13 हिन्दी आलोचना में कबीर

अमिष वर्मा and अनिरुद्ध कुमार

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • हिन्दी आलोचना में कबीर सम्बन्धी किए गए चिन्तनों से परिचित हो सकेंगे।
  • कबीर काव्य का महत्त्व समझ सकेंगे।
  • विभिन्‍न आलोचकों की कबीर सम्बन्धी अवधारणाओं की तुलना कर सकेंगे।
  • कबीर का आलोचनात्मक मूल्यांकन करने के विभिन्‍न प्रतिमानों को समझ पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

    कबीर की कविता हिन्दी आलोचना के सर्वाधिक विचारणीय काव्य-क्षेत्रों में शामिल रही है। इसकी व्यापक और सुदीर्घ लोकप्रियता तथा क्रान्तिकारी प्रभावों ने हिन्दी आलोचकों को अपनी ओर आकर्षित किया है। आलोचकों को यह अपने कालजयी मूल्यों और साहित्यिक तत्त्वों के अन्वेषण के लिए आमन्त्रण और चुनौती देता रहा है। हिन्दी के प्रमुख आलोचकों ने कबीर-काव्य के सामाजिक सरोकारों के साथ क्रान्तिकारी परिवर्तन की भूमिका की भी तलाश की है। कबीर की कविता अनेक आलोचकों के आलोचना के प्रतिमान विकसित करने का आधार भी बनी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि हिन्दी आलोचना में कबीर की कविता का मूल्यांकन किस रूप में किया गया है? उसके मूल्यांकन के लिए विभिन्‍न आलोचकों ने क्या आधार चुना है? आलोचकों ने कबीर की कविता से क्या निष्कर्ष निकाले हैं; और इसने भक्ति-काव्य को समझने के तरीके को कैसे प्रभावित किया है इन बातों को ध्यान में रखकर इस पाठ में विचार किया गया है।

  1. कबीर सम्बन्धी हिन्दी आलोचना का परिदृश्य

    परवर्ती काल के अनुयायियों के साथ-साथ उनके समकालीनों ने भी कबीर के रचनाओं पर विचार किया है। इनमें हिन्दी आलोचना के उद्भव के पूर्व के रचनाकार नाभादास के कबीर सम्बन्धी दो छप्पय बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। कबीर सम्बन्धी एक प्रसिद्ध छप्पय में नाभादास ने लिखा है –

 

कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट दरसनी ।

भक्ति विमुख जो धर्म सो अधरम कर गायौ ।

जोग, जग्य, व्रत, दान, भजन, बिनु तुच्छ दिखायो ।

हिन्दू तुरक प्रमान, रमैनी, शबदी, साखी ।

पक्षपात नहीं बचन, सबही के हित की भाखी ।

आरूढ़ दसा हे जगत पर, मुख देखी नाहिन भनी ।

कबीर कानि राखी नहीं वर्णाश्रम षट दरसनी ।

(प्रकाश नारायण दीक्षित (सं);  भक्तमाल : एक अध्ययन,  प्रथम संस्करण सन् 1961, साहित्य भवन, इलाहाबाद, पृ. 69)

 

अर्थात् कबीर ने भक्ति से विमुख धर्म को अधर्म कहा। योग, यज्ञ, व्रत और दान को भजन बिना तुच्छ बताया। हिन्दू और तुर्क में भेद करने के बजाय पक्षपात रहित रहने को कहा और सबका हित करने वाली साखी, शबद, रमैनी के रूप में अपना वचन सुनाया। किसी की मुँहदेखी नहीं कही, चाहे वह कितना भी बड़ा हो। और वर्णाश्रम और षटदर्शन की मर्यादा नहीं रखी। नाभादास को कबीर की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ चिन्हित करने में पर्याप्‍त सफलता मिली है। नाभादास ने अपने भक्तमाल में मीरा की विशेषताएँ भी इतनी ही बारीकी से गिनाई। कबीर काव्य के आधुनिक आलोचकों ने भी विस्तार से कबीर का यही रूप प्रस्तुत किया है। कबीर ने वर्ण, धर्म, जाति आदि के आधार पर भेद करने को अस्वीकार किया और समानतापरक मानवीय मूल्यों की स्थापना पर जोर दिया। उन्होंने बाह्याडम्बर और कर्मकाण्ड के बजाय शान्त समर्पित भक्ति और प्रेम का मार्ग दिखाया।

 

आधुनिक काल से पूर्व निर्मित कबीर की यह छवि हिन्दी आलोचना को विरासत में मिली थी। हिन्दी आलोचना आरम्भ में कमोवेश इसी रास्ते की ओर उन्मुख हुई। हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों – गार्सा द तासी, शिव सिंह सैंगर, जॉर्ज गियर्सन, मिश्रबन्धुओं ने कबीर की नोटिस ली, जो विकास की दृष्टि से भले ही महत्त्वपूर्ण हों पर कबीर काव्य के मूल्यांकन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि मिश्रबन्धुओं ने कबीर को तुलसी और सूर के साथ हिन्दी कविता के नवरत्‍नों में स्थान दिया था। उनके बाद के हिन्दी साहित्य के इतिहासकार रामचन्द्र शुक्ल ने कविता की त्रिवेणी में जायसी को शामिल किया और कबीर को बाहर कर दिया। इसी समय सन् 1916 ई. में अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने कबीर-वचनावली का सम्पादन कर उसकी लम्बी भूमिका लिखी। इस भूमिका में उन्होंने कबीर की रचनाओं को हिन्दू-पद्धति के अनुरूप दिखाने की कोशिश की। कबीर सम्बन्धी आलोचना की दृष्टि से तीसरे दशक में आई श्यामसुन्दर दास द्वारा सम्पादित कबीर ग्रन्थावली की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने एक तरफ तो बाद के आलोचकों के लिए पाठाधार का निर्माण कर दिया और दूसरी तरफ उसकी प्रस्तावना में कबीर सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण दिशाओं का उल्लेख किया। कबीर सम्बन्धी आलोचना में उल्लेखनीय परिवर्तन सन् 1942 में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक कबीर के प्रकाशन के बाद आया। यह पुस्तक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की बहुत-सी मान्यताओं का प्रतिवाद करती थी। इसलिए हम पहले रामचन्द्र शुक्ल की कबीर सम्बन्धी आलोचना से परिचित होंगे। इसके बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की स्थापनाओं को समझेंगे।

 

3.1. रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि में कबीर

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कबीर सम्बन्धी आलोचना में कबीर एवं निर्गुण सन्तों के प्रति नकारात्मक दृष्टि स्पष्ट झलकती है। तुलसी की रचनाओं के आधार पर आलोचकीय प्रतिमान विकसित करने वाले आचार्य शुक्ल ने भक्ति के तीन अंग – कर्म, धर्म और ज्ञान माने हैं । उनके मत से रामकाव्य इसीलिए सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि उसमें तीनों अंगों का पूर्ण विकास मिलता है। इस प्रतिमान पर उन्हें कबीर आदि सन्तों का निर्गुण-काव्य सीमित महत्त्व का लगा। उन्होंने उसे कर्म से दूर कर देने वाला माना। उन्होंने लिखा कि – “कबीर तथा अन्य निर्गुणपन्थी सन्तों के द्वारा अन्तस्साधना में रागात्मिका ‘भक्ति’ और ‘ज्ञान’ का योग तो हुआ, पर ‘कर्म’ की दशा वही रही, जो नाथपन्थियों के यहाँ थी। इन सन्तों के ईश्‍वर ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप ही रहे, धर्मस्वरूप न हो पाए।” (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 42)

 

रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना की शैली केवल निर्णयकर्ता वाली नहीं है, बल्कि वे साहित्य का विश्‍लेषण भी करते हैं। कबीर-काव्य के आलोचनात्मक विश्‍लेषण में उन्होंने कबीर की अनेक विशेषताएँ रेखांकित की हैं, जो उल्लेखनीय हैं। उन्होंने कबीर को निर्गुण पन्थ का प्रवर्तक माना है। वे लिखते हैं कि – “नामदेव की रचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणपन्थ के लिए मार्ग निकालनेवाले नाथपन्थ के योगी और भक्त नामदेव थे। जहाँ तक पता चलता है, ‘निर्गुण मार्ग’ के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास ही थे…” आचार्य शुक्ल ने कबीर को हिन्दू और मुसलमान के बीच सामान्य भक्ति मार्ग निकालकर एकता स्थापित करने का श्रेय दिया है। वे लिखते हैं कि “भक्ति के आन्दोलन की जो लहर दक्षिण से आई, उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिन्दू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई। …महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (संवत् 1328-1408) ने हिन्दू-मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्तिमार्ग का भी आभास दिया। उसके पीछे कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ एक व्यवस्थित रूप में यह मार्ग निर्गुणपन्थ के नाम से चलाया।”

 

रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर काव्य के सामाजिक महत्त्व को भी रेखांकित किया। वे कबीर की भक्ति को शुष्कता एवं निम्‍नवर्गीय जनता की आत्मदीनता के भाव से उबारने के कारण महत्त्वपूर्ण मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि “इसमें कोई सन्देह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सँभाला जो नाथपन्थियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्‍न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।”(आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, कालविभाग, पृ. 42)

 

इस तरह शुक्ल शिक्षित जनता के लिए कबीर एवं निर्गुण सन्तों के महत्त्व को अमान्य करते हुए भी उन्हें निम्‍न वर्ग के समाज सुधारक के रूप में देख रहे थे। शुक्ल लिखते हैं कि “संस्कृत बुद्धि, संस्कृत हृदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता। पर अशिक्षित और निम्‍न श्रेणी की जनता पर इन सन्त महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है। उच्‍च विषयों का कुछ आभास देकर, आचरण की शुद्धता पर जोर देकर, आडम्बरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्‍न करके, इन्होंने इसे ऊपर उठाने का स्तुत्य प्रयत्‍न किया। पाश्‍चात्यों ने इन्हें जो धर्मसुधारक की उपाधि दी है, वह इसी बात को ध्यान में रखकर।”

 

कबीर काव्य के सामाजिक सरोकार के साथ ही उसके स्वरूप, दार्शनिक आधार और उसकी  साहित्यिक विशेषताएँ भी शुक्ल जी द्वारा रेखांकित की गई हैं। कबीर काव्य पर अद्वैतवाद, सूफीवाद, सिद्ध-नाथ आदि विचारधारा के प्रभाव को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा कि “सारांश यह कि जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पन्थ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव स्पष्ट लक्षित होते हैं।” शुक्ल जी ने कबीर पर इन प्रभावों को विस्तार से रेखांकित किया है। कबीर काव्य के सामाजिक सरोकार को रेखांकित करते हुए शुक्ल जी ने उनकी कर्मकाण्ड और बाह्याचारों की आलोचना कर मनुष्यों में भेद को मिटाने वाली विशेषता को रेखांकित किया है।

 

उन्होंने लिखा है कि “उपासना के बाह्य स्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्मकाण्ड को प्रधानता देने वाले पण्डितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी-खरी सुनाई और राम-रहीम की एकता समझा कर हृदय को शुद्ध और प्रेममय करने का उपदेश दिया। देशाचार और उपासना विधि के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो भेदभाव उत्पन्‍न हो जाता है, उसे दूर करने का प्रयास उनकी वाणी बराबर करती रही।”

 

रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर के माधुर्य के पदों को काम-वासना से मुक्त रखने के लिए प्रशंसा की है। वे लिखते हैं कि “कबीर का ‘ज्ञानपक्ष’ तो रहस्य और गुह्य की भावना से विकृत मिलेगा, पर सूफियों से जो प्रेम-तत्त्व उन्होंने लिया वह सूफियों के यहाँ चाहे कामवासनाग्रस्त हुआ हो, पर ‘निर्गुणपन्थ’ में अविकृत रहा। यह निस्सन्देह प्रशंसा की बात है।” इसके अतिरिक्त कबीर की कविता में मौजूद विरोधों से चमत्कारी प्रभाव पैदा करने की क्षमता को भी रेखांकित किया है। आचार्य शुक्ल ने यह माना है कि “यद्यपि वे पढ़े लिखे न थे, पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी, जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थीं। इनकी उक्तियों में विरोध और असम्भव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था।”

 

यह ध्यान रखना चाहिए कि कबीर सम्बन्धी आचार्य शुक्ल का तमाम विश्‍लेषण एक नकारात्मक चेतना के साए में हुआ है, इसलिए विशेषताओं के रेखांकन के बावजूद, वे कबीर को महत्त्व नहीं दे पाए। कबीर के सम्बन्ध में उनकी यह राय बनी रही कि “कबीर अपने श्रोताओं पर यह अच्छी तरह भासित करना चाहते थे कि हमने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, इसी से वे प्रभाव डालने के लिए बड़ी लम्बी चौड़ी गर्वोक्तियाँ भी कभी-कभी कहते थे।” कबीर की आलोचना करते हुए शुक्ल जी ने कई ऐसी स्थापनाएँ या निष्कर्ष दिए जो उनके विश्‍लेषण के विरुद्ध जा रहे थे। कबीर की कविता की दीर्घ लोकप्रियता और व्यापक सामाजिक प्रभाव उसे नए ढंग से पढ़े जाने की माँग कर रहा था। हिन्दी आलोचना में शुक्ल के बाद पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल और फिर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने यह महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

 

3.2. हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना-दृष्टि में कबीर

 

हिन्दी साहित्य में कबीर के महत्त्व की स्थापना का श्रेय हजारीप्रसाद द्विवेदी को है। उन्होंने तीन पुस्तकों मध्यकालीन धर्म-साधना, कबीर और हिन्दी साहित्य की भूमिका में कबीर की रचनाओं के आधार पर विकसित प्रतिमानों से भक्तिकालीन साहित्य को देखा। शुक्ल जी ने कबीर को समाज- सुधारक माना था, कवि नहीं। द्विवेदी जी का मत है कि कबीर को कवि, समाज-सुधारक, धर्म-प्रवर्तक आदि रूपों के बजाय भक्त और आध्यात्मिक गुरु के रूप में देखना चाहिए। सन् 1942 में प्रकाशित कबीर हिन्दी आलोचना की पहली पुस्तक है, जिसमें कबीर-काव्य पर स्वतन्त्र रूप से विचार किया गया है। इसमें द्विवेदी ने लिखा कि “कबीर धर्मगुरु थे। इसलिए उनकी वाणियों का आध्यात्मिक रस ही आस्वाद्य होना चाहिए।” कबीर-काव्य के विश्‍लेषण के बाद दिए गए उनके कई अन्य निष्कर्ष इस राय से अलग कबीर को अद्वितीय कवि के रूप में स्थापित करने वाले हैं। कबीर की काव्य-भाषा को शुक्ल जी ने उबड़-खाबड़ और अटपटी कहा था। द्विवेदी जी ने कबीर को भाषा का पूर्ण अधिकारी घोषित करते हुए लिखा कि “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे, जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया – बन गया है तो सीधे-सीधे नहीं तो दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्‍कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कह सके। और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है, वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है। …वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य-रसिक काव्यानन्द का आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।” द्विवेदी जी ने कबीर की भाषा की व्यंग्य-क्षमता की भी भरपूर सराहना की है। उन्होंने लिखा कि “व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वन्दी नहीं जानते। पण्डित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी – सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते हैं। अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खानेवाला केवल धूल झाड के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।” कबीर की इन क्षमताओं ने उन्हें यह मानने पर मजबूर किया है कि उनकी कविता साहित्यिकता से भरपूर है, मगर वे कबीर को भक्त रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते हैं, इसलिए वे उनके कवि रूप को पार्श्‍व में रखते हैं। उन्होंने लिखा है कि “इस प्रकार यद्यपि कबीर ने कहीं काव्य लिखने की प्रतिज्ञा नहीं की, तथापि उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से छलके हुए रस से काव्य की कटोरी में भी कम रस इकट्ठा नहीं हुआ है।” द्विवेदी जी की स्थापनाओं के अनुसार कबीर को कवि नहीं मानने के पहले यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्होंने तुलसीदास को भी कवि माना है और कबीर को उनकी तुलना में अद्वितीय कहा है। वे लिखते हैं कि “हिन्दी-साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर-जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्‍न नहीं हुआ। महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंद्वी जानता है, वे हैं; तुलसीदास। परन्तु तुलसीदास और कबीर के व्यक्तित्व में बड़ा अन्तर था। यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परन्तु दोनों स्वभाव, संस्कार और दृष्टिकोण में एकदम भिन्‍न थे। मस्ती फक्‍कड़ाना स्वभाव और सब कुछ को झाड़-फटकार कर चल देनेवाले तेज ने कबीर को हिन्दी-साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है।”

 

द्विवेदी जी ने कबीर सम्बन्धी पूर्ववर्ती, और विशेषकर शुक्ल जी की आलोचना के बाद पैदा हुई बहुत सी भ्रान्तियों का निवारण किया। भारत की धर्म और काव्य-परम्परा का गहन अन्वेषण कर उन्होंने साबित किया कि कबीर किसी विदेशी धर्म दर्शन को अपनाकर नहीं चले थे, बल्कि उनकी काव्य-परम्परा का मूल भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में है। शुक्ल जी ने परम्परा के भीतर शास्‍त्र के स्वीकार को महत्त्व दिया था। द्विवेदी जी ने लोक तथा अस्वीकार और संघर्ष को महत्त्व दिया। उन्होंने साहित्य की धारा को सांस्कृतिक विरासत से जोड़कर देखने पर जोर दिया। उनकी भारतीय परम्परा हिन्दू परम्परा नहीं है। उसमें बौद्ध, जैन धर्म, अनेक मत-मतान्तर और लोक-पक्ष भी शामिल है। ये आलोचनात्मक प्रतिमान विकसित करने में उन्होंने कबीर काव्य को आधार के रूप में ग्रहण किया है। इन प्रतिमानों के निर्माण के जरिए उन्होंने कबीर को हिन्दी के अद्वितीय भक्त कवि के रूप में स्थापित करने में सफलता पाई है।

  1. परवर्ती आलोचना में कबीर

   शुक्ल जी एवं द्विवेदी जी की कबीर सम्बन्धी स्थापनाओं ने जिस संवाद की शुरुआत की थी, उसमें स्वातन्त्र्योत्तर युग के आलोचकों – मुक्तिबोध, रामकुमार वर्मा, पारसनाथ तिवारी, माताप्रसाद गुप्‍त, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव, नामवर सिंह, शिवकुमार मिश्र आदि ने भी भागीदारी की है। स्‍त्री, दलित आदि समूहगत विमर्शों के उत्थान के बाद कबीर के आलोचनात्मक मूल्यांकन में निर्णायक परिवर्तन आया है, विशेष रूप से दलित आलोचना ने कबीर की नई व्याख्या की है। दलित आलोचकों में डॉ. धर्मवीर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.

 

4.1. प्रगतिशील आलोचना में कबीर

 

प्रगतिशील आलोचकों ने सामाजिक कुरीतियों, जाति और धर्मगत आडम्बरों की आलोचना कर नये समाज के निर्माण के कबीर के प्रयास पर बल दिया। उन्होंने कबीर को तुलसी से भिन्‍न पथ पर चलने वाले क्रान्तिकारी कवि के रूप में स्थापित किया। इस दृष्टि से मुक्तिबोध का मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का एक पहलू उल्लेखनीय है। वे कुरीतियों, धार्मिक अन्धविश्‍वास और जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाने के कारण तुलसीदास की तुलना में कबीर को अधिक आधुनिक मानते हैं। उन्होंने लिखा कि “राम के चरित्र द्वारा और तुलसीदासजी के आदर्शों  द्वारा सदाचार का रास्ता भी मिला। किन्तु वह मार्ग कबीर के और अन्य निर्गुणवादियों के सदाचार का जनवादी रास्ता नहीं था। सच्‍चाई और ईमानदारी, प्रेम और सहानुभूति से ज्यादा बड़ा तकाजा था सामाजिक रीतियों का पालन।” (मुक्तिबोध, मध्यकालीन भक्ति-आन्दोलन का एक पहलू, मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड-5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1986, पृ. 294) इसलिए वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “तुलसीदासजी को पुरातनवादी कहा जाएगा कबीर की तुलना में, जिनके विरुद्ध शुक्लजी ने चोटें की हैं।” (वही, पृ. 294) कबीर के मूल्यांकन की दृष्टि से नामवर सिंह की दूसरी परम्परा की खोज पुस्तक भी उल्लेखनीय है। इसमें कबीर के लोकधर्म और अस्वीकार के साहस के सहारे दूसरी परम्परा की परिकल्पना की गई है, जिसमें हजारीप्रसाद द्विवेदी का भक्ति-काव्य सम्बन्धी लेखन की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है। कबीर पर नामवर सिंह ने कुछ स्वतन्त्र आलेखों के रूप में भी विचार किया है। मुक्तिबोध की तरह उन्होंने भी कबीर के सामन्ती पुरोहिती जकड़बन्दी के खिलाफ आवाज बुलन्द करने को क्रान्तिकारी कर्म के रूप में रेखांकित किया है। सन् 1982 में प्रकाशित अस्वीकार का साहस में वे लिखते हैं कि “कबीर जैसे सन्त का विरोध सम्भवत: इसी सामन्ती-पुरोहिती के दमन के चक्र से था, जिसमें जनसाधारण हिन्दू-मुसलमान, दोनों ही पिस रहे थे। यह दमन-चक्र किसी राजनीतिक अत्याचार से कितना अधिक और अमानुषिक है, इसे आज स्वाधीन भारत के किसी क्रान्तिकारी को बतलाने की जरूरत नहीं है। इसलिए यदि कबीर ने अपने जमाने के किसी सुल्तान को छोड़कर सामन्ती-पुरोहिती शक्तियों के खिलाफ आवाज उठाई तो सिर्फ इसी कारण उनकी क्रान्तिकारिता कम नहीं हो जाती।”

 

4.2. समूहगत विमर्श

 

हिन्दी आलोचना ने बीसवीं सदी के अन्तिम दशक तक आते-आते स्‍त्री, दलित, आदिवासी आदि समूहों के विमर्श के रूप में नई दिशा और तेवर ग्रहण किया। स्‍त्री आलोचकों ने कबीर की स्‍त्री-दृष्टि की आलोचना की। उन्होंने पितृसत्ता के नकारात्मक प्रभाव को वहन करने और सँवारने की दृष्टि से कबीर को सगुण भक्तों के समान ही निन्दनीय ठहराया। कबीर से भी अधिक स्‍त्रीवादी आलोचना ने कबीर के पदों की पितृसत्तात्मक नकारात्मकता से युक्त व्याख्या करने वाले आलोचकों की आलोचना की। अनुराधा ने सती प्रथा, भक्ति-काव्य और हिन्दी मानसिकता नामक आलेख में कबीर के एक प्रसिद्ध पद की नई व्याख्या प्रस्तुत करते हुए लिखा कि “प्रसिद्ध पद दुलहिन गावहु मंगलाचार को ‘मंगलाचार’ शब्द पर जोर देकर सीधे-सीधे विवाह-उत्सव का गीत व्याख्यायित किया गया। लेकिन विवाह में ‘सरोवर के किनारे वेदी’ बनाने का विधान तो है नहीं और राजस्थान में सती के गीतों को ‘मंगलाचार’ कहते हैं। यहाँ यह बात उठाते ही व्याख्या खण्ड-खण्ड हो जाती है। ‘सरोवर’ पर जोर देते ही अर्थ विधान ‘दुल्हन’ को ‘सती’ के लिए लाई गई स्‍त्री में बदल देता है।” (अनुराधा, सती प्रथा, भक्ति-काव्य और हिंदी मानसिकता, फिलहाल 21-22, सम्पादक- प्रीति सिन्हा, नवंबर 2009, पृ. 22) यह व्याख्या पूर्ववर्ती व्याख्याओं से निर्मित कबीर की छवि को पलट देने वाली है। इसके बाद वे कबीर के आलोचकों की आलोचना करती हुई लिखती हैं कि “यदि यह मान लें कि कबीर का मन्तव्य उस विशिष्ट दार्शनिक सत्य को उद्घाटित करना है तो उनके द्वारा अपनाया गया सती का यह ‘रूप-विधान’ निन्दनीय है और यदि नहीं है तो हिन्दी आलोचना के ऐसे प्रयास निंदनीय हैं जो खींचतान कर उसे दर्शन के ऐसे आयामों तक ले जाते हैं।” (अनुराधा, सती प्रथा, भक्ति-काव्य और हिंदी मानसिकता, फिलहाल 21-22, सम्पादक- प्रीति सिन्हा, नवंबर 2007, पृ. 23)

 

दलित विमर्श आधारित आलोचना ने कबीर को अपना कवि घोषित कर उनके नए दलित-विमर्शपरक अर्थ तलाशे। इस दृष्टि से डॉ. धर्मवीर की कबीर सम्बन्धी कई पुस्तकें उल्लेखनीय हैं। कबीर और उनके आलोचक तथा इसी कड़ी में आई दो अन्य पुस्तकों में उन्होंने हिन्दी के पूर्ववर्ती आलोचकों की कबीर सम्बन्धी मूल्यांकन की सीमाओं का बखूबी उद्घाटन किया है। धर्मवीर मानते हैं, “मेरी खोज है कि ब्राह्मणों ने और ब्राह्मणों के शिष्यत्व में ब्राह्मणेतर द्विज आलोचकों ने कबीर को उनकी दलित जुलाहे जाति से और कबीरपन्थ को काटकर अपने वैदिक घर के बाहर पिंजड़े में सगुण का रामनाम जपने वाला तोताराम बना दिया है। यूँ, मेरे द्वारा अब तक के किए गए कबीर के अध्ययन के निम्‍न तीन परिणाम निकलते हैं :

  1. यह नहीं माना जा सकता कि कबीर को लेकर ब्राह्मणों के चिन्तन में कोई सुधार या बदलाव सम्भव है, क्योंकि उनकी दृष्टि पिछले तीन हजार सालों से पूरी, परिपक्‍व और एक-सी है।
  2. ब्राह्मणेतर द्विज आलोचक ब्राह्मणों के शिष्यत्व से बाहर आ सकते हैं। वे अपनी बौद्ध, जैन और सिक्ख परम्पराओं से जान-पहचान बढ़ाएँ तो उनकी स्वतन्त्र पहचान बन सकती है।
  3. विदेशी विद्वान कबीर को सामाजिक सन्दर्भ देने के अपने शोधकार्य में जुटे हुए ही हैं। (डॉ. धर्मवीर, कबीर के कुछ और आलोचक, वाणी प्रकाशन, 2009, पृ. 8)

    कबीर सम्बन्धी समूहगत आलोचना का विकास जाति के प्रश्‍न पर कबीर जैसी पुस्तकों के रूप में देखा जा सकता है। यह पुस्तक कबीर के जुलाहा एवं मुसलमान होने के तथ्य को आधार बनाकर उन्हें बहुसंख्यक पिछड़ी जाति का घोषित करती है एवं उनके वर्चस्वकामी विमर्श के लिए इस्तेमाल का प्रतिवाद करती है।

  1. निष्कर्ष

    इस तरह हम कह सकते हैं कि हिन्दी आलोचना में कबीर-काव्य का कई प्रतिमानों के आधार पर विश्‍लेषण किया गया है। कबीर के महत्त्व की शुक्ल जी से शुरू हुई पहचान द्विवेदी तक आकर स्पष्ट हो गई। शुक्ल की नकारात्मकता और श्यामसुन्दर दास के अनिश्‍चय को द्विवेदी जी के विश्‍लेषणों ने समाप्‍त कर कबीर के स्वीकार का दौर आरम्भ किया। प्रगतिशील आलोचना ने इन आलोचकों द्वारा स्थापित किए जा रहे कबीर के भक्त रूप को किनारे रखा और सामन्ती-पुरोहिती व्यवस्था की आलोचना को आगे बढ़ाया। उन्होंने जनता के शोषण के खिलाफ आवाज उठाने वाले के रूप में कबीर को रेखांकित करते हुए भक्तिकाल के सबसे महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया। दलित विमर्श ने कबीर को अपना मार्गदर्शक माना और उनके कविता की निम्‍नवर्गीय समाज के आक्रोश को स्वर देने वाली कविता के रूप में उनकी रचनाओं की व्याख्या की। स्‍त्रीवादी आलोचना ने कबीर की पितृसत्तात्मक चेतना की सीमा को रेखांकित किया। इस तरह हिन्दी आलोचना-संवाद की प्रक्रिया के जरिए कबीर के विभिन्‍न रूपों को तथा उनकी कविता के विविध पहलुओं को रेखांकित करने में सफल रही है। आगे भी इस विकास-यात्रा के चलते रहने की पूरी सम्भावना है।

you can view video on हिन्दी आलोचना में कबीर

    अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. भक्तमाल : एक अध्ययन, प्रकाश नारायण दीक्षित,साहित्य भवन, इलाहाबाद
  2. कबीर के कुछ और आलोचक, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन
  3. मध्यकालीन भक्ति-आन्दोलन का एक पहलू, मुक्तिबोध, मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड-5, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. कबीर ग्रन्थावली, सम्पादक – डॉ. श्यामसुन्दर दास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी,
  5. हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रप्दाय, पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, अवध पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ,
  6. कबीर, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  8. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  9. हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  10. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  11. हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  12. कबीर की सखियाँ, संकलन वियोगी हरि, भारतीय साहित्य संग्रह 

     वेब लिंक्स

  1. http://www.ignca.nic.in/coilnet/kabir055.htm
  2. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B0%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81
  3. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
  5. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%AF
  6. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
  7. http://www.bharatdarshan.co.nz/magazine/literature/226/kabir-ke-dohe.html
  8. http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%95%E0%A4%AC%E0%A5%80%E0%A4%B0
  9. https://www.youtube.com/watch?v=44M6yyIxJYk
  10. https://www.youtube.com/watch?v=WEWbl-YbowU