16 कृष्ण काव्य परम्परा और सूरदास
प्रभाकर सिंह
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- कृष्ण-काव्य परम्परा के आरम्भ और पृष्ठभूमि की जानकारी ले सकेंगे
- कृष्ण-भक्ति सम्प्रदायों के प्रमुख कवियों और उनकी कविताई की दार्शनिकता जान सकेंगे।
- कृष्ण-काव्य परम्परा में सूर का महत्व समझ सकेंगे।
- सूरदास से पूर्व की कृष्ण-काव्य परम्परा और उनके बाद, आधुनिक काल तक में रचे गए कृष्ण-काव्य की परम्परा का सापेक्ष मूल्यांकन कर सकेंगे।
- कृष्ण-काव्य परम्परा और सूर-काव्य विवेचन के लिए उपयुक्त विविध पारम्परिक एवं आधुनिक स्रोतों की जानकारी हो सकेगी।
- प्रस्तावना
कृष्ण-भक्ति काव्य के आरम्भ की पृष्ठभूमि, उसके विकास की रूपरेखा, और उसके महत्त्व को रेखांकित करते हुए बड़ी स्पष्टता से यह तथ्य सामने आता है कि कृष्ण-भक्ति के लोक रंजनकारी काव्य ने भारतीय मानस में आनन्द की लहर पैदा की। सरलता, सहजता, वाक्य चातुर्य और वाद्विद्ग्धता से युक्त भक्ति और लीला का यह काव्य आज भी प्रासंगिक है। वात्सल्य, बाल-लीला, माधुर्य, कान्त, दास्य, सख्य आदि भावों की भक्ति और लीला का चित्रण इस काव्य को खास बनाता है। काव्य की इस परम्परा में सबसे मार्मिक, संवेदनशील और सर्जनात्मक कविता सूरदास की है। कृष्ण विषयक भावों से परिपूर्ण सूर ने अपनी पूर्ववर्ती काव्य-परम्परा का अनुसरण किया और फिर अपनी काव्य-प्रतिभा एवं भक्ति से ऐसा काव्य-संसार रचा कि बाद की कृष्ण-भक्ति कविता पर इसकी अमिट छाप पड़ी। रामचन्द्र शुक्ल ने तो यहाँ तक लिख दिया कि वात्सल्य और बाल-लीला का काव्य-सृजन जो सूर के बाद हुआ, वह सूर के काव्य का जूठन ही है। इस पाठ में सूरदास के इसी काव्य-वैशिष्ट्य का उद्घाटन किया जाएगा।
- कृष्ण-भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि और विकास
भारत में कृष्ण-काव्य की परम्परा के शुरुआत की कोई निश्चित जानकारी नहीं है। मध्ययुग के भक्ति-आन्दोलन से कृष्ण-भक्ति काव्य का विधिवत विकास हुआ, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि उससे पूर्व की है, जहाँ से इस काव्य को आधार मिलता है। कृष्ण-भक्ति धारा का विकास सम्पूर्ण भारत में हुआ। भक्ति-आन्दोलन में भक्ति-काव्य की यह धारा दक्षिण से आरम्भ होकर उत्तर और फिर पूर्व एवं पश्चिम तक फैल गई। वर्तमान समय में कृष्ण भक्ति के विस्तार और प्रसिद्धि का प्रमाण यही है कि भारत ही नहीं, विश्व के कई देशो में इस काव्य-परम्परा के साहित्य को बड़े चाव से पढ़ा और सुना जाता है। कृष्ण अब भारत ही नहीं, विश्व भर के साहित्य के प्रमुख नायक हैं, जिनको केन्द्रित कर विश्व की विविध भाषाओं में काव्य-सृजन हुआ है।
3.1. कृष्ण-भक्ति काव्य का आरम्भ
कृष्ण-भक्ति का विस्तार भले ही भक्ति-आन्दोलन के बाद हुआ, पर उसका आरम्भ पहले ही हो चुका था। वैदिक साहित्य में कृष्ण का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। कृष्ण की चर्चा छान्दोग्य उपनिषद में भी दिखती है। बौद्धों की जातक कथा में इसका संकेत मिलता है। जैनों के यहाँ भी कृष्ण उनके तीर्थंकरों के समय विद्यमान हैं। पाणिनि के अष्टाध्यायी में ‘वासुदेवार्णुनाभ्यावुन’ सूत्र से वासुदेव (कृष्ण) नाम का उल्लेख मिलता है। वासुदेव को कालान्तर में कृष्ण ही माना गया है। आगे चलकर भागवत कथाओं एवं महाभारत में कृष्ण का स्वरूप विकसित हुआ है। महाभारत काल में वासुदेव, विष्णु रूप में राजनीतिज्ञ, योगी, लीलापुरुष कृष्ण में रूपान्तरित हो गया। कृष्ण के चरित्र की प्रतिष्ठा में सर्वाधिक योगदान ‘श्रीमद्भागवतपुराण’ का रहा है। कृष्ण-भक्ति का सबसे बड़ा स्रोत यही ग्रन्थ है। कृष्ण-भक्ति सम्बन्धी सम्प्रदायों की दार्शनिक मान्यताओं का आधार भी यही ग्रन्थ है। कृष्ण-भक्ति काव्य के उत्तरोतर विकास में कृष्णचरित विकसित हुआ। यही परम्परा दक्षिण भारत में तमिल साहित्य में एवं बंगाल में चैतन्य महाप्रभु से लेकर मिथिला में विद्यापति तक पहुँचती है। सूर रचित कृष्ण-काव्य पर विद्यापति की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। अधिकतर पदों के भाव भी समानार्थक प्रतीत होते हैं।
3.2. कृष्ण-भक्ति काव्य परम्परा और प्रमुख कवि
भक्ति-काव्य का आरम्भ निर्गुण सन्त-काव्य से होता है, जिसका प्रसार सगुण भक्ति में हुआ। जनपदीय भाषाओं में जब राम और कृष्ण-भक्त कवियों ने इनके चरित्र को काव्य में सृजित किया, तो जीवन में नए उत्सव और उल्लास का स्वर संचरित हुआ। कृष्ण भक्ति काव्य का प्रसार तो इसमें सबसे अधिक व्यापक और सृजनशील है। दार्शनिक आधार की वैचारिकी पाकर भक्ति-काव्य की कविताई अधिक विकसित हुई। राम-भक्ति में रामानुजाचार्य ने ‘विशिष्टाद्वैतवाद’ से यह कार्य किया, तो बल्लभाचार्य के ‘शुद्धाद्वैतवाद’ ने कृष्ण-भक्ति काव्य को वैचारिक आधार प्रदान किया। शुद्धाद्वैतवाद के आधार पर उन्होंने कृष्ण-भक्ति के विकास के लिए जिस वैज्ञानिक भक्ति-मार्ग का विकास किया, उसे ‘पुष्टिमार्ग’ कहते है। वल्लभाचार्य ने भक्ति के इस मार्ग की दार्शनिक और भक्तिपरक विवेचना की। उन्होंने कृष्ण-भक्त कवियों को इसमें दीक्षित कर कृष्ण-भक्ति काव्य-धारा के मार्ग को प्रशस्त किया। इन कवियों में सबसे विशिष्ट स्वर ‘सूरदास’ का है। वल्लभाचार्य ने ‘शुद्धाद्वैतवाद’ में ब्रह्म और जीव में अन्तर स्पष्ट करते हुए ब्रह्म को सत्, चित् और आनन्द, ‘सच्चिदानन्द’ स्वरूप का विवेचन किया। उनके अनुसार ब्रह्म में सत्, चित् और आनन्द प्रत्यक्ष रूप में मौजूद होते हैं। ब्रह्म अपने इन तीनो स्वरूपों का आविर्भाव और तिरोभाव करता रहता है। ‘शुद्धाद्वैतवाद’ का यह दर्शन भक्ति के क्षेत्र में ‘पुष्टिमार्ग’ कहलाता है।
‘पुष्टिमार्ग’ की अवधारणा का स्रोत ‘श्रीमद्भागवत पुराण’ है। इस पुराण के दूसरे स्कन्ध के दसवें अध्याय के चौथे श्लोक में कहा गया है – ‘पोषण तद्नुग्रहः’। इस कथन में ‘तद्’ भगवान है ‘पोषण’ पुष्टि है। भगवान का अनुग्रह या अनुकम्पा ही जीवात्मा की पुष्टि अर्थात पोषण का सर्वोत्तम अवलम्ब है। भगवान की अनुकम्पा से जीवात्मा में भक्ति का संचार होता है। इस मार्ग के अनुसार प्रेमपूर्वक ईश्वर की सेवा और आराधना जीवात्मा का परम लक्ष्य है। जीवों की प्रकृति की भिन्नता के अनुसार पुष्टि चार प्रकार की है – प्रवाह पुष्टि, मर्यादा पुष्टि, पुष्टि-पुष्टि एवं शुद्ध पुष्टि। इसमें शुद्ध पुष्टि सर्वोत्तम है। इसमें भक्त भगवान और उसकी लीलाओं से तदाकार या पूर्ण तादात्म्य अनुभव करने लगता है। भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। भक्त की जीवदशा समाप्त हो जाती है। वह भगवान पर पूरी तरह से आश्रित हो जाता है. पुष्टि सम्प्रदाय में इसे सायुज्य मुक्ति कहते हैं। ‘सायुज्य’ का अर्थ है ‘भेदरहित मिलना’, आत्मा का परमात्मा में लीन होकर एकमेक हो जाना, सायुज्य मुक्ति है।
वल्लभाचार्य के अनुसार ब्रह्म का आनन्द से युक्त रूप ही उसका असली रूप है इसी में उसका ब्रह्मत्व निहित है। सत् और चित् वाला अंश तो जीवात्मा में आविर्भूत रहता ही है, केवल आनन्द अंश तिरोहित रहता है। इसी आनन्द प्रधान ब्रह्म में लीन होकर जीव उसकी नित्य लीला सृष्टि में प्रवेश करता है। पुष्टिमार्ग रागात्मिका भक्ति है, जो भगवत्कृपा से भक्त को प्राप्त होती है, जिसका आधार भगवत प्रेम है। इसे ‘प्रेम लक्षणा भक्ति’ इसी कारण कहा जाता है। ‘प्रेम लक्षणा भक्ति’ में वात्सल्य, सख्य और माधुर्य तीन प्रकार की भक्ति की प्रधानता रहती है। कृष्णोपासक कवियों में प्रायः इन्ही तीनों भक्ति का रूप मौजूद है।
वल्लभाचार्य के पुत्र गोसाईं विट्ठलनाथ ने अपने पिता के चार शिष्यों सूरदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास और कृष्णदास तथा अपने चार शिष्यों छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, चतुर्भुजदास एवं नन्ददास को लेकर अष्टछाप का निर्माण किया। आठ कवि होने के कारण नाम अष्टछाप रखा। ये आठों भक्त कवि सख्य-भाव से कृष्ण में अनुरक्त होकर उनका कीर्तन और गायन करते थे। ‘भक्ति’, ‘कविता’ और ‘संगीत’ तीनों के मेल से ‘सूरदास’ का काव्य इनमें सबसे सृजनशील है। सूरदास का सूरसागर कृष्ण-भक्ति धारा का अनुपम ग्रन्थ है। हालाँकि सूर के इस ग्रन्थ में वल्लभाचार्य के दर्शन और श्रीमद्भागवत के प्रसंग, काव्य-स्रोत के रूप में मौजूद हैं, लेकिन सूर ने अपनी मौलिकता से सूरसागर में जिन नए दृश्यों और प्रसंगो की उद्भावना की है, वह विरल है। भक्ति आन्दोलन की सामाजिकता, लोक-जागरण की चेतना और प्रेम की संवेदना के संयोजन से सूरदास ने श्रेष्ठ भक्ति-काव्य का सृजन किया। वात्सल्य और शृंगार वर्णन के प्रसंगों को पढ़कर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सही लिखा है कि सूर वात्सल्य और शृंगार का कोना-कोना झाँक आए हैं। भ्रमरगीत-सार में सहृदयता और वाग्विदग्धता का प्रयोग सूर के कलात्मक वैभव का उदाहरण है। अष्टछाप के अन्य कवियों में परमानन्ददास का काव्य उल्लेखनीय है। परमानन्ददास सूरदास के बाद अष्टछाप के एक मात्र कवि थे, जिन्होंने कृष्ण की तमाम लीलाओं से जुड़े पदों की रचना करने का प्रयास किया। ‘परमानंदसागर’ और ‘परमानन्द के पद’ नाम से इनके संग्रह उपलब्ध हैं। उनके द्वारा रचित ‘परमानंदसागर’ में 1101 पद संगृहित हैं। वात्सल्य, बाल-लीला और वियोग का सृजनात्मक चित्रण इनके काव्य में मौजूद हैं। कृष्णदास, कुम्भनदास की भाँति लीला से जुड़े पदों की रचना करते थे। उन्होंने लगभग 250 पदों की रचना की। कृष्णदास की कविता में राधाकृष्ण प्रेम, रूप-सौन्दर्य और संगीत तत्त्व का दर्शन होता है। कुम्भनदास अष्टछाप में दीक्षित प्रथम कवि हैं। कुम्भनदास को इष्टदेव कृष्ण के इतर किसी भी जन का यशगान करना काम्य नहीं था। ‘कुम्भनदास’ का यह पद भक्ति-काव्य प्रेमी हर पाठक के लिए प्रेरणाप्रद है –
सन्तन को कहा सीकरी सो काम/आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
उनकी भक्ति मधुर भाव की लीला-भक्ति थी। राग कल्पद्रुम, राग रत्नाकर और सम्प्रदाय के कीर्तन संग्रहों में उनके लगभग 500 गीत संकलित हैं। उनके पदों का एक संग्रह कुम्भनदास शीर्षक से भी मौजूद है। अपने पदों में उनके द्वारा जन्माष्टमी, गोवर्धनपूजा, गोचारण, भोग, प्रभु के रूप आदि का वर्णन अत्यन्त मनोहारी है ।
‘नन्ददास’ अष्टछाप कवियों में सूर के बाद सबसे प्रमुख हैं। नन्ददास ने कृष्ण की लीला के अतिरिक्त लौकिक एवं साहित्यिक विषयों पर भी रचनाएँ कीं। रसमंजरी, रासपंचाध्यायी और भँवरगीत इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। सूरदास के भ्रमरगीत की भाँति उद्धव-गोपी संवाद इनके यहाँ भँवरगीत में दिखाई देता है, जो खण्डकाव्य के रूप में है। उन्होंने अपनी रचना सिद्धान्तपन्चाध्यायी में कृष्ण और गोपियों की रासलीला का वर्णन किया है। सुदामाचरित और गोवर्धनलीला उनकी चर्चित कृतियां है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी नन्ददास की तार्किकता और कलात्मक उत्कृष्टता, उनको अष्टछाप का विशिष्ट कवि बनाती है। कहा भी गया है, ‘और कवि गढ़िया, नन्ददास जड़िया’।
गोविन्दस्वामी ने भी कुम्भनदास की भाँति पदों की रचना की। ये संगीत कला में भी निपुण थे। गोविन्दस्वामी के पदों का संकलन गोविन्दस्वामी के पद के शीर्षक से हैं। छीतस्वामी कविता और संगीत दोनो में निपुण थे। इनके पदों का संकलन छीतस्वामी की पदावली शीर्षक से है। चतुर्भुजदास कुम्भनदास के पुत्र थे। इन्होंने स्फुट पदों की रचना की है। इनके पद चतुर्भुज कीर्तन संग्रह व दानलीला शीर्षक से हैं। कृष्ण के प्रेम और माधुर्य भाव की भक्ति का इन कवियों ने रचनात्मक चित्रण किया है।
इनके अतिरिक्त कृष्ण-भक्ति से जुड़े अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में निम्बार्क सम्प्रदाय, राधावल्लभ सम्प्रदाय हरिदासी सम्प्रदाय, चैतन्य सम्प्रदाय और कुछ अन्य सम्प्रदाय के निरपेक्ष कवि भी हैं। निम्बार्काचार्य ‘द्वैताद्वैतवाद’ के प्रतिपादक थे। इन्होंने भक्ति के पाँच रूपों वात्सल्य, सख्य, दास्य, दाम्पत्य और शान्त भक्ति को प्रतिष्ठित किया। इस सम्प्रदाय के कवियों में श्रीभट्ट, हरिव्यासदेव, परशुराम उल्लेखनीय हैं।
कृष्ण-भक्त कवि सम्प्रदाय में ‘राधावल्लभ’ सम्प्रदाय का प्रमुख स्थान है। इसकी स्थापना आचार्य हितहरिवंश ने की। इसमें प्रेम के सख्य-भाव को महत्त्व दिया जाता है। हितहरिवंश, दामोदरदास, हरिरामव्यास, चतुर्भुजदास, ध्रुवदास इस सम्प्रदाय के कवि हैं। स्वामी हरिदास द्वारा संस्थापित हरिदासी सम्प्रदाय में भी ‘प्रेम’ को महत्त्व दिया गया। राधाकृष्ण की प्रेमलीला को यहाँ महत्त्व दिया गया है। स्वामी हरिदास, जगन्नाथ गोस्वामी, नागरीदास, सरसदास इस सम्प्रदाय के प्रमुख कवि हैं। कृष्ण-भक्ति धारा में चैतन्य मत, गौड़ीय सम्प्रदाय के रूप में संघटित हुआ। रागदास, गदाधर, भट्ट, भगवानदास, इस धारा के कवि हैं।
अष्टछाप के कवियों और विभिन्न सम्प्रदायों के कृष्ण-भक्त कवियों के अतिरिक्त कृष्ण काव्य-परम्परा में कुछ ऐसे कवि हैं जिनकी कविता में पन्थ निरपेक्ष मौलिक सृजन और काव्य संवेदना की गहराई है। ऐसे ही कवियों में मीराबाई और रसखान का नाम लिया जाता है। मीरा का जीवन और उनकी कविता एक दूसरे में घुले-मिले हैं। मीरा की कविता में सूर के काव्य का विस्तार है। रामस्वरूप चर्तुर्वेदी ने भक्ति काव्य यात्रा में सही लिखा है कि “मीरा का काव्य सूर द्वारा विस्तार में चित्रित गोपियों की विरहोन्मुखता का ‘डिटेल’ या ‘ब्यौरा’ है। जीवन-वृत्त में ब्रज की गोपियों से और रचना-धर्मिता में सूरदास से एक बारगी साम्य मीरा के पदों में अतिरिक्त तीव्रता भरता है।’’ मीरा के काव्य में ब्रज, राजस्थान और गुजरात की सांस्कृतिक छवियों और काव्य-भाषा का सृजनात्मक प्रतिफलन हुआ है। प्रेम और भक्ति का संश्लेष मीरा के काव्य को विरल बनाता है। रसखान कृष्ण-भक्ति परम्परा में प्रेम-साधना के अद्भुत कवि हैं। इनके दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं – सुजानरसखान और प्रेमवाटिका। इन्होंने अपने पदों में दोहा, कवित्त एवं सवैया छन्दों का प्रयोग किया है। सवैया छन्द में रचित उनका निम्नलिखित पद काफी प्रसिद्ध हुआ –
मानुष हौं तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन
जौं पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मँझारन
× × ×
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँपुर को तजि डारौं
× × ×
मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं , गुंज की माल गले पहिरौंगी ।
ओढ़ि पिताम्बर लै लकुटी बन गोधन ग्वालन संग फिरौंगी ।
× × ×
सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहिं निरन्तर गावैं ।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं ।
भाषा की सहजता एवं छन्दों के प्रसंगानुकूल प्रयोग ने इनके पदों को न सिर्फ मनोहारी बनाया, बल्कि उतनी ही लोकप्रियता प्रदान की।
- हिन्दी कृष्ण-काव्य परम्परा और सूर का काव्य
राधा-कृष्ण विषयक प्रथम काव्य रचना जयदेव का गीतगोविन्द है, जिसमें भक्ति एवं शृंगार का अद्भुत समावेश है। लोक-परम्परा की इसी पद्धति में चौदहवीं शताब्दी में महाकवि विद्यापति ने राधा-कृष्ण से जुड़े पदों की रचना मैथिली में की। उनकी इस पदावली को हिन्दी कृष्ण-काव्य की पहली रचना के रूप में स्वीकृति मिली। विद्यापति के बाद कृष्ण-काव्य की इस सुदीर्घ परम्परा में सबसे प्रमुख कवि सूरदास हैं। अपनी पूर्व परम्परा को आत्मसात कर सूर ने अपनी कविता में सृजन का ऐसा संसार रचा जिससे परवर्ती कृष्ण-काव्य की परम्परा प्रशस्त हुई। उन्होंने भक्ति-काव्य में प्रेम, वात्सल्य और माधुर्य की ऐसी कविता रची, जिसकी व्याप्ति आज भी है। सूरदास के यहाँ कृष्ण के कई रूपों का चित्रण दिखता है। सूरसागर में कृष्ण के गोकुल, मथुरा, वृन्दावन की सम्पूर्ण आख्यायिका को गीति-प्रबन्ध के रूप में देखा जा सकता है। उस आख्यान की रूपरेखा पर भले ही भागवत का प्रभाव हो, परन्तु प्रसंगों का विवरण कौशलपूर्ण है। सूरदास के यहाँ कृष्ण-कथा के विभिन्न प्रसंगों का गीतिमय चित्रण किया गया है। कृष्ण के जन्म, शैशव, ग्वालों के साथ विनोद, गोचारण, बाल-लीला, गोपियों के साथ केलि-क्रीडा, छद्मवेष धारणकर असुरों का वध आदि प्रसंगों की मुक्तक रचनाओं का चित्रण यहाँ मनोहारी है। भक्ति-काव्य में सूर की कविता के इसी महत्त्व की ओर संकेत करते हुए आचार्य शुक्ल ने लिखा ‘‘जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूष-धारा जो काल की कठोरता में दब गई थी, अवकाश पाते ही लोक-भाषा की सरसता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति, कोकिल कण्ठ में प्रगट हुई और आगे चलकर ब्रज के करील कुंजों के बीच मुरझाए मनों को सींचने लगी। आचार्यों की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्रीकृष्ण की प्रेमलीला का कीर्तन करने उठी, जिनमें सबसे सुरीली और मधुर झनकार अन्धे कवि सूरदास की वीणा की थी।’’
4.1. कृष्ण-काव्य परम्परा में सूर का स्थान
हिन्दी में कृष्ण-काव्य परम्परा के उद्भावक कवि मैथिल कोकिल विद्यापति हैं। हिन्दी के इस कवि पर संस्कृत के कवि जयदेव के कृष्ण-काव्य, संगीत और गीत का सीधा असर है। विद्यापति के राधा-कृष्ण विषयक पदों में वर्णित कृष्ण का मथुरागमन, गोपियों का विरह, कुब्जा के प्रति कृष्ण का लगाव, कृष्ण के विरह में गोपियों की व्याकुलता, पुरुषों की भ्रमर-वृत्ति आदि आख्यानों का सुगठित रूप ब्रज भाषा में अन्यत्र दुर्लभ है। उद्धव की उपस्थिति दोनों के काव्य में है। राधा-कृष्ण से जुड़े संयोग एवं वियोग दोनों पक्षों की अनेकानेक छवियाँ हमें विद्यापति के यहाँ दिखती है। सूर के पद, विद्यापति की परम्परा को ही आगे बढ़ाते हुए प्रतीत होते हैं। सूर के काव्य में विद्यापति के गीतों के माधुर्य की विरासत का समावेश तो है ही, ब्रज की लोक-परम्परा से सिक्त होकर उनकी कविता अधिक उर्वर बनती है। ब्रज भाषा में प्रचलित लोक गीतों और कथाओं की परम्परा को सूर ने सहजता से संजोया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा भी है, ‘‘बल्लभाचार्य जी की आज्ञा से सूरदास ने श्रीमद्भागवत की कथा को पदों में गाया।… कृष्ण-जन्म से लेकर मथुरा जाने तक की कथा अत्यन्त विस्तार से फुटकल पदों में गाई गई है। भिन्न-भिन्न लीलाओं के प्रसंग को लेकर इस सच्चे रसमग्न कवि ने अत्यन्त मधुर और मनोहर पदों की झड़ी-सी बाँध दी है। यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यपूर्ण है कि आगे होने वाले कवियों की शृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी-सी जान पड़ती हैं। अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीत-काव्य परम्परा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास-सा प्रतीत होती है।’’
सूर ने कृष्ण-काव्य की शास्त्रीय परम्परा, ब्रज के लोक-गीत और लोक-संस्कृति का अवगाहन कर कृष्ण काव्य का संसार रचा। वात्सल्य, बाल-लीला, माधुर्य भाव के भक्ति-काव्य द्वारा सूरदास ने कृष्ण-काव्य परम्परा को जिस ऊँचाई तक पहुँचा दिया, वहाँ तक दूसरा कवि न पहुँच सका। सूर के साथ और उनके बाद कृष्ण-काव्य की प्रशस्त दीर्घ परम्परा है। गोसाईं विठ्ठलनाथ द्वारा संयोजित अष्टछाप के कवियों में सूर के साथ परमानन्ददास, कुम्भनदास, कृष्णदास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास और नन्ददास हैं। इन कवियों ने ब्रजभाषा में कृष्ण-भक्ति और लीला का अद्भुत गान किया। हालाँकि अष्टछाप के सारे कवियों का काव्य महत्व का है, लेकिन सबसे विरल स्वर सूर का है उसके बाद नन्ददास की कविता को उनकी वाक्चतुरता और सहृदयता के लिए याद किया जाता है। भक्ति-काव्य की मार्मिक अभिव्यक्ति एवं प्रेम व प्रतिरोध मीराबाई के काव्य की विशेषता है। समर्पण और संवेदना से सिक्त मीरा के पदों में कृष्ण-भक्ति का सुन्दर रूप है। कृष्ण के प्रेम की संवेदना से मीरा ने प्रतिरोध का ऐसा संसार रचा जो स्त्री-कविता का विरल संयोग है। मीरा की भक्ति दैन्य एवं माधुर्य भाव की है। उनकी भक्ति में ईश्वर के निर्गुण एवं सगुण दोनों रूप के दर्शन होते हैं। मीरा का काव्य गहन जीवनानुभूति से संपृक्त काव्य है। गिरधर-गोपाल के एकनिष्ठ प्रेम में पगी मीरा तमाम सामन्ती व्यवस्थाओं के समक्ष एक चुनौती के रूप में खड़ी होती है। उनके पदों में गुजराती, राजस्थानी एवं ब्रजभाषा का मिश्रित रूप दृष्टिगत होता है। कृष्ण-भक्ति में इन कवियों के साथ, जिनकी कविता में कृष्ण-काव्य का वैभव विकसित हुआ, उनमें नरोत्तमदास, गोविन्दस्वामी, हरिदास और हितहरिवंश प्रमुख हैं।
रसखान कृष्ण-काव्य परम्परा के सम्प्रदाय निरपेक्ष कवि हैं। उन्होंने कृष्ण-प्रेम की उत्कट और उदात्त छवि की कविता की है। रहीम, ध्रुवदास, सुन्दरदास, धर्मदास, रसिकदास इस परम्परा के प्रमुख कवि हैं। इन कवियों पर सूर की कविताई का सीधा असर है। रीतिकाल में भी कृष्ण-भक्ति व लीला से सिक्त कविता प्रचुरता से रची गई। ग्वाल, देव, मतिराम, बिहारी, पदमाकर, घनानन्द की कविता में कृष्ण-काव्य की समृद्ध परम्परा विकसित हुई। कृष्ण की लीला का मनोहारी चित्रण रीतिकालीन कवियों ने किया है। सदानन्द की कविता तो ब्रज-भाषा प्रेम और समर्पण की मर्मस्पर्शी कविता है।
आधुनिक काल में कृष्ण-काव्य सृजन अनवरत चलता रहा। भक्ति-काल के कवियों की तरह इनके काव्य में भाव और संवेदना की वह गहराई न थी, लेकिन खड़ी बोली के समानान्तर ब्रजभाषा के अन्तिम दौर की यह कविता कृष्ण-काव्य का आधुनिक पक्ष है। भारतेन्दु की कविताई में प्रेम और भक्ति की संवेदना है। द्विवेदीयुग में तो ब्रजभाषा का कृष्ण-काव्य आधुनिक काल का सबसे सृजनशील स्वर है। सत्यनारायण कविरत्न और जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ की कविता में तो भक्तिकालीन कृष्णकाव्य के कवियों जैसी गहराई और उत्कृष्टता है। रत्नाकर का उद्धव शतक कृष्ण-काव्य परम्परा का अन्तिम सबसे महत्त्वपूर्ण काव्य-ग्रन्थ है। छायावाद में जयशंकर प्रसाद ने भी कृष्ण काव्य परम्परा में ब्रजभाषा की कविता लिखी। कृष्ण और राधा के प्रेम पर द्विवेदी युग के बाद के कवियों ने प्रायः कम लिखा है और लिखा भी है तो उसमें भक्ति भाव का अभाव है। उदहारण के लिए नयी कविता धारा के कवि धर्मवीर भारती का खंड काव्य कनुप्रिया में राधा और कृष्ण के प्रेम को आधार बनाया गया है लेकिन यहाँ राधा की चिंता आधुनिक स्त्री की चिंता है.
कृष्ण-काव्य परम्परा में सूर ने कृष्ण के लीला रूप, सौन्दर्य और प्रेम का जैसा चित्रण किया है, वह कृष्ण-काव्य परम्परा का सबसे सृजनशील स्वर है। सरस संगीत और गीतात्मक सौन्दर्य के साथ कृष्ण केन्द्रित उनका वात्सल्य, बाललीला, भ्रमरगीत में जीवन की संवेदना और उत्सव विद्यमान है। कृष्ण-काव्य परम्परा में सूर का काव्य प्रतिनिधि है।
सूर के बारे में आचार्य शुक्ल का कथन सही है कि उन्होंने बन्द आँखों से वात्सल्य और शृंगार का जो चित्रण किया है वह कृष्ण-काव्य परम्परा का कोई और कवि न कर सका। कृष्ण-जीवन के विविध प्रसंगो का चित्रण करते हुए सूर की काव्य-दृष्टि की सहृदयता और वचन विदग्धता देखते ही बनती है। जीवन की नवीन उद्भावना और भावपक्ष की प्रशंसा में आचार्य शुक्ल सूर की तुलना तुलसी से करते हुए उन्हें कही-कहीं तुलसी से बड़ा कवि मानते हैं। सूर की काव्य-चेतना में जीवन के भावुक पक्ष की प्रबलता ही नहीं है, उनका काव्य ‘लोकजागरण’ की चेतना का काव्य है। सूर की गोपियाँ उदात्त प्रेम की छवि प्रस्तुत करती हैं। उनके प्रेम में प्रतिबद्धता है, जो सामन्ती समाज की जाति, वर्ण और संकीर्णता के बन्धन को तोड़कर मानव प्रेम का पाठ भी पढ़ाती है। नारी की स्वतन्त्रता का जैसा चित्रण सूर ने किया है, वह भक्ति-काल के अन्य कवियों के यहाँ दुर्लभ है। गीतिकाव्य की सृजनात्मकता सूर के काव्य का विशिष्ट पक्ष है। सूर ने अपने गीतात्मक काव्य में भाव और विचार का अद्भुत समन्वय किया है। उनसे पहले गीतात्मकता की कोई समृद्ध परम्परा न थी। सूर ने अपनी प्रतिभा से उस परम्परा को सृजनात्मक आधार प्रदान किया। सूर के गीतों की शक्ति ‘लोक’ से आती है। लोक की शक्ति का अवगाहन कर सूर अपने गीतिकाव्य को समृद्ध करते हैं। ‘ब्रजभाषा’ की सृजनात्मकता का उत्स सूर की कविता है। सूरसागर में ब्रजभाषा के बोलचाल के रूप के साथ शिष्ट और परिमार्जित रूप का उत्कृष्ट प्रयोग हुआ है। लोक से काव्य भाषा का स्रोत ग्रहण करते हुए मुहावरों, लोकोक्तियों का प्रयोग सूर की कविता का प्राण है। भाषा की वचन-विदग्धता और सहृदयता का जैसा प्रयोग भ्रमरगीत में सूर ने किया है, वह विरल है। सूर के बाद ब्रजभाषा में उनकी सृजनात्मक काव्य भाषा का सहज प्रभाव परिलक्षित होता है। रीतिकाव्य से होते हुए यह प्रभाव आधुनिक काल के ब्रजभाषा काव्य तक फैला हुआ है।
- निष्कर्ष
जयदेव और विद्यापति ने कृष्ण-काव्य में गीति की जैसी प्रवाहमय धारा बहाई, उसका प्रभाव बाद के ब्रजभाषा में रचना करने वाले कृष्णाश्रयी कवियों पर पड़ा। कृष्ण की जीवन लीलाओं से जुड़े कई काव्य लिखे गए। अष्टछाप से इतर कई सम्प्रदाय हुए, जिन्होंने कृष्ण-काव्य की परम्परा को आगे बढाया। कृष्ण-भक्ति को विकसित करने वाले सम्प्रदायों में शुद्धाद्वैतवाद, पुष्टिमार्ग, राधावल्लभ सम्प्रदाय, हरिदासी सम्प्रदाय, चैतन्य सम्प्रदाय के प्रमुख कवियों ने अपनी कविताई से इस परम्परा को समृद्ध किया। कृष्ण काव्य परम्परा में सूर का स्थान विशिष्ट है। सूर का ‘वात्सल्य’, बाललीला चित्रण और भ्रमरगीत भक्ति-काव्य की उपलब्धि है। वियोग वर्णन में उनकी सहृदयता और वचन विदग्धता का चित्रण अद्वितीय है। सूर के काव्य में ब्रज की संस्कृति और समाज की सफल अभिव्यक्ति हुई है। गोचारण संस्कृति का चित्रण सूर के काव्य की विशिष्टता है। ब्रजभाषा का समस्त सृजनात्मक सौन्दर्य सूर के काव्य में समाहित हो गया है। सूरसागर एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य भी है। सूर की कविता का भक्ति, रीति और आधुनिक काल के कवियों पर सहज प्रभाव ढूँढा जा सकता है।
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- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- सूर साहित्य, हजारी प्रसाद द्विवेदी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- काव्य गौरव, रामदरश मिश्र(संपा.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारणी सभा, बनारस
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
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