26 तुलसी : रामराज्य और कलियुग
सूरज बहादुर थापा
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप –
- रामराज्य और कलियुग के प्रतीकार्थों से अवगत होंगे।
- रामराज्य सम्बन्धी अवधारणा की जानकारी प्राप्त करेंगे।
- रामराज्य में निहित विचारों से अवगत हो सकेंगे।
- तुलसीदास के कलियुग सम्बन्धी विचारों से परिचित हो सकेंगे।
- प्रस्तावना
गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकालीन रामभक्ति शाखा के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उन्होंने रामकथा पर आधारित कई महत्त्वपूर्ण काव्य ग्रन्थों की रचना की। इनकी बारह प्रमाणिक रचनाएँ हैं। जिनमें रामचरितमानस तुलसीदास की सर्वाधिक लोकप्रिय कृति है। इसके अतिरिक्त कवितावली, दोहावली, विनयपत्रिका, गीतावली आदि उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में रामकथा के साथ-साथ अपने विचारों को भी अभिव्यक्ति दी जो तदयुगीन परिस्थितियों का प्रतिफलन है। ये विचार प्रसंगानुसार अभिव्यक्त हुए हैं। इन्हीं विचारों में रामराज्य और कलियुग वर्णन महत्त्वपूर्ण है। जहाँ कलियुग वर्णन तुलसीदास के अनुसार एक दूषित सामाजिक व्यवस्था है, वहीं रामराज्य उसका वैकल्पिक आदर्श। इस अध्याय में हम तुलसीदास के रामराज्य और कलियुग सम्बन्धी अवधारणा का अध्ययन करेंगे।
- रामराज्य
तुलसीदास का रामराज्य एक आदर्श शासन व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, दार्शनिक, साहित्यिक हर परिस्थिति अपने आदर्श रूप में है। अपनी तत्कालीन युगदशा से प्रभावित होकर ही उन्होंने रामराज्य की अवधारणा को रामकथा के माध्यम से अभिव्यक्त किया। उन दिनों ब्राहमण धर्म और वर्णाश्रम व्यवस्था का ह्रास हो रहा था। नाथों, सिद्धों और ब्राह्मण धर्म के बाहर के पन्थों का प्रभाव बढ़ रहा था। शासकों में नैतिकता कम और विलासप्रियता अधिक हो गई थी। कृषकों की आवश्यकताओं की उपेक्षा कर लगान वसूल किया जाता था। कुछ मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं की धर्मयात्रा पर कर लगाया जाता था, जिसे जजिया कर कहते थे। सामन्ती शासक छोटे- छोटे स्वार्थों से प्रेरित होकर आपस में लड़ते रहते थे। तुलसीदास के मन में रामराज्य की जैसी कल्पना थी, उसका शतांश भी उस दौर के शासकों के राज्य में नहीं था।
तुलसीदास ने रामराज्य के माध्यम से जिस आदर्श को प्रस्तुत किया, वह वर्णव्यवस्था का अनुपालन करने वाला एक सामन्ती राज्य था। उसका उद्देश्य वेदों और पुराणों में वर्णित संकल्पना के अनुरूप जनमानस को असत प्रवृत्तियों से सात्विक प्रवृत्तियों की ओर आकर्षित करना था। उन्होंने ऐसे रामराज्य की कल्पना की, जहाँ दुःख का लेश-मात्र न हो, हर तरफ सुख-शान्ति और सुव्यवस्था हो, जहाँ हर व्यक्ति निष्ठावान हो, मनुष्य और प्रकृति सब आपसी सामंजस्य के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करे। राजा और प्रजा सब अपने आदर्श रूप में रहे और यह सब तभी सम्भव था जब समाज का गठन वर्णाश्रम पर आधारित हो।
3.1. आदर्श राजा
तुलसीदास के रामराज्य में एक आदर्श राजा का प्रमुख कर्त्तव्य प्रजा पालन है। राम सुमन्त्र के माध्यम से भरत तक राजधर्म का सन्देश इन शब्दों में प्रेषित करते हैं–
कहब सँदेसु भरत के आएँ। नीति न तजिअ राजपदु पाएँ।।
पालेहु प्रजहिं करम मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।
राम सुमन्त्र से कहते हैं भरत के ननिहाल से आते ही मेरा सन्देश कहना कि राजा बनने के बाद वे किसी भी रूप में नीति का त्याग न करें। प्रजा का मन, कर्म, वचन से पालन करें और सारी माताओं को समान मानकर उनकी सेवा करे। यहाँ तुलसी राज-संचालन में नीति को प्रमुखता देते हैं। किसी भी परिस्थिति में राजा को नीति के अनुसार ही आचरण करना चाहिए। उसमें किसी प्रकार का राज-मद नहीं होना चाहिए। राजा द्वारा प्रजा की उपेक्षा के कारण ही तुलसी यह लिखने के लिए विवश होते हैं–
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
जिस राज्य की प्रजा दुखी हो, उस राज्य का राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है। राजा यदि प्रजा-विमुख हो तो तुलसीदास इसी प्रकार लोक-परलोक, स्वर्ग-नरक का भय दिखाते हैं क्योंकि तत्कालीन समाज में यही स्थिति सम्भव थी। विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है “सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में कोई व्यक्ति कहीं भी समाजवादी व्यवस्था की कल्पना नहीं कर सकता था। तुलसी सामन्ती व्यवस्था की त्रुटियाँ ही देख सकते थे, प्रजा के सुखी और राजा के प्रतिपालक रूप की ही कल्पना कर सकते थे (लोकवादी तुलसीदास, पृ.98)।”
राजा अपनी प्रजा का प्रिय जिन रूपों में हो सकता है, उसके लिए उन्होंने कई तरह के नीति-वाक्यों का उपयोग किया है, जो रामचरितमानस और दोहावली में वर्णित है। राजा की तुलना अगर पिता से की जाती है, तो राजा में पिता की तरह पालक का गुण भी होना चाहिए। राजा को समदर्शी होना चाहिए, पर तुलसी उसके लिए समान वितरण को आवश्यक नहीं समझते। वे आवश्यकता के अनुरूप वितरण की बात करते हैं–
मुखिआ मुख सों चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित विवेक।।
राजा मुखिया है, और मुखिया को मुख की भाँति होना चाहिए। जिस-प्रकार मुख भोजन ग्रहण करता है परन्तु उसका वितरण हर अंग को उसकी आवश्यकता और उपयोगिता की दृष्टि से करता है। इतना ही नहीं तुलसीदास विवेक की भी बात करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि राजा में विवेक का होना आवश्यक है क्योंकि राजधर्म का पालन विवेक सहित ही हो सकता है भावुकतावश नहीं। इसलिए हृदय के साथ-साथ तुलसी विवेक की भी बात करते हैं। चूँकि राजतन्त्र में कर की भी व्यवस्था होती है इसलिए कर-व्यवस्था के बारे में तुलसी कहते हैं–
बरषत हरषत लोग सब, करषत लखै न कोई।
तुलसी प्रजा सुभाग ते, भूप भानु सो होई।।
जिस प्रकार सूर्य जब जल को खींचता है और वह जल आकाश में पहुँचता है, यह कोई नहीं देखता, परन्तु वही जल जब वर्षा के रूप में पुनः पृथ्वी पर आता है, तो सभी जीव-जन्तु, मनुष्य हर्षित होते हैं। आदर्श राजा को सूर्य के समान होना चाहिए। वह जनता से कर इस रूप में ले कि उसे पता न चले और उस कर को समय-समय पर जनता के हित में उपयोग करे। तुलसीदास राजा की तुलना प्रजा-पालन में तीन चीज़ों से करते हैं। वे दोहावली में लिखते हैं–
माली, भानु, किसान सम नीति निपुन नरपाल।
राजा को माली, सूर्य और किसान के सदृश होना चाहिए। जिस तरह माली मुरझाये पौधे को सींचता है, कमज़ोर पौधे को सहारा देता है, फिर फल-फूलों का संग्रह करता है। सूर्य, समुद्र, नदी से जल खींचकर उसे अमृत बनाकर यथायोग्य बरसा देता है। किसान खेतों को तैयार कर खाद और पानी से सींचता है। बीज बोता है फिर फसल पकने पर काटता है। उसी प्रकार एक राजा को पहले प्रजा का पालन करना चाहिए, फिर यथायोग्य उनका राजहित में उपयोग करना चाहिए।
3.2. आदर्श प्रजा
तुलसीदास राजा-प्रजा के सम्बन्धों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे यदि राजा को प्रजा-सम्मत होने की बात करते हैं, तो प्रजा को भी आदर्श राज्य के लिए प्रयत्नशील होने को कहते हैं। आदर्श प्रजा वही है जो राज्य-सम्मत आचरणों का पालन करे। जहाँ प्रजा में नीति, धर्म, आदर्श, त्याग, बलिदान, सेवा, न्याय-निष्ठा जैसे उदात्त भाव हों। आदर्श राज्य और प्रजा के लिए वे वर्णाश्रम धर्म को अनिवार्य मानते हैं। वर्णाश्रम उनके लिए समाज अनुशासन की पद्धति है, जिसके अधीन रहकर व्यक्ति अपने-अपने कर्मानुसार आचरण कर सुख और समृद्धि को प्राप्त कर सकता है। राम के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति वर्णाश्रम का पालन करता है। तुलसीदास ने लिखा है–
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।।
राम के राज्य में प्रत्येक व्यक्ति वर्णाश्रम के अनुकूल आचरण करता है, धर्म में तत्पर होकर वेद विहित मार्ग पर चलता है, और सुख पाता है। उनके जीवन में किसी प्रकार का भय, शोक, रोग नहीं है। तुलसी के वर्णाश्रम पर विचार करते हुए उदयभानु सिंह ने लिखा है “उनकी दृष्टि में मानव-धर्म, वर्ण-धर्म, आश्रम-धर्म, राज-धर्म और स्त्री-धर्म धर्म के प्रमुख रूप हैं; इनके समुचित परिपालन पर ही समाज का कल्याण निर्भर है। अपनी धर्म-भावना की इसी पृष्ठभूमि में उन्होंने अपने युग की धार्मिक-सामाजिक परिस्थितियों का चित्रण किया है (तुलसी काव्यमीमांसा, पृष्ठ-193) ।”
तुलसीदास रामराज्य के लिए प्रजा में पारस्परिक ऐक्य को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। एकता के अभाव में विषमता बढ़ेगी फलतः समाज में बैर बढेगा। इसलिए रामराज्य में प्रजा का वर्णन करते हुए कहते हैं–
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।
राम के राज्य में प्रजा एक दूसरे से परस्पर प्रेम करती है और वेदों में बताई हुई मर्यादा को मानकर अपने-अपने धर्म का पालन करती है। इतना ही नहीं रामराज्य की प्रजा ऐसी है–
सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुणी।।
सब गुनग्य पण्डित सब ज्ञानी। सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
सारी प्रजा दम्भरहित है, धर्मपरायण और पुण्यात्मा है। सभी पुरुष और स्त्री चतुर और गुणवान हैं। सभी गुणों का आदर करने वाले पण्डित और ज्ञानी हैं। सभी कृतज्ञ हैं, कपट और चतुराई का लेश मात्र नहीं है। पुनीत राज-व्यवस्था के लिए तुलसी धार्मिक निष्ठा, भावात्मक एकता, आत्मबल, चारित्रिक दृढ़ता को नितान्त आवश्यक मानते हैं–
सब उदार सब पर उपकारी। बिप्र चरन सेवक नर नारी।।
एकनारि व्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।।
अयोध्या के सभी नर-नारी उदार हैं, सभी परोपकारी हैं। ब्राह्मणों के चरणों के सेवक भी हैं। सारे पुरुष एक पत्नीव्रत का पालन करते हैं और स्त्रियाँ मन, वचन और कर्म से पति का हित करने वाली हैं। तुलसीदास की इस आदर्श कल्पना में ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च है इसीलिए वे उनकी सेवा और वन्दना पर इतना अधिक बल देते हैं। यह उनकी दृष्टि की सीमा है, जो वर्णाश्रम के पूर्वाग्रह से ग्रसित है, विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से इस पर विचार किया है।
3.3. आदर्श राज्य
तुलसी का रामराज्य एक सुखद कल्पनालोक है, जो अपने युग से प्रभावित होकर और विचारगत सीमाओं से युक्त होकर प्रस्तुत हुआ है। वर्तमान समय में भी रामराज्य काल सापेक्ष सन्दर्भ या कोई ऐतिहासिक घटना मात्र नहीं है, बल्कि वह सर्वस्वीकृत प्रतीक है। जहाँ कहीं भी सुख, शान्ति, सुव्यवस्था का बोध होता है, उसकी तुलना स्वतः रामराज्य से कर दी जाती है। तुलसीदास कहते हैं कि राम का राज्याभिषेक होते ही न सिर्फ अयोध्या में बल्कि तीनों लोक के शोक नष्ट हो गए–
रामराज बैठे त्रय लोका। हरषित भये गए सब सोका।।
वयरू न कर काहू सन कोई। रामप्रताप विषमता खोई।।
राम अयोध्या के राजा बने, और तीनों लोकों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। गोस्वामी जी त्रय लोक के हर्षित होने का कारण ‘गए सब सोका’ बताते हैं। राम के राजा बनते ही सभी शोक नष्ट हो गए। तीन प्रकार के शोक की बात तुलसी करते हैं–
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा।।
राम के राज्य में दैहिक, दैविक, भौतिक ये तीनों कष्ट दूर हो गए। कहीं भी इनका लेश मात्र नहीं रहा। रामराज्य में सभी नर-नारी परस्पर प्रेम से बँध गए, उनमें किसी प्रकार का दुराव या कपट नहीं रहा। रामराज्य में सम्पूर्ण समाज वर्णाश्रम में विभाजित हो गया और समस्त जनता पूरी निष्ठा के साथ वर्णाश्रम धर्म का पालन करने लगी। धर्म अपने चारो चरणों (सत्य, शौर्य, दया और दान) से संसार में परिपूर्ण हो उठा। स्वप्न में भी पाप नहीं रहा–
चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेहुँ अघ नाहीं।।
राम के राजा बनते ही उनके प्रताप से न सिर्फ सामाजिक विषमता दूर हुई, वरन सारे दुखों का नाश हो गया।
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुःख काहुहि नाहिं।।
राम के राज्य में जड़-चेतन सारे जगत में काल, धर्म, स्वाभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुख का अंश-मात्र भी नहीं है। तुलसीदास कहते हैं–
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुन्दर सब बिरुज सरीरा।।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
रामराज्य में किसी की अल्पायु में मृत्यु नहीं होती, सभी सुन्दर हैं, सबके शरीर निरोग हैं। कोई दरिद्र, दुखी और दीन नहीं, कोई मूर्ख और लक्षणहीन नहीं, सभी दम्भरहित, धर्मपरायण और पुण्यात्मा हैं।
रामराज्य में प्रकृति भी सुखद और अनुकूल हो गई। तुलसीदास कहते हैं–
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक संग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
xx xx xx xx
बिधु महिपूर मयूरखन्हि रबि तप जतनेहि काज।
माँगे बारिद देहिं जल रामचन्द्र के राज।।
वनों में पेड़ सदा फूलते और फलते हैं। हाथी और शेर बैर भुलाकर एक साथ रहते हैं। पशु-पक्षी सब ने आपस में वैर-भाव को भुलाकर प्रेम बढ़ा लिया है, वे नाना प्रकार के मनोहर शब्द करते हैं। शीतल मन्द सुगन्धित वायु बह रही है। भ्रमर मकरन्द वहन करते हुए विहार कर रहे हैं। लता और वृक्ष माँगते ही मधु की वर्षा कर रहे हैं। गायें इच्छानुसार दूध देती हैं। धरती अन्न से सम्पन्न है, त्रेता मानो सतयुग हो गया हो। विविध पर्वतों से नाना प्रकार की मणियाँ प्राप्त होती हैं। सभी नदियों में सुन्दर जल प्रवाहित होता है, उनका जल निर्मल एवं सुस्वादु है। सागर अपनी मर्यादा में है, और तटों पर स्वयं रत्न डाल जाता है। तालाब कमलों से परिपूर्ण हैं, दसो दिशाओं के प्रदेश प्रसन्न हैं। रामचन्द्र के राज में चन्द्रमा अपनी किरणों से पृथ्वी को भर देता है। सूर्य अनुकूलता से ही तपता है और बादल आवश्यकतानुसार बरसते हैं। इस प्रकार रामराज्य में न सिर्फ मनुष्य बल्कि प्रकृति भी अनुशासित, मर्यादित आचरण करती है। यह रामराज्य तुलसी का सुखद स्वप्नलोक है जिसकी कामना वे सामाजिक व्यवस्था के रूप में करते थे।
- कलियुग वर्णन
कलियुग भारतीय समाज में एक ऐसी समाज व्यवस्था का प्रतीक है, जहाँ हर सामजिक, वैयक्तिक आचरण प्रतिकूल हो जाते हैं। किसी भी प्रकार का सामाजिक अनुशासन समाज में नहीं होता, हर व्यक्ति स्वेछाचारी है। कलियुग मूलतः बुरी समाज व्यवस्था का प्रतीक है, जो हर समय में विद्यमान होती है। आज भी हम किसी मनुष्य को स्वाभाविक वृत्ति से इतर कार्य करते देखते हैं तो सहसा कह उठते हैं ‘घोर कलियुग है’। विद्वानों का मानना है कि तुलसीदास ने रामचरितमानस और कवितावली के उत्तरकाण्ड में जिस कलिकाल का वर्णन किया है, वह मूलतः तत्कालीन सामाजिक दशा है। यह बात बिलकुल सही है, परन्तु हमें इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि इन असत् प्रवृत्तियों में पूरा सामाज ही लीन नहीं था, बल्कि तुलसीदास ने कलियुग के रूप में कुछ व्यक्ति और आचरण विशेष को ध्यान में रखकर इसका वर्णन किया है। यह वेद और वर्णाश्रम विरोधी आचरण तुलसीदास के लिए अक्षम्य है और इसी व्यवस्था पर बार-बार वे अपना दुःख व्यक्त करते हैं। तुलसीदास का कलियुग पूरी सामाजिक व्यवस्था का कलियुग है, जहाँ बिगड़ते स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, गुरु-शिष्य सम्बन्ध, वर्णाश्रम का ह्रास, राजा-प्रजा का प्रतिकूल सम्बन्ध, प्रकृति का दारुण प्रकोप, मानवीय रिश्तों में स्वार्थ, क्षीण होते सामाजिक सम्बन्ध आदि सम्पूर्णता में अभिव्यक्त हुए हैं। कलियुग के प्रभाव का वर्णन करते हुए तुलसीदास कहते हैं–
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा।।
तीनों गुणों (सत, रज, तम) में तमो गुण ज्यादा हो और रजो गुण थोड़ा हो, चारो ओर वैर-विरोध का वातावरण हो तो यह कलियुग का प्रभाव है। कवितावली में लिखते हैं-
जाहिर जहान में जमानो एक भाँति भयो,
बेंचिये बिबुध धेनु, रासभी बेसाहिए।
ऐसेउ कराल कलिकाल में कृपालु तेरे;
नाम के प्रताप न त्रिताप तन दाहिए।
सारी दुनिया जानती है कि ज़माना बहुत ही बुरा आ गया है, लोग कामधेनु बेचकर गधी खरीद रहे हैं। परन्तु इस भयंकर कलिकाल में भी मैं आपके प्रताप से शारीरिक, मानसिक और भौतिक कष्टों से मुक्त हूँ। ये दैहिक, दैविक और भौतिक ताप मुझे नहीं जलाते। तुलसी एक ओर कलियुग का वर्णन भी करते है, दूसरी ओर उससे मुक्ति का उपाय भी बताते हैं। उनका मानना है कि इस कलिकाल में राम का नाम ही त्रिताप से मुक्त कर सकता है। तुलसी कहते हैं–
दिन दिन दूनो देखि दारिद दुकाल दुख,
दुरित दुराज, सुख सुकृत सकोचु है।
माँगे पैंत पावत पचारि पातकी प्रचण्ड,
काल की करालता भले को होत पोचु है।
दिनानुदिन दरिद्रता, दुर्भिक्ष, दुख, पाप और कुराज्य को दूना होता देखकर सुख और सुकृति संकुचित हो रही है। समय ऐसा भयंकर आ गया है कि बड़े-बड़े पापी तो डाँट-डपटकर माँगने से अपना दाँव पा लेते हैं, और भले आदमी का अनिष्ट हो जाता है। ये तुलसी के तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक दोष हैं, जिसका निराकरण वे रामनाम, वर्णाश्रम और वेदानुमोदित आचरण में निहित मानते हैं। क्षीण होते वर्णाश्रम पर दुख व्यक्त करते हुए तुलसी कहते हैं–
बरन-धरम गयो, आस्रम निवास तज्यो,
त्रासन चकित सो परावनो परो सो है।
चारो वर्गों ने अपना कर्म त्याग दिया है, और आश्रमों को भी छोड़ दिया है। अधर्म के डर से लोग भाग रहे हैं।
बर्न-बिभाग न आस्रम धर्म, दुनी दुख दोष दरिद्र दली है।
वर्णाश्रम तो रहा नहीं, सारा संसार दरिद्रता से पीड़ित है। यहाँ तुलसीदास की केन्द्रीय चिन्ता वर्णाश्रम है, वर्णाश्रम का त्याग ही उनके लिए हर दुख का मूल है। रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में तुलसीदास इसकी खुली घोषणा करते हैं–
बरन धर्म नहिं आस्रम चारी । श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन । कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।
कलियुग में न वर्ण-धर्म रहता है न ही चारों आश्रम रहते हैं। सारे पुरुष-स्त्री वेद-विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों को बेचते हैं, और राजा प्रजा को खा जाने वाला होता है। वेद की आज्ञा को कोई नहीं मानता है। यहाँ तुलसीदास कलियुग की सम्भावना व्यक्त करते हैं कि यदि वर्णाश्रम धर्म और वेदविहित मार्ग का पालन नहीं किया जाएगा तो कलियुग इसी रूप में समाज में व्याप्त रहेगा। यह कलियुग न सिर्फ उनकी तत्कालीन समाज व्यवस्था है, बल्कि तुलसीदास का सम्भावित यथार्थ भी है। तुलसीदास कलियुग की आलोचना अपनी ब्राह्मणवादी दृष्टि से करते हैं।
कलियुग की सामाजिक दुरावस्था का चित्रण करते हुए तुलसी कवितावली में लिखते हैं–
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाँट,
चाकर, चपल, नट, चोर, चार, चेटकी,
पेट को पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन बन अहन अखेटकी।
उँचे नीचे करम धरम अधरम करि,
पेट ही को पचत बेंचत बेटा बेटकी।
श्रमिक, किसान, व्यापारी, भिखारी, भाट, चालाक नट, चोर, दूत और बाजीगर सभी पेट के लिए पढ़ते हैं। लोग अनेक उपचार रचते, पर्वतों पर चढ़ते और शिकार की तलाश में दुर्गम जंगलों में घूमते हैं। पेट के लिए लोग ऊँचे-नीचे कर्म तथा धर्म-अधर्म सभी करते हैं। यहाँ तक कि अपने बेटा-बेटी तक को बेच देते हैं। तत्कालीन सामाजिक बेरोजगारी और आर्थिक दशा का वर्णन करते हुए तुलसीदास कहते हैं–
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।
जीविका-बिहीन लोग सीद्यमान,सोच-बस,
कहैं एक एकन सों कहाँ जाई, का करी?
वर्तमान में ऐसा कुसमय चल रहा है कि किसानों की खेती नहीं होती, भिखारी को भीख नहीं मिलती, बनियों का व्यापार नहीं चलता, नौकरी चाहने वालों को नौकरी नहीं मिलती, इसलिए जीविका से हीन होने के कारण सब लोग दुखी और शोक के वशीभूत होकर एक दूसरे से कहते हैं कि कहाँ जाएँ और क्या करें?
तुलसीदास के अनुसार कलियुग मनुष्य की प्रवृत्ति को भी प्रभावित करता है। जिसका वर्णन वे रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में करते हैं–
मारग सोई जा कहुँ जोई भावा। पण्डित सोई जो गाल बजावा।।
मिथ्यारम्भ दम्भ रत जोई । ता कहुँ सन्त कहइ सब कोई।।
जिसे जो आचरण अच्छा लगता है, उसके लिए वही मार्ग है। जो डींगें हाँकता है, वही सबसे बड़ा पण्डित है। जो झूठा आडम्बर रचता है, और जो दम्भ में रत है उसी को सब सन्त कहते हैं। जो दूसरों का धन हरण कर ले वही बुद्धिमान है। जो दम्भ में लीन है, वही सबसे बड़ा आचारी पुरुष है। जो झूठ बोलता है और हँसी दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है।
तुलसीदास के अनुसार कलियुग का प्रभाव स्त्रियों पर भी पड़ा। तुलसी जिस पातिव्रत्य धर्म के पालन की बात रामराज्य में करते हैं, उसका ठीक विपरीत आचरण कलियुग में दिखाई पड़ता है।
नारि बिबस नर सकल गोसाईं । नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
XX XX XX
गुन मन्दिर सुन्दर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।।
रामराज्य में स्त्रियाँ पति के चरणों की सेवा करने वाली थी, परन्तु कलियुग में पुरुष स्त्रियों के वश में हैं, वे मदारी के बन्दर की तरह नाचते हैं। मन्दिर के सामान पवित्र गुण वाले पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं। सुहागिन स्त्रियाँ आभूषणों से रहित है, परन्तु विधवाओं के नित नए शृंगार होते हैं। तुलसी के ये विचार उनके मध्ययुगीन स्त्री सम्बन्धी मान्यताओं पर आधारित हैं।
कलियुग के प्रभाव से गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी अछूता नहीं है। तुलसीदास कहते हैं–
गुर सिष बधिर अन्ध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।
xx xx xx
हरइ सिष्य धन सोक न हरइ । सो गुर घोर नरक महुँ परइ।।
गुरु और शिष्य के बीच अन्धे और बहरे का सम्बन्ध हो गया है। शिष्य गुरु के उपदेश को नहीं सुनता है, वहीं गुरु कुछ देखता नहीं है। आगे तुलसी ऐसे गुरुओं को नरक का भी भय दिखाते हैं, जो केवल शिष्य का धन हरण करता है, परन्तु उसके दुखों का निवारण नहीं करता। कलियुग में पारिवारिक सम्बन्ध भी अपनी मर्यादा में नहीं रहते। माता-पिता, पुत्र के बीच सिर्फ स्वार्थ का सम्बन्ध होता है। मानवीय भावनाओं एवं आदर का कोई महत्त्व नहीं होता। माता-पिता बच्चों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे। इस प्रकार तुलसीदास के अनुसार कलियुग ने न सिर्फ मनुष्य को बल्कि मानवीय सम्बन्धों को भी प्रभावित किया है।
- निष्कर्ष
कलात्मक मान-मूल्यों के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों की कसौटी पर साहित्य समीक्षा प्रस्तुत करने की जो परिपाटी रही है, उस दृष्टि से महाकवि तुलसीदास के कलियुग वर्णन और रामराज्य की परिकल्पना का महत्त्व स्वतः सिद्ध है। कलियुग मानवीय मूल्यों से च्युत पापयुग का प्रतीक है, तो रामराज्य उस पापयुग से मुक्ति की एक सुखद कल्पना। हिन्दी के अनेक आलोचकों ने तुलसी के कलियुग वर्णन में सामाजिक यथार्थ के तत्त्व ढूँढ निकाले हैं और उनके रामराज्य की परिकल्पना में आम आदमी की मुक्ति और स्वतन्त्रता की अवधारणा देखी है। परन्तु तुलसीदास के रामराज्य और कलियुग की परिकल्पना सवालों से परे नहीं है, तुलसी ने अपनी मध्ययुगीन वैचारिकता और सामन्ती जीवनदृष्टि के अनुरूप ही इसकी अवधारणा सामने रखी है। अपनी वैचारिक सीमाओं के अन्दर तुलसी ने मानवीय मूल्यों का एक आदर्श स्वरूप समाज के सामने रखने का प्रयास अवश्य किया है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा,वाराणसी
- गोस्वामी तुलसीदास, रामजी तिवारी, साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
- तुलसीकाव्य मीमांसा, उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा,वाराणसी
- हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली,मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- लोकवादी तुलसी, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
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