35 पद्मावत के स्‍त्री पात्रों का चरित्रांकन

देवशंकर नवीन

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • जायसी द्वारा पद्मावती के चरित्रांकन का स्वरूप जान सकेंगे।
  • स्‍त्री पात्रों के चरित्रांकन के माध्यम से जायसी के स्‍त्री सम्बन्धी दृष्टिकोण समझ सकेंगे।
  • स्‍त्री प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण में जायसी की सफलता-विफलता की स्थिति जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

   मलि‍क मुहम्‍मद जायसी रचि‍त पद्मावत  सूफी प्रेममार्गी काव्यधारा का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है। मसनवी शैली में रचि‍त आध्यात्मिक स्वरूप की यह प्रेमगाथा एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक कथा पर आधारित है। इतिहास एवं कल्पना का चमत्‍कारि‍क समन्‍वय भावकों को सहज ही मुग्‍ध करता है। घटना-क्रम संयोजन, प्रसंग-परि‍स्‍थि‍ति‍यों के वर्णन, सूक्ष्मतर चरि‍त्र-चि‍त्रण, पात्र-पात्राओं के अन्‍तर्वाह्य द्वन्‍द्वों के वि‍शि‍ष्‍ट रूपांकन से यहाँ महाकवि‍ जायसी के वि‍लक्षण रचना-कौशल का परि‍चय मि‍लता है। इससे कृति की प्रबन्धात्‍मकता में नि‍खार और प्रभावोत्‍पादकता में उत्‍कर्ष आया है।

 

सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती और चित्तौड़ के राजा रत्‍नसेन के लौकिक प्रेम की अलौकिक व्यंजना इस कृति‍ का मूल वि‍षय है। पद्मावती के कायि‍क एवं बौद्धि‍क सौन्‍दर्य, पद्मावती-रत्‍नसेन के प्रणय-प्रसंग, रानी नागमती के विरह-वर्णन, चित्तौड़ पर अलाउद्दीन ख़िलजी के आक्रमण के समय पद्मावती की बुद्धि‍मता के साथ-साथ समर्थक घटना-प्रसंगों का अनुकूल एवं जीवन्‍त वर्णन प्रशंसनीय है। मानवीय प्रेम की आदर्श अभिव्यक्ति हेतु यह कृति‍ हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। घटना-क्रम की वि‍कास-प्रक्रि‍या में प्रसंगानुकूल वि‍वि‍ध जीवन-प्रसंगों का चि‍त्रण यहाँ अवश्‍य हुआ है, पर सचाई है कि‍ समग्रता में पद्मावत के सारे पात्र प्रेमादर्श-स्‍थापना में तत्‍पर दिखते हैं। विजयदेव नारायण साही के अनुसार पद्मावत में चि‍त्रि‍त ‘यह स्वर, यह विषाद, यह टीसती हुई तड़प एक ऐसे कवि की है, जिसे मज़ाज और हकीकत दोनो चाहिए। जो मजाज और हकीकत के सामने पड़े हुए पर्दे की तरह नहीं देखना चाहता। जो मजाज और हकीकत को युगनद्ध देखना चाहता है। जिसे बैकुण्ठी प्रेम की तलाश नहीं है, जो ऐसा प्रेम चाहता है, जो प्रेम करने वाले मनुष्य को ही बैकुण्ठी बना दे (जायसी/पृ. 102-3)।’

 

वि‍दि‍त है कि‍ सूफियों की दृष्टि में परमतत्त्व निर्गुण और निराकार है। उनकी राय में हर जीवधारी को उस परमतत्त्व में लीन रहना चाहि‍ए। परमात्‍मा और आत्‍मा, ब्रह्म और जीव का पारस्‍परि‍क सम्बन्ध सूफी सन्‍त समुद्र और तरंग, फूल और सुवास, मृग-कुण्‍डलि‍ और कस्तूरी के समान मानते हैं। वे इनका अलग अस्‍ति‍त्‍व नहीं मानते। उनका मूल मन्त्र प्रेम  है; प्रेममार्गी काव्यधारा के सूफी-दर्शन में परमात्मा प्रि‍यतमा है, जि‍नसे मि‍लन हेतु आत्मा, अर्थात साधक प्रेमी बेचैन रहते हैं। प्रेम के दो रूप हैं —इश्के मजाजी (सांसारिक प्रेम) और इश्के हकीकी (अलौकिक प्रेम)। ईश्‍वरीय प्रेम में सांसारिक प्रेम की क्रमश: परि‍णति‍ ही सूफियों की नज़र में मानव-जीवन की पूर्णता है। वैयक्‍ति‍क सुख-दुःख, लाभ-हानि, यश-अयश, स्वार्थ-संकीर्णतादि‍ से नि‍र्लि‍प्‍त हुआ सांसारिक प्रेम ईश्‍वरीय प्रेम की सिद्ध अवस्था में पहुँचता है। सूफियों के जीवन के मुख्य ध्येय ईश-साधना का मूल आधार प्रेम होता है। अपने प्रियतम परमात्मा को प्रेम से रिझाना सूफियों के जीवन का परम लक्ष्य होता है। हृदय में प्रेम उपजाने हेतु वे चित्र-दर्शन, स्वप्‍न-दर्शन और साक्षात् दर्शन की पद्धति‍ अपनाते हैं। सूफि‍यों का मानना हैं कि लौकिक प्रेम मनुष्‍य को वासना से बाँधता है, जबकि‍ अलौकिक प्रेम मन को शुद्ध करता है। सूफी कवियों ने अपने रचनात्‍मक उद्यम से यही सन्देश दिया कि हमेशा सृष्टि के रचयिता का चिन्तन करते रहना मनुष्य के जीवन का मूल उद्देश्‍य होना चाहिए।

 

महाकवि‍ जायसी ने अपनी प्रसि‍द्ध कृति‍ पद्मावत में सूफी प्रेममार्ग के इसी वि‍लक्षण दर्शन की व्‍यंजना प्रस्‍तुत की है। अनि‍न्‍द्य सुन्‍दरी पद्मावती और रत्‍नसेन की प्रणय-गाथा के सहारे उन्‍होंने ब्रह्म-जीव के इसी मि‍लन को उकेरा है। पर इस अलौकि‍क प्रेम का रूपक स्‍पष्‍ट करने में उन्‍होंने जि‍स लौकि‍कता का सहारा लि‍या है, उसमें स्‍त्री सम्‍बन्‍धी उनके दृष्‍टि‍कोण को रेखांकि‍त करते हुए उस कौशल की वि‍लक्षणता की समीक्षा करना इस पाठ का मूल लक्ष्‍य होगा।

  1. पद्मावत के प्रमुख स्‍त्री पात्र

   इतिहास और कल्पना के अद्भुत संयोजन से रचि‍त महाकाव्‍य पद्मावत हि‍न्‍दी की श्रेष्‍ठ कृति‍ है। इसमें लौकिक-अलौकिक तत्त्‍वों के अनूठा सम्‍मि‍श्रण हुआ है। सृजनात्‍मक भव्‍यता की कसौटी से इस कृति‍ के अवगाहन में अधि‍क आनन्‍द आता है। वर्णि‍त प्रसंग ऐति‍हासि‍क तथ्‍यों से भले कहीं इधर-उधर हो जाएँ, पर माना जाता है कि‍ प्रेम और सौन्‍दर्य-कथा की इस ऊँचाई तक हिन्‍दी साहित्य में कोई दूसरी कथा नहीं पहुँच सकी। वि‍लक्षण आध्यात्मिक रूपकों की शृंखला से परि‍पूर्ण इस कृति‍ में भावक चाहें तो चित्तौड़ को मानव-शरीर, राजा रत्‍नसेन को मानव-मन, सिंहल को हृदय, पद्मावती को बुद्धि, सुग्गे को गुरु, नागमती को लौकिक जीवन, राघवचेतन को शैतान, और अलाउद्दीन खि‍लजी को माया समझकर इस कथा का अवगाहन कर सकते हैं।

 

तन चि‍तउर मन राजा कीन्‍हा। हय सिंघल बुधि‍ पदमि‍नि‍ चीन्‍हा।।

गुरु सुआ जेइ पन्‍थ देखवा। बि‍नु गुरु जगत को नि‍रगुन पावा?

नागमती यह दुनि‍या धन्‍धा। बाँचा सोइ न एहि‍ चि‍त बन्‍धा।।

राघव दूत सोई सैतानू। माया अलाउदीं सुलतानू।।

 

यहाँ कवि‍ का अभीष्ट परमात्‍मा से आत्‍मा के मि‍लन की उस पद्धति‍ को रेखांकि‍त करना है, जि‍समें अनेक भव-बाधा, मोह-माया, मन की चंचलता आदि‍ को त्‍याग कर जीव शुद्ध होता है और एकाग्र मन से ब्रह्म में लीन होने की चेष्‍टा करता है। लौकि‍क प्रेम की चमत्‍कृत वर्णन-पद्धति‍ की बदौलत जीवन का गूढ़ रहस्‍य यहाँ बड़ी सरलता से स्‍पष्‍ट हो जाता है। गौरतलब है कि‍ इस पूरी पद्धति‍ में कवि‍ ने स्‍त्री-चरि‍त्र को बहुत उज्‍ज्‍वल स्‍वरूप में रखा है; पूरी रचना में उन्‍होंने अपने स्‍त्री-रूपक को कहीं लांछि‍त नहीं होने दि‍या। सौन्‍दर्य-चर्चा सुनकर प्रेमासक्‍ति‍ उपजना और प्रेम के उस आधार को प्राप्‍त करने हेतु पूरे जीवन के समस्‍त उद्यमों का अर्पण इस कृति‍ का पूरा वि‍तान है। एक ही आसक्‍ति‍ कि‍स तरह दो चरि‍त्र में वि‍भक्‍त हो जाती है, इसे स्‍पष्‍ट करने हेतु कवि‍ ने यहाँ प्रेम के दो स्‍वरूप प्रस्‍तुत कि‍ए हैं—पद्मावती से रत्‍नसेन का प्रेम और पद्मावती से अलाउद्दीन का प्रेम। दोनों ही पुरुषों को एक ही अलौकि‍क रूपवती स्‍त्री से प्रेम होता है। दोनों के हृदय में प्रमोद्भव सौन्‍दर्य-वर्णन सुनकर ही हुआ है। रत्‍नसेन ने पद्मावती का सौन्‍दर्य वर्णन हीरामन सुग्‍गा से सुना और अलाउद्दीन ने राघवचेतन से। वि‍डम्‍बना ही है कि‍ एक पंछी द्वारा कि‍या गया वर्णन कि‍सी मनुष्‍य को ज्ञानी बना देता है और एक गुनी पण्‍डि‍त द्वारा कि‍या गया वर्णन दूसरे मनुष्‍य को कामी बना देता है। वाचकों के ध्‍येय ‍से ऐसे प्रभाव की पृष्‍ठभूमि स्‍पष्‍ट होती है। असल में दोनों वाचकों की धारणाओं ने ही उनके वचन को वि‍शि‍ष्‍ट और अशि‍ष्‍ट दि‍शा दे दी। सुग्‍गे का ध्‍येय पवि‍त्र था, पद्मावती के अपूर्व सौन्‍दर्य का वर्णन करते हुए उसकी कोई नि‍र्धारि‍त कामना नहीं थी। पर पण्‍डि‍त राघवचेतन अपने दूषि‍त पाण्‍डि‍त्‍य के अहंकार से जल रहे थे, उनकी मंशा कलंकि‍त थी। वे राजा रत्‍नसेन के प्रति‍ प्रति‍शोधाग्‍नि‍ से तड़प रहे थे। सूफी प्रेममार्गी दर्शन के अनुसार अकारण ही सुग्गे को गुरु, और राघवचेतन को शैतान नहीं कहा गया। भारतीय वि‍धान में अनादि‍ काल से ज्ञान और सि‍द्धि‍ को सत्‍य, नि‍ष्‍ठा और धर्म की स्‍थापना में लि‍प्‍त रहने का नि‍देश रहा है। पर इस गाथा में अपनी सि‍द्धि‍ के अनि‍ष्‍ट उपयोग के कारण राजा रत्‍नसेन ने राघवचेतन को उचि‍त दण्‍ड सुनाया; जि‍सका परि‍मार्जन करती हुई रानी पद्मावती ने राघवचेतन को सुधर जाने का एक अवसर भी दि‍या। वे फि‍र भी नहीं सुधरे। अन्‍तत: उन्‍होंने अपनी दुष्‍ट-वृत्ति‍ को ही प्रश्रय दि‍या। यह रानी पद्मावती की दूरदर्शि‍ता का ही संकेत है कि‍ राघवचेतन के पाण्‍डि‍त्‍य से परि‍चि‍त होने के बावजूद वे उनकी दुर्जनता के प्रति‍ भी आश्‍वस्‍त थीं।

 

इस गाथा में पद्मावती-रत्‍नसेन का प्रेम अलौकि‍क है, प्रयास करने पर भी उनके प्रेम में कहीं कोई वि‍चलन नहीं आता; पार्वती-महेश खण्‍ड में रत्‍नसेन के प्रेम की परीक्षा पार्वती लेती हैं। लक्ष्‍मी-समुद्र खण्‍ड में रत्‍नसेन के प्रेम की परीक्षा लक्ष्‍मी और समुद्र लेते हैं, पर रत्‍नसेन का वह अलौकि‍क प्रेम, परमात्‍म से आत्‍म के मि‍लन का उद्यम कल्‍पना मात्र के लि‍ए भी नहीं डि‍गता। यहाँ प्रेम की पूर्णता में हर अवरोध को मि‍टा देने की जि‍द होती है, प्रेम सर्वोपरि‍ है, प्रेम का आलम्‍बन सर्वश्रेष्‍ठ है, प्रेम की सार्थकता हेतु प्राण भी नि‍रर्थक हैं। जबकि‍ अलाउद्दीन का प्रेम लौकि‍क, कामान्‍ध, और दूषि‍त है। परस्‍त्री के प्रति‍ अनुरक्‍ति‍ और भौतिक बल से उसे प्राप्‍त करने की कामना अनैति‍क है। अपने प्रेम के आधार को पाने की जि‍द दोनो में है—रत्‍नसेन में भी, अलाउद्दीन में भी। दोनो ही प्रेमी प्रेमाधार के गढ़ को घेरते हैं; रत्‍नसेन सिंहल गढ़ को, अलाउद्दीन चि‍त्तौड़ गढ़ को। अपने प्रेमाधार को पाने हेतु रत्‍नसेन में खुद को मि‍टा देने की प्रेरणा है, तो अलाउद्दीन में दूसरों को मि‍टा देने की जि‍द। कवि‍ जायसी ने कामासक्‍त-प्रेम पर अलौकि‍क-प्रेम की वि‍जय दिखाकर यहाँ स्‍पष्‍ट कर दि‍या है कि‍ कामासक्‍ति‍ हेय है, वासना है, प्रेम नहीं है; प्रेम तो अलौकि‍क है, काम-मुक्‍त है, दिव्य है। अन्‍य कई सहयोगी स्‍त्री-पात्रों के बावजूद पद्मावत में दो स्‍त्री पात्र—पद्मावती और नागमती प्रमुख हैं, जि‍न पर वि‍स्‍तार से चर्चा होनी चाहि‍ए।

 

पद्मावती

 

पद्मावत महाकाव्‍य के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि‍ नायि‍का-प्रधान इस महाकाव्‍य में पद्मावती-चरि‍त को प्रमुखता दी गई है। पूरे महाकाव्‍य में अनिन्द्य सुन्दरी पद्मावती के अद्वि‍तीय सौन्‍दर्य एवं वि‍लक्षण बुद्धि‍ का जीवन्‍त और प्रभावशाली वर्णन है। प्रतीत होता है कि‍ कवि‍ ने भारतीय मि‍थक की दो देवि‍यों—रूप की देवी रति‍, और बुद्धि‍ की देवी सरस्‍वती का समन्‍वि‍त रूप पद्मावती में आरोपि‍त कर दि‍या है। काव्य नायि‍का पद्मावती सिंहल द्वीप के राजा गन्धर्वसेन की पद्मिनी कन्या थीं। उनकी अनुपस्थिति में एक दिन उनका पालतू सुग्गा हीरामन एक बिल्ली के आक्रमण से बच निकला, पर वह एक बहेलिए के चंगुल में फँस गया, जि‍सने उसे एक ब्राह्मण को बेच दि‍या। ब्राह्मण ने आगे उसे चित्तौड़ के राजा रत्‍नसेन को बेच दिया। स्‍वरूपगर्वि‍ता रानी नागमती से पहले से ही विवाहित रत्‍नसेन उसी सुग्गे से पद्मावती के अद्भुत सौन्‍दर्य का वर्णन सुनकर उस अपूर्व सुन्‍दरी की खोज में योगी बनकर निकल पड़े। सौन्‍दर्य चर्चा मात्र से ऐसा प्रेमोद्भव अलौकि‍क प्रेम का उदाहरण है।

 

ऐसे अलौकि‍क-प्रेम के आधार अपनी काव्य-नायि‍का पद्मावती के सौन्‍दर्य-चि‍त्रण में महाकवि‍ जायसी ने उपमान-संग्रह के अपूर्व कौशल का परि‍चय दि‍या है। जि‍स मानसरोवर के वर्णन में कवि‍ पहले ही परि‍पूर्ण उत्‍कृष्‍टता भर चुके—

 

मानसरोदक देखि‍अ काहा भरा समुद अस अति अवगाहा

पानि मोती अस निरम तासूम्‍ब्रि‍बानि कपूर सुबासू

 

अर्थात मानसरोवर के सौन्‍दर्य का वर्णन क्‍या कि‍या जाए! वह तो समुद्र की तरह अगाध जलराशि‍ से भरा हुआ है। उसके जल मोती जैसे चमकीले और नि‍र्मल हैं, अमृत जैसे उस जल में कर्पूर की कान्‍ति‍ और सुवास भरे हुए हैं।‍ उस पर कवि‍ फि‍र कहते हैं कि‍ सरोवर का ऐसा सौन्‍दर्य यूँ ही नहीं है; उसके इस वि‍लक्षण सौन्‍दर्य का आधार पद्मावती के रूप-राशि का पारस-तत्त्‍व है; सौन्‍दर्य का जो भी पावन रूप आसपास है, उसका सारा श्रेय पद्मावती के पारस-रूप को है। मानसरोवर की स्‍वीकारोक्‍ति‍ में कवि‍ यह वर्णन करते हैं—

 

कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई।

भा निरमर तेन्ह पायन परसें। पावा रूप रूप कें दरसें।

 

मलै समीर बस तन आई। भा सीतल गै तपनि बुझाई।

न जनौ कौनु पौन लै आवा। पुन्‍नि‍ दसा भै पाप गँवावा।

ततखन हार बेगि‍ उति‍राना। पावा सखि‍न्‍ह चन्‍द बि‍हँसाना।

बिगसे कुमुद देखि ससि रेखा। भै तेहिं रूप जहाँ जो देखा।

पाए रूप रूप जस चहे। ससि मुख सब दरपन होई रहे।

नैन जो देखे कँवल भए निर्मर नीर सरीर।

हँसते जो देखे हँस भए दसन जोति नग हीर।

 

मानसरोवर कहता है—अहोभाग्‍य! जैसा चाहा था, मुझे तो वैसा ही फल मि‍ला। रूप की पारस-मणि‍ यहाँ तक आ गईं। उनके पाँवों के स्‍पर्श से मैं नि‍र्मल हुआ। उनके रूप-दर्शन से मुझे रूप-राशि‍ मि‍ली। उनके तन से नि‍स्‍सृत मलय-पवन जैसे सुवास से मैं सुवासि‍त हुआ। ऐसी शीतलता पाई कि‍ तन का ताप दूर हो गया। न जाने ऐसा पवन-सौरभ कौन ले आया कि‍ मैं पुण्‍यमय हो गया, मेरे सारे पाप नष्‍ट हो गए, मैं पवि‍त्र हो उठा! तत्‍क्षण जल-तल पर ऊपर से हार उतर आया, सखि‍यों ने उसे उठा लि‍या। चन्‍द्रमा की रूप-राशि‍ से सुशोभि‍त नायि‍का पद्मावती यह कौतुक देखकर बि‍हँस उठीं। उस चाँद की मुस्‍कान से नि‍कली कि‍रणों के प्रभाव में सारी कुमुदनि‍याँ, अर्थात सारी सखि‍याँ खि‍ल उठीं। रूप की रानी पद्मावती को जि‍स कि‍सी ने देखा, सब उसी रूप में आ गए। जो जैसा रूप चाहते थे, वे वैसा ही पा गए। सारे के सारे दर्पण हो गए। वे जि‍स ओर देख लें, उधर उन्‍हीं की परछाईं नजर आने लगे। हर कि‍सी में उस चन्‍द्ररूप सुन्‍दरी पद्मावती का रूप झलकने लगे। जि‍सने उनकी आँखें देखीं, कमल हो गए; जि‍सने शरीर देखा, नि‍र्मल जल हो गए। जि‍सने हँसते देखा, हँसमुख हो गए, दन्‍तपंक्‍ति‍यों की ज्‍योति‍ पाकर चमकीले हीरे के नग हो गए।

 

पद्मावती की रूप-राशि‍ का यह वर्णन स्‍पष्‍टत: उनके सौन्‍दर्य को पारस की तरह रेखांकि‍त करता है, संसार की सभी वस्तुओं को सौन्दर्य उसी सुन्दरी से प्राप्‍त है, सभी उनके सौन्दर्य-दर्शन को लालायित रहते हैं। उनके सौन्दर्य का सम्‍पूर्ण आकलन असम्भव-सा है। स्‍नान हेतु आई रानी पद्मावती के स्पर्श मात्र से मानसरोवर अह्लादित है। क्योंकि पद्मावती कोई सामान्य स्‍त्री नहीं, वे परमात्मा की प्रति‍कृति‍ हैं, उनके दर्शन हेतु सबकी आत्मा व्याकुल रहती है।

 

मानसरोवर में स्‍नान हेतु आने से पूर्व बनाई गई योजना को कवि‍ वि‍राट व्‍यंजना से भर देते हैं; जहाँ एक तरफ सौन्‍दर्य के मोहक दृश्‍य नि‍खर उठते हैं, दूसरी तरफ प्रेममार्गी सूफी साधना के सूक्ष्‍म दर्शन का अभास होता है।

 

एक दवस कौनि‍उँ तिथि आई। मानसरोदक चली अन्‍हाई

पदमावति सब सखी बुलाई। जनु फुलवारि सबै चलि आईं।

कोइ चम्‍पा कोइ कुन्‍द सहेली। को सुकेत करना रस बेलीं।

कोइ सु गुलाल सुदरसन राती। कोइ सो बकरि बकचबि‍हँसाती

कोइ सो बोलसरि पुहपावती। कोइ जाही जूही सेवती

को सोनजरद जेउँ केसरि‍। कोइ सिंगारहार नागेसरि‍।

कोइ कूजा सदबरगँवेली। कोई कदम सुरस रस बेली

चलीं सबै मालति सँग फूलवल कमोद

बेधि रहे गन गन्‍ध्रप बास परि‍लामोद

 

पहली पंक्‍ति‍ का अर्थ तो यहाँ ऐसा होगा कि‍ एक कोई ऐसी ति‍थि‍ आई। पर पाठान्‍तर में कौनि‍उँ की जगह पूनों या कहीं-कहीं पुन्‍नौ भी है। पूनों का अर्थ पूर्णि‍मा या पुण्‍य ति‍थि‍ और पुन्‍नौ का अर्थ नि‍स्‍सन्‍देह पुण्‍य ति‍थि‍ होगा। तो ऐसा हुआ कि‍ एक दि‍न कि‍सी पुण्‍य ति‍थि‍ में पद्मावती ने तय कि‍या कि‍ वे मानसरोवर में नहाने को चले। उन्‍होंने सभी सखि‍यों को बुलाया, सारी सखि‍याँ इस तरह हर्षि‍त होती आईं, जैसे कि‍सी फुलवारी में वि‍भि‍न्‍न कोटि‍ के सुन्‍दर-सुन्‍दर फूल खि‍ल उठे हों। कोई सहेली चम्पा-सी थीं, कोई कुन्द, कोई केतकी, तो कोई करना-सी; कोई रसबेलि‍-सी थीं, तो कोई लाल गुलाल (फूल) की तरह सुदर्शन लगती थीं। कोई गुल बकावलि‍ के गुच्‍छे की तरह बि‍हँस रही थी। कोई मौलि‍श्री से लदी पुष्‍पवती लग रही थी। कोई जूही और सेवती, कोई सोनजरद, कोई केसर, कोई हरसिंगार, कोई नागकेसर, कोई कूजा के फूल, कोई हजारा गेन्‍दा, कोई चमेली, कोई कदम्‍ब, कोई सुरस रसबेलि‍ लग रही थी; और ये सब मि‍लकर सर्वाधि‍क सुन्‍दर मालती फूल, अर्थात पद्मावती के संग ऐसे चल पड़ी थीं, जैसे कमल के साथ कोकावलि‍ खि‍ल उठे हों और पूरे के पूरे पुष्‍प-उद्यान चल पड़े हों। प्रतीत हो रहा था जैसे इन फूलों के सुवास से दि‍ग्‍दि‍गन्‍त सुवासि‍त हों, और भौंरों के समूह इस सौरभ से बिंध गए हों।

 

सिंहलद्वीप की प्राकृति‍क सुषमा और नारि‍यों का ऐसा सम्‍मानजनक वि‍वरण महाकवि‍ जायसी के श्रेष्‍ठ काव्‍य-कौशल और नारि‍यों के प्रति‍ सम्‍मान-भाव का द्योतक है। एक उत्कृष्ट प्रेमिका के रूप में महाकाव्‍य की नायिका रानी पद्मावती का चि‍त्रांकन तो और भी वि‍लक्षण है। पूरी कथा में पद्मावती के कई चि‍त्र प्रस्‍तुत हुए हैं। मानसरोवर तट पर अपना जूड़ा खोलकर बाल लहरा देनेवाली पद्मावती सरोवर की ओर बढ़ जाती हैं—

 

सरवर तीर पदुमि‍नीं आईं। खौपा छोरि‍ केस मोकराईं।

ससि‍मुख अंग मलैगि‍रि‍ रानी। नागन्‍ह झाँपि‍ लीन्‍हअरघानी।।

ओनए मेघ परी जग छाहाँ। ससि‍ की सरन लीन्‍ह जनु राहाँ।

छपि‍ गै दि‍नहि‍ भानु कै दासा। लै नि‍सि‍ नखत चाँद परगसा।

भूलि‍ चकोर दि‍स्‍टि‍ तहँ लावा। मेघ घटा महँ चाँद दि‍खावा।

दसन दामि‍नी कोकि‍ल भाषीं। भौंहें धनुक गगन लै राखीं।

 

उनका चन्‍द्रमा समान मुँह, मलयगि‍रि‍ समान तन और लहराते फैले बाल ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे तन-चन्‍दन की सुगन्‍धि‍ पाने हेतु उन्‍हें नागों ने ढक लि‍या हो; मेघों की घटा छा जाने से जग भर में छाँव हो गया हो। काला राहु चन्‍द्रमा की शरण में आ गया हो। सूर्य की कि‍रणें दि‍न में ही छि‍प गई हों और नक्षत्रों के साथ चन्‍द्रमा अपने प्रकाश बि‍खेर रहे हों। संशय में पड़कर चकोर उन्‍हें मेघों में छि‍पा चाँद समझ कर नि‍हार रहा हो। बि‍जली जैसी दन्‍त-पंक्‍ति‍याँ, कोयल की तान जैसी मीठी, मोहक, सुरीली ध्‍वनि‍, गगन में रखे धनुष जैसी भौंहें, खंजन की तरह क्रीड़ारत आँखें, श्‍यामाग्र पुष्‍ट स्‍तन, जैसे नारंगी पर बैठा भौंरा मधुपान कर रहा हो; और इस अनुपम दृश्‍य को देखकर मुग्‍ध सरोवर हि‍लोरें ले-लेकर उनके पाँव पखारने को लालायि‍त हों।

 

पद्मावती के इस दि‍व्‍य रूप का वर्णन कई बार आता है। चित्तौड़ के राजा रत्‍नसेन से हीरामन सुग्‍गा पद्मावती की प्रशंसा करता है।

 

सत्त कहत राजा जिउ जाऊ पै मुख असत न भाखौं काऊ

हौं सत ल निसर एहि तें। सिं दीप राज घर हतें।

पदमावति राजा कै बारी पदुम न्‍ध ससि बिधि औतारी

ससि मुख अंग मलगिरि रानी कनक सुगन्‍ध दुआदस बानी

हँहि‍ जो पदमिनि सिंघल माहाँ सुगँध सुरूप स ओहि‍ की छाहाँ

हीरामनि‍ हौं तेहि क परेवाण्‍ठा फूट करत तेहि सेवा

औ पाएउँ मानु कै भाखा। नाहिं त कहाँ मूठि भरि‍ पाँखा

 

सुग्‍गा कहता है—हे राजा, मैं सत्‍य कहता हूँ। प्राण भी चले जाएँ, पर असत्‍य नहीं कहूँगा। सत्‍य के सहारे ही घर से नि‍कला हूँ, वरना सिंहलद्वीप के राजा के घर तो मैं था ही। पद्मावती वहाँ की राजकुमारी हैं। वि‍धाता ने कमल-सुगन्‍धि‍ और चन्‍द्रमा के अंश से उनकी रचना की है। उनका मुँह चन्‍द्रमा और अंग मलयगि‍रि-सा है। वे स्‍वर्ण-सुगन्‍ध और बारह बानि‍यों से बनी हैं। सिंहलद्वीप में जि‍तनी भी पद्मि‍नि‍याँ हैं, सब उन्‍हीं के सुगन्‍ध और स्‍वरूप की छायाएँ हैं। मैं हीरामन उन्‍हीं का पंछी हूँ, उन्‍हीं की सेवा करते हुए मेरे कण्‍ठ से ध्‍वनि‍ फूटी, मनुष्‍य की भाषा बोलने लगा, वर्ना मुट्ठी भर पंख की बि‍सात ही क्‍या थी। आगे फि‍र पद्मावती का वि‍स्‍तार से नख-शि‍ख वर्णन है, जि‍से सुनकर रत्‍नसेन मूर्छि‍त हो जाते हैं, जैसे सूर्य की लहर आ गई हो—

 

सुनतहि राजा गा मुरझाई। जानहुँ लहरि सुरुज कै आई

पे घाव दुख जान न कोई। जेहि लाग जानै पै सोई

 

वह मूर्छा उस अलौकि‍क सौन्‍दर्य, दि‍व्‍य रूप का वर्णन सुनकर हृदय में उपजे प्रेम-दंश के कारण आई थी। प्रेम की पीड़ा वस्‍तुत: हर कोई नहीं जान सकता। रत्‍नसेन पद्मावती के प्रेम में इस तरह रंग गए कि‍ वे सब कुछ तजकर जोगी बन गए और उनसे मि‍लने सिंहल द्वीप चल पड़े। प्रेममार्गी सूफी दर्शन की पद्धति‍ से देखें तो पद्मावत महाकाव्‍य में पद्मावती का चि‍त्रांकन वि‍श्‍व्‍यापी महाज्‍योति‍ के रूप में हुआ है। यह महाज्‍योति‍ रत्‍नसेन के हृदय में प्रवि‍ष्‍ट होकर उसे प्रकाशि‍त कर देती है, फलस्‍वरूप रत्‍नसेन सूर्य और पद्मावती उनकी छाया चन्‍द्रमा बन जाती है। रत्‍नसेन सूर्य उष्‍ण और अशान्‍त हैं, पद्मावती चन्‍द्रमा शीतल और शान्‍त हैं; कि‍न्‍तु सूर्य को अपनी ओर आकृष्‍ट करते हैं। यह आकर्षण दोनो के वि‍वाहि‍त होकर समरस हो जाने तक बना रहता है। हठयोगि‍यों की साधना में चन्‍द्र-सूर्य, इड़ा-पिंगला, वाम-दक्षि‍ण नाड़ि‍यों पर नि‍ग्रह कर सि‍द्धि‍ प्राप्‍त करना चरम उद्देश्‍य होता है। पर लौकि‍क कथानक से इस गूढ़ रहस्‍य को समझाने में जायसी ने वि‍लक्षण प्रयोग कि‍ए हैं। लौकि‍क जीवन के सारे घात-प्रति‍घात होते रहे हैं। वसन्‍तोत्‍सव मनाने आई पद्मावती के दर्शन मात्र से ही रत्‍नसेन मूर्छि‍त हो गए।

 

जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा

जेहि मद चढा परा तेहि पाले सुधि न रही ओहि एक पियाले

जि‍स अमृत-पान की इच्‍छा लि‍ए वे व्‍यग्र थे, उसका एक भी प्‍याला पी न सके।

मेलेसि चन्‍दन मकु खिन जागा अधिकौ सूत सि‍अर तन लागा

तब चन्‍दन आखर हिय लिखे भीख लेइ तुइ जोगि‍ न सिखे

बार आइ तब गा तैं सोई कैसे भुगुति परापति होई ?

अब जौं सर अहै ससि राताइहि‍ चढि सो गगन पुनि साता

 

उनके रूप-स्‍वरूप पर पद्मावती भी मुग्‍ध थीं। उन्‍होंने रत्‍नसेन के शरीर पर यह सोचकर चन्‍दन का लेप कि‍या कि‍ कदाचि‍त इस उपचार से वे जाग जाएँ, पर इसके वि‍परीत शीतलता पाकर वे और गाढ़ी नीन्‍द में सो गए। फि‍र पद्मावती ने उनके हृदय पर चन्‍दन से लि‍ख दि‍या—हे जोगी, तुमने भीख लेने की युक्‍ति‍ नहीं सीखी। मैं तुम्‍हारे पास चलकर आई, पर तुम सो गए। तुम्‍हें भीख कैसे प्राप्‍त होगी। अब तुम सूर्य, मुझ चन्‍द्रमा पर अनुरक्‍त हो तो तुम्‍हें सप्‍तगगन पर चढ़कर मेरे पास आना होगा। इस बीच पद्मावती अपने प्रेमी के नैति‍क-नैष्‍ठि‍क समस्‍त परीक्षण के उपायों से गुजरती हैं। स्‍त्री-सुलभ शंका, उत्‍सुकता, स्‍वाभि‍मान, वि‍रह, वि‍वशता…सारा कुछ अपने वि‍धान के अनुसार होता है। समस्‍त चि‍त्रण में पद्मावती एक उज्‍ज्‍वल आदर्श के रूप में उपस्‍थि‍त होती हैं।

 

उनके चरित्र में सतत आदर्श की प्रधानता दि‍खती है। चित्तौड़ आगमन के पूर्व भी उनका चि‍त्रण परम नैष्‍ठि‍क प्रेमिका के रूप में हुआ है। रत्‍नसेन को सूली पर चढ़ाने की घोषणा सुनकर वे भी अपने प्राण देने को तैयार हो गई। सिंहल से चित्तौड़ जाते समय यात्रा के दौरान उनमें कुशल गृहिणी के सारे वैशि‍ष्‍ट्य भरने लगे। राह की समुद्र-यात्रा में जहाज डूब गया; रत्‍नसेन एवं पद्मावती, दोनों बहकर दो घाट जा लगे; सारे खजाने, हाथी-घोड़े समुद्र में बह गए। समुद्र-राज के यहाँ से वि‍दा होते समय लक्ष्मी ने पद्मावती को पान के बीड़े के साथ कुछ रत्‍न और समुद्र ने रत्‍नसेन को अमृत, हंस, शार्दूल, सोनहा पंछी का वंशज, शार्दूल शावक और पारस पत्थर…पाँच अलभ्य वस्तुएँ भेंट दीं।

 

खमि‍नि‍मावति सैं भेंटी। जो साखा उपनी सो मेंटी।

समदन दीन्‍ह पान कर बीरा। भरि कै रतन पदारथ हीरा

और पाँच नग दीन्ह बिसेखे। स्रवन जो सुन, नैन नहिं देखे

एक जो अम्‍ब्रि‍त सर हंसू। औ सोनहा पंछी कर बंसू

और दीन्ह सावक सादूरू। दीन्‍ह परस नग कंचन मूरू

तरुन तुरंगम दुऔ चढाए। जल मानुष अगुवा सँग लाए

 

इन पाँच वस्तुओं के अति‍रि‍क्‍त अन्‍य कुछ भी द्रव्य साथ नहीं होने के कारण जगन्‍नाथपुरी पहुँचने पर रत्‍नसेन मार्ग-व्यय की चिन्ता में पड़ गए।  उस वि‍पत्ति‍काल में पद्मावती ने बेचने हेतु वे रत्‍न निकाले जो उन्‍हें विदा होते समय लक्ष्मी ने छिपाकर दिए थे। यह स्वभाव पद्मावती की संचयबुद्धि और कुशल गृहिणी के भाव को रेखांकि‍त करता है। अन्‍य पण्‍डि‍तों के साथ छल करने के कारण जब राजा ने क्रोधवश पण्‍डि‍त राघवचेतन को राज-नि‍ष्‍कासन दे दि‍या, उस समय भी पद्मावती ने अपनी प्रखर दूरदर्शिता और गहन बुद्धिमत्ता का परि‍चय दि‍या। उस समय उन्‍हें राघवचेतन के निष्‍कासन का परिणाम अनि‍ष्‍टकारी दिखा—

 

यह रे बात पदमावति सुनी। चला निसरि‍ कै राघव गुनी

कै गि‍यान धनि अगम बिचारा भल न कीन्ह अस गुनी निसारा

जेइ जाखिनी पूजि ससि काढ़ी। सुरुज के ठाउँ करै पुनि ठाढ़ी।

कवि कै जीभ खडग हि‍वानी एक दिसि आग दसर दिसि पानी

जनि अजगुत काढै मुख भोरें। जस बहुते अपजस होइ थोरें।

राघौ चेतनि‍ बेगि हँकारा सुरुज गरह भा लेहु उतारा

बाँभन जहाँ दक्‍खि‍ना पावा सरग जाइ जौ हो बोलावा

 

उन्‍हें लगा कि‍ जो मनुष्‍य इतना गुनी है कि‍ यक्षि‍णी पूज कर चन्‍द्रमा सामने ला सकता है, वह अगले दि‍न सूरज को भी उपस्‍थि‍त कर सकता है। कवि‍ की जीभ तो हि‍रवानी तलवार होती है, उसकी एक ओर आग तो दूसरी ओर पानी होता है। अयश और मान-मर्दन के रोष में इनके मुँह से कोई अनि‍ष्‍ट न नि‍कल जाए—ऐसा सोचकर उन्‍होंने राघवचेतन को तत्‍काल वापस बुलवाया, यथेष्‍ट दान-मान देकर प्रसन्‍न कि‍या। इस पूरी प्रक्रि‍या में वे ऐसा अनुभव कर रही थीं कि‍ दक्षि‍णा मि‍लने कि‍ आश्‍वस्‍ति‍ मि‍ले तो ब्राह्मण स्‍वर्ग से भी वापस आ सकते हैं।

 

पद्मावती की आशंका एकदम नि‍राधार भी नहीं थी। सारी युक्‍ति‍यों के बावजूद राघवचेतन अन्‍तत: दि‍ल्‍ली के तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन खि‍लजी से जा मि‍ले और चित्तौड़ पर सुल्तान के आक्रमण एवं कपटपूर्वक रत्‍नसेन को बन्दी बनाने के माध्यम बने। रत्‍नसेन के बन्दी होकर जाने के बाद चित्तौड़ में पद्मावती अत्यन्त दु:खी रहने लगीं। उनकी वि‍लक्षण बुद्धिमत्ता का परिचय यहाँ भी मि‍लता है। वे इस तथ्‍य से परि‍चि‍त थीं कि राजा रत्‍नसेन से गोरा बादल रुष्‍ट रहते हैं। पर वे यह भी जानती थीं कि वे सच्‍चे वीर हैं और वे ही उनके वास्‍तवि‍क हितैषी हैं। अपने पति को मुक्त कराने और अलाउद्दीन खि‍लजी के प्रपंच का सही जवाब देने की रणनीति‍ तैयार करने हेतु वे अपने सामन्त गोरा बादल के घर गईं। गोरा बादल ने रत्‍नसेन को मुक्त कराने का दायि‍त्‍व स्‍वीकार कि‍या। रत्‍नसेन बेड़ियों से मुक्त होकर सुरक्षित चित्तौड़ पहुँचे। रत्‍नसेन के बन्‍दी हो जाने के दौरान कुम्भलनेर के राजा देवपाल ने दूती द्वारा पद्मावती को अपना प्रेम प्रस्ताव भेजा। उस प्रसंग में भी पद्मावती की प्रखर बौद्धि‍कता का परि‍चय मि‍लता है। यह दीगर बात है कि‍ इतने वैशि‍ष्‍ट्य के बावजूद स्‍त्री-सुलभ प्रेमगर्व और सपत्‍नी के प्रति सहज ईर्ष्‍या से उन्‍हें मुक्‍त नहीं रखा गया। इसी स्‍वाभावि‍क चारि‍त्रि‍कता के कारण नागमती के साथ विवाद सम्‍भव हुआ। नागमती के बगीचे में चहल-पहल होने और राजा के वहीं उपस्‍थि‍त होने की सूचना पाते ही पद्मावती तुरन्त वहाँ रोषवश जा पहुँचीं और विवाद छेड़ दि‍या। विवाद में उन्‍होंने राजा के प्रेम का गर्व प्रकट कि‍या। स्‍त्रीसुलभ सामान्य स्वभाव ही इस ईर्ष्‍या और प्रेमगर्व का उद्गम-स्रोत था। तय है कि‍ ऐसा न होता तो ही असहज होता। इस भाव को कि‍सी भी तरह से दुर्वृत्ति‍ नहीं कहा जा सकता।

 

अध्‍यात्‍म में प्रति‍रूप ही रूप को भाषि‍त करता है। रूप के भाषि‍त हो जाने के बाद वह रूप, प्रति‍रूप को जानने का साधन बन जाता है। यही प्रकाश का वि‍मर्श है। पद्मावत महाकाव्‍य के पूरे वि‍वरण में पद्मावती-रत्‍नसेन, सूर्य-चन्‍द्र के इसी अलौकि‍क रहस्‍य को लौकि‍क पद्धति‍ से जानने की चेष्‍टा की गई है। पद्मावती ऐसी दि‍व्‍य ज्‍योति‍ हैं, जि‍नके सान्‍नि‍ध्‍य में हर कोई श्रीहत हो जाते हैं, क्‍योंकि‍ वह ज्‍योति‍ धूप है, सब उनकी छाया है। वि‍जयदेव नारायण साही सही कहते हैं कि‍ ‘जायसी की पद्मावती कथा का एक स्‍थि‍र पात्र या एकार्थी प्रतीक नहीं है, वह ऊर्जा का एक वि‍लक्षण संपुंज है। यह ऊर्जा स्‍वयं उसे ही ऊर्जस्‍वि‍त नहीं रखती; जहाँ उसकी एक प्रत्‍यक्ष या परोक्ष चि‍तवन पहुँचती है, वहीं से ऊर्जा का स्रोत फूट पड़ता है।’

 

नागमती

 

सर्वप्रथम नागमती का ‘रूपगर्विता’ स्‍वरूप हमारे समक्ष आता है। रूपगर्व नारीसुलभ सहज स्वभाव है। सपत्‍नी के प्रति ईर्ष्‍या-भाव (सौति‍या डाह) भी ऐसी ही सहज वृत्ति‍ है। नागमती के चि‍त्रांकन में ये वृत्ति‍याँ कहीं भी असामान्य नहीं दि‍खतीं। पद्मावती के साथ नागमती कहीं सायास षड्यन्त्र रचती हुई नहीं दि‍खतीं।हाँ पति की हितकामना में कहीं-कहीं उनका ईर्ष्‍या-भाव मिश्रित रूप में दिखता है। राजा रत्‍नसेन के बन्दी होने पर नागमती विलाप करती हैं।

 

पदमिनि ठगिनी भइ कित साथा। जेहि तैं रतन परा पर हाथा।

 

इस सहज वृत्ति‍ से इतर अपने पति के प्रति‍ उनके गूढ़-गम्भीर प्रेम का परि‍चय उनकी वियोगदशा में व्यक्त होता है। अत्यन्त पारिवारिक, पतिपरायणा नागमती का सम्‍पूर्ण जीवन प्रेमज्योति से आलोकित रहा है। चित्तौड़ में जब राजा रत्‍नसेन की बाट जोहती वियोगिनी नागमती ने एक वर्ष पूरे कर लि‍ए; उनके विलाप से पशु-पक्षी तक विकल हो उठे; तब उन्‍होंने एक पक्षी के माध्‍यम से रत्‍नसेन तक अपने वि‍योग का सन्‍देश भेजा। सिंहलद्वीप में शिकार खेलते रत्‍नसेन ने उसी पक्षी से नागमती के दु:ख और चित्तौड़ की हीन दशा का वर्णन सुना और फि‍र स्वदेश की ओर प्रस्थान किया।

 

पुरुषों के बहुविवाह के कारण प्रेममार्ग की व्यावहारिक जटिलता को जायसी ने दार्शनिक ढंग से सुलझाया है। यहाँ पति-पत्‍नी के पारस्परिक प्रेम-सम्बन्धों की बात बचाकर सेव्य-सेवक भाव पर ज़ोर दिया गया है। नागमती का वियोग, उनका वि‍रह-वर्णन हिन्दी साहित्य में विप्रलम्भ शृंगार का उत्कृष्ट उदाहरण है। आन्‍तरि‍क संवेगों की तरलता से परि‍पूर्ण पूरा वि‍रह-वर्णन बारहमासे की शक्‍ल में है। हर महीने की वि‍रह-पीड़ा अलग-अलग तरह से वर्णि‍त है।

 

पिउ-बियोग अस बाउर जीऊ पपिहा निति बोलै पिउ पीऊ

अधिक काम दगधै सो रामा हरि जि‍उ लै सो गएउ पिउ नामा

बिरह बान तस लाग न डोली रकत पसीज भीजि तन चोली

सखि‍ हिय हेरि‍ हार मैन मारी हहरि‍ परान तजै अब नारी

 

पि‍य-वि‍योग में नागमती का जी बावला हो गया है। पपीहे की तरह ‘पि‍उ-पि‍उ’ की रट लगा रखी है। कामाग्‍नि‍ अत्‍यधि‍क सताने लगी है। वह सुग्‍गा उनके पि‍य को मोहि‍त कर ले गया, उनके साथ नागमती के प्राण ही ले गया। उन्‍हें वि‍रह-वाण इस तरह लग गए कि‍ अब वे हि‍ल-डुल तक नहीं सकतीं। रक्‍त के पसीजने से उनकी चोली भीग गई है। सखि‍यों ने सोच-वि‍चारकर नि‍ष्‍कर्ष नि‍काला कि‍ मदन-पीड़ा से आहत यह बाला हार गई हैं। कहीं ये काँप-काँपकर प्राण ही न त्‍याग दें। इसी तरह मास-मास की वि‍रह-वेदना सहती हुई नागमती समय काटती जाती हैं। कार्ति‍क आते-आते वि‍रह घनघोर हो जाता है—

 

कातिक सरद चन्‍द उजियारी जग सीतल हौं बिरहै जारी

चौदह करा कीन्‍ह परगासू जानहुँ जरें सब धरति अकासू

तन मन सेज करै अगिडाहू सब कहँ चन्द मोहिं होइ राहू

चहूँ खण्‍ड लागै अँधियारा जौं घर नाहिंन कन्‍त पियारा

अबहूँ निठुर आव एहिं बारा परब देवारी होइ संसारा

 

कार्ति‍क महीने के शरद-चन्‍द्र की उजि‍याली छाई हुई है। पूरा जगत शीतल है पर नागमती वि‍रह में जल रही हैं। चन्‍द्रमा ने चौदहो कलाओं से परि‍पूर्ण प्रकाश कि‍या है, प्रतीत होता है कि‍ धरती से आकाश तक सारा कुछ जल रहा है। तन और मन में सेज अग्‍नि‍दाह उत्‍पन्‍न कर रहा है। सबके लि‍ए जो चन्‍द्रमा है, वह नागमती के लि‍ए राहु है। घर में कन्‍त न हों तो चाँदनी के बावजूद चारो ओर अन्‍धकार लगता है। हे नि‍ष्‍ठुर प्रि‍य, पर्व-त्‍योहार का समय है, अब भी तो आ जाइए।

 

जेठ जरै जग बहै लुवारा उठै बवण्‍डर धि‍कै पहारा

बिरह गाजि हनि‍वंत होइ जागा लंका डाह करै तन लागा

चारिहुँ पवन झँकोरै आगी लंका डाहि पलंका लागी

दहि भइ स्‍याम नदी कालिन्‍दी बिरह कि‍ आगि कठिन अति मन्‍दी

 

जेठ महीने की तीक्ष्‍ण धूप में सारा जग जलने लगा है। लू चलने लगी है। बवण्‍डर उठने लगे हैं। पहाड़ दहकने लगे हैं। हनुमान की तरह पूरे क्रोध से तन में वि‍रह जाग उठा है और पूरे शरीर में लंका दहन करने लगा है। चारो दि‍शाओं से चलनेवाली हवा आग को प्रज्‍वलि‍त कर, लंका जलाकर अब पलंग तक को जला रही है। नागमती का तन कालि‍न्दी नदी की तरह जल कर स्‍याह हो गया है। वि‍रह की मन्‍द-मन्‍द आग बड़ी दुस्‍सह होती है।

 

रोइ गँवाएउ बारह मासा सहस सहस दुख एक एक साँसा

तिल तिल बरि‍स बरि‍स बरु जाई पहर पहर जुग जुग न सि‍राई

सो न आउ पि‍य रूप मुरारी जासों पाव सोहाग सो नारी

साँझ भए झुरि‍ झुरि पँथ हेरा कौनु सों घरी करै पिउ फेरा?

दहि कोइला भइ कन्त सनेहा तोला माँस रहा नहिं देहा

रकत न रहा बिरह तन गरा रती रती होइ नैनन्हि‍ ढरा

 

रो-रोकर नागमती ने बारह मास बि‍ताए। एक-एक साँस में हजारो दुख पाए। ति‍ल-ति‍ल समय बरस-बरस के समान बीता। एक-एक पहर युग के समान बीता। फि‍र भी कृष्‍ण रूप कन्‍त नहीं आए कि‍ नागमती अपना सुहाग पाए। साँझ होने पर वह उत्‍कण्‍ठा से बाट जोहती है कि‍ न जाने कि‍स घड़ी पि‍य आ जाएँ। कन्‍त वियोग में नागमती काली हो गई हैं। शरीर में तोला भर भी माँस नहीं रहा, वि‍रह के मारे तन के सारे रक्‍त नि‍चुड़ गए, रत्ती-रत्ती होकर नेत्रों से लुढ़क गए।

  1. पद्मावत के अन्य स्‍त्री पात्र

   पद्मावती एवं नागमती की वि‍वि‍ध वृत्ति‍यों के वि‍स्‍तृत चि‍त्रण के अलावा पूरे पद्मावत में जि‍न सखी-सहेलि‍यों की चर्चा हुई है; उनकी तो कोई पहचान नहीं बनी। अर्थात उनके नाम, वृत्ति‍ वि‍शेष, नायक-नायि‍का से उनके परि‍चयात्‍मक सरोकार आदि‍ का कोई रेखांकि‍त उल्‍लेख नहीं है। पर देवपाल की दूती, गोरा बादल की माँ, रत्‍नसेन की माँ और बादल की नववि‍वाहि‍ता पद्मावत महाकाव्‍य के ऐसे गौण स्‍त्री-पात्र हैं, जि‍नकी उपस्‍थि‍ति‍ से महाकाव्‍य के कथा-वि‍स्‍तार और प्रमुख स्‍त्री-पात्र पद्मावती एवं नागमती के चरि‍त्रांकन में प्रभूत भव्‍यता आई है, निखार आया है।

 

देवपाल की दूती

 

रत्‍नसेन के बन्दी हो जाने पर राजा देवपाल ने अपनी दूती के माध्‍यम से रानी पद्मावती को अपना प्रेम-प्रस्‍ताव भेजा। उनकी अभि‍लाषा थी कि‍ पद्मावती उनकी रानी बन जाए। देवपाल की दूती का चित्रण जायसी ने एक चतुर स्‍त्री के रूप में किया है। दूती इस सामाजि‍क सत्‍य से पूरी तरह अवगत है कि‍ स्‍त्रि‍यों को अपने मायके के लोगों से अनासक्‍त लगाव होता है; इसलिए पद्मावती को अपना परिचय देते समय, सहजता से उनका वि‍श्‍वास जीतने के नि‍मि‍त्त वह खुद को सिंहलद्वीप का बताती है। दूती को अपने मायके से आई स्‍त्री जानकार पद्मावती उसे आलिंगलबद्ध कर लेती हैं, विलाप करने लगती हैं; फि‍र उनका और सम्‍बद्ध लोगों का कुशलक्षेम भी पूछती हैं। पर जब वह उन्‍हें देवपाल की रानी बनने के लिए प्रेरित करती है, तब जाकर पद्मावती की बुद्धि‍ जाग्रत होती है और वे अपनी मान्‍यता पर डटी रहती हैं।

 

रत्‍नसेन और बादल की माता

 

रत्‍नसेन और उनके वीर सामन्‍त बादल की माता इस महाकाव्‍य में सामान्य माता के रूप में चि‍त्रि‍त हुई हैं, इनका रेखांकन उस तरह की क्षत्रिय माता के रूप में नहीं हुआ है, जैसा युद्ध लड़ने जा रहे राजपुत्रों को ति‍लक लगाती इति‍हासकलीन क्षत्राणि‍यों का होता आया है। इनके वात्सल्य-भाव की व्यंजना समान्य माता की तरह हुई है, जि‍न्‍हें अपने पुत्रों से अगाध स्‍नेह रहता है। इन दोनो माताओं में किसी प्रकार की व्यक्तिगत विशेषता नहीं दिखती। इन्‍हें वर्ग विशेष की किसी प्रवृत्ति की जानकारी नहीं है। रण में जाते हुए पुत्र को रोकने का प्रयत्‍न करती हुई बादल की माता एक सामान्य माता के रूप में सामने आती हैं।

 

बादल की नववि‍वाहि‍त पत्‍नी भी कुछ ऐसी ही हैं। आसन्‍न काल में गौना करवाकर पति‍ के साथ आई हुई बादल की पत्‍नी एक सामान्य स्‍त्री है, पति के साथ पारि‍वारि‍क जीवन-बसर उनका मूल लक्ष्‍य रहता है। युद्ध और राजकीय कर्तव्‍य उसके दायि‍त्‍वों या नैति‍कताओं के दायरे में नहीं आते। अपनी रूप-राशि‍ और सौन्दर्य के बूते वह बादल को युद्ध में जाने से रोकना चाहती है।

  1. निष्कर्ष

   दाम्पत्य प्रेम के अलावा कई मानवीय वृत्तियों—यात्रा, युद्ध, सपत्‍नी-कलह, मातृस्‍नेह, स्वामिभक्ति, वीरता, छल और सतीत्व का समावेश यहाँ विस्तार से हुआ है। पद्मावत एक शृंगार प्रधान काव्य है। इसमें जीवन की भिन्‍न-भिन्‍न परिस्थितियों और सम्‍बन्‍धों का समन्वय तो है ही; साथ ही सूफी काव्‍यधारा के मूल दर्शन का वि‍लक्षण उदाहरण भी है। इस महाकाव्‍य में स्‍त्री-पात्र का चि‍त्रांकन हिन्दी साहित्य का अनूठा उदाहरण है। स्‍त्री मनोविज्ञान के सटीक लौकि‍क चि‍त्रण के सहारे जायसी ने भारतीय नागरि‍क जीवन एवं सूफी-दर्शन के अलौकि‍क प्रसंगों का अनोखा समन्‍वय प्रस्‍तुत कि‍या है। इसीलए यहाँ चित्रित पात्र कहीं अवास्तविक नहीं लगते। अलौकि‍कता के गुणसूत्रों के बावजूद वे सब वीर क्षत्राणी, पतिपरायण, सौतिया डाह, सन्‍तान-मोह, स्‍वार्थ, पि‍प्‍सा आदि‍ सहज मानवीय गुणों से युक्‍त हैं। सफलतम चरित्रांकन में जायसी को सचमुच महारत हासिल है।

you can view video on पद्मावत के स्‍त्री पात्रों का चरित्रांकन

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  4. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद
  5. पद्मावत, वासुदेवशरण अग्रवाल(संपा.), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  6. जायसी,विजयदेवनारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद
  7. सूफी काव्य में पौराणिक सन्दर्भ, डॉ. अनिल कुमार, ग्रन्थलोक, दिल्ली
  8. प्रेमाख्यानक काव्य में भारतीय संस्कृति, डॉ. अशोक कुमार मिश्र, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली
  9. जायसी ग्रन्थावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन
  10. सूफी सन्त साहित्य का उद्भव और विकास, प्रो. जय बहादुर लाल, नवयुग ग्रन्थागार, लखनऊ
  11. पद्मावत का काव्य-वैभव, डॉ. मनमोहन गौतम, मैकमिलन पब्लिकेशन
  12. पद्मावत : नवमूल्यांकन, डॉ. राजदेव सिंह, उषा जैन, पाण्डुलिपि प्रकाशन, दिल्ली
  13. जायसी : एक नव्यबोध, अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश’, साहित्य कुटीर, लखनऊ
  14. जायसी, परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
  15. सूफी काव्य विमर्श : दाउद, कुतुबन, जायसी तथा मंझन की कृतियों का अध्ययन श्याम मनोहर पाण्डेय, विनोद पुस्तक मन्‍दिर, आगरा
  16. रहस्यवाद, राममूर्ति त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली 

    वेब लिंक्स

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