10 कबीर : सामाजिक विद्रोह
अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- कबीर की कविता के सामाजिक सरोकारों को समझ सकेंगे।
- कबीर की विद्रोह भावना का स्वरूप जान सकेंगे।
- कबीर काव्य में मौजूद सामाजिक प्रतिरोध की भावना से परिचित हो सकेंगे।
- कबीर एवं निर्गुण भक्तिधारा के सामाजिक आधारों की पड़ताल कर सकेंगे।
- कबीर की कविता के सामाजिक महत्त्व का मूल्यांकन कर सकेंगे।
2. प्रस्तावना
हिन्दी साहित्य में कबीर के काव्य की गणना सर्वश्रेष्ठ काव्यों में की जाती है। इसका कारण कबीर काव्य के सामाजिक सरोकारों में निहित है। बहुत से आलोचकों की दृष्टि में उनकी कविता सबसे अधिक आधुनिक लगती है। कबीर को सबसे अधिक प्रासंगिक उनकी कविता में मौजूद विद्रोह की भावना बनाती है। इस भावना ने कबीर की कविता में प्रतिरोध के स्वर की रचना की है। ऐसे में प्रतिरोध और विद्रोह के स्वरूप और उनके विविध आयामों को समझना आवश्यक है। कबीर की कविता समाज में किस तरह के परिवर्तन की आकांक्षा लेकर आई थी? और इस आकांक्षा ने भक्तिकालीन साहित्य को किस कदर प्रभावित किया है? इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर इस पाठ्यचर्चा में ‘कबीर : सामाजिक प्रतिरोध और विद्रोह’ को शामिल किया गया है।
3. कबीर के सामाजिक प्रतिरोध और विद्रोह का स्वरूप
भक्तिकालीन साहित्य में कबीर की कविता अपनी अलग पहचान रखती है। इसका प्रमुख कारण उसमें मौजूद प्रतिरोध का स्वर है। इस स्वर को जन्म देने वाली विद्रोह-भावना कबीर को तुलसी आदि सगुण भक्त कवियों से अधिक आधुनिक बनाती है। रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर आदि निर्गुण सन्तों को सूर तुलसी आदि सगुण एवं जायसी आदि सूफी कवियों की तुलना में सबसे कम महत्व दिया है। लेकिन कबीर की कविता में तीक्ष्ण व्यंग्य के साथ मौजूद विद्रोह और प्रतिरोध के स्वर को उन्होंने भी रेखांकित किया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर का परिचय देते हुए वे लिखते हैं कि उपासना के बाह्य स्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्म काण्ड को प्रधानता देने वाले पण्डितों और मुल्लों – दोनों को उन्होंने खरी-खरी सुनाई और रामरहीम की एकता समझा कर हृदय को शुद्ध और प्रेममय करने का उपदेश दिया। देशाचार और उपासना विधि के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो भेदभाव उत्पन्न हो जाता है, उसे दूर करने का प्रयास उनकी वाणी बराबर करती रही। यद्यपि वे पढ़े-लिखे न थे, पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी, जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थीं। कबीर ब्राह्मणों और मुल्लाओं पर इसलिए चोटें कर रहे थे क्योंकि ये ईश्वर और मनुष्य के बीच धार्मिक कर्मकांडों और अंधविश्वासों की दीवार खरी कर अपना उल्लू सीधा करते थे। जबकि कबीर का लक्ष्य एक बेहतर समाज की स्थापना करना था। इसलिए आवश्यक था कि समाज के एक बड़े तबके को निम्न श्रेणी में धकेलने वाली पण्डिताई, कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास, पाखण्ड आदि का प्रतिरोध किया जाए। इस प्रतिरोध को दबाने की कोशिशें होनी ही थी। समाज के शक्तिसम्पन्न वर्ग की ओर से कबीर पर अत्याचार शुरू हुए। कबीर के प्रतिरोध ने विद्रोह का रूप धारण किया। कबीर ने अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर अपनी विरोधी विचारधारा को चुनौती दी। इस विद्रोही तेवर ने उनके प्रतिरोध और प्रेम – दोनों भाव की कविता को अपूर्व ओज से भर दिया। वे सर्वस्व उत्सर्ग करने की क्षमता को बनाते हुए अपने जैसा विद्रोही होने की सलाह देते हैं –
कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना सो चले हमारे साथ॥
विद्रोही तेवर ने कबीर के प्रेम के सर्वस्व उत्सर्ग की माँग को भी वीर-दर्प से युक्त कर दिया है –
कबीर यह घर प्रेम का खाला का घर नाहीं।
शीश उतारे भुई धरे सो पैठे एही माँही॥
कबीर जिस एक ईश्वर के लिए एकान्तिक प्रेम और सम्पूर्ण समर्पण की माँग कर रहे थे, उस दुनिया में मनुष्य में भेदभाव बरतने की गुंजाइश नहीं हो सकती थी। इसलिए उन्होंने जाति और धर्म के आधार पर किए गए सामाजिक विभाजन का डटकर विरोध किया। उन्होंने हिंसा, क्रूरता और अन्याय के विभिन्न रूपों की आलोचना की। वे समाज को सामाजिक और धार्मिक भेद से, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से, निरर्थक आडम्बर और कर्मकाण्डों से मुक्त करना चाहते थे। उन्होंने जनता को शोषण और अन्याय न करने, न सहने और उसका मुकाबला करने की प्रेरणा दी । कबीर के प्रतिरोध और विद्रोह के इन्हीं आयामों को समझने की कोशिश की गई है।
3.1. जाति और वर्ण भेद का प्रतिरोध
कबीर की कविताओं में विद्रोह और प्रतिरोध का जो स्वर मिलता है। उसको उनके दर्शन से प्राण वायु मिलती थी। यह कहना मुश्किल है कि कबीर अपने दर्शन के कारण भेदभाव का विरोध करते हैं या भेदभाव की अनुभूति के कारण इस दर्शन की शरण में जाते हैं। सभी निर्गुण कवियों के समान कबीर कुछ मूलभूत बातों को स्थापित करते हैं –
(i) ब्राह्मण श्रेष्ठ नहीं है, वरन् सभी मनुष्य एक समान है।
(ii) वेद प्रमाण नहीं है वरन् अनुभव प्रमाण है।
वे अपने तर्कों, विचारों और उद्धरणों के द्वारा इन दोनों मान्यताओं को स्थापित करते हैं। इनको स्थापित करने के लिए वे तर्क देते हैं। बहस करते हैं। चुनौती देते हैं –
जे तू बाँभन बभनी जाया, तो आँन द्वार ह्वै काहे न आया।
यदि तू ब्राह्मण हो (अर्थात् श्रेष्ठ हो)। ब्राह्मण इसलिए है क्योंकि तुम्हें ब्राह्मणी ने जन्म दिया है। यदि तू श्रेष्ठ है तो इस संसार में किसी दूसरे मार्ग से क्यों नहीं आया। उसी मार्ग से, उसी तरह तुम्हारा जन्म क्यों हुआ? आसमान से बरसात के साथ बरस जाना। यदि इस मूलभूत बात में तुम सभी अन्य मनुष्यों के समान हो तो इसी समानता को स्वीकार कर लो। कबीर यहीं तक तर्क नहीं देते। इस मत के समर्थन में वे आम जीवन के अनुभवों के अनेक उदाहरण देते है, जिनमें ब्राह्मण श्रेष्ठता की भावना का खण्डन होता है। मध्यकालीन समाज में जाति-व्यवस्था बहुत ताकतवर थी। समाज का एक बड़ा हिस्सा निम्न श्रेणी में धकेल दिया गया था। उन्हें समानता और सम्मान से; शिक्षाशास्त्र और धार्मिक संस्कारों की विरासत से वंचित कर दिया गया था। कबीर ने विद्रोह किया। उन्होंने अपनी प्रखर वाणी द्वारा जाति और वर्ण की इस व्यवस्था से जाति या वर्ण के आधार पर मनुष्य को ऊँचा और नीचा मानने का प्रतिवाद किया। ब्राह्मण स्वयं को ब्रह्मा के मुख से पैदा होने के कारण श्रेष्ठ बताते थे।
कबीर की राय में सभी मनुष्यों का शरीर एक समान है;उत्तम, अधम अवयवों से युक्त है; सभी एक ही ज्योति से पैदा हुए हैं; फिर कोई ब्राह्मण और कोई शूद्र कैसे हो सकता है?
एक बूँद एके मल मूतर, एक चाँम एक गूदा ।
एक जोति थैं सब उतपनों कौन बरुन कौन सूदा।। (पद-156)
इस तरह कबीर जन्म के आधार पर मनुष्य की समानता स्थापित करते हैं। वे ऊँच-नीच जाति मानने और छूआछूत बरतने को अनुचित बताते हैं। इसके लिए उन्होंने ब्राह्मणों की आलोचना की है –
काहे को कीजै पाण्डे छूत विचार।
छूतही ते उपजा सब संसार।।
कबीर के यहाँ बौद्धों, सिद्धों आदि की जाति और वर्ण भेद सम्बन्धी प्रतिरोध की वाणी को भी नया आधार मिला। इस प्रतिरोध की वाणी को भी नया आधार मिला। इस प्रतिरोध का प्रसार और प्रभाव दूर और देर तक हुआ। उनके पीछे जाति और वर्ण आधारित भेद का विरोध करने वाले सन्तों का एक वर्ग विकसित हुआ। रैदास, रज्जब, दादू, पीपा, नानक आदि सन्तों ने अपने तईं कबीर के प्रतिरोध को आगे बढ़ाया। कबीर के प्रतिरोध का महत्त्व इस बात से भी उजागर होता है कि भारत में निम्न सामाजिक स्थिति पर धकेले जाने का प्रतिरोध करने वाले दलित आन्दोलनों ने सबसे अधिक कबीर को अपनाया है। डॉ. धर्मवीर सहित अनेक दलित आलोचकों को कबीर सर्वाधिक अपने लगते हैं। कबीर के प्रतिरोध और विद्रोही तेवर ने उन्हें दलित जाति में आत्मविश्वास, गौरव और उच्च भावों का संचार करने वाले कवि के रूप में स्थापित कर दिया है।
2.2 साम्प्रदायिक भेदभाव का प्रतिरोध
कबीर धार्मिक व्यक्ति थे। भक्त थे। भगवान की सत्ता में विश्वास करते थे। उनके अनुसार भगवान निर्गुण है। निराकार है। जो लोग कबीर के इस मत से सहमत थे, वे कबीर के अपने लोग थे। वे सन्त थे। उनसे कोई बहस नहीं थी। परन्तु जो लोग ईश्वर के सगुण रूप को मानते थे। कबीर उनके सभी क्रियाकलापों का खण्डन करते हैं। ये वे सब बातें है जिन्हें आज हम अन्धविश्वास, रुढ़ियाँ, धार्मिक आडम्बर कहते हैं। कबीर इन सबका खण्डन करते हैं। ऐसा वे गैर धार्मिक व्यक्ति के रूप में नहीं करते, वरन् एक सच्चे धार्मिक व्यक्ति के रूप में करते हैं। मध्यकाल में जाति के साथ धर्म के आधार पर भेद करने वाली बहुस्तरीय सामाजिक व्यवस्था ने भी मनुष्य को जकड़ रखा था। कबीर ने धार्मिक भेद से, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों से, निरर्थक आडम्बर और कर्मकाण्डों से मुक्ति के लिए अपना विद्रोही स्वर बुलन्द किया। उन्होंने धर्म के ठेकेदारों पर जमकर चोटें की। अकारण ही लोक-कण्ठ में बसी जनश्रुतियाँ मुल्लाओं और पण्डितों को कबीर के प्रतिपक्ष में नहीं दिखातीं। धार्मिक भेदभाव, अन्धविश्वास और रूढ़ियों का विरोध करने वाली कबीर की वाणी कट्टरपन्थी हिन्दुओं और मुसलमानों को तिलमिला देती है। कबीर अपनी आलोचना में भी धर्मभेद नहीं करते। वे हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्म की आलोचना कई बार एक ही पद, और कई बार एक ही पंक्ति में साथ-साथ करते हैं। उन्हें हिन्दू और इस्लाम दोनों एक समान प्रिय या अप्रिय हैं। वे प्रेम और निन्दा दोनों में हिन्दू मुसलमान में भेद नहीं करते। दोनों धर्मों को खरी खरी सुनाने वाला कबीर का एक पद इस तरह है –
अरे इन दोउन राह न पाइ।
हिन्दू अपनी करै बड़ाई, गागर छुवन न देई।
वेश्या के पायन तर सोवैं, यह देखी हिन्दुवाई।
मुसलमान के पीर औलिया, मुरगा-मुरगी खाई।
खाला केरी बेटी ब्याहैं घरहि में करैं सगाई।
हिन्दुन की हिन्दुवाई देखी तुरकन की तुरकाई।
कहै कबीर सुनौ भाई साधौ, कौन राह है जाई।
भक्तिकालीन समाज में हिन्दू और इस्लाम दो मुख्य धर्म थे। कबीर कहते हैं कि दो में से किसी को सही रास्ता नहीं मिला। हिन्दू छूत मानते हैं, पर वेश्यागामी भी हैं। मुसलमानों के धर्मगुरु ही जीव हिंसा करने वाले और निकट सम्बन्धियों से शादी करने वाले हैं। कबीर ने दोनों धर्मों के आडम्बर, अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, कुरीति और अनाचार का बिना भेद किए समान भाव से प्रतिरोध किया है। कबीर ने हिन्दुओं की मूर्तिपूजा का बराबर विरोध किया है। इस विरोध के अनेक तर्क उन्होंने प्रस्तुत किये है।
पत्थर पूजने से यदि ईश्वर मिल सकता है, तो मैं पहाड़ को ही क्यों न पूज लूँ? घर में पत्थर की ही बनी हुई चक्की को क्यों नहीं पूजते हैं? मूर्तिपूजा पर किए गए ऐसे कटाक्षों में भी एक तर्क है। इसी तर्क से कबीर ने व्यंग्य शैली में मुसलमानों द्वारा अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए अजान देने और जीव हिंसा करने पर कटाक्ष किया है। उन्होंने पूछा कि कंकड़ पत्थर जोड़ कर मस्जिद बनाते हो। उस पर चढ़कर नियत समय पर अल्लाह को मुर्गे की तरह बांग देकर बुलाते हो। क्या खुदा बहरा हो गया है?
काँकर पाथर जोरिके, मस्जिद लियो बनाय।
ता पर मुल्ला बाँग दे, बहरो हुआ खुदाय।।
कबीर ने हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों की एक ही पद में आलोचना करके उनमें एकता स्थापित करने का मार्ग बनाया। समानता का यह स्वरुप अत्यन्त तार्किक और स्वीकार्य था। इसलिए उनके यहाँ हिन्दू और मुसलमान प्रायः साथ-साथ आते हैं। अलग-अलग पदों और एक ही पद में दोनों धर्मों की आलोचना गौरतलब हैं। इस सूक्ष्म विश्लेषण को एक ही पंक्ति में दोनों धर्मों के समावेशन में देखा जा सकता हैं –
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
हिन्दू को राम और तुर्क (मुसलमान) को रहीम प्यारा है। दोनों आपस में लड़कर मर रहे हैं, लेकिन मर्म कोई नहीं समझ सके। यह मर्म (सारतत्व) राम, रहीम के ऐक्य में है। इसलिए दो नाम सुनकर किसी को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए।
राम–रहीमा एक है, नाम धराया दोय।
कहै कबीरा दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय।।
कबीर समाज में भेद पैदा करने वाले तत्त्वों का स्पष्ट उल्लेख करते हैं। उन्होंने कहा कि राम, रहीम की एकता को पापियों (बदमाशों) ने दो बना दिया है। इस जन-विरोधी भेद-नीति से धर्म-सत्ता और राज-सत्ता लाभ उठाती है। इसलिए वे पण्डितों और मौलवियों के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर रचते हैं। इस विद्रोही चेतना ने कबीर को आज के समय के लिए बेहद जरूरी कवि बना दिया है। मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि – “इधर जब से साम्प्रदायिकता की महामारी फैली है, और मस्जिद-मन्दिर का झगड़ा खड़ा हुआ है, तब से कबीरदास का महत्त्व साधारण जनता के साथ-साथ विद्वानों की भी समझ में आने लगा है। कबीर ऐसे कवि हैं जिन्हें किसी तरह की साम्प्रदायिकता और कट्टरता न तो अपना बना सकती है और न पचा सकती है।” कबीर धार्मिक विभाजन करने वाले तत्त्वों के मार्ग के लिए अपाच्य तो हैं ही, उनके मार्ग के अटल अवरोधक भी हैं। यह एकता भी निर्गुण की स्वीकृति पर हो सकती है।
3.3 सामाजिक विवेकहीनता का प्रतिरोध
कबीर ने जाति और धर्म से जुड़ी तर्कहीन मान्यताओं का प्रतिरोध कर समानतापरक समाज के निर्माण का स्वप्न देखा था। अन्धविश्वास और रूढ़ियाँ उनके रास्ते के बड़े काँटे थे। ये काँटे सगुण मत की उपज थे जो अवतारवाद, मूर्तिपूजा और वर्ण व्यवस्था का समर्थन करता था। सगुण मत ने धार्मिक ही नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी अनेक कर्मकाण्डों और कुरीतियों को जन्म दे दिया था। ये कुरीतियाँ और कर्मकाण्ड तर्कहीन होकर भी प्रचलित थे। ये प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक विषमता के पोषक थे। निर्गुण सन्तों ने विवेक की कसौटी पर खरा न उतरने वाले सारी सामाजिक परम्पराओं, रूढ़ियों, रीति-रिवाजों, विश्वासों, मान्यताओं आदि का प्रतिरोध किया। जाति, धर्म और राजसत्ता मध्ययुगीन समाज में सबसे अधिक प्रभावी सामाजिक अभिकरण थे। ऐसे में सामाजिक दुर्दशा की जिम्मेदारी भी इन्हीं की थी। कबीर ने इनकी अतार्किकता और शोषक-चरित्र के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाया। स्व की सीमाओं से मुक्त कबीर का विद्रोही स्वर शोषकों का दुश्मन है और निर्बलों का हितैषी। वे निर्बलों को सताने वालों को आगाह करते हुए लिखते हैं –
निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय।
बिना जीव के साँस से ज्यों लौह भस्म हुई जाय॥
विवेकहीन धार्मिक-सांस्कृति और सामाजिक मूल्यों को मध्ययुगीन समाज अपना जीवन मूल्य बनाए हुए था। कबीर ने इनमें से अनेक मूल्यों को तोड़कर नए मूल्य की स्थापना का आह्वान किया। उन्होंने अन्धविश्वासों की आलोचना किसी एक जाति और धर्म की सीमाओं से मुक्त होकर की है। मन्दिर-मस्जिद, तीर्थाटन व्रत, उपवास का विरोध करते हुए कबीर ने लिखा कि यदि मस्जिद में खुदा और मूर्तियों और तीर्थों में राम बसते हैं, तो बाकी चीजों में किसका बास है?
जौ रे खुदाइ मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।
तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहूँ न हेरा।।
(श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 179)
कबीर ने धार्मिक कर्मकाण्डों और सामाजिक कुरीतियों का प्रतिरोध करते हुए जनता को भक्ति और अध्यात्म का नया रास्ता दिखाया। उन्होंने लक्ष्य किया की कर्मकाण्डों के चक्कर में पड़कर लोग अपने ईश्वर राम से दूर हो गए हैं। उन्होंने लिखा कि –
देव पूजि पूजि हिन्दू मूये तुरुक मूये हज जाई।
(श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रन्थावली, पृ. 194)
उन्होंने राम से दूर करने और जम के फेर में डालने वाले इन धार्मिक संस्कारों पर तीक्ष्ण व्यंग्य किया है। व्यंग्य उनके विद्रोही तेवर का स्वाभाविक और अचूक अस्त्र है।
मुसलमान दिन में रोजा रखते हैं और रात को जीव हिंसा करते हैं। वे जीव हिंसा करने वालों पर कटाक्ष करते हुए लिखते हैं कि घास खाने वाली बकरी की तो खाल काढ़ ली जाती है। जो बकरी खाते हैं उनका हाल क्या होगा?
बकरी पाती खात है, ताको काढ़ी खाल।
जे जन बकरी खात है, ताको कौन हवाल॥
कबीर के स्वर में ब्राह्मणों के छूआछूत विचार करने और समाज के बड़े तबके को भक्ति और धार्मिक संस्कारों से वंचित रखने के विरुद्ध तीखा प्रतिरोध मिलता है। इस प्रतिरोध में शोषित, वंचित तबकों के लिए न्याय, सम्मान और सहानुभूति का भाव है। यद्यपि कुछ सामाजिक तबके जैसे स्त्री के शोषण और अमानवीय स्थिति के खिलाफ कबीर के यहाँ प्रतिरोध नहीं है। बावजूद इसके सामन्ती समाज के जीवन मूल्यों का जिस कदर प्रतिरोध कबीर ने किया है, वह अद्वितीय है। यह प्रतिरोध कबीर को आधुनिक चेतना के बहुत निकट ला देता है। इस प्रतिरोध से आधुनिक व्यक्ति सहमत होता जाता है। हालांकि उनके दर्शन से पूरी तरह सहमत होना मुश्किल है।
4. कबीर की प्रतिरोधी और विद्रोही भावना का सामाजिक आधार
सामाजिक आधार से जीवन-मूल्यों का अनिवार्य सम्बन्ध है। ये जीवन-मूल्य, विरोधी जीवन-मूल्यों का प्रतिरोध करते हैं। कबीर के सामाजिक प्रतिरोध और विद्रोह का सूत्र भी उनके सामाजिक आधार में लक्षित किया जा सकता है। उनके सामाजिक समूह, जाति, धर्म, संस्कृति, व्यवसाय, शिक्षा-दीक्षा आदि का उनकी रचनाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा है। भक्ति-काव्य के अनेक आलोचकों ने भक्त कवियों की प्रवृत्तियों और उनके सामाजिक रिश्तों में सम्बन्ध की ओर संकेत किया है। यहाँ कबीर काव्य में मिलने वाले प्रतिरोध और विद्रोह के विभिन्न रूपों के सामाजिक आधार को समझने के लिए रचना और रचनाकार के सम्बन्धों को पहचानने का प्रयास किया जाएगा।
4.1 जातिगत आधार
कबीर ने जातिगत भेदभाव का उग्र विरोध किया है। उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था को अमान्य ठहराया। इसका आधार उनके जाति और वर्ण में निहित है। कबीर एवं अन्य निम्नवर्गीय सन्तों की वाणियों में उच्च जाति के भक्तों के व्यवस्था-परिष्कार के विपरीत व्यवस्था-विद्रोह एवं परिवर्तन की आकांक्षा का भाव मिलता है। इसके सामाजिक आधार के रूप में रचनाकारों की जाति को रेखांकित करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि – “भक्ति ने उत्तर भारत में आकर दो रूप ग्रहण किया। जो भक्त ऊँची जाति से आए थे वहाँ तत्कालीन समाज के प्रति वह विक्षोभ नहीं था, जिस आक्रामक रूप में वह उन भक्तों में प्रकट हुई, जो समाज की निचली श्रेणी की जातियों के भीतर से आए थे। उच्च जाति के भक्तों ने समाज में प्रचलित शास्त्रीय आचार–विचार, व्रत, उपवास, ऊँच–नीच की मर्यादा को स्वीकार कर लिया। उनका असन्तोष दूसरी श्रेणी के भक्तों से बिलकुल भिन्न था। वे सामाजिक व्यवस्था से असन्तुष्ट नहीं थे… जबकि निचली श्रेणी से आए भक्तों में सामाजिक व्यवस्था के प्रति तीव्र असन्तोष का भाव व्यक्त है और वैयक्तिक साधुता पर भी पर्याप्त बल है।”
निचले तबके से आने के कारण कबीर की वाणी में निम्न वर्ग के प्रति सम्मान का भाव है। उनमें श्रम के प्रति आदर और भक्ति के प्रति दृढ़ भरोसा है। वे अपनी रचनाओं में अकुण्ठ भाव से बार-बार स्वयं को जुलाहा कहते हैं। शोषण की अधिकता वाली सामाजिक स्थिति से आने के कारण उनका प्रतिरोध बहुत उग्र है। उनमें अस्वीकार करने का अपार साहस और भरपूर आत्मविश्वास है।
4.2 धार्मिक आधार
मध्यकालीन भारत में इस्लाम के आने के बाद निम्न वर्ग में बहुतों का धर्मांतरण हो गया था। उन्होंने इस्लामी संस्कृति को अपना लिया। हिन्दू संस्कृति की विरासत से भी उनके यहाँ बहुत कुछ रह गया। फलतः उनकी संस्कृति में हिन्दू-मुसलमान दोनों संस्कृतियों से जुड़ाव रह गया। कबीर निम्न वर्ग की ऐसी ही संस्कृति में पले बढ़े थे। उन्हें दोनों धर्म संस्कृतियों का अनुभव प्राप्त करने का मौका मिला। इसलिए उनकी रचनाओं में राम-रहीम के एक होने पर जोर है। इसी तरह उन्होंने पूजा और नमाज दोनों का मजाक बनाया है। उनके द्वारा काशी के पंण्डित और मुल्ला की एक साथ खबर ली गई है।
4.3 लैंगिक आधार
कबीर की रचनाओं में स्त्री की निम्नतर सामाजिक स्थिति के लिए प्रतिरोध का स्वर नहीं है। वे भी अपने समकालीन भक्तों की तरह उसकी निन्दा और प्रशंसा का अंतर्द्वंद्व रचते हैं। इस प्रतिरोधहीनता के आधार को पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उनकी लैंगिक स्थिति से जोड़कर समझा जा सकता है। साधक और भक्त के लिए काम सर्वाधिक हेय भाव है। साधना मार्ग में पुरुष साधक को स्त्री बाधक नजर आती है। वह अपने काम भाव का कारण अपने मन और चित्त के बजाय स्त्री को ठहराता है। इन्द्रिय निग्रह में अक्षम पुरुष, स्त्री को कोसने लगता है। स्त्री उसे पति के साथ पसन्द आती है। वह स्त्री के सती रूप का बखान करता है। उसका स्वतन्त्र रूप उसे विचलित करने लगता है। यह कबीर के प्रतिरोध की सीमा है।
5. निष्कर्ष
कबीर की रचना हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक प्रभावी प्रतिरोधी स्वर है। समाज के भेदकारी मूल्य और सत्ता को उनके उग्र विद्रोह का सामना करना पड़ा। कबीर ने जाति और धर्म के आधार पर मनुष्य को निम्न और श्रेष्ठ मानने वाली चेतना को तर्क के आधार पर चुनौती दी। अतार्किक सामाजिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं, कर्मकाण्डों, अन्धविश्वासों के पालन के प्रति जनता को सचेत किया। इन सबका आधार उनके समाज के निम्न वर्ग में जन्म से जुड़ता है। उनकी सामाजिक स्थिति ने उनमें हिन्दू-मुलसलमान की एकता का बोध कराया। उनके प्रतिरोध के स्वर ने उनके सपनों की समानता और सम्मान पर आधारित समाज के निर्माण की प्रक्रिया को आज भी गतिशील रखा है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक – डॉ. श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
- हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रप्दाय, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ,
- कबीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- दादूदयाल, रामबक्ष, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- कबीर की सखियाँ, संकलन वियोगी हरि, भारतीय साहित्य संग्रह
वेब लिंक्स
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- http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/226/kabir-ke-dohe.html
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
- https://www.youtube.com/watch?v=44M6yyIxJYk
- https://www.youtube.com/watch?v=WEWbl-YbowU