12 कबीर : दर्शन और रहस्य भावना

अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • कबीर की कविता के दार्शनिक पहलू से परिचित हो सकेंगे।
  • समकालीन दर्शनों के कबीर पर पड़ने वाले प्रभाव को जान सकेंगे।
  • कबीर के काव्य में मौजूद रहस्य-भावना का स्वरूप समझ सकेंगे।
  • कबीर के दर्शन और रहस्य-भावना सम्बन्धी विभिन्‍न आलोचकों के मतों से अवगत हो सकेंगे।
  • कबीर-काव्य की लोकप्रियता और उनके दर्शन और रहस्य-भावना के बीच के सम्बन्धों को रेखांकित कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

    कबीर का काव्य उनके जीवन-दर्शन से भरा हुआ है। कुछ दर्शन श्रुति परम्परा से, तो कुछ सत्संगति से सीखे गए हैं, जिनमें कबीर ने अपने अनुभव के अनुसार परिष्कार कर लिया। जो अनुकूल लगा, उसे अपनाया और जो प्रतिकूल लगा, उसे त्याग दिया। संग्रह और त्याग के विवेक ने कबीर की कविता को अनेक दर्शनों का सार बना दिया है। इसमें बहुत कुछ अच्छा है जो अनेक दिशाओं से आया है। इसका एक पक्ष वेदान्त से जुड़ता है, दूसरा सूफियों से। एक पक्ष सिद्धों-नाथों से जुड़ता है, तो अन्य वैष्णवों से। कबीर काव्य में वैराग्य है, नीति है, ज्ञान है, साधना है और इनके साथ ही माधुर्य और रहस्य का संसार भी है। ऐसे में यह जानना आवश्यक है कि कबीर की कविता का दार्शनिक स्वरूप क्या है? वह किन दर्शनों से प्रभावित है? ये दर्शन कविता में किस रूप में आए हैं? इन्होंने कबीर की साधना को किस तरह प्रभावित किया है? कबीर के माधुर्य भाव के पदों का रहस्यवाद से क्या सम्बन्ध है? कबीर की कविता की दीर्घजीविता और लोकप्रियता में उसके दर्शन और रहस्यवाद का क्या योगदान है? इन्हीं सवालों को ध्यान में रखकर कबीर के अन्तर्गत  ‘कबीर का दर्शन और रहस्य भावना’ शीर्षक अध्याय शामिल किया गया है।

 

3. कबीर की मूल मान्यताएँ

 

कबीर की कविता में दर्शन निहित है। किन्तु वह किसी एक दर्शन का अनुवाद नहीं है। उसमें शून्यवाद, अद्वैतवाद, वैष्णववाद, सूफीवाद अनेक दर्शनों के तत्त्व मिलते हैं। सम्भवतः इसका कारण यह है कि कबीर ने किसी एक गुरु से किसी दर्शन विशेष की दीक्षा नहीं ली थी। उनका शिक्षक उनके जीवन से प्राप्‍त अनुभव था। उन्होंने जीवन को श्रेष्ठ बना सकने वाले विचारों को आत्मसात किया। ये विचार ही उनकी कविता का दर्शन बन गया। वे उसे ही कविता के सहारे औरों तक पहुँचाते रहे। उनकी कविता में ब्रह्म, जीव, जगत और माया के माध्यम से उनके दार्शनिक चिन्तन  का परिचय मिलता है। ज्ञान और तत्त्व की गूढ़तम दार्शनिक उद्भावना उनकी कविता में आकर सहज बोधगम्य बन गई है। उन्होंने दर्शन के सन्दर्भ में तत्त्वतः निर्गुण को सत्य माना है। ज्ञान के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि हमारा ध्यान वहाँ व्याप्‍त निर्गुण और सगुन से परे है। वे ईश्‍वर तक पहुँचने का साधन भक्ति और प्रेम दोनों को मानते हैं।

 

कबीर के समय में ईश्‍वर तक पहुँचने का मार्ग दिखाने वाले दर्शनों में अद्वैतवाद, एकेश्‍वरवाद, वैष्णववाद, सूफीवाद और शून्यवाद प्रमुख थे। उनकी सारग्राही प्रतिभा ने इन सबसे कुछ न कुछ अपनी सोच मिलाकर अपना मार्ग तैयार किया। उनकी कविता के दार्शनिक स्वरूप के बारे में शुक्ल जी ने लिखा – “जहाँ तक पता चलता है, निर्गुण मार्ग के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास ही थे, जिन्होंने एक ओर तो स्वामी रामानन्द जी के शिष्य होकर भारतीय अद्वैतवाद की कुछ स्थूल बातें ग्रहण की; और दूसरी ओर योगियों और सूफी फकीरों के संस्कार प्राप्‍त किए। वैष्णवों से उन्होंने अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद लिए। इसी से उनके तथा निर्गुणवाद वाले और दूसरे सन्तों के वचनों में कहीं भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है, तो कहीं योगियों के नाड़ीचक्र की, कहीं सूफियों के प्रेम-तत्त्व की, कहीं पैगम्बरी कट्टर खुदावाद की और कहीं अहिंसावाद की। अत: तात्त्विक दृष्टि से न तो हम इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते हैं और न एकेश्‍वरवादी। दोनों का मिला-जुला भाव इनकी बानी में मिलता है।” शुक्ल जी ने कबीर काव्य की उन विशेषताओं को भी रेखांकित किया है, जिनका विभिन्‍न दर्शनों से सम्बन्ध है। मसलन सूफी दर्शन का सम्बन्ध ब्रह्म को प्रेमी मानकर लिखे गए प्रेम व्यापार का वर्णन करने वाले दोहों और पदों से है। शुक्ल जी लिखते हैं “सारांश यह कि जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार-पद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था, उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पन्थ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव स्पष्ट लक्षित होते हैं।” कबीर द्वारा अपना पन्थ खड़ा करने की बात के अलावा आचार्य शुक्ल की उनपर विभिन्‍न दर्शनों के प्रभाव बताने वाली शेष सारी बातें ठीक हैं। अब प्रश्‍न यह है कि बहुत से परस्पर विरोधी लगने वाले दर्शन कबीर के यहाँ एक साथ कैसे मौजूद रह सकते हैं। इस समस्या पर विचार करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी अपनी पुस्तक कबीर के निर्गुण राम शीर्षक अध्याय में दिखाते हैं कि कबीर में कैसे इन परस्पर विरोधी दर्शनों का समाहार हो गया है। वे लिखते हैं कि – “कबीरदास के पदों से, जैसा कि हम देखेंगे एकेश्‍वरवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैत, विलक्षणवाद आदि कई परस्पर विरोधी मतों के समर्थन हो सकते हैं, पर इस विरोध का कारण कबीरदास के विचारों की अस्थिरता नहीं है, बल्कि यह है कि वे भगवान को अनुभवैकगम्य और निखिलातीत तथा समस्त ऐश्‍वर्यों और विभूतियों का आधार समझते थे। इसलिए लौकिक दृष्टि से जो बातें परस्पर विरोधी दिखती हैं, अलौकिक भगवत रूप में सब घट जाती हैं।” कबीर ने ईश्‍वर की अलग तरह की पहचान विकसित की थी। उसे आत्मसात और अभिव्यक्त करने में उन्हें जहाँ से जो भी बेहतर मिला, उन्होंने अपना लिया। वे दर्शनों के विरोध के तर्कजाल में पड़ने के बजाय उसे अनुभव की कसौटी पर परखकर उसका सार अपनाते रहे। इसलिए भी विरोधी लगने वाले दर्शन उनकी कविता में एकाकार हो गए हैं। हमें इन दर्शनों की कबीर की कविता में मौजूदगी को थोड़ा विस्तार से समझ लेना चाहिए।

 

कबीर की मूल स्थापना यह है कि यह जगत माया है। सत्य नहीं है। माया के कारण यह सत्य प्रतीत होता है, परन्तु यह सत्य होता नहीं। सारा संसार ‘भवसागर’ है। एक साखी में कबीर कहते हैं कि जन्म देने वाली माँ अपनी नहीं है। वह परायी है। पिता भी पराया है। और इन सब लोगों के साथ हम सब भी पराए है। इस संसार में हम नदी की नाव के यात्री के रूप में संयोगवश मिल गए हैं। ज्यों ही नदी पार कर लेंगे अर्थात इस भवसागर को पार कर लेंगे तब अपने-अपने रास्ते पर चले जाएँगे। इसे कबीर ने अनेक साखियों और पदों में व्यक्त किया है कि हमारे माता-पिता, भाई-बहन के रिश्ते ‘सत्य’ नहीं है। सब माया है। यदि इनके कारण कोई पाप करता है, अपनी आत्मा का हनन करता है, तो उसका जिम्मेदार वह स्वयं है।

 

आगे वे जीव को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि यह संसार रूपी घर तुम्हारा अपना नहीं है। अपना वास्तविक घर तो परमात्मा का स्थान है। इसलिए यहाँ जो कुछ करना हो, पाप-पुण्य कमाकर अपने घर चले जाओ। इसलिए कबीर दास कहते है कि मनुष्य के जीवन का एक ही उद्देश्य है जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति और परमात्मा का साहचर्य। इसलिए कबीर कहते हैं कि तेरी संगी कोउ नहीं है। मनुष्य अकेला इस संसार में आता है और खाली हाथ अकेला ही जाता है। यहाँ कबीर अद्वैतवादी की तरह सोचते है कि ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है। इसका पूरा एक दर्शन है, जिसे कबीर बार-बार दुहराते है।

 

माया – कबीर माया की धारणा का समर्थन करते हैं और उसके विविध क्रियाकलापों का वर्णन करते हैं। माया की धारणा भारतीय चिन्तन में प्रमुखता से आती है। कबीर के अनुसार इस माया के कारण जीव भ्रम में पड़ जाता है। वह झूठ को सच मान लेता है और इसी कारण अपने अमूल्य मानव जीवन को नष्ट कर देता है। माया का यह फलक बहुत विस्तृत है। यह संसार माया है। घर-गृहस्थी का सारा दैनिक कार्य व्यापार माया है। हमारी पाँचो ज्ञानेन्द्रियाँ माया के वश में है। माया अज्ञान का अन्धकार है। माया भ्रम है। माया अज्ञान का आवरण है। मूर्तिपूजा माया का रूप है। अहंकार माया के कारण है। सांसारिक सम्पत्ति माया है। सुख-भोग सब माया है। इससे मुक्ति ज्ञान द्वारा प्राप्‍त होती है। और ज्ञान गुरु देता है। इसलिए गुरु और ईश्‍वर दोनों एक समान है।

 

माया दीपक नर पतँग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़ंत ।

कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरन्त ।।

 

कबीर दीपक और पतंग की उपमा द्वारा समझाना चाहते है कि माया दीपक के समान है। दीपक जब जलता है तो पतंगा भ्रमवश बार-बार उस पर गिर पड़ता है और जलकर मर जाता है। यह पतंगा हमारा जीव है। इस पूरी प्रक्रिया को देखें तो कोई एकाध पतंगा ही बच पाता है। यहाँ कबीर इस उपमा से अलग हटकर उपदेश देते हैं कि गुरु के ज्ञान से कोई एकाध जीव ही बच पाता है। इसका अर्थ यह भी है कि ज्ञान से मुक्ति मिलती है। ज्ञान का अर्थ है अपने अस्तित्व का ज्ञान। यह सत्य है। सत्य यह है कि परमात्मा ही सत्य है। जीव उस परमात्मा का अंश है। कोई भी जीव अपनी प्रवृत्ति से माया की तरफ ही आगे बढ़ता है। उसे अपनी प्रवृत्ति से हटाकर परमात्मा की तरफ प्रवृत होना चाहिए। यह प्रक्रिया गुरु के ज्ञान और मार्ग दर्शन से ही सम्भव है।

 

ईश्‍वर – परमात्मा को कबीर ‘राम’ नाम से सम्बोधित करते हैं। उसका  न कोई आकार है, न रूप है। वह इस जगत से परे है। जब यह धरती, गगन, पवन और पानी कुछ भी नहीं था, तब ‘हरि’ थे।

 

धरती, गगन, पवन नहीं होता, नहीं तोया, नहीं तारा ।

तब हरि हरि के जन होते, कहै कबीर बिचारा ।।

(सं. रामकिशोर शर्मा, कबीर ग्रन्थावली, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 158)

 

यह ईश्‍वर कैसा है? कबीर के राम पुराणों में वर्णित दशरथ पुत्र राम नहीं हैं . उनका कहना है कि जो राम को दशरथ पुत्र समझते हैं, वे राम नाम के मर्म को ही नहीं जानते. तब ईश्‍वर क्या है इस प्रश्‍न के उत्तर में कबीर कहते हैं कि यदि मैं राम को भारी कहूँ तो डर लगता है और यदि उस हल्का कहूँ तो यह झूठ होगा। मुझे क्या पता राम का, मैंने तो अपनी आँखों से कभी उसे देखा ही नहीं। यह राम तो अद्भूत है।

 

दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ ।

हरि जैसा है तैसा रहौ, नूँ हरषि हरषि गुण गाइ ।।

(वही, पृ. 171)

 

वह तो दुनिया के मानदण्डों से परे है। जब वह ऐसा है तो उसका कोई मन्दिर नहीं है, उसका कोई आकार नहीं है। और तब प्रचलित धर्म साधना सब मिथ्या है और जिसे कबीर कहते हैं कि यह सब माया का प्रसार है।

 

इस दार्शनिक समझ के आधार पर वे जाति-पाति की व्यवस्था का खण्डन करते हैं और धार्मिक आडम्बरों का विरोध करते हैं।“

 

3.1. अद्वैत दर्शन का प्रभाव

 

कबीर के यहाँ ब्रह्म, जीव और माया की भूमिका अद्वैतवादी दर्शन को समेटे हुए है। उनकी रचनाओं में मौजूद निरूपाधि निर्गुण ब्रह्म-सत्ता का स्वरूप अद्वैत और वेदान्त दर्शन से आया है। कबीर ईश्‍वर का स्वरूप बताते हुए लिखते हैं कि –

 

ण्डित मिथ्या करहु बिचारा । ना वह सृष्टि, न सिरजनहारा

जोति सरूप काल नहिं उहँवाँ बचन न आहि सरीरा ॥

थूल अथूल पवन नहिं पावक रवि ससि धारनि न नीरा

 

पण्डितो, तुम गलत सोचते हो। वह सृष्टि या उसे रचने वाला नहीं है। वहाँ ज्योति स्वरूप या काल नहीं है। न उसका कोई शरीर है, न ही वह कुछ कहता है। वहाँ स्थूल या अस्थूल, हवा या आग, सूर्य या चन्द्र, धरती या जल कुछ भी नहीं है। कबीर का यह निर्गुण ईश्‍वर है। अद्वैतवादियों की तरह कबीर मानते हैं की माया ने दुनिया को त्रिगुण फाँस में फँसा रखा है। इस अविद्या माया से मुक्ति, विद्या माया के सहारे ही मिल सकती है। अविद्या माया से मुक्ति के बाद मनुष्य को विद्या माया की भी आवश्यकता नहीं रहती है। तब वह परब्रह्म में लीन हो जाता है। कबीर माया के फँदे को काटकर मुक्त होने का जिक्र करते हुए लिखते हैं –

 

कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठि हाटि।

सब जग तो फंधै पड़्या, गया कबीरा काटि ।।

 

कबीर की रचनाओं पर अद्वैत एवं वेदान्त दर्शन के प्रभाव को ब्रह्म, माया आदि के स्वरूप को पहचानने और ब्रह्म को पाने की प्रक्रिया के रूप में रेखांकित किया जाता है साथ ही उन्हें उपनिषदों और वेदों के उल्लेख एवं उनसे मिलते-जुलते विचारों के जरिए भी पहचाना जा सकता है। उपनिषद् में वर्णित ब्रह्मविद्या के बारे में कबीर ने कहा है कि –

 

तत्त्वमसी इनके उपदेसा। ई उपनीषद कहैं सन्देसा ।।

जागबलिक औ जनक संबादा। दत्तात्रेय वहै रस स्वादा ।।

 

उपनिषदों और वेदों का सीधा उल्लेख कबीर पर इनसे सम्बबन्धित अद्वैतवाद आदि दर्शनों के प्रभाव की ओर संकेत करता है। इसके साथ ही कबीर की रचनाओं में इन दर्शनों के अनेक सूत्र सिद्धान्त भी अन्तर्निहित हैं, जो इस प्रभाव की गहराई की ओर संकेत करते हैं। उनकी रचनाओं पर वेदान्त के सैद्धान्तिक प्रभाव को रेखांकित करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं – वेदान्तियों के कनक कुण्डल न्याय आदि का व्यवहार भी इनके वचनों में मिलता है –

 

गहना एक कनक तें गहना, इन महँ भाव न दूजा।

कहन सुनन को दुइ करि थापिन, इक निमाज, इक पूजा॥

 

3.2. वैष्णव दर्शन का प्रभाव

 

कबीर की कविता में दया, करुणा, स्‍नेह की प्रधानता तथा हिंसा का नकार जिस रूप में आया है वह अहिंसावाद का प्रभाव जान पड़ता है। यह अहिंसावाद वैष्णव दर्शनों से आया हुआ प्रतीत होता है। कबीर ने अपनी रचनाओं में जीव हिंसा की कड़ी निन्दा की है। वे लिखते हैं –

 

दिन भर रोजा रहत हैं, राति हनत हैं गाय

यह तो खून वह बन्दगी, कैसे खुसी खुदाय

 

दिन में इन्द्रियों पर नियंत्रण रखकर इबादत के लिए रोजा रखने वाले, यदि रात को गाय मारें, तो भला खुदा को खून बहाने वाली बन्दगी से कैसे खुशी मिल सकती है?

 

अपनी देखि करत नहिं अहमक, कहत हमारे बड़न किया

उसका खून तुम्हारी गरदन, जिन तुमको उपदेश दिया

 

अपने हिंसक कर्मों का औचित्य परम्परा के आधार पर ठहराने वालों को अहमक नाम से सम्बोधित करते हुए कबीर कहते हैं कि ये अहमक अपने कर्मों पर स्वयं विचार नहीं करते हैं और कहते हैं कि हमारे बड़ों ने ऐसा ही किया है। वे पूछते हैं कि तुमने जो खून किया है, उसका भार तुम्हारी गरदन पर है, या उनकी गरदन पर जिन्होंने तुमको उपदेश दिया है?

 

बकरी पाती खाति है ताको काढ़ी खाल

जो नर बकरी खात हैं तिनका कौन हवाल

 

घास खाने वाली बकरी को मारकर खाने, या उसकी खाल निकालने वालों को यह सोचना चाहिए कि जो बकरी खाते हैं, उनकी इसी हिसाब से क्या गति हो सकती है?

 

कबीर की रचनाओं में ईश्‍वर के निर्गुण रूप के अलावा सर्वव्यापी रूप की झलक भी मिलती है। वैष्णव दर्शनों की तरह उनका ईश्‍वर सर्वशक्ति सम्पन्‍न है। वे सृष्टि में हर रूप में विद्यमान हैं। वे आपुहि देवा आपुहि पाती । आपुहि कुल आपुहि है जाती

 

सृष्टि के सभी जीव में उसी का अंश है – ‘साईं के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय।’ अर्थात छोटी कीरी से लेकर विशाल कुंजर तक सब उस ईश्‍वर के ही जीव हैं। रामचन्द्र शुक्ल अद्वैतवाद एवं वैष्णववाद के प्रभाव को रामानन्द के जरिए आया हुआ मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि कबीर में ज्ञानमार्ग की जहाँ तक बातें हैं वे सब हिन्दू शास्‍त्रों की हैं, जिनका संचय उन्होंने रामानन्द जी के उपदेशों से किया। माया, जीव, ब्रह्म, तत्त्वमसि, आठ मैथुन (अष्टमैथुन), त्रिकुटी, छह रिपु इत्यादि शब्दों का परिचय उन्हें अध्ययन द्वारा नहीं, सत्संग द्वारा ही हुआ…।

 

3.3. सूफी दर्शन का प्रभाव

 

कबीर ने ईश्‍वर की आराधना के लिए जो प्रेम का मार्ग चुना है, वह सूफी दर्शन से प्रभावित है। ईश्‍वर को प्रिय मानकर, स्वयं को उनकी प्रिया के रूप में देखना, यद्यपि भारतीय रहस्यवाद की भी विशेषता है; किन्तु कबीर के यहाँ प्रेम एवं विरह की कारुणिकता और मिलन का उद्दाम चित्र जिस तन्मयता से मिलता है, वह सूफी दर्शन के प्रभाव से आया हुआ प्रतीत होता है। कबीर का समय सूफी दर्शन के उत्थान का दौर है। ऐसे में हर दृष्टि से बेहतर का चुनाव करने वाले कबीर का सूफी दर्शन से प्रभावित होना स्वाभाविक है। उन्हें गुरु की कृपा से ब्रह्म का बोध होता है, तो वे स्‍त्री रूप धरकर माँ से पूछते हैं कि –

 

वे दिन कब आवेंगें माई

जाहि कारण हम देह धरिहौं मिलिबौ कब अंग लगाई

 

प्रेम में थोड़ा और डूबने पर वे सीधे अपने प्रिय (बाल्ह) को ही अपने घर व्यग्रता पूर्वक बुलाते हुए पूछते है –

 

बाल्हा आव हमारे गेहु रे, तुम्ह बिन दुखिया देह रे ।।टेक।।

सब को कहै तुम्हारी नारी, मोको इहै अंदेह रे ।

एकमेक ह्वै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे ।।

 

विरह बोध इस कदर बढ़ता है कि वह अपना सर्वस्व होम कर प्रिय की करुणा पाने की आस लगाती है –

 

यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि,

मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गि ।।

 

आखिरकार राम को दया आती है और प्रिया प्रिय का मिलन हो जाता है।

 

जोग जुगति सुरंग महल में पिय पाई अनमोल रे

 

3.4. हठयोग और शून्य दर्शन का प्रभाव

 

कबीर की रचनाओं में सिद्धों और नाथों की साधनात्मक शब्दावली का प्रचुर प्रयोग किया गया है। कुण्डलिनी जागरण, षटचक्र भेदन, सहस्रार में ब्रह्म का साक्षात्कार, इला, पिंगला, सुषुम्‍ना आदि का प्रयोग हठयोग दर्शन के प्रभाव से आया है। इस प्रभाव और इसकी सीमाओं को रेखांकित करते हुए रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं – “जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कबीर के लिए नाथपन्थी जोगी बहुत कुछ रास्ता निकाल चुके थे। भेदभाव को निर्दिष्ट करने वाले उपासना के बाहरी विधानों को अलग रखकर उन्होंने अन्तस्साधना पर जोर दिया था। पर नाथपन्थियों की अन्तस्साधना हृदयपक्षशून्य थी, उसमें प्रेम-तत्त्व का अभाव था। कबीर ने यद्यपि नाथपन्थ की बहुत-सी बातों को अपनी बानी में जगह दी, पर यह बात उन्हें खटकी।”

 

कबीर ने हठयोगियों द्वारा प्रयुक्त, चन्द, सूर, नाद, बिन्दु, अमृत, औंधा कुआँ जैसी, साधनात्मक रहस्यवाद की सांकेतिक शब्दावली का प्रयोग कर चमत्कारपूर्ण रचनाएँ की हैं।

 

सूर समाना चन्द में दहूँ किया घर एक

मन का चिन्ता तब भया कछू पुरबिला लेख

आकासे मुखि औंधा कुआँ पाताले पनिहारि

ताका पाणी को हंसा पीवै बिरला आदि बिचारि

 

सिद्धों और नाथों के दर्शन के साथ शून्य-दर्शन का प्रभाव भी कबीर की कविता में स्पष्ट लक्षित होता है। उनकी कविता में ब्रह्म के शून्य होने का एवं उस स्वरूप में जीव के साक्षात्कार का अनेक बार उल्लेख मिलता है। इसे शून्यवाद के प्रभाव से आया हुआ समझना चाहिए। शून्यवाद बौद्ध दर्शन है जिसका प्रभाव सिद्धों की रचनाओं में भी मिलता है। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की दृष्टि में मूल-तत्त्व शून्य के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है। ध्यान देने की बात यह है कि यह शून्य कोई निषेधात्मक वस्तु नहीं है, जिसे छिपाया जा सके। किसी भी पदार्थ का स्वरूप निर्णय करने में चार ही कोटियों का प्रयोग सम्भाव्य है – अस्ति (विद्यमान है), नास्ति (विद्यमान नहीं है), तदुभयम् (एक साथ ही अस्ति नास्ति दोनों) तथा नोभयम् (अस्ति नास्ति दोनों कल्पनाओं का निषेध)। परम-तत्त्व इन चारों कोटियों से मुक्त होता है और इसीलिए उसके अभिज्ञान के लिए ‘शून्य’ शब्द का प्रयोग किया गया है। कबीर के यहाँ परम-तत्त्व के शून्य रूप का जिक्र कई रूपों में आया है।

 

पाँणी ही ते हिम भया, हिम ह्वै गया बिलाई ।

जो कुछ था सोई भया, कछू कह्या न जाइ ॥

(कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दर दास, प्रस्तावना, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2011, पृ. 58)

 

इस शून्य को ध्यान साधना के जरिए पाया जाता है। जब तत्त्व से साक्षात्कार हो जाता है तब शून्य में डूबकर आत्मा की तपन मिट जाती है, और वह शीतल हो जाती है।

 

तत पाया तन बीसरया, जब मुनि धरिया ध्यान

तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान ।।

 

कबीर पर विभिन्‍न दर्शनों का प्रभाव पहचानते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि कबीर ने किसी भी दर्शन को हू-ब-हू नहीं अपनाया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने अनुभव सत्य को अपनी कविता में अभिव्यक्ति देकर अपना दर्शन विकसित किया। वे ईश्‍वर को रहस्यवादियों की तरह बुद्धि के बजाय सहज ज्ञान से बोधगम्य तो मानते हैं, किन्तु वे यह भी कहते हैं कि इस सहज का वास्तविक अभिप्राय लोग समझते नहीं हैं –

 

सहज सहज सबको कहै, सहज न चीन्हैं कोइ ।

जिन्ह सहजै हरिजी मिलै, सहज कहीजै सोइ ।।

 

उन्होंने सहज को एक दर्शन का रूप देकर, उसे सबसे अच्छा बताया है। इस सहज समाधि में व्यक्ति जो कहता है वही नामस्मरण है, जो करता है वही पूजा हो जाता है। इसलिए किसी दर्शन को कबीर पर आरोपित करने के बजाय उसे मात्र प्रभावित करने वाले कारक के रूप में देखना चाहिए। कबीर ने ईश्‍वर को जिस रूप में देखा है, वह दर्शनों के अतिरिक्त रहस्यवाद की पद्धति के बहुत निकट है। आगे हम कबीर की कविता और रहस्यवाद के सम्बन्ध  को समझने की कोशिश करेंगें।

 

4. कबीर की रहस्य भावना

 

बुद्धि और ज्ञान की शक्ति से परे किसी परम रहस्यमयी सत्ता की संकल्पना कर उसकी प्रतीति करने की प्रक्रिया रहस्यवाद कहलाती है। ‘कबीर ग्रन्थावली’ की भूमिका में रहस्यवाद का परिचय देते हुए श्यामसुन्दर दास ने लिखा कि – “चिन्तन के क्षेत्र का ब्रह्मवाद कविता के क्षेत्र में जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर रहस्यवाद का रूप पकड़ता है।”(कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दर दास, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2011, पृ. 39) साहित्यकोश में इसे परिभाषित करते हुए लिखा गया कि “अपनी अन्तःस्फुरित अपरोक्ष अनुभूति द्वारा सत्य, परम-तत्त्व अथवा ईश्‍वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने की प्रवृत्ति रहस्यवाद है।” रामचन्द्र शुक्ल ने रहस्यवाद को काव्य-वस्तु से जोड़कर देखा है। उनके अनुसार कविता में रहस्यवाद वह दशा है ‘जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है।’(हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, 2005, पृ. 468) कबीर के रहस्यवाद का अध्ययन करने वाले डॉ. रामकुमार वर्मा के विचार से “रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध  जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध  यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता है।” (कबीर का रहस्यवाद, रामकुमार वर्मा, साहित्य भवन, इलाहाबाद,1966, पृ. 7) उन्होंने रहस्यवाद की तीन स्थितियाँ बताई हैं –

  1. जिज्ञासा – यह रहस्यवाद की पहली अवस्था है। इसके अन्तर्गत वे स्थितियाँ शामिल की जाती हैं जिनमें आत्मा, परमात्मा के विषय में सुनकर उससे सम्बन्ध जोड़ने के लिए अग्रसर होती है।
  2. प्रयत्‍न – यह रहस्यवाद की दूसरी अवस्था है जिसमें आत्मा, परमात्मा से प्रेम करती है और उससे मिलने की कोशिश करती है।
  3. मिलन – यह अन्तिम अवस्था है जिसमें आत्मा और परमात्मा एकाकार हो जाते हैं। (कबीर का रहस्यवाद, रामकुमार वर्मा, साहित्य भवन, इलाहाबाद,1966, पृ. 12-14)

    कबीर ने ईश्‍वर के स्वरूप को अद्वैत रूप में ग्रहण किया। इस ईश्‍वर को उन्होंने जिस रूप में प्रकट किया वह रहस्यवाद की प्रक्रिया थी। रहस्यवाद मानता है कि बुद्धि की सारी दौड़-भाग कर लेने के बाद भी परम-तत्त्व में रहस्य का एक हिस्सा छूट जाता है। इस हिस्से में बुद्धि नहीं पहुँच सकती है। इसे केवल अन्तःस्फुरित सहज ज्ञान द्वारा जाना जा सकता है। यह ज्ञान अंतःस्फुरित अपरोक्ष अनुभूति की शक्ति द्वारा ही हो सकता है। वह इस शक्ति को विकसित और सक्षम करने के लिए अनेक साधन करता है। रहस्यवादी परम सत् का बोध कराने में बुद्धि के असामर्थ्य को मानता है, लेकिन वह बुद्धि, संकल्प और भावनात्मक पक्षों का विरोधी नहीं होता है। उसके सीमित महत्त्व को स्वीकार करने के कारण वह उसका बहिष्कार नहीं करता है।

 

कबीर की कविता में रहस्यवाद की उक्त सभी विशेषताएँ मौजूद हैं। शुक्ल जी कबीर की कविता में मौजूद रहस्यवाद को दो कोटियों में बाँटते हैं: साधनात्मक रहस्यवाद और भावनात्मक रहस्यवाद। वे कहते हैं कि कबीर में सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद और हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद, दोनों की अभिव्यंजना है।(हिन्दी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, 2005, पृ. 72) यह विभाजन परम सत् तक पहुँचने की प्रक्रिया और मिलन के स्वरूप में अन्तर के आधार पर किया गया है। जब उस परम सत् का बोध करने के लिए कबीर यौगिक साधनाओं का मार्ग अपनाते हैं, तब वे साधनात्मक रहस्यवाद रच रहे होते हैं। जब वे परम सत्ता को प्रिय मानते हैं तथा स्वयं उसकी प्रेमिका बनकर प्रेमाकांक्षा और विरह व्यथा के जरिए उन्हें पाने की चेष्टा करते हैं, तो वे भावात्मक रहस्यवाद रच रहे होते हैं। साधनात्मक रहस्यवाद में कुण्डलिनी सहस्रार चक्र में पहुँचकर ब्रह्म से साक्षात्कार की अनुभूति पाती है। भावात्मक रहस्यवाद में प्रेमिका का प्रेमी से मिलन हो जाता है और दोनों रति क्रीड़ा में निमग्‍न हो जाते हैं।

 

कहना न होगा की कबीर की रचनाओं में अपनी अनुभूति द्वारा ईश्‍वर की जिज्ञासा, संकल्पना, तलाश और उसके साक्षात्कार का बारम्बार जिक्र मिलता है।

 

लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल

 

साधक के लिए सबसे दीर्घ प्रक्रिया ईश्‍वर के तलाश की होती है। भावात्मक रहस्यवाद में कबीर ने इस अनूभूति को करुण विरह के सहारे व्यक्त किया है। परम सत् को जान लेने के बाद उससे मिलने के लिए आत्मा तड़पती है। मगर वह न तो उस तक पहुँच पाती है न ही उसे बुला पाती है।

 

आइ सकौ तुझ पै, सकू तुझ बुलाइ

जिय शयौ ही ले हुंगे, विरह तपाइ तपाई ।।

 

आखिरकार साधक की साधना पूरी होती है। प्रेमी को प्रेमिका के विरह व्यथा पर दया आती है, और दोनों का मिलन हो जाता है। कबीर के यहाँ मिलन के बहुतेरे चित्र मिलते हैं।

 

                                                (क) ‘कहै कबीर व्याहि चले हैं पुरुष एक अविनासी

                                                (ख) ‘सखी सुहाग राम मोहिं दीन्हा

(कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दर दास, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2011, पृ. 39)

 

मिलन कबीर की कविता के माधुर्य भाव की चरम परिणति है। वह अनेक रूपों में चित्रित हुआ है। कबीर ने विवाह से लेकर सुहागरात और मिलन तक के तमाम लौकिक प्रतीकों के जरिए अपने भावात्मक रहस्यवादी अनुभूतियों को व्यक्त किया है।

 

दुलहनी गावहु मंगलचार,

हम घरि आए हो राजा राम भरतार ॥टेक॥

तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती

रामदेव मोरैं पाँहुनैं आ मैं जोबन मैं माती

सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा बेद उचार

रामदेव संगि भाँवरी लैहूँ, धंनि धंनि भाग हमार

सुर तैतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी

कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरुष एक अविनासी

 (कबीर ग्रन्थावली, लोकभारती प्रकाशन, श्यामसुन्दर दास,  द्वितीय संस्करण, 2011, पृ. 116)

 

कबीर के काव्य में साधनात्मक रहस्य की अनुभूति भी अनेक पदों में दर्ज हुई है। इन पर सिद्धों-नाथों की साधना पद्धति का प्रभाव दिखाई पड़ता है। परम सत् का बोध होने के बाद कबीर आत्मा को जागते रहने की नसीहत देते हैं।

 

मन रे जागत रहिये भाई।

गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मूसै घर जाई ॥टेक॥

षट चक की कनक कोठड़ी, बस्त भाव है सोई

ताला कूँजी कुलफ के लागे, उघड़त बार न होई

पंच पहरवा सोइ गये हैं, बसतै जागण लोगी

करत बिचार मनहीं मन उपजी, नाँ कहीं गया न आया

कहै कबीर संसा सब छूटा, राम रतन धन पाया

(कबीर ग्रन्थावली, श्यामसुन्दर दास,लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण, 2011, पृ. 123)

 

संसार के छूटने के बाद मन में ईश्‍वर की अनुभूति होती है। फिर कहीं आए गए बिना ही राम से मिलन हो जाता है। रहस्यवादी साधक विकारों से स्वयं को सुरक्षित रखने की कोशिश करता है। वह जीवन रूपी चादर को ज्यों का त्यों वापस धर देने का प्रयत्‍न करता है। सिद्धों की साधना पद्धति के प्रभाव वाली रचनाओं में पाताल में पड़ी हुई कुण्डलिनी यौगिक क्रियाओं से जाग्रत होकर ऊपर की ओर उठती है। इस तरह वह निरन्तर कठिन साधना के बल पर सहस्रार चक्र में पहुँच जाती है। वहाँ उसे अनहद नाद सुनाई पड़ता है। वह अमृत वर्षा में सराबोर हो जाती है। उसका परब्रह्म से साक्षात्कार हो जाता है। आत्मा-परमात्मा दोनों मिल जाते हैं।

 

5. निष्कर्ष

 

कबीर की कविता अद्वैतवाद, शून्यवाद, सूफीवाद  दर्शनों में से बहुत कुछ को अपनाकर रची गई है। कबीर को वैष्णव, सिद्ध, नाथ और सूफी मतों में जो कुछ ग्राह्य लगा, उन्होंने अपनी कविता के दर्शन में शामिल कर लिया। विरोधी लगने वाले दर्शनों को अपनाकर कबीर ने जिस तरह अपने दर्शन रचे हैं, वे सहजता, बोधगम्यता और माधुर्य के कारण बहुत लोकप्रिय हुए हैं। ईश्‍वर के स्वरूप को जानने, उससे मिलने की कोशिश करने और फिर मिलन की अनुभूतियों को उन्होंने जिस रूप में व्यक्त किया है, वह रहस्यवादी पद्धति है। उनके रहस्यवाद में अनुभूति का प्राधान्य है। उन्होंने जिज्ञासा, माधुर्य भावना, विरह-मिलन तथा अद्वैतभाव आदि का चित्रण पूरे मनोयोग से किया है। इनमें दार्शनिकता का भी पुट मिलता है, उनके साधनात्मक रहस्यवाद की तुलना में भावात्मक रहस्यवाद अपने माधुर्य भाव की तीव्रता के कारण ज्यादा प्रभावी और लोकप्रिय हुआ है।

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   अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2, धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  3. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  4. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. कबीर ग्रन्थावली, रामकिशोर शर्मा(सं.), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  6. कबीर का रहस्यवाद, रामकुमार वर्मा, साहित्य भवन, इलाहाबाद
  7. कबीर-साहित्य की परख, परशुराम चतुर्वेदी, भारती भण्डार, इलाहाबाद
  8. कबीर : एक अनुशीलन, रामकुमार वर्मा, साहित्य भवन, इलाहाबाद
  9. कबीर, विजयेन्द्र स्नातक(संपा.),राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
  10. कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक – डॉ. श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
  11. कबीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  12. कबीर की सखियाँ, संकलन वियोगी हरि, भारतीय साहित्य संग्रह
  13. कबीर पदावली, रामकुमार वर्मा,हिन्दी साहित्य सम्मलेन,प्रयाग

    वेब लिंक्स

  1. http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/V/VirendraSinghYadav/kabir_ke_raam_banaam_nirgun_Alekh.htm
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%A4%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6
  3. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%A3_%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE:_%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AF%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A4%BE_/_%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A4%95
  5. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  6. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
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  8. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
  9. https://www.youtube.com/watch?v=44M6yyIxJYk
  10. https://www.youtube.com/watch?v=WEWbl-YbowU