29 निर्धारित पाठ की व्याख्या : तुलसी (रामचरितमानस)
माला मिश्र and सुधा निकेतन रंजनी
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- रामचरितमानस के पदों में निहित भक्ति-भाव का मर्म समझ सकेंगे।
- रामचरितमानस के पदों में निहित काव्य सम्बन्धी विचारों को समझ सकेंगे।
- रामचरितमानस की काव्य सम्बन्धी विशेषताओं को समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल (रामभक्ति धारा) के ही नहीं, पूरे हिन्दी साहित्य के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उनकी भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता ‘सर्वांगपूर्णता’ है, जहाँ जीवन के किसी पक्ष की उपेक्षा नहीं दिखती। सारे पक्षों से उसका सामंजस्य है। तुलसी की कविता रामभक्ति से सिक्त तो है ही, वह हमें अपने समकालीन यथार्थ से भी परिचय कराती है। भक्ति भाव, आत्मनिवेदन और यथार्थ की अभिव्यक्ति पदों में सघनता से भरी हुई है। भाषा की दृष्टि से तुलसीदास ने ब्रज और अवधी, दोनों में समान अधिकार से रचनाएँ की। काव्य-स्वरूप की दृष्टि से उन्होंने प्रबन्ध और मुक्तक दोनों तरह के काव्य रूपों का प्रयोग किया है। अलंकारों में अर्थालंकारों का प्रयोग, शब्दालंकारों की तुलना में अधिक है। छन्दों में दोहा, चौपाई, पद, कुण्डलियाँ, छप्पय कवित्त-सवैया आदि का प्रयोग उनके यहाँ प्रचुरता से मिलता है। इस पाठ में रामचरितमानस के चुने अंशों के विश्लेषण से उनके रचनाकर्म को जानने की कोशिश करेंगे।
- रामचितमानस के पद
बालकाण्ड
‘रामचरितमानस’ तुलसीदास का अत्यन्त प्रतिष्ठित महाकाव्य है। मानस का प्रारम्भ संस्कृत में होता है। इसके उपरान्त वे अवधी में राम कथा का वर्णन करते हैं और सबसे पहले सरस्वती और फिर गणेश की वन्दना करते हैं। रामचरितमानस में सात काण्ड हैं – बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किश्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड। प्रस्तुत इकाई में बालकाण्ड के कुछ अंशों का विश्लेषण किया गया है।
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी।।
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।।
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं।।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा।।
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ।।
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।
सभी लोगों की वन्दना करने के उपरान्त तुलसीदास सारे संसार की सामूहिक रूप से वन्दना करते है। यहाँ तुलसी की जानकारी और समझ का एहसास होता है। हिन्दू पौराणिक परम्परा के अनुसार चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के जीव रहते हैं। ये हैं स्वेदज, जो पसीने से उत्पन्न होते हैं, अण्डज, जिनका जन्म अण्डे से होता है, उद्भिज्ज, जो जमीन से निकलकर ऊपर उठने वाले होते है और जरायुज जो गर्भाशय से उत्पन्न होते हैं।
और ये जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं। तुलसी ने एक चौपाई में इस सबका समाहार करते हुए लिखा कि इन सबको मैं सियाराममय मानकर दोनों हाथ जोड़कर प्रमाण करता हूँ। तुलसीदास अपने विवरण और वर्णन में कितने अधिक सावधान हैं कि वे यह कहना नहीं भूलते कि मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ, सिर्फ प्रणाम नहीं करता। तुलसी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे कोई अधूरी बात नहीं करते। कोई भी बात छूटती नहीं। सबको वे सम्पूर्णता में कहते हैं। अपने पाठकों को सम्बोधित करते हुए तुलसीदास आगे कहते हैं कि आप लोग (पाठक) मुझे अपना दास जानकर मुझ पर कृपा करें। तुलसीदास के अनुसार उनके पाठक उनसे कम समझदार नहीं है। यदि ऐसा होता तो तुलसी भी कबीर की तरह उन्हें उपदेश देते। वे उपदेश नहीं दे रहे हैं, उनसे निवेदन कर रहे हैं और यह मिथ्या विनय नहीं है। जो कृपा करने वाले हैं अर्थात पाठक ‘कृपा की खान’ हैं अर्थात जो अपनी प्रकृति में कृपालु हैं। तुलसीदास यहाँ भी नहीं रुकते। वे फिर निवेदन करते हैं कि ऐसे लोग छल छोड़कर कृपा करें। छल के साथ कृपा न करें अर्थात कृपा का दिखावा न करें। सचमुच कृपा करें। यहाँ फिर तुलसी विनय प्रकट करते हैं कि मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है। यदि भरोसा होता तो मुझे आपकी कृपा की जरूरत नहीं पड़ती। इस कारण मैं आपसे विनती करता हूँ। विनती करने का कारण बताना तुलसी नहीं भूलते। दरअसल तुलसी कुछ भूलते ही नहीं। ऐसी स्थिति में मैं रघुपति श्रीराम के गुणों का बखान करना चाहता हूँ। यह मेरी आकांक्षा है। चाहत है। तो प्रश्न उठने से पहले तुलसी बताते हैं कि मेरी बुद्धि अल्प है और श्रीराम का चरित्र अथाह है। अथाह चरित्र का मैं मूल्यांकन करना तो दूर, उन्हें ठीक-ठीक उपस्थित भी नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में मुझे लेश मात्र उपाय समझ में नहीं आ रहा है। मेरा मन और मेरी बुद्धि तो कंगाल है परन्तु मनोरथ अर्थात कामना राजा की तरह श्रेष्ठ है। तुलसी अपनी बात को स्पष्ट करते हुए आगे लोक जीवन का उदाहरण देते हैं और उसी बात को फिर से, नए ढंग से, नई उपमा के साथ करहते हैं कि बुद्धि तो क्षुद्र है परन्तु रुचि बहुत श्रेष्ठ है। ऐसा कैसे? चाहिए तो अमृत, जो अमूल्य है और जगत में (लगभग मुफ्त मिलनेवाली) छाछ को जुटाने की सामर्थ्य भी नहीं है। इसलिए आप सज्जन लोग मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को प्रेम से सुनेंगे। तुलसी किसी को कुछ भी कहने का मौका नहीं देते। जो कोई कह सकता है, उस सबका प्रत्याख्यान वे करते जाते हैं।
रामभगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू।
आखर अरथ अलंकृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना।
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे.
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक।।
प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के बालकाण्ड से उद्धृत है। इसमें तुलसीदास अपनी कविता पर टिप्पणी कर रहे हैं।
यह जो कथा मैं आप लोगों को सुना रहा हूँ, उस कथा को सज्जन भगवान राम की भक्ति से भूषित जानकर सुनेंगे और अपनी सुन्दर वाणी से इसकी सराहना भी करेंगे। यह विश्वास कवि को है। साथ ही यह भी कि जो इस कथा की सराहना नहीं कर रहें हैं, वे सज्जन नहीं है। ऐसा तुलसीदास कहते नहीं, परन्तु इसका एक अर्थ यह भी निकलता है। तुलसी अपने विरोधियों को प्रकारान्तर से रामविरोधी बता रहे हैं। आगे तुलसी कहते हैं कि मैं कवि नहीं हूँ अर्थात वैसा समर्थ कवि नहीं हूँ, जैसा कवि को होना चाहिए या जैसे भारतीय परम्परा में महान कवि हो चुके हैं। यदि कोई कवि होगा, तो वचन प्रवीण भी होगा। शायद मैं वैसा वचन प्रवीण नहीं हूँ। मैं मान लेता हूँ कि मैं सब कलाओं और सब विधाओं से रहित हूँ। यहाँ तुलसी भारतीय चिन्तन में कलाओं और विधाओं सम्बन्धी ज्ञान की सुदीर्घ परम्परा का संकेत कर रहे हैं। वैसी श्रेष्ठता का दावा मैं नहीं करता। भारत में काव्य शास्त्र का विकास हो चुका है। अनेक प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार है। छन्द और प्रबन्ध के अनेक शास्त्रीय विधान है। यही नहीं भाव और रस के अनेक भेद है। कविता के अनेक प्रकार के गुण-दोष होते हैं। शास्त्रीय चिन्तकों ने उन सबकी व्याख्या कर रखी है। गहन गम्भीर शास्त्र है, जिससे मैं अपरिचित हूँ या अल्प परिचित हूँ। कविता के सम्बन्ध में कोई भी बात मुझे पता न हो। आप मेरी कविताओं में अनेक शास्त्रीय दोष गिना सकते हो। हो सकता है, वे सब दोष मेरी कविता में हों। मैं तो एक ही बात विश्वासपूर्वक, शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि मैं खाली पन्ने पर सिर्फ सत्य लिखता हूँ। मेरी कविता मिथ्या नहीं है। मेरी कविता सत्य है। सम्भव है मेरी रचना सब काव्य गुणों से रहित हो। उसमें हजार कमियाँ हो, परन्तु उसमें एक विश्वप्रसिद्ध गुण है। वह यह कि जो लोग भली बुद्धिवाले हैं, कुटिल नहीं हैं, जिनका ज्ञान निर्मल है अर्थात जिनके मन में कपट नहीं हैं, वे इसको जरूर सुनेंगे। इस कविता में रघुपति राम का पवित्र नाम है। उनका स्मरण है। जिसमें पुराण और वेदों का सार है। यह नाम अर्थात स्वयं राम मंगल का विधान करने वाले और अमंगल को हरने वाले अर्थात नष्ट करने वाले हैं। यही नहीं जिन्हें स्वयं भगवान शिव पार्वती सहित जपा करते हैं अर्थात राम का आदर शिव भी करते हैं। शैवों और वैष्णवों के विवाद के बीच ये पंक्तियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण है।
आगे तुलसी कहते हैं कि यदि किसी महत्त्वपूर्ण कवि ने किसी अद्भुत कविता की रचना की हो। वह भी राम नाम के बिना सुन्दर नहीं लग सकती। इसको स्पष्ट करने के लिए उन्होंने उदाहरण दिया। चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाली, सब प्रकार के अलंकारों और साज-सज्जा से सुसज्जित नारी भी बिना वस्त्रों के शोभा नहीं देती। इसलिए कविता की कथा महत्त्वपूर्ण है। राम का नाम महत्त्वपूर्ण है। इसे तुलसी बार-बार रेखांकित करते हैं।
मंगल करनी कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की
गति कूर कविता सरिता की ज्यौं, सरति पावन पाथ की।
प्रभु सुजस संगति भनिति भल, होइहि सुजन मन भावनी।
भव अंग भूति मसान की, सुमिरत सुहावनि पावनी।
प्रस्तुत पंक्तियाँ रामचरितमानस के बालकाण्ड से उद्धृत है। यहाँ महाकवि तुलसीदास कहते हैं कि राम की कथा कल्याण करनेवाली और कलियुग के पापों को दूर करनेवाली है। कविता भी सरिता की टेढ़ी गति के बावजूद, पवित्र जल वाली गंगा की गति के समान है। वह प्रभु के सुयश के साथ भली और मन को अच्छी लगने वाली हो जाती है। अब श्मशान की राख तो अपवित्र ही मानी जाती है, परन्तु उसी राख का लेप महादेव अपने शरीर पर करते हैं, तो वह राख भी पवित्र हो जाती है। उसी तरह कविता की कमियाँ भी राम के सम्पर्क में आने से पावन हो जाती है। महादेव के पावन अंग के साथ उनके अंगलेप श्मशान की राख का स्मरण करने में भी सुहावनी और पवित्र धारणा का बोध कराती है।
तुलसीदास मान लेते हैं कि उनसे कविता करते नहीं बना, उसकी गति टेढ़ी हो गई। मेरी कविता मसान की राख है। इसलिए भयावनी और अपावनी है, यह इसका दोष है। किन्तु यह कविता रामयश से भरी हुई है इसलिए सुजन मन भावनी है और रामयश गायन से परिपूर्ण होने के कारण मेरे शब्दों में चित्ताकर्षण एवं अर्थ माधुर्य है। फलस्वरूप यहाँ दोष तुच्छ हो जाएँगे और सुहावनी पावनी होकर कविता अलंकृत भी हो जाएगी और यह सब राम के कारण है। प्रकारान्तर से तुलसी कहते हैं कि कविता का कथ्य उसके सौन्दर्य को बढ़ा देता है।
प्रिय लागिहि अति सबहिं मम, भनिति राम जस संग।
दारु विचारु कि करइ कोऊ, वन्दिअ मलय प्रसंग।।
स्याम सुरभि पय विसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सियराम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ।।
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई ।।
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं।।
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई ।।
तुलसीदास इसलिए कहते हैं कि सम्भव है कि मेरी कविता उतनी अच्छी न हो। अलग से उसमें कोई सौन्दर्य न हो। साधारण पक्तियाँ लगती हों; परन्तु इनमें राम के यश का गान किया गया है। रामकथा कहने के कारण सभी को यह अच्छी लगेगी। यहाँ तुलसी ने एक सौन्दर्यशास्त्रीय प्रश्न उठा दिया है कि कविता का कथ्य और कवि का रचना कौशल दो अलग-अलग चीजें है। इन दोनों को अलग करके देखना चाहिए। यदि विषय अच्छा है, श्रेष्ठ है तो कौशल के अभाव के बावजूद कविता सुन्दर हो सकती है। वरेण्य हो सकती है। अपने मत के समर्थन में तुलसीदास उदाहरण देना नहीं भूलते। उदाहरण इतना सटीक देते हैं कि आप उनके तर्क से सहमत होने के लिए मजबूर हो जाते हैं। उदाहरण देते हैं कि मलय पर्वत के साथ रहने के कारण काष्ठ भी, अर्थात चन्दन भी पूजनीय हो जाता है और तब कोई भी काठ की तुच्छता या महत्त्वहीनता को नहीं देखता। वैसे ही राम के यश के साथ होने के कारण मेरी कविता भी सबको अच्छी लगेगी। यह विश्वास और आग्रह कवि का है। साथ ही यह कि यदि आप को राम के यश के बावजूद यह कविता अच्छी नहीं लग रही है तो आप प्रकरान्तर से राम के विरोधियों की श्रेणी में गिने जाएंगें।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए तुलसीदास कहते हैं कि काली गाय का दूध भी सफ़ेद ही होता है अर्थात गाय चाहे काली हो या सफ़ेद, हमें उसके रंग से मतलब नहीं होता। हम इस पर विचार नहीं करते। हम विचार उसके दूध का करते हैं। उसे हम सब प्रेम से पीते हैं। इसी तरह यदि ग्राम्य भाषा में सीता और राम के गुण गाये जाते हैं, तब भी लोग प्रेम से सुनते हैं। तुलसीदास संस्कृत भाषा में न लिखने का कारण समझाते है। उस युग में कई लोगों का यह आरोप था कि राम कथा को देववाणी संस्कृत में लिखा जाना चाहिए था। तुलसी को संस्कृत आती थी, फिर भी उन्होंने अवधी में राम कथा लिखी। तुलसीदास बहुत मर्यादाशील कवि हैं। वे संस्कृत का विरोध नहीं करते। कबीर की तरह वे संस्कृत को कूप जल नहीं कहते। वरन् अपनी ग्राम्य भाषा के समर्थन में खड़े हो जाते है। फिर वे ग्राम्य भाषा के समर्थन में भी कोई तर्क नहीं देते, वे सभ्य जनों के इस आरोप को स्वीकार के लेते हैं कि अवधी ग्राम्य भाषा है। तब भी वे कहते हैं कि इस विषय पर तो बहस ही नहीं होनी चाहिए कि रामचरितमानस की भाषा कौन सी है? कोई भी हो। गुणीजनों को राम सीता के यश पर ध्यान देना चाहिए। गाय काली है या सफ़ेद? भाषा संस्कृत है या अवधी? यह न देखें। वे सिर्फ गाय का दूध देखें। सीता राम का यशगान देखें। यदि यह ठीक है तो प्रेम से इसका पान करना चाहिए।
आगे तुलसीदास कविता की प्रकृति पर विचार करते हैं। मणि, माणिक और मोती बहुत सुन्दर होते हैं। ये सुन्दर चीजें साँप के पास या पर्वत पर या हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा प्रदान नहीं करती। यदि ये ही चीजें राजा के मुकुट पर रहे या कोई युवा स्त्री अपने शरीर पर धारण करे तो इनकी सुन्दरता बढ़ जाती है। इस आधार वक्तव्य के बाद तुलसी कहते हैं कि किसी अच्छे कवि की कविता भी उत्पन्न कहीं और होती है और शोभा कहीं और पाती है। बुद्धिमान लोग ऐसा ही कहते हैं। रचना कवि करता है, आस्वाद सहृदय करता है। इसी समझ के कारण सरस्वती ब्रह्म लोक छोड़कर आ जाती है अर्थात कवि पर सरस्वती की जब कृपा होती है, तब कविता की रचना होती है।
देखी विपुल विकल बैदेही। निमिष विहात कलप सम तेही।
तृषित वारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करै का सुधा तड़ागा।।
का बरषा जब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।।
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिदेषी।।
गुरुहि प्रनाम मनहिं मन कीन्हा। अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मण्डल सम भयऊ।
प्रस्तुत प्रकरण बाल काण्ड का है। सीता का स्वयंवर चल रहा है। सीता के पिता जनक ने स्वयंवर में यह शर्त रखी थी कि जो कोई शिव के धनुष को तोड़ेगा उस महाबलशाली राजा से सीता का विवाह कर दिया जाएगा। स्वयंवर में अनेक बलशाली राजा-महाराजा आए हुए हैं। जनक का पूरा परिवार और नगर के गणमान्य व्यक्ति इसको देखने के लिए आए हुए हैं। सबमें यह जानने की उत्सुकता है कि शिव-धनुष को कौन वीर पुरुष तोड़ेगा? कौन सीता का पति बनेगा? इस सबके साथ सीता भी बैठी हुई है। वह भी देख रही है। सब लोग उत्सुकतावश देख रहे हैं। परन्तु सीता क्या देख रही है? क्या महसूस कर रही है? विवाह तो उसका होना है। उसके भविष्य का निर्णय होने वाला है। ऐसा भविष्य जिसका अभी कुछ पता नहीं है। वह कैसा महसूस कर रही है।तुलसीदास कवि दृष्टि से उसे भी देखते हैं। वह देख रही है कि शिवधनुष का टूटना तो दूर, उसे कोई हिला भी नहीं पा रहा है। कम से कम उठाने का सामर्थ्य तो इनमें हो? यह क्या हो रहा है? इस परिस्थिति को देखकर सीता बहुत विकल है। बेचैन हैं। विकलता का मूल कारण यह है कि उसे समझ नहीं आ रहा है कि स्वयंवर में क्या हो रहा है और आगे क्या होने वाला है? भविष्य की चिन्ता इस विकलता का कारण है। उसके लिए एक-एक क्षण बिताना मुश्किल हो रहा है। एक-एक क्षण एक-एक कल्प के समान लग रहा है। बहुत मुश्किल से समय कट रहा है। यह विकलता ऐसी है कि इस विकलता में उसकी मृत्यु भी हो सकती है।
सीता की इस पीड़ा को तुलसीदास अप्रस्तुत विधान द्वारा समझाते हैं। यदि कोई प्यासा व्यक्ति प्यास के कारण मर जाए,तो मरने के बाद उसे यदि अमृत का तालाब भी मिल जाए तो क्या फायदा? यह पीड़ा प्राण घातक है। इसी में यदि जीवन चला गया तो फिर शिव धनुष टूटे या न टूटे? कोई फर्क नहीं पड़ता।
यहाँ फिर तुलसीदास जीवन के यथार्थ का वर्णन करने लगते हैं कि जब खेत सूख जाए उसके बाद वर्षा होने का क्या फायदा? समय यदि बीत जाए, उसके बाद पश्चाताप करने का कोई फायदा नहीं इसलिए अवसर महत्त्वपूर्ण है। सही समय पर सही काम होना चहिए। ऐसा सोचकर राम ने सीता की तरफ देखा और देखा कि जानकी के मन में भी प्रेम भाव है और तब वे आए। अपने गुरु को मन ही मन प्रणाम किया और बिना किसी प्रयास के आराम से धनुष को उठा लिया। अब तक तो कोई धनुष को अपनी जगह से हिला भी नहीं पा रहा था। धनुष आकाश की बिजली की तरह चमका और नभ में वह मण्डलाकार हो गया। यह ठीक शिव धनुष के टूटने के पूर्व का दृश्य-वर्णन है।
- निष्कर्ष
तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य रामचरितमानस भक्ति काव्य की ही महान रचना नहीं हैं हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ रचना है। यह महाकाव्य सात भागों में विभाजित है जिन्हें काण्ड कहा गया है जैसे बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड आदि। इन विभिन्न काण्डों से कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों को यहाँ व्याख्या के लिए चुना गया है। रामचरितमानस मुख्य रूप से दोहा और चौपाई छन्दों में रचा गया है। इस इकाई में रामचरितमानस के बालकाण्ड से अंश लिए गए हैं और उनकी व्याख्या के माध्यम से तुलसी की भक्ति भावना, उनके काव्य सम्बन्धी विचारों और उनके काव्य कि विशिष्टता को समझाने का प्रयत्न किया गया है। रामचरितमानस मनुष्य के जीवन संघर्ष की महागाथा है। मनुष्य और समाज के अन्तस्सम्बन्धों के सभी पदों का जितना सूक्ष्म अंकन तुलसी के रामचरितमानस में मिलता है वैसा अत्यन्त दुर्लभ है।
you can view video on निर्धारित पाठ की व्याख्या : तुलसी (रामचरितमानस) |
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- गोस्वामी तुलसीदास : दर्शन और भक्ति,डॉ. विश्वम्भर दयाल अवस्थी, उर्जा प्रकाशन, इलाहाबाद
- तुलसीकाव्य मीमांसा, उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- रामचरितमानस, गीताप्रेस, गोरखपुर
- तुलसी, सम्पादक: उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- लोकवादी तुलसीदास, विश्वनाथ त्रिपाठी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- तुलसीदास, सम्पादक: विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
- गोस्वामी तुलसीदास, रामजी तिवारी, साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B8
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B8
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://www.ignca.nic.in/coilnet/tulsi003.htm