32 सूफीमत : इतिहास और विचारधारा

रीता दुबे and देवशंकर नवीन

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  1. पाठ का उद्देश्य

     इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • सूफी शब्द का अर्थ जान सकेंगे।
  • विद्वानों द्वारा समय–समय पर दी गई सूफी की परिभाषा से अवगत होंगे।
  • सूफीमत द्वारा अपनाई गई रूपरेखा की परिस्थितियों से परिचित होंगे।
  • अपने विकास के लिए सूफीमत द्वारा अपनाए गए सिद्धान्तों से अवगत होंगे।
  • सूफीमत की विचारधारा जानेंगे।
  1. प्रस्तावना

    सूफीमत का विश्‍व के धर्मों और सिद्धान्तों में महत्त्वपूर्ण स्थान है । ईश्‍वर की प्राप्‍त‍ि के लिए सूफियों द्वारा अपनाए गए मार्ग ने सभी का ध्यान आकर्षित किया। उनके प्रेम के सिद्धान्त और प्रेम की महत्ता ने पूरी दुनिया में अपना प्रभाव दिखाया। इस प्रेम को इतना महत्त्व देने के कारण, सूफीमत के उद्भव और विकास का खाका, अपने उद्भव काल से अब तक भारत में उनकी भूमिका-निर्वहन की पद्धति पर विचार करना यहाँ मुख्य उद्देश्य होगा।

  1. सूफी शब्द का अर्थ

   सूफी शब्द को लेकर विद्वानों में हमेशा मतभेद रहा है। अधिकांश विद्वान इसकी उत्पत्ति ‘सफा’ शब्द से बताते हैं, जिसका तात्पर्य है ‘पवित्र’। इन विद्वानों के अनुसार जो लोग पवित्र आचार विचार का पालन करते हैं, वे सूफी कहलाएँ। कुछ विद्वान इससे सहमत नहीं हैं, उनका मानना है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सुफ’ शब्द से हुई है जो लोग सफेद ऊन की चादर धारण करते हैं, वही सूफी हैं। ब्राउन की भी यही मान्यता है. उनके अनुसार पर्शिया में उन रहस्यवादी साधकों को ‘पश्मीना पूश’ (ऊन पहनने वाला ) कहा गया है। ये लोग ऊन का वस्‍त्र धारण करते थे, सादगी भरा जीवन बिताते थे और विलासिता के जीवन से दूर रहते थे। कुछ विद्वानों का कहना है कि मदीना में मस्जिद के सामने वाले चबूतरे पर बैठने वाले भक्तों अह-अल-सुफ्फाह के ‘सुफ्फाह’ शब्द से सूफी बना है । कुछ लोगों ने अरब की ‘सफ्फ’ जाति से सूफी शब्द की उत्पत्ति मानी है, तो कुछ विद्वान ग्रीक शब्द ‘सोफिया’ (ज्ञान) से इसकी उत्पत्ति मानते हैं ।

  1. सूफी का तात्पर्य

    जिस तरह का मतभेद विद्वानों में सूफी शब्द को लेकर है, उसी प्रकार सूफी की परिभाषा और अर्थ को लेकर भी है। आखिर किस तरह के साधकों को सूफी कहा जा सकता है विद्वान इस मसले पर एकमत नहीं है। सूफीमत के विद्वान निकोल्सन ने मारुफ अल करखी की परिभाषा को सूफी धर्म की सबसे पुरानी परिभाषा मानी है। मारुफ अल करखी के अनुसार “परमात्मा सम्बन्धी सत्य को जानना और मानवीय वस्तुओं का त्याग ही सूफी का धर्म है (आर. ए. निकोल्सन, अरब साहित्य का इतिहास, पृ. 385)।” प्रमुख सूफी साधक जुन्‍नैद का मानना है कि तसव्वुफ का मतलब यह है कि परमात्मा तुम्हें अपने स्वार्थ के लिए जीवन न धारण करने दे, और कुछ ऐसा कर दे कि तुम उसी के लिए जिओ। जून नून मिस्‍त्री ने सूफी की विशेषता बताते हुए कहा है कि “सूफी वह है जो वचन और कर्म में सामंजस्य बनाए रखता है और उसका मौन ही उस अवस्था का परिचय देता है और जो सांसारिक बन्धनों को दूर कर देता है (सूफीमत साधना और साहित्य, रामपूजन तिवारी, पृ. 169)।” अल गजाली भी उसी को सूफी मानता है जो शान्ति से रहता हुआ ईश्‍वर में अविराम लीन रहे।” (Al Ghazali The Mystic, p. 104) अबु बक्र शिबली का मानना है कि ईश्‍वर के अतिरिक्त अखिल विश्‍व का त्याग ही तसव्वुफ है ।

  1. सूफीमत का आरम्भ और विकास

   सूफीमत का अविर्भाव ईसा की सातवीं शताब्दी से माना जाता है। जामी का कहना है कि इस (सूफी) शब्द का सबसे पहला प्रयोग सन् 800 से पूर्व अबू हाशिम के लिए हुआ था। इसके पचास वर्ष के अन्दर इराक में तथा दो सौ वर्ष में सभी मुस्लिम रहस्यवादियों के बीच इसका प्रयोग होने लगा। इस काल के प्रमुख सूफी साधकों में इब्राहिम बिन अधम, (सन् 777), दाउद अत-ताइ (सन् 781-782), राबिया अल अदाविया (सन् 802), हसन बसरी (सन् 728), मालिक बिन दीवार, फजल रक्‍काशी हैं। इस समय के सूफियों का कोई संघटित सम्प्रदाय नहीं था। ये आपस में मिल जुल कर विचार किया करते थे और  परम्परागत नियम कानून को मानते थे। इस काल में बाह्य आडम्बरों का खुलकर विरोध कम ही देखने को मिलता था, लेकिन चिन्तन मनन का काम प्रारम्भ हो चुका था। इब्राहिम बिन अधम संसार को मिथ्या मानता था. उसका मानना था कि वही व्यक्ति सन्त हो सकता है जो संसार के विषय वासना पर लुब्ध न हों और परमात्मा के उपासना में दिन रात लगे रहे। एक बार राबिया अपने परमात्मा के चिन्तन में डूबी हुई थी, तभी एक सुबह उसकी एक परिचारिका ने उससे कहा बाहर आकर परमात्मा की सुन्दर कृति को देखो। उसने कोठरी में से ही जवाब दिया तुम्हीं भीतर आकर उन वस्तुओं को बनाने वाले को देखो।

 

आठवीं से नौवीं शताब्दी के काल को सूफीमत के विकास की दूसरी अवस्था माना जा  सकता है। इस काल में सूफी साधकों ने दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन करना शुरू कर दिया। मारुफ अल करखी, मंसूर अल ह्ल्लाज, जून नून अल मिस्‍त्री, बायजीद अल बिस्तमी जैसे प्रसिद्ध सूफी साधक इसी समय की देन हैं। पहले साधकों का लक्ष्य आदर्श फकीरी जीवन, ध्यान, ईश्‍वर आराधना था लेकिन अब उनका लक्ष्य परमात्मा को प्रेम द्वारा प्राप्‍त करना था। इसके लिए वे किसी प्रकार के बाह्याडम्बर को मानने के लिए तैयार नहीं थे और उनका खुलकर विरोध करते थे। इस काल में सूफी साधक स्वयं और परमात्मा के बीच ‘अहं’ को सबसे बड़ा व्यवधान मानते थे और उसे दूर करने पर जोर देते थे। इस काल का सूफी साधक प्रकृति के प्रत्येक वस्तु में परम-सत्ता का दर्शन करने लगा। सूफियों का परमात्मा से इश्क और बेखुदी का सिद्धान्त इस्लाम के धर्मानुयायियों को खटकने वाला था और इसके लिए बहुत सारे सूफी साधकों को अपने प्राण गँवाने पड़े। लेकिन सूफी मत के साधक इससे विचलित नहीं हुए। जून नून ने सूफी मार्ग का विशद विवेचन किया है। वे मानते थे कि परमात्मा अज्ञेय और अनन्त है, फिर भी उनसे व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। मारिफ (अध्यात्मिक ज्ञान) और तौहीद (परमात्मा के साथ एकत्व प्राप्‍त करना) के प्रतिष्ठाता भी वे ही थे। बायजीद अल बिस्तमी ने फ़ना (आत्मा का विलयन) और बका (परमात्मा में स्थिति) के सिद्धान्त की नींव डाली। बायजीद आत्मा और परमात्मा के बीच अहं को बाधक मानते थे. उन्होंने कहा कि साँप जिस प्रकार केंचुल छोड़ता है, उसी प्रकार मैंने अपने अहं को छोड़कर, अपनी ओर देखा और पाया कि मैं और वह एक ही है।

 

साधकों द्वारा कुरान शरीफ की व्याख्या भी अपने-अपने तरीके से की जाने लगी जिससे उनमें भी अलग-अलग मत और सम्प्रदाय बन गए। धीरे-धीरे प्रमुख साधकों के शिष्य इकठ्ठा होने लगे और इस प्रकार गुरु की भूमिका महत्त्वपूर्ण होने लगी। सूफीमत और सिद्धान्तों का परिचय देने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे गये, जिससे दसवीं शताब्दी तक सूफीमत की एक निश्‍च‍ित धारा बन गई। सनातनपन्थी इस्लाम से विभेद के कारण अल-गज्जाली जैसे साधकों ने दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की। सन् 1045 में कुशेरी का सुप्रसिद्ध ‘रिसाल–फी-इल्म–अल–तसव्वुफ़’ प्रकाश में आया। इसमें यह दिखाने की चेष्टा की गई कि सूफीमत और सनातन पन्थी इस्लाम में विरोध नहीं है।

 

ईसा की बारहवीं शताब्दी में भिन्‍न-भिन्‍न दरवेशों के सम्प्रदाय का अविर्भाव हुआ। अदवी सम्प्रदाय का संस्थापक अल हक्‍कारी थे और इसकी स्थापना सन् 1163 में की। प्रसिद्ध कादिरी सम्प्रदाय की स्थापना अब्दुल कादिर अल जीली ने की। शहाबुद्दीन शुहरावर्दी ने सोहरावर्दी सम्प्रदाय की स्थापना की।

 

इसके बाद का काल सूफीमत का स्वर्णयुग है। इब्नुल अरबी, जीली जैसे विचारक इसी युग की देन हैं। फारसी के तीन  प्रसिद्ध कवि – फरीदुद्दीन अत्तार, जलालुद्दीन रूमी और शेख सादी ने भी इसी काल में दुनिया को प्रभावित किया। इनके साहित्य ने भी सूफीमत के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। सूफीमत सत्रहवीं शताब्दी तक विकास करता रहा, पर इसके बाद धीरे-धीरे सूफीमत में बाह्याडम्बर तन्त्र–मन्त्र, जादू-टोने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी और तत्कालीन सामाजिक–राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों ने भी इसमें अपना योगदान दिया।

  1. सूफीमत पर विभिन्‍न सम्प्रदायों का प्रभाव

    कुछ विद्वानों का मानना है कि सूफियों के मत और सिद्धान्त तथा उनके साधना पद्धति का आधार कुरान और हदीस है। कुछ विद्वानों के अनुसार इस्लाम धर्म के अनुयायियों में भी रहस्यवादी प्रवृत्ति देखने को मिलती है। सूफियों के प्रेम सम्बन्धी कुछ मत भी कुरान में मिल जाते हैं – “यदि परमात्मा से तुमको प्रेम है, तो मेरा अनुसरण करो और तब परमात्मा तुमसे प्रेम करेगा और तुम्हारे पाप क्षमा कर देगा, क्योंकि वह क्षमाशील और दयालु है (सूफीमत साधना और साहित्य, रामपूजन तिवारी, पृ. 178)।” इस्लाम में आत्मशुद्धि के लिए पंचकर्तव्यों का विधान है। तौहीद (एक ईश्‍वर पर विश्‍वास), सलात (प्रार्थना), रोजा (उपवास), जकात (दान) और हज (काबे की यात्रा)। लेकिन सूफियों ने इनसे प्रेरणा लेते हुए भी इसे हुबहू नहीं अपनाया है। सभी विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। निकोल्सन तथा ब्राउन ने नास्तिक मत, यूनानी मत तथा नव-अफलातूनी दर्शन के प्रभाव को स्वीकार किया है। नव-अफ़लातूनी दर्शन, तर्क और  बुद्धि द्वारा चरम लक्ष्य की प्राप्‍त‍ि नहीं मानते थे, बल्कि उनका मानना था कि हृदय द्वारा वहाँ पहुँचा जा सकता है, उनकी मान्यता के अनुसार वही परमात्मा सभी चीजों का केन्द्र है। यह संसार उसकी प्रतिछाया है। लेकिन सूफियों से इस साम्य के बावजूद, सूफियों की तरह परमात्मा के साथ रागात्मक समबन्ध स्थापित किया जा सकता है, इस बात से वे सहमत नहीं थे। नास्तिक मत को मानने वाले आध्यात्मिक जगत को बुद्धि से परे तथा आत्मप्रकाश और रहस्यानुभूति की बात मानते थे। सूफियों में जो संन्यास-व्रत की बात कही गई है उस पर नास्तिक मत का भी जोर है ताकि इस दुनिया की बुराइयों को दूर कर आध्यात्मिक जगत को पाया जा सके। निकोल्सन ने ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म के प्रभाव को भी स्वीकार किया है। बौद्धों के निर्वाण के साथ फ़ना के सिद्धान्त में बहुत समानता है सूफियों का चरम लक्ष्य फ़ना होना है। सूफियों के फ़ना के मार्ग में ध्यानावस्था (मुराकबा) की मंजिल आदि है, जो बौद्धों के निर्वाण के पहले के ‘ध्यान’ अथवा ‘समाधि’ की अवस्था जैसी है। ब्राउन इस बात से सहमत नहीं है कि सूफीमत पर भारतीय दर्शन का प्रभाव है, लेकिन अन्य कई विद्वान जैसे वानक्रेमर और गोल्डजिहर इस बात से सहमत है कि भावाविष्ट्वस्था, योग प्राणायाम आदि भारतीय दर्शन की देन है। सूफीमत और अद्वैतवाद में काफी समानता है। उपवास, जप, तप का विधान, गुरु के प्रति आत्मसमर्पण, आत्मा तथा परमात्मा में एकता, दोनों ही मत में समान है। प्रसिद्ध सूफी साधक मंसूर ह्ल्लाज के ‘अन–हल-हक’ में अद्वैत की ही गूँज है। सृष्टि के सम्बन्ध में सूफीमत की तथा उपनिषदों में प्रकट किए गए विचारों में समानता है। परमात्मा जब एक है तो अनेक कैसे हो गया? इसके लिए सूफी एक हदीस का प्रमाण देते हैं जिसका अर्थ है मैं एक छिपा हुआ खजाना था, फिर मैंने इच्छा की कि लोग मुझे जाने। इसी बात को ‘तैतिरियोपनिषद’ में इस प्रकार कहा गया है – ‘सोअकामयत बहुस्यां प्रजायेयेति’ अर्थात परमेश्‍वर ने विचार किया कि मैं प्रकट तथा बहुत हो जाऊँ। लेकिन सूफीमत अवतारवाद और पुनर्जन्म में विश्‍वास नहीं करता।

  1. सूफीमत की विचारधारा

    सूफीमत में परमात्मा सम्बन्धी प्रमुख सिद्धान्त में ‘वह्द्तुलवुजुद’ का सिद्धान्त है, जिसके प्रवर्तक इब्नुल अरबी थे। इनके अनुसार वास्तविक सत्ता एक है, उस सत्ता के सिवाय अन्य किसी सत्ता का अस्तित्व सम्भव नहीं है। वह एक मात्र सत्ता परमात्मा है और यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत उस परम सत्ता की अभिव्यक्ति है। इसीलिए सूफी यह मानते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि का उद्गम एक है और इसका लक्ष्य उस सृष्टि में लय हो जाना है। लेकिन सनातनपन्थी इस्लाम को यह बात स्वीकार नहीं है, हालाँकि सूफियों की भाँति यह भी एकेश्‍वरवादी ईश्‍वर में विश्‍वास करते हैं, लेकिन दोनों के एकेश्‍वरवाद में भेद है। सनातनपन्थी इस्लाम के अनुसार परमात्मा अपने जैसा अकेला है, उनके जैसा और कुछ नहीं है। वह अपने जात (सत्ता), सिफत (गुण) और कर्म में अकेला है। वह सृष्टि के सभी पदार्थों से भिन्‍न है।

 

सम्पूर्ण सृष्टि उसके प्रकाश से प्रकाशित है। जिस प्रकार सूर्य की रश्मियाँ सूर्य से निकलती है, फिर भी सूर्य ज्यों का त्यों बना रहता है; बहुत सारे सूफी ऐसे भी है, जो कहते है कि यह सृष्टि दर्पण के समान है, जिसमें परमात्मा के गुण प्रतिबिम्बित होते हैं। परमात्मा और सृष्टि के इस सम्बन्ध तक पहुँचने की प्रक्रिया के बीच सूफियों ने कई स्तरों का जिक्र किया है। पहला स्तर वह है, जहाँ परमात्मा निरपेक्ष, निर्गुण, अनाभिव्यक्त थे, सम्बन्धविहीन थे, यह अवस्था ‘अहदियत’ थी। इसके बाद उन्हे अपनी सत्ता और शक्ति का ज्ञान हुआ। यह अवस्था ‘वहदत’ थी। तृतीय अवस्था में जीवन, प्रकाश, अहं, इच्छा का आविर्भाव हुआ जो ‘वाहिदियत’ कहलाई। जब सत्ता के विभिन्‍न गुण जीवन, ज्ञान, शक्ति, सुनना, बोलना आदि प्रकट होते है, तब वह ‘लाहूत’ (देवत्व) के नाम से अभिहित होते हैं और जब ये उसके क्रियात्मक गुण रूप धारण करके सृष्टि करते हैं। जीवनदान करते हैं, तब ‘जबरूत’ (शक्ति) कहलाती है। यह क्रियाशील गुण जब  भौतिक जगत में अभिव्यक्त हुआ तो ‘आलमेनासूत’ कहलाए। इसलिए सूफियों ने परमात्मा को जानने  के लिए अपने आपको जानना आवश्यक बताया। परमात्मा तो हर कण में व्याप्‍त हैं, लेकिन मनुष्य अपने अहं के कारण उसे देख नहीं पाता। संसार की विषय वासना, उसके और परमात्मा के एकत्व के बीच दीवार है; और जब मोह के वशीभूत आत्मा को इसका ज्ञान होता है, तभी वह परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है।

 

सूफियों के अनुसार यह आत्मा इस संसार में आने के पहले परमात्मा से अभिन्‍न था और वापस आत्मा को उस अभिन्‍नता तक पहुँचने के लिए जिक्र (स्मरण) और मुराकबत (ध्यान) की अवस्था से गुजरना पड़ता है। जिसमें वज्द और वुजूद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। वज्द (भावावेश) की अवस्था में साधक परमात्मा को पाने के लिए व्याकुल हो उठता है। उसी का चिन्तन-मनन करता है और उसी के नाम की रट लगाए रहता है। सांसारिक व्यापारों से परे हो जाता है और इस अवस्था के बाद उसमें वुजूद की अवस्था आती है। जिसमें साधक को अपनी अलग सत्ता का ज्ञान नहीं होता है।

 

फ़ना और बका की स्थिति को लेकर सूफी एकमत नहीं है। फ़ना की व्याख्या करते हुए निकोल्सन ने कहा है कि “फ़ना आत्मा की वह उर्ध्वगति है, जब कि उसकी सारी आकांक्षाएँ, सभी स्वार्थ, सांसारिक मोह-माया नष्ट हो जाता है। और इस प्रकार जब वह स्व-चिन्तन से विरत हो जाता है, तब वह स्वयं परम प्रियतम की चिन्ता का विषय बन जाता है। प्रेम और प्रेमाराध्य के बीच ऐक्य स्थापित हो जाता है।” फ़ना की अन्तिम अवस्था से बका का आरम्भ होता है जिसके बाद आत्मा परमात्मा से एकमेक हो जाता है। सूफी साधक हुज्वेरी का मानना है कि “फ़ना का अर्थ सत्ता और इस मनुष्य शरीर का नष्ट होना है, वे भूल करते हैं। उसी प्रकार से यह समझना गलत है कि बका की स्थिति में परमात्मा मनुष्य में वास करने लगता है। फ़ना का वास्तविक मतलब यह है कि त्रुटियों के प्रति मनुष्य सचेतन हो जाता है, और उसकी चाहना से विरत हो जाता है।…वह परमात्मा की नित्य इच्छा का अंग बन जाता है। यह बिल्कुल नामुमिकन है कि परमात्मा के गुण मनुष्य के गुण बन जायें अथवा परमात्मा के गुण मनुष्य में आ जाए।” (सूफीमत साधना और साहित्य, पृ. 302)

 

सूफियों के लिए परमात्मा के साथ एकत्व प्राप्‍त करना ही साधक का लक्ष्य होता है। जामी ने इस एकत्व प्राप्‍त‍ि की व्याख्या करते हुए कहा कि मनुष्य अपने हृदय को इतना पवित्र बना ले कि उसे परमात्मा के सिवा किसी अन्य का ध्यान न रहे, यही एकत्व की स्थिति है। और इस एकत्व को प्राप्‍त करने के लिए साधक (सालिक) को मारिफ (परमात्मा का ज्ञान) प्राप्‍त करना होता है जिसके लिए उसे अनेक मंजिलों से गुजरना पड़ता है। प्राय: सूफी साधक सात मंजिलों को पार करने की बात करते हैं, जो निम्‍नलिखित है –

 

उबुदियत : इस अवस्था में साधक अपने हृदय को पवित्र करता है।

इश्क : इस अवस्था में परमात्मा का प्रेम साधक के हृदय में जाग्रत हो जाता है।

जुहद : इस अवस्था में साधक के मन से सांसारिक इच्छाओं का अवसान हो जाता है।

मारिफत : इसमें साधक परमात्मा के गुण, स्वभाव कर्म आदि का ध्यान करता है।

वज्द : परमात्मा के एकत्व का ध्यान करते हुए साधक में भावाविष्टावस्था उत्पन्‍न होती है।

हकीकत : इसमें साधक को परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है और वह पूर्ण रूप से परमात्मा पर निर्भर हो जाता है।

वस्ल : इसमें साधक परमात्मा का साक्षात्कार करता है। फ़ना और बक से पहले की यही मंजिल है।

 

इन सबमें परमात्मा को पाने की सबसे बड़ी सीढ़ी परमात्मा से प्रेम है। इसलिए सूफी साधकों ने प्रेम को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है। प्रेम कब और कैसे सम्भव है इसे रूमी ने एक मसनवी में बहुत खूबसूरती से बयान किया है। एक बार परमात्मा के दरवाजे पर साधक ने दस्तक दी। भीतर से आवाज आई “कौन है?” उस साधक ने जवाब दिया “मैं हूँ।” भीतर से फिर आवाज आई “इस घर में तेरे और मेरे, दोनों के लिए स्थान नहीं है।” साधक चला गया उसने एकान्त सेवा की, प्रार्थना की और वापस आकर दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई कौन है? साधक रूपी प्रेमी ने उत्तर दिया “तू है।” तब दरवाजा खुल गया अर्थात जब तक “मैं” और “तू” का भेद बना है, तब तक प्रेम सम्भव नहीं है। इसलिए अल–कुरशी का कहना है कि “सच्‍चे प्रेम का मतलब है कि तुम जिस परम प्रियतम से प्रेम करते हो, उसे सब कुछ, जो तुम्हारे पास है, दे दो; जिससे कि तुम्हारा अपना कहने को कुछ भी न रह जाए।” प्रेम का यह एकत्व जामी की कविताओं में भी देखने को मिलता है – “मैं वही हूँ जिसे मैं प्यार करता हूँ और जिससे मैं प्रेम करता हूँ वह मैं ही हूँ। एक ही शरीर में वास करने वाले हम दो प्राण है अगर तुम मुझे देखते हो, तो तुम उसे देखते हो और अगर तुम उसे देखते हो तो तुम हम दोनों को देख रहे हो।

  1. निष्कर्ष

    सूफीमत का अविर्भाव सातवीं शताब्दी से माना जाता है। जामी का कहना है कि इस (सूफी) शब्द का सबसे पहले प्रयोग सन् 800 से पूर्व अबू हाशिम के लिए हुआ था।  प्रमुख सूफी साधकों में इब्राहिम बिन अधम (सन् 777), दाउद अत-ताइ (सन् 781-782), राबिया अल अदाविया (आठवीं से नौवीं शताब्दी) के काल को सूफीमत के विकास की दूसरी अवस्था माना जा सकता है। इस काल में सूफी साधकों ने दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन करना शुरू कर दिया। मारुफ अल करखी, मंसूर अल ह्ल्लाज, जून नून अल मिस्‍त्री, बायजीद अल बिस्तमी जैसे प्रसिद्ध सूफी साधक इसी समय की देन हैं।  सूफीमत और सिद्धांतों का परिचय देने वाले अनेक ग्रन्थ लिखे गए, जिससे दसवीं शताब्दी तक सूफीमत की एक निश्‍च‍ित धारा बन गयी। सनातनपन्थी इस्लाम से विभेद के कारण अल-गज्जाली जैसे साधकों ने दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की। वास्तव में सूफी दर्शन पर ईसाई मत, नास्तिक मत, बौद्ध दर्शन, भारतीय वेदान्त, नव–अफलातुनी दर्शन सभी का प्रभाव है। सूफी मानते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि का उद्गम एक है, और इसका लक्ष्य उस सृष्टि में लय हो जाना है । जब तक आत्मा और परमात्मा के बीच ‘मैं’ और “तू” का भेद बना है, तब तक प्रेम सम्भव नहीं है। इसलिए अल–कुरशी का कहना है कि “सच्‍चे प्रेम का मतलब है कि तुम जिस परम प्रियतम से प्रेम करते हो, उसे सब कुछ जो तुम्हारे पास है, दे दो जिससे तुम्हारा अपना कहने को कुछ भी न रह जाए।” इसके लिए साधकों को अनेक मंजिलों से गुजरना पड़ता है और अपने हृदय को पवित्र करना पड़ता है, तभी आत्मा और परमात्मा का मिलन सम्भव है।

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. सूफीमत साधना और साहित्य,  रामपूजन तिवारी,नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
  2. सूफीमत और हिन्दी साहित्य,  विमल कुमार जैन, आत्माराम एण्ड सन्स,दिल्ली
  3. सूफी काव्य में पौराणिक सन्दर्भ, डॉ. अनिल कुमार, ग्रन्थलोक, नई दिल्ली
  4. सूफी सन्त साहित्य का उद्भव और विकास, प्रो. जय बहादुर लाल, नवयुग ग्रन्थागार, लखनऊ
  5. हिन्दी के सूफी प्रेमाख्यान, परशुराम चतुर्वेदी, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर प्राइवेट लिमिटेड,दिल्ली
  6. इस्लाम के सूफी साधक ,निकोल्सन रेनाल्ड .ए० अनुवाद,नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, मित्रा प्रकाशन,प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद
  7. मध्ययुगीन रोमांचक आख्यान,  नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
  8. सूफी काव्य विमर्श, श्याम मनोहर पाण्डेय, विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा
  9. तसव्वुफ अथवा सूफीमत, चंद्रबली पाण्डेय,सरस्वती मन्दिर जतनबर, वाराणसी
  10. मलिक मुहम्मद जायसी, संपादक , वासुदेव शरण अग्रवाल
  11.  सूफी सन्त साहित्य का उद्भव और विकास, प्रो. जयबहादुर लाल, रामेश्वर तिवारी, नवयुग ग्रंथगार, लखनऊ

    वेब लिंक्स

  1. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
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  6. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%80