजग निसास पियासा

नासा खगपति चंचु भरम भय

कुच गिरि सन्धि निवासा

 

सूरदास की नायिका की शारीरिक दशा भी लगभग यही है :

 

नाभि परस लौं रस रोमावली, कुच-जुग बीच चली

मनहुँ विवर तें उरग रिंग्यो, तकि गिर की सन्धि-थली

 

विद्यापति की सद्यःस्नाता अपने स्तनों को भुजपाश में बाँध लेती है ताकि वह उड़ न सके :

 

ते संका भुज पासे

बाँधि धएल उड़ि जाएत अकासे

 

और सूरदास की नायिका आँचल से ढककर, दबाकर रखती है :

 

राखति ओटकोटि जतनन करि झाँपति आँचल झारि

खंजन मनहुँ उड़न को आतुर सकत न पंख पसारि

 

विद्यापति की राधा के बालों को देखकर चामरि पर्वत-कन्दरा में समा गई, मुँह देखकर शर्म से चाँद आकाश में भाग गया, आँख देखकर हरिण, स्वर सुनकर कोयल, चाल देखकर हथिनी जंगल में चली गई। इधर सूरदास के नायक के शरीर को देखकर

 

कोऊ जल कोऊ वन में रहे, दुरि कोऊ गगन समाने

मुख निरखत ससि गयो अम्बर को तड़ित दसन छवि हेरो

 

विद्यापति की नायिका का नीबीबन्ध कृष्ण खोलते हैं–

 

नीबीबन्ध हरि किए कर दूर

 

और सूर के नायक यह काम धीरे-धीरे करते हैं–

 

नीबी खोलत धीरे जुदराई

 

विद्यापति के कृष्ण भी विहार करते हैं–

 

बिहरए, बिहरए नवल किशोर

 

सूर की राधा और कृष्ण दोनों

 

नवल गोपाल नवेली राधा, नए प्रेम रस पागे

नव तरुवर बिहारि दोउ क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागे

 

कामदंश की वेदना से व्याकुल विद्यापति की नायिका का सन्देश दूती द्वारा कृष्ण को पहुँचाया जाता है–

 

मदन भुजंग डस बालहि तोरी

 

और सूरदास की नायिका की दूती कहती है

 

जो कारण तुम यह वन सोयव, सौतिन मदन भुअंगम खाई।

 

यहाँ तक कि विद्यापति के वजन पर सूर ने दृष्टिकूट वाले पद भी लिखे हैं:

 

सारंग नयन वयन पुनि सारंग सारंग तसु समधाने

सारंग उपर उगल दस सारंग केलि करथि मधुपाने         –विद्यापति

 

और,

 

सारंग सारंग धरहि मिलावहु

सारंग विनय करत सारंग सों, सारंग दुख बिसरावहु

सारंग समय दहत अति सारंग सारंग तिनहि दिखावहु

सारंग पति सारंग घर जैहें, सारंग जाइ मनावहुँ

सारंग चरन सुभगकर सारंग, सारंग नाम बुलाबहु –सूरदास

 

श्‍लेष, यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनुप्रास, उपमा आदि अलंकारों की समानता तो दोनों की रचनाओं में है ही। बहुअर्थी शब्दों के सद्-दोहन में और इस शैली के उपयोग में दोनों महाकवि समान रूप से उद्यमशील दिखते हैं।

 

मजे की बात है कि दोनों भक्त कवि हैं, पर उनके लीला पदों की संरचना में राधा और कृष्ण का चरित्र सामान्यतया अलौकिक रूप में नहीं दिखाया गया है। शुद्ध रूप से दोनों के नायक और नायिका गार्हस्थ लगते हैं, सामाजिक और आस-पास के लगते हैं, इनके प्रेम, इनके संयोग, वियोग, मान, अभिसार, रूपासक्ति, प्रथम मिलन, रति विलास…सब के सब परम सामाजिक और परम पारिवारिक लगते हैं। विद्यापति के नायक-नायिका को प्रेम ‘दुहु मुख हेरइत दुहु भेलभोर’ से हुआ तो सूर के नायक-नायिका को राजपथ पर यात्रा करते हुए ‘चलल राजपथ दुहु उद्झाईं’। दोनों के यहाँ नायिका की लाज, संकोच, लुका छिपी…सब इहलौकिक हैं। और कारण भी यही है कि आज भाषा और क्षेत्र की सीमा को तोड़कर विद्यापति और सूरदास अपने लीलापदों के साथ जन-जन के मस्तिष्क पर बसे हुए हैं। बुद्धिजीवियों के शोधग्रन्थों से लेकर टोले मुहल्ले के लोकाचारों और सांस्कृतिक-सामाजिक अनुष्ठानों में, शिक्षित से अनपढ़ महिलाओं के कण्ठ में इनके पद बसे हुए हैं—संस्कार-गीत के रूप में, लोक-गीत के रूप में, भजन-कीर्तन के रूप में, लोकोक्ति-मुहावरों के रूप में और अन्ततः जीवन-प्रक्रिया के रूप में। कह सकते हैं कि विद्यापति और सूरदास के लीला पदों में लोक-जीवन की एक-एक धड़कन मौजूद है। 

  1. मध्ययुगीन स्‍त्री का चरित्र और राधा

   भक्ति-काल में नारियों के प्रति सामान्य जनता का जो व्यावहारिक दृष्टिकोण था, उसी का परिष्कृत एवं परिवर्धित रूप हमें उस काल के कवियों की रचनाओं में दिखाई देता है। सन्त एवं भक्त कवि अपने ईश्‍वर की प्राप्‍त‍ि या मुक्ति के वैचारिक धरातल पर भले ही भिन्‍न हों, परन्तु उनका नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण लगभग एक-सा है। नारी के प्रति सामान्य जन-मानस के दृष्टिकोण रोचक हैं। जनता नारी में उन्हीं गुणों की अपेक्षा करती थी, जिसका प्रतिपादन स्मृतियों और पुराणों में हुआ है। स्‍त्रियों का धर्म हर दशा में पति की आज्ञा का पालन करना, किसी भी रूप में पति से असन्‍तोष व्यक्त न करना, गृह-प्रबन्ध, सन्‍तति-पालन, पति एवं सन्‍तान हेतु अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्रता एवं आकांक्षाओं की तिलांजलि देना माना जाता था। जिसकी अपेक्षा भक्तिकालीन जनता के साथ-साथ उस समय के कवियों ने भी की। सूरदास से पूर्व कबीर ने भी स्‍त्री के कामिनी रूप की निन्दा की। परवर्ती तुलसीदास ने भी घोषणा की—

 

एकई धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।

 

कृष्ण-भक्ति साहित्य में नारी का एक अलग रूप निखरकर सामने आता है, जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष की सहचरी रही है, संगिनी और सखा रही है। समाज के सभी कार्यो में वह पुरुषों का सहयोग करती दिखाई देती है। उदाहरणस्वरूप गोपियाँ दूध, दही का उत्पादन और विक्रय करती है, कुब्जा वस्‍त्र धोने का काम करती है, यशोदा स्वयं दधिमन्‍थन एवं गार्हस्थ कार्यों में लगी रहती है। हर पर्व-त्यौहार में ये स्त्रियाँ एक लोक-रंग का संचार करती हैं।

 

सूरदास की राधा

 

सूरदास के यहाँ राधा और कृष्ण का प्रेम विकासशील है। यह वि‍कास सौन्दर्य के आकर्षण से प्रारम्भ होता है। लोक-व्यवहार से पैदा होकर व्यवहार के हर बन्धनों से मुक्त स्वछन्द रूप में परिणत हो जाता है। बाल्यावस्था के राधा-कृष्ण प्रथम दर्शन में ही आकर्षण की अनुभूति करते हैं—

 

खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी।

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औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।

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सूर स्याम देखत ही रीझै, नैन नैन मिलि परी ठगोरी।

 

इसी प्रथम दर्शन के बाद राधा-कृष्ण का साहचर्य बढ़ता है और धीरे-धीरे सहज रूप में यह प्रेम विकसित होता है। सूरसागर में राधा शृंगार-रस के केन्द्र में है। राधा-कृष्ण का प्रेम पारस्परिक है, जो हमेशा नया बना रहता है। विद्यापति के शब्दों में कहें तो तिल-तिल नूतन होए  वाली स्थिति है। चाहे घर का अन्तःपुर हो, यमुना का किनारा हो, खरिक या ब्रज की गलियाँ हो, सारे ही ठौर मिलन का केन्द्र बन जाते हैं। गोदोहन भी राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ा का केन्द्र बन जाता है। एक धार दोहनी में तो दूसरी राधा के मुँह पर। सूरदास की राधा की उलहना दृष्टव्य है—

 

तुम पै कौन दुहावै गैया?

इत चितवत, उत धार चलावत, एहि सिखायो है मैया।

 

सूरदास के यहाँ प्रेम उम्र और अवस्था के अनुसार परिवर्तित होता है। बाल्यावस्था का प्रेम निष्काम है, किशोरावस्था का प्रेम सकाम है। जिसे गोदोहन, कन्दुक-क्रीड़न, पनघटलीला, दानलीला आदि में देखा जा सकता है। सूरदास  के यहाँ संयोग से अधिक वियोग शृंगार का प्रसार है। भ्रमरगीत  विरह का करुण-काव्य है, जिसमें राधा के साथ-साथ गोपियों के विरह का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। भ्रमरगीत में राधा का विरह घनीभूत हो जाता है। संयोग के दिनों की चपल नेत्रों वाली उन्मत्त एवं अल्हड़ राधा विरह में करुण एवं शांत हो जाती है। संयोग का जो प्रेम देहासक्त था वह अब देहातीत हो जाता है। इस प्रकार मध्यकाल में सूरदास ने प्रेम को एक नई ज़मीन प्रदान की। अपने संपूर्ण भावों के साथ समस्त नारी जाति को सम्मान प्रदान किया। कालावधि का थोड़ा अतिक्रमण करें और राधा के चरित्रांकन में सूरदास पर पूर्ववर्ती रचनाकार के प्रभाव का अवलोकन करें, तो सीधी नज़र विद्यापति पर टिकती है। यद्यपि हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन के मद्देनज़र विद्यापति आदिकाल के रचनाकार हैं, पर ऐतिहासिक दृष्टि से काल-विभाजन पर गौर करें तो विद्यापति का दौर मध्यकाल का ही ठहरता है। दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक एवं आस-पास के नगरों-उपनगरों की शासन-पद्धति से सामाजिक तौर पर पर्याप्‍त उथल-पुथल मची हुई थी। दिल्ली से लेकर बंगाल के शासन क्षेत्र तक में आक्रमणों का सिलसिला इस तरह छाया हुआ था कि पूरा समाज उद्वेलित था। सैन्य-यात्रा के राहों में जो समाज जीवन बिता रहा था, उसमें उन उद्वेलनों से जीवन के प्रति बड़ी निराशा छाई हुई थी। जिसे विद्यापति के गीति-काव्यों ने शृंगारिकता के कारण पुनर्जीवन दिया, उन गीति-काव्यों में राधा का समुज्ज्वल चरित्रांकन सर्वाधिक प्रभावी दिखता है। विद्यापति की राधा उनके पूरे काव्य-संसार में प्रेम के उत्कर्ष को रेखांकित करती है। राधा का वही निर्द्वन्‍द्व प्रेम-अनुराग सूरदास की राधा में भी परिलक्षित है, जिसे सूर और विद्यापति की राधा के तुलनात्मक अध्ययन से भली-भाँति समझा जा सकता है।

  

6. निष्कर्ष

 

विद्यापति और सूरदास के पदों के साम्य पर लम्बी बातचीत की जा सकती है। एक से एक इसके उदाहरण दिए जा सकते हैं। दोनों के पदों की गीतात्मकता, लयात्मकता भाव के लिए मनोहारी बन उठती है। गीतिकाव्य के सुविचारित और तर्क से निर्धारित तत्त्‍वों में आत्मानुभूति, भाव-घनत्व, भाव-ऐक्य, वैयक्तिकता, अनुभूति और अभिव्यक्ति की संक्षिप्‍तता, संगीतात्मकता–शब्द, स्वर और भाव का संगीत, कलात्मकता, अकृत्रिमता और रूप वैविध्य प्रमुख माने गए हैं। इन दोनों कवियों के पदों में ये सारे तत्त्‍व अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ मौजूद हैं।

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   अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. भ्रमरगीत सार , रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा, वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  4. मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
  5. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली ,मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली

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