33 पद्मावत : ऐतिहासिकता और महाकाव्यत्व
रीता दुबे and देवशंकर नवीन
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- एक ऐतिहासिक ग्रन्थ के रूप में पद्मावत की उपादेयता समझ सकेंगे।
- पद्मावत की ऐतिहासिकता सम्बन्धी प्रमुख विद्वानों के मत से परिचित होंगे।
- पद्मावत की ऐतिहासिकता और काल्पनिकता का अनुपात समझ सकेंगे।
- भारतीय पद्धति पर लिखे गए महाकाव्य के रूप में पद्मावत की मूल्यवत्ता जान सकेंगे।
- प्रस्तावना
हिन्दी साहित्य के इतिहास में सूफी काव्य धारा की सर्वश्रेष्ठ रचना पद्मावत है। पद्मावत के रचनाकार मलिक मुहम्मद जायसी ने इस कृति में मुख्य रूप से राजा रत्नसेन एवं रानी पद्मावती की प्रेम कथा का वर्णन किया है। इस महाकाव्य के अन्तर्गत जायसी ने ऐतिहासिक एवं काल्पनिक दो पक्षों को दर्शाया है। रत्नसेन और पद्मावती के प्रेम का लौकिक और अलौकिक चित्रण इस महाकाव्य की विशेषता है। यही कारण है कि यह काव्य सूफी काव्य परम्परा की सर्वश्रेष्ठ कृति है।
- पद्मावत की ऐतिहासिकता
पद्मावत की व्याख्या करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पद्मावत की कथा को दो भागों में विभाजित किया है। रत्नसेन की सिंघलद्वीप यात्रा से लेकर चित्तौड़गढ़ वापस आने तक की घटना को उन्होंने कथा का पूर्वार्द्ध माना है और राजा द्वारा राघव चेतन को निकाले जाने से लेकर पद्मावती और नागमती के सती होने तक की घटना को कथा का उतरार्द्ध माना है। आचार्य शुक्ल के अनुसार कथा का पूर्वार्द्ध तो एकदम कल्पित कथा है, लेकिन उत्तरार्द्ध एक ऐतिहासिक कथा पर आधारित है। इस कथन को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने टॉड के राजस्थानी इतिहास में वर्णित प्रसंगों का उल्लेख किया है –
“विक्रम संवत 1331 में लखनसी चित्तौड़ के सिंहासन पर बैठा। वह छोटा था, इससे इसका चाचा भीमसी (भीमसिंह) ही राज्य करता था। भीमसी का विवाह सिंहल के चौहान राजा हम्मीर शंक की कन्या पद्मावती से हुआ था, जो रूप-गुणों में जगत में अद्वितीय थी। उसके रूप की ख्याति सुनकर दिल्ली के बादशाह अल्लाउद्दीन ने चित्तौड़ पर चढाई की। घोर युद्ध के उपरान्त अल्लाउद्दीन ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा कि मुझे एक बार पद्मावती का दर्शन ही हो जाए तो मैं दिल्ली लौट जाऊँ। …जब वह दर्पण में छाया देखकर लौटने लगा, तब राजा उस पर पूरा विश्वास करके गढ़ के बाहर तक उसको पहुँचाने आया…। राजा को कैद करके यह घोषणा की गई कि जब तक पद्मावती न भेज दी जाएगी, राजा नहीं छूट सकता…। अल्लाउद्दीन के पास कहलाया गया कि पद्मावती जायेगी पर रानी की मर्यादा के साथ। अल्लाउद्दीन अपनी सेना को वहाँ से हटा दे। परदे का पूरा इन्तजाम कर दे। पद्मावती के साथ बहुत-सी दासियाँ रहेंगी और दासियों के सिवा बहुत सी सखियाँ भी होंगी जो उसे केवल पहुँचाने और विदा करने जायेंगी। अन्त में सौ पालकियाँ अल्लाउद्दीन के खेमे की ओर चली हर एक पालकी में एक–एक सशस्त्र वीर राजपूत बैठा था…। पद्मावती को अपने पति से अन्तिम भेंट के लिए आधे घण्टे का समय दिया गया। राजपूत चटपट राजा को पालकी में बैठाकर चित्तौड़गढ़ की ओर चल पड़े…। इधर भीमसी के लिए तेज घोड़ा तैयार खड़ा था …गोरा बादल के नेतृत्व में राजपूत वीर खूब लड़े। अल्लाउद्दीन अपना-सा मुहँ लेकर दिल्ली लौट गया।
अल्लाउद्दीन ने संवत् 1346 में फिर चित्तौड़गढ़ पर चढाई की…। स्वयं राणा के युद्ध क्षेत्र में जाने की बारी आई तब पद्मावती ने जौहर किया। आगे उन्होंने लिखा कि “दो चार ब्यौरा को छोड़कर ठीक यही वृतान्त ‘आईने अकबरी’ में दिया हुआ है। ‘आइने अकबरी’ में भीमसी के स्थान पर रतनसी (रत्नसिंह या रत्नसेन) नाम है। रतनसी के मारे जाने का ब्यौरा भी दूसरे ढंग पर है…। इन दोनों ऐतिहासिक वृतों के साथ जायसी द्वारा वर्णित कथा का मिलान करने से कई बातों का पता चलता है। पहली बात तो यह है कि जायसी ने जो ‘रत्नसेन’ नाम दिया है, यह उनका कल्पित नहीं है…। जायसी को इतिहास की जानकारी थी, अपनी कथा को काव्योपयोगी स्वरूप देने के लिए ऐतिहासिक घटनाओं के ब्यौरों में कुछ फेर-फार करने का अधिकार कवि को बराबर रहता है। जायसी ने भी इस अधिकार का प्रयोग कई स्थानों पर किया है (जायसी ग्रन्थावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन, पृ. 34-37)।”
लेकिन बहुत सारे विद्वान शुक्ल जी के इस विचार से सहमत नहीं है। उनके अनुसार यह कथा इतिहास की नहीं है। विजयदेव नारायण साही ने टाड की राजस्थानी गाथा को इतिहास मानने से इन्कार किया है। इस सन्दर्भ में रामपूजन तिवारी लिखते हैं – “टाड के राजस्थान में इस कहानी का जो रूप मिलता है उसका आधार राजपूताने के चारणों में प्रचलित इस कहानी की परम्परा है। एक बात स्पष्ट ही समझी सकती है कि चारणों की इस कहानी में बहुत-सी बातें अवश्य आ गई होंगीं, जिनका इतिहास से अनुमोदन नहीं हो सकता। टाड द्वारा प्रस्तुत इस कहानी में भी कई ऐतिहासिक असंगतियाँ आ गई हैं (जायसी, रामपूजन तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ. 42)।”
साही लिखते हैं – “जायसी के पहले के फारसी वृत्तान्त लेखकों, जैसे अमीर खुसरो, जियाउद्दीन बरनी और इसाकी आदि ने अल्लाउद्दीन द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण और चित्तौड़ विजय का वृत्तान्त तो दिया है, परन्तु पद्मिनी का कोई उल्लेख नहीं किया है (जायसी, विजयदेव नारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडमी, पृ. 84-85)।”
साही मानते हैं कि फरिश्ता ने अवश्य उस कथा का जिक्र किया है, जिसमें पदमिनी द्वारा गोरा बादल की मदद से राजा रत्नसेन को छुड़ाकर चित्तौड़गढ़ वापस लाया जाता है। लेकिन वे फरिश्ता को जायसी के बाद का इतिहास लेखक मानते हैं। उनके अनुसार फरिश्ता को यह कथा जायसी से और सीधे लोक से मिली थी न कि किसी ऐतिहासिक साक्ष्य से। उन्होंने प्रोफेसर कानूनगो के उस विचार का समर्थन किया है, जिसमें वह कहते हैं कि गोरा बादल आदि की समस्त कथा जायसी की अपनी कल्पना की देन है। इसे इतिहास मानना भूल होगी। इसके विपरीत प्रोफेसर दशरथ शर्मा ने कुम्भलगढ़ के एक शिलालेख का उल्लेख किया है, जो सन् 1460 का है, इसमें उन्होंने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि रत्नसेन एक ऐतिहासिक पात्र है। लेकिन विजयदेव नारायण साही का मानना है कि जिस रत्नसेन का इसमें उल्लेख है वह एक कायर और भीरु है, जबकि जायसी के रत्नसेन एक साहसी वीर योद्धा हैं, जिसे संकट के समय भी अपने प्राणों का मोह नहीं है, वे उसका उत्सर्ग करने को तैयार है। इससे वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि “यद्यपि इतिहास में कोई प्रमाण नहीं मिलता, फिर भी जायसी के पूर्व कोई न कोई लोककथा चित्तौड़गढ़ की रानी और अल्लाउद्दीन के सम्बन्ध में रही होगी जिससे जायसी ने पद्मावत के उतरार्द्ध की कथा ली…। परन्तु यदि हम मान भी लें कि कोई संक्षिप्त और रूपहीन कथा जायसी के सामने उपस्थित थी और इसका उपयोग जायसी ने किया, तो भी इतना तो स्पष्ट ही है कि उत्तर कथा में भी जायसी की कल्पना की उतनी ही छूट थी, जितनी पूर्व कथा में। अत: उत्तर कथा में इतिहास का शिकंजा जायसी के लिए न नियामक था न बाधक (जायसी, विजयदेव नारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडमी, पृ. 87)।”
डॉ. माता प्रसाद गुप्त भी इस बात का समर्थन करते हैं। उन्होंने भी पद्मिनी और गोरा बादल की कथा को जायसी से पहले की लोक-कथा माना है। रामपूजन तिवारी पद्मावती को ऐतिहासिक पात्र और उसके जौहर की घटना को ऐतिहासिक घटना मानते हुए लिखते हैं कि “पद्मावत का उतरार्द्ध कुछ ऐतिहासिक पुरुषों तथा घटनाओं के आधार पर रचित है, लेकिन यह भी समझ लेना गलत होगा कि जायसी ने सम्पूर्ण रूप से इतिहास को अपने काव्य का आश्रय बनाया है। इस अंश में कुछ इतिहास, कुछ अनुश्रुतियाँ तथा कुछ कवि की कल्पना का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है (जायसी, रामपूजन तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ. 42)।”
इस विवेचन से स्पष्ट है कि जायसी ने अपने उतरार्द्ध में ऐतिहासिक वातावरण का निर्माण किया है, जिसमे युद्ध, छल-कपट है, भीषण रक्त-संहार है, दूसरे की पत्नी के लिए पूरी मानवता को दाँव पर लगाने का खेल है, लेकिन इसमें कल्पना का समावेश भी है। अल्लाउद्दीन और रत्नसेन के अतिरिक्त अन्य पात्र कल्पित है, और गोरा बादल की कथा तो पूरी तरह कल्पित है। अगर हम जायसी के काव्य पद्मावत की ऐतिहासिकता की बात करें, तो कहना होगा कि यह कथा ऐतिहासिक से अधिक काल्पनिक है, इसमें इतिहास की छौंक मात्र है।
- पद्मावत का महाकाव्यत्व
पद्मावत पर विचार करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बताया है कि पद्मावत की रचना “भारतीय चरित-काव्यों की सर्गबद्ध शैली पर न होकर फारसी की मसनवियों के ढंग पर हुई है।” प्रबन्ध-काव्य के विषय में वह लिखते हैं कि “प्रबन्ध-काव्य में मानव जीवन का पूर्ण दृश्य होता है। उसमें घटनाओं की सम्बद्ध शृंखला और स्वाभाविक क्रम के ठीक-ठीक निर्वाह के साथ हृदय को स्पष्ट करने वाले – उसमें नाना भावों की रसात्मकता अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश होना चाहिए। इतिवृत्त मात्र के निर्वाह से रसानुभव नहीं कराया जा सकता (जायसी ग्रंथावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन, पृ. 74)।” आचार्य शुक्ल के समक्ष महाकाव्य के आदर्श रूप में रामचरितमानस रहा है। उसकी कसौटी पर कसते हुए उन्होंने पद्मावत को महाकाव्य मानने से इन्कार किया है। उसे मसनवी पद्धति पर रचित काव्य माना है। उनके अनुसार पद्मावत की कथावस्तु में घटनाएँ किसी आदर्श परिणाम पर नहीं पहुँचती, इसमें मानव-जीवन और उनकी मनोदशाओं का वह चित्रण नहीं है, जो रामचरितमानस में देखने को मिलता है। पद्मावत के नायक में रूप, शील और गुण का वह समन्वय देखने को नहीं मिलता है जो राम में है। पद्मावत का आदर्श सर्वांगपूर्ण न होकर एकदेशीय है। और तो और, इसकी प्रेम-पद्धति भारतीय न होकर मसनवी की है।” जायसी ने यद्यपि इश्क के दास्तानवाली मसनवियों के स्वरूप को प्रधान रखा है, पर बीच-बीच में भारत के लोक–व्यवहार संलग्न स्वरूप का भी मेल किया है (वही, पृ. 40)।”
पद्मावत के महाकाव्यत्व पर विचार करने से पहले यह जरूरी है कि हम भारतीय साहित्य में चले आ रहे महाकाव्य सम्बन्धी विचार को जान लें। भामह ने अपने ग्रन्थ काव्यालंकार में सबसे पहले महाकाव्य की परिभाषा दी है, उन्होंने महाकाव्य की निम्नलिखित विशेषताएँ बताईं हैं–
- सर्गबद्धता
- महान चरित्र और विजयी नायक
- महत्ता
- शिष्ट नागर प्रयोग और अलंकृति
- जीवन के विविध रूपों, अवस्थाओं और घटनाओं का चित्रण
- नाटकीय गुण
- संघटित कथानक
- ऋद्धिमत्ता
दण्डी ने महाकाव्य के लक्षण बताए, फिर उनके बाद रुद्रट ने भी महाकाव्य के लक्षण बताए हैं, रुद्रट के अनुसार –
- महाकाव्य कोई लम्बी पद्यबद्ध कथा होती है।
- उसमें प्रसंगानुसार अवान्तर कथाएँ होती है, अर्थात उसमें पुराण और कथा आख्यायिका के भी तत्त्व होते हैं।
- कथा सर्गबद्ध और नाटकीय तत्त्वों से युक्त होती है ।
- उसमें जीवन की समग्रता का चित्रण होता है और किसी प्रधान घटना जैसे युद्ध या साहसिक कार्य आदि के आश्रय से अलंकृत वर्णन, प्रकृति चित्रण, विभिन्न नगरों, देशों आदि का वर्णन होता है।
- उसका नायक सर्वगुणसम्पन्न, महान, वीर, नीतिज्ञ और कुशल राजा होता है।
- उसमें प्रतिनायक और उसके कुल का भी वर्णन होता है।
- अन्त में नायक की ही विजय दिखाई जाती है ।
- कथा का कोई महान उद्देश्य होता है, चतुर्वर्ग फल की प्राप्ति होती है, साथ ही उसमें सभी रस होते हैं ।
- कथा में अलौकिक और आप्राकृतिक तत्त्व होते हैं ।
आचार्य विश्वनाथ ने अपने महाकाव्य की परिभाषा में निम्नलिखित कुछ नवीन बातों का समावेश किया है जो निम्न है –
- महाकाव्य का नायक क्षत्रिय होता है, लेकिन एक वंश या अनेक वंश के कुलीन राजा भी महाकाव्य के नायक हो सकते हैं। एक साथ कई राजा भी महाकाव्य के नायक हो सकते हैं।
- विश्वनाथ ने रसों की संख्या सीमित करते हुए तीन रसों – शृंगार, वीर और शान्त में से किसी एक का अंगी होना स्वीकार किया है।
- विश्वनाथ ने महाकाव्य के लिए कम से कम आठ सर्गों का होना आवश्यक माना है।
- विश्वनाथ के अनुसार ये सर्ग न तो अत्यधिक बड़े होने चाहिए न ही छोटे।
उक्त परिभाषाओं और अन्य विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं के आधार पर महाकाव्य की कुछ सामान्य विशेषताओं को रेखांकित किया जा सकता है –
कथानक : कथानक न तो ज्यादा बड़ा होना चाहिए न ही छोटा और कथा का सर्गों में विभाजन होना चाहिए। कथा इतिहास, पुराण, लोककथा किसी भी तरह की हो सकती है। कथा में आधिकारिक और आवन्तर कथाएँ भी होनी चाहिए।
चरित्र : चरित्र की दृष्टि से नायक को कुशल, वीर, धीरोदात्त और क्षत्रिय होना चाहिए। रुद्रट के अनुसार नायक त्रिवर्ण में से किसी भी वर्ण का हो सकता है, लेकिन दण्डी के अनुसार कोई भी धीरोदात्त व्यक्ति नायक हो सकता है।
वस्तु वर्णन और परिस्थिति वर्णन : भारतीय आचार्यों ने काव्य में वस्तु वर्णन पर बहुत जोर दिया है। काव्य में वर्णन की प्रधानता होनी चाहिए। प्रकृति वर्णन के साथ-साथ देश, काल, नगर वर्णन भी होना चाहिए।
रस और भाव व्यंजना : आचार्यों के अनुसार महाकाव्य में रस का नियोजन बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। महाकाव्य में सभी रस होने चाहिए। लेकिन शान्त, वीर और शृंगार रस में किसी एक की प्रधानता होनी चाहिए।
अलौकिक और अतिप्राकृतिक तत्त्व : रुद्रट ने इस सम्बन्ध में विचार किया है। उनके अनुसार महाकाव्य में अतिप्राकृतिक और अलौकिक तत्त्वों का होना आवश्यक माना है, लेकिन इन कार्यों को मनुष्य स्वयं नहीं कर सकता, उसे इस कार्य के लिए देवी देवताओं का सहारा लेना चाहिए।
महत्त उद्देश्य : महाकाव्य का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए।
शैली : महाकाव्य में मंगलाचरण, इष्ट देव की आराधना आदि होनी चाहिए। सज्जन-दुर्जन प्रशंसा निन्दा, नायक के वंश की प्रशंसा होनी चाहिए। छन्द के विषय में दण्डी का मानना है कि पढ़ने सुनने में रम्य छन्दों का प्रयोग होना चाहिए। प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिए। अन्त में उसे बदल कर भिन्न छन्द का प्रयोग होना चाहिए। महाकाव्य को सालंकार होना चाहिए। अलंकारों का प्रयोग इस तरह होना चाहिए कि वह घटना, पात्र-वर्णन, चरित्र-वर्णन आदि के अंग हो।
पद्मावत का कथानक : पद्मावत की कथा कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं तथा ऐतिहासिक वातावरण पर आधारित होने के बावजूद काल्पनिक लोककथा ज्यादा है। कथा न तो बहुत छोटी है, न ही बड़ी। राजा गन्धर्वसेन की पुत्री पद्मावती है, जिसके पास एक हीरामन सुआ है। पद्मावती अत्यधिक सुन्दरी है। हीरामन चित्तौड़गढ़ के राजा रत्नसेन के समक्ष पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन करता है, जिसे सुनकर वह पद्मावती को प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो उठता है और योगी वेश धारण कर उसे प्राप्त करने के लिए चल पड़ता है। अनेक कठिनाइयों को पार करता हुआ वह सिंहलगढ़ पहुँचता है, जहाँ उसे अपने प्रेम की परीक्षा देनी होती है। अन्त में राजा गन्धर्वसेन अपनी पुत्री का विवाह रत्नसेन के साथ कर देता है। दूसरी तरफ जायसी ने नागमती के विरह का वर्णन किया है। चित्तौड़गढ़ पहुँचने पर तीनों सुखपूर्वक रहने लगते हैं तभी अल्लाउद्दीन चितौड़गढ़ पर आक्रमण कर देता है और पद्मावती को प्राप्त करने के लिए छल करता है। वह रत्नसेन को बंदी बना लेता है। पद्मावती गोरा बादल के साथ मिलकर राजा को मुक्त कराती है। इसमें कई वीर सैनिक शहीद हो जाते हैं। अल्लाउद्दीन के आक्रमण की खबर सुनकर राजा उससे युद्ध करने जाता है और वीरगति को प्राप्त होता है। नागमती और पद्मावती पति की चिता के साथ सती हो जाती हैं और जब अल्लाउद्दीन दुबारा पद्मावती को प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ वापस आता है, तब उसे मुट्ठी भर राख मिलती है। इसी के साथ कथा समाप्त हो जाती है।
पद्मावत के कथानक में सम्बन्ध निर्वाह बहुत अच्छा है। एक प्रसंग से दूसरा प्रसंग जुड़ा हुआ है और कथा में आधिकारिक और प्रासंगिक कथा आपस में सम्बद्ध है। पद्मावत में प्रासंगिक कथा के रूप में राघव चेतन, गोरा बादल की कथा मुख्य कथा के फल प्राप्ति मार्ग में सहायक है।
सर्ग विभाजन के सन्दर्भ में भारतीय आचार्यों ने कोई संख्या निर्धारित नहीं की है। लेकिन आचार्य विश्वनाथ ने आठ सर्ग होने की बात कही है। लेकिन यह महाकाव्य का रूढ़ लक्षण नहीं हो सकता है क्योंकि कालिदास के कुमारसम्भव में सर्गों की संख्या सत्रह है, तो अश्वघोष के बुद्धचरित में अट्ठाईस सर्ग है, और भारवि के किरातार्जुनीय में अट्ठारह सर्ग है। तुलसीदास की विश्वप्रसिद्ध रचना रामचरितमानस में सात। पद्मावत की कथा खण्डों में विभाजित है और इसी आधार पर इसे मसनवी शैली की रचना मानी गई है, क्योंकि खण्ड विभाजन इसका महत्त्वपूर्ण लक्षण है लेकिन रामपूजन तिवारी के अनुसार “पद्मावत की अधिकांश और अच्छी प्रतियों में खण्डों का विभाग नहीं है। शुक्ल जी के संस्करण में खण्डों का विभाग किया हुआ है, तथा विभागों के शीर्षक दिए हुए हैं…। डॉ. माताप्रसाद गुप्त के संस्करण में खण्ड विभाजन और शीर्षक नहीं है। उन्हें कोई प्रमाण नहीं मिला है, इसलिए उन्होंने खण्ड विभाग नहीं किया है (जायसी, रामपूजन तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ. 35)”। पद्मावत का सम्पादन करते हुए वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं, “निम्नलिखित विषय-सूची में सुविधा के लिए खण्ड की संख्या और शीर्षक एवं दोहों की संख्या दोनों का निर्देश किया गया है”। (पद्मावत, वासुदेवशरण अग्रवाल, लोकभारती प्रकाशन, पृ. 57) इनसे एक बात स्पष्ट है कि जायसी ने अपनी रचना में कोई खण्ड विभाजन नहीं किया था। इसकी सम्भावना है कि यह कथा सर्गों में विभाजित रही हो और फारसी में लिखित होने के कारण इसे खण्ड विभाजन समझ लिया गया हो। परन्तु यह मात्र एक सम्भावना है।
चरित्र : चरित्र की दृष्टि से नायक को कुशल, वीर, धीरोदात्त और क्षत्रिय होना चाहिए। इस काव्य का नायक राजा रत्नसेन है जो क्षत्रिय कुल के वीर नायक है। वे एक प्रेमी है और अपने प्रेम-मार्ग में आने वाली किसी भी कठिनाई का सामना करने को तैयार हैं। इसके साथ ही, जब उनके राज्य पर आक्रमण होता है, वे साहस के साथ युद्ध भूमि में डटे रहते हैं। अपने प्राणों की उन्हें परवाह नहीं है। उनमें साहस, नम्रता, कोमलता त्याग आदि गुण भी विद्यमान हैं।
वस्तु वर्णन और परिस्थिति वर्णन : वस्तु वर्णन और परिस्थितियों का वर्णन जायसी काव्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता रही है। जायसी इस दृष्टि से सफल रचनाकार थे। उन्होंने सिंहल के नगर, हाट, बाजार, पशु, पक्षी, फल, फूल, सरोवर, तालाब आदि का विस्तार से वर्णन किया है। अमराई की सघनता और शीतलता का जायसी ने सुन्दर वर्णन किया है –
घन अमराऊ लाग चहुँ पासा। उठा भूमि हूँत लागि अकासा।
तरिवर सबै मलयगिरि लाई। भई जग छाहँ रैनी होइ आई।
मलय समीर सोहावनि छाहाँ। जेठ जाड़ लागै तेहि माहाँ।
ओहि छाह रैनि होई आवै। हरियर सबै अकास देखावै।
पथिक जो पहुँचे सहिके घामू। दुःख बिसरै,सुख होइ बिसरामू।
या फिर ,
पानि भरै आवहिं पनिहारी। रूप सुरूप पद्मिनी नारी।
रस और भाव व्यंजना : आचार्यों के अनुसार महाकाव्य में रस का नियोजन बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। महाकाव्य में सभी रस होने चाहिए। लेकिन शान्त, वीर और शृंगार रस में किसी एक की प्रधानता होनी चाहिए। “जायसी की भावव्यंजना के सम्बन्ध में यह समझ रखना चाहिए कि उन्होंने जबरदस्ती विभाव, अनुभाव और संचारी ठूँसकर पूर्ण रस की रस्म अदा करने की कोशिश नहीं की है। भाव का उत्कर्ष जितने से सध गया है, उतने से ही उन्होंने प्रयोजन रखा है (जायसी, रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 93)।” पद्मावत में वीर और शृंगार रस मुख्य है लेकिन प्रधानता शृंगार रस की है। शृंगार के दोनों पक्षों, संयोग और वियोग दोनों का ही वर्णन मिलता है। नागमती का वियोग वर्णन तो प्रसिद्ध है। रतिभाव के अंतर्गत कई मानसिक दशाओं का वर्णन जायसी के काव्य की प्रमुख विशेषता है। रत्नसेन से विवाह हो जाने के बाद पद्मावती अपनी कामदशा का वर्णन सीधे-साधे शब्दों में करती है –
कौन मोहनी दहुँ हुती तोहि। जो तोहि बिथा सो उपनी मोही।
बिनु जल मीन तलफ जस जीऊ। चातक भइउं कहत पिउ पीऊ।
जरिउँ बिरह जस दीपक बाती। पथ जोहत भई सीप सेवाती।
भइउं बिरह दहि कोइल कारी। डारि–डारि जिमि कूकी पुकारी।
कौन सो दिन जब पिउ मिलै, यह मन राता जासु ।
वह दुह देखैं मोर सब, हौं दुःख देखौं तासु।
सीधे शब्दों में एक नव–विवाहिता स्त्री की अभिलाषाओं का स्पष्ट वर्णन देखने को मिलता है।
अलौकिक और अतिप्राकृतिक तत्त्व : इस सम्बन्ध में रुद्रट ने विचार किया है, उन्होंने महाकाव्य में अतिप्राकृतिक और अलौकिक तत्त्वों का होना आवश्यक माना है। शिव और पार्वती का स्वयं आकर रत्नसेन की सहायता करना। बोहित प्रसंग और लक्ष्मी समुद्र प्रसंग में अलौकिक तत्त्वों का वर्णन है।
महत्त उद्देश्य : महाकाव्य का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए। यह काव्य के शान्त रस में होता है। तत्कालीन समय में युद्ध छल, कपट, लूट मार मची हुई थी। समाज में दो भिन्न संस्कृतियों की टकराहट जोरों पर थी। इसमें सभी अपने साम्राज्य विस्तार में डूबे हुए थे, आम जनता और स्त्रियों की हालत खराब थी। जायसी ने इस विस्तार नीति की व्यर्थताबोध का अहसास किया –
छार उठाइ लीन्हि एक मूठीं। दीन्हि उड़ाय पिरथिमी झूठी।
इसलिए रत्नसेन और पद्मावती के प्रेम के माध्यम से प्रेम की संकल्पना प्रस्तुत की। कहा –
मुहमद यहि कबि जोरि सुनावा। सुना सो पेम पीर गा पावा।
जोरि लाइ रकत कै लेई। गाढ़ी प्रीति नैन जल भेई।
औ मन जानि कबित अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा।
शैली : महाकाव्य में मंगलाचरण, इष्ट देव की आराधना आदि होनी चाहिए। छन्द के विषय में दण्डी का मानना है कि पढ़ने सुनने में रम्य छन्दों का प्रयोग होना चाहिए। प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिए। अन्त में उसे बदल कर भिन्न छन्द का प्रयोग होना चाहिए। जायसी ने अपने ग्रन्थ का आरम्भ मंगलाचरण से किया है और शाहेवाक्त, मित्र गुरु, मुहम्मद सभी की प्रार्थना की है। जायसी ने सात चौपाइयों के बाद दोहे का क्रम रखा है यह पूरे काव्य में बना हुआ है।
5. निष्कर्ष
इस विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि जायसी का पद्मावत भारतीय पद्धति पर लिखा गया एक महाकाव्य है, कुछेक बिन्दुओं को छोड़कर (सर्ग के अन्त में छन्द का बदलना, या फिर सर्ग विभाजन) यह महाकाव्य की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है। अतः पद्मावत को भी महाकाव्य माना जा सकता है .
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- सूफी काव्य में पौराणिक सन्दर्भ, डॉ. अनिल कुमार, ग्रन्थलोक, नई दिल्ली
- जायसी ग्रन्थावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- सूफी सन्त साहित्य का उद्भव और विकास, प्रो. जय बहादुर लाल, नवयुग ग्रन्थागार, लखनऊ
- पद्मावत : नवमूल्यांकन, डॉ. राघदेव सिंह, उषा जैन, पाण्डुलिपि प्रकाशन, नई दिल्ली
- जायसी : एक नव्यबोध, अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश’, साहित्य कुटीर, लखनऊ
- पद्मावत में चरित्र परिकल्पना, वशिष्ठ तिवारी, संगम प्रकाशन, इलाहाबाद
- जायसी, परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
- भारतीय चिन्तन परम्परा, के. दामोदरन, पीपीएच, नई दिल्ली
- भक्ति आन्दोलन के सामाजिक सरोकार, सं. गोपेश्वर सिंह, भारतीय प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
- http://www.kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4_/_%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%80
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