24 तुलसीदास की सामाजिक चेतना

गजेन्द्र पाठक

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  1. पाठ का उददेश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • तुलसीदास की सामाजिक चेतना समझ सकेंगे ।
  • आदर्श परिवार सम्बन्धी उनके विचार से परिचित हो सकेंगे।
  • तुलसीदास की लोक-मंगल सम्बन्धी अवधारणा जान पाएँगे ।
  1. प्रस्तावना

   तुलसीदास भक्तिकालीन राम-भक्ति शाखा के शीर्षस्थ कवि हैं। तुलसीदास ने रामचरितमानस के माध्यम से एक सम्पूर्ण आदर्श समाज का खाका तैयार किया है जिसकी बुनियाद सामंती जीवन मूल्य है। उन्होंने क्षीण होती वर्ण-व्यवस्था एवं सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया है। रामकथा के माध्यम से घटनाओं के आलोक में पारिवारिक, सामाजिक आदर्शों को उन्होंने व्याख्यायित करने की कोशिश की है। तुलसी की रचना के मूल में लोक-मंगल है, जिसे वे काव्य का उद्देश्य मानते हैं। इसी आलोक में उनकी सामाजिक चेतना की निर्मिति भी होती है। तुलसीदास कहते हैं ‘मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की’ अर्थात रामकथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। तुलसी की काव्य-रचना के मूल में लोक-मंगल है। यह लोक-मंगल परिवार और समाज के नैतिक मूल्यों पर आधारित है। इसलिए तुलसीदास ने अपनी राम-कथा में आदर्श जीवन-मूल्यों को केन्द्र में रखा है। उन्होंने जीवन के तमाम पक्षों का एक व्यवहारिक रूप रामकथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यहाँ पारिवारिक और सामाजिक स्थितियाँ अपने आदर्श रूप में हैं। वे एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ दैहिक, दैविक, एवं भौतिक किसी भी प्रकार के कष्टों का लेश-मात्र न हो;जहाँ ह्रासोन्मुख वर्णाश्रम अपने आदर्श रूप में स्थापित किया जा सके; और अन्ततः समाज राम-राज्य के रूप में परिणत हो सके। तुलसीदास की यह कल्पना उनकी सामाजिक चेतना का ही विस्तार है।

  1. सामाजिक चेतना

   तुलसीदास की सामाजिक चेतना का महत्त्व उनकी सामाजिक लोकप्रियता के रूप में भी दिखाई देती है। उनकी सामाजिक चेतना के कई स्तर हैं; जो व्यक्तिगत सम्बन्धों से शुरू होकर पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों तक, और फिर आदर्श राज्य तक पहुँचते हैं। तुलसीदास का समाज आदर्श परिवार, आदर्श समाज और लोक-मंगल की बुनियाद पर खड़ा है।

 

3.1. आदर्श परिवार

 

तुलसीदास भारतीय सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप संयुक्त परिवार को अधिक महत्त्व देते हैं। उन्होंने संयुक्त परिवार के आदर्शों को केवल सिद्धान्तों में नहीं, पात्रों के व्यवहारों में भी दर्शाया है। भाई-भाई का सम्बन्ध, पति-पत्‍नी का सम्बन्ध, पिता-पुत्र का सम्बन्ध, माता और पुत्र का सम्बन्ध, हर जगह तुलसी पारिवारिक आदर्श का परिचय देते हैं। उनके पारिवारिक आदर्श में व्यक्तिगत स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। हर सदस्य त्याग की प्रतिमूर्ति है। राज्याभिषेक की बात आई तो राम चिन्तित हुए–

 

जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।

करनबेध उपबीत बिआहा। संग-संग सब भए उछाहा।

बिमल बंस यहु अनुचित एकू ।बन्धु बिहाई बडे़हि अभिषेक।

 

हम सब भाई एक ही साथ जन्मे; खाना, सोना, लड़कपन के खेलकूद, कनछेदन, जनेऊ, विवाह सब उत्सव एक साथ हुए; परन्तु  राज्याभिषेक मेरा ही क्यूँ? यह कौनसा नियम है! तुलसीदास यहाँ राम के प्रेमपूर्ण पछतावे को भक्तों के मन की कुटिलता हरण करने वाला बताते हैं। परन्तु  दूसरी ओर कैकेयी के स्वार्थ की घोर निन्दा करते हैं। राम अपने बनवास की घोषणा के बावजूद कैकयी से प्रेमपूर्वक मिलते हैं, जबकि कैकेयी ने सिर्फ राम का वनगमन ही नहीं माँगा था–तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी। बनवास के साथ-साथ तपस्वी का वेश भी होना चाहिए। अपने जीवन की इस भीषण परिस्थितियों में भी राम मुस्कुराकर कैकेयी से उस वरदान को स्वीकारते हैं–

 

 सुनु जननी सोई सुतु बड़भागी। जो पितु-मातु बचन अनुरागी।

 

 हे माता! सुनो, वही पुत्र सबसे बड़ा भाग्यशाली है, जो अपने माता-पिता के बचनों का अनुरागी है। यहाँ पारिवारिक त्याग अपनी उत्कृष्टता को प्राप्‍त करता है। जब राम कहते हैं–

 

भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू।

 

मेरे प्राण-प्रिय भरत राजगद्दी पाएँगे, मेरे लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? ऐसा प्रतीत होता है, मानो विधाता हर प्रकार से मेरे अनुकूल है।

 

दशरथ के परिवार में न सिर्फ राम, बल्कि एक-एक सदस्य त्याग और आदर्श की प्रतिमूर्ति है। दशरथ जी की मृत्यु के उपरान्त भरत जब अयोध्या पहुँचते हैं, और उन्हें राम-वनगमन और पिता की मृत्यु का कारण पता चलता है, तब इस पारिवारिक संकट का मूल वे स्वयं को मानते हैं–

 

भरतहि विसरोउ पितुमरन सुनत राम बन गौनु।

हेतु अपनपउ जानि जियँ थकित रहे धरि मौन।

 

राम का बन जाना सुनकर भरत, पिता की मुत्यु भूल गए और हृदय में इन सारे अनर्थ का कारण स्वयं को मानकर, मौन होकर, स्तम्भित रह गए। पुनः भरत का अपनी माता कैकेयी के प्रति यह कथन यहाँ दृष्टव्य है–

 

जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोहि।

पेड़ काटि तै पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।

 

अगर तुम्हारी ऐसी ही दुष्ट इच्छा थी, तो तूने मुझे जन्मते ही क्यूँ न मार डाला। तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है, और मछली के जीने के लिए पानी को उलीच डाला। यहाँ तुलसीदास किसी भी तरह के सम्बन्धों में स्वार्थ को स्थान नहीं देते। चाहे माँ और पुत्र का ही सम्बन्ध क्यों न हो। उन्हें पता था कि स्वार्थ पारिवारिक बुनियाद का सबसे बड़ा दुश्मन है। इसलिए एक पुत्र के मुख से भी अपनी माँ की निन्दा करवाने से तुलसी नहीं हिचकते।

 

रामचरितमानस में जहाँ कहीं भी पारिवारिक आदर्श एवं पारिवारिक मर्यादा का उल्लंघन तुलसी देखते हैं, उसकी घोर निन्दा करते हैं। बालि और सुग्रीव का परिवार भी इसका उदाहरण है। सुग्रीव अज्ञानता या सन्देहवश बालि को मृत समझकर राजसिंहासन पर बैठ जाता है। परन्तु बालि का लौटकर आना और बिना कुछ कहे, सुग्रीव को शत्रु के समान समझकर अपने छोटे भाई की स्‍त्री का हरण कर लेना तुलसीदास के लिए पारिवारिक मर्यादा का उल्लंघन है। बालि की मुत्यु के वक्त तुलसीदास राम से यह कहवाना नहीं भूलते–

 

अनुज बधू भगिनी सुत नारी । सुनु सठ कन्या सम ए चारी।

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकई जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।

 

छोटे भाई की स्‍त्री, बहिन, पुत्र की स्‍त्री और कन्या ये चारों समान हैं । इनको जो कोई बुरी दृष्टि  से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता।

 

पारिवारिक मर्यादा और सम्बन्धों में प्रतिबद्वता को तुलसीदास रावण के परिवार में भी दिखाते हैं। रावण द्वारा सीता का हरण कर लेना एक अनुचित कार्य था, फिर भी उनके परिवार के सदस्यों ने इस बात की जानकारी के बावजूद  पारिवारिक मर्यादा का निर्वाह किया।

 

मन्दोदरी मन महुँ अस ठयऊ पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।

 

रावण को कालवश मतिभ्रम हो गया है। फिर भी अन्त समय तक उसका साथ देती है। त्रिजटा, कुम्भकर्ण, मेघनाद या फिर रावण-परिवार के अन्य सदस्य… सब अपनी पारिवारिक मर्यादा में जीते हुए अन्त में मुत्यु को प्राप्‍त होते हैं। परन्तु विभीषण द्वारा अपने भाई का साथ न देकर राम की शरण में जाना, हालाँकि भक्ति-भाव के दृष्टिकोण से तुलसी उसे महत्त्व देते हैं, लेकिन जहाँ परिवार की बात आती है, विभीषण को महत्त्व नहीं मिलता। आज सामान्य जनमानस में भी विभीषण एक भ्रातृ-द्रोह का पर्याय मात्र है। जिस पर तरह-तरह के मुहावरे गढ़े जाते रहे हैं।

 

3.2. सामाजिक आदर्श

 

तुलसीदास के सामाजिक आदर्श का आधार वर्णाश्रम धर्म है। वे वर्णाश्रम आधारित समाज को आदर्श समाज की कोटि में रखते हैं। जहाँ समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्णानुसार सामाजिक मर्यादा का पालन करता है। वर्णाश्रम के इस सोपान में तुलसी ब्राह्मणों को श्रेष्ठ घोषित करते हैं, और उनके चरणों की बार-बार वन्दना करते हैं।

 

न्दउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना।

 

वे सबसे पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों की चरण-वन्दना करते हैं, जो अज्ञान से उत्पन्‍न सभी सन्देहों को हरने वाले हैं। वे आगे कहते हैं–

 

सापत ताड़त पुरुष कहन्ता। बिप्र पूज्य अस गावहिं सन्ता।

 

शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूजनीय होता है। ऐसा सन्त कहते हैं। तुलसीदास की दृष्टि में समाज द्वारा वर्णव्यवस्था का उल्लंघन अक्षम्य अपराध है। इसी वर्ण-व्यवस्था और वेदों की नींव पर तुलसीदास के रामराज्य और आदर्श समाज का विशाल प्रासाद खड़ा है।

 

किसी भी समाज के निर्माण में न सिर्फ सामाजिक आचरणों बल्कि व्यक्तिगत आचरणों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इन्हीं व्यक्तिगत आचरणों से कई प्रकार के सम्बन्ध जुड़े होते हैं, जिनकी आदर्श समाज के निर्माण में महती भूमिका होती है। जैसे पति-पत्‍नी का सम्बन्ध, भाई-भाई का सम्बन्ध, मित्रता का सम्बन्ध आदि। आदर्श पत्‍नी आचरण अनुसूया-सीता संवाद में उन्होंने स्पष्ट किया है। अनुसूया सीता को पातिव्रत्य धर्म की शिक्षा देती हुई कहती हैं–

 

            बृद्व रोगबस जड़ धनहीना। अन्ध बधिर क्रोधी अति दीना।

            ऐसेहु पति कर किए अपमानानारि पाव जमपुर दुख नाना।

            एकई धर्म एक व्रतनेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा।

            जग पतिब्रता चारि विधि अहहीं। बेद पुरान सन्त सब कहहीं।।

            उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहु आन पुरुष जग नाहीं।

            मध्यम परपति देखई कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसें।

            धर्म विचारी समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।

            बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई।

 

तुलसीदास के अनुसार वृद्व, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अन्धा, बहरा, क्रोधी, और अत्यन्त दीन पति का भी अपमान करने पर स्‍त्रियाँ यमपुर में तरह-तरह के दुख पाती हैं। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों से प्रेम करना ही स्‍त्री का एक मात्र धर्म है। जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएं हैं। वेद, पुराण और सन्तों के अनुसार उत्तम श्रेणी की स्‍त्रियाँ अपने पति को छोड़ दूसरे पुरुष के बारे में स्वप्‍न में भी नहीं सोचती हैं। मध्यम श्रेणी की स्‍त्रियाँ पति के अलावा दूसरे पुरुष को सगे भाई, पिता या पुत्र के रूप में देखती हैं। जो स़्त्री भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्‍त्री समझना चाहिए। तुलसीदास एक आदर्श दाम्पत्य के लिए समाज में स्‍त्रियों का पुरुषों के प्रति इस आचरण को अनिवार्य मानते हैं।

 

तुलसीदास ने पारिवारिक सम्बन्धों में भाई-भाई के सम्बन्ध को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। चूँकि यह सम्बन्ध अन्य सम्बन्धों  की अपेक्षा अधिक नाजुक है, इसलिए राम और भरत तथा राम और लक्ष्मण के माध्यम से समाज को भातृवत प्रेम की एक मिसाल देते हैं। राम और भरत का प्रेम पारिवारिक सम्बन्धों  के माधुर्य का जीता जागता उदाहरण है। अयोध्या लौटने पर जब भरत को अपने राजपद और राम के बनवास का पता चलता है तो वे कैकेयी की भर्त्सना इन शब्दों में करते हैं–

 

भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।

जो हसि सो हसि मुँह मसि लाई। आँखि ओट उठि बैठहि जाई।

 

राम भी तुझे अहित हो गए तू कौन है? मुझे सच-सच कह। तू जो है, सो है, अब मुँह में स्याही पोतकर मेरी आँखों से ओझल हो जा। यहाँ तुलसीदास माता-पुत्र के सम्बन्धों से ऊपर भाई-भाई के प्रेम को स्थान देते हैं। आगे चलकर जब लक्ष्मण को शक्तिबाण लगता है,तो वह घटना बन जाती है राम के जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति बन जाती है। राम कहते हैं–

 

            जौं जनतेउँ बन बन्धु विछाहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू

            सुत बित नारी भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा।

            अस विचारि जिय जागहुँ ताता। मिलई न जगत सहोदर भ्राता।

 

यदि मैं जानता कि वन में भाई का बिछोह होगा तो मैं पिता का वचन भी ठुकरा देता। पुत्र, धन, स्‍त्री, घर और परिवार, ये तो संसार में बार-बार होते जाते हैं, परन्तु जगत में सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा विचार कर वे कह उठते हैं–हे तात, जगो। राम, यहाँ सिर्फ भाई के लिए पितृवचन के अवहेलना की ही घोषणा नहीं करते, बल्कि जिस पत्‍नी के लिए इतनी बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं, उसे भी भाई के प्रेम से ऊँचा स्थान नहीं देते हैं।

 

जैहउँ अवध कवन मुँहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई।

बरु अपजस सहतेउँ जग माही। नारि हानि विसेष छति नाहिं।

 

स्‍त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर मैं कौन-सा मुँह लेकर अयोध्या जाऊँगा। मैं अपनी स्‍त्री के खोने की बदनामी जगत में सह लेता, क्योंकि स्‍त्री की हानि से कोई विशेष क्षति नहीं थी। यहाँ भ्रातृ-प्रेम के साथ तुलसीदास के मन में स्‍त्रियों के प्रति एक निरादरपूर्ण भाव भी है। जिसे नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता।

 

रामचरितमानस के राम एक आदर्श मित्र भी हैं। सुग्रीव से उनकी मित्रता हनुमान के माध्यम से होती है। जब राम को सुग्रीव की विपत्ति का बोध होता है तो वे बालि को मारने की प्रतिज्ञा करते हैं और मित्रता के कर्तव्यबोध की भी बात करते हैं।

 

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहिं बिलोकत पातक भारी।

निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना

कुपथ निवारि सुपन्थ चलावा। गुन प्रकटै अवगुनन्हि दुरावा।

देत लेत मन संक न धरहि। बल अनुमान सदा हित करई।

विपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा।

 

जो अपने मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से पाप लगता है। जो अपने पहाड़-से दुख को भी धूल समान और मित्र के धूल जैसे दुख को भी सुमेरु पर्वत समान मानते हैं, तत्काल उन्हें दूर करने का प्रयास करते हैं, वे ही सच्‍चे मित्र हैं। मित्र का यह कर्त्तव्य  है कि अपने मित्र को कुमार्ग से हटाकर सुमार्ग पर लाए और उसके गुणों को प्रकट कर, अवगुणों को दूर करे। मित्र को देने-लेने में शंका न करे तथा अपने बल के अनुसार सदा मित्र का हित करे। विपत्ति के समय में मित्र से सौ गुणा स्‍नेह करे। मित्रता के यही लक्षण वेदों में बताए गए हैं।

 

केवट, निषाद और शबरी प्रसंग भी तुलसीदास के सामाजिक आदर्श के प्रतिमान हैं। जहाँ एक ओर राम निषाद राज के आतिथ्य को स्वीकार कर उसे भरत समान भाई का दर्जा देते हैं, वहीं शबरी के झूठे बेर खाकर वर्णाश्रम के उन मानदण्डों को भी खारिज करते हैं जो जातिगत भेद पैदा करते हैं। तुलसीदास इन प्रसंगों के माध्यम से हर जाति को एक दूसरे से जोड़कर, सम्मान देकर वर्णाश्रम की श्रेष्ठता सिद्व करना चाहते हैं। शबरी जब राम से कहती है–

 

            केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।

 

मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ। मैं नीच जाति की अत्यन्त जड़मति हूँ। इस पर राम प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं–

 

            कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।

            जाति पाँति कुल धर्म बढ़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।

            भगति हीन नर सोहई कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।

 

हे भामिनी! मेरी बात सुनिए। मैं तो केवल एक भक्ति का सम्बन्ध मानता हूँ। जाति, पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता…. इन सबके होने पर भी मनुष्य, यदि भक्ति से रहित है, तो वह जलहीन बादल के समान शोभाहीन लगता है।

 

रामचरितमानस में तुलसीदास ने व्यक्ति, परिवार और समाज– तीनों धर्मों का व्यावहारिक विवेचन प्रस्तुत किया है। उनके राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। अन्य पात्र भी मर्यादित आचरण करते हैं। हर प्रसंग, हर घटना में वे ध्यान रखते हुए दिखते हैं कि किसी भी प्रकार से मर्यादा का उल्लंघन न हो। उनकी धारणा के अनुसार मर्यादा-पालन से ही समाज-कल्याण सम्भव है। उनका शृंगार वर्णन भी अत्यन्त मर्यादित है। जनक की पुष्पवाटिका में सीता को पहली बार देखा देखकर उनके सौन्दर्य पर राम भाव-विभोर हो उठते हैं;  वे  लक्ष्मण से कहते हैं–

 

कंकन किंकिनि नुपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन राम मनहिं गुनि।

मानहु मदन दुन्दुभी दीन्हीं । मनसा विस्व विजय करि लीन्हीं।

 

हाथों के कड़े, करधनी और पाजेब की आवाज सुनकर राम लक्ष्मण से कहते हैं–ऐसी ध्वनि आ रही है, मानो कामदेव ने विश्‍व-विजय का संकल्प लेकर डंके पर चोट मारी है। यहाँ पुष्पवाटिका का हर प्रसंग, सीता का रूप सौन्दर्य, राम की मनःस्थिति, राम-सीता का मौन प्रणय-निवेदन, अत्यन्त मर्यादित है।

 

तुलसी के राम अपने शत्रु के भाई तक को शरण देते हैं। विभीषण जब राम की शरण में आते हैं, तो राम उन्हें उचित सम्मान देते हैं और हनुमान से कहते हैं–

 

            सरणागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि

            ते नर पा पापमय तिन्हिहि बिलोकत हानि।

 

जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान कर शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे क्षुद्र हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने से भी पाप होता है। इसलिए वे विभीषण के दीन वचन सुनकर, उन्हें गले से लगाते हैं–

 

            दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा, भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा।

            स्पष्टतः तुलसीदास के समाज में मर्यादा और आदर्श का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

  1. लोक-मंगल की अवधारणा

    तुलसीदास कविता को मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि उसे लोक-मंगल, लोक-हित का साधन मानते हैं। उनकी दृष्टि  में वही काव्य श्रेष्ठ है, जिसमें समाज का हित हो। वे लिखते हैं– ‘‘कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।। अर्थात कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वहीं उत्तम है, जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो। तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसके सैद्वान्तिक और व्यवहारिक- दोनों पक्षों का ध्यान रखा है। यह ग्रन्थ उदारता, त्याग, दया इत्यादि वृत्तियों को जाग्रत करता है। उनके राम संसार में हो रहे अधर्मों के बीच, धर्म-स्थापना के लिए प्रकट होते हैं । तुलसीदास कहते हैं–

 

            जब जब होई धरम कै हानि।बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।

            तबतब प्रभु धरि मनुज सरीरा।हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।

 

जब-जब धर्म की हानि होती है, असुर का अधर्म और अभिमान बढ़ने लगता है तब-तब प्रभु मनुष्य रूप में अवतरित होते हैं और सज्जनों का दुख हरते हैं। सामाजिक, धार्मिक कष्टों से निरंतर पीड़ित असंख्य जनता को तुलसी का यह अटल विश्‍वास आश्‍वस्त करता है। त्रस्त जनता किसी ऐसे नायक की अपेक्षा करती है, जिनके स्मरण मात्र से दुख दूर होने का सम्बल मिले।

 

तुलसी ने राम को ऐसे ही आदर्श और दुखहर्ता रूप की परिकल्पना की है । राम धर्म और नैतिकता के मानदण्ड हैं। एक मनुष्य के जितने भी आदर्श हो सकते हैं–त्याग, विराग, मानवता, लोकहित…सब रूपों की परिकल्पना तुलसीदास ने की है। उनके राम सर्वगुणसम्पन्‍न, सर्वशक्तिमान एवं शीलवान नायक हैं। वे शील-सौन्दर्य और मर्यादा के भण्डार हैं। जन-जन के प्रिय हैं। इतना ही नहीं राम के साथ-साथ सीता भी आदर्श पत्‍नी के रूप में, भरत आदर्श भाई के रूप में, हनुमान आदर्श सेवक के रूप में विद्यमान हैं। उन्होंने पात्रों की सृष्टि भी लोक-मंगलकारी रूप में की है।

 

उनके काव्य में विभिन्‍न सम्प्रदायों एवं मत-मतान्तरों के समन्वय की कोशिश भी स्पष्ट दिखती है। शैव और वैष्णव का समन्वय करते हुए वे कहते हैं–

 

            सिवद्रोही मम दासा कहावा। सो नर मोहि सपनेहु नहिं भावा।

 

निर्गुण और सगुण, ज्ञान और भक्ति का समन्वय भी उनके यहाँ इन रूपों में हुआ हैं–

 

            ग्यानहिं भगतिहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।

 

इसके साथ-साथ तुलसीदास ने दार्शनिक क्षेत्र, राजा-प्रजा सम्बन्ध, पारिवारिक क्षेत्र, साहित्यिक क्षेत्र, नर-नारायण के रूप में सम्पूर्ण समन्वय की विराट चेष्टा की है। अन्ततः तुलसी के राम मंगल भवन अमंगल हारी  है।

  1. निष्कर्ष

    तुलसीदास सामंती आदर्श के उच्‍चतम बिन्दु पर खड़े समाज की परिकल्पना करते हैं। उनके यहाँ समाज का हर व्यक्ति वर्णाश्रम का पालन करता हुआ दिखता है। किसी का किसी से कोई मतभेद नहीं है। सब एक दूसरे से प्रेम करते हैं। यहाँ प्रजा से शास्‍त्र-सम्मत एवं अनुशासित आचरण की कामना है तथा राजा के  प्रजावत्सल एवं विवेकी होने की। यहाँ व्यक्ति, समाज एवं परिवार में मंगल-साधना के भाव की अपेक्षा है। तुलसीदास की यह समाज-व्यवस्था उनके रामराज्य के आदर्श में दिखाई पड़ती है। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्‍त जीवन-मूल्यों को रामकथा के माध्यम से व्याख्यायित करने की कोशिश की है; जिसकी सामाजिक स्वीकृति को उनके काव्य की लोकप्रियता के माध्यम से देखा जा सकता है।

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. गोस्वामी तुलसीदास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, नागरीप्रचारणी सभा,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  4. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  5. मध्यकालीन कविता के सामाजिक सरोकार, डॉ.सत्यदेव त्रिपाठी,शिल्पायन,दिल्ली
  6. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली,मुकुन्द द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
  7. लोकवादी तुलसी, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
  8. गोस्वामी तुलसीदास, रामजी तिवारी, साहित्य अकादमी,नई दिल्ली
  9. तुलसीकाव्य मीमांसा, उदयभानु सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली

    वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  3. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B8