14 निर्धारित पाठ की व्याख्या : कबीर (कबीर ग्रन्थावली श्यामसुन्दर दास)
रीता दुबे and रामबक्ष जाट
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–
- कबीर की साखियों और पदों का विश्लेषण कर सकेंगे।
- कबीर के बारे में किए गए आलोचनात्मक चिन्तन किस प्रकार उनके पाठ से जुड़े हुए हैं।
- किसी भी पाठ या रचना का विश्लेषण किस तरह किया जाए, इसे समझ पाएँगे।
- प्रस्तावना
कबीर की साखियाँ दोहा छन्द में लिखी हुई है। ‘साखी’ का तात्पर्य है – साक्ष्य या गवाह। अर्थात जो तथ्य जीवन का सत्य है और उसे और लोगों ने भी देखा, सुना या कहा है। जीवन का सत्य किसी एक व्यक्ति तक ही सीमित नहीं होता। इसे अन्य लोग भी जानते हैं इसीलिए कबीर ये नहीं कहते कि जो सत्य है उसे केवल मैं ही जानता हूँ। और कोई नहीं जानता। कबीर की साखियों में सिर्फ उनकी आत्माभिव्यक्ति नहीं है। कबीर अपनी साखियों में कहते हैं कि ये बातें जो मैं कह रहा हूँ वो जिन्दगी की सच्चाई हैं, जो सभी समझदार लोगों को दिखाई देती हैं। यह जीवन का भी सत्य है और कबीर द्वारा अनुभूत सत्य भी। कबीर अपने पाठकों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि जिस सत्य को मैंने चिन्तन, मनन और विचार द्वारा पाया है, उसी सत्य को मैं ‘साखी’ के रूप में आपको कह रहा हूँ। कबीर की साखियाँ या रचनाएँ मात्र आत्माभिव्यक्ति नहीं हैं बल्कि ये दूसरों को सिखाने हेतु सम्बोधित हैं। कबीर का अपनी रचनाओं में मूल स्वर यह है कि मैंने जो जिया है , भोगा है , समझा है; उसे मुझे आपको भी समझाना है। इसलिए आपके अनुभव को ध्यान में रखते हुए मैं ये बातें आपसे कह रहा हूँ। अतः कबीर की साखियों में आत्माभिव्यक्ति नहीं बल्कि साक्ष्य और उपदेशात्मकता है।
इस उपदेशात्मकता के बावजूद कबीर की यह विशेषता है कि ये शुष्क उपदेश नहीं हैं। इसके द्वारा वे पाठक से जीवन के अनुभव को साझा करते हैं। इस कारण कबीर की रचनाओं में एक संवादधर्मिता है। इस संवादधर्मिता के पीछे कबीर का उद्देश्य अपने जैसे व्यक्तियों को विकसित करना है। वे जिस मनुष्य से प्रेम करते हैं उसे विवेकी बनाना चाहते हैं, इसके लिए कई बार कबीर उस मनुष्य को डाँटते-फटकारते भी नज़र आते हैं। इस कारण कई बार ऐसा भ्रम होता है कि कबीर अपने पाठकों का आदर नहीं कर रहे हैं। परन्तु यह सिर्फ भ्रम है। कबीर को अपने पाठकों, श्रोताओं और भक्तों से बहुत प्रेम है, वे चाहते हैं कि जिस जीवन सत्य को उन्होंने देखा है उसे उनके पाठक भी देखें।
- कबीर की चुनी हुई साखियों का पाठ-विश्लेषण
लम्बा मारग दूरी घर, विकट पन्थ बहु भार।
कहौ सन्तों क्यूँ पाईये, दुर्लभ हरि दीदार।।
यह साखी ‘सुमिरण कौ अंग’ से ली गई है। यहाँ कबीर कह रहे हैं कि मार्ग बहुत ही लम्बा है और घर बहुत दूर है। साथ ही रास्ता भी बहुत ही मुश्किलों से भरा है। इतनी विरोधी परिस्थितियों में हे सन्तों ईश्वर का दर्शन दुर्लभ है। अर्थात ईश्वर का दर्शन कैसे प्राप्त होगा? यह हरेक व्यक्ति के लिए सरल नहीं है। यह इस साखी का सरलार्थ है। इस साखी में दूसरा तथ्य है कि यह सन्तों को सम्बोधित है। सन्त वो हैं जो कबीर के समानधर्मा हैं। यहाँ कबीर सन्तों से अपने अनुभव को साझा कर रहे हैं। ईश्वर से न मिलने की जो पीड़ा कबीर के मन में है , वही पीड़ा सन्तों के मन में भी है। हर मध्यकालीन भक्त-कवियों की सबसे बड़ी पीड़ा है – ईश्वर से मिलन की कठिनाई क्योंकि उनका मूल उद्देश्य और लक्ष्य है – ईश्वर से मिलन, जीवन से मुक्ति। इसमें बहुत बाधाएँ हैं। मुख्य बाधा है यह जगत। ईश्वर मिलन का रास्ता बहुत लम्बा है। सम्पूर्ण जीवन साधना के मार्ग पर चलने के बाद अन्तिम समय में ही ईश्वर से मिलन सम्भव है। यह साधना बहुत कठिन है क्योंकि जीवन भर किए गए कर्मों का भार मनुष्य के साथ होता है। पाप-पुण्य का बोझ अन्त समय तक मनुष्य के साथ बना रहता है। अनेक तरह के सांसारिक आकर्षणों के कारण जीवन रूपी मार्ग काफी ख़राब है इसलिए ईश्वर की प्राप्ति सरल नहीं है। कबीर अपने पाठकों और श्रोताओं को यही कहना चाह रहे हैं। वे ईश्वर मिलन की इस कठिनाई को बार-बार इसलिए रेखांकित कर रहे हैं क्योंकि ईश्वर से मिलना सहज नहीं, वह मनुष्य वृत्तियों के विपरीत है। मनुष्य की वृत्तियाँ तो लोभ-लालच, मोह-माया आदि के अन्दर भटकती रहती है। हर मनुष्य के भीतर ये भटकाव सहज रूप में होते हैं। इसलिए ईश्वर से मिलने का प्रयास उल्टी दिशा में चलने के समान है। कबीर इसी कारण मार्ग की बाधाओं का वर्णन करते हैं। रास्ते के खराब होने का तात्पर्य है कि जीवन में बहुत से लोग ईश्वर के मार्ग पर चलने से रोकने या भटकाने वाले आएँगे। साथ ही कई तरह की बाधाएँ भी हैं, जैसे– मन की बाधा, शरीर की बाधा, मायामोह की बाधा आदि। दर्शन के स्तर पर कबीर ने इन सब का विस्तृत वर्णन किया है। वे कहते हैं कि गर्दन कटाकर ही ईश्वर से मिला जा सकता है। ईश्वर मिलन की इन कठिनाइयों का वर्णन कबीर ने इसलिए किया है ताकि उनके पाठक या श्रोता मानसिक रूप से इन कठिनाइयों का सामना करने को तैयार रहें। जितने भी मध्यकालीन कवि हैं, सभी का एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है। किसी ने भी ईश्वर से मिलने की अनुभूति का विस्तृत वर्णन नहीं किया है लेकिन ईश्वर से मिलन में आने वाली परेशानियों का वर्णन सभी ने किया है। वे इन परेशानियों को कैसे हटाया जाए इसका जिक्र करते हैं।
कबीर की काव्य-भाषा बोलचाल की लोकभाषा है। इस लोकभाषा के बीच में ‘दीदार’ जैसा फारसी शब्द दर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ है। वास्तव में कबीर हमेशा इस बात का ध्यान रखते हैं कि अर्थ बारीकी से पाठक तक सम्प्रेषित हो।
हिरदा भीतरि दौ बलै, धूंवाँ प्रगट न होइ ।
जाके लागी सो लखे, के जिहि लाई सोइ।।
यह साखी ‘ज्ञान बिरह कौ अंग’ से ली गई है। हृदय के भीतर दीपक जल रहा है और उसके जलने से धुँआ प्रकट नहीं होता। यह किसी को पता नहीं चलता, जिसे लगी है या जिसने लगाई है सिर्फ वही जानता है। यह विशेष प्रकार के अनुभव को प्रकट करने वाली साखी है। इसमें कहा जा रहा है कि ईश्वर-भक्ति की जो लाग है, स्नेह है, बेचैनी है या आग है ; उसका अनुभव कोई बाहरी व्यक्ति नहीं कर सकता। साधारणतः जहाँ-जहाँ आग होती है, वहाँ धुँआ भी होता है जिसे दूर से भी देखकर आग की उपस्थिति ज्ञात हो जाती है। लेकिन यह ऐसी आग है जिसमें धुँआ ही नहीं है। जिस व्यक्ति को यह आग लगती है वह अन्दर ही अन्दर इसकी पीड़ा महसूस करता है। यह पीड़ा या तो आग लगाने वाले को पता होती है या जिसे यह आग लगी है उसे पता होता है। किसी अन्य को इसका पता नहीं चलता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो सन्त है या भक्त है, वह इस अनुभव को अकेले जीता है। यह अकथनीय प्रेम है। यहाँ कबीर अनुभव पर बल देते हैं।
बैद मुवा रोगी मुवा, मुवा सकल संसार।
एक कबीरा ना मुवा, जिनि के राम अधार।।
यह साखी ‘जीवन मृतक कौ अंग’ से ली गई है। वैद्य मर गया और जो रोगी था वो भी मर गया। केवल ये दोनों ही नहीं मरे बल्कि सारा संसार भी मर गया। यहाँ कबीर यह स्थापित करना चाहते हैं कि मृत्यु एक अटल सत्य है। उन्होंने कहा कि रोगी मर गया और उसका इलाज करने वाला जो वैद्य था वो भी मर गया, मतलब वैद्य में भी इस बीमारी यानी मृत्यु को ठीक करने का सामर्थ्य नहीं है। साथ ही सारा संसार भी मर गया क्योंकि एक दिन सभी व्यक्तियों को मरना ही है। सिर्फ एक कबीर ही नहीं मरा, जो राम के आधार यानी आश्रय पर जीवित है। यहाँ कबीर भक्त और आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त है। यहाँ ऊपरी तौर पर कबीर का बड़बोलापन दिखता है लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। यहाँ कबीर व्यक्ति कबीर नहीं है। वह परमात्मा का प्रतिनिधि है। आत्मा का सात्विक रूप है और आत्मा कभी मरती नहीं। आत्मा में कोई कलुष नहीं होता। वास्तव में बीमारी यह है कि ईश्वर से मिलन कैसे हो और यह बताने वाला कोई नहीं है।
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर।
आसा त्रिस्नाँ ना मुई, यों कहि गया कबीर ।।
यह साखी ‘सुमिरण कौ अंग’ से ली गई है। माया की धारणा भक्तिकाल में सन्त कवियों के यहाँ खूब आई है। वे माया को ‘महाठगिनी’ कहते हैं। माया के अनेक रूप हैं। वह अजर-अमर है। माया की तरह मन भी नहीं मरता लेकिन यह शरीर हर बार मरता है। मृत्यु हमेशा शरीर की होती है। भाव, आकांक्षा, विचार आदि की मृत्यु नहीं होती है। अर्थात माया कभी मरती नहीं बल्कि एक रूप से दूसरे रूप में रूपान्तरित होते रहती है। कबीर कहते हैं कि मनुष्य में मन में हमेशा आशा और तृष्णा होती है। चाह का भाव ही तृष्णा है। कुछ मिलने की आशा मनुष्य को दौड़ाते रहती है। मनोवैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो मनुष्य के मन की आशा उसमे जीवन का संचार करती है। आदमी इससे कर्मठ बना रहता है। जब वह निराश हो जाता है तो वह मानसिक रोगी हो जाता है। सामान्य बोलचाल में यह कहा जाता है कि मनुष्य को आशावादी होना चाहिए। कबीर इसके समर्थक नहीं हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य ईश्वर से मिलना है। जब तक ईश्वर से मिलन न हो तब तक मुक्ति नहीं है। ईश्वर से मिलने में ये आशा और तृष्णा बाधक हैं। शरीर के मरने पर भी यह तृष्णा नहीं मरती। आशा और तृष्णा सर्वव्यापी हैं। यह किसी एक व्यक्ति के ही भीतर नहीं बल्कि मानव-मात्र के भीतर पाई जाती है। तृष्णा हर किसी में है। कबीर यह प्रश्न खड़ा करते हैं कि सब मरते हैं तो यह आशा, तृष्णा और माया क्यों नहीं मरती? मन क्यों नहीं मरता? कबीर अपने समय के मनोभावों को अलग तरह से देखते हैं। वे आशा, तृष्णा, माया, मन आदि को एक पात्र के रूप में स्थापित करते हैं। कबीर इस संसार को सत्य नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि सब झूठ है। सत्य केवल ईश्वर है। सत्कर्म सिर्फ एक ही है और वो है ईश्वर से मिलना। बाकी जितने सांसारिक प्रपंच हैं, उन सबका कबीर खण्डन करते हैं। आत्मा और परमात्मा के बीच आशा, तृष्णा जैसी भाव दशाएँ मनुष्य को बहुत भटकाती हैं। कबीर के पाठ-विश्लेषण के दौरान उनके दार्शनिक पृष्ठभूमि को समझने की जरुरत बार-बार होती है। कबीर की मूल मान्यताएँ यही हैं इसीलिए इसका प्रतिफलन उनके सामाजिक सत्य में मिलता है; जहाँ वे आडम्बरों, पाखण्डों और अन्धविश्वासों का बार-बार खण्डन करते हैं। कबीर ने मनुष्य की भीतरी आकांक्षाओं को समझने की कोशिश की है।
कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह।
जिहि घरि जिता बधावणाँ, तिहि घरि तिता अँदोह।।
यह साखी ‘सुमिरण कौ अंग’ से ली गई है। जन्म के समय जितनी खुशियाँ होती हैं, मृत्यु के समय उतना ही दुःख होता है। अतः यह सब माया-मोह है और जो असत्य है। सत्य सिर्फ मृत्यु है। जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। इसलिए जिस घर में जितने लोगों का जन्म होता है उतने लोगों का मरना भी तय है। अर्थात जन्म की खुशियों को अन्त में मृत्यु के दुःख में बदलना ही है। जन्म की खुशी क्षणिक है। यह अन्तिम सत्य नहीं है बल्कि बीच का सत्य है। सत्य वही होता है जो सबसे अन्त में आता है और अन्त में मृत्यु ही आती है। मृत्यु ही अन्तिम सत्य है। अतः जिसकी संसार में जितनी लिप्तता होती है, उसकी पीड़ा उतनी ही बढ़ती जाती है।
- कबीर के चुने हुए पदों का पाठ-विश्लेषण
क्या मांगौ किछु थिर न रहाई।
देखत नैन चला जग जाई ।
इक लख पूत सवा लख नाती। तिहि रावन घर दिआ न बाती।
लंका सा कोट समुन्द सी खाई । तिहि रावन की खबरि न पाई।।
आवत संग न जात सँगाती। कहा भयौ दरि बाँधे हाथी।।
कहै कबीर अन्त की बारी। हाथ झारि जैसें चला जुआरी।।
इस पद में मृत्यु की शक्ति और सच्चाई को बताया गया है। क्या माँगू ? आखिर क्या माँगे इस संसार से, यहाँ कोई भी वस्तु स्थिर यानी स्थायी नहीं है। कोई भी चीज शाश्वत नहीं है। शाश्वत सिर्फ मृत्यु है। इस मृत्यु की पीड़ा को कबीर ने बार-बार बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है। आँखों के सामने देखते-देखते यह संसार समाप्त हो जाता है। संसार में जो आज है वह कुछ समय बाद अतीत हो जाता है। ऐसी स्थिति में स्थिरता की बात करना व्यर्थ है। संसार की नश्वरता को सिद्ध करने के लिए कबीर रावण जैसे शक्तिशाली मिथक का उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं रावण के एक लाख बेटे थे और उन बच्चों के सवा लाख बच्चे और थे। उस रावण के घर में आज कोई दीया और बत्ती जलाने वाला भी नहीं बचा है। राम-रावण युद्ध में रावण के परिवार का समूल नाश हो जाता है। किंवदन्ती है कि रावण के घर में कोई रोने वाला भी नहीं बचा था। कबीर कहना चाह रहे हैं कि जब इतनी बड़ी ताकत वाले रावण का कोई नहीं बचा तो साधारण इन्सान की क्या बिसात? लंका एक सुरक्षित किला वाला नगर था। उसके चारों और रावण ने अद्भुत परकोटा बनवाया था। चारों तरफ समुन्द्र रुपी खाई थी। ऐसे अलंघ्य और सुरक्षित स्थान में रहने वाले रावण का आज कोई अता-पता नहीं। मृत्यु से वह भी नहीं बच सका। रावण के रूपक द्वारा कबीर अपने समय के राजा और जमीन्दारों के अहंकार का खण्डन कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि जब रावण मृत्यु से नहीं बच सका तो तुम्हारी क्या औकात है? तुम्हारे इस झूठे अहंकार की क्या जरुरत? जब आप जन्म लेते हैं उस समय भी अकेले आते हैं और मृत्यु के समय जाते हुए भी अकेले ही जाते हैं। भले ही आपने अपने दरवाजे पर हाथी ही बाँध रखा हो। अन्त में मृत्यु के समय हर कोई हारे हुए जुआरी की भाँति सभी चीजों को यहीं छोड़कर चले जाते हैं।
कबीर इस पद में जीवन के निष्कर्ष को रख रहे हैं। इस निष्कर्ष में मृत्यु की पीड़ा है, उस पीड़ा की अभिव्यक्ति कबीर का उद्देश्य नहीं है। वे इस निष्कर्ष पर मुस्कुराते हैं और कहते हैं कि जीवन की इस सच्चाई को समझने और स्वीकार करने की आवश्यकता है।
कारनि कौन सँवारै देहा ।
यहु तनि जरि बरि ह्वैहैं खेहा ।।
चोवा चन्दन चरचत अंगा । सो तन जरत काठ कै संगा ।।
बहुत जतन करि देह मुटियाई । अगनि दहै कै जम्बुक खाई ।।
जा सिरि रचि रचि बाँधत पागा । ता सिरि चंच सँवारत कागा ।।
कहै कबीर तन झूठा भाई । केवल राँम लह्यौ ल्यौ लाई ।।
सामान्य तौर पर मनुष्य जिन पर गर्व करता है, इस पद में कबीर उसे नश्वर कह रहे हैं। मनुष्य को अपनी शरीर की सुन्दरता और ताकत का अभिमान होता है। मनुष्य अपने शरीर को सुन्दर बनाने के लिए कई तरह के जतन करता है। कबीर इस प्रवृत्ति पर प्रहार करते हुए कहते हैं कि क्या है तुम्हारी ताकत? एक दिन तो तुम्हें मरना ही है। किस कारण से अपने शरीर को सँवारते हो ? कभी इस पर विचार किया है।
यह पद सीधे-सीधे उस सामान्य जनता को सम्बोधित है जो अपने शरीर को बहुत महत्त्व देती हैं। शरीर को महत्त्व देने के कारण व्यक्ति शरीर के सम्बन्धों को भी महत्त्व देता है। कबीर कहते हैं कि जब शरीर ही महत्त्वपूर्ण नहीं है तो शरीर के सम्बन्ध कैसे महत्त्वपूर्ण होंगे। जिस शरीर को हम चन्दन वगैरह की मालिश करके चमकाते हैं, वही तन अन्त में लकड़ी के साथ जलकर खाक हो जाता है। सारा सौन्दर्य वहाँ समाप्त हो जाता है। शरीर के अनुभव के साथ मनुष्य की भाव वृत्तियाँ जुड़ी होती हैं। इन भाव वृत्तियों का अन्त में कोई उपयोग नहीं होता है। बहुत ही मेहनत करके लोग अपने शरीर को मोटा करते हैं लेकिन मृत्यु के बाद या तो उसे आग में जला दिया जाता है या फिर सियार खाता है। जिस सिर पर बहुत प्यार से हम साफा बाँधते हैं, मृत्यु के उपरान्त उसी पर कौआ चोंच मारता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस शरीर और इसके सौन्दर्य को इतना महत्त्व क्यों देना, जब मृत्यु के बाद इसकी यही दुर्गति होनी है। कबीर इसीलिए कहते हैं कि यह शरीर असत्य है इसीलिए राम अर्थात ईश्वर के प्रति प्रेमभाव की लौ लगाए रखो। इसके अतिरिक्त मनुष्य जो भी प्रयत्न करता है, वह व्यर्थ है। कबीर जीवन का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं। वे साधारण मानवीय जीवन का चित्रण जोरदार तरीके से करते हुए भी इसे वरेण्य या प्रशंसनीय नहीं मानते हैं।
माया महा ठगिनि हम जाँनीं।
तिरगुन फांसि लिए कर डोलै बोले मधुरी बाँनीं ।।
केसव कै कँवला होइ बैठी सिव कै भवन भवाँनी।
पंडा कै मूरति होइ बैठी तीरथ हू मैं पाँनीं।।
जोगी कै जोगिनि होइ बैठी राजा कै घरि राँनीं।
काहू कै हीरा होइ बैठी काहू कै कौड़ी काँनीं।।
भगताँ कै भगतिनि होइ बैठी तुरकाँ कै तुरकाँनी।
दास कबीर साहेब का बंदा जाकै हाथि बिकाँनीं।।
इस पद में कबीर ने माया के स्वरूप को खींचते हुए उसकी निन्दा की है। माया की निन्दा उनका प्रिय विषय है। ईश्वर के बारे में कबीर काफी कम शब्दों में अपनी बात कहते हैं जबकि माया के लिए बहुत से रूपक खींचते हैं। यहाँ कबीर ने माया का मानवीकरण किया है। वे कहते हैं कि यह माया महाठगिनी है अर्थात लोगों को ठगने वाली है। ठगी का अपना मनोविज्ञान होता है। ठग आपकी सहमति से आपको बुरे रास्ते पर ले जाता है। ठग जोर जबर्दस्ती नहीं करता है। इसी तरह माया भी मनुष्य के मन में इच्छा पैदा करती है इसलिए मनुष्य स्वयं अपनी इच्छा से पाप की ओर प्रवृत्त होता है। यह पद पुरुषों को सम्बोधित है इसलिए यहाँ माया को ठगिनी कहा गया है। कबीर के समय सामाजिक जीवन के क्षेत्र में सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व था। यही कारण है कि कबीर यहाँ सिर्फ पुरुषों को ही सम्बोधित कर रहे हैं, माया को स्त्री का रूपक देकर। माया को स्त्री का रूप देने के कारण ही आज कई आलोचक उन्हें स्त्री विरोधी मानते हैं।
माया महाठगिनी है और ठगने वाले से आपको सिर्फ विवेक, बुद्धि और ज्ञान ही बचा सकते हैं। मन में विद्यमान लालच, स्वार्थ, इच्छा और आकांक्षा को ही ठग ठगी के लिए इस्तेमाल करता है। ठग भावनाओं और मनोभावनाओं को जानने में बड़ा समर्थ होता है। किवदंती के अनुसार हमारे मन के भीतर सत, रज और तम नामक तीन गुण या तीन तरह की भावनाएँ पाई जाती हैं या हमारी भावनाओं को इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। माया सत, रज और तम इस त्रिगुणों की फाँस अपने हाथ में लिए रहती है और मनुष्य को इनके जाल में फाँसने के लिए मधुर बोली बोलती है। माया हमें फँसाने के लिए लुभाती है। इसके कई रूप होते हैं। कबीर ने माया के रूपों की विविधता बताने के लिए मिथकों का प्रयोग किया है। वे कहते हैं कि माया ईश्वर के घर में लक्ष्मी और शिव के घर में पार्वती के रूप में बैठी है। पंडा के यहाँ मूर्ति के रूप में हैं तो तीर्थों पर पानी के रूप में विद्यमान है। कबीर मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा आदि धार्मिक आडम्बरों के विरोधी थे। इसीलिए वे इसे भी माया का ही एक रूप मानते हैं। इसी तरह वे आगे कहते हैं कि माया जोगी के यहाँ जोगन के रुप में है। राजा के यहाँ रानी के रूप में तो किसी के यहाँ हीरा जैसी बहुमूल्य रत्न के रूप में है। किसी के यहाँ कोढ़ी और कानी के रूप में है यानी गरीबी के रूप में तो भगत के यहाँ भगतिन के रूप में है। कबीर के कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे जो भी सांसारिक रिश्ते हों, अमीरी हो या गरीबी सब माया के ही रूप हैं जो हमें ईश्वर प्राप्ति के असली उद्देश्य से भटकाती है। लेकिन यह माया भी उसकी गुलाम हो जाती है जो ईश्वर का गुलाम है। यहाँ कबीर अपने को ईश्वर का गुलाम कहते हैं , जिसकी वजह से माया उनकी गुलाम है। कबीर के अनुसार माया से बचने का एकमात्र उपाय है – ईश्वर की भक्ति।
- निष्कर्ष
उपर्युक्त साखियों और पदों के पाठ-विश्लेषण से कबीर का दार्शनिक मर्म हमारे समक्ष अनेक रूपों में प्रकट होता है। कबीर के दर्शन को समग्रता से समझने के लिए इन्हें एक साथ पढ़ना आवश्यक है। उनके हरेक पदों और साखियों में उनके दर्शन का मूल तत्त्व छिपा हुआ है। वास्तव में कबीर ईश्वर के अलावा किसी के भी अस्तित्व को नहीं स्वीकार करते हैं। ईश्वर के अतिरिक्त उनके लिए सब मायामोह और मिथ्या है। इसी कारण कबीर के सामाजिक सत्य में वर्णाश्रम,जातिगत श्रेष्ठता, बाह्याचार, अन्धविश्वास, मूर्तिपूजा आदि का जबर्दस्त खण्डन मिलता है। इसकी वजह यह है कि कबीर इसे मिथ्या मानते हैं, इनके अस्तित्व से इंकार करते हैं क्योंकि इनका ईश्वर से कोई सम्बन्ध नहीं है।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- कबीर , विजयेन्द्र स्नातक(संपा.),राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
- कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक – डॉ. श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
- कबीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- कबीर की सखियाँ, संकलन वियोगी हरि, भारतीय साहित्य संग्रह
- कबीर पदावली, रामकुमार वर्मा,हिन्दी साहित्य सम्मलेन,प्रयाग
- कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक – डॉ. श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
- हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ,
- कबीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- http://hindisamay.com/kabir-granthawali/kabirgranth-index.htm
- http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=749&pageno=1
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81
- http://www.ignca.nic.in/coilnet/kabir055.htm
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%9C%E0%A4%95
- https://vimisahitya.wordpress.com/2008/07/31/kabir_saki1/
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%96%E0%A5%80