7 निर्गुण और सगुण मत : सामाजिक अन्तर्विरोध

अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार

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1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • निर्गुण मत के सामाजिक सरोकार समझ सकेंगे।
  • सगुण भक्तों और साहित्य के सामाजिक पक्ष जान सकेंगे।
  • भक्तिकाव्य के सामाजिक पहलू सम्बन्धी हिन्दी आलोचकों के विचारों से अवगत हो सकेंगे।
  • जाति, वर्ण, धर्म, लिंग सम्बन्धी निर्गुण एवं सगुण मत के वैचारिक अन्तर्विरोध से परिचित हो सकेंगे।
  • सत्ता और समाज सम्बन्धी सगुण और निर्गुण मतों के विचारों की तुलना कर सकेंगे।

    2. प्रस्तावना

 

भक्ति काव्य के सभी रूपों का अपने समय के समाज से गहरा सम्बन्ध है। विभिन्‍न भक्त कवियों और उनकी कविता का समाज से अलग-अलग तरह का सम्बन्ध है। निर्गुण सन्त राम-भक्त कवियों से भिन्‍न तरह के सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए हैं। सूफी साधकों और कृष्ण भक्तों के समाज से अलग तरह के रिश्ते हैं। यह अलगाव कहींकहीं अन्तर्विरोध के रूप में भी मिलता है। भक्ति-काव्य की सगुण और निर्गुण धारा में जीवन और साहित्य दोनों स्तरों पर अनेक अन्तर्विरोध मिलते हैं। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि निर्गुण और सगुण मतों के सामाजिक सरोकार क्या हैं? उनमें कैसी समानताएँ और कैसे अन्तर्विरोध हैं? इन अन्तर्विरोधों के कारण क्या हैं? इनका रचनाकारों के जीवन और रचना से कैसा सम्बन्ध है? इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर भक्तिकाल के अन्तर्गत ‘निर्गुण और सगुण मत- सामाजिक अन्तर्विरोध’ पर विचार किया गया है।

 

3. निर्गुण और सगुण मत के सामाजिक अन्तर्विरोध का स्वरूप

 

सगुण मत के समर्थक समाज को वर्ण और जाति व्यवस्था के आदर्श के अनुरूप बनाना चाहता है, जबकि निर्गुण मत वर्ण और जाति व्यवस्था को समाप्त करने की आकांक्षा रखता है। इसी कारण निर्गुण साहित्य में उच्‍च वर्ण और जाति पर चोटें की गई हैं; वहीं सगुण साहित्य में निर्गुण मत पर आघात किया गया है। दोनों तरह के मत भक्ति को सर्वोच्‍च महत्त्व देते हैं। दोनों लोक-मंगल की स्थापना का लक्ष्य लेकर चलते हैं। आदर्श सामाजिक व्यवस्था का लक्ष्य दोनों मतों में दिखाई पड़ता है। इसके बावजूद दोनों में वैचारिक स्तर पर अंतर्विरोध मिलते हैं। इस अन्तर्विरोध के धार्मिक, आध्यात्मिक,सांस्कृतिक, और सामाजिक आयाम भी हैं। सामाजिक अन्तर्विरोध जाति और वर्ण सम्बन्धी चिन्तन में, धर्म सम्बन्धी दृष्टिकोण में, सत्ता संरचना सम्बन्धी स्वप्‍न में, निम्‍नवर्गीय समाज और स्‍त्रि‍यों के प्रति अपनाए गए रवैये में देखा जा सकता है।

 

3.1. जाति और वर्ण

 

जाति और वर्ण सम्बन्धी निर्गुण और सगुण मत के चिन्तन के रूप में भक्तिकालीन साहित्य का सबसे तीखा अन्तर्विरोध मिलता हैं। भक्ति के अधिकारी होने के सवाल पर भक्तिकालीन काव्य में कोई अन्तर्विरोध नहीं है। दोनों मत भक्ति का द्वार सबके लिए खोलते हैं। भक्ति करने के लिए किसी वर्ण या जाति का होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन जैसे ही भक्ति से इतर समाज व्यवस्था की बारी आती है, निर्गुण और सगुण मत का अन्तर्विरोध सामने आ जाता है। सगुण मत की राम-भक्तिधारा को दार्शनिक आधार रामानन्द से मिला था। उनका जाति और वर्ण-सम्बन्धी दृष्टिकोण बताते हुए रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि “भक्तिमार्ग में इनकी उदारता का अभिप्राय यह कदापि नहीं है जैसा कि कुछ लोग समझा और कहा करते हैं कि रामानन्द जी वर्णाश्रम के विरोधी थे। समाज के लिए वर्ण और आश्रम की व्यवस्था मानते हुए वे भिन्‍न-भिन्‍न कर्तव्यों की योजना स्वीकार करते थे। केवल उपासना के क्षेत्र में उन्होंने सबका समान अधिकार स्वीकार किया।”

 

समाज में जाति और वर्ण की भूमिका के प्रश्‍न पर न केवल दोनों मतों के दृष्टिकोण में भिन्‍नता है, बल्कि वे परस्पर विरोधी भी हैं। निर्गुण मत के प्रतिनिधि कवि कबीर जाति और वर्ण के भेद को गलत बताते हुए सबको एक ईश्‍वर की रचना बताते हैं। इसके लिए व्यवहारिक तर्क देते हुए उन्होंने लिखा –

 

एक बून्द एके मल मूतर, एक चाँम एक गूदा ।

एक जोति थैं सब उतपनों कौन बामन कौन सूदा।।

कबीर ब्राह्मण श्रेष्ठता बोध को उसके उत्पत्ति के सिद्धान्त पर चोट करके चुनौती देते हैं –

को ऊँचा नहीं को नहीं नीचा, जाका पिण्ड ताही का सींचा ।।

जे तू बाँभन बभनी जाया, तो आँन बाँट ह्वै काहे न आया।

(श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, सं-2054, पृ. 79)

 

एक ईश्‍वर की सन्तानों में कोई ऊँच, कोई नीच नहीं हो सकता है। इसलिए छुआछूत बरतना गलत है। वे ब्राह्मणों को दूसरों से छूआछूत का व्यवहार करने पर आलोचना करते हुए लिखते हैं-

 

 काहे को कीजै पाँडे छूत विचार।

 छूत ही ते उपजा सब संसार।।

 हमरे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।

 तुम कैसे बाह्मन पाँडे, हम कैसे सूद।।

 

निर्गुण मत के कवि ब्राह्मण और शूद्र के फर्क को समाप्त करने वाला जाति और वर्ण विरोधी मत दे रहे थे, तो सगुण मत के कवि इस भेद को मजबूती प्रदान कर रहे थे। कबीर के विपरीत तुलसीदास जाति और वर्ण की व्यवस्था को कायम रखने की बात कर रहे थे। उन्होंने लिखा है –

 

पूजिअ विप्र सकल गुण हीना। शूद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना।

 

सारे गुण और ज्ञान से युक्त होकर भी शूद्र पूजनीय नहीं है, जबकि ब्राह्मण सब प्रकार से हीन होने पर भी पूजनीय है। वे कलिकाल की बुराइयों में शूद्रों द्वारा अपने को ब्राह्मणों से समान बताने को भी गिनते हैं। रामचरितमानस में वे लिखते हैं कि –

 

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन, हम तुम्हतें कछु घाटि।

जानई ब्रह्म सो विप्रवर, आँख देखावहिं डाँटि।।       

 

इस तरह से एक ही भक्ति धारा के परस्पर विरोधी मत दिखाई पड़ते है।

 

3.2. धर्म

 

भक्तिकाल इस्लाम के भारत में सुदृढ़ होने का दौर है। सगुण मत पर इसका भाषिक स्तर पर तो स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है, किन्तु कथ्य के स्तर पर इस्लाम और अन्य धर्मों का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता है। इसके विपरीत निर्गुण मत की दोनों शाखाओं में इस्लाम प्रभावी रूप में मौजूद है। निर्गुण मत ने इस्लाम को भाषा और शिल्प के प्रभाव के रूप में ही नहीं; कथ्य, चरित्र, और संस्कृति के स्तर पर भी शामिल किया है। सन्त मत ने हिन्दू और मुसलमान के पारस्परिक भेद और संघर्ष की भर्त्सना की है। बाह्याडम्बर और कर्मकाण्ड की निन्दा करते समय भी कबीर ने न हिन्दू को बख्शा न मुसलमान को। उन्होंने दोनों की बुराइयाँ दिखाई, और उन्हें सही राह पर चलने को कहा। हिन्दुओं की मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए कबीर लिखते हैं –

 

पाहन पूजे हरी मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़!

घर की चक्‍की कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार।।

माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया।

जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया।।

 

पत्थर पूजने से यदि ईश्‍वर मिल सकता है, तो पहाड़ को ही क्यों न पूज लिया जाए। या, इससे अच्छी पत्थर की ही बनी घर की चक्‍की को क्यों भुलाया जाए जिसका पीसा रोज खाते हैं। मिट्टी की आकृति गढ़कर साँप को पूजते हैं और वही साँप घर में निकल आए तो डर के मारे बुरा हाल हो जाता है और लाठी लेकर उसे मारने दौड़ते हैं। मूर्तिपूजा पर किए गए इन कटाक्षों में भी एक तर्क है। इसी तर्क पर आधारित व्यंग्य शैली में उन्होंने मुसलमानों द्वारा अल्लाह को प्रसन्‍न करने के लिए नमाज अदा करने और जीव हिंसा करने पर कटाक्ष किया है। कबीर ने लिखा कि कंकड़-पत्थर जोड़ कर मस्जिद बनाते हो। उस पर चढ़कर मुर्गे की तरह बांग देकर नियत समय पर अल्लाह को चिल्लाकर बुलाते हो क्या खुदा बहरा हो गया है?

 

काँकर पाथर जोरिके, मस्जिद लई चुनाय।

ता उपर मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।

दिन में रोजा रखत है रात हनत है गाय।

यह तो खून वह बन्दगी कैसे खुशी खुदाय।।

 

यह कैसी बन्दगी है जो दिन भर रोजे के रूप में चलती है और जीव हत्या के रूप में पूरी होती है? क्या इससे खुदा को खुश किया जा सकता है?

 

कबीर ने एक ही पद में हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों की आलोचना कर उनमें एकता स्थापित करने का मार्ग बनाया है। वे लिखते हैं –

 

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,

आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।

 

हिन्दू को राम और तुर्क (मुसलमान) को रहीम प्यारा है। दोनों आपस में लड़-लड़कर मरते हैं, लेकिन मर्म कोई न समझ सके। यह मर्म (रहस्य) राम, रहीम के एक्य में है। इसे पापियों (बदमाशों) ने दो बना दिया है।

 

निर्गुण मत की सूफी धारा ने इस्लाम और हिन्दू संस्कृति को एक ही कथानक में पिरोकर मनुष्य को बैकुण्ठी बनाने वाले प्रेम का संकेत दिया है। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत में रतनसेन और पद्मिनी की प्रेम कहानी कही है। इसमें एक खल पात्र रतनसेन का दरबारी हिन्दू ब्राह्मण राघव चेतन है और दूसरा दिल्ली का मुसलमान बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी। पद्मावत को रूपक काव्य बताने वाले कड़वक में ये दोनों परमात्मा और जीव के मिलन में बाधा पैदा करने वाले शैतान और माया बताए गए हैं।

 

राघव दूत सोई शैतानू। माया अल्लाउद्दीन सुलतानू।।

 

सूफी कवियों के समाज में हिन्दू-मुसलमान दोनों मौजूद हैं। दोनों अपनी संस्कृति के अनुगामी हैं। पर उनमें धार्मिक कट्टरता कहीं नहीं है। मुसलमान राजा हिन्दू स्‍त्री को पाना चाहता है। एक हिन्दू उसका साथी और दूसरे हिन्दू का विरोधी है। अन्ततः सब कुछ मुट्ठी भर धूल की तरह निस्सार लगता है, केवल प्रेम ही मनुष्य को बैकुण्ठी बनाने वाले रूप में नजर आता है।

 

मानुष प्रेम भयो बैकुण्ठी। नाहीं तो काह छार इक मूठी।।

 

सभी धर्मों से ऊपर है मानुष धर्म। धार्मिक कट्टरता की आलोचना या समन्वय की चेष्टा सगुण काव्य में नहीं मिलती है। कृष्ण-भक्ति काव्य राम-भक्ति काव्य से इस दृष्टि से श्रेष्ठ माना जा सकता है, क्योंकि उसमें हिन्दू वर्ण और जाति आधारित शासन व्यवस्था की स्थापना की कोशिश नहीं मिलती है। साथ ही उसमें रसखान और रहीम जैसे अनेक मुसलमान कवि भी मिलते हैं। सगुण मत के यहाँ हिन्दू धरम के भीतर के पन्थों, शैव-वैष्णव, निर्गुण-सगुण आदि के बीच समन्वय की कोशिश जरूर मिलती है, जो अन्य मतों में नहीं है।

 

3.3. सत्ता-संरचना

 

भक्तिकालीन कवि मोटे तौर पर प्रजा हितकारी शासन-व्यवस्था की कामना करते हैं। यद्यपि इसके स्वरूप में आन्तरिक फर्क और विरोधी दृष्टियाँ मिलती हैं। शासन-व्यवस्था के बारे में सबसे व्यवस्थित चिन्तन तुलसीदास का है।

 

मुखिया मुख सों चाहिए, खान पान को एक।

पालै, पोसै  सकल अंग तुलसी सहित विवेक।।

 

आहार ग्रहण कर जैसे मुख शरीर के सारे अंगों का पोषण करता है, शासक को वैसा ही होना चाहिए। जो राजा ऐसा नहीं करते हैं, उनकी प्रजा दुःखी रहती है ,और जिनकी प्रजा दुःखी रहती है, वे ईश्‍वरीय दण्ड का भागी बनकर नर्क जाते हैं।

 

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवस नरक अधिकारी।

 

तुलसी ने राम-राज्य के रूप में दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति दिलाने वाली आदर्श-व्यवस्था की कल्पना की है।

 

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज्य काहुहिं नहीं व्यापा।।

अल्प मृत्य नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब विरुज सरीरा।।

नहिं दरिद्र कोऊ दुःखी न दीना। नहिं कोऊ अबुध न लच्छन हीना।।

एक नारिव्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।

 

राम राज्य में सभी सुन्दर और स्वस्थ शरीर वाले हैं। पीड़ा और अल्पायु मृत्यु से सभी मुक्त हैं। कोई दरिद्र, दुःखी दीन, अविवेकी और गुणहीन नहीं है। पुरुष एक नारी व्रत का पालन करते हैं, स्‍त्रि‍याँ पतिव्रता हैं। इस राम-राज्य की यह भी विशेषता है कि सभी लोग वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुरूप अपने धर्म का पालन करते हैं।

 

बरनाश्रम निज निज धरम बनिरत बेद पथ लोग।

चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग।।

 

भय, रोग और शोक से मुक्ति दिलाने वाला राज्य वर्णाश्रम व्यवस्था का पालन करने वाला है। कृष्ण-भक्त सूरदास भी ऐसी सत्ता की बात करते हैं जो प्रजा को सताए नहीं –

 

राजधर्म सब भए सूर, जह प्रजा न जाए सताए।

 

प्रजा को न सताने वाली राज-व्यवस्था वर्णाश्रम का पालन करने वाली होनी चाहिए या नहीं इस सम्बन्ध में सूरदास के यहाँ स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। कबीर के साहित्य में राज-व्यवस्था सम्बन्धी विस्तृत चिन्तन नहीं मिलता है किन्तु उनके मत के अनुसार बनने वाली व्यवस्था कम-से-कम वर्णाश्रम पर आधारित तो नहीं हो सकती है। तुलसी के अलावा शासन व्यवस्था का चित्रण जायसी के पद्मावत में मिलता है। लेकिन जायसी ने प्रेम-कथा पर ज्यादा ध्यान दिया है, सत्ता और प्रजा के सम्बन्धों पर प्रकाश कम डाला है। इतना जरूर है कि इस कथा में हिन्दू-मुसलमान दोनों धर्मों के शासक हैं, किन्तु दोनों एक समान ही साहसी, उदार, भले और खल हैं।

 

3.4. स्‍त्री

 

स्‍त्री के सम्बन्ध में निर्गुण और सगुण कवियों का मत लगभग एक-सा है। इनकी दृष्टि में अन्तर्विरोध भी बहुत हद तक समान है। स्‍त्री की निन्दा और प्रशंसा सभी ने की है। पतिव्रता, सति, सुहागिन आदि रूप में वह वन्दनीय है। पति, पिता और पुत्र के सूत्र से असम्बद्ध रूप में वह निन्दनीय है। कबीर के लिए स्‍त्री माया, पापिनी है, जिसने सारे जग को भक्ति से हटाकर हराम में लगा रखा है –

 

कबीर माया पापिनी हरि सू करे हराम।

नारी की छाया से भी बचने का उपदेश देते हुए वे कहते हैं –

नारी की झांई पड़त अन्धा होत भुजंग।

 

नारी की निन्दा करने के बावजूद ईश्‍वर से प्रेम निवेदन के लिए वे नारी का ही रूप धारण करते हैं। उन्होंने ईश्‍वर से अनेक सम्बन्ध जोड़े हैं जिनमें सबसे गहरा दाम्पत्य सम्बन्ध है। कान्ता भाव की भक्ति वाले उनके पद सबसे मर्मस्पर्शी हैं।

 

तड़पे बिनु बालम मोरा जिया।        

दिन नहीं चैन, रैन नहीं निंदिया रोई-रोई के भोर किया।

 

जी परमात्मा रूपी बालम के विरह में दिन रात बेचैन रहता है। वह उसे अपने घर बुलाता रहता है।

 

बालम आव हमारे गेह रे।

तुम बिन दुखिया देह रे।।

सब कोई कहे तुम्हारी नारी मोको यह अन्देह रे।

 

कबीर ने स्वयं को ईश्‍वर की प्रेमिका और पतिव्रता स्‍त्री के रूप में देखा तो जायसी ने उसे ईश्‍वर का ही रूप दे दिया। पद्मावत की पद्मिनी प्रकाश पुंज है। इस परम-तत्त्व को पाने के लिए रतनसेन रूपी जीव सब कुछ छोड़कर निकल पड़ता है। किन्तु यही नारी जब घर आ जाती है, तो अन्य नारी नागमती के समान घरेलू नारी हो जाती है। नागमती रूपी नारी को उसकी हैसियत बताते हुए रतनसेन कहता है कि तुम स्‍त्री हो, जिसमें बुद्धि नहीं होती है। घर-नारी की मति से चलने वाले मूर्ख होते हैं –

 

तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी। मूरखासों जो मतै घर नारी।    

 

स्‍त्रि‍यों के प्रति तुलसीदास की दृष्टि भी मर्मस्पर्शी और नकारात्मक दोनों है। रामचरितमानस में रावण जैसे खल पात्र ने ही नहीं, समुद्र जैसे निरपेक्ष पात्र और स्वयं भगवान राम ने भी स्‍त्री को निचला दर्जा दिया है। समुद्र स्‍त्री को ढोल, गँवार, शूद्र, पशु के समान ताड़ना का अधिकारी बताता है। रावण उसके आठ अवगुण गिनाते हुए कहता है –

 

नारी सुभाऊ सत्य कवि कहहीं। अवगुण आठ सदा उर रहहीं।

साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक असौच अदाया।।

 

लक्ष्मण को शक्तिवाण लगने पर आदर्श पुरुषोत्तम राम शोक में डूबकर कहते हैं कि नारी के लिए बन्धु को गँवा दिया। इस महान अपयश को लेकर अवध कैसे जाऊँगा? स्‍त्री की हानि हो भी जाती तो कोई खास बात नहीं थी।

 

जैहों अवध कवन मुँहलाई। नारि हेतु प्रिय बन्धू गँवाई।

बरु अपजस सहतेउ जग माहीं। नारी हानि विशेष छति नाही।

 

नारी के प्रति व्यक्त ये उद्गार स्‍त्री को निचले सामाजिक दर्जे में धकेलने वाले हैं। इसके विपरीत रामचरितमानस में कौशल्या, मन्दोदरी, तारा, अहिल्या और इन सबसे अधिक सीता का जो रूप प्रस्तुत गया किया है, वह स्‍त्री को उच्‍चतम सोपान पर आसीन करने वाला है. हालांकि तुलसीदास स्‍त्री की पराधीनता की पीड़ा को पहचानते हैं।

 

कत विधि सृजी नारी जग माहीं, पराधीन सपनेहूँ सुख नाहीं।

 

तुलसी के राम राज्य में स्‍त्री पुरुष के समान स्थान की अधिकारिणी है। स्‍त्री पतिव्रता है और पुरुष एक नारी व्रत धारी।

 

एक नारि व्रत रत सब झारी।

ते मनब चक्रम पति हितकारी।

 

सूरदास के यहाँ स्‍त्री स्वतन्त्र भी है और पतिव्रता भी नहीं हैं। वे सास ननद की अवहेलना कर कृष्ण से मिलती हैं। फिर भी वे निन्दनीय नहीं हैं। सूरदास ने अन्ततः कृष्ण के मुख से ही राधा को कहलवाया है कि –

 

सूरदास हम तुम नहीं अन्तर यही कहके प्रभु ब्रजही पठायो।

 

सूर के निराले आनन्दलोक में स्‍त्री, प्रिया होकर स्वतन्त्र पवित्र और वन्दनीय हो गई है। माया की निन्दा उनके यहाँ सीधे तौर पर क्रूर स्‍त्री निन्दा का रूप नहीं ले पाई है। इस दृष्टि से सूरदास थोड़े से अलग हैं।

 

भक्तिकाल के सभी रचनाकारों में स्‍त्री की निन्दा और प्रशंसा के अन्तर्द्वन्द्व का आधार पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनकी लैंगिक स्थिति से है। पुरुष साधक को स्‍त्री साधना में बाधक नजर आती है। अपने इन्द्रिय निग्रह में अक्षम पुरुष स्‍त्री को कोसने लगता है। स्‍त्री उसे पति के साथ पसन्द आती है। उसका स्वतन्त्र रूप उसे विचलित करने लगता है। स्‍त्री-स्‍त्री के लिए कोई समस्या नहीं है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि केवल भक्तिकाल की अकेली प्रमुख कवयित्री मीरा स्‍त्री सम्बन्धी अन्तर्विरोधों से मुक्त दिखाई पड़ती हैं।

 

4. निर्गुण और सगुण मत के अन्तर्विरोध का सामाजिक आधार

 

निर्गुण और सगुण मत के सामाजिक सरोकारों का सम्बन्ध उनके सामाजिक आधारों से है। उनके सामाजिक आधारों में अन्तर उनके जीवन मूल्यों में अन्तर पैदा करता है। इसका प्रतिफलन उनके साहित्य के सामाजिक सरोकारों में देखा जा सकता है। निर्गुण मत के अन्तर्गत दो तरह के रचनाकार शामिल किए जाते हैं। एक तो सन्त और दूसरे सूफी। सगुण भक्ति के अन्तर्गत भक्त कवि आते हैं। इन सन्तों, सूफियों और भक्तों के सामाजिक समूह, जाति, धर्म, संस्कृति, व्यवसाय, शिक्षा-दीक्षा आदि का इनकी रचनाओं पर गहरा असर पड़ा है। इनसे निर्गुण बाणियों और प्रेमाख्यानों तथा सगुण पदों और प्रबन्धों का क्रिया-प्रतिक्रियात्मक सम्बन्ध है। कबीर ब्राह्मण श्रेष्ठता-बोध को निरन्तर चुनौती देते हैं। जायसी अल्लाउद्दीन और राघव चेतन जैसे शासक और ब्राह्मण को श्रेष्ठ गुणों से युक्त कर खल-पात्र बनाते हैं। तुलसी वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना करते हैं। सूरदास निर्गुण का खण्डन करते हैं। भक्ति काव्य के अनेक आलोचकों ने भक्त कवियों की प्रवृत्तियों और उनके सामाजिक रिश्तों में सम्बन्ध की ओर संकेत किया है।

 

4.1. जातिगत और वर्णगत आधार

 

निर्गुण कवियों ने जातिगत भेदभाव का उग्र विरोध किया है। उन्होंने  वर्णाश्रम व्यवस्था को अमान्य ठहराया है। सगुण भक्त जातिगत भेद को उचित मानते हैं, और वर्णाश्रम व्यवस्था को स्थापित करते हैं। इसका आधार इनके जाति और वर्ण में निहित है। अन्तर्विरोधी सामाजिक सरोकारों के कारण आए सगुण और निर्गुण साहित्य के स्वरूप में अन्तर को रेखांकित करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि “भक्ति ने उत्तर भारत में आकर दो रूप ग्रहण किया। जो भक्त ऊँची जाति से आए थे, वहाँ तत्कालीन समाज के प्रति वह विक्षोभ नहीं था, जिस आक्रामक रूप में वह उन भक्तों में प्रकट हुई, जो समाज की निचली श्रेणी की जातियों के भीतर से आए थे। उच्‍च जाति के भक्तों ने समाज में प्रचलित शास्‍त्रीय आचारविचार, व्रत, उपवास, ऊँचनीच की मर्यादा को स्वीकार कर लिया। उनका असन्तोष दूसरी श्रेणी के भक्तों से बिलकुल भिन्‍न था। वे सामाजिक व्यवस्था से असन्तुष्ट नहीं थे। वे लोग भोगपरक भगवद् विमुख आचरण से असन्तुष्ट थे। श्रुतिपरम्परा में आने वाले धर्मग्रन्थों को कर्तव्यअकर्तव्य के नियमन के लिए उन्होंने विसंवादी प्रमाण के रूप में स्वीकार किया था। तुलसी, सूर आदि सगुणमार्गी भक्तों की वाणियों में जो गणिका अजामिल के तरने की चर्चा बारबार आती है। इन नामों का भक्तिसाहित्य में आना भक्तों के वैयक्तिक जीवनदृष्टि का परिचय देता है जिसमें केवल साधु उद्देश्य पर बल है। जबकि निचली श्रेणी से आए भक्तों में सामाजिक व्यवस्था के प्रति तीव्र असंतोष का भाव व्यक्त है और वैयक्तिक साधुता पर भी पर्याप्त बल है।”

 

कबीर अपनी रचनाओं में स्वयं को जुलाहा कहते हैं, तो रैदास चमार। निचले तबके से आने के कारण निर्गुण सन्तों की बाणी में निम्‍न वर्ग के प्रति सम्मान का भाव है। उनमें श्रम के प्रति आदर और भक्ति के प्रति दृढ़ भरोसा है। शोषण की अधिकता वाली सामाजिक स्थिति से आने के कारण उनका प्रतिरोध बहुत उग्र है। उनमें अस्वीकार करने का अपार साहस और भरपूर आत्मविश्‍वास है। उच्‍च जाति से आने के कारण सगुण भक्तों के यहाँ निम्‍न वर्ग के प्रति सम्मान का भाव नहीं है। इसके विपरीत अपमान का भाव जरूर उजागर हुआ है। तुलसी की रचनाओं में बार-बार विप्र पूजनीय बताया गया है। ब्राह्मण होने के कारण मातृ-हन्ता परशुराम और रावण भी तुलसी की सहानुभूति पाने में सफल रहे हैं। उनके राम-राज्य में सभी नर-नारी विप्र की पूजा करते हैं।

 

4.2. धार्मिक-सांस्कृतिक आधार

 

निर्गुण काव्य में हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों और संस्कृतियों का उल्लेख विस्तार से मिलता है, जबकि सगुण काव्य में केवल हिन्दू धर्म और संस्कृति का जिक्र है। इस अन्तर्विरोध का आधार भी इन मतों के रचनाकारों की धार्मिक-सांस्कृतिक स्थिति में निहित है। जायसी सूफी साधक थे। इस्लाम धर्म के अनुयायी और इस्लामी संस्कृति में जीने के कारण उनकी रचनाओं में हिन्दू के साथ इस्लाम धर्म और संस्कृति सबसे प्रभावी रूप में है। पद्मावती के सती हो जाने के बाद जब अलाउद्दीन उसकी राख के पास पहुँचता है, तो इस्लामी पद्धति से अपनी श्रद्धांजलि देता है –

 

छार उठा लिन्ह एक मूठी। दिन्ह उड़ाय पृथमी झूठी।

 

सूफी साधक इस्लामी आक्रान्ताओं के साथ पाँच सौ वर्ष पहले भारत आए थे। अपने प्रेम का सन्देश देने के लिए वे कथाओं का सहारा लेते थे। भारत में हिन्दुओं को उन्होंने हिन्दू प्रेम कथाएँ सुनायी। इसलिए जायसी आदि सूफी कवियों की रचनाओं में हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्म-संस्कृति अनुगुम्फित मिलती है। कबीर आदि निर्गुण सन्त समाज के निम्‍न वर्ग से आए थे। इस्लाम के आने के बाद निम्‍न वर्ग में बहुतों का धर्मान्तरण हो गया था। कुछ हिन्दू-कुछ मुसलमान संस्कृति से ये वर्ग जुड़ गए। कबीर को दोनों धर्म संस्कृतियों का अनुभव हुआ। इसलिए उनकी रचनाओं में काशी के पण्डित और मुल्ला की एक साथ खबर ली गई है। तुलसी, सूर आदि सगुण कवि हिन्दू धर्म की उच्‍च जाति से आए थे। इसलिए मुसलमान इनकी नजर में हेय थे। इसलिए अकारण नहीं है कि मूर्तियाँ तोड़ने के लिए मशहूर हो चुके मलेच्छ इनकी रचनाओं के अंग नहीं बन सके हैं।

5. निष्कर्ष

 

कह सकते हैं कि निर्गुण और सगुण मत में समाज के विभिन्‍न अभिकरणों के सम्बन्ध में गहरे अन्तर्विरोध मिलते हैं। जाति और वर्ण सम्बन्धी सन्त और सगुण कवियों के विचारों में विनाशक और विधायक का विरोध है। इस्लाम को लेकर सगुण, सन्त और सूफी कवियों में उपेक्षा, सुधार और समन्वय की चेष्टा मिलती है। स्‍त्री के कामिनी रूप की निन्दा और पतिव्रता रूप के प्रति आकर्षण की अन्तर्विरोधी दृष्टि सभी भक्तिकालीन पुरुष रचनाकारों में मिलती है। इन अन्तर्विरोधों का आधार उनकी जाति, वर्ण, धर्म, संस्कृति, लिंग, आदि की स्थिति में मिलती है।

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अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  4. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
  7. दादू दयाल , रामबक्ष, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली

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  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  5. https://www.youtube.com/watch?v=VeVGp2lJRno
  6. https://www.youtube.com/watch?v=44M6yyIxJYk