22 निर्धारित पाठ की व्याख्या : सूर(भ्रमरगीत, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
रीता दुबे and रामबक्ष जाट
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- भ्रमरगीत सार के महत्त्वपूर्ण पदों का अर्थ समझ सकेंगे।
- इसके विश्लेषण के माध्यम से सूरदास की कला की बारीकियाँ समझ सकेंगे।
- कविता के व्यवहारिक विश्लेषण की पद्धति जान सकेंगे।
- प्रस्तावना
सूरदास भक्तिकाल के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि है। उन्होंने अपने ग्रन्थ सूरसागर में कृष्ण के जीवन के सौन्दर्य को अभिव्यक्त किया है। कृष्ण की बाल लीला और उनके किशोरावस्था के मनोरम चित्र सूरसागर में मिलते हैं। यहाँ तक कहा जाता है कि बाल लीलाओं के वर्णन में सूरदास संसार में बेजोड़ है। बाल लीलाओं के बाद किशोरावस्था में राधा और कृष्ण के प्रेम का बीजारोपण होता है। सूरदास ने मनोयोग पूर्वक राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन किया है। इस वर्णन में राधा का भोलापन दिखाई देता है। बचपन में कृष्ण गोकुल में नन्द और यशोदा के घर में रहते हैं। जब कृष्ण बड़े होते हैं, तो अक्रूर उन्हें मथुरा ले जाते हैं। मथुरा में वे कंस को मारकर वहाँ के राजा बन जाते हैं।
राजकाज में व्यस्त रहते हुए भी उन्हें गोपियाँ याद आती हैं। कृष्ण को लगता है कि गोपियाँ उनके विरह में दुःखी है। उनके दुःख को दूर करने के लिए वे उद्धव को अपना सन्देश वाहक बना कर भेजते हैं। उद्धव गोपियों को निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देते हैं, ताकि गोपियों का दुःख दूर हो सके। गोपियाँ उद्धव से सहमत नहीं होतीं। यहाँ सूरदास ने कई मौलिक उद्भावनाएं की हैं, जो भागवत में नहीं है। उद्धव कृष्ण के मित्र और सन्देश वाहक हैं। उनका सन्देश निर्गुण ब्रह्म की उपासना है, यही सन्देश वे उद्धव उपदेश के रूप में देते हैं। मूल कथा का ढाँचा यही है, लेकिन गोपियाँ इस ढाँचे में परिवर्तन कर देती है। वे अपना और उद्धव का स्थान बदल देती हैं। रिश्ता बदल देती है, बहस का मुद्दा बदल देती है। परिवर्तन के ये सारे सूत्र वे अपने पास रखती हैं। सन्देश वाहक की भूमिका से उद्धव का विस्तार हो जाता है।
इसी तरह कभी वे उद्धव का उपहास करती है, कभी कृष्ण को उपालम्भ देती है, कभी कृष्ण के पुनः गोकुल लाने के लिए अनुनय विनय करती है, कभी अपना दुःख दर्द बताती हैं, कभी यशोदा की पीड़ा का वर्णन करती है, कभी उन गायों के दुःखों का वर्णन करती है जो कृष्ण की याद में दुःखी हैं।
कभी निर्गुण मत का खण्डन करती है और कभी कृष्ण से अपने प्रेम का गान करती है और इस बहाने सगुण मत को स्थापित करती है। निर्गुण मत खण्डन में वे ज्यादातर अपनी असहायता का वर्णन करती है। कृष्ण कभी ईश्वर के रूप में आते हैं, कभी मानवीय रूप धारण कर लेते हैं। कभी वे भगवान बन जाते हैं, कभी वे प्रेमी बने रहते हैं। यह सब मिल जुलकर कथा का नया रूप हमारे सामने आता है।
इस सबके बीच वे कभी भी उद्धव से दार्शनिक बहस नहीं करतीं। सूरदास सीधे-सीधे निर्गुण ब्रह्म का खण्डन नहीं करते। सूरदास निर्गुण के पक्ष में कबीर आदि सन्त कवियों द्वारा प्रस्तुत एक भी तर्क पेश नहीं करते। वे अपने तर्क अपने पक्ष के अनुसार गढ़ते हैं। इसीलिए निर्गुण मत का खण्डन स्वतः हो जाता है और यही सूरदास का उद्देश्य है और यही गोपियों की कला है। गोपियाँ कभी नादान ग्रामीण स्त्रियाँ बन जाती हैं, कभी बड़प्पन से उद्धव को समझाने का अधिकार ले लेती हैं। भ्रमरगीतसार के पदों की रचना सूरदास ने की है। सन् 1920 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने भ्रमरगीत का सम्पादन किया। सूरदास ने सगुण निर्गुण सम्बन्धी विवाद को उद्धव और गोपियों के संवाद के माध्यम से बहुत ही काव्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। भ्रमरगीतसार में निहित जीवन दर्शन को जानने के लिए उसके पाठ में छिपे हुए अर्थ को जानना आवश्यक है। लेकिन भ्रमरगीत के पूरे 400 पदों की व्याख्या सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों की व्याख्या प्रस्तुत है, जो भ्रमरगीत को समझने के लिए उपयोगी होगी।
- भ्रमरगीतसार के चुने हुए पद और उनकी व्याख्या
3.1.
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधो ऐसोई फिरि जैहै।।
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै।
दाख छाँड़ि कै कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै ?
मूरी के पातन के केना को मुक्ताहल दैहै।
सूरदास प्रभु गुनहि छाँड़ि कै को निर्गुण निरबैहै ?
भ्रमरगीतसार में सूरदास ने गोपियों और उद्धव के संवाद की रचना की है। मूल प्रकरण में उद्धव कृष्ण के सन्देशवाहक बनकर निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान देने के लिए आए हैं, लेकिन गोपियाँ उनके इस सन्देश को स्वीकार नहीं करती हैं। गोपियाँ इस पद में ‘ठगौरी’ शब्द का इस्तेमाल करती हैं। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। गोपियाँ उद्धव से कहती है कि हे उद्धव! तुम यहाँ व्यापारी बनकर आए हो और अपने निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान को बेचना चाहते हो। लेकिन यह समझ लो कि तुम्हारा यह सामान (निर्गुण ब्रह्म का दर्शन) जो तुम बेचने के लिए आए हो वह ऐसे ही वापस चला जाएगा, जैसा तुम लेकर आए हो क्योंकि व्यापार में जो मोल-तोल होता है, उसमें दोनों का फायदा होता है। ग्राहक अपनी सुविधा के अनुसार सामान खरीदता है, लेकिन तुम तो अपना नीरस-सा सामान बेचकर हमसे ठगी कर रहे हो। तुम हमसे यह कहने आए हो कि हम अपने मन से कृष्ण को निकाल दें और तुम्हारे इस योग को स्थान दे दें, लेकिन यह सम्भव नहीं है। हमारे हृदय में तुम्हारे विचारों के लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि हम सभी के हृदय में तो सिर्फ कृष्ण का प्रेम है। वहाँ किसी और के लिए अब स्थान शेष नहीं है।
सूरदास को जीवन का गहन अनुभव था। इसलिए वे कविता की अर्थभूमि का विस्तार करते हुए कहते हैं कि इस दुनिया में कौन ऐसा है जो मीठे अंगूर को छोड़कर अपने मुख में नीम का कड़वा फल ग्रहण करेगा। तात्पर्य यह है कि तुम्हारा यह निर्गुण ब्रह्म हमारे लिए नीम की कड़वी निम्बोली के समान है। गोपियाँ आगे कहती हैं कि कौन ऐसा मूर्ख है जो मूली के पत्तों के बदले ( निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान) मुक्ताफल (मोती अर्थात कृष्ण का प्रेम) को छोड़ देगा? यह घाटे का सौदा कौन करेगा? इस पद में गोपियाँ दार्शनिक बहस को लोकजीवन में लेकर जाती हैं और लोकजीवन के उदाहरण के माध्यम से उद्धव से तर्क करती हैं और अपनी असहमति को तार्किक रूप से स्पष्ट करती हैं।
सूरदास आगे कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से आगे कहती हैं कि कौन भगवान के सगुण रूप को छोड़कर निर्गुण निराकार ईश्वर की उपासना करेगा, अर्थात कोई भी नहीं करेगा। इसीलिए हे उद्धव! तुम्हारा यह व्यापार ब्रज में नहीं हो सकता। तुम यहाँ से चले जाओ। इस पद में गोपियों ने मूल कथा के अर्थ को अपने दृष्टिकोण से बदल लिया। उद्धव यहाँ कुछ बेचने के लिए नहीं आए थे, वे यहाँ से कुछ ले जाना नहीं चाहते थे। परन्तु गोपियों ने उद्धव के आने को, उनके आने के निहितार्थ को बदल दिया। इस तरह बदल दिया कि वही असली यथार्थ लगने लगा। जब वही मूल अर्थ है, अर्थात उद्देश्य है, तो गोपियाँ जो भी कहती हैं – वह सब सही है। वह यदि सही है तो उद्धव के क्रियाकलाप स्वतः ही गलत मान लिए जाएँगे और तब उद्धव का उद्देश्य तो पूरा नहीं होगा और यही इन पदों में होता है। उद्धव तो गोपियों की भलाई के लिए आए थे। उनका दुःख दूर करने आए थे। परन्तु गोपियाँ यह प्रमाणित करने में सफल हो जाती है कि उद्धव दरसल निर्गुण मत का प्रसार करने आए थे। अपने लाभ के लिए आए थे गोपियाँ के लाभ के लिए नहीं।
महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ
तिहारो : तुम्हारे
छाँड़ि : छोड़कर
कटुक : कड़वी
केना : बदले में
निरबैहै : निर्वाह करेगा
3.2.
ऊधो स्यामसखा तुम साँचे।
कै करि लियो स्वांग बीचहि तें, वैसेहि लागत काँचे।।
जैसी कही हमहिं आवत ही औरनि कहि पछिताते।
अपनो पति तजि और बतावत महिमानी कछु खाते।
तुरत गौन कीजै मधुबन को यहाँ कहाँ यह ल्याए ?
सूर सुनत गोपिन की बानी उद्धव सीस नवाए।।
प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं। उन्हें सुनाती हैं। उनकी सुनती नहीं, हालाँकि मूल कथा में उद्धव सुनाने के लिए आते हैं, सुनाने के लिए गोपियाँ एक चतुर भूमिका बाँधती हैं। वे जानती हैं कि उद्धव कृष्ण के मित्र हैं। वे यह भी जानती हैं कि मित्रों में आपस में बहुत कुछ समानता होती है, इसलिए वे उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! हम इस बात को स्वीकार करती हैं कि तुम कृष्ण के सच्चे मित्र हो, अर्थात जो गुण उनमें है, वही तुममे भी है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम भी अभिनय कर रहे हो, जैसे कृष्ण करते थे, लेकिन कृष्ण अभिनय करते समय हमेशा पकड़े जाते थे, तुम भी अभिनय में उनकी ही तरह कच्चे हो। तुमने आते ही जो बात हमसे कही, वह हमसे कह दी, तो ठीक है, लेकिन यही बात अगर तुम ब्रज में किसी और से कहते तो बहुत पछताते, अर्थात तुम्हें अपनी करनी का फल मिलता। भारतीय समाज में यदि किसी स्त्री को अपना पति छोड़कर किसी दूसरे को ग्रहण करने की बात कहोगे (गोपियाँ कृष्ण से केवल प्रेम ही नहीं करती, अपितु उन्हें अपना पति स्वीकार कर चुकी हैं। उद्धव उन्हें यह सन्देश देने आए हैं कि वे कृष्ण को भूलकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना में रत हो जाएँ) तो तुम्हारी अच्छी आवभगत होती। व्यंजना यह है कि तुम्हें इस बात को कहने के लिए शारीरिक, मानसिक दण्ड मिलता। हे उद्धव! तुम्हारे लिए अब यही उत्तम होगा कि तुम शीघ्र ही मथुरा के लिए प्रस्थान करो। यह योगमत का ज्ञान, जो तुम हमको देने आए हो, यहाँ इसका पारखी कौन है ? सूरदास कहते हैं कि गोपियों के इस तरह की बात को सुनकर उद्धव ने गोपियों के समक्ष अपना शीश झुका दिया। वे निरुत्तर हो गए। उनसे कुछ कहते न बना कि वे अब क्या कहें? उद्धव को निरुत्तर कर देना, कुछ बोलने लायक ही नहीं रहने देना, उनकी बहुत बड़ी विजय है। बहस का एक सामान्य तरीका होता है। जब हमें किसी की निन्दा करनी होती है, तो पहले हम उनकी थोड़ी-सी चतुर तारीफ कर देते हैं। इस पद में गोपियों ने ठीक इसी युक्ति का उपयोग किया।
महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ
काँचे : कच्चे
गौन : प्रस्थान, गमन
नवाए : झुकाना
स्वांग : अभिनय
3.3
ऊधो तुम हो अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी।।
पुरइनि –पात रहत जल –भीतर ता रस देह न दागी।
ज्यों जल माहँ तेल की गागरि बूँद न ताके लागी।।
प्रीति –नदी में पाँव न बोरयो,दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी।।
गोपियाँ उद्धव पर व्यंग्य करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! तुम तो बहुत भाग्यशाली हो। जो समस्त प्रेम सूत्रों से दूर हों। इतना ही नहीं, किसी पर तुम्हारा मन अनुरक्त भी नहीं है। गोपियाँ प्रेम की पीड़ा और आनन्द से परिचित हैं। कृष्ण गोपियों से प्रेम करते थे और गोपियाँ कृष्ण से। कृष्ण गोपियों को छोड़कर मथुरा चले गए और जाने के बाद उनकी सुध भी नहीं ली। कृष्ण के इस व्यवहार से आहत गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! अच्छा ही है कि तुम प्रेम में मिलने वाली पीड़ा से पीड़ित नहीं हो, यह तुम्हारा भाग्य है। लेकिन गोपियाँ मन ही मन कहती हैं कि तुम अत्यन्त अभागे हो क्योंकि तुमने अभी तक जीवन में प्रेम रस का पान ही नहीं किया है। जीवन में प्रेम सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। जिस व्यक्ति के मन में प्रेम नहीं है, उसका जीवन कितना निःसार है, गोपियाँ इस बात को जानती हैं। इसलिए वे आगे कहती हैं कि तुम्हारी दशा तो पानी में रहने वाले कमल के पत्ते की तरह है जो पानी में रहने के बाद भी उससे होने वाले दाग से रहित है ( सामान्य रूप से किसी भी पत्ते को पानी में रखा जाये तो उस पर पानी का असर होता है। उस पर दाग लग जाता है लेकिन कमल के पत्ते पर पानी का असर नहीं होता।) हे उद्धव! तुम तो कृष्ण के समीप रहते हो। इसके बावजूद कृष्ण के प्रेम का रंग तुम पर नहीं चढ़ा। अर्थात उनके प्रेम से अनासक्त हो। यही नहीं, जिस प्रकार तेल की गगरी को पानी में डुबाने पर उस पर पानी की बूँदों का कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार तुम्हारा मानस भी तेल की गगरी के समान है, जिस पर प्रेम की एक बूँद भी नहीं रुकती। तुम हम गोपियों को कृष्ण से प्रेम न करने की सलाह दे रहे हो। तुम प्रेम सम्बन्धों को क्या जानो? जिसने कभी अपने पाँव प्रेम की नदी में निमज्जित नहीं किया है अर्थात तुमने तो कभी प्रेम ही नहीं किया है। तुम प्रेम के विषय में क्या जानो? न ही कृष्ण के सौन्दर्य पर तुम्हारी दृष्टि अनुरक्त हुई है।
गोपियाँ आगे कहती हैं कि जिस प्रकार चींटी गुड़ से प्रेम करती है। उससे लिपटने के बाद चींटी बाहर नहीं निकल सकती और अगर वह गुड़ पर लिपटी रही तो भी उसकी मृत्यु निश्चित है। लेकिन मृत्यु के भय से वह गुड़ का साथ नहीं त्यागती है। उसी प्रकार हम गोपियाँ भी कृष्ण के प्रेम बन्धन में लिपट गई हैं। हम पगली और भोली-भाली अबलाएँ है, जो कृष्ण से चींटी के समान ही प्रेम करती हैं। हम कृष्ण का प्रेम नहीं भूल सकती हैं।
महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ
अपरस : अनासक्त होना
सनेहतगा: स्नेह का धागा
भोरी : भोली
पागी : चिपट जाना
3.4.
निर्गुण कौन देस को बासी?
मधुकर हँसि समुझाय, सौंह दै बुझाति साँच, न हाँसी।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी ?
कैसो बरन, भेष है कैसो केहि रस कै अभिलाषी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे कहैगो गाँसी।
सुनत मौन है रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी।।
गोपियाँ कृष्ण का सन्देश लेकर आए उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! तुम यह बताओ कि जिस निर्गुण ब्रह्म को अपनाने की बात तुम कर रहे हो वह तुम्हारा निर्गुण किस देश का वासी है अर्थात उसका निवास स्थान क्या है? हम मजाक नहीं कर रही हैं। तुमसे कसम दे कर पूछ रही हैं कि बताओ इस निर्गुण के माता –पिता कौन है? इसकी स्त्री कौन है और कौन इसकी दासी है? तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म का रूप रंग क्या है? वह कौन-सी वेशभूषा धारण करता है और वह किस रस का अभिलाषी है? हम जिस कृष्ण को प्रेम करते हैं उसके निवास स्थान, माता पिता का भी हमें पता है। हमारे प्रिय श्याम रंग के हैं और वे पीताम्बर वस्त्र धारण करते हैं। किसी भी व्यक्ति को जानने के लिए प्राथमिक प्रश्न ये ही पूछे जाते हैं। इसमें गोपियाँ कोई भारी-भरकम दार्शनिक प्रश्न नहीं पूछ रही हैं। दर्शन तो उनको आता ही नहीं। आम आदमी से पहले प्रश्न होता है कि आपका निवास स्थान कहाँ है ? दर्शन के प्रश्न को लौकिक स्तर पर लाना और फिर उसी स्तर पर रखना, तथा अपनी नादान छवि बनाए रखना अपने आप में बड़ी भारी कला है। गोपियाँ इसी का इस्तेमाल करती हैं और उद्धव एकदम चुप हैं।
इन बातों को पूछते–पूछते गोपियों का तीखा व्यंग्य अमर्ष भाव में बदल जाता है। वे कहने लगती हैं कि हे उद्धव! अब तुम हमारे हृदय को चोट पहुँचाने वाली बात कहना बन्द करो, अन्यथा तुम्हें तुम्हारी करनी का फल मिलेगा। गोपियों की ऐसी बातों को सुनते ही उद्धव ठगे से रह गए और चुप हो गए। उनसे कुछ कहते नहीं बना। वे गोपियों के कृष्ण के प्रति प्रेम, निष्ठा और भक्ति को देखकर स्तम्भित रह गए।
महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ
सौंह : कसम
बरन : रंग
ठ्ग्यो: ठगा हुआ
नासी : नष्ट हो गई
- निष्कर्ष
भ्रमरगीत प्रकरण में सूरदास ने गोपियों के विरह का वर्णन किया है तथा गोपियों की तरफ से कृष्ण को उपालम्भ दिया है। इस उपालम्भ की विशेषता यह है कि गोपियाँ सब कुछ कहने-सुनने के बाद भी कृष्ण से अपने प्रेम को स्थापित करती हैं। उद्धव निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देते हैं,परन्तु गोपियाँ उनके मत का खण्डन नहीं करतीं, वरन् अपनी असमर्थता बताती हैं और इस तरह उद्धव को बिना नाराज़ किए उनके मत को अमान्य कर देती हैं। इसी कारण उद्धव, जो कृष्ण के दूत बनकर आए थे, वे जाते समय गोपियों के दूत बन जाते हैं। यह गोपियों की कला है
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- भ्रमरगीत सार , रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा, वाराणसी
- सूर साहित्य, हजारी प्रसाद द्विवेदी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली, मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा, बनारस
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B0
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- http://hindinest.com/bhaktikal/02452.htm
- https://vimisahitya.wordpress.com/category/2-%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2/
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