3 भक्ति-काव्य का दार्शनिक परिप्रेक्ष्य

अजय कुमार यादव यादव and देवेन्द्र चौबे चौबे

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • भक्ति काव्य के प्रेरणा-स्रोत दार्शनिक मतों के बारे में जान पाएँगे।
  • अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद का सामान्य परिचय जान पाएँगे।
  • भक्ति-काव्य पर अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद के प्रभाव जान सकेंगे।
  • सिद्ध और नाथ पन्थ के सिद्धान्तों को समझते हुए, उनके बीच के अन्तर को भी समझ सकेंगे।
  • भक्ति-काव्य पर सिद्ध और नाथ-पन्थ के प्रभाव को जान सकेंगे।

 2. प्रस्तावना

हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति-कालीन काव्य अपने लोकोन्मुखी विषयवस्तु और गहरी भावप्रवणता के कारण सर्वाधिक पढ़ा और गाया गया है। विद्वानों ने इसकी तरह तरह से विवेचना भी की है। भक्ति काव्य के उदय की पृष्ठभूमि, भेद-अभेद, प्रासंगिकता आदि पर विद्वानों द्वारा खूब लिखा गया, भक्तिकालीन काव्य और कवि जितनी प्रेरणा अपने सामाजिक परिवेश से ग्रहण कर रहे थे, उतनी ही प्रेरणा भारतीय धर्म-साधना की चली आ रही सुदीर्घ परम्परा से भी ग्रहण कर रहे थे और अपने रचनात्मक कर्म को एक नई ऊँचाई दे रहे थे। इतना ही नहीं, भक्ति-कालीन कवियों ने भारतीय दर्शन के बारे में भारतीय जनमानस की सांस्कृतिक समझ को कहीं-कहीं बदला और कहीं-कहीं विकसित भी किया। अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्वाद्वैतवाद तथा सिद्ध, नाथ-पन्थियों की साधना पद्धति इत्यादि वे दर्शन हैं, जिनसे भक्तिकालीन कवि प्रेरणा ग्रहण कर रहे थे, जिसका आगे विस्तारपूर्वक अध्ययन करेंगे।

3. भक्ति की दार्शनिक पृष्ठभूमि

भक्ति की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। भक्ति के मूल में अनेक दार्शनिक अवधारणाएँ रही हैं। इसकी दार्शनिक पृष्टभूमि में अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, सिद्ध, नाथ पन्थ के दर्शन प्रमुख हैं। कालान्तर में भक्तिकालीन काव्य इनसे प्रभाव ग्रहण कर रहा था।

 

3.1 अद्वैतवाद

 

भक्तिकाल के चिन्तन में सर्वाधिक चर्चित और विवादस्पद चिन्तन शंकराचार्य का है। उन्होंने सबसे पहले शास्त्र की नई व्याख्या की। यह व्याख्या उन्होंने बौद्ध धर्म को पराजित करने के लिए की थी। हालाँकि कुछ आचार्यों ने शंकराचार्य पर प्रच्छन्‍न बौद्ध होने का आरोप भी लगाया था। शंकराचार्य की मूल मान्यताओं को इस रूप में रखा जा सकता है।

  • ब्रह्म ही एकमात्र सत्य और एकमात्र सत्ता है।
  • जीव और ब्रह्म एक ही है। माया के वशीभूत होकर जीव अपने को ब्रह्म से इतर समझने लगता है, लेकिन वास्तव में वह ब्रह्म से पृथक नहीं है।
  • जगत मिथ्या है।
  • माया दृश्यात्मक जगत का विकार है।
  • अविद्या के कारण जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता और अद्वैतवादी चिन्तन से इस अविद्या का नाश होता है।
  • भक्ति को विद्या माया माना गया है, जो ज्ञान प्राप्ति का साधन है। बिना ज्ञान के मोक्ष असम्भव है। इन मान्यताओं को शंकारचार्य ने तरह-तरह से अभिव्यक्त किया है।

 

3.2. विशिष्टाद्वैतवाद

 

शंकराचार्य के मत के बाद दर्शन के क्षेत्र में विवाद उत्पन्‍न होने लगे। आचार्य अपनी-अपनी दृष्टि से अद्वैत की व्याख्या करने लगे। अद्वैत के अर्थ का विस्तार एवं संकुचन होने लगा। अधिकांश परवर्ती आचार्य शंकर से सहमत नहीं थे, लेकिन वे शंकराचार्य का खण्डन करने की स्थिति में भी नहीं थे। अतः उन्होंने अद्वैतवाद की नई-नई व्याख्याएँ प्रस्तुत की। अद्वैतवाद के विरोध में जो दर्शन उद्भूत हुए उनमें विशिष्टाद्वैतवाद प्रमुख है। यह दर्शन रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित है। अद्वैतवाद के प्रभाव से जो बुद्धिवाद का बोलबाला हो चला था, उसमें भक्ति को गौण स्थान प्राप्त था। रामानुज ने शंकर की अपेक्षा अधिक व्यवहारिक दार्शनिक मीमांसा प्रस्तुत की। उनकी मूल मान्यताएँ इस प्रकार हैं–

  • आत्मा और परमात्मा एक नहीं है।
  • आत्मा और संसार ईश्‍वर के अंश हैं। इसलिए उनकी भी वास्तविक सत्ता है। अतः आत्मा भी सत्य है और जगत भी।
  • ईश्‍वर और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है और वह सगुण है। सत्, चित् और आनन्द उसके गुण हैं।
  • ईश्‍वर, जो सगुण सविशेष है, जगत उस ईश्‍वर की लीलाभूमि है।
  • ईश्‍वर की भक्ति जीव के लिए परम पुरुषार्थ है।
  • शंकराचार्य ज्ञान को मुक्ति का साधन मानते थे, किन्तु रामानुज भक्ति को मुक्ति का साधन मानते हैं। ज्ञान केवल सहायक तत्त्व है।
  • अनेक आचार्य इनसे भी सहमत नहीं हुए।

 

3.3. शुद्धाद्वैतवाद

 

वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैतवाद की धारणा सामने रखी।

  • तात्त्विक रूप से यह दर्शन भी अद्वैतवाद ही है, शुद्ध शब्द का प्रयोग इसके विशेषण के रूप में किया गया है।
  • ब्रह्म और ईश्‍वर एक है। श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं।
  • सम्पूर्ण सृष्टि सत्, चित् और आनन्द गुणों से निर्मित है, और ईश्‍वर इन तीनों गुणों से परिपूर्ण है।
  • यह दर्शन शंकराचार्य के मायावाद का खण्डन करता है।
  • दर्शन में जो शुद्धाद्वैत है, वह व्यवहार में ‘पुष्टि मार्ग’ कहा जाता है।
  • पुष्टि का अर्थ है – ईश्‍वर के अनुग्रह, प्रसाद, अनुकम्पा अथवा कृपा से पुष्ट होने वाली भक्ति।

 

 4. भक्ति काव्य का दार्शनिक परिप्रेक्ष्य

 

पूर्व मध्यकाल में जिस भक्ति-धारा ने अपने आन्दोलनात्मक शक्ति सामर्थ्य से समूचे राष्ट्र की शिराओं में नया रक्त प्रवाहित किया, उसके दर्शन के सम्बन्ध में विभिन्‍न आचार्यों के अभिमतों में वैभिन्य है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का कहना है कि भक्ति काव्य में लोक-जीवन का स्वाभाविक उच्छ्वास मिलता है, जो कि भक्ति लोक-चिन्ता की स्वाभाविक विकास-धारा का परिणाम है।

 

विद्वानों का मत है कि भक्ति का बीज सर्वप्रथम वैदिक काल के कर्मकाण्डीय यज्ञों में मिलता है। यद्यपि उस कालखण्ड में इसका कोई दार्शनिक आधार निर्मित नहीं हुआ था। पुनश्‍च उपनिषद् काल में सर्वप्रथम श्‍वेताश्‍वतर उपनिषद् में इस शब्द का प्रयोग मिलता है, लेकिन उस कालखण्ड में भी भक्ति की व्यावहारिक व्याख्या नहीं प्राप्त होती है। उपनिषदों की तर्ज पर भक्ति सूत्रों की रचना हुई, जिनमें नारद भक्ति सूत्र और शाण्डिल्य सूत्र प्रसिद्ध है। भक्ति का चरम आदर्श श्रीमद्भागवत पुराण में ही निर्मित हुआ।

 

बुद्ध के समय भगवान विष्णु की भक्ति प्रचलित थी। उस समय याज्ञिक कर्मकाण्डों पर विशेष जोर था। बुद्ध के विचारों ने समाज की रूढ़िगत व्यवस्था के समक्ष बहुत बड़ा प्रश्‍नचिह्न खड़ा कर दिया। बुद्ध की दार्शनिक क्रान्ति का असर समूचे समाज की जीवन-पद्धति पर इस प्रकार पड़ा कि भारतीय परिदृश्य में वह कर्मकाण्डों से चिन्तन की तरफ अग्रसर होने लगी। कालान्तर में जब बौद्ध धर्म महायान और हीनयान में बँट गया, और वज्रयान के अन्तर्गत सहज साधना चल पड़ी; शाक्तों की तरह तन्त्र, अभिचार और व्यभिचार चलने लगे, तो नाथ मुनियों का प्रभाव बढ़ा। वे नाथमुनि हठयोग का सिद्धान्त लेकर आए। यद्यपि चौरासी सिद्धों ने बुद्ध प्रवर्तित नूतन सामाजिक सोच को एक नया तेवर प्रदान किया। सामाजिक परिवर्तन की भूमिका में कुछ न कुछ जोड़ा। लेकिन इसके बावजूद, कुछ सिद्ध अपने अमर्यादित आचरण के कारण जनता को प्रकृत धर्म के धरातल पर नहीं ला सके। योगी गोरखनाथ, निवृत्तिनाथ आदि बौद्धों की विकृत सहज साधना का परिहास कर इन्द्रियों पर कठोर संयम का उपदेश देते हैं। गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित हठयोग, षटचक्र और कुण्डलिनी का विधान कालान्तर में सन्त मत पर अपना पूरा-पूरा प्रभाव डालता है। यद्यपि नाथों की योग साधना बौद्धों एवं शाक्तों की विकृत साधना को पाठ पढ़ाने के लिए अस्तित्व में आती है, किन्तु आगे चलकर केवल बाह्योन्मुखी रहने के कारण ही वह समाज के अंतरंग जीवन पर कोई सकारात्मक छाप नहीं छोड़ सकी। नाथ योगियों की हठयोग-साधना महज कायिक साधना बनकर रह गई। इसीलिए कालान्तर में कबीर अवधूत को फटकार कर सच्‍चे योग का मर्म समझाते हैं।

दक्षिण भारत दार्शनिक आचार्यों की परम्परा की दृष्टि से बड़ा समृद्ध रहा। कालान्तर में भक्ति आन्दोलन का जैसा स्वरूप बना, उसमें निश्‍चय ही इन दार्शनिक आचार्यों का योगदान रहा। आठवीं शती के आस-पास आदिशंकरचार्य ने अद्वैतवाद का सिद्धान्त प्रस्तुत कर सामाजिक विश्रृंखलता को दूर करना चाहा। अद्वैतवाद ने दार्शनिक धरातल पर भेद को तो खण्डित किया, साथ ही बौद्धों के अनीश्‍वरवाद को भी खण्डित किया, सामाजिक धरातल पर राष्ट्रीय एकता के निमित्त सार्थक उपक्रम प्रस्तुत किया। यद्यपि अद्वैतवाद भक्ति को अविद्या माया के अन्तर्गत रखता है। लेकिन सन्त मत की क्रान्तिकारी दार्शनिक भूमिका में सहज ही दृष्टिगोचर होता है कि सन्तों को निर्गुण भक्ति के लिए अद्वैतवाद बहुत ही मददगार सिद्ध हुआ।

 

ग्यारहवीं सदी में रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत नामक दार्शनिक सिद्धान्त दिया, कालान्तर में मध्वाचार्य केद्वैतवाद, निम्बार्काचार्य केद्वैताद्वैत एवं वल्लभाचार्य केशुद्वाद्वैतवाद नेभक्ति को ऐसी सुदृढ़ दार्शनिक भूमि दी, जिससेदार्शनिक अस्मिता में भी भक्ति ने अक्षुण्ण सत्ता प्राप्त कर ली। दार्शनिक दृष्टिकोण से ग्यारहवीं सदी भक्ति के लिए संस्कृति और क्रान्ति का काल है। इतने विशद धरातल पर गहन एवं गम्भीर दार्शनिक विवेचना के साथ कोई आचार्य ज्ञान के समक्ष भक्ति का मत लेकर प्रथम बारखड़ेहुए। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बर्काचार्य, वल्लभाचार्य।।।आदिआचार्यों ने अद्वैतवाद का खण्डन कर भक्ति की सर्वोपरि सत्ता प्रतिष्ठित की। रामानुजाचार्य की ही परम्परा में रामानन्द हुए और रामानन्द की परम्परा में कबीरदास हुए, ऐसा कुछ विद्वान् मानते हैं।

 

वैसे तो निर्गुण आन्दोलन अपनी पूरी महिमा के साथ कबीर के इर्द-गिर्द ही प्रकट हुआ और उन्हीं की रचनात्मक सामर्थ्य से भव्यता प्राप्त कर सका। किन्तु मध्यकाल में ही कबीर के अलावा रैदास, दादू, नानक, धर्मदास आदि के यहाँ आन्दोलनात्मक रूप में विस्तार प्राप्त करने लगा और आगे चलकर भीखा साहब, बुल्ला साहब, पलटू दास से होते हुए सहजो बाई, जगजीवन साहब आदि के यहाँ तक 18वीं-19वीं सदी तक इस आन्दोलन ने अपना विस्तार प्राप्त किया है। मध्यकालीन निर्गुणधारा में सुन्दरदास को छोड़कर प्रायः अन्य सन्त अशिक्षित हैं। निश्‍चय ही वे दार्शनिक नहीं हैं, सत्संग द्वारा अर्जित ज्ञान और साधना द्वारा प्राप्त अन्तर्दृष्टि के आधार पर उनकी विचारधाराओं से जो दार्शनिक मान्यताएँ निष्पन्‍न होती हैं, वे हैं –

  • परमात्मा निर्गुण एवं निराकार हैं, वह अवतार नहीं लेता।

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना। राम नाम को मरम है आना।

  • निर्गुण निराकार ब्रह्म की भक्ति ही मनुष्य का परम पुरुषार्थ है –

प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी

जाकी अंग-अंग वास समानी।।।

  • जीव मूलतः ब्रह्म ही है, किन्तु माया के कारण उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता है, भक्ति से ही उसके कर्म बन्धन नष्ट होते हैं और वे अपने ब्रह्म स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं, इसी अवस्था को मोक्ष कहते हैं। परमात्मा से एक होने की स्थिति वर्णनातीत है –

जोई था सोई भया, अब कुछ कहा न जाय।।।

  • सभी प्रकार के कर्मकाण्ड मिथ्या हैं, सामाजिक भेदभाव मिथ्या है, मनुष्य को सत्कर्म करते हुए परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। भक्ति के लिए कर्मकाण्ड महज पाखण्ड है। सामाजिक भेदभाव विष तुल्य हैं, पंच विकार विष तुल्य हैं, केवल प्रेम ही भक्ति का हेतु है –

जो कछु करौ सो सेवा।।।

यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।।

सभी निर्गुणियाँ सन्त मूलतः साधक हैं, ब्रह्म मार्ग के पथिक हैं, इनकी साधना में निम्‍नलिखित तत्त्वों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है –

  • v नाथपन्थी योगियों की योग-साधना
  • v नारदी भक्ति तथा पौराणिक भक्ति पद्धतियाँ
  • v सूफियों की प्रेम की पीर

यद्यपि यहाँ एक नई बात दिखाई पड़ रही थी कि जो निर्गुण ब्रह्म परम्परागत साधना पद्धति में महज चिन्तन का विषय था, वह यहाँ भक्ति का विषय बन गया है, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार सूफियों के प्रभाव के कारण ऐसा हुआ। वह निर्गुण भक्ति में विदेशी महत्त्व अनुभूत करते हैं, निर्गुण मत में भक्ति के योग को सूफी विचारधारा से सन्दर्भित करके पल्ला झाड़ लेना युक्तिसंगत नहीं होगा; कारण सूफियों की अपेक्षा कहीं अधिक गहराई से वेदान्त व अद्वैतमूलक चिन्तन तथा नाथपन्थियों की योगमूलक साधन और वैष्णवों के दास्य, सख्य, वात्सल्य तथा कान्ता भक्तिमूलक पद्धतियों का प्रभाव विद्यमान है। कबीर स्वयं कहते हैं कि यदि चाण्डाल जाति का वैष्णव मिल गया तो मानो गोपाल मिल गया –

 

साकत बाभन मति मिले वैष्णव मिले चण्डाल।

अंकमाल दै भेटिये मानो मिले गुपाल।।

समूचे निर्गुण पन्थ की साधना प्रेम-मूलक है। रैदास की यह पंक्ति –

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग वास समानी।

 

मानो समूची निर्गुण भक्ति परम्परा का नियामक सूत्र प्रेम है। निर्गुण सन्त सहज साधना पर जोर देते है। कर्मकाण्ड और रूढ़िवाद की तीखी आलोचना की है। बहुत से निर्गुणपंथी सन्त गृहस्थ हैं। यद्यपि कालान्तर में इस मत में भी संन्यास की प्रथा चली, परन्तु मध्यकाल में जहाँ इसके आन्दोलनात्मक रूप की पहचान सुनिश्‍चि‍त होती है, वहाँ-वहाँ इस मत में संन्यास का महत्त्व नहीं है, निर्गुण भक्ति योगमूलक भक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होता है, अर्थात् यहाँ भक्ति और योग का विलक्षण संगम दृष्टिगोचर होता है –

 

चंद सूर नहि राति दिवस नहीं घरनि अकाशन भाई।।। (रैदास)

सुरति समानी निरति में, निरति रही निरधार।

सुरति निरति भया, तब खुले स्वयं भू द्वार।(कबीर)

 

चूँकि सभी निर्गुणपंथी सन्त प्रायः निम्‍न वर्ग से आए, जो पढ़े-लिखे नहीं थे, काव्य कला में दीक्षित नहीं थे, अतः उनकी रचनाओं में शास्‍त्रीय दृष्टि से तमाम असंगतियों का मिलना स्वाभाविक है। जिसके कारण आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इस धारा के सबसे समर्थ कवि कबीर तक की काव्यात्मक क्षमता पर सन्देह व्यक्त करते हैं, परन्तु एक उल्लेखनीय बात यह है कि आद्योपान्त इस धारा में सन्तों के यहाँ अनावृत भावावेग का दर्शन होता है। यही कारण है कि सीधे-सादे सरल दोहों में सन्तों की अभिव्यक्तियाँ अपने समय के समाज से सीधा संवाद स्थापित करती है।

 

मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन में सन्त काव्यधारा के पश्‍चात सूफी काव्यान्दोलन अस्तित्व में आता है। इसके दर्शन के सम्बन्ध में इतिहासकारों का मत है कि ग्यारहवीं शती में ‘अलहुज्जरी’ नामक सूफी ईरान, अफगानिस्तान होते हुए भारतवर्ष आया। वह अपने साथ कुछ सूफी ग्रन्थ भी ले आया। उसका मूल उद्देश्य था भारतवर्ष में सूफी धर्म का प्रचार-प्रसार। उसका यह उद्देश्य संगठित तरीके से बारहवीं शती में फलीभूत होते हुए दिखाई पड़ता है। बारहवीं सदी में चिश्ती सम्प्रदाय और सोहरावर्दी सम्प्रदाय तथा पन्द्रहवीं सदी में कादरी सम्प्रदाय और नक्शबन्दी सम्प्रदाय अस्तित्व में आए। ये सम्प्रदाय सूफी विचारधारा को आन्दोलनात्मक स्तर पर प्रचारित-प्रसारित करने लगे। वैसे वर्तमान में सूफियों के तेरह से भी अधिक सिलसिले (सम्प्रदाय) हैं। सूफी सम्प्रदाय को इस्लाम के उदारवादी रहस्यवादी शाखा के रूप में जाना जाता है। कुछ विद्वान इसके उद्भव के मूल में ईरान की कबीलाई जाति सामी में हाल की अवस्था तक पहुँचने के लिए मनोवैज्ञानिक स्थितियों को जिम्मेवार मानते हैं।

 

जब एक विराट संगठित धर्म इस्लाम अस्तित्व में आया होगा, तो यह धारा उसी में मिल गई होगी और दार्शनिक स्तर पर परिष्कृत होकर वर्तमान सूफी सम्प्रदाय का रूप ग्रहण कर लिया होगा। प्रश्‍न उठता है कि सूफियों में खुदा को माशूका के रूप में क्यों देखा जाता है? इसका उत्तर सामाजिक मनोवैज्ञानिक धरातल पर पाया जाता है। चूँकि लौकिक प्रेम के धरातल से ही उस अलौकिक स्तर तक पहुँचना सुलभ था; कारण मानसिक प्रवृत्तियाँ लौकिक प्रेम के स्तर पर अभ्यस्त थीं; इसलिए भी माशूका में खुदाई की छवि देखी गई। सामाजिक दृष्टि से पुरुषवादी व्यवस्था में स्‍त्री इतनी स्वतन्त्र नहीं थी कि प्रेम में पहल उसकी तरफ से हो। प्रेम का सारा उन्माद पुरुषों के ही चरित्र में अभिव्यक्ति पाता था, इसलिए खुदा को स्‍त्री का रूप माना गया, जिससे साधना-विकल होकर उसकी ओर दौड़ पड़े। जहाँ पहले-पहल लौकिक स्तर पर प्रेम के धरातल पर प्रेयसी में खुदाई की छवि परिकल्पित की गई, वहीं जब दार्शनिक स्तर पर इसका संक्रमण किया गया तो खुदा को माशूका की छवि दी गई, जिसका सीधा आशय यह था कि एक प्रेमी अपनी माशूका को पाने के लिए जितना व्याकुल हो सकता है, खुदा को पाने के लिए वैसी ही आसक्ति और विकलता की जरूरत है। प्रेम की इस पीर को ही सूफी दर्शन कहा गया है। प्रेम के मतवालों को सूफी कहा गया। यहाँ प्राकृत स्तर से अतिप्राकृत स्तर तक के प्रेम का विकास और प्रसार जीवन का एक-मात्र उद्देश्य माना गया। सूफी दर्शन में लोक और परलोक, जगत और ईश्‍वर, ईश्‍वर और माया आदि स्थितियाँ एक दूसरे से संपृक्त हैं। जगत को खुदा का नूर बताया गया है। वैसे तो उपनिषदों में यह सिद्धान्त आ जाता है कि सृष्टि परमात्मा की अभिव्यक्ति है। किन्तु उपनिषदों में इस सिद्धान्त के बावजूद जगत में खुदाई की छवि देखते हुए उसमें अमूर्त्त सौन्दर्य राशि का दर्शन किया गया। निस्सन्देह हिन्दुओं के पौराणिक अवतारवाद की संकल्पना सूफियों के उद्भव से पहले की है। इस सगुणवाद में जिस प्रकार जगत को अनुरक्ति और विरक्ति के सन्धि पर देखने की परम्परा है, अर्थात् जगत को ईश्‍वर की लीलाभूमि मानकर उसे उत्सवधर्मी नजरिये से देखा जाता है, तथा आध्यात्मिक उत्थान के लिए सांसारिक विषयों का भी ध्यान रखा जाता है ठीक उसी प्रकार सूफियों के यहाँ जगत के प्रति अनुरक्ति और विरक्ति का भाव दृष्टिगोचर होता है। जाहिर है कि सूफियों ने जगत के प्रति प्रेय और श्रेय का यह भाव हिन्दुओं के सगुण पन्थ से लिया होगा।

 

निस्सन्देह सूफी सम्प्रदाय आध्यात्मिक साधना का सरल, निश्छल प्रेममय और धर्मनिरपेक्ष मार्ग लेकर प्रस्तुत होता है। सूफियों की साधना में चार सोपानों का उल्लेख मिलता है। शरीयत, तरीकत, हकीकत और मारिफत। इन सोपानों को क्रमशः कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड, परमात्मा से साक्षात्कार और मोक्ष की अवस्था मानी जा सकती है। इसमें इस्लाम का दखल केवल शरीयत तक है। शरीयत के आगे सूफी साधना, रोजा, नमाज एवं अन्य रूढ़िगत साधनाचारों से मुक्त होकर अपना रास्ता खुद तय करती है और इसी धरातल पर इसे इस्लाम की रहस्यवादी धारा अथवा इस्लाम के खिलाफ आध्यात्मिक धरातल से विद्रोह के फलस्वरूप उपजे पन्थ के रूप में देखा जा सकता है। इतिहास के स्तरों पर औरंगजेब और दाराशि‍कोह (सूफी मत को मानने वाला) की मान्यताओं के टकरावों और संघर्ष तथा उसकी त्रासद  परिणति में यह अन्तर  साफ नज़र आता है। इस्लाम की रूढ़िगत मान्यताओं से सूफी सम्प्रदाय कितना छूट माँगता है? यह स्पष्ट दिखता है। सूफी सिलसिलों में जो सूफी-साधना प्रचलित हुई, उसमें निश्‍चय ही कृष्ण-राधा विषयक गीत भी गाए गए और योग साधना तो बड़े ही प्रत्यक्ष रूप में अभ्यास में लायी जाती थी। लेकिन मध्यकाल में हिन्दी में जो सूफी-काव्य रचा गया, उनके कवियों में, जायसी को छोड़कर अन्य सूफी कवियों को सूफी साधक नहीं माना जा सकता है। सन्त काव्यधारा के कवि और सूफी काव्यधारा के कवियों में यह एक स्पष्ट अन्तर लक्षित किया जा सकता है कि प्रायः सभी सन्त कवि साधक थे – आध्यात्मिक ज्ञान से युक्त; किन्तु सभी सूफी कवि साधक नहीं थे। जोकि सूफी धारा में सूफी साधना सीधे सूफी सिलसिलों से सम्बन्धित है, जिनका उद्देश्य है सूफी धर्म का प्रचार-प्रसार, किन्तु सूफी काव्य सीधे सूफी सिलसिलों से सम्बद्ध नहीं है, सूफी कवियों की प्रतिबद्धता सूफी धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ रही हो, ऐसा साबित नहीं होता; बल्कि तुलनात्मक दृष्टि से उनका सृजन कविता, कला, मानव संस्कृति की अपनी माँगों से नियमित निर्देशित होता है, फिर अगर जायसी के समर्थ समीक्षक विजय देवनारायण साही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं तो कोई आश्‍चर्यजनक नहीं है कि जायसी कहीं गहरे सूफी हो तो हो, लेकिन उनकी कविता से उनका सूफीपन नहीं झलकता है, बल्कि कविता स्वयं की स्वतन्त्र माँगों से निर्देशित नियमित होती चलती है। यह बात अन्य सूफी कवियों पर भी कमोबेश लागू होती है।

 

सगुण भक्ति के दार्शनिक आधारों में वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत दर्शन प्रमुख है। वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने पुष्टिमार्गीय भक्ति पद्धति का देश-भर में प्रचार किया। अष्टछाप के आठ कवियों में चार वल्लभाचार्य के शिष्य थे और चार गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे। इन आठ कवियों ने कृष्ण-भक्ति का प्रचार किया और उनसे सन्दर्भित साहित्य लिखा। पुष्टिमार्गियों के लिए कृष्ण ही परमब्रह्म है, परमानन्द रूप है। सूरदास इस दार्शनिक सिद्धान्त का सहारा लेकर साहित्यक कृष्ण को जन-जन तक पहुँचाया।

 

उनके वात्सल्य रूप को एक नई ऊँचाई दी, जो विश्‍व साहित्‍य में दुर्लभ है। वैष्णव भक्ति के आचार्य जिन दार्शनिक निष्पत्तियों को लेकर चले, उसे सगुण भक्तिकालीन कवियों ने अपनी कविता में वाणी दी। प्राणि-मात्र के प्रति प्रेम, अहिंसा, वैष्णव भक्त कवियों की कविता में मुख्य घटक है। वैष्णव भक्ति में चूँकि राम और कृष्ण को प्रमुखता दी गई है, इसलिए हम देखेंगे कि सगुण भक्ति में राम और कृष्ण को नायकत्व प्रदान किया गया और उनकी विभिन्‍न लीलाओं के माध्यमों से जीव-जगत के सम्बन्धों को व्याख्यायित किया गया है। निम्बार्क समुदाय में राधा को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। यहाँ राधा के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया गया है। राधा की उपस्थिति ने कृष्ण भक्ति-काव्य को एक नई गतिशीलता दी।

 

स्वामी रामानन्द श्री सम्प्रदाय में हुए। रामानुजाचार्य की चिन्तन परम्परा को आगे बढ़ाते हुए गुरु रामानन्द ने हिन्दी साहित्य को दो अनमोल व्यक्तित्व दिए। एक तरफ कबीर का ओज दूसरी तरफ तुलसी का उदात्त व्यक्तित्व; जिसने भक्ति आन्दोलन की ऊर्जस्वित धारा को एक नई गरिमा प्रदान की। रामानन्द ने विशिष्टाद्वैतवादी मान्यताओं से प्रभावित होते हुए अपना सम्प्रदाय खड़ा किया। रामानन्द को रामभक्ति परम्परा के चिन्तन का मेरुदण्ड कहा जाता है। तुलसी ने रामचरितमानस लिखकर राम के व्यक्तित्व को नायकत्व की नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया और वही रामानन्द से प्रेरणा लेकर कबीर ने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया।

 

‘जाँति-पाँति पूछे नहिं कोई। हरि का भजे सो हरि का होई’ का रामानन्दी नारा लेकर कबीर ने पूरे उत्तर भारतीय जनमानस को सामाजिक व्यवस्था के सामने सवालों की झड़ी लगा दी। पोंगापन्थ, कर्मकाण्ड, छुआछूत, ऊँच-नीच का भेद रखने वाले लोगों को निरुत्तर किया और हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को एक विशिष्ट स्थान प्रदान कराया।

 

 5. निष्कर्ष

 

भक्तिकाव्य का प्रारम्भ निर्गुण काव्‍य से होता है। निर्गुण काव्यधारा शंकर के अद्वैत, सिद्धों, नाथों की वैचारिक दृष्टियों और सूफियों के प्रेम-तत्त्व से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ता है। निर्गुण कवियों का एकेश्‍वरवाद, निर्गुण ईश्‍वर समाज में एक नए अध्याय का सूत्रधार बना। सामाजिक बाह्याडम्बर, कर्मकाण्ड, रूढ़ियाँ और जाँति-पाँति का नकार समाज में एक नई व्यवस्था का स्वप्‍न था।

 

सगुण भक्ति कवियों ने वैष्णव आचार्यों के दार्शनिक सिद्धान्तों से प्रेरणा लेते हुए भक्ति-काव्य को चरम पर प्रतिष्ठित किया। इन कवियों ने राम और कृष्ण लीलाओं के गान द्वारा अपनी भक्ति भावना को वाणी दी।

you can view video on भक्ति-काव्य का दार्शनिक परिप्रेक्ष्य

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  4. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद
  6. भक्ति आन्दोलन के सामाजिक सरोकार, गोपेश्वर सिंह (सं.),भारतीय प्रकाशन संस्थान,नई दिल्ली
  7. हिन्दी काव्य का इतिहास, रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद

 

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  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0
  3. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  5. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%AF_%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8
  6. https://www.youtube.com/watch?v=ryQw4xpWZ1I