11 कबीर की भाषा

अनिल शर्मा

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • कबीर की रचनाओं में प्रयुक्त भाषा के विभिन्‍न रूपों से परिचित हो सकेंगे।
  • कबीर की रचनाओं की विभिन्‍न शैलियों की जानकारी ले पाएँगे।
  • कबीर की रचना और भाषा के सम्बन्ध में विभिन्‍न विद्वानों के मत जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

    कबीर मूलतः भक्त थे। उन्होंने न तो काव्य-शास्‍त्र का अध्ययन किया था, न ही कविता करना उनका उद्देश्य था। फिर भी उनकी रचनाओं में भावों और विचारों का अंकन विलक्षण भाषा में हुआ है। शैली ऐसी चमत्कारपूर्ण है कि उनकी उक्तियाँ आज लोक में कहावतों और लोकोक्तियों के रूप में प्रचलित हैं। सृजन-सौष्ठव की दृष्टि से उनकी रचनाओं का महत्त्व असन्दिग्ध है।

  1. कबीर की भाषा के सम्बन्ध में विद्वानों के विचार

   हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीरदास जितने लोकप्रिय हैं, भाषा-प्रयोग के कारण उतने ही विवादास्पद भी। उनकी भाषा प्रयुक्ति के सम्बन्ध में विभिन्‍न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। स्वयं कबीर ने अपनी भाषा के सम्बन्ध में लिखा है –

 

हम पूरब के पूरबिया जात न पूछे कोय ll 

हमको तो सोई लखै धुर पूरब का होय ll

 

‘बीजक’ की इस साखी के आधार पर कई विद्वानों ने कबीर की भाषा को ‘पूरबी’ कहा है।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार “बीजक की भाषा सधुक्‍कड़ी, अर्थात राजस्थानी-पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर रमैनी और सबद में गाने के पद हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है (रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ.80)।”

 

श्यामसुन्दर दास के अनुसार “कबीर की भाषा का निर्णय करना टेढ़ी खीर है, क्योंकि वह खिचड़ी है… कबीर में केवल शब्द ही नहीं, क्रियापद, कारक चिह्नादि भी कई भाषाओं के मिलते हैं, क्रिया पदों के रूप अधिकतर ब्रजभाषा और खड़ी बोली के हैं। कारक चिह्नों में कै, सन, सा आदि अवधी के हैं, को ब्रज का है और थैं राजस्थानी का। इस पँचमेल खिचड़ी का कारण यह है कि उन्होंने दूर-दूर के साधु सन्तों का सत्संग किया था, जिससे स्वाभाविक ही उन पर भिन्‍न-भिन्‍न प्रान्तों की बोलियों का प्रभाव पड़ा (श्यामसुन्दर दास, ‘कबीर ग्रन्थावली की भूमिका, पृ. 48)।”

 

रामकुमार वर्मा के अनुसार, “कबीर के काव्य का व्याकरण पूर्वी हिन्दी रूप ही लिए हुए है। उसमें स्थान-स्थान पर पंजाबी प्रभाव अवश्य दृष्टिगत होता है (रामकुमार वर्मा, ‘सन्त कबीर की भूमिका)।”

 

बाबूराम सक्सेना उन्हें अवधी का प्रथम सन्त कवि मानते हैं।

 

उपर्युक्त विचारों से यह बात स्पष्ट है कि कबीर के यहाँ कई भाषाओं का मेल है। इसलिए उनकी रचनाओं में भाषा और व्याकरण का निश्‍च‍ित और स्थिर रूप नहीं मिलता। कबीर की भाषा पर विचार करते समय लगातार ध्यान रखना होगा कि उन्होंने दोहे, पद इत्यादि लिखे नहीं कहे थे। बहुप्रचलित विषय है, कि कबीर उत्तर भारत में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते थे। सम्भवतः इसलिए उन्होंने प्रादेशिक बोलियों के शब्दों का प्रयोग अपनी कविता में किया है। उनके कहे गए पद और साखियाँ कई पीढ़ियों तक मौखिक रूप में ही रहे, अतः उनके मूल रूप में परिवर्तन की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। जब अलग-अलग प्रदेशों में उनकी रचनाओं को लिपिबद्ध किया गया होगा, तब प्रदेश विशेष का प्रभाव भी भाषा पर अवश्य आया होगा, परिणामस्वरूप आज हमारे सामने कबीर की कविता के जो पाठ उपलब्ध हैं, उनमें भाषा के विभिन्‍न रूप दिखाई पड़ते हैं। इसके साथ ही “लगभग 1000 ई. के अपभ्रंश के विभिन्‍न रूपों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास प्रारम्भ हुआ तथा लगभग 1500 ई. तक उन भाषाओं का रूप स्पष्ट हुआ। अतः इन पाँच सौ वर्षों के बीच जितने भी कवि हुए हैं, उनकी भाषा सन्धिकालीन है। विभिन्‍न व्याकरणिक प्रवृत्तियों के बीज उनकी भाषाओं में हैं (महेंद्र, कबीर की भाषा, पृ. 21)।” कबीर की रचनाएँ भी इसी में शामिल हैं।

  1. शब्द भण्डार

    शब्द भण्डार की दृष्टि से कबीर की भाषा में अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, राजस्थानी, पंजाबी आदि के शब्द और रूप मिलते हैं। इसके अतिरिक्त कबीर पर नाथ पन्थ का प्रभाव भी रहा है, उस समय अपभ्रंश भाषा अपने अन्तिम स्वरूप में थी। अतः अपभ्रंश के शब्द भी कबीर की कविता में देखने को मिलते हैं। कबीर ने संस्कृत को ‘कूप जल’ कहा है, लेकिन इसके बावजूद तत्सम शब्द उनके काव्य में मिल जाते हैं। रहस्यवाद और दर्शन से जुड़ी पदावली में तत्सम शब्दों का समावेश है। तत्कालीन समय में मुग़ल शासन के अन्तर्गत दरबार की भाषा फ़ारसी थी और इस्लाम की भाषा अरबी। अतः इन भाषाओं के शब्दों का समावेश भी उनके साहित्य में हुआ। कबीर जब इस्लाम धर्म में व्याप्त पाखण्डों पर कटाक्ष करते हैं तो उनकी भाषा में अरबी-फ़ारसी शब्दों का प्रयोग करते हैं, और जब वे हिन्दू धर्म की रूढ़िवादिता की पोल खोलते हैं तो तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्‍न देशज शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में मिलता है। कबीर पेशे से जुलाहा थे। अतः उनकी कविता में जुलाहों, बुनकरों, दस्तकारी, हाट-बाज़ार, खेती-किसानी आदि क्षेत्रों में प्रयुक्त शब्द भी मिलते हैं।

  1. कबीर द्वारा प्रयुक्त विभिन्‍न भाषाओं के शब्द

 

खड़ी बोली

भारी कहूँ तो बहु डरूँ, हलका कहूँ तो झूठ l

मैं का जानों राम को, नैनों कबहुँ न दीठ ll

 

उर्दू

मीयाँ तुम्ह्सो बोल्याँ वाणी नहीं आवै l

हम मसकीन खुदाई बन्दे, तुम्हारा जस मनि भावै ll

अल्लाह अवली दीं का साहिब, जारे नहीं फुरमाया l

मुरसिद पीर तुम्हारै है को, कहौ कहाँ थै आया ll

 

अरबी-फारसी

हमरकत रहबरहुँ समाँ मैं खुर्दा सुभाँ विसियार l

हमजिमीं आसमाँन खलिंक गुन्दा मुसकिल कार ll

 

राजस्थानी

आँखड़िया प्रेम कसाइयाँ, लोग जाने दूखड़ियाँ l

साईं अपने कारनै, रोई रोई रातड़ियाँ ll

 

अवधी

साध सांगत मिली करहु विचारा l

 

ब्रज

घर जारौ

 

भोजपुरी

जलहै तनि बुनी पार न पावल l

 

वस्तुतः कबीर ने अपनी रचनाओं में शब्दों का प्रयोग भाव, विचार, विषय और व्यक्ति के अनुरूप किया है। कबीर की भाषा को विद्वानों ने ‘सधुक्‍कड़ी’ नाम भी दिया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा की व्याकरणिक और भाषा वैज्ञानिक विशेषताएँ नहीं गिनाई। उन्होंने कबीर की कविता के कलात्मक उपकरण के रूप में भाषा का विवेचन किया और उसका सम्बन्ध कबीर के व्यक्तित्व से जोड़ा। हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया – बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्‍कड़ की किसी फरमाइश को नाहीं कर सके। और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है (हजारीप्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ.170)।”

  1. काव्य-रूप और छन्द

    कबीर ने अपनी मुक्तक रचनाओं साखी, सबद और रमैनी में मुख्य रूप से तत्कालीन समय में लोक में बहु-प्रचलित भाषा का प्रयोग किया। साखी, दोहे से मिलती-जुलती है। कबीर के ‘सबदों’ में लोक में गाए जाने वाले राग-रागिनियों और पदों का प्रयोग किया गया है। रमैनियों में अधिकांशतः कुछ चौपाइयों के बाद कबीर ने एक साखी का प्रयोग किया है। इन छन्दों के अतिरिक्त कबीर नें चौतीसी, कहरा, हिण्डोला, बसन्त चाचर, बेलि आदि का भी कई स्थानों पर प्रयोग किया है। किन्तु इतना तय है कि कबीर ने शास्‍त्रीय दृष्टि से किसी भी छन्द का प्रयोग नहीं किया है। वस्तुतः “कबीर दास छन्दशास्‍त्र से अनभिज्ञ थे, यहाँ तक कि वे दोहों को पिंगल की खराद पर न चढ़ा सके। डफली बजाकर गाने में जो शब्द जिस रूप में निकल गया, वही ठीक था। मात्राओं के घट-बढ़ जाने की चिन्ता करना व्यर्थ था। पर साथ ही कबीर में प्रतिभा थी, मौलिकता थी, उन्हें कुछ सन्देश देना था और उनके लिए शब्द की मात्रा गिनने की आवश्यकता न थी, उन्हें तो इस ढंग से अपनी बातें कहने की आवश्यकता थी, जो सुनने वाले के हृदय में पैठ जाए और पैठकर जम जाए (सं श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रंथावली, पृ.45)।” हालाँकि ‘गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित कबीर के पदों में विभिन्‍न रगों के संकेत हैं, जिनसे पता लगता है कि कबीर को संगीत व लोक में बजाए जाने वाले वाद्यों का सामान्य ज्ञान था।

  1. अलंकार

    कबीर का लक्ष्य कविता करना नहीं, सांसारिक लोगों को जीवन का मर्म समझाने के लिए सहज भाव से अपने भावों की अभिव्यक्ति करना था। “उन्होंने अपनी उक्तियों पर कभी गुण, अलंकारादि का कृत्रिम मुलम्मा चढ़ाने की चेष्टा नहीं की थी। यह बात दूसरी है कि उक्ति और उपदेशों को अत्यधिक प्रभावात्मक बनाने के प्रयत्‍न में अलंकारों की योजना स्वतः हो गई हो। अलंकार कबीर के लिए साध्य नहीं, स्वाभाविक साधन मात्र थे (सं विजयेंद्र स्‍नातक, गोविन्द त्रिगुणायत, कबीर, पृ.168)।” इस सहज भाव में भी कबीर की कविता में अलंकारों की सुन्दर योजना बन पड़ी है। कुछ अलंकारों के उदाहारण इस प्रकार हैं –

 

अनुप्रास

लोक जानि न भूलो भाई l

खालिक खलक खलक मैं खालिक सब घट रह्यो समाई ll

 

रूपक

नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय l

पलकों की चिक डालिकै, पिय को लिया रिझाय ll

 

उपमा और उत्प्रेक्षा

पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जाति l

देखत ही छुप जाएँगे, ज्यों तारे प्रभाति ll

 

विभावना

बिन मुख खाइ चरन बिन चालै, बिन जिभ्या गुण गावै l

 

विरोधाभास

कबीर आगे-आगे दौ जलै, पीछे हरिया होइ l

बलिहारी ता बिष की जड़ काट्यां फल होइ ll

 

दृष्टांत

कबीर कहा गरबियौ, इस जोबन की आस l

टेसू फूले दिवस चारि, खंखर भये पलास ll

 

रूपकातिशयोक्ति

कबीर निरभै राम जपि जब लगि दीवै बाति l

तेल घट्या बाती बुझी तब सोवैगा दिन राति ll

 

विभिन्‍न भावों-विचारों को प्रकट करते समय कबीर की रचनाओं में अलंकारों का सहज और स्वाभाविक समावेश चाहे-अनचाहे होता गया है।

  1. प्रतीक-योजना

   भारतीय साहित्य में प्रतीकों का प्रयोग आरम्भ से ही देखने को मिलता है। वेदों, उपनिषदों में प्रतीकों का प्रयोग विद्वानों ने माना है। सूफी काव्य में आत्मा-परमात्मा का सम्बन्ध व्यक्त करने के लिए प्रतीक बहुतायत में देखने को मिलते हैं। कबीर ने आत्मा-परमात्मा के रहस्यात्मक सम्बन्ध और उनके विरह-मिलन की स्थिति प्रकट करने हेतु दाम्पत्य प्रतीकों का सहारा लिया है। ऐसे स्थलों पर भावों की तीव्रता, प्रेम की उत्कटता मार्मिक बन पड़ी है। यहाँ आध्यात्मिक प्रेम से सम्बन्धित निम्‍नलिखित पद में आत्मा रूपी वधू, परमात्मा रूपी प्रिय से मिलने के लिए आतुर और व्याकुल है –

 

कियो सिंगार मिलन के ताईं, हरि न मिले जगजीवन गुसाईं l

हरि मेरो पीव मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं छुटक लहरिया ll

धनि पिय एकै संग बसेरा, सेज एक पै मिलन दुहेरा l

धन्‍न सुहागिन जो पिय भावै, कही कबीर फिर जानमि न पावै ll

 

भक्ति-परम्परा के अनुरूप कबीर ने भक्त और भगवान का सम्बन्ध बताते हुए कई बार स्वामी-सेवक एवं वात्सल्य प्रतीकों का भी प्रयोग किया है। माता–पुत्र के प्रतीक का एक उदाहरण द्रष्टव्य है –

 

हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु मेरा l

सुत अपराध करै दिन केते, जननी के चित रहैं न तेते ll

कर गहि करै जो घाता, तऊ न हेत उतारै माता l

कहै कबीर एक बुद्धि विचारी, बालक दुखी दुखी महतारी ll

 

साधनात्मक रहस्यवाद के अन्तर्गत हठयोग सम्बन्धी दोहों में कबीर ने इड़ा, पिंगला, कुण्डलिनी,  सहस्रार कमल, दिव्य ज्योति इत्यादि प्रतीकों का प्रयोग भी बहुतायत से किया है।

 

चौंसठ दीया जँय के चौदह चन्दा माहिं l

तेहि घर किसका चानडो जेहिं घर गोविन्द नाहिं ll

 

यहाँ ‘चौंसठ’ शब्द चौंसठ कलाओं का तथा ‘चौदह’ शब्द चौदह विद्याओं का प्रतीक है। ये संख्यामूलक शब्द  पारिभाषिक प्रतीक के उदाहरण हैं।

  1. उलटबाँसियाँ

   उलटबाँसी का शाब्दिक अर्थ है – ‘उल्टी उक्ति’ अर्थात ऐसी बात जो विपर्यय का बोध कराए। उलटबाँसी अपनी बात की ओर ध्यान आकर्षित करने का एक कारगर माध्यम है। “ये उलटबासियाँ बहुधा अटपटी बानियों के रूप में रची गई हैं, जिस कारण इनके गूढ़ आशय को शीघ्र न समझ पाने वाला इन्हें सुनकर आश्‍चर्य में अवाक रह जाता है और जब कभी इन पर ध्यानपूर्वक विचार कर लेने पर वह इन शब्दों के पीछे निहित रहस्य को जान पाता है तो उसे अपार आनन्द भी मिलता है (परशुराम चतुर्वेदी, कबीर साहित्य की परख, पृ.150)।” भारत में कबीर से पहले वेदों, उपनिषदों, नाथ-सिद्धों के साहित्य में उलटबाँसी की परम्परा देखने को मिलती है।

 

कबीर अपनी उलटबाँसियों के लिए भी प्रसिद्ध रहे हैं। विद्वानों नें कबीर की उलटबाँसियों पर नाथ-सिद्धों का प्रभाव माना है। उनके यहाँ आध्यात्मिक उक्तियों की अभिव्यक्ति का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। “उलटबासियाँ उन्होंने साधारण जनता को अपने ज्ञान से आतंकित करने के लिए नहीं लिखी। उनका लक्ष्य पोथी ज्ञान से लदे पण्डित थे, जिनके बीच कबीर को रहना और जीना था। जाहिर है कि उनकी उलटबाँसियों के अर्थ पोथियों में नहीं थे और पंडितों की नगरी काशी का कोई भी पण्डित उनका अर्थ करने में समर्थ नहीं था। पंडितों के अहंकार को कबीर की ये उलटबासियाँ तोड़ती हैं, उनके सारे ज्ञान की पोल खोल देती हैं (शिवकुमार मिश्र, भक्ति आन्दोलन और भक्ति काव्य, पृ.83)।” कबीर ने उलटबाँसियों का प्रयोग विशेष रूप से संसार, आत्मा-परमात्मा, योग, प्रेम-साधना, धर्म से सम्बन्धित पदों में किया है। कबीर की उलटबाँसी का एक पद द्रष्टव्य है –

 

एक अचम्भा देखा रे भाई l

ठाढ़ा सिंघ चरावै गाई ll

पहलै पूत पीछै भई माइ l

चेला कैन गुरु लागै पाइ ll

जल की मछली तरवर ब्याई l

पकड़ी बिलाई मुर्गे खाई ll

बैलहि डारि गूंनि घरि आई l

कुत्ता कूँ लै गई बिलाई ll

तलि करि साखा ऊपरि करि मूल l

बहुत भांति जड़ लागे फूल ll

कहै कबीर या पद कौं बूझै l

ताकूँ तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै ll

 

उलटबाँसी शैली के पदों में प्रतीकों की बहुतायत है, जिनमें आध्यात्मिक धरातल पर रहस्यात्मक, सूक्ष्म तथा गम्भीर अर्थों की व्यंजना की गई है। कबीर की कुछ उलटबाँसियों ने पहेलियों का रूप भी धारण कर लिया है। कई स्थानों पर हठयोग की पारिभाषिक शब्दावली के कारण ऐसी उक्तियाँ अर्थ की दृष्टि से दुरूह भी हो गई हैं। किन्तु फिर भी कहा जा सकता है कि “…कबीर की उलटबाँसियों का एक-एक प्रतीक अपने मर्म के लिए अनिवार्य है। प्रतीकों के पीछे छिपा हुआ अर्थ उद्घाटित होने पर जीवन और साधना-सम्बन्धी अनुभूतियों के रहस्य का भी उद्घाटन हो जाता है (सं विजयेन्द्र स्‍नातक, कबीर, पृ.190)।”

  1. व्यंग्यात्मक भाषा

   कबीर का व्यक्तित्व विद्रोही था। तत्कालीन सामाजिक रूढ़ियों को वे तर्क और मानवता की कसौटी पर परखते हुए, नकारते हुए और उन पर व्यंग्य करते चले हैं। इस व्यंग्यात्मकता के कारण रचना महत्त्वपूर्ण और विशेष बन गई है। समाज में फैले हुए बाह्याडम्बरों, धार्मिक रूढ़ियों, कर्मकांडों, जातिवाद और मिथ्याचारों पर चोट करते समय व्यंग्यात्मक प्रहार देखते ही बनता है। ऐसे स्थलों पर उनकी भाषा की भंगिमा, तेवर और पैनापन प्रखरता से व्यक्त होता है। ‘सिर मुँडवाने’ की धार्मिक रूढ़ि पर कटाक्ष करते हुए कबीर कहते हैं –

 

केसौ कहा बिगाड़िया, जे मूँडै सौ बार l

मन कौ काहे न मूँडिये, जामै विषै विकार ll

 

इसी प्रकार इस्लाम धर्म में मस्जिद पर चढ़कर अजान देने की प्रवृति को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया है। तत्कालीन समाज में अलग-अलग धर्मों और सम्प्रदायों के तथाकथित सन्तों, योगियों, साधुओं के दिखावटी व्यवहार और समाज को भ्रमित करने वाले क्रिया-व्यापारों पर भी कबीर की दृष्टि गई और उन्होंने अपने तरीके से उनका भण्डाफोड़ किया –

 

मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपरा l

आसन मारी मन्दिर में बैठे, नाम छाँड़ी पूजन लागे पथरा l

कनवा फड़ाय जोगी जतावा बढ़ोलें, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा l

जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले, काम ज़राय जोगी होय गैले हिजरा l

मथवा मुँडाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा l

कहत कबीर सुनो भाई साधो, जम दखजवाँ

         बाँधल जैबे बकरा l

 

मानवीय मूल्यों की वास्तविकता से अवगत कराने के लिए कबीर ने भाषा में व्यंग्यात्मक मुद्रा अपनाई। उनसे पहले हिन्दी साहित्य के इतिहास में इस प्रकार की मारक उक्तियाँ बहुत कम देखने को मिलती हैं। “हिन्दी कविता के हज़ारो वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यंग्यकार पैदा नहीं हुआ… अत्यन्त सीधी सरल भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खाने वालों के लिए केवल धूल झाड़कर चलने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रहता (हजारीप्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ.170)।”

  1. कोमलकान्त पदावली

   कबीर की भक्ति सम्बन्धी रचनाओं में उनके हृदय का कोमल और भावुक रूप देखने को मिलता है। ऐसे पदों में भाषा भी स्वयमेव कोमल रूप धारण करके चली है। भक्त हृदय की सरलता और निर्मलता कोमलकान्त पदावली में सहज रूप से प्रभावशाली बन पड़ी है –

 

साईं इतना दीजिए, जामै कुटुम समाय l

मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय ll

 

एक अन्य स्थल पर कबीर परम-तत्त्व की खोज करने वाले मनुष्य को बड़ी सीधी सरल भाषा में समझाते हुए कहते हैं कि वह तो तेरे भीतर, हर एक साँस में बसा हुआ है–

 

मोको कहाँ ढूँढें बन्दे, मैं तो तेरे पास में l

ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में l

ना तो कोनो क्रिया कर्म में, ना योगी बैराग में l

खोजी होय तो तुरते मिलिहौं पल भर की तालास में l

कहैं कबीर सुनो भाई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में l

  1. निष्कर्ष

    कबीर की भाषा उनके व्यक्तित्व के अनुरूप जीवन्त और मुखर है। कबीरदास ‘कागद’ पर लिखने वाले परम्परागत कवि नहीं थे। उन्होंने ईश्‍वर की साधना के समय, दिग्भ्रमित समाज को सही दिशा और वास्तविक जीवन-मूल्य दिखाते समय अपने आध्यात्मिक, दार्शनिक और रहस्यवादी भावों और विचारों को जब और जिस रूप में प्रकट किया, उन्हीं को आज हम कबीर की कविता के रूप में देख रहे हैं। केवल शास्‍त्रीय नियमों की कसौटी पर कबीर की कविता को परखना सन्तुलित उद्यम नहीं है। क्योंकि “कविता के लिए उन्होंने कविता नहीं की है। उनकी विचारधारा सत्य की खोज में बही है, उसी का प्रकाश करना उनका ध्येय है। उनकी विचारधारा का प्रवाह जीवनधारा के प्रवाह से भिन्‍न नहीं है, उसमें उनका हृदय घुला-मिला है। उनकी प्रतिभा हृदय समन्वित है। उनकी बातों में बल है, जो दूसरे पर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकतीं। अक्खड़ ढंग से कही होने पर भी उनकी बेलाग बातों में एक और ही मिठास है, जो खरी-खरी बातें कहने वाले ही की बातों में मिल सकती है। उनकी सत्यभाषिता और प्रतिभा का ही फल है कि उनकी बहुत सी उक्तियाँ लोगों की जबान पर चढ़ कर कहावतों के रूप में चल पड़ी हैं। हार्दिक उमंग की लपेट में जो सहज विदग्धता उनकी उक्तियों में आ गई है, वह अत्यन्त भावापन्‍न है। उसी में उनकी प्रतिभा का चमत्कार है (सं. श्यामसुन्दर दास, कबीर ग्रंथावली, पृ.44)।” निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कबीर की कविता की भाषा में कुछ भी आरोपित या सायास नहीं है। सीधी-सादी, सरल, सहज और स्वाभाविक भाषा में भी विषयानुरूप अलंकारिकता, प्रतीकात्मकता, पारिभाषिकता, संगीतात्मकता आदि गुण आ गए हैं।

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अतिरिक्त जानें

पुस्तक

  1. कबीर का रहस्यवाद : कबीर के दार्शनिक विचारों का गंभीर विवेचन, रामकुमार वर्मा,साहित्य भवन, इलाहाबाद
  2. कबीर : एक अनुशीलन, रामकुमार वर्मा, साहित्य भवन, इलाहाबाद
  3. कबीर-साहित्य की परख, परशुराम चतुर्वेदी, भारती भण्डार, इलाहाबाद
  4. कबीर , विजयेन्द्र स्नातक(संपा.),राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
  5. कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक – डॉ. श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
  6. कबीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. कबीर की सखियाँ, संकलन वियोगी हरि, भारतीय साहित्य संग्रह
  8. कबीर पदावली, रामकुमार वर्मा,हिन्दी साहित्य सम्मलेन,प्रयाग
  9. हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  10. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

    वेब लिंक्स

  1. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B7%E0%A4%BE_%E0%A4%B6%E0%A5%88%E0%A4%B2%E0%A5%80
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
  3. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
  4. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A4%95
  5. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A4%95
  6. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B0%E0%A4%AE%E0%A5%88%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%94%E0%A4%B0_%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A4%95
  7. https://www.youtube.com/watch?v=44M6yyIxJYk
  8. https://www.youtube.com/watch?v=WEWbl-YbowU