4 भक्ति आन्दोलन और लोकजागरण

रीता दुबे and देवशंकर नवीन

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  1. पाठ का उद्देश्य

    इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • लोक की परिभाषा जान सकेंगे।
  • भक्ति आन्दोलन की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थिति की जानकारी ले सकेंगे।
  • लोकजागरण के परिप्रेक्ष्य में भक्ति आन्दोलन के उदय को जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

भक्ति आन्दोलन मध्ययुग की सबसे युगान्तरकारी घटना है। इस घटना ने परम्परा से चले आ रहे जन जीवन में एक विक्षोभ उत्पन्न कर दिया। जिसके पीछे ग्यारहवीं सदी से प्रारम्भ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन मुख्य कारण रहा। भक्ति आन्दोलन को मूलतःउच्‍च वर्गों तथा ऊँची कही जाने वाली जातियों के खिलाफ निम्‍न वर्गों तथा जातियों के विद्रोह के रूप में देखा गया है। सगुण भक्ति की तुलना में निर्गुण भक्ति धारा के कवियों में जाति, वर्ग आधारित भेदभाव के कारण सामान्य जन पर होने वाले अत्याचारों के प्रति विद्रोह का स्वर अत्यधिक तीव्र है। समाज में स्‍त्रि‍‍‍यों की स्थिति में बदलाव की माँग करती मीरां और अन्य स्‍त्री कवयि‍त्रियाँ तथा सूरदास की गोपियाँ और जातीय भाषाओं के गठन की प्रक्रिया का आरम्भ भक्ति आन्दोलन के लोक जागरण का ही सूचक है।

  1. लोक की परिभाषा

भक्ति आन्दोलन और लोकजागरण विषय पर बात शुरू करने से पहले ‘लोक’ की अवधारणा को जान लेना अति आवश्यक है। ‘लोक’ शब्द अनेकार्थी और बहुआयामी है। लोक को अंग्रेजी folk का पर्यायवाची समझा जाता है। सामान्य व्यवहार में लोकगीत, लोककथा, लोककला आदि के सन्दर्भ में लोक का व्यवहार होता है। सामान्य रूप से लोक को परिनिष्ठित और शिष्ट का विलोम समझा जाता है। फोकलोर में ‘फोक’ का अर्थ ‘असंस्कृत लोग’ है और दूसरा शब्द ‘लोर’ एंग्लोसैक्सन लर (lar) शब्द से निकला है, जिसका अर्थ है ‘सीखा गया’ ज्ञान। विद्वानों ने अपने–अपने अनुसार लोक शब्द को परिभाषित किया है। कैलिफोर्निया के प्रोफ़ेसर एलेन डण्डेस ने लोक को परिभाषित करते हुए कहा है कि “लोक शब्द मनुष्य के किसी भी ऐसे समूह का द्योतक हो सकता है, जिसमें समानता का कम से कम कोई एक आधार हो। वह समान आधार उसका कोई एक व्यवसाय हो सकता है, उसकी कोई एक भाषा हो सकती है, उसका कोई एक धर्म हो सकता है, किन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उस समूह की कुछ अपनी निजी परम्पराएँ हो। समूह शब्द से प्राय: एक से अधिक व्यक्तियों का बोध होता है। ऐसे समूह में मनुष्यों का एक दूसरे से परिचित होना उतना आवश्यक नहीं है, जितना अपनी उन परम्पराओं से परिचित होना, जो उस समूह को एकता के सूत्र में बाँधे रखती है।” लोक और परम्परा के सम्बन्ध को डॉ. सत्येन्द्र रेखांकित करते हुए कहते हैं– “लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है, जो आभिजात्य संस्कार, शास्‍त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित है।” हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार “लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है, बल्कि नगरों और गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है, ये लोग नगर में परिष्कृत रुचि सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं।”

भक्ति आन्दोलन उत्तर भारत की महान सांस्कृतिक घटना थी। जिसके मूल में अगर हजारीप्रसाद द्विवेदी की मानें तो लोक और शास्त्र का द्वन्द्व था। उसकी शक्ति और ऊर्जा का मुख्य स्रोत सदियों से दमित जनता ही थी। भक्ति आन्दोलन इन्हीं सामान्य जन का आन्दोलन था, जिसका पूर्वोल्लेख हो चुका है।

  1. भक्ति आन्दोलन की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिस्थिति

भक्ति आन्दोलन के विकास में बारहवीं सदी से आरम्भ राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। तुर्कों के आक्रमण के फलस्वरूप भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिस्थितियों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को रेखांकित किया गया। सूत कातने के लिए चरखे का व्यापक प्रयोग, सिंचाई में रहट का प्रयोग, जिसके कारण नदियों के किनारे बसे राज्यों को भरपूर मात्रा में पानी मिला और कपास जैसे व्यावसायिक फसलों के साथ अन्य फसलों की पैदावार मेंभी वृद्धि हुई। करघा के प्रयोग से बुनकर और वस्त्र उद्योग में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। कपड़े की रंगाई और छपाई की तकनीकी में भी व्यापक परिवर्तन हुआ। मध्य एशियाई देशों के साथ सम्पर्क के कारण भारत के व्यापार का भी प्रसार हुआ। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफ़ान हबीब तेरहवीं-चौदहवीं सदी में हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन को रेखांकित करते हुए लिखते हैं– “भवन निर्माण में तकनीकी परिवर्तन तथा कागज के निर्माण की तकनीकी के अतिरिक्त, जिनके बारे में हमें पहले से ही जानकारी थी, अब हम यह जानते हैं कि चरखा, करघे के पैडल, कलई करना, मद्य के आसवन की अधिक दक्षतापूर्ण प्रक्रिया आदि कुछ ऐसी तकनीकें थीं, जिन्हें सुल्तानों की सेनाओं के माध्यम से ग्रहण किया गया तथा उनका प्रसार किया गया।…साथ ही राजस्व-वसूली का अधिक सक्षम तथा सफल तन्त्र जोकि अलाउद्दीन के काल तक भली-भाँति स्थापित हो चुका था, के द्वारा दस्तकारी वस्तुओं की शहरी माँग में विस्तार हुआ। व्यापार में उल्लेखनीय विस्तार हुआ, जैसा कि सल्तनतकाल के दौरान सोने और चाँदी के सिक्‍कों की ढलाई में हुई वृद्धि से प्रमाणित होता है। शहरों का पर्याप्त विस्तार हुआ जोकि पुरातात्त्विक अवशेषों की खुदाई से प्रमाणित है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रौद्यौगिकीय फैलाव तथा नई माँग के कारण न केवल नए व्यवसायों के लिए जमीन तैयार हुई, बल्कि पुराने व्यसायों में नई प्रविष्टियों के क्षेत्र का विस्तार भी हुआ। …तथापि दास–प्रथा, धर्मान्तरण की प्रक्रिया और नएव्यवसायों ने एक प्रकार की अस्थिरता पैदा की, जिसके कारण उन समूहों ने जो नए आर्थिक और सामाजिक दबावों से प्रभावित हुए थे, धर्म और जाति के पुराने बन्धनों पर प्रश्‍न चिन्ह लगाए।” समाज में इस व्यापक परिवर्तन ने जाति-पाँति और धर्मों के भेद–भावआधारित सामाजिक विभाजन की भावना पर कठोर आघात किया। सामन्तवाद के ह्रास और व्यापारिक पूँजीवाद के विकास ने सामान्य जनता और कारीगर को आर्थिक निर्भरता प्रदान की, जिसके फलस्वरूप सामन्ती शोषणकारी व्यवस्था के विरुद्ध भी विद्रोह की आवाज मुखर हुई। समाज में व्यापक परिवर्तन के फलस्वरूप साहित्य और संस्कृति प्रभावित होती है।

  1. भक्ति आन्दोलन और लोकजागरण

इस आन्दोलन ने पहली बार देश के प्रत्येक भू–भाग के निवासियों को अपनी ओर आकर्षित किया। इसने आन्दोलन ने उत्तर और दक्षिण की दूरी मिटाकर एकत्व की ऐसी लहर फैलाई, जिसमें सभी ने एक दूसरे से प्रेरणा ली और प्रेरणा दी। सन्तों ने न केवल सामाजिक अत्याचारों का विरोध किया, बल्कि प्रशासनिक स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम जनमानस को जाग्रत किया। दादू कहते हैं– “दादू सो मोमिन मोम दिल होई साईं कुं पहिचाने सोई।।जोर न करे हराम न खाई सो मोमिन भिस्ति में जाई (दादू दयाल ग्रंथावली, पृष्ठ, 151)।।” ऐसा व्यक्ति योग्य शासक हो सकता है, जो जोर न करता हो और हराम का न खाता हो। इन सन्तों में लगभग सभी नेता समाज के तथाकथित निम्‍न समझी जाने वाली जातियों से सम्बन्धित थे। कबीर जुलाहा थे, तो रैदास जाति से चमार थे। रैदास स्वयं लिखते हैं– “मेरा जात कुटवाँ ढला ढोर डोवन्ता नितहिं बनारसी आस पास” या फिर ‘ऐसी मेरी जाति विख्यात चमार’ और दादू एक बंजारा, कश्मीर की महिला सन्त लालदेद मेहतर जाति से और महाराष्ट्र के अत्यन्त प्रसिद्ध सन्त नामदेव छीपा नामक वयनजीवी जाति में पैदा हुए थे, जिनको स्वयं भी सामाजिक असमानता के दंश का शिकार होना पड़ा था। इसी असमानता का चित्रण इन सन्तों की वाणी में मिलता है। शोषण और अन्याय पर आधारित व्यवस्था का अन्ध समर्थन करने वाले धार्मिक नेताओं की कड़ी आलोचना इन सन्तों के यहाँ मिलती है तभी तो कबीर कहते हैं –

कबिरा पुजै शालिग्राम को, मन की भ्रान्ति न जाय

शीतलता सपने नहीं दिन -दिन अधिकी लाय

जप तप दीखै थोथरा, तीरथ व्रत विश्‍वा

सुआ सेंमल सेइया, ज्यों जग चला निरास

धर्म, जाति वर्ग, के नाम पर होने वाले पाखण्ड से ये भक्तिकालीन कवि परिचित थे, इसीलिए इन पाखण्डों का खुलकर विरोध करते थे। साधु, संन्यासी, काजी, मुल्ला और पण्डित किस तरह चली आ रही यथास्थितिवादी व्यवस्था को बनाए रखकर अपने स्वार्थ पूर्ति में लगे हुए हैं और साधारण जनता को भ्रमित कर रहे हैं, इसका भी उन्हें ज्ञान था। उजली धोती पहन लेने से, गले में माला पहन लेने से अर्थात बाह्य आडम्बर कर लेने से कोई पण्डित नहीं हो जाता है, वास्तव में पण्डित और ज्ञानी तो वह है जो ‘जात न पुछौ साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’ के दर्शन पर चलता है और मानता है कि ‘ऊँचे कुल न जणमियाँ, करणी ऊँच न होय यहाँ सभी मनुष्य को एक समान मानता है। जाति, धर्म के आधार पर उनमें भेद नहीं करता है। नानक व्यंग्य करते हुए कहते हैं –

धोती ऊजल तिलकु गलि माला, अन्दरि क्रोधु पड़हि नाटसाला

नाम विसारि माइआ मदु पीआ, बिनु गुरु भगति नाही सुखु थीआ

(नानक वाणी, पृष्ठ 478)

सामन्तवाद के मूलाधार वर्णव्यवस्था और धार्मिक संस्थान पर प्रहार करने के अतिरिक्त इन कवियों ने समाज में आर्थिक विषमता के आधार पर बनी व्यवस्था का भी विरोध किया। किसान, कारीगर, मजदूर और श्रमिक वर्ग की क्या स्थिति है, किस तरह खून पसीना बहाकर श्रम करने वाले श्रमिक को उत्पादन में कोई लाभ नहीं मिल रहा है और दूसरी तरफ वे लोग हैं, जो इनके द्वारा कमाए गए धन का संचय अपने लिए कर रहे हैं –

निर्धन आदर कोई न देईलाख जतन करै ओहु चित्त न धरेई

                        जो निर्धन सरधन कै जाई आगै बैठा पीठ फिराई।।

आर्थिक विषमता के इस दंश से तुलसी जैसे रचनाकार भी परिचित हैं ‘खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी ।। कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी  सामाजिक विधान की अमानवीयता पर जिस विद्रोही मुद्रा के साथ निर्गुण भक्तिधारा के कवियों ने विद्रोह किया वैसी विद्रोही भावना रामभक्ति शाखा में नहीं मिलती है। रामानुज ने शूद्रों के लिए गुरु के समक्ष आत्मसमर्पण को मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया है। इतना ही नहीं, वह मन्दिर में ब्राह्मणों और शूद्रों के साथ बैठकर भजन और प्रार्थना करने की भी हिमायत करते हैं। वहाँ उपासना और भक्ति के क्षेत्र में सभी को समानता का दर्जा प्राप्त है, लेकिन सामजिक स्तर पर यह सामानता नहीं है, वह साथ बैठकर भजन कर सकते हैं लेकिन भोजन नहीं। सन्तों ने धर्म के साथ–साथ सामाजिक धरातल पर भी भेदभावपूर्ण व्यवस्था का ओजस्वी और बेधक वाणी में विरोध किया है। अपने गुरु रामानुज की ही तरह रामानन्द भी उपासना के क्षेत्र में किसी भी तरह के लौकिक प्रतिबन्ध को मानने के विरोधी थे इसीलिए धन्‍ना, सेना, पीपा, कबीर, पद्मावती और सुरसरी जैसे हाशिए के लोगों को भी उन्होंने अपना शिष्य बनाया। सामाजिक भेद-भाव से त्रस्त, सदियों से अपमानित, आहत स्‍त्रि‍‍यों को भी उन्होंने ज्ञान का अधिकारी माना। इस दृष्टि से यह एक क्रान्तिकारी विचारधारा थी।

सामन्ती व्यवस्था जहाँ भी प्रभावी रूप में होती है जाति–पाँति के साथ स्‍त्री पुरुष के बीच का भेद भी अनिवार्य तत्त्व है। भक्ति आन्दोलन के विषय में डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं– “भक्ति आन्दोलन किसी एक वर्ग का आन्दोलन नहीं था, उसमें किसान, शिल्पकार, व्यापारी आदि सभी शामिल थे। वास्तव में भक्ति आन्दोलन सामन्ती व्यवस्था से पीड़ित और उससे मुक्ति के लिए छटपटाते संघर्षशील सभी वर्गों का व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन था। लेकिन उसमें मुख्य भूमिका शिल्पकारों और किसानों की थी, इसलिए वह जनसंस्कृति के उत्थान का आन्दोलन बन सका (रामविलास शर्मा, निराला की साहित्य साधना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 24)।” यह एक अजीब विडम्बना थी कि समाज के ऊँच–नीच के भेदभाव की तीखी आलोचना करने वाले निर्गुणवादी कवि, नारी के प्रति अपने सामन्तवादी पितृसत्तात्मक सोच से ही संचालित हो रहे थे। मनुष्य–मनुष्य के बीच भेदभाव समाज के लिए कितना बड़ा नासूर है, दुनिया को यह बताने वाले कवियों को नारी के दोयम दर्जे से कोई दुःख नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी कवियों की यही स्थिति थी। सूरदास केवल कृष्ण की भक्ति ही नहीं कर रहे थे बल्कि सदियों से अपनी स्वतन्त्रता और मुक्ति के लिए तड़पती नारी के अन्तर्मन की भावना को वाणी भी दे रहे थे। वहाँ वह माया या कामिनी नहीं है, जीती जागती एक स्‍त्री है। सूरदास ने मानसिक मुक्ति के लिए छटपटाती नारी की अस्मिता को अपनी कविता में साकार रूप दिया है। गोपियाँ दही बेचने के लिए घर की चारदीवारी से बाहर निकल जाती है और इसी बहाने अपने प्रिय के साथ रात भर महारास रचाती हैं, जो एक यूटोपिया लोक का निर्माण करता है, पर उस समाज में यह स्वतन्त्रता भी महत्त्वपूर्ण है। इसके बरक्स मीरां जैसे साक्षात विद्रोही भक्त भी हैं।

मीरां का जीवन और उनकी कविता दोनों ही सामन्तवादी समाज के सामने एक चुनौती पेश करते हैं। उनके अस्वीकार का यह साहस कदम–कदम पर उनके जीवन और कविता में दिखता है। कृष्ण को खुले रूप से अपना पति स्वीकार करना, पारम्परिक पर्दा ठुकराकर साधु संगति करना, इकतारा बजाकर कृष्ण के पद गाना, मीरां के ये सभी कृत्य सामन्ती समाज के नियमों के खिलाफ थे। बार–बार दबाव डालने पर उन्होंने स्पष्ट कर दिया ‘बरजी मैं काहू की नाहिं रहू इतना ही नहीं म्यारा री गिरधर गोपाल दूसरा ण कोई’ मीरां की कविता स्‍त्री के दर्द, पीड़ा और शोषण की कविता ही नहीं है, बल्कि स्‍त्री जाति की इच्छा, आकांक्षाओं और आत्मविश्‍वास की अभिव्यक्ति भी है–

मैं तो सावरे के रंग राची

साजि सिंगार, बाँधि पग घुँघरू, लोकलाज तजि नाची

गई कुमति, लई साध की संगत, भगत रूप भई साँची

गई गाइ हरि के गुन निसिदिन, काल ब्याल सो बाँची

कण बिन सब जग खारो लागव, और बात सब काची

मीरा श्री गिरधरन लाल सू, भगत रसीली जाची

(सन्त मीराबाई और उनकी पदावली, पृष्ठ 70)

मीरां के साथ–साथ उमा, सहजोबाई, मुक्ताबाई जैसे अनेक नाम हैं सहजोबाई जानती हैं कि प्रेम करना हर बन्धन से आजादी का पहला लक्षण है।

सूफी प्रेमाख्यानकों के रचनाकारों ने सामन्तवादी व्यवस्था को दुहरी चुनौती दी, एक तरफ तो उन्होंने हिन्दू घरों की कहानियाँ जन भाषा में प्रस्तुत की। दूसरा लौकिक और अलौकिक धरातल पर विचरण करने वाली इन कथाओं की स्‍त्री पात्रों ने चाहे वो चन्दायन की चन्दा हो, पदमावत  की पद्मावती या फिर ‘मधुमालती’ की मधुमालती, सबने पितृसत्ता के समक्ष कई प्रश्‍न खड़े किए हैं। इनके रचनाकारों ने अपने स्‍त्री पात्रों को ऐसी शक्ति दी है जिससे वो समाज के बने बनाए नियमों के विरुद्ध चलने का साहस कर सकें।

भक्ति आन्दोलन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसका जन भाषा में रचा जाना है, इसीलिए साधारण जनता इसके साथ अपना तादात्म्य जोड़ पाती है। वास्तव में यह कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं थीं, जिसके कारण लोकभाषा अस्तित्व में आई। यह एक लम्बी प्रक्रिया थी, देशी भाषाओं को अपने प्रभावकारी विकास के लिए कई महत्त्वपूर्ण चरणों से गुजरना पड़ा। देशी भाषाओं के विकास से पहले संस्कृत आभिजात्य वर्ग की भाषा थी और पाली, प्राकृत का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका था और उनका स्थान अपभ्रंश के विभिन्न रूपों ने ले लिया था। अपभ्रंश के ही इन विभिन्न रूपों से जन भाषाओं का विकास हुआ। जन भाषाओं के विकास ने भाषा को आभिजात्यवादी संस्कार से मुक्त किया और वंचित जनता से निकले कवियों ने इन जनभाषाओं में कविता करने का साहस किया, जिसे सामान्य जनता भी समझ सके। सूफियों के भारत में प्रसिद्ध होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण सूफियों द्वारा सामान्य जनता की भाषा में अपने दर्शन की प्रस्तुति भी थी। देशी भाषाओं का विकास एक नए युग के आरम्भ का संकेत था।

भक्ति काव्य ने सदियों से दलित, शोषित और पीड़ित जनता की महत्त्वाकांक्षाओं को अभिव्यक्ति दी। इतना ही नहीं सामन्ती व्यवस्था के विघटन के फलस्वरूप जिन नए काव्यरूपों का विकास हुआ, वे लोकजीवन से ही सम्बद्ध थे। सामन्ती संस्कृति और उससे जुड़ी दरबारी कविता के विरुद्ध यह जनसंस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाला काव्य था। भक्त कवियों ने सामन्ती संस्कृति के विरोध के लिए ‘अनभय सत्य’ और ‘अनुभव सत्य’ का सहारा लिया और ‘तू कहता कागद की देखी, मैं कहता आँखिन की देखी’ की बात जनता के सामने रखी। जनता को जागृत करते हुए स्पष्ट शब्दों में – “कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाटी हाथ जो घर फूकै आपना चले हमारे साथ।“  का दर्शन प्रतिपादित किया। सन्तों ने साफ़ शब्दों में घोषणा की सन्तन सो कहा सीकरी सो काम’

  1. निष्कर्ष

   भक्ति–आन्दोलन की प्रगतिशील भूमिका को रेखांकित करते हुए गजानन माधव मुक्तिबोध कहते हैं –“भक्ति आन्दोलन का जन साधारण पर जितना व्यापक प्रभाव हुआ, उतना किसी अन्य आन्दोलन का नहीं। पहली बार शूद्रों ने अपने सन्त पैदा किए। अपना साहित्य और अपने गीत सृजित किए। कबीर, रैदास, नाभा, सिम्पी, सेना, नाइ आदि महापुरुषों ने ईश्‍वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज बुलन्द की। समाज के न्यस्त स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यम्भावी था। वह हुआ (नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबन्ध, पृष्ठ 88)।” लेकिन इसके साथ ही एक महत्त्वपूर्ण सवाल उठता है कि अगर भक्ति आन्दोलन इतना ही प्रगतिशील था तो उसकी युगान्तकारी भूमिका समाप्त क्यों हुई, उसके पीछे क्या कारण थे? इस सवाल का जवाब देते हुए मुक्तिबोध स्पष्ट करते हैं कि भक्ति आन्दोलन पर उच्‍च वर्ग ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया जिसके फलस्वरूप ब्राह्मणवाद फिर से सिरमौर बन बैठा और उसने सामन्तवाद को पुनर्जीवित करने में सहायता पहुँचाई। इसका एक कारण यह भी था कि कारीगर, व्यापारी, शिल्पकार और किसान जो इस आन्दोलन के मुख्य आधार बिन्दु थे, वह अब भी पूरी तरह संगठित नहीं थे, उनका विकास पूर्ण होता, इससे पहले ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत पर अपना कब्ज़ा जमा लिया। भक्ति कालीन कविता का मूल्यांकन ऐतिहासिक आधार पर होना चाहिए, न कि तात्त्विक आधार पर और इस आधार पर अगर हम भक्तिकाल का मूल्यांकन करें तो हम पाते हैं कि सामन्ती व्यवस्था और विचारधारा के प्रति भक्ति कवियों की भूमिका क्रान्तिकारी और आने वाले समय के लिए भी महत्त्वपूर्ण रही है।

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अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,नागरी प्रचारणी सभा,वाराणसी
  2. हिन्दी साहित्य का उदभव और विकास,हजारी प्रसाद द्विवेदी,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन,नई दिल्ली
  4. कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी साहित्य कोश भाग-1,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  6. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2,धीरेन्द्र वर्मा, ज्ञानमण्डल,वाराणसी
  7. लोकवादी तुलसी, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
  8. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी,लोकभारती प्रकाशन,इलाहाबाद

वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2_%E0%A4%95%E0%A5%87_%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BF
  3. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0%A5%82%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  4. https://vimisahitya.wordpress.com/bhaktikaal_mainpage/
  5. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
  6. http://www.hindikunj.com/2010/05/itihas-shukl_30.html
  7. http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B2
  8. https://www.youtube.com/watch?v=ryQw4xpWZ1I