15 सगुण भक्तिकाव्य : दार्शनिक एवं सामाजिक आधार

अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप

  • सगुण भक्ति-काव्य और विभिन्‍न दार्शनिक मतों के पारस्परिक सम्बन्ध समझ सकेंगे।
  • सगुण भक्ति-काव्य के विभिन्‍न रूपों के दार्शनिक आधार जान सकेंगे।
  • सगुण भक्ति-काव्य के सामाजिक आधार पहचान सकेंगें।
  • राम और कृष्ण-भक्ति काव्य के सामाजिक आधारों की तुलना कर सकेंगे।
  • भक्ति-काव्य और समाज के सम्बन्ध की तुलना अन्य दौर के साहित्य और समाज के सम्बन्ध से कर सकेंगे।

    2.    प्रस्तावना

 

साहित्य में दर्शन शामिल रहता है। भक्ति-काव्य में दर्शन के अनेक रूप अनुगुम्फित मिलते हैं। सगुण भक्ति के दो मुख्य रूपों राम और कृष्ण साहित्य के मूल में राम और कृष्ण-भक्ति का मूल दर्शन अन्तर्निहित है। सगुण भक्ति काव्य को भली-भाँति समझने के लिए उसके दार्शनिक आधार को समझना आवश्यक है। दर्शन और साहित्य एक निश्‍च‍ित तरह की सामाजिक संरचना की उपज होता है। निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति अलग-अलग विशेषताओं वाले समाज की उपज है। उसकी स्वीकृति पर भी उसके सामाजिक आधार का प्रभाव है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि सगुण भक्ति के विभिन्‍न रूप किन दार्शनिक मतों पर आधारित हैं। इनमें क्या समानता और भिन्‍नता है? ये किस समाज की उपज हैं? इन्हें समाज के किस हिस्से में लोकप्रियता मिली? तथा भक्ति-काव्य के सामाजिक और दार्शनिक आधार को पहचानने की कोशिश किस रूप में सामने आई है? सगुण भक्ति-काव्य के दार्शनिक एवं सामाजिक आधार के इन्हीं बिन्दुओं पर यहाँ विचार किया जाएगा।

 

3.   सगुण भक्ति-काव्य के दार्शनिक आधार

 

मध्यकालीन भारत की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक परिस्थितियों ने भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि बनाई। दक्षिण से आई भक्ति उत्तर में व्यापक रूप से फैल सकी, इसका एक कारण उसका दृढ़ दार्शनिक आधार था। भक्ति-काव्य दर्शन के तत्त्व और साधना-पद्धति का सीधा अनुवाद नहीं है, उसकी व्यवहारिक स्वीकृति है। निर्गुण और सगुण भक्ति-काव्य अपने दार्शनिक आधारों का स्पष्ट संकेत करते हैं। सगुण भक्ति की दोनों प्रमुख शाखाएँ दृढ़ दार्शनिक सिद्धान्त से परिपूर्ण हैं। इसके दार्शनिक आधार के स्रोत के रूप में आलवारों के साहित्य की पहचान की जा सकती है। इन्होंने अपने जीवन और साहित्य द्वारा बताया कि भक्ति का मार्ग सबके लिए सुलभ है। इसमें ब्राह्मण और शूद्र, पुरुष और स्‍त्री, बालक और वृद्ध सबको एक समान अधिकार है। ये मानते थे कि ईश्‍वर के तीन रूपों में विष्णु श्रेष्ठ और परम सत्य हैं। उनकी एकान्तिक भक्ति मोक्ष दिलाने वाली है। सभी को किसी फल की इच्छा के बिना अपना कर्तव्य करना चाहिए। ईश्‍वर को इन्द्रिय और बुद्धि के बजाय प्रेम से पाना सहज है। आलवारों ने प्रेम से ईश्‍वर तक पहुंचने का रास्ता दिखाया। उसी समय इस भक्ति मार्ग को तर्क और युक्ति के सहारे प्रतिष्ठित करने वाला आचार्य वर्ग भी सामने आया। आचार्यों ने माया का खण्डन किया और ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की सरलता का प्रतिपादन किया। इस तरह भक्ति आनन्दानुभव और तत्व चिन्तन दोनों आयामों के साथ विकसित होती गई। कर्नाटक में रामानुज ने विशिष्टाद्वैत नामक भक्ति दर्शन का प्रवर्तन किया जो रामानन्द के जरिए हिन्दी सगुण भक्ति काव्य में संचरित हुई। रामानन्द ने रामानुज के विशिष्टाद्वैत को थोड़े परिवर्तन के साथ अपनाकर राम भक्ति को आधार दिया तो वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत ने कृष्ण की पुष्टिमार्गीय भक्ति का प्रवर्तन किया। इसके अतिरिक्त सगुण भक्ति के प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदायों में ब्रह्म सम्प्रदाय (मध्वाचार्य), सनकादि सम्प्रदाय (निंबार्क), रुद्र सम्प्रदाय (विष्णुस्वामी), राधावल्लभी सम्प्रदाय (हित हरिवंश) शामिल हैं। कृष्ण-भक्ति काव्य के अन्य दर्शन सैद्धान्तिक रूप में कुछ भिन्‍नता के बावजूद व्यवहारिक रूप में शुद्धाद्वैत के समान ही थे। आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि “सब सम्प्रदायों के कृष्णभक्त भागवत् में वर्णित कृष्ण की ब्रजलीला को ही लेकर चले क्योंकि उन्होंने अपनी प्रेमलक्षणा भक्ति के लिए कृष्ण का मधुर रूप ही पर्याप्‍त समझा। महत्त्व की भावना से उत्पन्‍न श्रद्धा या पूज्यबुद्धि का अवयव छोड़ देने के कारण कृष्ण के लोकरक्षक और धर्म संस्थापक स्वरूप को सामने रखने की आवश्यकता उन्होंने न समझी।”(हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 105)

 

3.1. रामभक्ति काव्य और विशिष्टाद्वैत

 

हिन्दी साहित्य के राम-भक्ति काव्य का दार्शनिक आधार विशिष्टाद्वैत है। हिन्दी क्षेत्र में विशिष्टाद्वैत रामानन्द के मत के रूप में प्रसारित हुआ। रामानन्द ने रामानुज द्वारा प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत को थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ अपनाया था। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में रामचन्द्र शुक्ल इसका उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि “जगत्प्रसिद्ध स्वामी शंकराचार्य जी ने जिस अद्वैतवाद का निरूपण किया था, वह भक्ति के सन्‍न‍िवेश के उपयुक्त न था। यद्यपि उसमें ब्रह्म की व्यावहारिक सगुण सत्ता का भी स्वीकार था, पर भक्ति के सम्यक् प्रसार के लिए जैसे दृढ़ आधार की आवश्यकता थी, वैसा दृढ़ आधार स्वामी रामानुजाचार्य जी (संवत् 1073) ने खड़ा किया। उनके विशिष्टाद्वैतवाद के अनुसार चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के ही अंश जगत् के सारे प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्‍न होते हैं और उसी में लीन होते हैं। अत: इन जीवों के लिए उद्धार का मार्ग यही है कि वे भक्ति द्वारा उस अंशी का सामीप्य लाभ करने का यत्न करें।”(हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 77)

 

रामानुज के श्री सम्प्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना की जाती थी। रामानन्द ने उपासना के लिए बैकुण्ठ में रहने वाले विष्णु के बजाय लोक में लीला करने वाले अवतार राम का रूप अपनाया। उनके सिद्धान्त के अनुसार सभी मनुष्य सर्वसुलभ सगुण भक्ति के अधिकारी हैं। भक्ति-मार्ग में देश, वर्ण, जाति का भेद विचारणीय नहीं है। समाज के लिए वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मान्य है। विभिन्‍न वर्णों के लिए भिन्‍न भिन्‍न कर्मों की योजना की गई है। किन्तु उपासना के क्षेत्र में सबका समान अधिकार है। भक्ति में किसी तरह का लौकिक प्रतिबन्ध नहीं है। विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त का आभास तुलसी की रचनाओं में सहज ही हो जाता है। वे भक्ति को अन्‍न जल की तरह सबके लिए सुलभ मानते हैं –

 

निगम अगम, साहब सुगम, राम साँचिली चाह।

अंबु असन अवलोकियत, सुलभ सबहि जग माँह(वही, पृ. 93)

 

रामचन्द्र शुक्ल ने रामचरित-मानस में विशिष्टाद्वैत का आभास दिए जाने का उल्लेख किया है।

इसी प्रस्तावना के भीतर तुलसी ने अपनी उपासना के अनुकूल विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त का आभास भी यह कहकर दिया है कि

 

सियाराममय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी

 

जगत को केवल राममय न कहकर उन्होंने ‘सियाराममय’ कहा है। सीता प्रकृति-स्वरूपा हैं, और राम ब्रह्म हैं; प्रकृति अचित् पक्ष है और ब्रह्म चित् पक्ष। अत: परमार्थिक सत्ता चिदचिद्विशिष्ट है, यह स्पष्ट झलकता है। चित् और अचित् वस्तुत: एक ही हैं, इसका निर्देश उन्होंने –

 

गिरा अर्थ, जल बीचि सम कहियत भिन्‍न, न भिन्‍न

बंदौ सीताराम पद जिनहि परम प्रिय खिन्‍न।

कहकर किया है। (वही, पृ. 94-95)

 

3.2. कृष्णभक्ति काव्य और शुद्धाद्वैत

 

हिन्दी साहित्य के कृष्ण-भक्ति काव्य की सबसे प्रबल धारा का दार्शनिक आधार शुद्धाद्वैत है। इसका प्रवर्तन आचार्य वल्लभ ने किया था। सूरसागर आदि कृष्ण-भक्ति काव्य की मुख्य रचनाओं में शुद्धाद्वैत के सिद्धान्त और साधना-पद्धति को अपनाया गया है। इन रचनाओं में लीला पर अत्यधिक बल दिए जाने का कारण इसी दर्शन में निहित है। रामचन्द्र शुक्ल ने वल्लभाचार्य के दर्शन को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि “शंकर ने केवल निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म की ही परमार्थिक सत्ता स्वीकार की थी। वल्लभ ने ब्रह्म में सब धर्म माने। सारी सृष्टि को उन्होंने लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति कहा। अपने को अंशरूप जीवों में बिखराना ब्रह्म की लीलामात्र है। अक्षर ब्रह्म आविर्भाव तिरोभाव की अपनी अचिन्त्य शक्ति से जगत् के रूप में परिणत भी होता है और उसके परे भी रहता है। वह अपने सत्, चित् और आनन्द, इन तीनों स्वरूपों का आविर्भाव और तिरोभाव करता रहता है। जीव में सत् और चित् का आविर्भाव रहता है, पर आनन्द का तिरोभाव। जड़ में केवल सत् का आविर्भाव रहता है, चित् और आनन्द दोनों का तिरोभाव। माया कोई वस्तु नहीं। श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं जो दिव्य गुणों से सम्पन्‍न होकर ‘पुरुषोत्तम’ कहलाते हैं। आनन्द का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम रूप में रहता है, अत: यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएँ नित्य हैं। वे अपने भक्तों के लिए ‘व्यापी वैकुण्ठ में (जो विष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर है) अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते रहते हैं। गोलोक इसी व्यापी वैकुण्ठ का एक खण्ड है जिसमें नित्य रूप में यमुना, वृन्दावन, निकुंज इत्यादि सब कुछ है। भगवान की इस ‘नित्यलीला सृष्टि’ में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 103)

 

शंकर के विपरीत वल्लभ ने सगुण को ईश्‍वर का असली या व्यवहारिक रूप कहा है। निर्गुण ईश्‍वर का तिरोहित रूप है। भक्ति के लिए उन्होंने केवल प्रेम-लक्षणा भक्ति को चुना। प्रेम-साधना में लोक-मर्यादा और वेद-मर्यादा, दोनों का त्याग उचित है। जीव ईश्‍वर का अनुग्रह होने पर ही प्रेम-लक्षणा भक्ति की ओर प्रवृत्त होता है। वल्लभ ने इस अनुग्रह होने को पुष्टि कहा और अपने भक्ति-मार्ग को पुष्टि मार्ग। उनके अनुसार जीव तीन प्रकार के होते हैं –

  1. पुष्टि जीव : इन्हें केवल भगवान के अनुग्रह का ही भरोसा होता है, और ये ‘नित्यलीला’ में प्रवेश पाते हैं।
  2. मर्यादा जीव : ये वेद की विधियों का अनुसरण करते हैं। ये स्वर्ग आदि लोक प्राप्‍त करते हैं।
  3. प्रवाह जीव: ये संसार के प्रवाह में पड़े रहते हैं। ये सांसारिक सुखों की प्राप्ति में ही डूबे रहते हैं।

   सूरसागर वल्लभाचार्य के दर्शन की रससिक्त प्रस्तुति है। सूरदास को पुष्टि-मार्ग का जहाज भी कहा जाता है। उन्होंने वल्लभ सम्प्रदाय की मान्यताओं के अनुसार राधा को स्वकीया के रूप में चित्रित किया है। राधा-कृष्ण की रासलीला शाश्‍वत चलती रहती है –

 

नित्य धाम वृंदावन श्याम नित्य रूप राधा ब्रज धाम।

नित्य रासजल, नित्य विहार। नित्य मान खण्डिता भिसार

 

ब्रह्म रूप एही करतार करण हार त्रिभुवन संसार

 

सूर ने व्यापी बैकुण्ठ के इस रास-रस को सर्वश्रेष्ठ बताया है। इसके लिये बैकुण्ठ निवासी विष्णु भी ललायित रहते हैं –

मुरली धुन बैकुण्ठ

 

नारायण कमला सुनी दम्पति अति रुची हृदय भयी।

 

कृष्ण की लीलाओं में शामिल होने और उसे देखते रहने के आगे भक्त मोक्ष को भी तुच्छ मानते हैं। सूरदास लिखते हैं कि –

 

सेवत सुलभ श्याम सुन्दर को मुक्ति रही हम चारी।

हम सालोक्य सारुप्य सायोज्यो रहत समीप सदाई।

 

निर्गुण मत का खण्डन और सगुण की स्थापना का वल्लभाचार्य के प्रयास की समानता सूरसागर में गोपी-उधौ संवाद के रूप में विस्तार से मिलता है। ब्रह्म प्रकृति के एकता की स्थापना, अविद्या माया के प्रभाव से जीव का भ्रम में पड़ना, विद्या माया के सहारे अपना स्वरूप पहचानना, कृष्ण-लीला में अपना सुध-बुध भुलाना आदि दार्शनिक सिद्धांत कृष्ण काव्य में रचे-बसे मिलते हैं।

 

4.   सगुण भक्ति-काव्य के सामाजिक आधार

 

सगुण भक्ति-काव्य व्यापक सामाजिक आधारों वाला काव्य है। मोटे तौर पर यह वर्णाश्रम व्यवस्था का समर्थन करने, कर्मकाण्डों में विश्‍वास रखने, ईश्‍वर के सगुण रूप तथा अवतारों में आस्था रखने वाले समाज का काव्य है। भक्ति के धरातल पर सगुण भक्ति ने मानव मात्र को स्वीकार किया। राम-भक्ति और कृष्ण-भक्ति काव्य में दार्शनिक स्तर पर भक्ति का द्वार सबके लिए खोल दिये है। रचनात्मक साहित्य में भी यह सिद्धान्त लागू किया गया। भक्ति का अधिकारी होने में वर्ग, जाति, देश का भेद नहीं रहता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें वर्णाश्रम या जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था का विरोध मिलता है। बल्कि जाति और वर्ण का विरोध करने वालों को सगुण साहित्य में खरी खोटी सुनाई गई है। सामाजिक स्तर पर सगुण साहित्य सामाजिक भेद को स्वीकार करता है और बढ़ावा देता है। मगर भक्ति के स्तर पर वह सबका स्वागत करता है। भक्ति का अधिकारी सबको मानना सगुण साहित्य के सामाजिक सरोकारों की विशेषता है और सबको समान न मानना उसकी सीमा। राम और कृष्ण-काव्य दोनों सगुण मत के अन्तर्गत हैं। दोनों के सरोकारों में भी मोटे तौर पर समानता है। किन्तु कुछ अन्तर भी हैं। मसलन कवियों के स्तर पर कृष्ण काव्य में मुसलमान और स्‍त्री वर्ग से भी कृष्ण-भक्त कवि हुए हैं, किन्तु राम-भक्ति में दलित के साथ ही इन वर्गों से कोई कवि नहीं हुआ।

 

4.1. राम भक्ति काव्य का समाज

 

राम-भक्ति काव्य का सामाजिक आधार मुख्यतः उच्‍च वर्ण और जाति के हिन्दुओं से तैयार हुआ है। वह सामन्ती मूल्यों का आदर्श स्वरूप प्रस्तुत करता है। राम-काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में राम राज के रूप में सपनों का समाज निर्मित किया है। रामचरितमानस के उत्तर काण्ड में वर्णित रामराज में किसी से कोई वैर नहीं करता है। विषमताएँ समाप्‍त हो गई हैं। लोग वर्णाश्रम और वेदों के बनाए अपने धर्म पर चलने वाले हैं। दैहिक, दैविक और भौतिक ताप से रामराज मुक्त है। अल्पमृत्यु नहीं होती। कोई दरिद्र या दीन नहीं है।

 

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।

 

इस राज में सभी उदार, परोपकारी और ब्राह्मणों की पूजा करने वाले हैं। एक नारी-व्रत पुरुष हैं और स्‍त्रियाँ पतिव्रता हैं।

 

रामराज को आदर्श रूप में निर्मित करने वाले राम-काव्य की कुछ बड़ी सीमाएँ भी हैं। स्‍त्रियों, दलितों, मुसलमानों आदि के प्रति उसमें व्यक्त दृष्टिकोण आधुनिक दृष्टि से आपत्तिजनक है। स्‍त्री और दलित भी राम से जुड़ते हैं, तो श्रेष्ठ बन जाते हैं, अन्यथा वे हीन हैं।

 

राम-काव्य भक्ति के स्तर पर मानव मात्र को अपनाने वाला काव्य है। समाज निर्माण के स्तर पर वह जाति आधारित भेदभाव को नष्ट करने के लिए जाति को नष्ट करने की माँग करने वाला काव्य नहीं है। वह जातिगत अन्याय को सामंजस्य और सामन्ती मर्यादा को निभाने के जरिए, मिटाने की कोशिश करने वाला काव्य है। उसके सामाजिक सरोकार विशिष्टाद्वैत के दार्शनिक सिद्धान्तों के मेल में हैं। रामानन्द के सिद्धान्तों के सामाजिक सरोकार के बारे में रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं “भक्तिमार्ग में इनकी उदारता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है जैसा कि कुछ लोग समझा और कहा करते हैं कि रामानन्द जी वर्णाश्रम के विरोधी थे। समाज के लिए वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्‍न-भिन्‍न कर्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे। केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सबका समान अधिकार स्वीकार किया।” भक्ति में कोई लौकिक प्रतिबन्ध नहीं मगर सामाजिक स्तर पर शास्‍त्रीय मर्यादा का स्वीकार वाला रामानन्द का सिद्धान्त तुलसीदास के राम राज के आदर्श में शामिल है। उन्होंने लिखा कि –

 

बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।

चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।

 

स्‍त्रियों के प्रति तुलसीदास की दृष्टि मर्मस्पर्शी भी है और नकारात्मक भी। तुलसी की स्‍त्रियों के प्रति कई स्थानों पर नकारात्मक है। तुलसी स्‍त्री को अवगुणों की खान और बुराइयों की जड़ मानते हैं। तुलसी यह भी लिखते हैं कि पति की सेवा (चाहे पति जैसा भी हो) ही उसका धर्म है-

 

सहज अपावन नार, पति सेवत सुभगति लहै।

जस गावत श्रुति चार, अजहुं तुलसी हरिहै पिय

(भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, सन् 2003, पृ. 26)

 

तुलसीदास मानते हैं कि स्वतन्त्रता से नारी बिगड़ जाती है, इसलिए उसे किसी पुरुष के अधीन रहना चाहिए। इस कारण कुछ आलोचक कहते है तुलसी ने राम से जोड़कर सीता का जो रूप प्रस्तुत किया है, वह स्‍त्री को उच्‍चतम सोपान पर आसीन करने वाला है। तुलसी की स्‍त्री-दृष्टि के कुछ सकारात्मक पक्ष भी है, वे सभी की पराधीनता और पराधीनता की पीड़ा को समझते हैं।

 

कत विधि सृजी नारी जगमाहीं, पराधीन सपनेहू सुख नाहीं। (वही, पृ.26)

 

स्‍त्री की ही तरह राम-काव्य की दलित-दृष्टि भी सामाजिक असमानता को बढ़ावा देने वाली है। तुलसी को शूद्रों का खुद को ब्रह्म-ज्ञानी कहकर ब्राह्मणों की बराबरी करना नहीं भाता है। वे इसे कलिकाल का लक्षण मानते हैं –

 

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।

जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि।

 

मुक्तिबोध राम-काव्य की इस दृष्टि को पुराणपन्थी वर्णाश्रमधर्मी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करने वाला मानते हैं। राम-काव्य और तुलसी के सामाजिक  सरोकारों की आलोचना करते हुए उन्होंने लिखा है कि “तुलसीदास ने भी निम्‍नजातीय भक्ति स्वीकार की, किन्तु उसको अपना सामाजिक दायरा बतला दिया। निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रान्तिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदासजी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया। निर्गुण-मतवादियों का ईश्‍वर एक था, किन्तु अब तुलसीदासजी ने मनोजगत् में परब्रह्म के निर्गुण-स्वरूप के बावजूद सगुण ईश्‍वर ने सारा समाज और उसकी व्यवस्था-जो जातिवाद, वर्णाश्रम धर्म पर आधारित थी – उत्पन्‍न की। राम निषाद और गुह का आलिंगन कर सकते थे, किन्तु निषाद और गुह, ब्राह्मण का अपमान कैसे कर सकते थे।”(मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू, नेमीचन्द्र जैन, मुक्तिबोध रचनावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1998, पृ. 291)

 

इसके बावजूद व्यापक जन-समुदाय तक राम काव्य की व्याप्ति का कारण, उसमें उस समय के प्रश्‍नों और उसके हल की झलक है। तुलसी का काल कलिकाल सबको दुःखी करने वाला है। माँ-बाप किसी भी तरह उदर भरने की शिक्षा देने लगे हैं। लम्पट, कपटी और व्यभिचारी लोग ज्ञानी हो गए हैं। लवार वक्ता हो गए हैं। राजा पापी हो गए हैं। बार-बार अकाल पड़ता है। लोग भूखों मरते हैं। पारिवारिक सम्बन्धों पर कलियुग का घातक प्रभाव बताते हुए तुलसी लिखते हैं –

 

कुलवन्ति निकारहिं नारि सती। गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती।

सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं।

 

ऐसे कलिकाल के समाज के समक्ष तुलसी ने राम के रूप में अपना आदर्श नायक रखा। राम ने आदर्श पुत्र, भाई, पति, सखा, स्वामी और राजा की भूमिका निभाई। रामराज कलियुग के त्रिविध तापों का समाधान लेकर आया। इस विराट छवि ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ा। राम-काव्य समाज के बड़े हिस्से का मार्गदर्शक बना।

 

4.2.      कृष्ण भक्ति काव्य का समाज

 

भक्ति-काव्य सामन्ती सामाजिक व्यवस्था की जकड़न से मुक्ति की आकांक्षा का काव्य है। कृष्ण-भक्ति काव्य में भी सामन्ती मूल्यों के प्रति विद्रोह दिखाई पड़ता है। मैनेजर पाण्डेय सूर द्वारा प्रेम के सहज मानवीय और उदात्त स्वरूप का चित्रण करने को सामन्ती मूल्यों का विरोधी बताते हुए लिखते हैं कि “सूरदास के काव्य में कृष्ण से राधा और दूसरी गोपियों का प्रेम सामन्ती नैतिकता के बन्धनों से मुक्त प्रेम है। उन्मुक्त प्रेम की यह कल्पना और मानवीय सम्बन्ध के रूप में उसके विकास का चित्रण प्रेम और विवाह सम्बन्धी सामन्ती दृष्टिकोण का विरोधी है।”

 

कृष्ण-काव्य में प्रेम और शृंगार के रूप में सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों को प्रश्रय देने के रूप में सामाजिक सरोकार की पहचान की जा सकती है। इसके साथ ही कृष्ण के बाल, किशोर और युवा रूप के चारों ओर मिलने वाला समाज भी उसे अपने विभिन्‍न समूहों से सीधा जोड़ता है। ब्रज में गोपालक हैं और किसान भी। बालक-बालिकाएँ हैं, और पुरुष-स्‍त्रियाँ भी। कृष्ण-काव्य इन सबकी आकांक्षा और यथार्थ को अभिव्यक्ति देने वाला काव्य है।

 

स्‍त्री के स्वतन्त्र रूप के चित्रण की दृष्टि से सूर साहित्य सन्त और राम-काव्य से आगे का काव्य है। मैनेजर पाण्डेय सूर की स्‍त्री चित्रण की विशेषताएँ बताते हुए लिखते हैं कि “सगुण भक्ति-काव्य में स्‍त्री सामन्ती रूढ़ियों में जकड़ी हुई है। लेकिन सूरदास के काव्य में स्‍त्री का सहज स्वतन्त्र और तेजस्वी रूप मिलता है, जो प्रेम के अलावा लोक और वेद के किसी बन्धन को नहीं मानती।”(भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, सन् 2003, पृ. 26)

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने राम-काव्य के सामाजिक सरोकारों को सबसे बेहतर माना था। उन्हें कृष्ण-काव्य ‘निराले आनन्द लोक की सृष्टि करने वाला’ लगा था। मैनेजर पाण्डेय इसकी आलोचना करते हुए सूर साहित्य का किसानों से गहरे सरोकार का उल्लेख करते हैं। वे लिखते हैं कि “हिन्दी आलोचना में यह बात फैली हुई है कि सूरदास अपने समय के समाज से बेखबर अपने भाव में मग्‍न रहने वाले कवि हैं। इस पुस्तक के अन्तिम अध्याय के पाठक देखेंगे कि सूर की कविता में लोक-चिन्ता के अभाव की बात सही नहीं है। उनकी काव्यानुभूति की संस्कृति और काव्य-भाषा की संरचना से साबित होता है कि सूरदास का अपने समय के समाज से, विशेषत: किसान-जीवन और उसके परिवेश से कितना अंतरंग सम्बन्ध है।”( भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, सन् 2003, पृ. 4) सूर-काव्य में किसान-जीवन के कृषि सम्बन्धी अनुभवों को प्रतीकात्मक एवं मुहावरेदार प्रयोग के रूप में भी देखा जा सकता है और कृषि-पद्धति की प्रक्रिया को व्यक्त करने वाले पदों के रूप में भी। पशुपालन दुग्ध और उसके उत्पाद आदि के साथ पूरा ग्रामीण समाज कृष्ण-काव्य के सामाजिक आधार के रूप में उभरता है। कृष्ण मथुरा के शासक बनने के लिए गोकुल से चले जाते हैं। इसी बहाने सूर-काव्य में शासन और उसका धर्म भी शामिल हो गया है। मैनेजर पाण्डेय मानते हैं कि “सूर के काव्य में तत्कालीन शासन-व्यवस्था की राजनीति के रूप और अभिप्राय की पहचान है और साथ में जनता के हित की राजनीति की चिन्ता भी है। इसीलिए लिखा है – राजधर्म सब भए सूर, जह प्रजा न जाए सताए। यह अनीति और अत्याचार से मुक्त राजनीति की माँग है, सामन्ती युग में प्रजातन्त्र की आकांक्षा की अभिव्यक्ति है।”(वही, पृ.307)

 

राम-काव्य की तुलना में कृष्ण-काव्य अधिक व्यापक सामाजिक आधारों वाला है। उसमें रैता, पैता, मना, मनसुखा जैसे गोपाल और राधा, लतिका आदि गोपियाँ, ईश्‍वर कृष्ण के साथ बराबरी के स्तर पर संवाद करते हैं। इनमें जाति-पाँति का भेद नहीं है। इसके अतिरिक्त रचनाकार के स्तर पर भी कृष्ण-काव्य में मीराबाई जैसी कवयित्री और रहीम, रसखान, नज़ीर जैसे मुसलमान भी शामिल हैं। राम-काव्य में कोई दलित, स्‍त्री या मुसलमान स्वर नहीं मिलता है। मुक्तिबोध ने इसे राम-काव्य की तुलना में कृष्ण-काव्य की उल्लेखनीय विशेषता माना है।

 

5. निष्कर्ष

 

कह सकते हैं कि सगुण भक्ति-काव्य में ठोस दार्शनिक सिद्धान्त अन्तर्निहित हैं। इन सिद्धान्तों का आधार लेकर भक्ति-काव्य व्यापक जनान्दोलन बनने में सफल रहा। उसने सामन्ती सामाजिक व्यवस्था को जबरदस्त चुनौती दी। राम-काव्य अपने दौर के सामन्ती समाज की आलोचना लेकर आया। रामराज के रूप में उसने सामन्ती व्यवस्था का आदर्श प्रस्तुत किया। कृष्ण-काव्य का सामाजिक आधार राम-काव्य की तुलना में अधिक समावेशी और व्यापक था। उसने वात्सल्य और दाम्पत्य के क्षेत्र में सामन्ती मूल्यों को चुनौती दी। सगुण काव्य ने किसानों, स्‍त्रियों और एक सीमा तक निम्‍न वर्गों से भी सामाजिक सरोकार कायम किया था।

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  4. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  5. भारतीय चिन्तन परम्परा, के. दामोदरन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली
  6. भक्ति आन्दोलन के सामाजिक सरोकार, गोपेश्वर सिंह (सं.),भारतीय प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली
  7. सूर-साहित्य, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. हिन्दी साहित्य का उद्भव ओर विकास, हजारीप्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  9. हिन्दी साहित्य संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद   
  10. भारतीय साहित्य की भूमिका, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  11. हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  12. मध्यककालीन धर्म साधना, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, साहित्य भवन, इलाहाबाद
  13. हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा,बनारस
  14. भक्ति काव्य का समाजशास्त्र, प्रेमशंकर,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 

    वेब लिंक्स

  1. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3_%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE:_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3%E0%A5%80:%E0%A4%B8%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3_%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF
  3. https://vimisahitya.wordpress.com/2008/10/06/sagun_ka_arth/
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  5. https://www.youtube.com/watch?v=tBpmYcEAso8
  6. https://www.youtube.com/watch?v=WEWbl-YbowU