36 निर्धारित पाठ की व्याख्या :पद्मावत (वासुदेवशरण अग्रवाल)

रीता दुबे and रामबक्ष जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • पद्मावत के कुछ पदों का अर्थ जान सकेंगे।
  • पद्मावत के कुछ महत्त्वपूर्ण पदों के माध्यम से जायसी की काव्य-कला जान सकेंगे।
  • पद्मावत की सौन्दर्य चेतना समझ पाएँगे।

    2. प्रस्तावना

 

मलिक मुहम्मद जायसी कृत पद्मावत सन् 1540 में अवधी भाषा में लिखा गया। यह हिन्दी साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य है, जिसमें जीवन के विविध रूपों की छाया है। पद्मावत में निहित जीवन-दर्शन को जानने के लिए उसके पाठ में छिपे अर्थ को जानना अति आवश्यक है। यहाँ पद्मावत के सभी कड़वकों की व्याख्या हो, यह सम्भव नहीं, इसलिए इसके कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों की व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है, जो पद्मावत को समझने के लिए उपयोगी होगी।

3.पद्मावत के कुछ चुने हुए प्रसंग और उनकी व्याख्या

कहा मानसर चढ़ा सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई।

भा निरमर तेन्ह पायन परसें। पावा रूप रूप कें दरसें।

मलै समीर बास तन आई। भा सीतल गै तपनि बुझाई।

न जनों  कौनु पौन लै आया। पुन्नि दसा भै पाप गँवावा।

ततखन हार बेगि उतिराना। पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना

बिगसे कुमुद देखि ससि रेखा। भै तेहिं रूप जहाँ जो देखा।

पाए रूप रूप जस चहे। ससि मुख सब दरपन होइ रहे।

नैन जो देखे कँवल भए निरमर नीर सरीर।

हँसत जो देखे हंस भए दसन जोति नग हीर।

      

व्याख्या : प्रस्तुत पंक्तियों में पद्मावती मानसरोवर में स्‍नान के लिए गई, तो उसके स्पर्श को पाकर मानसरोवर कह उठता है। मानसरोवर ने जो इच्छा की थी, वह आज पूरी हो गई हो। रूप की पारस पद्मावती मेरे समीप तक आ गई। उसके चरण छूकर मैं निर्मल हो गया और उसके रूप का दर्शन करके मैंने भी अपना रूप पाया है। उसके शरीर से मलय वायु की सुगन्ध मुझे मिली, जिससे मैं शीतल हुआ। मेरी जलन समाप्‍त हुई और मैं सुगन्धित हुआ। न जाने वह कौन है जो इतनी सुगन्धित और शीतल पवन लेकर आया है, जिससे मेरी जलन समाप्‍त हो गयी और जिसके स्पर्श मात्र से मेरे सारे पाप नष्ट हो गए और मैं पवित्र हो गया। उसी क्षण जो हार स्‍नान करते वक्त सरोवर में खो गया था, वह ऊपर आ गया। उसे देखकर पद्मावती विहसित होती है। पद्मावती का विहसित होना कोई सामान्य विहसित होना नहीं, ऐसा लग रहा है कि चन्द्रमा की किरणे फैल रही हैं। चन्द्रमा की उन किरणों को देखकर कुमुदिनी रुपी सखियाँ भी विकसित हुई। जहाँ जिसने भी उसे देखा, उसी के रूप का हो गया। जिसको जैसा रूप चाहिए था, सभी को वैसा ही रूप मिला। शशि मुख रूपी पद्मावती के लिए सब पदार्थ दर्पण बन गये (वह जिसकी ओर देखती थी, उसी में अपना रूप डाल देती थी)।

 

उसके नेत्र को जिसने भी देखा वह कमल बन गया। उसकी शरीर की छाया से जल निर्मल हो गया है। इन हँसों को रूप भी पद्मावती से ही मिला है, क्योंकि उसे हँसते हुए जिसने देखा, वह हंस हो गया। उसकी दन्त पंक्तियों की ज्योति से ही हीरा नग बने हैं। इन सभी ने पद्मावती के रूप को धारण किया है।

 

सूफीमत में यह मान्यता है कि यह पूरी प्रकृति उस परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। सम्पूर्ण सृष्टि उसके प्रकाश से प्रकाशित है। कुछ सूफियों के अनुसार जिस प्रकार सूर्य की रश्मियाँ सूर्य से निकलती है, फिर भी सूर्य ज्यों का त्यों बना रहता है, परमात्मा और संसार का सम्बन्ध भी इसी प्रकार का है। बहुत सारे सूफी ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि यह सृष्टि दर्पण के समान है, जिसमें परमात्मा के गुण प्रतिबिम्बित होते हैं। यहाँ पद्मावती रुपी परमात्मा के प्रतिबिम्ब से पूरी प्रकृति प्रकाशित है, सभी को उसी का रूप मिला हुआ है। कमल, हँस, चन्द्रमा नक्षत्र सभी उसके रूप से रूपवान है। इनमे जो रूप दिखाई दे रहा है वह उसी परमात्मा रूपी पद्मावती का अंश है। इस पद में सूफियों की यह मान्यता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।

 

महत्त्वपूर्ण शब्दों के  अर्थ

तेन्ह – उसके

ततखन – उसी क्षण

बिगसे – विकसित होना, खिलना

उतिराना – ऊपर उठकर आना

बेगि – तेजी से

 

नागमती चितउर पन्थ हेरा। पिउ जो गए फिरि कीन्ह न फेरा।

नागरि नारि काहूँ बस परा। तेइँ बिमोहि मोसौं चितु हरा।

सुवा काल होइ लै गा पीऊ। पिउ नहिं लेत लेत बरु जीऊ।

भएउ नरायन बावन करा। राज करत बलि राजा छरा।

करन बान  लीन्हेउ कै छन्दू। भारथ भएउ झिलमिल आनन्दू।

मानत भोग गोपीचन्द भोगी। लै उपसवा जलनधर जोगी।

लै कान्हहि भा अकरूर अलोपी। कठिन बिछोउ जिअै किमि गोपी

सारस जोरि किमि हरी मारि गएउ किन खग्गि।

झुरि झुरि पाँजारि धनि भई बिरह कै लागी अग्गि।

 

व्याख्या : नागमती का पति रतनसेन पद्मावती की खोज में घर से बाहर निकल गया है। उधर नागमती चित्तौड़ में उसके वापस आने की प्रतीक्षा कर रही है। परन्तु उसका विरह दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है, क्योंकि रतनसेन अभी तक वापस लौट कर नहीं आया है। नागमती कहती है कि मेरे प्रियतम जो गए, वह वापस लौट कर नहीं आए। लगता है कि वह किसी नागरी, अर्थात नगर की नारी के फेर में पड़ गए हैं। उस नागर स्‍त्री ने मेरे पति का मन मेरी तरफ से मोड़ कर अपनी तरफ कर लिया है, अर्थात मेरे पति उसके मोहपाश में फँस गए हैं। नागमती कहती है कि वह सुग्गा मेरे लिए काल बनकर आया था और मेरे प्रिय को ले गया। हाय! वह मेरे प्राण ले जाता। मेरे प्रिय को क्यों ले गये। प्राण शरीर में है, लेकिन मेरे जीवन के आधार मेरे प्रिय को वह लेकर चला गया, जिसके कारण एक–एक पल कष्टदायक हो गया है। जिस प्रकार नारायण ने वामन का रूप धारण कर राजा बालि के साथ छल किया, ऐसा ही छल करके कर्ण से उसका कवच और कुण्डल ले लिया (कर्ण को यह वरदान प्राप्‍त था कि जब तक उसके पास कवच और कुण्डल है, उसे कोई भी परास्त नहीं कर सकता है। कर्ण दानवीर के रूप में प्रसिद्ध था, उसके पास जो भी दान माँगने आता था, कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था। इसीलिए युद्ध से पूर्व उसे परास्त करने के लिए दान स्वरूप उसका कवच और कुण्डल प्राप्‍त किया गया था।); जिससे अर्जुन ने आनन्द प्राप्‍त किया। भोगी गोपीचन्द भोगों में फँसे हुए थे। जोगी जालन्धर नाथ उन्हें लेकर चले गए। कृष्ण को लेकर अक्रूर चले गये थे। कृष्ण के बिछोह में गोपियाँ कैसे जीवित रहेगी? कृष्ण के वियोग में गोपियों की जो दशा हुई थी, वही दशा अब मेरी हो रही है।

 

नागमती आगे कहती है कि सारस की जोड़ी में से वह सुग्गा एक को हर कर क्यों ले गया? हरना ही था तो वह दूसरी मादा सारस को मार कर क्यों नहीं गया, उसे इतना कष्ट तो नहीं होता। विरह की ऐसी आग लगी है कि बाला सूख–सूख कर कंकाल हो रही है।

 

महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ :

बिमोहि – मोहित करना

अलोपी – गायब

किमि – कैसे

खग्गि – सारस की जोड़ी में मादा सारस

 

चढ़ा असाढ़ गँगन घन गाजा। साजा बिरह दुन्द दल बाजा।

धूम स्याम धौरे घन धाए। सेत धुजा बगु पाँति देखाए।

खरग बीज चमकै चहुँ ओरा। बुँद बान बरिसै घन घोरा।

अद्रा लाग बीज भुइँ लेई। मोहि पिय बिनु को आदर देई।

ओनै घटा आई चहुँ फेरी। कन्त उबारु मदन हौं घेरी।

दादुर मोर कोकिला पीऊ। करहिं बेझ घट रहै न जीऊ।

पुख नक्षत्र सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाँह मन्दिर को छावा।

जिन्ह घर कन्ता ते सुखी तिन्ह गारौ तिन्ह गर्ब।

कुन्त पियारा बाहिरे हम सुख भूला सर्ब।

 

व्याख्या : नागमती के विरह को जायसी ने बारह मासा के माध्यम से प्रस्तुत किया है। नागमती कहती है कि आषाढ़ का महीना आ गया है, बादल आकाश में गरजने लगे हैं। विरह ने युद्ध की तैयारी कर ली है। उसकी सेना आ पहुँची हैं अर्थात विरह की अग्‍न‍ि अब और भी ज्यादा दाहक हो रही है। आकाश में छाए बादल की हम तरह–तरह की आकृतियों की कल्पना करते हैं। जैसे युद्ध स्थल में सैनिक आक्रमण करने के लिए एकत्र होते हैं उसी प्रकार धुमैले, काले, सफ़ेद और साँवले रंग के बादल सैनिकों की भाँति गगन में दौड़ने लगे हैं। सेना जब आगे बढ़ती है तो उसकी ध्वजा भी आगे आगे लहराती चलती है जो सेना के आने की सूचना देती  है उसी तरह से बगुलों की पंक्तियाँ श्‍वेत ध्वजा सी दिखाई दे रही है। बिजली तलवार की भाँति आकाश में चमकने लगी है। आकाश से बूँद रुपी बाणों की वर्षा होने लगी है। आद्रा नक्षत्र लगते ही बिजली चमककर भूमि छूने लगी है। सभी को उनके प्रिय आदर और सम्मान दे रहे हैं। मेरे प्रिय यहाँ नहीं है। उनके बिना मुझे कौन आदर देगा?  चारों ओर घटा घिर आई है ऐसे में विरही स्‍त्री का मन अपने पति का साहचर्य पाने के लिए अति व्याकुल हो उठता है। नागमती कहती है कि हे कन्त! मुझे मदन (काम देवता) ने घेर लिया है, आओ और आकर मेरी इससे रक्षा करो। चारों ओर दादुर, कोयल, मोर बोल रहें हैं, अब घट में प्राण नहीं रह पाएँगे क्योंकि इनकी वाणी मेरे विरह को और भी ज्यादा बढ़ा रही है। पुष्य नक्षत्र आ गया है। ऐसे में घर की वर्षा से रक्षा करने के लिए उसे छाना जरुरी है। जिसका पति घर पर है, वह अपने घर की रक्षा स्वयं कर रहा है, लेकिन मेरे प्रिय यहाँ नहीं है। उनके बिना मेरे घर का छाजन कौन करेगा? जायसी की विशेषता इस बात में है कि यहाँ पर उन्होंने नागमती का चित्रण एक रानी के रूप में न कर सामान्य कृषक स्‍त्री के रूप किया है।

 

नागमती कहती है कि जिनके पति घर पर हैं, वे स्‍त्रि‍याँ सुखी और सौभाग्यशाली हैं। उन्हें गौरव और गर्व है। परन्तु मेरा प्यारा कन्त बाहर है, इसलिए मैं सारे सुख भूल गई हूँ।

 

महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ

ओनै – झुकना

धुजा – ध्वजा

गारौ – गौरव

मोहि – मुझे

बाजा – आ पहुँचा

 

सावन बरिस मह अति पानी। भरनि भरइ हौं बिरह झुरानी।

लागु पुनर्बसु पिउ न देखा। भै बाउरि कहँ कन्त सरेखा।

रकत क आँसु परे भुइँ टूटी। रेंगि चली जनु बीर बहूटी।

सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियर  भुइँ कुसुंभि तन चोला।

हिय हिंडोल जस डोलै मोरा। बिरह झुलावै देइ झंकोरा।

बाट असूझ अथाह गम्भीरा। जिउ बाउर भा भावै भंभीरा।

जग जल बूड़ि जहाँ लगि ताकी। मोर नाव खेवक बिनु थाकी।

परबत समुँद्र अगम बिच बन बेहड़ गहन ढंख।

किमि करि भेटौं कंत तोहि ना मोहि पाँव न पंख।

 

व्याख्या : आषाढ़ मास बीत गया और सावन शुरू हो गया है, लेकिन नागमती का प्रिय कन्त अभी तक वापस नहीं आया है। इसलिए वह कहती है – सावन माह में तो बहुत पानी बरसता है। चारो तरफ पानी भर जाता है, लेकिन मैं विरह के कारण सूखती जा रही हूँ। पुनर्वसु नक्षत्र लग गया है। क्या मेरे प्रियतम ने उसे नहीं देखा ? मेरे चतुर प्रियतम कहाँ रह गए? मैं उनकी चिन्ता में बावली हो रही हूँ। प्रिय के वियोग में मेरे नेत्रों से अश्रु की धारा नहीं बल्कि रक्त के आँसू गिर रहे हैं। वे ही मानों वीर बहूटियों के रूप में पृथ्वी पर रेंग रहे हैं। सावन मास हमारे समाज में एक नया उल्लास और उमंग लेकर आता है, सखियाँ झूले डालती हैं। जिसे सभी मिलकर झूलती हैं। मेरी सखियों ने अपने प्रियतम के साथ हिंडोला डाल रखा है। चारों तरफ वर्षा के कारण सूखे पेड़ पौधों में हरियाली आ गई है, उन हरी भूमि और पेड़ पौधों को देखकर मेरी सखियों ने कुसुंभी रंग का वस्‍त्र धारण कर लिया है। विरह के कारण मेरा हृदय हिंडोले के समान ऊपर नीचे डोल रहा है अर्थात, प्रिय अभी तक नहीं आए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके साथ कुछ अनिष्ट हुआ हो। इस आशंका से मेरा हृदय घबरा रहा है। मुझे इस विरह से उबरने का और प्रिय को प्राप्‍त करने का कोई मार्ग नहीं दिखाई दे रहा है। बाट असूझ और अथाह गम्भीर है। मेरा जी बावला होकर भम्भीरी की भाँति घूम रहा है। जहाँ तक भी मेरी दृष्टि जाती है, वहाँ तक मुझे पूरा संसार जल में डूबा हुआ दिखाई देता है। इस पानी में मेरी नाव  खेवनहार के बिना अर्थात मेरे पति के बिना ठहरी हुई है।

 

मेरे और मेरे प्रिय के बीच समुद्र, बीहड़ वन और यह घने ढाक के जंगल हैं। हे मेरे प्यारे प्रिय! न मेरे पास पाँव है, न पंख; मैं तुमसे किस विधि आकर मिलूँ? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है।

 

महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ :

बाट – रास्ता

मेह – मेघ, बादल

भरनि – मूसलाधार वर्षा

 

पिउ वियोग अस बाउर जीऊ। पपिहा तस बोलै पिउ पीऊ।

अधिक काम दगधै सो रामा। हरि जिउ लै सो गएउ पिय नामा।

बिरह बान  तस लाग न डोली। रकत पसीज भीजि तन चोली।

सखि हिय हेरी हार मैंन मारी। हहरि परान तजै अब नारी।

खिन एक आव पेट महँ  स्वाँसा। खिनहि जाइ सब होइ निरासा।

पौनु डोलावहिं सीचाहिं चोला। पहरक समुझि नारि मुख बोला।

प्रान पयान होत केइँ राखा। को मिलाव चात्रिक कै भाखा।

आह जो मारी बिरह की आगि उठी तेहि हाँक।

हंस जो रहा सरीर महँ पाँख जरे तन थाक।  

 

व्याख्या : राजा रत्‍नसेन के जाने के बाद नागमती की दशा अत्यन्त दयनीय है। वह पति के विरह में व्याकुल है, प्रिय के वियोग में उसका जी बावला हो गया है। वह पपीहे की तरह पिउ-पिउ रटने लगी है। काम के प्रभाव से उसके पूरे  शरीर में अग्‍न‍ि लगी हुई है, जिससे उसका पूरा शरीर जल रहा है। वह सुग्गा प्रियतम के नाम से उसके प्राण हर कर ले गया। उसे ऐसा विरह बाण लगा है कि वह हिल-डुल भी नहीं सकती है। वियोग के कारण उसके शरीर से जो रक्त गिर रहा है, उससे उसकी चोली भी भीग गई है। सखी ने मन में विचार कर यह देख लिया है कि यह बाला काम की मारी हुई है और अपना शरीर हार गई है। काँप-काँप कर यह बाला अपने प्राण त्याग देगी। एक क्षण के लिए उसके पेट में साँस आती थी तो दूसरे ही पल वह साँस निकल जाती थी। जिससे वहाँ उपस्थित सारी सखियाँ निराश हो जाती थी। सखियाँ उसे होश में लाने के लिए हवा करती थी और उसकी चोली को जल से सींचती थी। एक पहर बीत जाने के बाद वह नारी कभी-कभी अपने मुख से बोल पड़ती थी। वह बोलती थी कि बिन प्रिय के अब यह प्राण इस शरीर से निकल जाना चाहता है, इस शरीर में रह कर भी यह क्या करेगा? कौन चातक की भाषा से अपनी भाषा मिलाएगा। अर्थात जिस प्रकार चातक प्रिय वियोग में पिउ-पिउ करता रहता है, उसी प्रकार वह उसके साथ पिउ-पिउ की रट क्यों लगाती रहे? क्योंकि चातक तो ऐसा विरह में करता है और वह चातक के समान चिर विरही नहीं बनना चाहती।

 

उसके मुख से विरह की जो आह निकली है, उस आह से उसके हृदय में अग्‍न‍ि उत्पन्‍न हो गई है, जिससे शरीर में जीव रूपी हंस के पंख जल गए हैं, जिससे वह उड़ ही नहीं सकता था, इसलिए वह शरीर में ही रह गया।

 

महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ :

बाउर – बावला

पौनु – पवन

समुझि  – समझ कर

खिनहि – क्षण भर

 

विशेषार्थ राजा रत्‍नसेन के वियोग में पीड़ित रानी नागमती की विरह दशा का वर्णन है, लेकिन जायसी ने यह वर्णन इस तरह किया है, कि यह एक सामान्य स्‍त्री का वियोग नहीं लगता। प्रतीत होता है कि अपने पति के वियोग के अतिरिक्त उसे किसी चीज की सुध नहीं है। यहाँ तक कि उसे अपने प्राणों की भी परवाह नहीं है।

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. पद्मावत, वासुदेवशरण अग्रवाल(संपा.), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  2. जायसी,विजयदेवनारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद
  3. सूफी काव्य में पौराणिक सन्दर्भ, डॉ. अनिल कुमार, ग्रन्थलोक, दिल्ली
  4. प्रेमाख्यानक काव्य में भारतीय संस्कृति, डॉ. अशोक कुमार मिश्र, राधा पब्लिकेशन, नई दिल्ली
  5. जायसी ग्रन्थावली, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन
  6. सूफी सन्त साहित्य का उद्भव और विकास, प्रो. जय बहादुर लाल, नवयुग ग्रन्थागार, लखनऊ
  7. पद्मावत का काव्य-वैभव, डॉ. मनमोहन गौतम, मैकमिलन पब्लिकेशन
  8. पद्मावत : नवमूल्यांकन, डॉ. राघदेव सिंह, उषा जैन, पाण्डुलिपि प्रकाशन, दिल्ली
  9. जायसी : एक नव्यबोध, अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश’, साहित्य कुटीर, लखनऊ
  10. जायसी, परमानन्द श्रीवास्तव, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली
  11. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  12. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  13. भारतीय चिन्तन परम्परा, के. दामोदरन, पीपीएच, नई दिल्ली
  14. भक्ति आन्दोलन के सामाजिक सरोकार, सं. गोपेश्वर सिंह, भारतीय प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली 

   वेब लिंक्स

  1. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4
  2. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%AA%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%A4_/_%E0%A4%AE%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%95_%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A6_%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%80
  3. http://www.ignca.nic.in/coilnet/jaysi007.htm
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%AB%E0%A4%BC%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
  5. https://senjibqa.wordpress.com/category/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF/