28 रामचरितमानस में सीता का चरित्रांकन

देवशंकर नवीन

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • रामचरितमानस में सीता एवं अन्य स्‍त्री-पात्रों का चारित्रि‍क वैशि‍ष्‍ट्य जान पाएँगे।
  • मध्यकालीन समाज में स्‍त्रियों की स्थिति एवं तुलसीदास के सीता की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • रामचरितमानस में खल पात्रों के रूप में वर्णित स्‍त्री-चरित्रों की जानकारी ले पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

   सीता का चरित्रांकन, रामचरितमानस में तुलसीदास की आदर्श सृष्टि है। उल्लेख असंगत न होगा कि सीता के चरित्रांकन का वह स्वरूप तुलसीदास के साथ-साथ सर्वसामान्य के लिए भी आदर्श की पराकाष्ठा है। इससे अधिक उज्ज्वल नारी-चरित्र के भाव-भूमि की कल्पना सम्भवतः नहीं की जा सकती। रामचरितमानस में तुलसीदास द्वारा अंकित नारी-पात्रों के उज्ज्वल एवं अधम चरित्रों पर विचार करते हुए सीता के साथ-साथ अन्य स्‍त्री-चरित्रों पर विचार करना भी यहाँ काम्य होगा। सीता का यह चरित्र तुलसी के युग और उनके जीवन दर्शन  से निर्मित हुआ है। 

  1. रामचरितमानस में सीता और अन्य स्‍त्री-पात्र

   काव्य के लक्षण ग्रन्थों में दी गई मान्यताओं के अनुसार सर्वमान्य तथ्य है कि हर महाकाव्य किसी न किसी नायक या नायिका के जीवन-चरित पर रचा जाता है। जिसमें नायक के उज्ज्वल चरित्र को उजागर किया जाता है। तुलसीदास रचित रामचरितमानस  में श्रीराम के मर्यादा-पुरुषोत्तम रूप को उजागर किया गया है, जिसमें मानस की नायिका सीता भी अपने उदात्त चरित्र के साथ अंकित है। विदित है कि तुलसीदास की यह रचना नायक-प्रधान है और उन्होंने राम के चरित्र को केन्द्र में रखकर मानस की रचना की है। पर यह भी सत्य है कि सीता के चरित्रांकन से निरपेक्ष होकर राम के चरित्र को सुस्पष्ट कर पाना सम्भव नहीं था। इसलिए रामचरितमानस के काव्य-उद्देश्य को स्थापित करने हेतु सीता के चरित्रांकन की आवश्यकता है। जैसा कि हर कालजयी कृति के साथ होता है, आधिकारिक कथा के विस्तार में कुछ प्रासंगिक कथाओं का सन्‍न‍िवेश किया जाता है, और उन प्रासंगिक कथाओं के आधार-चरित की भूमिका नायक-नायिका के चरित्र विकास में महत्त्वपूर्ण होती है। तुलसीकृत रामचरितमानस में राम और सीता के चरित्र का मूल्यांकन करते हुए यह बात प्रमुखता से रेखांकित होती है। पूरी रामकथा के स्‍त्री-पात्रों में कुछ सद्पात्र और कुछ खल-पात्र भी हैं, जो कथा के विस्तार में सहायक हैं। जहाँ सद्पात्रों में कौशल्या, सुमित्रा, मन्‍दोदरी, अनुसूया, तारा आदि हैं; वहीं खल-पात्रों में कैकेयी, मन्‍थरा, शूर्पणखा आदि स्‍त्रियाँ हैं। इस अध्याय में हम सीता के साथ-साथ अन्य स्‍त्री-पात्रों पर भी विचार करेंगे।

 

3.1 रामचरितमानस में सीता

 

रामचरितमानस में सीता का प्रवेश पुष्पवाटिका प्रसंग से होता है, जहाँ साखियों के साथ वे गिरिजा-पूजन के लिए जाती हैं। राम और सीता का प्रथम दर्शन भी इसी स्थान पर होता है। सर्वप्रथम सीता का चरित्र एक व्रतचारिणी नवयुवती के रूप में सामने आता है, जो नित्य-प्रति माता की आज्ञा से गौरी-पूजन के लिए जाती है। एक सखी द्वारा पुष्पवाटिका में राम की उपस्थिति एवं उनके रूप की प्रशंसा सुनकर सीता उनके दर्शन हेतु व्याकुल हो उठती हैं—

 

तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने।।(बालकाण्ड पृ.196)

 

सीता के हृदय में उपजा राम के प्रति यह प्रेम दैवीय कम, सहज मानवीय अधिक लगता है। नारद-वचन के उस संयोग को विस्मृत कर दें तो यह हृदय की सहजावस्था है। सखियों द्वारा जिस प्रकार राम के रूप एवं गुण की प्रशंसा की गई है, वह किसी युवती के लिए सहज ही आकर्षण का केन्द्र है। तुलसीदास ने सीता के चरित्र को सहज विस्तार दिया है, भले ही सीता के रूप-वर्णन में उन्होंने रूपक एवं अतिशयोक्ति का मुक्त-हस्त से प्रयोग किया हो, परन्तु चरित्र का विकास आम स्‍त्री की भाँति किया है। विश्‍वामित्र की आज्ञा पाकर राम जब धनुष तोड़ने के लिए उठते हैं, उस समय सीता की व्याकुलता द्रष्टव्य है—

 

देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।।(वही पृ.221)

 

राम ने सीता की व्याकुलता ऐसी देखी, जैसे सीता के लिए एक-एक क्षण, कल्प के सामान बीत रहा हो। प्रेम की यह व्याकुलता मन के भीतर जो भी हो, परन्तु बाहर से बड़ा ही मर्यादित दिखाई देता है। दोनों एक दूसरे को नेत्रों की भाषा से ही परखते हैं; सीता ने मन ही मन राम को पति रूप में वरन करने को ठान लिया है —

 

प्रभु तन चितई प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना।।(वही पृ.220)

 

कहीं भी प्रेम अमर्यादित नहीं दिखता, यह तुलसीदास के चरित्र-चित्रण की विशेषता है। सीता की चारित्रिक दृढ़ता का सबसे सशक्त पक्ष राम-वन-गमन प्रसंग में दिखाई देता है। सीता सोचती है‍—

 

चलन चहत बन जीवन नाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।।

की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाई न जाना।।(अयोध्याकाण्ड पृ.353)

 

प्राणनाथ वन जाना चाहते हैं, ऐसे समय में प्राण से अलग रहकर क्या मेरा शरीर यहाँ रह पाएगा? यह विचार सीता की अपूर्व दृढ़ता एवं आत्मबल का परिचायक है–

 

पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।।(वही पृ.354)

 

जिस सीता ने कभी पलँग, गोद, और हिंडोला के सि‍वा कठोर पृथ्वी पर कभी पाँव नहीं रखा, वही सीता आज राम के साथ बन जाना चाह रही है। राम उसे अनेक भाँति समझाते हैं। घर पर रहकर सास-ससुर की सेवा कीजि‍ए, पुराणों की कथाएँ सुनि‍ए। वे सीता को मार्ग एवं वन की विपरीत परिस्थितियों का भय भी दिखाते हैं—

 

कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना।।

चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे।। (वही पृ.356)

 

रास्ते में कुश, कांटे और बहुत से कंकड़ हैं, उस पर नंगे पाँव पैदल चलना होगा। आपके चरण-कमल अत्‍यन्‍त कोमल और सुन्दर हैं, और रास्ते में बड़े-बड़े दुर्गम पहाड़ हैं। सीता के लिए यह वर्जना दाहक प्रतीत होती है। वे अत्यन्त विनम्रतापूर्वक कहती हैं–

 

भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू।।

प्राननाथ तुम्ह बिन जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं।।(वही पृ.358)

 

मेरे लिए भोग रोग के समान हैं, गहने भार के समान हैं और संसार नरक की पीड़ा के समान हैं। हे प्राणनाथ! आपके बिना जगत में मेरे लिए कुछ भी सुखदायी नहीं है।

 

सीता के चरित्र का एक पक्ष चित्रकूट प्रसंग में दिखाई देता है। घर, परिजन सबकी स्मृति भुलाकर सीता राम के साथ सुख-पूर्वक रह रही हैं। वन के जीव ही उसके परिवार हैं। कन्द-मूल और फल उसके भोजन हैं। राजमहल की शैय्या छोड़कर चटाई की शैय्या है; पति की सेवा ही उनकी दिनचर्या है। भरत और परिवार के चित्रकूट आगमन पर सीता सबका उचित सत्कार करती हैं, गुरुजनों की चरण-वन्दना करती हैं। सास की सेवा करती हैं। भरत को आशीर्वाद देती है, सारे कुटुम्ब-जनों से यथा-योग्य व्‍यवहार करती हैं।

 

प्रिय परिजनहि मिली बैदेही । जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही।।(वही पृ.532)

 

सीता अपने अपूर्व धैर्य का परिचय उस क्षण देती हैं, जब चित्रकूट में जनक और सुनयना मिलने आते हैं। एक पुत्री जो महल के तमाम सुखों को ठुकराकर पति के साथ स्वेच्छा से वन में निवास करती हैं। अपने व्यवहार से हर किसी को सन्‍तुष्ट रखती हैं। वही पुत्री जब अपने माता-पिता से मिलती हैं, प्रेम की विह्वलता के बावजूद अपने सूक्ष्‍म कर्त्तव्यबोध और अपार धैर्य का परिचय देती हैं—

 

सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी सँभारि।

धरनिसुताँ धीरजु धरेउ समउ सुधरमुबिचारि।। (वही पृ.533)

 

एक पिता के रूप में जनक ने सीता को जो मनोबल प्रदान किया, वह द्रष्टव्य है—

तापस बेष जनक सिय देखी । भयउ पेमु परितोषु बिषेषी।।

पुत्री पबित्र किए कुल दोऊ । सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।(वही पृ. 533 )

 

सीता को तपस्विनी वेश-भूषा में देखकर जनक जी को अत्यन्त प्रेम और सन्तोष का अनुभव हुआ। उन्होंने कहा बेटी तुमने आज दोनों कुलों को पवित्र कर दिया। तुम्हारे निर्मल यश से सारा संसार उज्ज्वल हो रहा है, ऐसा सब कहते हैं।

 

तुलसीदास ने कई स्थानों पर सीता की नीतिमत्ता एवं बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है। सीता पातिव्रत्य धर्म का पालन करने वाली स्‍त्री हैं, जो किसी भी परिस्थिति में नीति का त्याग नहीं करती। चित्रकूट में दिन-भर माता-पिता के साथ उनके आवास में रहती हैं, परन्तु रात्रि में पति-आज्ञा के बिना वे पितृ-गृह में रहना उचित नहीं समझतीं—

 

कहति न सीय सकुचि मन माहीं । इहाँ बसब रजनी भल नाहीं।।(वही, पृ.533)

 

सीता की अतुलि‍त बुद्धिमत्ता का परिचय उनके हरण-काल के धैर्य और चतुराई में मिलता है। अपने द्वारा अपहरि‍त सीता को जब रावण वायु-मार्ग से ले जाता है; रास्‍ते में वे वानरों के पास अपना आभूषण  फेंक देती है। यह उनकी दूर-दृष्‍टि‍ का संकेत है, कि‍ उनके प्रि‍यतम राम एवं देवर लक्ष्‍मण, इस नि‍शान के सहारे नि‍श्‍चय ही उनको ढूँढ लेंगे। इसी तरह अशोक-वाटिका में उनके सामने जब रामभक्‍त हनुमान राम की अँगूठी गि‍राते हैं, तो बहुत सहजता से वे वि‍श्‍वास नहीं कर लेतीं। पूरी तरह परीक्षा करने के उपरान्त ही हनुमान पर विश्‍वास करती हैं। सीता की चारित्रिक दृढ़ता का एक पक्ष अशोक-वाटिका में भी दिखाई पड़ता है। रावण द्वारा कई तरह से भयभीत किए जाने के बावजूद वे उसकी ओर नहीं देखतीं; प्रतिकार करती हुई कहती हैं—

 

सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही।। (सुन्दरकाण्ड, पृ.665)

 

सीता द्वारा यह प्रतिकार उसकी आस्था और दृढ़ता का परिचायक है। अयोध्या वापसी के बाद सीता गृह-स्वामिनी के समस्त कर्तव्यों का निर्वहन करती हैं। पति की आज्ञा का अनुसरण कर उनके चरणों की सेवा करती हैं। सासों की सदैव विनम्र भाव से सेवा करती हैं। इस प्रकार सीता का चरित्र समस्त मानस में प्राणवान एवं गतिमान है, जो सम एवं विषम परिस्थितियों में भी धैर्य एवं बुद्धिमत्ता का परिचायक है। सीता के चरित्र का आधार पातिव्रत्य धर्म है जिसे तुलसीदास ने महिमामण्डित किया है जो उनके सामन्ती जीवन मूल्यों के अनुरूप हैं।

 

3.2 रामचरितमानस के अन्य स्‍त्री-पात्र

 

अनुसूया : रामचरितमानस के स्‍त्री-पात्रों में एक प्रमुख पात्र अनुसूया हैं, जो अत्री मुनि की पत्‍नी हैं, उनका वर्णन अरण्यकाण्ड के दौरान मिलता है। अनुसूया सीता को पातिव्रत्य धर्म की शिक्षा देती है. नारी के सम्बन्ध में तुलसीदास के विचारों को इसके माध्यम से जाना जा सकता है—

 

मातु पिता भ्राता हितकारी । मितप्रद सब सुनु राजकुमारी।।

अमित दानि भर्ता बयदेही । अधम सो नारी जो सेव न तेही।।

धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परिखिअहिं चारी।।

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अन्‍ध बधिर क्रोधी अति दीना।।

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।।(अरण्यकाण्ड, पृ.573)

 

वे कहती हैं–हे राजकुमारी! माता, पिता, भाई सभी एक सीमा तक ही हित करने वाले हैं, परन्तु पति मोक्ष-रूप में असीम सुख देने वाला है। वह स्‍त्री अधम है जो पति की सेवा नहीं करती। धैर्य, धर्म, मित्र और स्‍त्री — इन चारों की परीक्षा विपत्ति के समय होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अन्धा, बहरा, क्रोधी एवं अत्यन्त दीन पति का भी अपमान करने पर स्‍त्रियाँ यमपुर में भाँति-भाँति के दुख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना — स्‍त्री के लिए यही एक धर्म है, यही एक व्रत है और एक ही नियम है। इस तरह तुलसीदास ने नारी के पातिव्रत्य धर्म की जो लकीर अनुसूया के उपदेशों में खींची है, उसी धर्म का निर्वहन वे आदर्श दाम्पत्य के लिए आवश्यक मानते हैं। तुलसीदास स्‍त्री से इसी धर्म के पालन की अपेक्षा करते हैं और उसे अनुल्लंघनीय मानते हैं। यही नहीं वे नरक की यातना का भय भी दिखाते हैं।

 

कौशल्या : रामचरितमानस में कौशल्या का चरित्र आदर्श पत्‍नी, माँ और सास के रूप में वर्णित है। वे अपने पति की आज्ञाकारिणी, कुशलता और कल्याण की मूर्ति‍ हैं। राम के प्रति जो वात्सल्य भाव उनके मन में बाल्यावस्था में था, वही वयस्क हो जाने पर भी दिखता है। राम द्वारा लंका पर विजय-प्राप्ति के बाद भी उन्हें इस बात का विश्‍वास नहीं है कि उनके अति सुकुमार पुत्रों ने उन राक्षसों पर विजय प्राप्‍त कर ली—

 

हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा।।

अति सुकुमार जुगल मेरे बारे । निसिचर सुभट महाबल मारे।।(उत्तरकाण्ड, पृ.838)

 

वे बार-बार हृदय में विचरती हैं कि इन्होने लंकापति रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्‍चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो बड़े भरी योद्धा और महाबली थे। एक माँ के वात्सल्य और पुत्रवत दृष्टि का इससे उत्कृष्ट उदाहरण और क्या हो सकता है!

 

सास के रूप में भी कौशल्या का चरित्र उत्कृष्ट है। राम जब बन्‍धुओं समेत विवाहोपरान्‍त अयोध्या लौटे, तो अन्य रानियों समेत कौशल्या आरती करती हैं। रात्रि‍ में वधुओं को आस-पास सुलाती हैं, उन्हें गोद में बिठाकर तरह-तरह की शिक्षाएँ देती हैं। सीता के प्रति कौशल्या का स्‍नेह वन-गमन के प्रसंग में दिखाई देता है। सीता जब राम के साथ वन जाने की इच्छा प्रकट करती हैं तो उनका हृदय व्याकुल हो जाता है—

 

पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।।

जिअनमूरी जिमी जोगवत रहऊँ । दीपबाति नहिं टारन कहऊँ।। (अयोध्याकाण्ड, पृ.354)

 

जिस सीता ने पलँग, गोद और हिंडोले के सि‍वा कभी कठोर धरती पर पाँव नहीं रखा। जि‍स सीता को कौशल्या ने सदैव संजीवनी बूटी की तरह रखा। कभी दीपक की बाती तक सड़काने को नहीं कहा, वह सीता आज वन जाना चाह रही हैं। कौशल्या बार-बार वन न जाने का आग्रह करती हैं, परन्तु पुत्र की स्वीकृति के बाद वे सहर्ष उसे आशीष सहित विदा करती हैं। कौशल्या का चरित्र धैर्य की पराकाष्ठा है। पुत्र के वनगमन का समाचार सुनकर वे व्यथित तो होती हैं, परन्तु अपार धैर्य और नीतिमत्ता का सहारा लेती हैं। राम को बड़े ही धैर्यपूर्वक पिता के वचनों का पालन करने को कहती हैं। भरत के प्रति भातृ-धर्म की शिक्षा देती हैं। पुत्र-वियोग की इस दारुण स्थिति में राजा दशरथ को ढाढस बँधाती हैं। राम के वनगमन से लेकर अयोध्या-आगमन तक अपार धैर्य एवं परिवार के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन करती हैं।

 

मन्दोदरी : मन्दोदरी रावण की पत्‍नी हैं, जो बड़ी ही संयत, गम्भीर और बुद्धिमती रानी के रूप में चित्रित है। समय-समय पर पति को सलाह देती हैं। पति पर संकट आने पर विकल हो जाती हैं। पति के हर अनुचित कदम का विनम्रता से विरोध करती हैं। रावण द्वारा सीता के हरण करने पर वह बहुभाँति‍ उसे समझाती हैं, और राम से शत्रुता न करने की सलाह देती हैं—

 

सजल नयन कह जुग कर जोरी । सुनहु प्रानपति बिनती मोरी।।

कन्‍त राम बिरोध परिहरहू । जानि मनुज जनि हठमन धरहू।। (लंकाकाण्ड, पृ.719)

 

सजल नेत्रों से दोनो हाथ जोड़कर मन्दोदरी रावण से विनय करती हैं कि हे प्राणनाथ! राम से विरोध मत कीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ मत ठानिए। रावण इसे ईर्ष्या प्रेरित वचन समझकर उसकी बातों की अवमानना करता है, इतना ही नहीं नारी के आठ अवगुणों को भी उस पर आरोपित कर देता है—

 

नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं । अवगुन आठ सदा उर रहहीं।।

साहस अनृत चपलता माया । भय अबिबेक असौच अदाया।।(लंकाकाण्ड, पृ.720)

 

फिर भी मन्दोदरी नारी-हरण के दुष्परिणाम से उसे अवगत कराना नहीं छोडतीं। वे हमेशा उचित-अनुचित की सीख देती हैं, यद्यपि उन्‍हें पता है कि उनके पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है। तुलसीदास ने मन्दोदरी को सदाचारिणी और पतिव्रता के रूप में चित्रित किया है।

 

रामचरितमानस के अन्य आदर्श चरित्रों में सुमित्रा हैं, जो परिवार के विषम परिस्थितियों में भी निष्पक्ष रहती हैं। लक्ष्मण की माँ हैं, सपत्‍न‍ियों से भगिनी भाव रखने वाली हैं। सभी पुत्रों से सामान स्‍नेह एवं पतिपरायणा हैं। तारा बालि‍ की पत्‍नी हैं, जो शिष्टतापूर्वक अपने पति को हर परिस्थिति में उचित-अनुचित व्यवहार की सीख देती हैं। अन्य आदर्श स्‍त्रियों में सती, भवानी आदि भी अपने-अपने चारि‍त्रि‍क उज्‍ज्‍वलता के साथ रामचरि‍तमानस में दर्ज हैं।

  1. तत्कालीन भारतीय समाज एवं सीता की अवधारणा

   तथ्य है कि वर्तमान समाज हो या भक्तिकालीन समाज; सामान्य जनमानस स्‍त्रियों से सहज स्‍त्रियोचित व्यवहार की आकांक्षा रखता आया है। प्रश्‍न है कि यह स्‍त्रियोचित व्यवहार क्या है? यह वही व्यवहार है जो किसी समय वेद-पुराणों द्वारा निर्धारित होकर समय-सन्‍दर्भ में संशोधित रूप में व्यवहृत होता आया है। तुलसीदास ने जिस स्‍त्री की कल्पना की है, वह किसी दैवीय प्रेरणा का प्रतिफलन नहीं, बल्कि सामान्य जगत से ही निर्मित हुई है। तत्कालीन समाज की निर्धनता एवं आततायी-शासन के उत्पीड़न से दबी जनता अपने सुख और समरसतापूर्ण जीवन के लिए नारी से यह अपेक्षा रखती थी कि वह अपना अस्तित्व बनाए रखने में सक्षम हो। जिसके लिए परिवार में सहयोग, शान्ति और समरसता का भाव हो। इस भाव को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक था कि वह पति की अनुवर्ती के रूप में अपना जीवन निर्वाह करे। पति की आज्ञा का पालन करना, किसी भी प्रकार पति से असन्तोष प्रकट नहीं करना, सन्‍तानों का लालन-पालन करना, गृह-कार्य का विवेकपूर्ण निष्पादन करना आदि अपेक्षाएँ उस काल की स्‍त्रियों से की जाती थी। परिवार के सभी जनों को प्रसन्‍न एवं सन्‍तुष्ट रखना उनका गुण माना जाता था। घर-परिवार के सभी धार्मिक अनुष्ठान उन्हीं के द्वारा सम्पन्‍न होते थे। सास-ससुर, देवर-भाभी, ननद-भौजाई आदि सम्बन्‍धों के भी उचित निर्वहन का दायित्व उनके ऊपर था। इसके विपरीत बात काटने वाली, निर्लज्जतापूर्वक रहने वाली, कलहकारिणी, अविवेकी, दयाहीन, हठवादी स्‍वभाव की स्‍त्रियाँ समाज के लिए अभिशाप मानी जाती थीं। इन्हीं सद्गुणों एवं दुर्गुणों के मध्य तुलसीदास ने सीता के रूप में एक आदर्श स्‍त्री की अवधारणा रखी। हालाँकि तुलसीदास ने नारी के जिस उच्‍चतम आदर्श की सृष्टि की है, वह सामान्य जनमानस की अपेक्षाओं से कहीं अधिक है—

 

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना । अंध  बधिर क्रोधी अति दीना।।

ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना । नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।।(अरण्यकाण्ड, पृ.573)

 

सीता तुलसीदास के सभी पातिव्रत्य धर्म का पालन करने वाली स्‍त्री है। जिसका सर्वस्व पति से जुड़ा है। पति के वनगमन के समय वह पति से वियोग की कल्पना भी नहीं कर सकती। वे यहाँ तक सोचती हैं कि या तो मेरे शरीर और प्राण दोनों साथ जाएँगे या फिर प्राण ही साथ जाएँगे। वे सास-ससुर की सेवा करने वाली हैं। सभी देवरों को मातृवत् स्‍नेह प्रदान करती हैं। ससुराल और मायके की मर्यादा को समझने वाली धीरमति स्‍त्री हैं। कठिन से कठिन परिस्थितियों में धैर्य एवं बुद्धिमत्ता का सहारा लेती हैं। इस प्रकार तुलसीदास ने सीता के चरित्र में नारी के समस्त सद्गुणों का समावेश कर उसे आदर्श नारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। लेकिन यह आदर्श नारी की संकल्पना स्‍त्री स्वतन्त्रता और समानता के आधुनिक आदर्शों की विरोधी है। दरअसल यहाँ सारे कर्त्तव्य और दायित्व स्‍त्रियों के लिए ही है और पुरुषों से किसी तरह की अपेक्षा नहीं की गई है।

  1. रामचरितमानस खल स्‍त्री-पात्र

   कैकेयी : कैकेयी राजा दशरथ की सबसे छोटी रानी हैं और भरत की माता हैं। कुछ लोगों का मानना है कि कैकेयी खल पात्र न होकर राम के जीवन में घटित घटना की निमित्त हैं। कैकेयी के दो वरदानों ने उसे खल पात्र की श्रेणी में ला खड़ा किया–

 

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का । देहु एक बर भरतहि टीका।।

X                      X                      X                      X

तापस बेष बिसेषि उदासी । चौदह बरिस रामु बनबासी।। (अयोध्याकाण्ड, पृ.329/330)

 

एक वर यह दें कि‍ भरत को राजगद्दी मिले, दूसरा वर यह दें कि‍ राम तपस्वी के वेश में चौदह वर्षों के लिए वन जाएँ। जिस कैकेयी को चारो पुत्र प्राण-से प्रिय थे, उस कैकेयी के मन में भी अपने पुत्र के भविष्य की चिन्ता ने स्वार्थी बना दिया। यह किसी माँ के मन की सहज इच्छा है, जिसे कैकेयी ने पारिवारिक मर्यादा का उल्लंघन कर जताई। कैकेयी द्वारा इस वरदान की माँग ने उन्‍हें कुटिलता, कठोरता, और कपट-मृदुता की मूर्ति‍ बना दी। अपने माँग के जाल में फँसाकर अपनी सेवि‍का मन्‍थरा की चाटुकारि‍ता की जाल में फँसकर उन्‍होंने दशरथ से वरदान माँग लि‍या; और उन वरदानों को फलीभूत करवाकर ही सुख प्राप्‍त किया। ऐसी गृह-दाहक स्‍त्री की प्रशंसा कौन करे! तुलसीदास ने भी भरपूर निन्दा की। अयोध्या के लोग तो गाली देते ही हैं, गाँव की वधुएँ भी कैकेयी के इस वरदान पर आश्‍चर्य करती हैं। निषादराज जैसा वनवासी भी कैकेयी की निन्दा इन शब्दों में करता है—

 

कैकेयनन्‍दि‍नी मन्‍दमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह।

जेहिं रघुनन्‍दन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह।। (अयोध्याकाण्ड, पृ.378)

 

कैकेय राज की कन्या नीच-बुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की, जिन्‍होंने राम और सीता को इस सुख के समय में ही दुख दे दिया। जिस पुत्र के लिए कैकेयी ने यह वरदान माँगी थी, उनके मुँह से भी कटु वचन ही सुनने को मिले–

 

जब तै कुमति कुमत जियँ ठयऊ । खण्‍ड खण्‍ड होई हृदऊ न गयऊ।।

बर मागत मन भइ नहिं पीरा । गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा।। (अयोध्याकाण्ड, पृ.434)

 

भरत का यह कहना कि अरी कुमति! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े-टुकड़े क्यों न हो गए? वरदान माँगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई? तेरी जीभ गल नहीं गई? तेरे मुँह में कीड़े नहीं पड़ गए? कैकेयी की आशाओं पर वह वज्रपात ही था। अपने ही पुत्र से इस प्रकार के वचन की कल्पना उन्‍होंने नहीं की थी। अब पश्‍चाताप के सिवा उनके समक्ष कोई रास्ता नहीं था, जिसका चित्रण तुलसीदास ने चित्रकूट प्रसंग में किया है।

 

मन्थरा  :मन्थरा अपने स्वामिनी की सच्‍ची हितकारिणी थी, जो उसके साथ ही मायके से आई थी। फलतः उसका उसके हित के लिए तत्पर रहना उचित ही था। प्रारम्भ से ही सेवि‍का का धर्म अपनी स्वामि‍नी के मनोनुकूल एवं उसके हित के लिए सोचना रहा है, जिससे स्वामि‍नी की विशेष अनुकम्पा उसे प्राप्‍त हो। मन्थरा ने भरत को सिंहासन दिलाने के लिए जो उपक्रम रचा था, वह उनकी दृष्टि के अनुसार सही था, जिसके लिए उन्‍होंने तमाम तर्क-वितर्क रचे थे–

 

हमहुँ कहबि अब ठकुर सोहाती । नाहिं त मौन रहब दिनु राती।।

कोउ नृप होउ हमहि का हानी । चेरि छाडि अब होब कि रानी।। (वही, पृ.319)

 

अब मैं भी मुँह-देखी बात कहा करूँगी। या फि‍र दिन-रात चुप रहूँगी। राजा कोई भी हो, मुझे क्‍या? न तो कोई लाभ, न कोई हानि‍! हर हाल में मुझे तो दासी ही रहना है! कोई रानी तो होऊँगी नहीं!

 

अपने सीमित विवेक एवं संयुक्त परिवार के प्रति एकांगी दृष्टि ने उसे खलपात्र बना दिया। जिस राजपरिवार का वह हित करने चली थी, उसी का अहित हो गया। बिना यह सोचे कि इस अनैति‍क भक्ति से भरे भरत पर इस फैसले का क्या प्रभाव पड़ेगा। राम के राज्योत्सव की तैयारी देखते ही उसे इसमें विशेष षड्यन्‍त्र दिखाई पड़ा। उसने इसमें कैकेयी के प्रति राजपरि‍वार की कुटिलता देखी, फलतः कैकेयी के पास पहुँची और आँसू बहाने लगीं। सत्य है कि मन्थरा अपने स्वामिनी की हितैषी हैं, परन्तु उनके विचार ने परिवार की सुख शान्ति को नष्ट कर दिया। तुलसीदास ने उनके लिए मन्दमति, कुबुद्धि, कुजाति‍, कुटिल आदि शब्दों का प्रयोग किया है।

 

शूर्पणखा : शूर्पणखा रावण की बहन है जिसका परिचय तुलसीदास ने इन शब्दों में दिया है—

सूपनखा रावन कै बहिनी । दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी।।

पंचबटी सो गइ एक बारा । देखि बिकल भइ जुगल कुमारा।। (अरण्यकाण्ड,पृ.588)

 

शूर्पणखा रावण की बहन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय थी। एक बार घूमते हुए पंचवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर काम से पीड़ित हो गई। तुलसीदास ने उसके अन्दर अकस्मात पैदा हुई वासना का कारण बताते हुए कहा–

 

भ्राता पिता पुत्र उरगारी । पुरुष मनोहर निरखत नारी।।

होइ बिकल सक मनहि न रोकी । जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी।। (वही, पृ.588)

 

चाहे भाई हो, पिता हो, पुत्र हो, पति हो, नारी सर्वत्र मनोहरता की अपेक्षा करती हैं। शूर्पणखा भी अपने हृदय पर उसी प्रकार संयम नहीं रख सकी, जिस प्रकार सूर्यकान्तमणि सूर्य को देखकर द्रवित हो जाता है। रुचिर रूप धरकर वह राम के पास जाती है और प्रणय निवेदन करती है कि इस संसार में तुम्हारे जैसा न कोई पुरुष है और मेरे जैसी न कोई स्‍त्री। राम ने उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। प्रणय प्रस्ताव के इस दृश्य को तुलसीदास ने काफी हास्यास्पद बनाया है। इस उपहास का अन्त लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा का नाक-कान काटे जाने के बाद होता है। नाक-कान विहीन होने के उपरान्त वह अपने मूल रूप में आ जाती है और खर-दूषण तथा रावण से अपने प्रति किए गए अपमान का बदला लेने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रकार शूर्पणखा का चित्रण तुलसीदास ने एक ऐसी कामासक्ता स्‍त्री के रूप में किया है, जिसे वासना के आवेग में उचित-अनुचित का भी ध्‍यान नहीं रहता।

  1. निष्कर्ष

   तुलसीदास ने उस मध्ययुगीनता के उस सामाजिक दौर में एक ऐसा  समाज, परिवार एवं व्यक्ति की अवधारणा को सामने रखा, जिसका अनुकरण कर आदर्श समाज की स्थापना की जा सके। आदर्श की इन्हीं मान्यताओं के तहत उन्होंने सीता जैसी आदर्श स्‍त्री-चरित्र की निर्मिति‍ की, जिसके समुज्ज्वल चरित्र का गान युगों-युगों तक किया जाएगा। अनुसूया सीता से कहती हैं—

 

सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं। (अरण्यकाण्ड, पृ.574)

 

हे सीते! सुनो, तुम्हारा नाम लेकर ही स्‍त्रियाँ पातिव्रत धर्म का पालन करेंगी। तुलसीदास की अपने चरित्रों में यह आस्था आदर्श का चरमोत्कर्ष है, जिसे उन्होंने रामचरितमानस में स्थापित किया है। सीता के बरक्स अन्य नारी पात्रों की भी सृष्टि की है, जिससे कथा विस्तार पाती है। कुछ खल पात्र भी हैं, जो अपने मलिन चरित्रों से आदर्श चरित्र को उज्ज्वलता प्रदान करते हैं। तुलसी का यह आदर्श वर्तमान समय में कितना प्रासंगिक है, इस विषय पर विवाद हो सकता है। यहाँ तक कि तुलसी के वर्णाश्रम प्रेम की भी आलोचना हुई है, परन्तु तुलसी ने अपने समग्र जीवन दर्शन से सीता का चरित्रांकन किया है। यदि आप तुलसीदास के जीवन दर्शन से सहमत है, तो भी सीता आज की स्‍त्री का आदर्श नहीं हो सकती।

you can view video on रामचरितमानस में सीता का चरित्रांकन

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. स्वयम्भू एवं तुलसी के नारी पात्र, डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा ‘अरुण’, कल्पना प्रकाशन, मेरठ कैंट
  2. गोस्वामी तुलसीदास : दर्शन और भक्ति,डॉ. विश्वम्भर दयाल अवस्थी, उर्जा प्रकाशन, इलाहाबाद
  3. तुलसीकाव्य मीमांसा, उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. रामचरितमानस, गीताप्रेस, गोरखपुर
  5. तुलसी, सम्पादक: उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. लोकवादी तुलसीदास, विश्वनाथ त्रिपाठी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. तुलसीदास, सम्पादक: विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  8. गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
  9. गोस्वामी तुलसीदास, रामजी तिवारी, साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
  10. तुलसीदास आधुनिक वातायन से, रमेश कुन्तल मेघ, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली

    वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  3. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B8