17 भ्रमरगीत सार
रामबक्ष जाट
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ को पढ़ने के उपरान्त आप –
- भ्रमरगीत का कथ्य समझ पाएँगे।
- भ्रमरगीत की योजना के निहितार्थ को जान पाएँगे।
- गोपियों की तर्क-योजना से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
सूरदास नेभ्रमरगीतसार शीर्षक से कोई पुस्तक नहीं लिखी। सूरदास की रचना सूरसागर है। सूरसागर में भ्रमरगीत प्रकरण से सम्बन्धित कुछ पद हैं। इसका सम्पादन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया है। विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसके उपसम्पादक हैं। इसकी भूमिका में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है, भ्रमरगीत सूरसागर के भीतर का एक सार रत्न है। समग्र सूरसागर का कोई अच्छा संस्करण न होने के कारण ‘सूर’ के हृदय से निकली हुई अपूर्व रसधारा के भीतर प्रवेश करने का श्रम कम ही लोग उठाते हैं। मैंने सन् 1920 में भ्रमरगीत के अच्छे पद चुनकर इकठ्ठे किए और उन्हें प्रकाशित करने का आयोजन किया।” (भ्रमरगीतसार सं. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी सम्बत् 2030, पृ (क))
शुक्लजी के इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि वे इन पदों को सूरसागर का सार मानते हैं। इस सम्पादन के साथ उन्होंने इस पुस्तक की लम्बी भूमिका लिखी, जिसमें उन्होंने सूरदास के महत्त्व को स्थापित किया। अतः भ्रमरगीतसार पढ़ने का अर्थ सूरदास के साथ-साथ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को भी पढ़ना माना जाएगा। पुस्तक के ‘आमुख’ में विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस बात का उल्लेख किया है कि यह पुस्तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल की गई थी। तब से लेकर आज तक भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में यह पढ़ाई जाती रही है। पाठ्यक्रमों में इतने सारे परिवर्तनों के बावजूद भ्रमरगीतसार की अनिवार्यता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। यह अनिवार्य पुस्तक है। यहाँ यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सूरदास बाल मनोविज्ञान के अद्भुत कवि माने जाते हैं। उनके पदों में शृंगार रस का समावेश भी विलक्षण हुआ है। तब भी पाठ्यक्रम में इस पुस्तक को जगह मिली है।
- भ्रमरगीत के पद
आचार्य शुक्ल द्वारा सम्पादित इस पुस्तक में 400 पद हैं। प्रारम्भ के 10 पदों में कृष्ण उद्धव को अपना सन्देश कहते हैं। एक पद में कुब्जा कहती है। इसके बाद उद्धव मथुरा से गोकुल चले जाते हैं। उद्धव यहाँ गोपियों के लिए कृष्ण का सन्देश लेकर आए हैं। उद्धव सोचते हैं –‘नारिन पै मो को पठवत हैं कहत सिखावन जोग।।’’ (पृ. 4) और प्रभु की आज्ञा मानकर चल देते हैं। फिर एक पद में कुब्जा भी अपना सन्देश कहती है। इसके बाद उद्धव के गोकुल में पहुँचने का विवरण चार-पाँच पदों में किया गया है। इसके बाद उद्धव मुश्किल से एकाध पद में कुछ कह पाते हैं; और लगभग 363 पदों में गोपियाँ ही बोलती रहती हैं। जाते-जाते यशोदा दो-तीन पदों में कुछ कह पाती हैं। मुश्किल से चार-पाँच पदों में उद्धव कुछ ज्ञान और योग की बातें कहते हैं। अन्तिम पद में कृष्ण फिर कहते हैं–उधौ ब्रज मोहि बिसरत नाँहि।
- कृष्ण के दूत रूप में उद्धव
उद्धव कृष्ण के दूत बनकर ब्रज आए थे ताकि वे गोपियों को समझा सकें और कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों का दुख दूर कर सकें। वही उद्धव वापस जाते समय गोपियों के दूत बनकर कृष्ण के पास पहुंचते हैं, और गोपियों के प्रेम का पक्ष रखते हैं।
यह गोपियों की कूटनीतिक सफलता है कि जो उद्धव कृष्ण का दूत बनकर गोपियों को समझाने आए थे, वे ही उद्धव यहाँ से जाते-जाते गोपियों के दूत बन जाते हैं और कृष्ण को गोपियों का सन्देश देते हैं। गोपियों का यह कौशल और प्रयास अवलोकनीय है। भ्रमरगीत में कृष्ण और उद्धव की मित्रता सन्देह से परे है। उद्धव अपनी राय पर दृढ़ हैं। योग सम्बन्धी अपनी मान्यताओं को लेकर उनके मन में कोई सन्देह नहीं है। उद्धव ने कृष्ण के विश्वास को तोड़ा, यह आरोप भी हम उन पर नहीं लगा सकते। गोपियों के बहकावे में आ गए, इतने नादान और भोले उद्धव नहीं हैं। गोपियों ने उन्हें ठग लिया, यह भी हम नहीं कह सकते। फिर यह कैसे सम्भव हो पाया ?
- गोपियों का पक्ष
सम्पूर्ण भ्रमरगीत में गोपियाँ अपना पक्ष रखती हैं, लगातार तर्क-वितर्क करती रहती हैं, लेकिन वे कुछ बातों का बराबर ध्यान रखती हैं–इनमें पहली बात यह है कि कृष्ण से वे प्रेम करती हैं। कृष्ण की मर्यादा के विरुद्ध वे कुछ नहीं कहतीं। शेष बातों का वर्णन करती जाती हैं। जब कृष्ण अपने हैं, तो उनके मित्र भी अपने हैं। फिर वे मेहमान भी हैं, उनका आदर सत्कार करते रहना चाहिए। गोपियाँ सारी बहस के बीच उद्धव को यह एहसास कराती हैं कि हमारे लिए आप महत्त्वपूर्ण हैं। इतनी रुचिपूर्वक आप हमारे लिए हमारे दुःखों को दूर करने के लिए कुछ लेकर आए। हमारे बारे में सोचा। यह हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है।
ऊधो। मन नहिं हाथ हमारे।
आप जो कह रहे हैं, वह सही हो सकता है। उसके बारे में हम आपसे बहस करने की स्थिति में हैं ही नहीं। हमारी मजबूरी है, हमारा मन ही हमारे नियन्त्रण में नहीं है। जो भी काम करें, उसे मन से ही किया जा सकता है। अब हमारा मन, हमारा हृदय तो हमारे पास है ही नहीं। उसे तो कृष्ण उस समय रथ में बिठाकर अपने साथ मथुरा ले गए।
नातरू कहा जोग हम छाड़हि अति रुचि के तुम ल्याए (भ्रमरगीत सार, पृ. 45)।
गोपियाँ योग को लेने से मना कर रही हैं, साफ साफ कह रही हैं कि हम आपका यह योग मत स्वीकार नहीं करेंगी। ऐसा करते हुए वे यह भी चाहती हैं कि उद्धव उनसे नाराज न हों। उद्धव के मन में गोपियों के प्रति प्रेम-भाव है। वह प्रेम-भाव बना रहना चाहिए। उद्धव गोपियों के दुःख को दूर करने के लिए ही तो ब्रज आए थे। हमारे हित की जो कामना आपके मन में है, उसका हम आदर करती हैं।
यहाँ फिर गोपियाँ एक तर्क करती हैं। वे मानती हैं कि कृष्ण तो अपने हैं। उनके बारे में कुछ भी कह सकती हैं। अब उद्धव तो पराए हैं। उनको तो भला-बुरा कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए वे कहती हैं–
हम तौ झकती स्याम की करनी, मन लै जोग पठाए।
कृष्ण ने हमारे साथ क्या किया? आप तो दूत हैं, जो कुछ कृष्ण ने दिया, आप उसे ले आए। आपका तो कोई दोष नहीं है। परन्तु कृष्ण? कृष्ण ने ये क्या किया? हमारा ‘मन’ तो ले लिया और इस मन के बदले में ‘योग’ भेज दिया। अब गोपियाँ कहती हैं कि आज भी हम वे सब करने को तैयार हैं जो आप कहते हैं। बस सिर्फ इतना कर दें कि हमारा मन हमें वापस दिला दें। निहितार्थ यह है कि अब मन तो कृष्ण के साथ ही वापस आएगा। अतः आप कृष्ण को ले आएँ। गोपियाँ यही चाहती हैं। तब हम योग को ग्रहण कर लेंगी।
गोपियाँ उद्धव के माध्यम से कृष्ण को उपालम्भ देती हैं। जीवन में जब कोई अपना किसी को दुःख देता है, तो उस दुःख का प्रतिरोध उपालम्भ ही होता है। इसमें सामने वाले से लड़ा नहीं जाता। लड़ते झगड़ते भी अपने सम्बन्ध की ऊष्मा और मर्यादा को बरकरार रखा जाता है। सम्बन्ध की मर्यादा सुरक्षित रखकर भी अपनी पीड़ा की वास्तविकता का बखान किया जा सकता है। गोपियाँ अपनी पीड़ा कम नहीं करती, न व्यथा देने वाले प्रेमी के अत्याचार को हल्का करती हैं, और न ही कोई फूहड़ बातें, या अभद्र वचन कहती हैं। ऐसा कोई भी शब्द नहीं कहतीं जिससे सम्बन्ध प्रभावित हो। वे अपना सम्बन्ध बरकरार रखना चाहती हैं। इस तर्क-योजना की बारीकियाँ गोपियाँ जानती हैं। इसलिए वे उद्धव को नाराज नहीं करती। उद्धव भी तो कृष्ण के ही मित्र हैं। इसलिए वे कहती हैं ‘अनुदिन देत असीस प्रात उठि, अरु सुख सोवत न्हातें’ । हम तो तुम्हें आशीष ही देती रही हैं, लेकिन हे उद्धो ‘तुम निसदिन उर अन्तर सोचत ब्रजजुवतिन को घातें‘ (वही, पृ. 49) आप ऐसा क्यों करते हैं?
इसलिए गोपियाँ बराबर कहती हैं – ‘मधुकर! स्याम हमारे ईस।’ कृष्ण तो हमारे ईश्वर हैं। जिस पर श्याम रंग चढ़ गया है, उस पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ता। फिर हे उद्धव! हम क्या करें? ‘मन नाहीं दस बीस‘। एक ही तो मन था, वह श्याम के साथ चला गया। अब इस निर्गुण की आराधना कौन करे? यह छोटी-सी बात आपकी समझ में नहीं आ रही। आप तो कृष्ण के ‘सखा’ हैं और ‘सकल जोग के ईस’ हैं। सब कुछ जानते हैं। फिर भी ऐसा कह रहें हैं।
फिर गोपियाँ उद्धव को षड्यन्त्रकारी भी नहीं मानतीं। गोपियाँ मानती हैं और जानती हैं कि उद्धव जो मानते हैं, वही बातें कह रहे हैं। वे छल नहीं कर रहे। अपनी समझ से उद्धव ईमानदार हैं और ईमानदारी से अपना पक्ष रख रहे हैं। यह ठीक बात है। गोपियाँ उद्धव की स्पष्टवादिता की और ईमानदारी की तारीफ भी करती रहती हैं। उद्धव के साथ समस्या है कि उद्धव नीरस हैं। अनुभवहीन है। उन्होंने कभी प्रेम किया ही नहीं, इसलिए वे प्रेम के मनोभावों को समझ नहीं पाते। इसलिए गोपियाँ उनको कहती हैं कि आपकी बात का यहाँ कोई बुरा नहीं मानता। भ्रमर कमल से प्रेम करता है, लेकिन दादुर प्रेम नहीं करता। वह भी कमल के साथ ही रहता है। फिर भी उसको कमल के महत्त्व की जानकारी नहीं है और इधर ‘अलि अनुराग उड़न मन बान्ध्यो कहे सुनत नहिं कानै।‘ (वही पृ. 13)
नदी समुद्र से मिलने जाती है, वह रास्ते में तटों पर खड़े पेड़ों को उखाड़ती चली जाती है।
इसलिए गोपियाँ उद्धव का मजाक उड़ाती हुई कहतीं है कि हे उद्धव, आप बड़े भाग्यवान हैं। आप तो ‘अपरस रहत सनेह तगा तें, नाहिन मन अनुरागी’ (वही पृ. 36) । आपका तो मन ही अनुरागी नहीं है। इसलिए आप कुछ जानते नहीं। इसलिए वे पुचकारती हुई उद्धव से कहती हैं ‘बिलग जनि मानौ हमरी बात।’ हमारी बात का बुरा मत मानें। हमारे मन में एक और आशंका आ रही है। हम सब गोपियों को लगता है कि आपको कृष्ण ने यहाँ नहीं भेजा। कृष्ण ऐसी गलती कैसे कर सकते हैं? कहीं आप रास्ता तो नहीं भूल गए? भूल से ब्रज में आकर अपना उपदेश देने लगे। ब्रज की युवतियों को योग की शिक्षा दे रहे हैं। क्या युवतियों को दिगम्बर रहने की शिक्षा दी जा सकती है? यह क्या नादानी है? ‘साँच कहो तुमको अपनी सौं बूझति बात निदाने।’
सूर स्याम जब तुम्हें पठाए, तब नेकु मुसकाने।। (वही, पृ. 43)
उद्धव! सच्ची बात बताएँ, आपको हमारी सौगन्ध! श्याम ने जब आपको मथुरा से ब्रज के लिए भेजा, तब क्या वे थोड़ा-सा मुस्कराए थे? क्या आपने उनकी वह मुस्कान देखी थी? यह कहकर गोपियाँ प्रमाणित करना चाहती हैं कि गोपियाँ कृष्ण को अधिक अच्छी तरह से जानती हैं। भले ही उद्धव कृष्ण को अपना सखा कहते हों, पर वे कृष्ण को गोपियों से बेहतर नहीं जानते। कृष्ण ने तो इनको जान बूझकर भेजा था और वे जानते थे कि ब्रज में गोपियों के हाथों उद्धव की दुर्गति होने वाली है। उनके ज्ञान का अहंकार अवश्य समाप्त हो जाएगा।
फिर गोपियों को लगता है कि उद्धव बीमार हो गए हैं। इनको अपनी वाणी पर नियन्त्रण नहीं है। सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं। इसलिए वे उद्धव से कहती हैं–आपको नन्द के पुत्र ने ‘यहाँ कुछ पठाय टारि।’’ टालने के लिए यहाँ भेज दिया है, कोई गम्भीर सन्देश भेजने के लिए नहीं भेजा। आप सचमुच कृष्ण के सखा है। पर नादान हैं। …..इस तरह गोपियाँ उद्धव के तर्कों पर कभी गम्भीरता से बहस नहीं करतीं, क्योंकि उद्धव इतने गम्भीर नहीं हैं।
गोपियाँ तर्क न करने का तर्क देकर अपनी असमर्थता का बखान करती हैं। ऐसा करते समय उनका उद्देश्य रहता है कि उद्धव के मन में गोपियों के लिए किसी तरह ममता का भाव जाग्रत हो। यह ममता ही उद्धव के पराजय का कारण बनती है। उद्धव स्वयं अपने ममत्व भाव से पराजित होंगे, तर्क से पराजित नहीं होंगे–गोपियाँ यह बात जानती हैं। सूरदास भी जानते हैं । योग मत और निर्गुण का खण्डन तर्क से नहीं हो सकता। इसलिए तर्क करती हुई भी गोपियाँ तर्क की अक्षमता से परिचित हैं। वाद-विवाद से सत्य तक नहीं पहुँचा जा सकता। इसलिए गोपियाँ तर्क करते-करते एक कदम पीछे हट जाती हैं, और अपनी अक्षमता और विवशता के गीत गाने लग जाती हैं। इसका कोई जवाब नहीं । यह लाजवाब तर्क है और गोपियाँ इसका खूब इस्तेमाल करती हैं। इसके बाद इनकी बातचीत ही बन्द हो जाती हैं, उद्धव एकदम चुप हो जाते हैं। तर्क में चुप रहना पराजय की निशानी है ।
- निर्गुण-सगुण विवाद
उद्धव योग मत का, निर्गुण मत का पक्ष रखते हैं। गोपियाँ सगुण समर्थक हैं। कृष्ण और गोपियों के रिश्ते को सूरदास सगुण का प्रतीक बना देते हैं। यह प्रतीक पूरा नहीं बैठता, क्योंकि इसमें कृष्ण कभी लौकिक बन जाते हैं, बचपन के सखा और किशोरावस्था के प्रेमी बन जाते हैं और कभी अलौकिक ईश्वर बन जाते हैं। इस कारण उनका रिश्ता भी अस्थिर बना रहता है। गोपियों के लिए सूरदास जहाँ जैसे रिश्ते की जरूरत होती है, वैसा बना लेते हैं। इस कारण कभी इस रिश्ते पर प्रश्न नहीं उठता। भ्रमरगीत में कभी यह स्थिति नहीं आती । इसकी तुलना में उद्धव का मत एकदम स्पष्ट है। यहाँ विचारों के प्रतीक की आड़ नहीं है। भगवान व भक्त के बीच दार्शनिक और आध्यात्मिक रिश्ता है। लौकिक तो कुछ है ही नहीं । अतः सगुण-निर्गुण विवाद में उद्धव एकदम सामने खड़े हैं, जबकि गोपियों के पास निजी रिश्तों की आड़ है।
उद्धव के मत का एक पक्ष आज भी प्रासंगिक है। वह यह कि व्यक्तिगत जीवन के सुख-दुःख से बचने के लिए दर्शन का सहारा लेना चाहिए और यही सहारा देने के लिए उद्धव गोकुल आते हैं। जहाँ तक सगुण-निर्गुण के विवाद का प्रश्न है, गोपियाँ कभी भी इस दार्शनिक प्रश्न पर दार्शनिक बहस नहीं करतीं। वे स्वयं कहीं भी निर्गुण मत का खण्डन नहीं करतीं। इस विषय पर कुछ बहस भी नहीं करतीं। मुद्दे पर कोई स्पष्ट राय नहीं देतीं। बहस के रूप में कभी-कभी मान भी लेती हैं। फिर उससे जुड़े हुए इतर प्रश्न करती हैं और योग मत को मान लेने पर होने वाली कठिनाइयों की चर्चा करती हैं। जिनमें सबसे पहली बात तो वे यही कहती हैं कि हमारा मन हमारे पास नहीं है। वह अगर हमें मिल जाए तो हम आपकी बात मान सकती हैं। मन हमारा कृष्ण के पास है अतः जब कृष्ण आएंगे तो हमारा मन भी आ जाएगा। गोपियाँ कृष्ण का आगमन चाहती हैं।
गोपियाँ अपने ही मन से निर्गुण का मानवीकरण कर लेती हैं। और यह मानकर बड़े सरल ढंग से पूछती हैं कि अच्छा आपका निर्गुण किस देश का निवासी है। इसके माता-पिता, पत्नी और दासी कौन हैं। उसका रंग कैसा है और उसे क्या-क्या पसन्द है। किसी भी मनुष्य को जानने के लिए यह प्रारम्भिक प्रश्न है। ये दार्शनिक प्रश्न नहीं है। गोपियाँ बड़े भोलेपन से दार्शनिक प्रश्न के स्थान पर यह लौकिक जिज्ञासाएँ रख देती हैं। गोपियों का उद्देश्य उद्धव को निरुत्तर कर देना नहीं है और उद्धव ‘मौन ह्वें रह्यो ठग्योसो’ (पृ. 23)।’
कभी-कभी गोपियाँ निर्गुण-सगुण की तुलना करती हैं और तुलना में यह स्थापित करने लग जाती हैं कि कामलोभी युवतियों के लिए योग कठिन है। योग मत अगम है, अगाध है। इसकी ‘थाह’ नहीं मिल सकती। ‘मृगत्वच, भस्म, अधारौ…..जहाँ ये सब उसके बाह्य तत्त्व हैं। योगियों की वेश-भूषा हैं। ‘आसन, पवन, भूति मृगछाला’ सब मुश्किल हैं। फिर जब निर्गुण-सगुण एक ही हैं, तब इस मुश्किल मार्ग को कोई क्यों चुने? कम से कम हम गोपियाँ तो अपढ़ हैं इसलिए इस शास्त्र को ईसपुर काशी ले जाएँ। यदि निर्गुण सही है, तब भी वह हमारे लिए नहीं है। सामान्य निरक्षर जनता के लिए नहीं है। पढ़े-लिखे शास्त्रज्ञ लोगों के लिए है। इसलिए अपनी असमर्थता का बखान कर उन्हें टाल देती हैं। बहस को निर्णायक स्थिति पर लाने से पहले ही वे स्थगित कर देती हैं।
- गोपियों का चातुर्य
फिर गोपियाँ उद्धव को अपने ढंग से उद्धृत करती हैं। उन्हें गलत ढंग से उद्धृत करती हैं, उद्धव के तर्क के निहितार्थ को समझने से इन्कार करती हैं और यह सब काम वे उद्धव के सामने करती हैं। इसके द्वारा वे उद्धव को अपनी बात कहने से रोकती हैं। बहस का यह अति प्राचीन तरीका है, जिसमें उसे इस ढंग से उद्धृत किया जाए कि वह अपने उद्धरण में ही पराजित हो जाए, और गोपियों को अलग से इस पर टिप्पणी करने की जरूरत ही न पड़े।
ऊधै ! जोग सुन्यो हम दुर्लभ।
हमने तो सुना है कि योग मत की साधना दुर्लभ है।
‘रेख न रूप बरन जाके नहिं तोको हमें बतावत ।
अपनी कहो दरस वैसे को, तुम कबहूँ हौ पावत ’। (वही पृ.45 )
जिसकी न रेखा है जिसका न कोई रूप है, ऐसे ईश्वर को आपने कहीं देखा है? जाहिर है कि निर्गुण ब्रह्म को देखा नहीं जा सकता। गोपियों का आधा तर्क दार्शनिक है और आधा सामान्य ज्ञान पर आधारित है। इसलिए हे उद्धव! अच्छा किया कि आप ब्रज आ गए। कृष्ण के विरह में व्याकुल ब्रजवासिनियों को अटपटी बातें सुनाकर आपने हँसाया। इस तर्क द्वारा गोपियाँ उद्धव की बातों को गम्भीरता से लेती ही नहीं। कई बार वे आपस में चर्चा करते हुए कहती हैं कि हे प्यारे उद्धव, बुरा मत मानें।
‘वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे।।
तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे, मधुप भँवारे।( वही पृ. 15)
यह मथुरा तो काजल की कोठरी है। वहाँ से जो भी आता है वह काला ही होता है। आप काले हैं, अक्रूर जी काले थे और यह भ्रमर भी काले हैं। क्या बात है? अब दार्शनिक बहसों में इस विनोद का क्या काम? परन्तु गोपियाँ इस विनोद वृत्ति से उद्धव पर वार करती हैं।
इसके अलावा गोपियाँ जब चाहती हैं, तब बहस का मुद्दा बदल देती हैं। कृष्ण ने उन्हें पीड़ा पहुँचाई है, परन्तु वे कृष्ण की सत्ता को चुनौती नहीं देतीं। बस अपनी पीड़ा का बखान करती जाती हैं। वे कहती हैं कि हमारी हालत भी तो देखो। इसलिए वे अपनी पीड़ा और असहायता के वर्णन द्वारा उद्धव को अपने पक्ष में करती जाती हैं।
यहाँ एक बात पर और विचार करने की जरूरत है। सूरदास ने भ्रमर गीत में निर्गुण सन्तों के सामाजिक दर्शन की कहीं चर्चा नहीं की है। उनका मुख्य बल निर्गुण मत की आलोचना करना है जो वेदों और पुराणों की शाश्वतता को अस्वीकार करता है और वर्णाश्रम को भक्ति के मार्ग में बाधा मानता है जबकि सगुण परम्परा वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करती है। इसका सूरदास समर्थन करना चाहते हैं, परन्तु उस पर कोई चर्चा नहीं करते। यह भ्रमरगीत का गुप्त सन्देश है। यदि इस बिन्दु पर बात करते तो गोपियाँ दर्शन के स्तर पर भी पराजित हो जाती।
- निष्कर्ष
भ्रमरगीत में योग मत का उपहास, अव्यावहारिकता, असम्भव कल्पना, कष्टसाध्य प्रक्रिया, आम जनता के लिए अनुचित, कठिन पन्थ आदि के आरोपों से उसका खण्डन कर दिया जाता है। ये तर्क स्थापित हो जाने के बाद ही यह सम्भव हुआ कि तुलसीदास रामचरितमानस में पुनः वर्णाश्रम धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा कर सके। यही मानसिकता आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की भी थी। इसलिए उन्होंने भ्रमरगीत को इतना महत्त्व दिया।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- भ्रमरगीत सार , रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा, वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा, बनारस
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
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