31 पद्मावत का आध्यात्मिक पक्ष
रीता दुबे and देवशंकर नवीन
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- पद्मावत में उपस्थित आध्यात्मिक चेतना का स्वरूप समझ सकेंगे।
- जायसी द्वारा पद्मावत में अंकित सूफी विचारधारा की महत्त्वपूर्ण मान्यताओं को समझ सकेंगे।
- पद्मावत में भारतीय चिन्तनधारा के प्रभाव का अवलोकन कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
हिन्दी साहित्य-जगत में पद्मावत एक सूफी प्रेमाख्यान के रूप में प्रसिद्ध है। पद्मावत का एक पक्ष जहाँ सूफी चिन्ताधारा से जुड़ता है, वहीं उस पर हठयोगियों, सहजयानी सिद्धों, नाथों का भी प्रभाव है। इन दोनों पक्षों के समुचित मूल्यांकन के बिना पद्मावत में अभिव्यक्त आध्यात्मिकता को समझा नहीं जा सकता है।
- पद्मावत में अभिव्यक्त सूफी चिन्तनधारा
सूफी दर्शन प्रेम पर आधारित दर्शन है। जिसमें परमात्मा का चित्रण प्रियतमा के रूप में किया जाता है और आत्मा का चित्रण प्रेमी के रूप में। परमात्मा प्रेम पात्र है जिसकी प्राप्ति के लिए आत्मा रूपी प्रिय व्याकुल और बेचैन रहता है तथा कठिनाइयों का सामना करता है। सूफी साधक मानते हैं कि परमात्मा अद्वितीय और निरपेक्ष है लेकिन वे यह भी कहते हैं कि दृश्यमान जगत में एक मात्र सत्य वही है। सूफी मानते हैं कि एक मात्र सत्ता उसी की है और इस पूरे जगत में उसी की रूप-राशि फ़ैली हुई है। सभी ने अपना सौन्दर्य उस परमसत्ता से ही प्राप्त किया है। उनके यह मानने का अर्थ है कि चराचर जगत और उनका रचनाकार परमात्मा एक है। उसी की छाया सभी में विद्यमान है। लेकिन इस बिन्दु पर इस्लाम का ‘एकेश्वरवाद’ सूफियों के एकेश्वरवाद से भिन्न हो जाता है। इस्लाम के लिए तो परमात्मा सृष्टि के सभी पदार्थों से भिन्न है, उसके जैसा कुछ नहीं है। वह सत्ता, गुण और क्रिया में अकेला है। सूफी जिस प्रकार आत्मा और परमात्मा के बीच व्यक्तिगत सम्बन्ध की बात करते हैं, वह इस्लाम को मान्य नहीं है। उनके अनुसार आत्मा और परमात्मा के बीच इस तरह का सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि परमात्मा मालिक है, सृष्टा है और मनुष्य को उसके आगे अपने को पूरी तरह समर्पित करना होता है।
पद्मावत में पद्मावती परमात्मा का प्रतीक है और आत्मा रूपी रत्नसेन उसे पाने के लिए व्याकुल रहता है। पद्मावती अनन्त सौन्दर्य राशि है, जिसके स्पर्श मात्र से ही लोगों के कष्ट दूर हो जाते हैं, विरह की अग्नि में वह शीतल जल के समान है।
कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इहौं लगि आई।
भा निरमर तेन्ह पायन परसें। पावा रूप रूप कें दरसें।
मलै समीर बास तन आई । भा शीतल गै तपनि बुझाई।
न जनौ कौनु पोन लै आवा। पुन्नि दसा भै पाप गँवावा।
XX XX XX
बिगसे कुमुद देखि ससि रेखा। भै तेहिं रूप जहाँ जो देखा।
पाए रूप रूप जस चहे। ससि मुख सब दरपन होइ रहे।
नैन जो देखे कँवल भए निरमर नीर सरीर।
हँसत जो देखे हंस भए दसन जोति नग हीर।
सूफी यह मानते हैं कि यह पृथ्वी दर्पण के समान है, जिसमें उस परम-सत्ता का ही रूप प्रतिबिम्बित होता है। उक्त काव्य-पंक्तियों में सूफियों की इसी विचारधारा की झलक है। जायसी आगे लिखते हैं–
जेहि दिन दसन जोति निरमई। बहुतन्ह जोति जोति ओहि भई।
रबि ससि नखत दीन्हि ओहि जोति। रतन पदारथ मानिक मोती।
जहँ-जहँ बिहँसी सुभावहि हँसी। तहँ-तँह छिटकि जोति परगसी।
सूर्य, चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र सभी उसी की ज्योति से प्रकाशवान है। रत्न मानिक और मोती हैं। उसकी चमक का कारण भी वही परमसत्ता है। जहाँ-जहाँ वह अपनी स्वाभाविक मुस्कान से हँसी, वहाँ-वहाँ उसकी दर्शन ज्योति चमकने लगी।
सूफी साधकों के अनुसार आत्मा और परमात्मा के मिलन में अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। जो इस अहं पर विजय प्राप्त करता है, वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है क्योंकि हृदय में दो के लिए स्थान नहीं है। वहाँ या तो प्रेम रह सकता है, या अहं। इसलिए परमात्मा-प्राप्ति के लिए सबसे पहले हृदय से अहं को निष्कासित करना आवश्यक है। जो पूरी तरह अपनी अहमन्यता गँवा देता है, वही परमात्मा को पा सकता है। पद्मावती कहती है–
अब जौं सूर होइ चढ़ै अकासा। जौं जिउ देइ तौ आवै पासा।
अर्थात जो अपने प्राण गँवाने के लिए तैयार है, वही मुझे प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति पहले अपने आप को खो दे तभी वह मेरी खोज में निकले। इसीलिए जायसी लिखते हैं–
तुम्ह सों कोई न जीता हारे बररुचि भोज।
पहिलें आपु जो खोवै करै तुम्हारा खोज।
सूफी काव्य, प्रेम पर आधारित है। जो व्यक्ति प्रेम रस का पान करता है, इस दुनिया में उसके लिए कुछ और शेष नहीं रह जाता। वह लाभ-हानि, दिन-रात, जीवन-मरण सभी की चिन्ता त्याग देता है। उसकी समग्र एकाग्रता अपने प्रिय पर केन्द्रित होती है। जब तक ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद नहीं मिटता, सहज मिलन सम्भव नहीं है। पर इस प्रेम का मार्ग आसान नहीं है, इसीलिए तो कबीर भी कहते हैं–
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा-परजा जिहिं रुचै, सीस देय लै जाय।
अर्थात प्रेम न तो बाड़ी में उपजता है, न ही बाजार में बिकता है कि आप बाजार जाएँ और अपनी रुचि के अनुसार खरीद लें। प्रेम-प्राप्ति का मार्ग कठिन है, उसके लिए तपस्या करनी पड़ती है, जो अपना सिर उतारकर जमीन पर रखने का साहस रखते हैं, वही इस मार्ग पर आगे बढ़े सकता है। जायसी भी इस कठिनाई की ओर इशारा करते हैं –
भलेहिं पेम है कठिन दुहेला। दुइ जग तरा पेम जेइँ खेला।
यह प्रेम का खेल अत्यन्त कठिन और दुःखदायी है। जो इस प्रेम के खेल को खेल लेता है, वह दोनों लोको में तर जाता है। इस सन्दर्भ में सूफी साधक अल-कुरशी का कहना है – “सच्चे प्रेम का मतलब है कि जिस परम प्रियतम से तुम प्रेम करते हो, उसे सब कुछ, जो तुम्हारे पास है, दे दो, जिसमें कि तुम्हारा अपना कहने को कुछ भी न रह जाय (जायसी, रामपूजन तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1973, पृ. 87)।” सूफी साधक अबू यजीद का भी कथन है कि “संसार से शत्रुता कर मैं परमात्मा के पास भागा, लेकिन उसके प्रेम ने इस प्रकार से मेरे ऊपर काबू कर लिया कि मैं स्वयं अपना दुश्मन बन गया (जायसी, रामपूजन तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1973, पृ. 87)।”
आत्मा और परमात्मा के बीच जिस वैयक्तिक सम्बन्ध की कल्पना सूफी करते हैं, उसमें परमात्मा से प्रेम सिर्फ आत्मा नहीं करती, बल्कि परमात्मा भी आत्मा से प्रेम करती है। सूफी साधक बायजीद बिस्तमी कहते हैं – “मैं समझता था कि मैं परमात्मा से प्रेम करता हूँ, लेकिन गौर करने पर मैंने देखा कि मेरे प्रेम करने से पहले ही वह मुझसे प्रेम करता है (सूफीमत साधना और साहित्य, रामपूजन तिवारी, पृ. 314)।” ऐसा इसलिए है कि दोनों ही इस प्रेम को पाकर आनन्दित होते हैं। आत्मा और परमात्मा जब तक अलग हैं, तब तक प्रेम की पीर बनी रहती है, लेकिन मिलन द्वारा यह पीर मिट जाती है और इसके बाद आत्मा के अन्दर कोई भी आकांक्षा शेष नहीं रह जाती है।
सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया पर बात करते हुए सूफी कहते हैं कि परमात्मा अव्यक्त और अकेला था। उसने अपनी ही ज्योति से एक ज्योति का निर्माण किया, यह ज्योति ‘नूरे मुहम्मद’ या ‘नूरे अहमद’ था। इसी पर मुग्ध होकर परमात्मा ने सृष्टि की रचना की। इस प्रक्रिया को व्यक्त करते हुए जायसी लिखते हैं–
सँवरौ आदि एक करतारु। जेइँ जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू।
कीन्हेसि प्रथम जोति परगासू। कीन्हेसि तेंहि पिरीति कबिलासु।
सूफी आत्मा और परमात्मा के मिलन मार्ग में गुरु की महत्त्वपूर्ण भूमिका मानते हैं। गुरु ही वह पथप्रदर्शक होता है। जो भटकी हुई आत्मा को परमात्मा की ओर उन्मुख करता है और उसे सही मार्ग दिखाता है। राजा रत्नसेन को पद्मावती के रूप सौन्दर्य की ओर उन्मुख करने का कार्य हीरामन सुआ करता है और पद्मावती तक पहुँचने में उसकी मदद भी करता है।
सूफी परमात्मा तक पहुँचने के लिए चार मंजिलों को पार करना अनिवार्य मानते हैं। जिसकी पहली मंजिल ‘शरीअत’ है, जिसमें साधक धर्मग्रन्थ में बताए कायदे, कानूनों और पाबन्दियों को मानता है। दूसरी मंजिल तरीकत की है, इसमें साधक माया मोह के बन्धन से मुक्त हो जाता है। जिसके लिए वह पवित्रता का सहारा लेता है। साधक की तीसरी मंजिल ‘मारिफत’ है। जिसमें साधक की परमात्मा से मिलन के मार्ग की सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं और उसे ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। सूफियों के अनुसार साधक की चौथी और अन्तिम मंजिल ‘हकीकत’ है। हकीकी से तात्पर्य परम-सत्य से है। इस अवस्था में साधक का परमात्मा से साक्षात्कार होता है। जायसी भी पद्मावत में परमात्मा से मिलन के मार्ग की इन्हीं चार मंजिलों की ओर संकेत करते हैं–
चारि बसेरे सों चढ़े सत् सौं चढ़े जो पार।
सूफी साधना में भावाविष्टावस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिसे सूफी ‘हाल’ कहते हैं। इसमें साधक बार–बार अपनी शक्ति का उपयोग परमात्मा का ध्यान लगाने में करता है। बार–बार उसके नाम की रट लगाए हुए रहता है। उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगती है, इस समय उसके हृदय से संसार की सारी इच्छा-आकांक्षा दूर हो जाती है। उसके हृदय में अपने प्रियतम को पाने के अतिरिक्त कोई और इच्छा शेष नहीं रह जाती है। उसका हृदय हर्ष और आनन्द से भर जाता है, यह अवस्था ‘वज्द’ की है। अगर ऐसे में साधक की साधना पूर्ण होती है तो वह ‘वुजूद’ की अवस्था में पहुँच जाता है, लेकिन अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो उसकी चेतना लौट आती है और वह सांसारिक प्राणी बन जाता है। जायसी भी रत्नसेन की इस अवस्था का जिक्र करते हैं। हीरामन जब राजा से पद्मावती के विषय में बताता है तो राजा उसे पाने के लिए उत्कट अभिलाषा से भर जाता है और वह चेतना इतनी ज्यादा हो जाती है कि वह मूर्च्छित हो जाता है–
सुनतहिं राजा गा मुरुझाई। जानहुँ लहरि सुरुज कै आई।
परा सो पेम समुँद अपारा। लहरहिं लहर होई बिसंभारा।
बिरह भँवर होइ भाँवरि देई। खिन–खिन जीव हिलोरहिं लेई।
खिनहिं निसास बूड़ि जिउ जाई। खिनहिं उठै निसैसै बौराई।
खिनहिं पीते खिन होइ मुख सेता। खिनहिं चेत खिन होइ अचेता।
इस उल्लास की अवस्था में पहुँचने के बाद भी राजा की साधना पूर्ण नहीं होती है। चेतना में आने पर उसे अत्यधिक पीड़ा होती है, वह उसी अवस्था में लौट जाना चाहता है, राजा की मानसिक अवस्था का वर्णन जायसी ने इस प्रकार किया है–
जौं भा चेत उठा बैराग। बाउर जनहुँ सोइ अस जागा ।
आवन जगत बालक जस रोवा। उठा रोइ हा ग्यान सो खोवा।
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ। इहाँ मरनपुर आएहूँ कहा।
केइँ उपकार मरन कर कीन्हा। सकति जगाइ जीउ हरि लीन्हा।
सोवत अहा जहाँ सुख सखा। कस न तहाँ सोवत बिधि राखा।
जैसे ही राजा को होश आया, उसे फिर वही बैराग उठ खड़ा हुआ, मानो कोई बावला सो कर जागा हो। जैसे संसार में आते समय एक बच्चा रोता है, राजा उसी प्रकार रो रहा रहा था। वह कहता है कि मैं तो वहाँ था, जहाँ पर्याप्त अमृत था, यहाँ मृत्यु की नगरी में क्यों आ गया? किसने प्रेमवश मुझे उस मरण से उबरने का उपकार किया है और दूसरी तरफ मेरी शक्ति तो जगा दी पर मेरा जीव हर ले गया।
- पद्मावत में अभिव्यक्त भारतीय चिन्तनधारा
पद्मावत में सूफी विचारधारा के अतिरिक्त भारतीय चिन्तनधारा का भी समावेश है। सिद्धों ने हठयोग अपनाया था। जायसी भी इन सिद्धों, नाथों के सम्पर्क में आए होंगे और वहाँ से उन्होंने उनकी पारिभाषिक शब्दावली भी अपनाई होगी। आचार्य विनयश्री के एक गीत में भी चाँद सूरज के इस प्रतीक का उपयोग किया गया है – चन्दा आदिज समरस जोए, अर्थात चन्द्रमा और सूर्य को समरस से युक्त करना चाहिए। जायसी ने पद्मावत में राजा रत्नसेन को बार–बार सूरज और पद्मावती को बार-बार चाँद कहा है–
सुरुज पुरुख चाँद तुम्ह रानी। अस बर देव मिलावा आनी।
चाँद सुरुज सिउँ होई बिआहू। बारि बिधौ सब बेधब राहू।
हठयोग में ‘ह’ का अर्थ सूर्य और ‘ठ’ का अर्थ चन्द्रमा है, इन्हीं दोनों के योग को हठयोग कहते हैं। ‘गोरक्षशतक’ में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना को क्रमशः चन्द्र, सूर्य और अग्नि कहा गया है। रत्नसेन रुपी सूर्य ऊष्ण और अशान्त है, चन्द्रमा रुपी पद्मावती शान्त और शीतल है, जो सूर्य को अपनी ओर आकृष्ट करती है। यह आकर्षण तब तक बना रहता है जब तक मिलन द्वारा दोनों एक दूसरे में समरस नहीं हो जाते हैं। गोरक्षशतक में बताया गया है कि इड़ा वाम भाग में स्थित है और पिंगला दाहिने भाग में स्थित है तथा सुषुम्ना बीच में। इड़ा स्त्री तत्त्व है और पिंगला पुरुष तत्त्व। ये दोनों काल का निर्देश करती हैं और सुषुम्ना काल का भक्षण करती है। इड़ा मातृस्वरूपा है। सूर्य से प्राणवायु तथा चन्द्र से अपान वायु भी समझा जाता है। जीव प्राण और अपान के वशीभूत है और वाम (इड़ा) तथा दक्षिण (पिंगला) मार्ग से यह ऊपर–नीचे आता जाता है। गोरक्षशतक में कहा गया है कि प्राण और अपान एक दूसरे को अपनी ओर खींचतें रहते हैं। योगी उर्ध्व और अध: की इन दोनों वायुओं का योग कराते हैं। प्राणायाम द्वारा इन दोनों के योग को हठयोग या सूर्य–चन्द्र का योग भी कहा जाता है, इन दोनों के योग से परमपद की प्राप्ति होती है (जायसी, रामपूजन तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, 1973, पृ. 88-89)। जायसी लिखते हैं–
जनु होई सुरुज आइ मन बसी।
सब घट पूरि हिएँ परगसी।
रत्नसेन सूर्य है तो पद्मावती उसकी छाया चन्द्रमा बन जाती है– अब हौं सुरुज चांद वह छाया।
जायसी के सिंहल द्वीप वर्णन खण्ड में कुण्डली योग का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
नव पँवरी बाँकी नव खण्डा। नवहु जो चढ़ै जाइ ब्रह्माण्ड।
नौ पौरी शरीर के नौ द्वार है, जिनका उल्लेख किया गया है। इन नौ के ऊपर एक दसवाँ द्वार भी है– ‘दसम दुआर गुपुत एक नाकी, अगम चढाव बाट सुठि बाँकी’। सहस्रार का अमृत इसी दसम द्वार में होकर नीचे की ओर झरता है। सबसे ऊपर ब्रह्म-रन्ध्र में आनन्दमय परमशिव विराजमान है, योगियों का लक्ष्य उस परमानन्द तक पहुँचना है। लेकिन वहाँ पहुँचने का मार्ग कठिनाइयों से भरा हुआ है, योग की क्रियाओं द्वारा वहाँ तक पहुँचा जा सकता है। इसके लिए गुरु कृपा अत्यन्त आवश्यक है। कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने में इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों का सहयोग प्रमुख होता है। योग की विभिन्न क्रियाओं द्वार इड़ा और पिंगला के मार्ग बन्द हो जाते हैं और सुषुम्ना का मार्ग खुल जाता है, जिस पर पिप्पिलिका गति से चलना होता है। वायुशक्ति इस मार्ग से ऊपर की ओर उठती है, यही कुण्डलिनी का उर्ध्वमुख होता है, इसके उर्ध्वमुख होने पर ब्रह्मद्वार खुल जाता है। इसे जगाकर शिव से समरस करना योग का लक्ष्य है। यह मार्ग अत्यन्त कठिन है–
नौ पौरी तेहि गढ़ मँझिआरा। औ तँह फिरहिं पाँच कोटवारा।
भेदी कोई जाइ ओहि घाटी। जौं लै भेद चढ़ै होई चाँटी।
गढ़ तर सुरंग कुण्ड अवगाहा। तेहि महँ पन्थ तोहि कहौं पाहा।
जस मरजिया समुंद धंसि मारै हाथ आव तब सीप।
ढूँढी लेहि ओहि सरग दुवारी औ चढु सिंघलदीप।
उस गढ़ के भीतर नौ गढ़ हैं, अर्थात शरीर में नौ इन्द्रिय-द्वार हैं, और पंच प्राण उसकी रक्षा करते हैं। गुरु से वहाँ तक पहुँचने का मार्ग और ज्ञान प्राप्त कर कोई योग्य शिष्य ही वहाँ तक पहुँच सकता है। एक-एक चक्र को वश में करते हुए उसे पिपीलिका गति अर्थात चींटी की गति से सँभल-सँभल कर आगे बढ़ना होता है। इस शरीर रुपी सुरंग में सबसे नीचे सुषुम्ना सुरंग है, जो मूलाधार चक्र रूपी अगाध कुण्ड से आरम्भ होती है, ब्रह्माण्ड में पहुँचने का मार्ग उसी में होकर जाता है। जिस प्रकार गोताखोर अपने प्राणों की बाजी लगाकर समुन्द्र से मोती ढूँढता है, उसी प्रकार साधक को भी इस योग मार्ग पर आगे बढ़ना होता है। इस मार्ग पर आगे बढ़कर ही वह उस परमात्मा से मिलने का आनन्द प्राप्त कर सकता है। जो सुषुम्ना के इस आरम्भ द्वार को प्राप्त कर लेता है, वही उर्ध्वगति से अन्तिम सिद्धि स्थान तक पहुँचता है।
सहजयानियों के यहाँ विशुद्ध ज्ञान की प्राप्ति के लिए मृत्यु आवश्यक है। उसका अर्थ यह है कि मानव मन में जो भी पाशविक प्रवृति है उसका सर्वथा लोप हो जाए, यही सहजयान की परिभाषा में सच्चा मरण है। रत्नसेन कहता है – मरै सो जान होइ तन सूना। यहाँ सूना उस सर्वशून्य की स्थिति के लिए है जिसमें साधक वज्रमय हो जाता है उस पर किसी भी लोभ लालच का असर नहीं होता है। जिसने इस स्थिति को पा लिया उसे सिद्धिगुटिका मिल जाती है। पद्मावत में रत्नसेन को यह सिद्धिगुटिका मिलती है। इसके उपरान्त साधक को जो स्थिति प्राप्त होती है वहाँ मृत्यु का स्पर्श मात्र नहीं है। जो इस प्रेमपन्थ पर आगे बढ़ता है उसे ही उस उत्तम कबिलास तक पहुँचने का सुख मिलता है।
तिन्ह पावा उत्तिम कबिलासू। जहाँ न मीचु सदा सुखबासू।
पेम पन्थ जो पहुँचै पारा। बहुरि न आइ मिलै एहि छारा।
पद्मावती रत्नसेन के साथ महासुख की अवस्था में रहना चाहती है, रत्नसेन उसे विश्वास दिलाता है कि उससे कभी अलग नहीं होगा–
जेहि उपना सो औटि मरि गएऊ। जरम निनार न कबहूँ भएऊ।
मिलि कै जुग नहि होऊँ निनारा। कहाँ बीच दुतिया देनिहारा।
अब जिउ जरम जरम तोहि पासा। किएउँ जोग आएउँ कबिलासा।
इस अवस्था तक पहुँचने के लिए अपना सर्वस्व गंवाना पड़ता है, तभी पद्मावती रत्नसेन से कहती है कि जो अपने आप को खो देता है, वही इस सर्वशून्य की स्थिति तक पहुँच सकता है, इस स्थिति को ही सहज कहा जाता है। इस स्थिति में सहजसुन्दरी योगी से कोई परदा नहीं रखती, पद्मावती भी कहती है–
तासों कवन अन्तरपट जो अस प्रीतम पीउ।
नेवछावरि गइ आप हौं, तन–मन जोबन जीउ।
साधना के जिस चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधक साधना करता है, उसे जायसी ने पद्मावती के माध्यम से निम्नलिखित पंक्तियों में बयान किया है–
अब जौं सूर अहै ससि राता। आइहि चढ़ि सो गगन पुनि साता।
अगर सूर्य रूपी रत्नसेन को चन्द्रमा रूपी पद्मावती को पाना है, तो उसे सातवें गगन पर आना होगा। यह सातवाँ गगन ही साधक का चरम लक्ष्य है, यह कोई साधारण खण्ड नहीं है। इन सात खण्डों की महिमा असाधारण है–
सात खण्ड धरौहर सातहुँ रंग नग लागु।
देखत गा कबिलासहि दिस्टि पाप सब भागु।
यह जो सात खण्ड का धरोहर है, वह कोई साधारण धरोहर नहीं है उसमें सात रंग के नग लगे हुए हैं। उस सातवें खण्ड के ऊपर जो कैलाश है वहाँ दृष्टि डालने मात्र से ही सारे पाप दूर हो जाते हैं। इस सातवें खण्ड से मतलब षटचक्रों के ऊपर स्थित सहस्रार चक्र से है। यह सहस्रार चक्र ही जायसी का सातवाँ गगन है यहाँ शिव और शक्ति का मिलन होता है। इस स्थान पर न तो चन्द्रमा का प्रकाश है न सूर्य की रौशनी, धर्म कर्म, सत्य में से किसी की भी पहुँच वहाँ तक नहीं है। सरहपाद ने लिखा है–
जहि मन पवन न संचरइ, रवि शशि नाह पवेश।
तहि बट चित बिसाम करू, सरहे कहिअ उवेश।
इसी विचार को जायसी कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं–
तहाँ न चाँद न सुरुज असूझा। चढ़ै सो जो अस अगुमन बूझा।
दस महँ एक जाइ कोई करम–धरम सत नेम।
सहस्रार दलों का पद्म है, जिसमें एक त्रिभुज है, जिसमें से शून्य प्रकाशित हो रहा है। यहीं परबिन्दु है, यही ईश्वर है। इसी के मध्य ब्रह्मा का आवास है, बिन्दु के ऊपर ही वह देवी विराजमान है जो जन्म देती है, संहार करती है और पालन करती है। इस पद्म में ही पूर्ण मिलन का अनुभव होता है और साधक माया मोह के बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर लेता है तथा आनन्द का उपभोग करता है। माया के बन्धन से मुक्त शिव और शक्ति का निवास स्थान यही पद्म है। साधक का लक्ष्य यहाँ तक पहुँचना है।
- निष्कर्ष
पद्मावत का अध्ययन करने के बाद यह ज्ञात होता है कि पद्मावत की आध्यात्मिकता को किसी एक खाँचे में फिट नहीं किया जा सकता है। पद्मावत में सूफी दर्शन के साथ–साथ जायसी ने भारतीय चिन्तनधारा का भी समावेश किया है। जहाँ एक तरफ आत्मा परमात्मा के मिलन, स्त्री में परमात्मा का नूर, चार मंजिल द्वारा सूफी दर्शन की झलक मिलती है वहीं हठयोग, सूर्य, चन्द्रमा के प्रतीक और सातवे गगन से भारतीय दर्शन का भी परिचय मिलता है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- सूफी काव्य में पौराणिक सन्दर्भ, डॉ. अनिल कुमार, ग्रन्थलोक, दिल्ली
- प्रेमाख्यानक काव्य में भारतीय संस्कृति, डॉ. अशोक कुमार मिश्र, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली
- जायसी ग्रन्थावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन
- सूफी सन्त साहित्य का उद्भव और विकास, प्रो. जय बहादुर लाल, नवयुग ग्रन्थागार, लखनऊ
- पद्मावत का काव्य-वैभव, डॉ. मनमोहन गौतम, मैकमिलन पब्लिकेशन
- पद्मावत में चरित्र परिकल्पना, वशिष्ठ तिवारी, संगम प्रकाशन, इलाहाबाद
- जायसी, परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
- भारतीय चिन्तन परम्परा, के. दामोदरन, पीपीएच, नई दिल्ली
- भक्ति आन्दोलन के सामाजिक सरोकार, सं. गोपेश्वर सिंह, भारतीय प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य, शिवकुमार मिश्र, अभिव्यक्ति प्रकाशन, इलाहाबाद
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4_/_%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%80
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