27 भक्तिकालीन प्रमुख रचनाकारों के चुने हुए पदों की व्याख्या (मीरा,रसखान,दादू)
रीता दुबे and रामबक्ष जाट
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के उपरान्त आप –
- मीरा की कविता और उनके जीवन दर्शन को समझ सकेंगे।
- रसखान की कविता का मर्म जान सकेंगे।
- दादू की कविता की रसानुभूति कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
भक्ति आन्दोलन एक जन आन्दोलन था। जिसने समाज के हर तबके को सोचने के लिए विवश कर दिया था,भक्ति आन्दोलन को सामजिक सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप देने में कबीर, नानक, तुलसीदास, रैदास, सूरदास जैसे अनेक कवियों के साथ मीरा, दादू और रसखान की कविताई का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। सूरदास ने कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों की मानसिक दशा का चित्रण किया है ,लेकिन मीरा ने तो स्वयं के प्रेम की तीव्रता का उसके रास्ते में आने वाली कठिनाइयों का जिक्र किया है। रसखान की कविता कृष्ण भक्ति को एक नई दिशा देती है।
- मीरा
पद:
हेरी मैं तो दरध –दिवाणी होइ,
दरद न जाणै मेरो कोइ
घाइल की गति घाइल जाणै, की जिण लायी होइ
जोहरि की गति जौहरि जाणै, की जिन जौहर होइ
सूली उपरि सेझ हमारी, सोवणा किस विध होइ
गगन -मंडल पै सेझ पिया की, किस विध मिलणा होइ
दरध की मारी वन –वन डोंल, वैद्य मिल्या नहिं कोइ
मीरा की प्रभु पीर मिटैगी, जद वैद्य सांवरिया होइ
व्याख्या : मीरा कृष्ण से प्रेम करती थी, लेकिन सामाजिक बन्धन उन्हें बार-बार कृष्ण से मिलने से रोकते थे, संसार उनकी भावनाओं को नहीं समझता था। इसलिए वह कहती हैं कि मैं तो दर्द की दीवानी हूँ, लेकिन दुनिया मेरे इस दर्द को नहीं समझ रही है। घायल व्यक्ति की दशा घायल ही जानता है, दूसरा व्यक्ति उस घायल के दर्द को समझ ही नहीं सकता। न तो वह बता सकता है और न दूसरा कोई जान पाता है। घायल स्वयं ही जानता है। किसी दूसरे में उसकी कराह को अनुभव करने का सामर्थ्य ही नहीं है। यहाँ किसी को प्रेम की परवाह नहीं है किसी ने प्रेम नहीं किया है। जब किसी ने प्रेम नहीं किया तो प्रेम के दर्द को कोई कैसे जान सकता है? इसलिए प्रश्न समझ का है। जब सुनने वालों में समझ ही नहीं हैं, तब उसकी क्या चर्चा करें? जिस प्रकार से हीरे की पहचान जौहरी को ही होती है और वही उसका वास्तविक मूल्य बता सकता है उसी प्रकार प्रेम के दर्द की पीड़ा का अन्दाजा भी वही लगा सकता है जिसने स्वयं कभी प्रेम किया हो। प्रेम करना सूली के ऊपर चढ़ने जैसा है। प्रेम करने वाला व्यक्ति कभी भी चैन से नहीं रहता है, विरह उसे अन्दर ही अन्दर जलाता रहता है। इस सूली पर आराम से कैसे सोया जा सकता है। ऐसे में सोना कैसे सम्भव है। मीरा आगे कहती हैं कि जिससे मैं प्रेम करती हूँ उस प्रिय का निवास-स्थान गगन में है उससे मिलना किस प्रकार से सम्भव है। प्रिय से न मिलने का जो दर्द मीरा को है वह मीरा ही जानती हैं और उनके इस दर्द को दूर करने वाला वैद्य भी नहीं मिल रहा है जो उनके इस दर्द को दूर कर दे। मीरा कहती हैं कि मेरा यह दर्द तभी दूर होगा जब मेरा वैद्य स्वयं मेरे गिरधर गोपाल होंगे। उनके बिना इस दर्द को कोई भी दूर नहीं कर सकता है। यहाँ मीरा भाषा की अक्षमता की चर्चा कर रहीं है, जो मानवीय सम्प्रेषण का मुख्य आधार है। यहाँ मीरा का आग्रह है कि सम्पूर्ण सम्प्रेषण अनुभव की समानता से ही सम्भव है। यदि कोई एक व्यक्ति अनुभवहीन है तो सम्प्रेषण हो ही नहीं सकता। जब सम्प्रेषण ही नहीं हुआ, तब उसकी क्या शिकायत करें। इसलिए मीरा शत्रु और मित्र दोनों को समान रूप से क्षम्य मानकर चलती है। शुभेच्छु भी अनुभवहीन हैं, इसलिए वह जो भी सलाह देता है, वह निरर्थक है। अनुभव सम्पन्न व्यक्ति तो स्वयं कृष्ण है। वही जब वैद्य बनकर आएंगे तब दर्द समाप्त होगा। स्पष्ट है कि मीरा कृष्ण से ही मिलना चाहती है।
पद :
जोगिया सें प्रीति कियां दुख होइ
प्रीति कियां सुख ना मोरी सजनी ! जोगी मित न कोइ
रात-दिवस कल नाहिं परत है, तुम मिलियां विन मोइ
अैसी सूरत या जग मांही, फेरि न देखी सोइ
मीरां के प्रभु कब रे मिलोगे, मिलियां आणंद होइ
व्याख्या : इस पद में मीरा उस जोगी को सम्बोधित करती है तथा साथ ही उसके बारे में अपने अनुभव भी बयान करती है। यह अनुभव, लोक के सामान्य अनुभव से अलग है। सामान्य लोग यही समझते हैं कि प्रेम करने से सुख मिलता है। मीरा कहती है कि प्रेम करने से सुख नहीं मिलता। प्रेम करने से दुःख मिलता है। तब मीरा प्रेम क्यों करती है? प्रेम करना या न करना वश में नहीं है। प्रेम करने के बाद ज्ञात हुआ कि जोगी से प्रेम किया, लेकिन जोगी किसी का प्रेमी नहीं हो सकता। वह तो सब से निर्लिप्त है। अब मीरा अपने प्रेम के अनुभव को बयान करती है। इस कारण रात-दिन चैन नहीं पड़ता। इस दर्द का कारण यह है कि जिस जोगी से प्रेम किया, वह जोगी मिल नहीं रहा है। वह जोगी, मीरा का प्रेमी अद्भुत है। वैसी सूरत इस संसार में और किसी की नहीं है। स्पष्ट है कि कृष्ण या जोगी के समान कोई सुन्दर कैसे हो सकता है। अन्तिम पंक्ति में मीरा ईश्वर से आर्त स्वर में प्रार्थना करती है, जानना चाहती है कि तुम कब मिलोगे, क्योंकि आनन्द तुमसे मिलने से ही मिलेगा। यहाँ इस तथ्य को रेखांकित किया जाना चाहिए कि मीरा ने ईश्वर-मिलन के अनुभव का कहीं वर्णन नहीं किया ईश्वर से मिलने की इच्छा है। मीरा का विश्वास है कि एक दिन ईश्वर से मिलन अवश्य होगा, परन्तु मीरा के पदों में मीरा का ईश्वर से मिलन कभी होता नहीं।
पद :
घड़ी अंक नहीं आवङै, तुम दरसण विन मोय
तुम हो मेरे प्राण जी ! का सूं जीवणं होय
धन न भावै, नींद न आवै, विरह सतावै मोहि
घायल-सी घूमत फिरूं रे, मेरो दरद न जाणै कोइ
दिवस तो खाय गमाइयो रे, रैण गमायी सोइ
प्राण गमायो झूरतां रे, नैण गमाया रोइ
जो मैं अैसी जाणती रे, प्रीत कियां दुख होइ
नगर ढंढोरा फेरती रे, प्रीत करो मत कोई
पंथ निहारूं, डगर बुहारूं, अभी मारग जोइ
मीरां के प्रभु कब रे मिलोगे, तुम मीऴियां सुख होइ
व्याख्या : मीरा की कविता की विशेषता है कि वह आत्माभिव्यक्ति के द्वारा विषय का बखान करती है। यहाँ मीरा कृष्ण को सीधे सम्बोधित करती है। ऐसा विश्वास है कि जो वह बोल रही है, उसे कृष्ण केवल सुन रहे हैं, वरन् समझ भी रहे हैं। मीरा के इस सम्बोधन में आर्त प्रार्थना है, दर्द का बयान है, कृष्ण को उपलाम्भ है, निवेदन है और मिलने की आकांक्षा है। यह सब कुछ इसमें घुल मिल गया है। हे कृष्ण ! तुम्हारे बिना एक घड़ी भर भी मेरा मन नहीं लग रहा है। इस संसार से मेरा भी मन उचट गया है। इसका कारण मीरा जानती है वह कहती है कि तुम्हारे दर्शन नहीं हो रहे हैं इसलिए मेरी यह दशा हो रही है। तुम तो मेरे प्राण के आधार हो और यह जीवन इसी आधार पर टिका हुआ है। ऐसी स्थिति में न तो खाना अच्छा लगता है और न नींद आती है क्योंकि मुझे विरह सता रहा है। और इस कारण मैं घायल प्राणी की तरह घुमती हुई फिर रही हूँ। मध्यकाल में घायल व्यक्ति का इलाज लगभग नहीं हो पाता था। फिर मेरा शरीर नहीं, मन घायल है और आसपास के लोग जान ही नहीं पाते। इसलिए सहानुभूति और सम्प्रेषण की भी आशा नहीं है। दिन तो मैंने खाते-पीते गँवा दिया, रात सोते हुए गँवा दी। प्राण मैं तुम्हारी याद में रोते-कलपते हुए गँवा रही हूँ और रो रोकर आँखे नष्ट हो रही है। यहाँ फिर मीरा घोषणा करती है और ऐतिहासिक घोषणा करती हैं कि यदि मैं ऐसा जानती की प्रेम करने से दुख होता है, तो सरे नगर में ढिंढोरा पिटवा देती, सभी को सचेत कर देती कि कोई किसी से प्रेम न करे। इतनी घोषणा के बाद मीरा फिर प्रार्थना करने लग जाती है कि तुम्हारे आने वाले रास्ते को देख रही हूँ, उस मार्ग को साफ कर रही हूँ ताकि तुम्हें आने में कष्ट न हो। मैं रास्ते पर खड़ी-खड़ी तुम्हारे आने का इन्तजार कर रही हूँ। हे मेरे प्रभु ! तुम कब मिलोगे क्योंकि तुम्हारे मिलने से ही मुझे सुख की अनुभूति प्राप्त होती होगी।
- रसखान
पद
सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावें।
जाहि अनादि अनन्त अखण्ड अक्षेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक व्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।
व्याख्या : रसखान कृष्ण भक्ति शाखा के महत्त्वपूर्ण कवि है। इस पद में रसखान ने कृष्ण और गोपियों के बीच के मधुर सम्बन्ध को रेखांकित किया है। गोपियाँ कृष्ण को जितना प्यार करती हैं, उतना ही तंग भी करती है। कृष्ण किस तरह से गोपियों के इस व्यवहार का आनन्द लेते हैं, उसी भाव को रसखान ने इस पद में रेखांकित किया है। रसखान कहते हैं शेषनाग, गणेश स्वयं महेश अर्थात शंकर जी और देवताओं के राजा इंद्र जिनके गुणगान निरन्तर करते रहते हैं, ऐसा माना जाता है हमारा सारा ज्ञान वेदों में अन्तर्निहित है, वही वेद कृष्ण को अनादि और अनन्त बताते हैं अर्थात उसके गुणों की सीमा का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं वह ऐसा है जिसका खण्डन नहीं किया जा सकता है और जिसके आर-पार कोई भी नहीं जा सकता है अर्थात जिसका बाल भी बांका नहीं किया जा सकता है। नारद व्यास सभी ने उनके विषय में ज्ञान प्राप्त करने की, उनके रहस्यों को जानने की कोशिश की लेकिन अत्यधिक परिश्रम करने के बाद भी कोई इसमें सफल नहीं हो पाया। ऐसे व्यक्तित्व को धारण करने वाले कृष्ण को गोपियाँ जो अहीर की छोरियाँ हैं वे थोड़े से छाछ के लिए नाच नचाती हैं। यह कृष्ण का सौन्दर्य है।
कृष्ण को माखन बहुत पसंद था, कृष्ण के इस कमजोरी को गोपियाँ भी जानती थी इसलिए वह माखन देने के बदले में कृष्ण को बहुत तंग करती थी। रसखान यहाँ इसी का जिक्र कर रहे हैं।वास्तव में कृष्ण और गोपियों के बीच का सम्बन्ध ही ऐसा था, कृष्ण सब कुछ जानते थे कि गोपियाँ उन्हें अत्यधिक प्रेम करती हैं फिर भी उन्हें तंग करती हैं कृष्ण भी गोपियों के इस व्यवहार का आनन्द लेते थे।
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पशु हों तौ कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन।।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तौ बसेरौ करौं मिलि कालिंदी कुल कदंब की डारन।।
व्याख्या :रसखान कृष्ण भक्ति धारा के एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। रसखान की कविता अपनी एक अलग भाव–भूमि का निर्माण करती है। कृष्ण के प्रेम रंग में डूबे हुए रसखान अपने मन की आकांक्षा को इन पंक्तियों में व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अगर अगले जन्म में मैं पुनः मनुष्य रूप में जन्म लूँ तो मेरी इच्छा है कि मैं यहीं ब्रज में जन्म लूँ, जहाँ पर ग्वाल बाल हैं जहाँ नन्द नंदन कृष्ण का जन्मस्थान है। अगर मैं पशु के रूप में जन्म लूँ तो भी यहीं गोकुल में जन्म लूँ और नन्द बाबा की कामधेनु गायों के बीच चरता रहूँ। अगर मैं पत्थर बनूँ तो वही पत्थर बनूँ जिसे स्वयं कृष्ण ने पूरे गोकुल की रक्षा के लिए अपने हाथों से ऊपर उठाया था और अगर पक्षी बनूँ तो यही ब्रज में बसेरा करूं। मेरा निवास-स्थान यहीं हो जहाँ पर कालिन्दी नदी का किनारा है और कदम्ब की डालियाँ हैं।
प्रेम में रहने वाला प्रेमी अपने प्रिय के आस–पास रहना चाहता है। वह उससे मिलना चाहता है, प्रत्यक्ष रूप से उसका दर्शन करना चाहता है लेकिन किसी कारण वश अगर ऐसा सम्भव नहीं है तो वह चाहता है कि उसके निवास स्थान पर रहा जाये और उसकी मौजूदगी का एहसास किया जाये। उन स्थानों पर विचरण किया जाये जो प्रिय को रुचिकर हैं इस प्रकार प्रेमी अपने प्रिय के निकट होने की अनुभूति करता है। इसलिए रसखान भी गोकुल में जन्म लेना चाहते हैं और कालिन्दी अर्थात यमुना नदी के किनारे कदम्ब की डालियों का स्पर्श करना चाहते हैं जिनका स्पर्श स्वयं कृष्ण ने किया था।
- दादू दयाल :
मन रे अंतकाल दिन आया,तातै यहु सब भया पराया।
श्रवनौं सुनै न नैनों सूझै,रसना कह्या न जाई।
सीस चरन कर कंपन लागै,सो दिन पहुँत्ता आई।
काले धौले वरन पलटया,तन मन का बल भागा।
जोवन गया जुरा चलि आई,तब पछितावण लागा।
आव घटे घट छीजै काया,यहु तन भया पराया।
पंचौ थाके कह्या न मानैं ,ताका मरम न पाया।
हंस बटाऊ प्राण पयाना ,समझि देषि मन माही।
दिन –दिन काल गरासै जीयरा,दादू चेतै नांही।
व्याख्या : इन पंक्तियों में दादू दयाल स्वयं को सम्बोधित करने के माध्यम से पूरे समाज को सम्बोधित करते हुए कहते है। कि हे मन अब तो अंतिम घड़ी आ गई है, अब तो सबकुछ पराया हो गया है। कानों से सुनाई नहीं देता है, नेत्रों से दिखाई नहीं देता है इतना ही नहीं जिह्वा से स्वाद का भी पता नहीं चलता है। अब तो यह समय आ गया है कि धरती पर पैर रखते ही पैरों में कम्पन्न होने लगता है अर्थात पैर कापँने लगते हैं, उनमें अब ताकत नहीं बची है। काले रंग के बाल अब सफ़ेद हो गये हैं और शरीर का ही नहीं मन का भी बल भाग गया है अर्थात तन और मन दोनों से ही मैं कमजोर हो गया हूँ। यह मनुष्य की सामान्य वृत्ति है कि जब तक उसका यौवन है वह वृद्धावस्था के बाद आने वाली परिस्थितियों पर विचार नहीं करता है। दूसरी तरफ दादू इशारा करते हुए कहते हैं अब तो यौवनावस्था चली गई है और बुढ़ापा आ गया है तब पश्चाताप हो रहा है। जिस प्रकार मिट्टी का बर्तन पानी भरने से धीरे–धीरे छीजता अर्थात समाप्त होता है उसी प्रकार यह शरीर धीरे–धीरे खत्म हो रहा है। और पराया हो रहा है। मेरी जो पाचों ज्ञानेन्द्रियाँ हैं वह अब मेरा कहना नहीं मानती हैं। वे अब थक गई हैं। कमजोर हो गई हैं। उनका मर्म समझ में नहीं आ रहा है। मेरे शरीर में से प्राण किसी राहगीर के समान चले जाने चाहते है। हे मन! तुम इस बात को देखो और समझो। दादू कहते हैं कि दिन प्रतिदिन मृत्यु को निकट देखने के बाद भी यह मन चैतन्य नहीं हो रहा है अर्थात अब भी वह दुनिया के माया मोह के बंधन में फंसा हुआ है। दादू इन पंक्तियों के माध्यम से मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं तथा वक्त रहते अपने मन को सही जगह लगाने और चैतन्य हो जाने की बात करते हैं।
ज्यूं अमली कै चित्ति अमल है,सूरे के संग्राम।
न्रिधन के चित्ति धन बसै, त्यूं दादू के मनि राम।
व्याख्या : दादू इन पंक्तियों में इस बात को स्पष्ट करते हैं की वह अपने राम को किस प्रकार से प्रेम करते हैं। वह कहतें हैं कि जिस प्रकार नशा करने वाला व्यक्ति हमेशा नशे की बात करता है, नशीले पदार्थ को पाने के लिए बेचैन रहता है। शूरवीर व्यक्ति को युद्ध के अतिरिक्त कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। वह हमेशा युद्ध के विषय में चिन्तन करता रहता है, निर्धन के हृदय में जिस प्रकार से धन बसता है उसी प्रकार से मेरे (दादू) हृदय में राम बसते हैं। यहाँ दादू अप्रस्तुत विधान के द्वारा अपनी ईश्वर भक्ति का स्वरूप स्पष्ट कर रहे हैं।
कछु षाता कछु षेलतां ,कछु सोवत दिन जाइ।
कछु विषिया रस विलसतां,दादू गए बिलाइ।
व्याख्या : अपनी इस साखी में दादू जीवन दर्शन को समझाते हैं कि परमात्मा ने हमें जो अमूल्य जीवन दिया है उस जीवन को हम किस प्रकार व्यर्थ कर रहे हैं। दादू कहते हैं कुछ समय तो हम खाने और कुछ समय खेलने में व्यतीत कर देते हैं। कुछ समय सोने में चला जाता है, शेष जो समय बचता है उसमें मनुष्य विषय वासनाओं के रस में संलिप्त रहता है। इस प्रकार मनुष्य अपने जीवन का सबसे बहुमूल्य समय गंवा देता है और प्रभु कृपा से वंचित रह जाता है, क्योंकि उस प्रभु को स्मरण करने का समय ही नहीं निकाल पाता है।
दादू यह साखी सिर्फ आम जनमानस को संबोधित करते हुए नहीं कहते हैं बल्कि वह स्वयं को भी संबोधित कर रहे हैं, और कह रहे हैं की इस प्रकार उन्होंने भी अपने जीवन को गंवा दिया है। कहीं ऐसा न हो कि यह निर्थकता का बोध आपके मन में भी आवे।
पढ़ि पढ़ि थाके पंडिता, किनहु न पाया पार।
कथि कथि थाके मुनि जनां, दादू नांई अधार।
व्याख्या: जब से इस पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व है तभी से वह परमात्मा के स्वरुप को समझने की कोशिश कर रहा है। दादू इसी तथ्य की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि उस परमात्मा के स्वरूप को जानने के लिए विद्वतजनों ने तरह-तरह के धार्मिक ग्रन्थ पढ़े। तमाम शस्त्र-शास्त्र, वेद पुराण पढ़े ताकि उस परमेश्वर के स्वरुप का ज्ञान हो जाए, लेकिन आज तक कोई भी उसका पार नहीं पा पाया अर्थात कोई भी उसके वास्तविक स्वरूप को जानने में सक्षम नहीं हो सका है। उसके विषय में ऋषि मुनियों ने बहुत ज्ञान दिया है लेकिन आज तक कोई भी उसे नहीं जान पाया है। उस परमात्मा का रहस्य उद्घाटित नहीं हो पाया।
रतन एक बहु पारषु,सब मिलि करै विचार।
गूंगे गहले बावरे,दादू बार न पार।
व्याख्या : दादू कहते हैं रत्नों की परख जौहरी करता है, लेकिन बहुत सारे जौहरी मिलकर एक ही रत्न की परख नहीं करते हैं। प्रभु रूपी रत्न एक है लेकिन उस पर विचार करने वाले अनेक हैं अर्थात सभी उसी के रूप, रंग, आकार, प्रकार का विवरण देने में लगे हुए हैं फिर भी उसे सही रूप में परिभाषित नहीं कर पा रहे हैं। उसका पार नहीं पा रहे हैं। गूंगे व्यक्ति, बहरे व्यक्ति यहाँ तक कि पागल व्यक्ति भी उनके विषय में विचार कर रहा है लेकिन वह किसी के समझ नहीं आ रहे हैं, सभी के ज्ञान से वह परे हैं। परमात्मा का सौन्दर्य और रहस्य स्पष्ट नहीं हो पाया है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- मीरा का काव्य, विश्वनाथ त्रिपाठी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- दादू दयाल , रामबक्ष, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
- रसखान पदावली, विद्यानिवास मिश्र(संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- मीरा मुक्तावली, नरोत्तम दास स्वामी (संपा.), राजस्थान ग्रंथगार, जोधपुर, राजस्थान
वेब लिंक्स
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- http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/65/dohe-raskhan.html
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- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%82_%E0%A4%A6%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- https://www.youtube.com/watch?v=reGUocNPvbk