8 निर्गुण भक्तिधारा : प्रतिरोध और सामाजिक रूपान्तरण

अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार

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1.   पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • निर्गुण भक्ति-धारा में मौजूद प्रतिरोध के स्वरूप को समझ सकेंगे।
  • निर्गुण भक्ति-धारा का सामाजिक-सांस्कृतिक महत्त्व पहचान सकेंगे।
  • समय के साथ निर्गुण भक्ति-धारा में आए परिवर्तनों को रेखांकित कर सकेंगे।
  • निर्गुण धारा के रूपान्तरण में मध्यकालीन गतिशील सामाजिक-सांस्कृतिक शक्तियों की भूमिका जान सकेंगे।
  • निर्गुण भक्ति काव्य का मूल्यांकन कर सकेंगे।

   2.   प्रस्तावना

 

निर्गुण भक्ति‍-धारा मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन का सबसे प्रगतिशील स्वर है। इसमें मौजूद प्रतिरोध का स्वर आधुनिक चेतना के बहुत निकट है। सामाजिक-सांस्कृतिक असमानता और रूढ़ियों की कड़ी आलोचना इसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बना देती है। परन्तु यह स्वर समय के साथ बदलने लगा। इसके सामाजिक रूपान्तरण का प्रभाव इसकी सामाजिक स्वीकृति पर भी पड़ा, और प्रतिरोध के स्वर पर भी। ऐसे में निर्गुण भक्ति-धारा में मौजूद प्रतिरोध का स्वरूप जानना जरूरी है। इस प्रतिरोधी स्वर की प्रासंगिकता, इसके सामाजिक सरोकार, निर्गुण भक्ति-धारा के सामाजिक रूपान्तरण के कारक, और सामाजिक रूपान्तरण का निर्गुण-धारा की प्रतिरोधी चेतना पर प्रभाव जानना बहुत जरूरी है।

 

3.   निर्गुण भक्ति-धारा में प्रतिरोध का स्वर

 

निर्गुण भक्ति-धारा को अन्य भक्ति-धाराओं से खास पहचान दिलाने वाली विशेषता उसकी प्रतिरोधी चेतना है। निर्गुण साहित्य में मौजूद प्रतिरोध के स्वर ने रामचन्द्र शुक्ल को भी अपनी पहचान करा दी थी। निर्गुण धारा के प्रति नकारात्मक दृष्टि रखने के बावजूद उन्होंने हिन्दी साहित्य में इस स्वर को रेखांकित करते हुए लिखा कि, “बहुदेवोपासना, अवतार और मूर्तिपूजा का खण्डन ये मुसलमानी जोश के साथ करते थे और मुसलमानों की कुरबानी (हिंसा), नमाज, रोजा आदि की असारता दिखाते हुए ब्रह्म, माया, जीव, अनहद नाद, सृष्टि, प्रलय आदि की चर्चा पूरे हिन्दू ब्रह्मज्ञानी बनकर करते थे।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 45, लोक भारती प्रकाशन, इलाहबाद) मध्यकाल में जाति-व्यवस्था, धर्म की तरह ही बहुत ताकतवर थी। कुछ विचारक यह आरोप लगाते हैं कि कबीर, दादू आदि निर्गुण सन्तों ने कहीं भी राजा या सम्राट का विरोध नहीं किया। इनका प्रतिरोध सिर्फ जाति और धर्म को लेकर था। जब वे इतने उग्र थे तो तत्कालीन मुस्लिम शासकों के प्रति उदार क्यों थे? हालांकि इन कवियों ने कभी किसी राजा का आश्रय ग्रहण नहीं किया। डॉ. रामबक्ष का मत है कि निर्गुण सन्त सूफी कवियों की भाँति तत्कालीन मुस्लिम शासकों के समर्थक नहीं थे। “यदि ऐसा होता तो वे भी सूफ़ी कवियों कि भाँति अपने ग्रन्थ के आरम्भ में तत्कालीन सम्राट की प्रशंसा करते। ऐसा उन्होंने किसी स्थान पर नहीं किया है। उनकी रचनाओं में राज कर्मचारियों की प्रशंसा में एक साखी भी नहीं मिलती है, हालांकि उनका विरोध उग्र या मुखर भी नहीं है। यह विरोध बड़े आए-गए ढंग से प्रच्छन्‍न रूप से किया हुआ है।”(रामबक्ष, दादू दयाल, पृ. 97, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली)     हालांकि जातीय दमन का अत्यन्त मुखर प्रतिरोध इन कवियों ने किया है। दादू दयाल ने एकाध स्थान पर ‘छत्रपति सिरिमौर’ धारण करने वाले बादशाह को ‘कागद का माणस’ कहा है और समाज को निर्भय रहने का उपदेश दिया है। निर्भयता यदि जीवन मूल्य है तो यह निर्भयता राजसत्ता के आतंक के खिलाफ है। सूफियों ने भी तत्कालीन शासकों के सामने प्रेम का आदर्श रखा था। प्रेम का यह सूफी आदर्श भी दमनकारी सम्राटों को मानवीय बनाने का प्रयास ही है। इस रूप में सूफी काव्य भी सत्ता का उतना समर्थक प्रतीत नहीं होता।

 

निर्गुण कवि कहते है कि ईश्‍वर का न कोई रूप है, न रंग। न उसकी वेशभूषा है और न उसका कोई स्थान। वह तो सब प्रकार के गुणों और पहचान के चिन्हों से परे है। यदि ईश्‍वर ऐसा है तो उसकी न तो कोई मस्जिद हो सकती  है न कोई मन्दिर। जब आप मन्दिर-मस्जिद की अवधारणा से असहमत हैं तो आपका प्रतिरोध उस संगठित कर्म से हो जाता है, जो ईश्‍वर का एक स्थान तय करता है। फिर उस स्थान की पूजा-आराधना होती है। आराधना की पद्धतियाँ निश्‍च‍ित की जाती है। फिर उसका एक पुजारी होता है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं तो पूजा नहीं कर सकता। एक मन्दिर में एक पुजारी होगा या अनेक होंगे। उन पुजारियों की व्यवस्था होगी। भगवान को भेंट दी जाएगी। प्रसाद वितरित किया जाएगा। यह सब काम पुजारी के माध्यम से सम्पन्‍न होगा। इसके लिए व्रत होगा। उपवास होगा। रोजा रखा जाएगा। भगवान को प्रसन्‍न करने के लिए अनेक क्रिया-कलाप निश्‍च‍ित किए जाएँगे। फिर एक पुस्तक होगी या अनेक पुस्तकें होगी। उसमें ईश्‍वर सम्बन्धी विवेचन होगा। कुरान में सब लिखा हुआ रहेगा। वेद अन्यों को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा।

 

धर्म और समाज का यह सारा तन्त्र इस एक अवधारणा से निरस्त हो जाता है कि ईश्‍वर तो निर्गुण है और वह सर्वव्यापी है। सिर्फ मन्दिर में नहीं रहता। वह तो घट-घट व्यापी है। सभी मनुष्यों में रहता है। तो सभी मनुष्य समान है। इस ईश्‍वर को भक्ति द्वारा, प्रेम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

 

3.1. जाति और वर्ण भेद का विरोध

 

इसी दर्शन के आधार पर निर्गुण भक्ति-साहित्य में जाति के आधार पर मनुष्य को ऊँचा-नीचा मानने का प्रतिरोध किया गया है। सन्त कवि ब्राह्मण वर्ग के ब्रह्मा के मुख से पैदा होने वाले सिद्धान्त को चुनौती देते हुए पूछते हैं कि –                     

 

जे तू बाँभन बभनी जाया, तो आँन बाँट ह्वै काहे न आया।।

(पद-41, श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, सं-2054, पृ. 79)

 

सन्तों ने बताया कि सब एक ही तरह के अवयवों से युक्त शरीर वाले हैं। सब एक ही ज्योति से पैदा हुए हैं। फिर कौन ब्राह्मण और कौन शूद्र?                  

 

एक बूँद एके मल मूतर, एक चाँम एक गूदा।

एक जोति थैं सब उतपनों कौन बरुन कौन सूदा।। (पद-156)

 

एक ईश्‍वर की सन्तानों में कोई ऊँचा, कोई नीचा नहीं हो सकता है। इसलिए छुआछूत बरतना गलत है। वे ब्राह्मणों के छुआछूत व्यवहार की आलोचना करते हैं –

 

काहे को कीजै पाण्डे छूत विचार।

छूतही ते उपजा सब संसार।।

 

कबीर के अलावा अन्य निर्गुण सन्तों के यहाँ जातिवादी निम्‍नता का प्रतिरोध अपराजेय आत्मविश्‍वास के रूप में सामने आया। सन्तों ने अपनी जाति और उसके कारण नीच समझे जाने को अपने दोष की तरह छुपाया नहीं। उसके विपरीत उन्होंने अपनी जाति का स्पष्ट उल्लेख कर मानो स्वयं को जाति और वर्ण के कारण ऊँचा मानने वालों को बेहतर भक्त होने की चुनौती दे डाली। रैदास ने अपनी जाति और परिजन का उल्लेख करते हुए लिखा कि –

 

ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार

 

(हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, सन् 2013, पृ. 53)

 

निर्गुण सन्तों के रूप में जाति और वर्ण भेद सम्बन्धी प्रतिरोध के स्वर के नए आधार बौद्धों, सिद्धों के यहाँ मिल गए। इस प्रतिरोध का प्रसार और प्रभाव दूर और देर तक हुआ।

 

3.2. धार्मिक भेदभाव का खण्डन

 

भेदभाव से मुक्ति की आकांक्षा में जाति और वर्ण-भेद के साथ ही निर्गुण भक्ति-धारा ने धर्म आधारित भेदभाव के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलन्द की। धार्मिक असमानता के प्रतिरोध का इनका स्वर अत्यन्त पैना और तीखा है। यह अकारण नहीं है कि जनश्रुतियाँ, मुल्लाओं और पण्डितों को कबीर के खिलाफ खड़ा दिखाती हैं। कबीर का धार्मिक भेदभाव, अन्धविश्‍वास और रूढ़ियों के खिलाफ स्वर कट्टरपन्थी हिन्दू और मुसलमानों को तिलमिला देने वाला है। इन आलोचनात्मक पदों की खासियत यह है कि एक ही पद में दोनों धर्मों की समभाव से आलोचना मिलती है। इन्हें हिन्दू और इस्लाम दोनों एक समान प्रिय या अप्रिय हैं। प्रेम क्या निन्दा में भी निर्गुण भक्ति हिन्दू-मुसलमान में भेद नहीं करती है। कबीर का एक पद है –     

 

अरे इन दोउन राह न पाइ।

हिन्दू अपनी करै बड़ाई, गागर छुवन न देई।

वेश्या के पायन तर सोवैं, यह देखी हिन्दुवाई।

मुसलमान के पीर औलिया, मुरगा-मुरगी खाई।

खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहि में करैं सगाई।

हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।

कहै कबीर सुनौ भाई साधौ, कौन राह है जाई।

 

हिन्दू छूत मानते हैं, मगर वेश्यागामी भी हैं। मुसलमानों के धर्मगुरु ही जीव हिंसा करने वाले होते हैं और निकट-सम्बन्धियों से शादी करने वाले होते हैं। निर्गुण सन्त आडम्बर, अन्धविश्‍वास, कर्मकाण्ड ही नहीं, कुरीति और अनाचार के लिए भी दोनों धर्म के अनुयायियों को एक ही भाव से धिक्‍कारते हैं। दोनों धर्मों के अनुयायियों की बुराइयाँ दिखाकर सन्तों ने उन्हें सही राह पर चलने को कहा। हिन्दुओं की मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए कबीर लिखते हैं –

 

पाहन पूजे हरी मिले, तो मैं पूजू पहाड़!

घर की चक्‍की कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार।।

 

पत्थर पूजने से यदि ईश्‍वर मिल सकता है तो पहाड़ को ही पूज लिया जाना चाहिए। यदि ऐसा न कर सकें तो पत्थर की बनी घर की चक्‍की है, उसे क्यों भुलाया जाए, जिसका पीसा हुआ अन्‍न हम रोज खाते हैं। मूर्तिपूजा पर किए गए ऐसे कटाक्षों में भी एक तर्क है। इसी तर्क आधारित व्यंग्य शैली में कबीर ने मुसलमानों द्वारा अल्लाह को प्रसन्‍न करने के लिए नमाज अदा करने, फिर जीव हिंसा करने पर कटाक्ष किया है। कबीर ने लिखा कि कंकड़ पत्थर जोड़ कर मस्जिद बनाते हो। उस पर चढ़कर मुर्गे की तरह नियत समय पर बांग देकर अल्लाह को की तरह चिल्लाकर बुलाते हो। क्या खुदा बहरा हो गया है?

 

कांकर पाथर जोरिके, मस्जिद लई चुनाय।

ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।

 

कबीर ने हिन्दू और इस्लाम, दोनों धर्मों की एक ही पद में आलोचना करके उनमें एकता स्थापित करने का मार्ग बनाया है। यह जनसाधारण तक पहुँच चुकी समानता की स्वीकृति थी। इसलिए उनके यहाँ प्रायः हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ आते हैं। अलग-अलग पदों और एक ही पद में दोनों धर्मों की आलोचना हम देख चुके हैं। सूक्ष्म स्तर के रूप में इस आन्तरिक स्वीकृति को हम एक ही पंक्ति में दोनों धर्मों के समावेशन के साथ देख सकते हैं। कबीर लिखते हैं कि –

 

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।

 

हिन्दू को राम और तुर्क (मुसलमान) को रहीम प्यारे हैं। दोनों आपस में लड़कर मर रहे हैं,  लेकिन मर्म कोई न समझ सके। यह मर्म (रहस्य) राम रहीम के ऐक्य में है। दो नाम सुनकर भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं है।

 

राम-रहीमा एक है, नाम धराया दोय।

कहै कबीरा दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।।

 

वे यह भी कहते हैं कि राम, रहीम की एकता को पापियों (बदमाशों) ने दो बना दिया है। जाहिर है कि इससे धर्म के ठेकेदारों का स्वार्थ सिद्ध होता है। इसलिए निर्गुण सन्त पण्डितों और मौलवियों के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर रचते हैं।

 

3.3. शोषण और विवेकहीनता की आलोचना

 

निर्गुण भक्ति-धारा ने जाति और धर्म से जुड़ी तर्कहीन मान्यताओं का प्रतिरोध कर समानतापरक समाज के निर्माण का स्वप्‍न देखा। रूढ़ियाँ और अन्धविश्‍वास इस मार्ग के बड़े बाधक थे। धार्मिक ही नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी इन्होंने अनेक कर्मकाण्डों और कुरीतियों को जन्म दे दिया था। ये कुरीतियाँ और कर्मकाण्ड तर्कहीन थे, फिर भी समाज में प्रचलित थे। ये प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक विषमता के पोषक थे। निर्गुण सन्तों ने विवेक की कसौटी पर खरा न उतरने वाली सारी सामाजिक परम्पराओं, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों, विश्‍वासों, मान्यताओं आदि का प्रतिरोध किया। जाति, धर्म और राज-सत्ता मध्ययुगीन समाज में सबसे प्रभावी सामाजिक अभिकरण थे। ऐसे में सामाजिक दुर्दशा की जिम्मेदारी भी इन्हीं की थी। सन्तों के विवेक ने इनकी अतार्किकता और शोषक चरित्र के खिलाफ प्रतिरोध का बिगुल बजाया। उनके प्रतिरोध के स्वर का तेवर द्रष्टव्य है –

 

कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ।

जो घर जारे आपना सो चले हमारे साथ॥

 

स्व की सीमाओं से मुक्त यह स्वर शोषकों का शत्रु है, और निर्बलों का हितैषी। वे निर्बलों को सताने वालों को आगाह करते हैं –

 

निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय।

बिना जीव के साँस से ज्यों लौह भस्म हुई जाय॥

 

मध्ययुगीन समाज विवेकहीन धार्मिक-सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को जीवन-मूल्य बनाए हुए थे। निर्गुण सन्तों ने बहुत से मूल्यों को तोड़कर, नए मूल्य की स्थापना का आह्वान किया। उन्होंने अन्धविश्‍वासों की आलोचना किसी खास जाति और धर्म के दायरे से मुक्त होकर की है। मन्दिर-मस्जिद, तीर्थाटन, व्रत, उपवास का विरोध करते हुए कबीर ने लिखा यदि खुदा मस्जिद में तथा राम मूर्तियों और तीर्थों में बसते हैं, तो बाकी मुल्क या चीजों में किसका वास है?

 

जौ रे खुदाइ मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।

तीरथ मूरति राम निवासा, मैं किन! न हेरा।।

(श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 179)

 

निर्गुण भक्त निरन्तर धार्मिक कर्मकाण्डों और सामाजिक कुरीतियों का प्रतिरोध करते हुए सभी को भक्ति और अध्यात्म का नया रास्ता दिखाते हैं। वे देखते हैं कि कर्मकाण्डों के चक्‍कर में पड़कर सभी अपने राम (ईश्‍वर) से दूर हो गए हैं। कबीर लिखते हैं –

 

देव पूजि पूजि हिन्दू मूये तुरूक मूये हज जाई।

(श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली , पृ. 194)

 

उन्होंने राम से दूर करने और यम के फेर में डालने वाले इन धार्मिक संस्कारों पर करारा व्यंग्य किया है। कबीर मूर्ति पूजकों का मजाक बनाते हुए लिखते हैं –

 

माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया।

जिन्दा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाया।।

 

हिन्दू साँप की मूर्ति बनाकर पूजा करते हैं। जब सचमुच का साँप देखते हैं, तो डर जाते हैं और उसे लाठी लेकर मारने दौड़ते हैं। मुसलमान दिन में रोजा रखते हैं, और रात को जीव हिंसा करते हैं। वे जीव हिंसा करने वालों पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं कि घास खाने वाली बकरी की तो खाल काढ़ ली जाती है। जो बकरी खाते हैं उनका हाल क्या होगा?

 

बकरी पाती खात है, ताको काढ़ी खाल।

जे जन बकरी खात है, ताको कौन हवाल॥

 

निर्गुण भक्तिधारा के स्वर में ब्राह्मणों के छुआछूत विचार करने और समाज के बड़े तबके को भक्ति और धार्मिक संस्कारों से वंचित रखने के विरुद्ध प्रतिरोध भरा है। इस प्रतिरोध में शोषित और वंचित तबके के लिए न्याय, सम्मान और सहानुभूति का भाव है। कुछ तबके, मुख्य तथा स्‍त्री के शोषण और स्थिति के खिलाफ प्रतिरोध के स्वर का निर्गुण भक्ति-धारा में भी अभाव है।

 

4.   निर्गुण भक्ति-धारा का सामाजिक रूपान्तरण

 

निर्गुण भक्ति-धारा की उत्पत्ति सामाजिक रूपान्तरण से सम्बद्ध थी। उसने प्रतिरोधी तेवर अपनाकर जड़ीभूत सामाजिक व्यवस्था को बदलने पर मजबूर किया। उसके समय की गतिशील सामाजिक सांस्कृतिक शक्तियों ने उसके द्वारा शुरू की गई सामाजिक रूपान्तरण की प्रक्रिया को प्रभावित किया। एक तरफ तो इन शक्तियों ने निर्गुण-धारा की वैचारिकता के अनुसार समाज को बदलना शुरू किया, तो दूसरी तरफ उसने निर्गुण विचारधारा के स्वरूप और तेवर को भी बदला। निर्गुण प्रतिरोध की परम्परा सिद्धों, नाथों आदि योगियों की सांस्कृतिक विरासत का नवीन प्रस्फुटन है। हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं –

 

“यदि निर्गुणमतवादी सन्तों की वाणियों की बाहरी रूपरेखा पर विचार किया जाए तो मालूम होगा कि यह सम्पूर्णतया भारतीय है, और बौद्ध धर्म के अन्तिम सिद्धों और नाथपन्थी योगियों के पदादि से उसका सीधा सम्बन्ध है। वे ही पद, वे ही राग-रागिनियाँ, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की हैं, जो उक्त मत के मानने वाले उनके पूर्ववर्ती सन्तों ने की थीं। क्या भाव, क्या भाषा, क्या अलंकार, क्या छन्द, क्या पारिभाषिक शब्द, सर्वत्र वे ही कबीरदास के मार्गदर्शक हैं। कबीर की ही भांति ये सन्त नाना मतों का खण्डन करते थे, सहज और शून्य में समाधि लगाने की बात करते थे, दोनों में गुरु की भक्ति करने का उपदेश देते थे। इन दोहों में गुरु को बुद्ध से भी बड़ा बताया गया था और ऐसे भाव कबीर में भी भरपूर मिलते हैं, जहाँ गुरु को गोविन्द के समान ही बताया गया है। सद्गुरु शब्द सहजयानियों, वज्रयानियों, तान्त्रिकों, नाथपन्थियों में समान भाव से समादृत है।” (पृ. 135-36)

 

बौद्ध सिद्ध नाथ आदि भारतीय समाज के रूपान्तरण की प्रक्रिया के ही परिणाम हैं। निर्गुण भक्ति-धारा इसी परम्परा से जुड़ी है। सामाजिक रूपान्तरण को प्रभावित करने वाली गतिशील सामाजिक सांस्कृतिक शक्तियों में समाज के उच्‍च वर्ग की निर्णायक भूमिका है। उच्‍च वर्ग ने निर्गुण भक्ति-धारा की प्रतिरोधी चेतना से क्रिया-प्रतिक्रिया की, और उसके स्वर को प्रभावित किया। आगे हम निर्गुण वर्ग के सामाजिक रूपान्तरण में उच्‍च वर्ग की भूमिका समझने की कोशिश करेंगे। हम यह भी देखेंगे कि उसने निर्गुण मत की प्रतिरोधी-चेतना को कितना प्रभावित किया और स्वयं उससे कितना प्रभावित हुई।

 

निर्गुण वाणी उच्‍च वर्ग को नापसन्द थी, लेकिन उसकी जनस्वीकृति ने उच्‍च वर्ग के लोगों को उसे अपनाने पर मजबूर कर दिया। इतना जरूर हुआ कि उन्होंने निर्गुण भक्ति के सामाजिक क्रान्तिकारी रूप के बजाय उसके धार्मिक-आध्यात्मिक रूप को स्वीकार किया। निर्गुण भक्ति साहित्य के इस प्रतिरोध का प्रतिरोध करने के लिए सगुण कवि आगे आए। सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों ने भ्रमरगीतों के माध्यम से निर्गुण भक्ति के दार्शनिक तत्त्वों का खण्डन किया। इसके बाद गोस्वामी तुलसीदास ने अपने समन्वयवादी दृष्टिकोण से निर्गुण भक्ति को सगुण में समाहित कर लिया। इसी तरह समाज में इन सभी निर्गुण सन्तों को प्रतिष्ठा मिल गई। उनकी मूर्तिपूजा होने लगी, उनके मन्दिर बनने लगे और वे सब सन्त भी उसी भारतीय परम्परा में समाहित हो गए, जिस परम्परा का इन्होंने जोर-शोर से प्रतिरोध किया था।

 

4.1. सामाजिक रूपान्तरण का प्रतिरोधी स्वर पर प्रभाव

 

निर्गुण भक्ति-धारा अपने प्रतिरोधी स्वर के कारण सामाजिक विकास की दृष्टि से सर्वाधिक क्रान्तिकारी धारा थी। उच्‍च वर्ग के विरोध ने इस प्रतिरोध के स्वर को और तीखा किया। इससे उसकी निम्‍न वर्ग में पैठ बढ़ती गई। सामाजिक रूपान्तरण की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसमें निम्‍न वर्ग ने उच्‍च वर्ग को हर क्षेत्र में चुनौती देनी शुरू की। उन्होंने अपने भक्ति मार्ग का निर्माण किया, अपने सन्त बनाए और अपना शास्‍त्र-विधान रचना शुरू किया। निर्गुण वाणी से जाग्रत जनशक्ति का बोध होने पर उच्‍च वर्ग द्वारा भी इन सन्तों को मान्यता मिल गई। इस सामाजिक स्वीकृति का प्रतिरोधी स्वर पर घातक प्रभाव पड़ा। मुक्तिबोध लिखते हैं कि “तब तक कट्टरपन्थी शोषक तत्त्वों में यह भावना पैदा हो गई थी कि निम्‍नजातीय सन्तों से भेदभाव अच्छा नहीं है। अब ब्राह्मण-शक्तियां स्वयं उन्हीं सन्तों का कीर्तन-गायन करने लगीं। किन्तु इस कीर्तन-गायन के द्वारा वे उस समाज की रचना को, जो जातिवाद पर आधारित थी, मजबूत करती जा रही थीं।” (नेमिचन्द्र जैन (सं.), मुक्तिबोध ग्रन्थावली, खण्ड-5, राजकमल प्रकाशन,  नई दिल्ली, संस्करण-1998, पृ. 290)

 

उच्‍च वर्ग ने एक तरफ तो निर्गुण सन्तों को स्वीकार कर लिया, दूसरी तरफ उनके क्रान्तिकारी सन्देशों पर लगातार हमले किए। कबीर के बाद सूर और तुलसी के साहित्य में न केवल निर्गुण मार्ग पर हमला किया गया, बल्कि जोर-शोर से जाति और वर्ण आधारित समाज की स्थापना की गई। निर्गुण पन्थ ने भी सामाजिक स्वीकृति को लेकर अपने क्रान्तिकारी मार्ग को छोड़ दिया। श्यामसुन्दर दास सन्तों के बारे में लिखते हैं कि “सबने नाम शब्द, सद्गुरु आदि की महिमा गाई है और मूर्तिपूजा, अवतारवाद तथा कर्मकाण्ड का विरोध किया है तथा जाति-पाति का भेद-भाव मिटाने का प्रयत्‍न किया है। परन्तु हिन्दू जीवन में व्याप्‍त सगुण भक्ति और कर्मकाण्ड के प्रभाव से इनके परिवर्त्तित मतों के अनुयायियों द्वारा वे स्वयं परमात्मा के अवतार माने जाने लगे हैं और उनके मतों में भी कर्मकाण्ड का पाखण्ड घुस गया है। कई मतों में केवल द्विज लिए जाते हैं। केवल नानक देव का चलाया सिक्ख सम्प्रदाय ही ऐसा है जिसमें जाति-पाति का भेद नहीं आने पाया, परन्तु उसमें भी कर्मकाण्ड की प्रधानता हो गई है और ग्रन्थसाहब का प्राय: वैसा ही पूजन किया जाता है जैसा मूर्तिपूजक मूर्ति का करते हैं। कबीरदास के मनगढ़न्त चित्र बनाकर उनकी पूजा कबीरपन्थी मठों में भी होने लग गई है और सुमिरनी आदि का प्रचार हो गया है।” (श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, प्रस्तावना) इस तरह हम देखते हैं कि सामाजिक रूपान्तरण की प्रक्रिया में निर्गुण मत अधिक स्वीकृत हुआ किन्तु अपने लक्ष्य से दूर हो गया।

 

5.   निष्कर्ष

 

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि जन्म आधारित भेदभाव का विरोध, वर्ण और जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था की निन्दा, रूढ़ियों, अन्धविश्‍वासों, बाह्याचारों, कर्मकाण्डों, आडम्बर आदि की आलोचना निर्गुण भक्ति-धारा के प्रतिरोध के स्वर के मुख्य रूप हैं। निम्‍न जाति से आए निर्गुण भक्तों के साहित्य में शोषण और भेदभाव की कड़ी आलोचना की गई है। उसके प्रतिरोध के क्रान्तिकारी स्वर ने उसे निम्‍न वर्ग में बहुत लोकप्रिय बना दिया। जाग्रत निम्‍न वर्ग की शक्ति और स्वीकृति देखकर उच्‍च वर्ग ने भी अपना प्रतिरोध त्यागकर सन्तों को अपना लिया। किन्तु उससे निर्गुण मत के क्रान्तिकारी सन्देश प्रभावहीन हो गए और वह सामाजिक परिवर्तन के स्वर से भक्ति के एक और स्वर के रूप में ढल गई।

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. मुक्तिबोध ग्रन्थावली, नेमिचन्द्र जैन (सं.), खण्ड-5, राजकमल प्रकाशन,  नई दिल्ली
  4. हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  5. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. दादू दयाल , रामबक्ष, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
  8. कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक – डॉ. श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
  9. हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रप्दाय, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ,
  10. कबीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

 

वेब लिंक्स

  1. https://senjibqa.wordpress.com/
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  3. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3_%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE:_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  5. https://www.youtube.com/watch?v=VeVGp2lJRno
  6. https://www.youtube.com/watch?v=reGUocNPvbk