6 हिन्दी भक्ति काव्य में दक्षिण का योगदान
लक्ष्मी अय्यर
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- भक्ति आन्दोलन की मूल पृष्ठभूमि से परिचित हो सकेंगे।
- भक्ति साहित्य की उत्पत्ति के विषय में जान पाएँगे।
- उत्तर के भक्ति साहित्य के विकास में दक्षिण के आचार्यों का योगदान जान पाएँगे।
- भक्ति आन्दोलन के विकास हेतु भक्ति को जन-सुलभ बनाने के लिए अपनाई गई पद्धतियों को जान सकेंगे।
- आलवारों एवं नायान्मारों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
भक्ति आन्दोलन के उदय के सम्बन्ध में माना जाता है कि –
भक्ति द्रविड़ ऊपजी, लाए रामानन्द,
परगट कियो कबीर ने, सात द्वीप नौ खण्ड।
अर्थात भक्ति द्रविड़ में उत्पन्न हुई। दक्षिण की उस भक्ति को रामानन्द उत्तर भारत में, अर्थात हिन्दी क्षेत्र में लेकर आए। भक्ति की इस धारा को कबीर ने सातो द्वीपों और नौ खण्डों में प्रकट किया। अर्थात चारो ओर भक्ति का जो प्रसार दिखाई देता है, उसका मूल द्रविड़ प्रान्तों से है। इस लोक प्रचलित विश्वास में कोई विश्वास करे या न करे, पर इतना तय है कि दक्षिण भारत में भक्ति का उदय उत्तर भारत से पहले हुआ। इसी को आधार मानते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने स्थापना दी कि भक्तिकाल के उदय के कारणों में इस्लाम का आगमन प्रमुख कारण नहीं है। यदि ऐसा होता तो भक्ति को सिन्ध या उत्तर भारत में पैदा होना चाहिए था, परन्तु उसका उदय दक्षिण भारत में हुआ, जहाँ इस्लाम की कोई चुनौती नहीं थी। यह भी सही है कि उत्तर में भी भक्ति की परम्परा रही है, परन्तु दक्षिण की भक्ति की परम्परा को इस अर्थ में जान लेना उपयोगी होगा।
- दक्षिण में भक्ति साहित्य की पूर्वपीठिका
दक्षिण में भक्ति आन्दोलन के विकास में अन्य द्रविड़ प्रदेशों की अपेक्षा तमिल प्रदेश का महत्त्वपूर्ण योगदान है। प्राचीन तमिल समाज तोलकपिप्पयर काल (ई.पू. 500) से संगोत्तर काल (सन् 100) तक का समाज है। प्राचीन संगम काल में और बाद में तमिल के प्रथम प्रबन्ध-काव्य शिल्पदिकारम’ में भक्ति की छाया मिलती है। तिरुमूलर कहीं-कहीं फिर सन् 600 की रचना तिरुमन्दिरम्’ में प्रथम बार भक्ति, भक्त आदि शब्दों का प्रयोग देखते हैं। तमिल की नीतिपरक रचना तिरुक्कुरल में भक्ति से सम्बन्धित उपदेश मिलते हैं। तमिल भाषा का सबसे प्राचीन ग्रन्थ तोलकाप्पियम् में वर्णित पाँच भूभागों के अन्तर्गत आने वाले मुल्लैप्रदेश के अधिदेवता के रुप में मायोन को स्वीकार किया गया है। मायोन यानी विष्णु, ग्वाल लोगों के इष्ट देवता थे। मायोन (विष्णु या श्रीकृष्ण) को मानव जाति का रक्षक बताया गया (तोलकाप्पियम्, तमिल पोरुल सूत्र 60) है और आयर जाति की रमणियों (आभीर स्त्रियों) के हृदय में अपने इष्ट देव के प्रति माधुर्य भी वर्णित है। पत्तु पाट्टु (दशगीत काव्य-संग्रह), पदिनेण कीष कणक्कु (अठारह लघु काव्य-संग्रह) में तिरुमाल विष्णु सम्बन्धी वर्णन मिलते हैं। संगम साहित्य की रचना कलित्तोगै’ में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन, कृष्ण द्वारा केशी नामक घोड़े का वध करने वाला प्रसंग, द्रौपदी की रक्षा आदि प्रसंगों का सुरम्य वर्णन किया गया है।
- संगम साहित्य में चित्रित भक्ति
संगम साहित्य के अन्तर्गत आनेवाले परिपाडल में (परिपाडल, 63-68) स्पष्ट रुप से बताया गया है कि ईश्वर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है।
अग्नि में व्याप्त ऊष्मा तू ही
पुष्प में सुवास भी तू है।
पत्थरों में मणि भी तू, वीरता में पौरुष भी तू है।
भूतो में तू प्रकाश ज्योति में तू
सब में तू ही तू व्याप्त है।
संगोत्तरकाल (सन् 200) की प्रख्यात रचना शिल्पादिकारम्’ में ग्वालों द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा गाई गई है। कुरवैकूत्तु कथा में श्रीकृष्ण के साथ बलराम, नप्पिन्नै (राधा) का वर्णन भी मिलता है। परवर्ती आलवार साहित्य में यही नप्पिनै (राधा या गोपी) दिखाई पड़ती है।
- संस्कृतियों का मिलन
चौथी-पाँचवीं शती तक आते-आते द्रविड़ और वैदिक संस्कृतियों का सम्मिश्रण हो चुका था। तमिल देवता तिरुमाल का विष्णु में और शिव का रुद्र में ऐक्य स्थापित हो चुका था। पुराणों में तमिल देवता मुरुगन (कार्तिकेय) प्रसिद्ध हो चुके थे। वेद और वेदांगों में निष्णात ब्राह्मण उत्तर से दक्षिण आकर वेद और उपनिषद के अध्ययन और यज्ञ आदि कर्म में लगे रहते थे। कांचीपुरम की घटिका बहुत प्रसिद्ध थी, जहाँ मात्र वेद और संस्कृत अध्ययन के लिए ब्राह्मण आते थे, उन्हें पुरोहित या तमिल में मरैयवर कहा जाता था।
पाँचवी-छठी शताब्दियों में तमिल प्रदेश की धार्मिक स्थिति अनाचार और अनैतिकता से पूर्ण थी। राजाश्रय के कारण बौद्धों और जैनों ने शैव और वैष्णव धर्मों पर प्रहार करना प्रारम्भ कर दिया था। आरम्भ में जैन व बौद्ध धर्म के उदात्त भावों का तमिल जनता ने स्वागत किया। आगे चलकर धर्म में ब्रह्मचर्य और भिक्षावृत्ति पर जोर देने के कारण परम्परा से गृहस्थ जीवन के उच्च आदर्शों का पालन करने वाली तमिल जनता को बौद्धों का यह अमर्यादित भिक्षु जीवन समझ में नहीं आया। व्यभिचार, मांस-मदिरा आदि का सेवन भी तमिल समाज में पसन्द नहीं किया गया। (संस्कृति के चार अध्याय, पृष्ठ147,रामधारी सिंह दिनकर) इन धर्मों ने राजाश्रय का दुरुपयोग करना शुरू किया। तमिल जनता एक ओर वैदिक ब्राह्मणों के कठोर जातिवाद के चंगुल में फंसी थी, तो दूसरी ओर बौद्ध तथा जैन धर्मावलम्बियों के प्रचार का असर भी पड़ रहा था। ये दोनों धर्म जातिवाद से काफी हद तक मुक्त थे। युग की इसी माँग की पूर्ति हेतु छठी से लेकर चौदहवीं शती तक शैव संतों और वैष्णव सन्तों द्वारा प्रवर्तित भक्ति मार्ग सामने आया क्योंकि उसमें न तो जातिगत भेदभाव था, न तो ब्रह्मचर्य की शर्त। प्रारम्भ में भक्ति आन्दोलन के मोर्चे पर शैव सन्त ही प्रमुख थे, फिर बाद में वैष्णव भक्त भी उनके साथ मिल गए।
इस भक्ति आन्दोलन और भक्ति साहित्य को आगे बढ़ाने का पूरा श्रेय शैव नायन्मार, अप्पर, सम्बन्धर, सुन्दरर, वैष्णव सन्तों को जाता है। जैनों द्वारा संन्यास पर जोर देने के कारण, समाज की स्त्रियाँ भक्ति क्षेत्र में उपेक्षित थीं, नायन्मारों में से एकमात्र स्त्री कारैक्काल अम्मैयार, और वैष्णव आलवारों में से आण्डाल ने अपने जन सुलभ भक्ति-मार्ग में दिव्य रचनाएँ कर स्त्रियों को भक्ति की उत्कृष्ट अधिकारिणी के रुप में मान्यता दिलाई। इस प्रकार सन् 300 से सन् 600 तक प्रचलित भक्ति भावना शैव मतों एवं सातवीं शती तक पहुँचते-पहुँचते वैष्णव सन्त आलवारों द्वारा दक्षिण के सभी प्रान्तों में फैलने लगा ।
- शैव साहित्य
इनके गीतों को देवारम या तेवारम कहते हैं। उनकी रचनाओं को तिरुमुरै कहते हैं। प्रथम तीन तिरुमुरैकल के कवि तिरुज्ञान सम्बन्धर (सातवीं शती) है, चतुर्थ-पंचम-षष्ठ तिरुमुरैकल के कवि तिरुन्नावुकरसर या अप्पर (सातवीं शती) है। अप्पर के अनुसार ईश्वर घट-घट व्यापी है, उनकी कृपा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं (देवारम, 7175)। स्वतन्त्र विचार से उन्होंने जातिगत भेदभाव के खिलाफ गीतों की रचना की (देवारम 5832)।
सप्तम तिरुमुरैकल के कवि सुन्दर मूर्ति (आठवीं शती) है। उनके गीतों में प्रमुख है पोण्णर मेनियने शीर्षक गीत, जो आज भी तमिल जनमानस में सर्वोपरि है। वे शिवजी के दिव्य मंगलमय रुप वर्णन करने में सिद्धहस्त हैं।
अष्टम तिरुमुरैकल के अन्तर्गत आठवीं शती के शैव भक्त कवि श्री माणिक्कवाचकर की रचना तिरुवाचकम एवं तिरुक्कोवैयार के भक्ति गीत आते हैं। कण-कण में उस ईश्वर का दर्शन करने वाले शैव भक्त कवि माणिक्कवाचकर की रचना तिरुवाचकम तमिल साहित्य का मुकुटमणि काव्य है। ईसाई धर्मोपदर्शक जी. यू. पोप ने तिरुवाचकम का अनुवाद भी किया था।
नवम् तिरुमुरैकल में निम्नलिखित शैव सन्तों के गीतों का संग्रह है –
- तिरुमालिगै तेवर (9-10वीं शती)
- सेन्दनार (9-10वीं शती)
- करुवूरदेवर (9-10वीं शती)
- पून्दुरुत्ति नम्बिकाडनम्बि (11वीं शती)
- कण्ठरादित्तर (10वीं शती)
- वेंडाट्टिगल (काल-निर्धारण नहीं किया गया)
- तिरुवालिय मुदणार (10वीं शती)
- पुरुषोतम नम्बी (वैष्णव होकर शैव बने)
- सेदिरायर
दशम तिरुमुरैकल छठी शती, के अन्तर्गत आने वाली रचना तिरुमन्दिरम है, जिसके कवि श्री तिरुमूलर हैं। छठी शती के कवि तिरुमूलर के सम्बन्ध में अनेक किवंदन्तियाँ, दन्त कथाएँ प्रचलित हैं, इनके 3071 गीत उपलब्ध हैं। पवित्र आत्मा से प्रेमपूर्ण भक्ति में भगवद्-दर्शन करने वाले कवि तिरुमूलर थे। इस महान कवि के गीत कबीरदास के दोहों से अधिक साम्य रखते हैं। कबीर और तिरुमूलर पर हिन्दी में तुलनात्मक शोध भी हो चुका है।
एकादश तिरुमुरैकल के अन्तर्गत आने वाले कवि शिरोमणियों में कारैक्काल अम्मैयार हैं, जो एक मात्र शैव स्त्री सन्त कवि हैं। अन्य कवियों में नक्कीरन अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, जिनकी रचना तिरुमुरुगाट्र पडै (कार्तिकेय क्षेत्र पर विरचित) अत्यन्त लोकप्रिय रचना है। इसके अंतर्गत कुल बारह कवि आते हैं |
द्वादश तिरुमुरैकल के अन्तर्गत आनेवाली उत्कृष्ट रचना पेरियपुराण है जिसका शाब्दिक अर्थ है बृहत पुराण। इसके कवि सेक्किषार हैं। बारहवीं शती में प्रसिद्धि प्राप्त यह रचना 63 शैव सन्त नायन्मारों के जीवन को प्रस्तुत करने वाला काव्य है, अन्य भारतीय भाषा का प्रभाव इस पर किंचित् भी नहीं पड़ा। (द्रष्टव्य : तमिल इलक्किया वरलारु, पृष्ठ 135)
- वैष्णव साहित्य
नालायिर दिव्यप्रबंधम् छठी से नौवीं शती तक इन आलवारों का समय माना गया था, जिनके चार सहस्त्र वैष्णव गीत (पाशुरम) नालायिर दिव्यप्रबन्धम’ के नाम से श्री नाथ मुनि द्वारा संकलित किया गया है। नालायिरम का शाब्दिक अर्थ है चार सहस्त्र।
7.1 आलवार और उनकी रचनाएँ
तमिल साहित्य के इतिहास में छठी से नौवीं शताब्दी तक का समय मुख्यतया भक्तिकाल कहा जाता है। इसी काल में प्रसिद्ध वैष्णव भक्ति के कवि आलवार रचनारत थे। आलवारों ने भगवान विष्णु की अनन्त शक्ति और उनके विविध ऐश्वर्य को भक्ति का आधार बनाया है। श्रद्धापूर्वक अपनी हीनता को प्रकट करते हुए, जीव उस परब्रह्म का दास बनने की कामना करता है। इन कवियों ने प्रेम को परमतत्त्व मानते हुए उसी को परमाराध्य माना है। इनके द्वारा भक्ति जीवन के विधायक तत्त्व के रुप में स्वीकार की गई, इसमें विष्णु के सभी रूपों को स्वीकार किया गया और सगुण साकार का आग्रह होते हुए भी सगुण और निर्गुण में समन्वयवादी दृष्टि निरन्तर बनी रही। भक्ति और लोक संग्रह का सम्बन्ध इन कवियों की चिन्तनधारा का विशेष अंग है। आलवार का शाब्दिक अर्थ है गोता लगानेवाला। भक्ति में गोता लगाने के कारण वे आलवार कहलाए गए।
आलवारों की संख्या बारह है – इनके द्वारा गाए गीतों को संकलित करने का श्रेय श्रीनाथ मुनि को जाता है।
आलवारों के भक्ति-साहित्य को दिव्य प्रबन्धम नाम से अभिहित किया जाता है। यह वैष्णव भक्ति आन्दोलन और वैष्णव भक्ति साहित्य के इतिहास में बहुआयामी भक्ति ग्रन्थ है। इन बारह आलवारों में कुछ आलवारों की रचना एवं विचार निम्नलिखित हैं –
आलवार की रचना मुदल तिरुवन्दादि में एकाश्रय ग्रहण के साथ-साथ समन्वयात्मकता भी है। यह रचना ‘अन्दादि’ शैली अर्थात अन्त्यशब्द शैली में लिखी गई।
भूदत्त आलवार की रचना इरण्डाम तिरुवन्दादि में सौ गीत संकलित हैं। भगवद्गुण, भक्ति की महिमा के साथ-साथ भागवत में वर्णित ‘नवधाभक्ति’ का भी उन्होंने पालन किया है।
पेयालवार की मूण्ड्राम तिरुवन्दादि अन्दादि शैली में लिखी गई रचना है, जिसमें अलौकिक पुरुष के रूप में श्री कृष्ण की महिमा का वर्णन किया गया है। इन गीतों में नवधा भक्ति के अन्तर्गत आनेवाली पाद-सेवन भक्ति दृष्टिगोचर होती है। उन्होंने विष्णु को श्रेष्ठ मानकर, उनके अवतार श्रीकृष्ण को सर्वव्यापी रुप में वर्णन किया है। शैव से वैष्णव बनने के बाद उन्होंने अपनी रचना में शिव से विष्णु की श्रेष्ठता दिखाई है, (पाशुर-65) भागवत में वर्णित नवधाभक्ति (पाशुर-66) के अन्तर्गत आनेवाले पाद-सेवन, नाम-स्मरण, दास्यभक्ति का चित्रण किया है। भगवान श्रीकृष्ण को सृष्टिकर्ता, आदिभगवान माना है। सर्वव्यापी भगवान विष्णु के गुणगान, विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण की श्रेष्ठता अंकित की है। पाशुरो की रचनाएँ नम्माल्वार ने की। सारे निर्गुण भक्ति सिद्धान्तों को अपनाकर, उन्हें अपने सगुणाकार भगवान अंकित किया है। नवधा भक्ति के अन्तर्गत आनेवाली वन्दना की महिमा उन्होंने खूब गाई है। हरि-हर की एकता उनकी समन्वयात्मकता का परिचायक है। दास्य भक्ति भावना भी इस रचना में कूट-कूट कर भरी हुई है।
मधुर कवि आलवार नम्मालवार के प्रमुख शिष्य थे। कण्णिननुन चिरुत्ताम्बु उनकी एक मात्र रचना है। विष्णु के गुणगान के साथ श्रीरंग क्षेत्र के विष्णु भगवान श्रीरंगनाथ की महिमा का गान किया है। आखिरी पाशुर में श्रीकृष्ण दर्शन का वर्णन है। बाकी गुरु की महिमा से सम्बन्धित पाशुर हैं।
कुलशेखर आलवार की भक्तिभावना सराहनीय है, उसमें समर्पण भाव की प्रधानता है। उनकी रचना पेरुमाल तिरुमोलि है। उन्होंने तन्मयता से भक्ति सम्बन्धी पाशुर और विष्णु के शेषसायी रुप श्रीरंगनाथ की महिमाएँ गाई। संसार की नश्वरता, भगवान की श्रेष्ठता का वर्णन अपने पदों में किया है। उनके पदों का स्पष्ट प्रभाव रसखान की कृष्णभक्ति में दृष्टिगोचर होता है।
पेरियालवार भक्त के साथ-साथ पण्डित भी हैं। इन्होंने श्री कृष्ण के वात्सल्य वर्णन में पिल्लै तमिल (शिशु तमिल) नामक एक नई भाषा-शैली का प्रयोग किया। इनकी दो रचनाएँ हैं – तिरुपल्लाण्डु और तिरुमोलि।
बाहर आलवारों में एक मात्र महिला भक्त कवि आण्डाल हैं। उन्होंने श्रीरंगम् क्षेत्र के शेषसायी भगवान श्रीरंगनाथ (विष्णु) एवं श्रीकृष्ण में अभिन्नता स्वीकार की। हर रोज वे विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के प्रति आकृष्ट होकर उनकी महिमाएँ गाती थीं। ‘आण्डाल’ अपने विल्लित्तूर को ब्रज मानकर खुद गोपी बनकर भक्ति का आस्वादन करती रहीं। मूलतः वे माधुर्योपासिका हैं। आण्डाल की कविताएँ प्रेम-पीड़िता नारी की विभिन्न भावावस्थाओं का मार्मिक चित्र है। उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रति नायक-नायिका भाव से भक्ति की। श्रीकृष्ण को अपने इष्टदेव एवं पति के रुप में स्वीकार कर उनके प्रति आत्मीय प्रेम प्रकट किया। उनकी दो रचनाएँ हैं तिरुप्पावै, नाच्चियार तिरुमोलि।
- दक्षिण के भक्ति मार्ग व भक्ति सिद्धान्त की विशेषताएँ
दक्षिण के भक्तों ने भक्ति को जनसुलभ बनाने के लिए कुछ पद्धतियाँ अपनाकर अपने भक्ति-मार्ग को प्रशस्त किया। उनके भक्ति-मार्ग व भक्ति सिद्धान्त की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- भक्ति के लिए समाज में व्याप्त जाति, वर्ण, गोत्र, स्त्री, पुरुष का भेद-भाव अमान्य है।
- परम्परागत रीतियों से प्रचलित वर्णाश्रम धर्म को हटाकर, उपेक्षित, तिरस्कृत, निम्न जाति के लोगों को भगवद्भक्ति के प्रचार-प्रसार में शामिल कर सहभाव फैलाया।
- शैव सन्त योगी तिरुमूलर की रचना तिरुमन्दिरम मे उल्लिखित कर-सेवा पंचाक्षर, एक ही देवता, एक ही कुल की भक्ति के लिए आवश्यक माना। तीव्र पिपासा, निर्मल जीवन, पूजा, अर्चना आदि का प्रभाव आम जनता पर पड़ा।
- तिरुमूलर सम्पूर्ण विश्व को प्रेममय मानकर अपने सिद्धान्तों में प्रेम ही शिव, शिव ही प्रेममय स्वीकारा। भक्त के सन्दर्भ में उनका कथन है कि जिस प्रकार बछड़ा अपनी माता गैया की खोज में जाता है उसी प्रकार भक्त भगवान की खोज में जाता है।
- अभिजात्य वर्ग में प्रचलित संस्कृत भाषा को छोड़कर, जनता की बोली बानी में, यानी लोक-भाषाओं में आध्यात्मिक साहित्य का निर्माण किया।
- नैतिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए पारिवारिक रिश्तों को पवित्र दृष्टि से देखा गया, और नारी के विकास के नए प्रयत्न शुरु हुए। अपने आराध्य प्रियतम भगवान का लौकिक रिश्तों द्वारा वर्णन कर भक्ति मार्ग को जन-सुलभ बनाया।
- नृत्य, संगीत, भजन, वाद्य यन्त्र आदि कलात्मक अभिव्यक्ति के उपकरणों का प्रयोग पूरे भारत के मन्दिरों, देवालयों में भजन के लिए किया गया था, जो नायनमार और आलवारों की भक्ति की देन थी।
- तमिल प्रदेश के धार्मिक व भक्ति आन्दोलनों के परिणामस्वरुप दक्षिण के आचार्य जैसे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के शिष्यों ने देश भर में भक्ति के प्रसार-प्रचार करते हुए अनेक धार्मिक संस्थाओं और मठों की स्थापना की। हिन्दी के भक्ति साहित्य में भी यही प्रवृत्ति देखने को मिलती है।
- दक्षिण के कई भक्तों व आचार्यों ने उत्तर भारत में, विशेषकर वाराणसी में, अपने धार्मिक पीठ की स्थापना कर भारत भर में आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक एकात्मक एवं उन्नति का सफल प्रयास किया। हिन्दी भक्ति आन्दोलन के प्रवर्तक रामानन्द ने भी इसी का अनुकरण किया।
- तमिल प्रान्त के नायन्मार शैव सन्त और आलवार वैष्णव सन्त दोनों ने जनभाषा तमिल में जो गीत मन्दिरों में, जनता के बीच गाए थे, उन गीतों ने तमिल संगीत परम्परा को आगे बढ़ाया। इसी पर आधारित अखिल भारतीय स्तर पर विभिन्न प्रदेशों में उठे भक्ति आन्दोलनों में स्थानीय भाषा, बोली को प्रमुखता देकर संस्कृत भाषा के वैदिक ग्रन्थ भगवद्गीता, रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवत्, योगशास्त्र, पुराण आदि रचनाएँ अपने-अपने प्रदेश की बोलियों में अनूदित हुईं। जन-सुलभ भाषा में सर्वप्रथम भक्ति गीतों को लाने का श्रेय मात्र नायन्मार व आलवारों को ही जाता है। इससे प्रभावित होकर उत्तर में पालि, प्राकृत अपभ्रंश बाद में अवधी, ब्रज, मैथिली आदि काव्य भाषाएँ बनकर उठने लगीं। डॉ. शेषन का कथन है कि तमिल जनमानस एवं तमिल जनता सदा से ही उत्तर भारत के प्रति उदार, सहिष्णु, ग्रहणशील तथा समन्वयमूलक रही है।
- भक्ति आन्दोलन के उन्नायक कुछ प्रमुख आचार्य
यहाँ दक्षिण में भक्ति का प्रचार और प्रसार करने वाले कुछ आचार्यों के बारे में बताया गया है.
- आदिशंकराचार्य (सन् 788-820)
अद्वैतवाद के प्रवर्तक एवं दक्षिण स्मार्त ब्राह्मण के गुरुपीठाधीश आदिशंकराचार्य का जन्म केरल के कालड़ी प्रान्त में हुआ था। बचपन में ही संन्यास ग्रहण करके भारत के चारो कोणों पर मठों की स्थापना की। उत्तर में जोशीमठ, दक्षिण में शृंगेरी, पूर्व में गोवर्धन मठ, पश्चिम में शारदा मठ की स्थापना कर बौद्ध मत के प्रभाव को सीमित करने और ब्राह्मण धर्म को पुनः स्थापित करने का काम किया. एक ओर उन्होंने सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ किया, तो दूसरी ओर जनसामान्य में प्रचलित मूर्ति पूजा का औचित्य सिद्ध कर यह दिखाया कि परमात्मा सगुण व निर्गुण दोनों स्वरुप का है। वैसे शंकराचार्य का मानना था कि सत्य केवल ब्रह्म है शेष असत्य है जिसे माया के वशीभूत होकर हम सत्य समझ लेते हैं. शंकर ने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकर परब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन कर निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना, जिसका उल्लेख तुलसी एवं सूर के साहित्य में स्पष्ट रुप से देखने को मिलता है। शिवानन्दलहरी, सौन्दर्यलहरी, भजगोविन्दम, भवानी अष्टकम्, विवेक चूड़ामणि, पंचायुध स्तोत्र (विष्णु पर), निर्वाण शतकम, साधना पंचकम, सिद्धान्त तत्त्व बिन्दू, देवी पंचरत्न स्तोत्र इसके उदाहरण हैं। उन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद पर भाष्य लिखा था।
- रामानुजाचार्य (सन् 1016-1137)
रामानुजाचार्य का जन्म चेन्नै के निकट तेरुकुन्दर नामक गाँव में हुआ। उन्होंने अपने ग्रन्थ न्याय-तत्त्व में शंकराचार्य के अद्वैतवाद का खण्डन करते हुए एक विशिष्ट अद्वैत “विशिष्टाद्वैत” की स्थापना कर अपने सिद्धान्तों को आगे बढ़ाया। इस मत के अनुसार ब्रह्म, जीव और जगत तीनों उसी तरह सत्य है जैसे शरीर और उसके विभिन्न अंग। आलवारों के बाद रामानुजाचार्य की भक्ति भावना को प्रशस्ति मिली। उन्होंने रामभक्ति को सर्वांगपूर्ण उपासना योग्य बनाया और शंकर के मायावाद का तर्कपूर्ण खण्डन किया। रामानुजाचार्य आलवारों के पाशुरों को गाकर तन्मय होते थे। विष्णु के राम व कृष्णावतार को अर्चावतार की संज्ञा देकर नाम महिमा, कीर्तन, अर्चन, शरणागति, गुरु महिमा, सत्सांगत्य की महिमा, शरीर की नश्वरता, विष्णु के अवतारों में से एक श्रीकृष्ण की विविध लीलाओं का वर्णन मधुर भाव, राधा भाव, नवधा भक्ति की स्वीकृति आदि को बड़ी तन्मयता से प्रचार व प्रसार करते थे।
रामानुज के भक्ति मार्ग का प्रभाव कर्नाटक, आन्ध्र राज्यों पर भी पड़ा। रामानुज के समय में शैव एवं वैष्णवों के बीच विद्वेषाग्नि फैली हुई थी। श्रीरंगम मन्दिर के मठाधीश होने के नाते रामानुज प्रचार-प्रसार तीव्र गति से करते थे। उस समय शैव मतावलम्बी चोल राजा कुलोत्तुंग प्रथम वैष्णवों पर अत्याचार करता था। परिणामस्वरुप रामानुजाचार्य को श्रीरंगम छोड़कर कर्नाटक जाना पड़ा। रामानुजाचार्य ने अपने प्रपौत्र श्री यमुनाचार्य के ग्रन्थों में वैष्णव भक्ति तथा पंचरात्रों के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करते हुए भागवत धर्म की स्थापना करने में पूर्ण सहयोग दिया। उनके भक्ति मार्ग को शास्त्र सम्मत, सुगठित साधना एवं वैष्णव भक्ति आन्दोलन को पूर्ण रुप देने का पूरा श्रेय रामानन्द को है। वेदार्थ संग्रह, श्री भाष्य और गीता भाष्य उस दौर की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। भक्ति को दक्षिण से उत्तर लाने का पूरा श्रेय रामानुज एवं रामानन्द को जाता है। उनके सिद्धान्तों का प्रचार करके रामानन्द ने उत्तर में भक्ति आन्दोलन की भव्य पृष्ठभूमि तैयार की। वे पदार्थ त्रितयम् की स्थिति में विश्वास रखते थे, जिसमें परब्रह्म विष्णु, चित् जीव और अचित दृश्यम सम्मिलित है वह अविनाशी हैं। परब्रह्म स्वतन्त्र है। चित् और अचित् परब्रह्म पर निर्भर है।
- मध्वाचार्य (सन् 1257)
मध्वाचार्य या आनन्दतीर्थ का जन्म मंगलोर(कर्नाटक) के पास उडपि में हुआ। वे द्वैतवाद के प्रतिपादक थे। उन्होंने अपने सिद्धान्त श्रीभागवत पुराण के आधार पर प्रतिपादित किया। वेदांत सूत्र और अनुभाष्य सिद्धान्त उनकी रचनाएँ हैं। उनके अनुसार विष्णु या उनके अवतार श्रीकृष्ण ही एक मात्र अविनाश परब्रह्म हैं। ब्रह्म स्वतन्त्र है, जीव परतन्त्र। दोनों में स्वामी एवं सेवक का सम्बन्ध है। परब्रह्म कृष्ण की प्राप्ति के लिए साधन है, एक मात्र उनके प्रति असीम भक्ति रखने वाली राधा इस सम्प्रदाय में मान्य नहीं है।
- विष्णु स्वामी शुद्धाद्वैत (सन् 1320)
विष्णु स्वामी मध्वाचार्य के अनुयायी हैं, उन्होंने शुद्धाद्वैत की स्थापना की, जो आगे चलकर वल्लभाचार्य के नेतृत्व में पुष्टिमार्ग बनकर हिन्दी भक्ति साहित्य के मार्ग को प्रशस्त किया। विष्णुस्वामी ने श्रीकृष्ण को प्रियतम आराध्य मानकर राधा को भी भक्ति में प्रधान स्थान दिया। उन्होंने गीता, वेदान्त सूत्र और भागवत पुराण पर भाष्य लिखे।
- निम्बार्काचार्य द्वैताद्वैतवाद
बारहवीं शती में आंधप्रदेश में उनका जन्म हुआ, वे तेलुगु भाषी वैष्णव सन्त थे। भ्रमण करते करते वृन्दावन में बस गए। वे राधाकृष्ण के उपासक होने के साथ-साथ रामानुज से विशेष प्रभावित थे। श्रीकृष्ण के साथ राधा की महानता इस सम्प्रदाय की विशेषता है, गीत गोविन्द के कवि भक्त जयदेव उनके शिष्य थे।
- श्री रामानन्द (संवत 1356)
आलवारों द्वारा प्रचलित रामोपासना से प्रभावित होकर उत्तर भारत में राम भक्ति का प्रसार-प्रचार सर्वप्रथम उन्होंने ही किया। रामानन्द ने शास्त्रों के आधार पर जाति बन्धन को व्यर्थ सिद्ध किया। इन्होंने भक्ति और ज्ञान प्राप्ति के लिए सामाजिक बन्धन को तुच्छ मानकर मध्य युग में उदारवादी विचारधारा से हिन्दू मुस्लिम को पास-पास लाने का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया।
रामानन्द ने श्री सम्प्रदाय के नियमानुसार भक्ति को जाति बन्धन से मुक्त कर उसे जन-सुलभ बनाया। सभी जाति के भक्त उनके शिष्य थे। उन्होंने विष्णु के स्थान पर राम की भक्ति पर जोर दिया। राम एवं सीता की मर्यादापूर्ण भक्ति का प्रचार कर उत्तर भारत में वैष्णव भक्ति की नींव डाली। उनके दो प्रमुख शिष्य हिन्दी भक्ति साहित्य के ध्वजस्तंभ बने – एक तो निर्गुण शाखा के प्रमुख कवि कबीर दास, दूसरे रामभक्त कवि गोस्वामी तुलसी दास। (रामानन्द के शिष्य नरहरिदास थे जो गोस्वामी तुलसी के गुरु थे)। एक ही गुरु ने दो भिन्न शाखा के श्रेष्ठ भक्ति कवियों का मार्गदर्शन किया। कुछ विद्वानों का मत है कि कबीर रामानंद के शिष्य नहीं थे.
रामानंद ने तमिल के नायान्मार एवं आलवारों की तरह संस्कृत की उपेक्षा कर जन-सामान्य की भाषा में उपदेश दिया। किसी ने भी उनकी कविताओं को संकलित नहीं किया। मात्र एक कविता गुरु ग्रन्थ साहिब में प्राप्त है। रामानन्द ने राम के साकार रुप को सुरक्षित रखते हुए अद्वैतवाद में चित्रित नाम महिमा को स्वीकारा। एक ओर उन्होंने रामानुजाचार्य के श्री भाष्य को अपनाया दूसरी ओर अद्वैतवाद के अध्यात्म रामायण को भी स्वीकारा।
- निष्कर्ष
हिन्दी ही नहीं, पूरे भारतीय भक्ति साहित्य के विकास में दक्षिण भारत का, खासकर तमिल प्रदेश का महत्त्वपूर्ण योगदान है। चाहे तोलकाप्पियम में वर्णित मायोन (कृष्ण का स्वरुप) हो या संगम साहित्य के अन्तर्गत कलित्रोगै में कृष्ण की बाल-लीला का वर्णन, इन कथाओं ने हिन्दी भक्ति काव्य को एक कथात्मक आधार प्रदान किया। निर्गुण तथा सगुण भक्ति का सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक स्वरुप भी हमें यहाँ पूर्ववर्ती रुप में दिखाई देता है। शैव एवं वैष्णव संप्रदायों ने अपने-अपने अनुसार ईश्वरीय व्याख्या प्रस्तुत की। भक्ति के प्रचार एवं प्रसार में लोकभाषाओं की प्रमुखता ने और भी लोकप्रियता प्रदान की। तमिल भक्ति साहित्य ने, हिन्दी भक्ति साहित्य की भावभूमि तैयार की, एवं उसे जनसुलभ बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
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अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
- हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
- भक्ति काव्य का समाजशास्त्र, प्रेमशंकर,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद
- तेलुगु साहित्य समीक्षा, डॉ. जी. नागया, नव्य प्रकाशन, तिरुपति
- हिन्दी कृष्ण भक्ति काव्य एवं आलवार काव्य में भक्ति : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन, डॉ. लक्ष्मी अय्यर, ति.ति.दे. प्रकाशन, तिरुपति
- भारतीय भक्ति साहित्य, डॉ. राजमन बोरा, वाणी प्रकाशन
वेब लिंक्स
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